आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे।
कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था ।
अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी(घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे।
क्यों किअब भी संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है।
इसी सन्दर्भ यह तथ्य भी प्रमाणित है कि आर्य ही ज्ञान और लेखन क्रिया के विश्व में प्रथम प्रकासक थे ।
ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् धातु मूलक है..—–(ग्रस्+ मन् प्रत्यय..आदन्तादेश)..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है जिससे ग्रह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप गृभ् है ।
गृह ही ग्राम की इकाई रूप है जहाँ ग्रसन भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्थाऐं होती हैं ।
सर्व प्रथम आर्यों ने घास केे पत्तों पर लेखन क्रिया की थी। क्यों कि वेदों में गृभ् धातु का प्रयोग लेखन उत्कीर्णन तथा ग्रसन (काटने खुरचने )केेे अर्थ में भी प्रयुक्त है।
यूरोप की भाषाओं में देखें–जैसे ग्रीक भाषा में ग्राफेन (Graphein )तथा (graphion) = to write वैदिक रूप .गृभण..इसी से अंग्रेजी में(Grapht) और (graph) जैसे शब्दों का विकास हुआ है पुरानी फ्रेन्च में(Graffe )लैटिन में(graphium)अर्थात् लिखना .ग्रीक भाषा में(gramma)शब्द का अर्थ वर्ण (letter) रूढ़ हो गया।
जिससे कालान्तरण में ग्रामर शब्द का विकास हुआ।
आर्यों ने अपनी बुद्धिमता से कृषि पद्धति का विकास किया अनेक ध्वनि संकेतों काआविष्कार कर कर अनेक लिपियों को जन्म दिया ।
अन्न और भोजन के अर्थ में भी ग्रास शब्द यूरोप की भाषाओं में है पुरानी नॉर्स ,जर्मन ,डच, तथा गॉथिक भाषाओं में Gras .पुरानी अंग्रेजी मेंgaers .,green ग्रहण तथा grow, grasp लैटिनgranum- grain स्पेनिस् grab= to seize.यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता ,
बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक होता है छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं, .तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है ।
और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है। ---------------------------सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं ,जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है ।
अथवा हम कहें कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क रोहि किसी अस्त्र से कम नहीं हैं।
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ,गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं, अपितु विश्व-व्यापी होती है !
क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है।
इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें !
ऋग्वैदिक सन्दर्भों में आर्य शब्द बहुतायत से कृषि कार्य करने वाले का ही वाचक है।
कृषि कार्य वीरों का कार्य है।
यह शक्तिसम्पन्न लोगों का कार्य है ।
ऋग्वेद में अरि शब्द ईश्वर या वाचक है।
आर्य' और 'वीर' शब्दों का विकास
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‘विश्वो हि' इति द्वादशर्चं द्वादशं सूक्तं त्रैष्टुभम् । इन्द्रवसुक्रयोः पितापुत्रयोः संवादोऽत्र क्रियते । पुरा वसुक्रे यज्ञं कुर्वाणे सति इन्द्रः प्रच्छन्नरूप आजगाम ।
तं वसुक्रपत्नीन्द्रागमनाकाङ्क्षिणी विप्रकृष्टमिवाद्ययास्तौत् ।
अतस्तस्याः सर्षिः इन्द्रो देवता ।
