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आज भारत में धर्मसभाओं का आयोजन करके धार्मिक उन्माद ही फैलाया जाता है।
कालीचरण, नरसिंहानंद ,बजरंग मुनि जैसे लोग हिन्दूत्व के नाम पर अनाप-शनाप विषैले भाषण वमन करते हैं।
मस्जिदों के सामने हनुमान चालीसा को लाउडस्पीकर पर बजाया जाता है।
और तो और मस्जिदों में घुस कर जय श्री राम के नारे लगाते हुए भगवा झण्डें लगाये जाते हैं। हिजाब, या नकाब पर मुद्दे उछाले जाते हैं।
हल्दीराम भुजिया पर अरबी भाषा में गुणवत्ता युक्त वाक्य लिखने पर एक चैनल हल्ला मचाता है।
पत्रकारों को नंगा करके सोशल मीडिया पर तस्वीर डाली जाती है।
ये सब धार्मिक उन्माद और समाज के वर्गों में नफरत फैलाने के कार्य कौन कर रहा है ?
कौन इसक जिम्मेदार है ।
यद्यपि सब जानते तो हैं।
पर देश का शीर्ष नेतृत्व कोई प्रतिक्रियात्मक बयान जारी नहीं करता।
वस्तुत; यह योजनाबद्ध ही है।
इस्लामीय विचार-धारा का प्रसारण करने वाले अरेबियन, तुर्की ,और मुगलों ने जो गलती यहाँ भारत देश में बुतशिकन के रूप में मन्दिर या मूर्ति तोड़कर अथवा किसी को जबरदस्ती मुसलमान बनाकर की तो उन गलतियों का खामियाजा आज का साधारण मुसलमान भी भुगतेगा ही यह मिथक भी भ्रान्ति-मूलक है !
क्योंकि यह साधारण मुसलमान भी तो कभी अतीत में जब शूद्र और दलित के रूप में दु:ख भोग कर रहा था तब उस समय यह दलित या शूद्र शूद्रता से मुक्त होने के लिए ही तो बौद्ध, ईसाई अथवा मुसलमान बन गया था ।
यद्यपि इस्लाम के जबरदस्ती धर्मान्तरण की बात कुछ सीमा तक तो सही हो सकती है परन्तु केवल और केवल तलवार के बल पर किसी को मुसलमान बनने के लिए विवश करना पूर्णत: अतिश्योक्ति ही है।
क्यों कि इस्लाम अपने शुरुआती मायनों में भाई चारा परस्त और सबकी सलामती का हिमायती मज़हब है ।
भले ही कुछ नासमझ जाहिल इस्लाम के मर्म को नहीं जानते इस्लाम के नाम पर दंगा फसाद करते हैं
परन्तु कोई भी इस्लाम का आलिम दंगा फसाद को इस्लामी आमाल की फेहरिस्त में सामिल नहीं करता है ।
इसी प्रकार की मानवता वादी विचारधारा के प्रतिनिधित्व करने वाले उपनिषदों में भी आत्म कल्याण और आत्मा के स्वरूप की विश्वव्यापी व्याख्या का प्रतिपादन किया गया है ।
परन्तु अब इन बातों को कोई न तो जानता है न जाकर मानता ही है ।
आज हिन्दुत्व के नाम पर न तो आध्यात्मिक विचारधारा का प्रसारण होता है ।
और न कोई आत्मा के अन्वेषण की बात करता है।
आज कुछ चरित्र हीन और धर्म का मर्म न जानने वाले लोग हिन्दुत्व के ठेकेदार बन कर समाज में हिन्दू और मुसलमान के नाम पर दंगा फसाद कर रहे हैं ।
सही मायने में हिन्दू कोई धर्म नहीं अपितु भी सांस्कृतिक अवधारणा थी जो आज एक भाई-चारापरास्त एक भौगोलिक विचारधारा बन कर रह गयी है ।
क्यों कि शूद्र समझी जाने वाली जातियाँ कभी भी ब्राह्मण या क्षत्रिय के समकक्ष या बराबर पर नहीं बैठ सकती हैं ।