अथ तस्याः प्रीत्यै वसुक्रेण सहेन्द्रः संवादमकरोत् । द्वितीयादियुजश्चतुर्थीरहिताः पञ्चर्चं इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासां स ऋषिः ।
यद्यप्यासु वसुक्रः संबोध्यत्वाद्देवता तथापि ता ऋच ऐन्द्रे कर्मणि विनियोक्तव्या इन्द्रलिङ्गसद्भावात् । चतुर्थीसहिताः शिष्टास्तृतीयाद्या वसुक्रवाक्यानि । अतः स ऋषिस्तासामिन्द्रो देवता।
तथा चानुक्रान्तं--- ’विश्वो हि द्वादशेन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः सूक्तस्य प्रथमयेन्द्रस्य स्नुषा परोक्षवदिन्द्रमाहेन्द्रस्य युजः शेषा ऋषेश्चतुर्थी च' इति । गतो विनियोगः ॥
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विश्वः । हि । अन्यः । अरिः । आऽजगाम । मम । इत् । अह । श्वशुरः ।न। आ। जगाम ।जक्षीयात् ।धानाः । उत ।सोमम् ।पपीयात् । सुऽआशितः।पुनः। अस्तम्।जगायात् ॥१। (ऋ०१०/२८/१)
अनया वसुक्रपत्नीन्द्रं स्तौति ।
“अन्यः इन्द्रव्यतिरिक्तः “(अरिः अर्य: ईश्वरः कृषक: वा )“विश्वो “हि सर्व एव देवगणः “आजगाम अस्मद्यज्ञं प्रत्याययौ। "इत् इत्यवधारणे। “अह इत्यद्भुते । सर्वदेवगण आगते सति “मम एव “श्वशुरः इन्द्रः “ना “जगाम । स इन्द्रो यद्यागच्छेत् तर्हि “धानाः भृष्टयवान् “जक्षीयात् भक्षयेत् । “उत अपि च "सोमम् अभिषुतं “पपीयात् पिबेत् । ततः "स्वाशितः सुष्ठु भुक्तस्तृप्तः सन् “पुनः भूयः “अस्तं स्वगृहं प्रति “जगायात् गच्छेत् ॥
अर्थ :-ऋषि पत्नी कहती है ! कि कृषि करने वाले सब कृषकगण निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये= (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम)
परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में= (ममेदह श्वशुरो ना जगाम ) यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते = (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते =(स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )
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वैदिक ग्रामों में जीवन को सुंदर बनाने तथा पुरुषार्थ को प्राप्त करने के साधनों की न्यूनता नहीं थी।
यहां तक कि ग्रामीण संगीत विद्या में भी निष्णात थे। कृषि, व्यापार तथा पशुपालन से ग्राम अत्यंत समृद्ध थे। वैदिक ग्राम बहुत विकसित अवस्था में थे। वैदिक ग्राम्य जीवन अपनी आवश्यक सामग्रियों के लिए किसी अन्य पर आश्रित न होकर पूर्णरूपेण स्वावलम्बी था।
भारत में प्राचीन काल से ही ग्रामों में जनसमूह के रहने का उल्लेख प्राप्त होता है।
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लोगों के छोटे-छोटे समुदाय जहां निवास करते हुए अपने जीवन का निर्वाह करते थे उसे एक ‘ग्राम’ की संज्ञा प्राप्त थी। ग्राम शब्द का शाब्दिक घास के मैदान से था।
ग्राम राष्ट्र की एक इकाई है| ग्राम, नगर, देश तथा राष्ट्र उत्तरोत्तर बढ़ते क्रम में सामाजिक एकता को प्रदर्शित करते हैं|
संसार का सर्वप्राचीन ग्रंथ ॠग्वेद है, जिसमें ‘ग्राम’ शब्द का उल्लेख अनेकत्र हुआ है।
ॠग्वेदकालीन समाज का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि देश का विकास ग्रामों में ही हुआ।
ॠग्वेद के एक सूक्त में अग्नि को ग्रामों की रक्षा करने वाला बताया गया है-
अग्ने पूर्वा अनूषसो विभावसो दीदेथ विश्वदर्शतः ।
असि ग्रामेष्वविता पुरोहितोऽसि यज्ञेषु मानुषः ॥१०॥ (ऋग्वेद १/४४/१०)
पदपाठ-
अग्ने । पूर्वाः । अनु । उषसः । विभावसो इति विभाऽवसो । दीदेथ । विश्वऽदर्शतः ।असि । ग्रामेषु । अविता । पुरःऽहितः । असि । यज्ञेषु । मानुषः ॥१०।
हे “विभावसो विशिष्टप्रकाशनरूपधनवन् “अग्ने “विश्वदर्शतः सवैर्दर्शनीयस्त्वं “पूर्वाः “उषसः “अनु अतीतानुषःकालाननुलक्ष्य "दीदेथ दीप्तवानसि। तादृशस्त्वं “ग्रामेषु जननिवासस्थानेषु “अविता “असि रक्षको भवसि । "यज्ञेषु अनुष्ठेयकर्मसु “पुरोहितः वेदेः पूर्वस्यां दिश्यवस्थितः “मानुषः “असि ऋत्विग्यजमानानां मनुष्याणां हितोऽसि ॥ दीदेथ । दीदेतिश्छान्दसो दीप्तिकर्मा । आगमानुशासनस्य अनित्यत्वात् इडभावः। द्विर्वचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम् ' (का. ६. १. ८. १ ) इति वचनात् द्विर्वचनाभावः । विश्वदर्शतः विश्वैर्दर्शनीयः । भृमृदृशि° ' इत्यादिना दृशेः अतच् । मरुद्वृधादित्वात् पूर्वपदान्तोदात्तत्वम् ( पा. सू. ६. २. १०६. २ )। पुरोहितः । ‘ पूर्वाधरावराणामसि पुरधवश्चैषाम् ' ( पा. सू. ५, ३. ३९ ) इति असिप्रत्ययान्तः पुरस्शब्दः । ‘ तद्धितश्चासर्वविभक्तिः । (पा. सू. १. १. ३८) इति अव्ययत्वात् ' पुरोऽव्ययम् ' ( पा. सू. १. ४. ६७ ) इति गतिसंज्ञायां सत्यां गतिसमासे ‘ गतिरनन्तरः' इति पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ ॥ २९ ॥
’’ ग्रामों में प्रायः अग्नि चूल्हे के रूप में अथवा यज्ञों में निहित होती थी।
वैदिक काल में लोग अग्नि में सायं-प्रातः आहुति देते थे। अतः यह अग्नि ग्रामों की रक्षा करती थी, ऐसा विश्वास तत्कालीन समाज में था।
ग्रामों से सम्बद्ध अनेक कार्यों का उल्लेख वेदों में प्राप्त होता है।
कृषि कर्म उस समय मुख्य उद्योग था।
ॠग्वेद कृषि करने का आदेश देता है।
अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमानः ।
तत्र गावः कितव तत्र जाया तन्मे वि चष्टे सवितायमर्यः ॥१३॥
वैन नामक राजा हल से भूमि जोतने की विद्या जानते थे, इसका उल्लेख अथर्ववेद में प्राप्त होता है| ॠग्वेद में कहा गया है कि हमारे फाल सुखपूर्वक भूमि का कर्षण करें, हल चलाने वाले सुखपूर्वक बैलों से खेत जोतें तथा मेघ मधुर जल से हमारे लिए सुख की वृष्टि करें और शुनासीर हमें सुख प्रदान करेंः-
शुनंनः फाला विकृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभियन्तु वाहैः|
अथर्ववेदः/काण्डं ३/सूक्तम् १७
दे. सीता। अनुष्टुप्, १ आर्षी गायत्री, २, ५, ९ त्रिष्टुप्, ३ पथ्यापङ्क्तिः, ७ विराट् पुर उष्णिक्, ८ निचृत्। _______________________________ |
सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्।
धीरा देवेषु सुम्नयौ ॥१॥
युनक्त सीरा वि युगा तनोत कृते योनौ वपतेह बीजम् ।
विराजः श्नुष्टिः सभरा असन् नो नेदीय इत्सृण्यः पक्वमा यवन् ॥२॥
लाङ्गलं पवीरवत्सुशीमं सोमसत्सरु ।
उदिद्वपतु गामविं प्रस्थावद्रथवाहनं पीबरीं च प्रफर्व्यम् ॥३॥
इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषाभि रक्षतु ।
सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥४॥
शुनं सुफाला वि तुदन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अनु यन्तु वाहान् ।
शुनासीरा हविषा तोशमाना सुपिप्पला ओषधीः कर्तमस्मै ॥५॥
शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम् ।
शुनं वरत्रा बध्यन्तां शुनमष्ट्रामुदिङ्गय ॥६॥
शुनासीरेह स्म मे जुषेथाम् ।
यद्दिवि चक्रथुः पयस्तेनेमामुप सिञ्चतम् ॥७॥
सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव ।
यथा नः सुमना असो यथा नः सुफला भुवः ॥८॥
घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः।
सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत्पिन्वमाना ॥९॥
सायणभाष्यम्-