इनकी परछाँई भी दूषित मानी गयी है ।
परन्तु इनकी स्त्रियों के साथ मैथुन या संभोग ब्राह्मण की कामुकता की तुष्टि के निमित्त ही है नकि धर्म कार्याथ ।
मनुस्मृति अष्टम अध्याय का 281 वाँ श्लोक में
कटयां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं ... तथा
सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत् के रूप में ।२२७.८५। मत्स्य पुराण- अध्याय २२७ का श्लोक ८५ में विधान है कि शूद्र ब्राह्मण के आसन पर न बैठे
मत्स्य पुराण कहता है कि यदि शूद्र द्विजातीय अथवा द्विज के बराबर आसन पर बैठे तो उसके दोनों चूतड़ काट लिए जाएं।
यह शास्त्रीय विधान का एक नमूना है ।
सभी स्मृतियों तथा पुराणों में भी इस बात के सूत्र विद्यमान हैं।
विष्णु स्मृति में भी " एकासनोपवेशी कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः । । ५.२० । ।
के रूप में शूद्र के ब्राह्मण के समकक्ष न बैठने की हिदायत है ।
परन्तुसभी मुसलमान एक मस्जिद में अल्लाह तआला के सज्दा अथवा इबादत में एक साथ होते बैठे होते हैं ।
क्या कभी मन्दिरों में भी दलितों या शूद्र समझी जाने वाली जातियों के लिए यह समानता का विधान पारित हुआ है ।
सायद नहीं
इसी लिए दलित समाज के बहुसंख्यक लोग स्वयं को हिन्दू नहीं मानते हैं तो इसमें उनका क्या दोष है । -
दर असल भारतीय समाज में पहले जातीय स्तर पर जो ऊँच -नीच का बोलवाला था और जो रूढ़वादी गलियों में आज भी है ।
जिस कारण ही तथाकथित सीधी सरल और परिश्रमी समझी जाने वाली जातियों को शूद्र बनाकर उनके प्रति अमानवीय व्यवहार का शास्त्रीय विधान किया गया था।
उसमें भी समयानुसार आज कोई सुधार नहीं हुआ है। आज भी धर्माध्यक्ष पद पर शंकराचार्य नियुक्त होते हैं वे जाति से ब्राह्मण ही हो सकता है न कि कोई और ये तथ्य भी हिन्दू अथवा ब्राह्मण धर्म की इस विकृति का समर्थन करते हैं ।
यह बड़ा कारण था कि उन नीच समझी जाने वाली जातियों ने स्वेच्छा से धर्मान्तरण अपने स्वाभिमान और सम्मान के रक्षा की खातिर किया था।
नकि किसी तुर्की या मुगल की तलवार के डर से-
अधिकांश रूप से धर्मान्तरण बड़ा रूप इसी कारण से ही हुआ।
इस पर अभी तक कोई हिन्दू वादी संगठन विचार नहीं करता है और किसी ब्राह्मण अथवा मन्दिर के महन्त पर संकट आने पर हिन्दू धर्म पर आये संकट को सूचित मानता है।
परन्तु बड़ी तादाद में जब यादवों पर हमला या जातीय आक्रमण होता है तो दूसरी जाति का कोई व्यक्ति इनके साथ नहीं होता यहाँ तक कि कोई दलित भी यादवों का साथ नहीं देता परन्तु दलितों पर जुल्म होने पर यादव दलितों का साथ देकर जुल्म के खिलाफ आवाज उठाता है ।
अन्यथा भारत में ही ब्राह्मण वर्चस्व के द्वारा प्रादुर्भूत कमियों के निवारण हेतु क्यों बौद्ध, जैन और भागवत धर्म उत्पन्न हुए होते ?
ब्राह्मण धर्म की रूढ़िवादी मान्यताओं के विध्वंसक बनकर उभरे भागवत धर्म ने ही सर्वप्रथम स्त्री और शूद्र समझी जाने वाली जातियों के लिए ईश्वर भक्ति के द्वार खोले थे ।
और इनके समान अधिकारों की वकालत की
परिणाम स्वरूप रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने भागवत धर्म के उपासक अहीरों को ही शूद्र वर्ण में निबद्ध करने की साजिश की और स्मृति तथा परवर्ती पुराणों में अहीरों को शूद्र वर्ण में निबद्ध कर भी दिया गया।
परन्तु भागवत धर्म के अनुयायी और व्याख्याता अहीर जाति के यादवों ने वर्णव्यवस्था को नहीं माना।
जबकि ब्राह्मण धर्म नें कभी भी स्त्री और शूद्र समझी जाने वाली जातियों के लिए ईश्वर भक्ति का विधान ही पारित नहीं किया था यह तो सर्व विदित है ही ।
कालान्तर में ब्राह्मण समाज ने धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ और चिरकालीन हितों को ध्यान में रखकर ही धार्मिक विधान बनाऐ ।
इसी श्रृंखला में श्रेष्ठ जातियों को द्वेषवश इन ब्राह्मण समाज के लोगो ने हेय और शूद्र कहकर अपने बाद के धर्म शास्त्रों में वर्णित किया।
इनके द्वारा स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों के निकृष्ट बनाने के फेर में अनेक गलतियाें का सूत्रपात हुआ।
परन्तु आज तक इनके वंशज इन्हीं गलतियों को दोहरा रहे हैं । वे वर्ण को जाति मूलक स्वीकार कर रहे हैं ।
अपने पूर्वजों द्वारा की गयी गलतियों पर प्रायश्चित करना तो दूर की बात रही वे उस मूढ़ मान्यता को पुन: स्थापित करने की फिराक में हैं
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दो वेदों को जिसने कभी पढ़ा नहीं वह भी आज द्विवेदी जी हैं ।
जिन्होंने कभी तीन वेदों का पाठ नहीं किया वे त्रिपाठी अथवा त्रिवेदी बने हुए हैं ।
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चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।। (श्रीमद्भगवद्गीता )
( ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन ) चारों वर्णोंका नाम चातुर्वर्ण्य है।
सत्त्व रज तम इन तीनों गुणोंके विभागसे तथा कर्मोंके विभागसे यह चारों वर्ण मुझ ईश्वरद्वारा रचे हुए उत्पन्न किये हुए हैं।
ब्राह्मण इस पुरुषका मुख हुआ इत्यादि श्रुतियोंसे यह प्रमाणित है। उनमेंसे सात्त्विक सत्त्वगुणप्रधान ब्राह्मणके शम दम तप इत्यादि कर्म हैं।
जिसमें सत्त्वगुण गौण है और रजोगुण प्रधान है उस क्षत्रियके शूरवीरता तेज प्रभृति कर्म हैं।
जिसमें तमोगुण गौण और रजोगुण प्रधान है ऐसे वैश्यके कृषि आदि कर्म हैं।
तथा जिसमें रजोगुण गौण और तमोगुण प्रधान है उस शूद्रका केवल सेवा ही कर्म है।
अब विना स्वभाव गुण कर्म के भी कोई ब्राह्मण के घर में जन्म लेकर जूते की दुकान चलाता हो अथवा जूते का कारीगर हो तो उसे कौन ब्राह्मण वर्ण का मानेगा?
परन्तु वे महाशय स्वयं को ब्राह्मण ही मानते हैं ।जन्म के आधार पर
क्योंकि जो गलतियाँ वर्णव्यवस्था के नाम पर जातीय अस्तित्व को स्वीकार करने वाले पुरोहितों ने समाज को मानवीय असमानता और जातीय हेयता के रूप में विरासत में देकर कीं ।
वही गलतियाँ उनके अपात्र वंशज भी आज दोहरा रहे हैं ।
क्या उन अपने पूर्वजों का खामियाजा आज का ब्राह्मण समाज भुगतने के लिए क्या तैयार है ?
सायद कभी नहीं ! इस प्रकार
ब्राह्मणों की कमियों की फेहरिस्त लम्बी है उनको मैं कहाँ तक गिनाऊँ-
जब तक आप स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को को हेय समझते रहोगे तब तक वे दूसरे लोग तुम्हारे साथ नहीं रह सकते हैं ।
फिर आप कौन हो उन्हें अपने समाज का हिन्दू बनाने वाले तुमने उन्हें कभी समानता का अधिकार नहीं दिया और बात करते हो उनके हिन्दू होने की -
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प्रस्तुति करण:-
यादव योगेश कुमार रोहि"
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