'सीरा युञ्जन्ति' इति द्वितीयसूक्तेन कृषिनिष्पत्तिकर्मणि क्षेत्रं गत्वा युगलाङ्गलं बध्नाति । अनेनैव सूक्तेन दक्षिणम् अनड्वाहं युगे युनक्ति । ततः कर्ता अनेन सूक्तेन प्राचीनं कृषन् सूक्तसमाप्त्यनन्तरं हालिकाय हलं प्रयच्छेत् ।
तेन तिसृषु सीतासु कृष्टासु उत्तरसीतान्ते अग्निम् उपसमाधाय अनेन सूक्तेन पुरोडाशेन इन्द्रम् स्थालीपाकेन अश्विनौ च यजन् उत्तरस्यां सीतायां संपातान् आनयेत् । ।
तथा वृषलाभकर्मणि सारूपवत्से ओदने शकृत्पिण्डगुग्गुलुलवणानि प्रक्षिप्य अनेन सूक्तेन संपात्य अभिमन्त्र्य अश्नाति ।
'सीते. वन्दामहे' इत्यृचा हालिकेन कृष्यमाणास्तिस्रः सीताः कर्ता प्रत्येकम् अनुमन्त्रयते ।
अत्र “ 'सीरा युञ्जन्ति' इति युगलाङ्गलं प्रतनोति दक्षिणम् उष्टारं प्रथमं युनक्ति" इत्यादि ‘अनडुत्सांपदम्'(कौशिकसूत्र २०,१-२६ ) इत्यन्तं कौशिकसूत्रं द्रष्टव्यम् ।
तथा अद्भुतशान्तौ सीतामध्ये लाङ्गलसंसर्गे पुच्छसंसर्गे वा एतत् सूक्तं शान्त्युदके अनुयोजनीयम्। 'अथ यत्रैतल्लाङ्गले संसृजतः' इत्यादि कौशिकसूत्रम् ‘शुनासीराण्यनुयोजयेत्' (१०६,१-८) इत्यन्तम् ।
यज्ञवास्तुसंस्कारकर्मणि 'इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु' (४) इति नवाग्निस्थापनदेशे उल्लेखनं कार्यम् । तत्प्रकारश्च कौशिकेन दर्शितः-- 'यथावितानं यज्ञवास्त्वध्यवस्येत्' इति प्रक्रम्य “ 'देवस्य त्वा सवितुः' (अ १९,५१,२) इति विमानकाष्ठं गृह्णाति । यत्राग्निं निधास्यन् भवति तत्र लक्षणं करोति । 'इन्द्रः सीतां निगृह्णातु' इति दक्षिणत आरभ्योत्तरत आलिखति" (कौशिकसूत्र-१३७, १-१९) इत्यादिना।
अग्निचयनकर्मणि अग्निक्षेत्रकर्षणाय युज्यमानं सीरं 'सीरा युञ्जन्ति' इति ब्रह्मा अनुमन्त्रयते । 'लाङ्गलं पवीरवत्' (३) इति कर्षणावस्थस्य लाङ्गलस्यानुमन्त्रणम् । 'कृते योनौ' (२) इति तस्मिन् कृष्टक्षेत्रे ओषधीरावपन्तम् अध्वर्युम् अनुमन्त्रयेत । तथा च वैतानं सूत्रम्- “ सीरा युञ्जन्ति' इति सीरं युज्यमानम्” (वैताश्रौ २८,३०) इत्यादि।
सीरा॑ युञ्जन्ति क॒वयो॑ यु॒गा वि त॑न्वते॒ पृथ॑क्।
धीरा॑ दे॒वेषु॑ सुम्न॒यौ ।।१।।
कवयः । मेधाविनामैतत् । मेधाविनो जनाः सीरा सीराणि लाङ्गलानि । 'शेश्छन्दसि" (पा ६,१,७० ) इति शेर्लोपः। युञ्जन्ति कर्षणार्थं योजयन्ति । धीराः धीमन्तस्ते युगा युगानि च पृथक् वि तन्वते बलीवर्दानां स्कन्धेषु प्रसारयन्ति । किमर्थम् । देवेषु देवविषये सुम्नयौ सुखकरयज्ञेच्छौ सति । यजमाने इत्यर्थः । 'यज्ञो वै सुम्नं धीरा देवेषु यज्ञं तन्वानाः' (माश ७,२,२,४ ) इति वाजसनेयकम् । 'छन्दसि परेच्छायाम्' (पावा ३,१,८) इति सुम्नशब्दात् क्यच् । 'न च्छन्दस्यपुत्रस्य' ( पा ७,४,३५ ) इति ईत्वदीर्घयोर्निषेधः। 'क्याच्छन्दसि' (पा ३,२,१७० ) इति उप्रत्ययः। यद्वा देवविषये सुम्नं सुखकरं हविर्लक्षणम् अन्नं यातः प्रापयत इति सुम्नयौ बलीवर्दौ । तौ च युञ्जन्तीति संबन्धः । यातेः 'आतो मनिन्” (पा ३,२,७४ ) इति विच् ।
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युनक्त । सीरा । वि । युगा । तनोत । कृते । योनौ । वपत । इह । बीजम् ।विऽराजः । श्नुष्टिः । सऽभराः । असत् । नः । नेदीयः । इत् । सृण्यः । पक्कम् । आ। यवन् ॥२॥
हे कृषीवलाः सीरा युनक्त सीराणि लाङ्गलानि युगैः सह योजयत । तथा युगा वि तनोत युगानि बलीवर्दानां स्कन्धेषु प्रसारयत । अपि च योनौ अङ्कुरोत्पत्तियोग्ये इह अस्मिन् कृते कृष्टक्षेत्रे बीजम् व्रीहियवादिकं वपत । विराजः अन्नस्य व्रीहियवादिरूपस्य । 'अन्नं वै विराट्' (तैब्रा ३,८,१०,४) इति श्रुतेः । श्नुष्टिः आशुप्रापकः स्तम्बः सभराः फलभारसहितः नः अस्माकम् असत् भवतु । अस्तेर्लेटि अडागमः । सफलं व्रीह्यादिकं नेदीय इत् अन्तिकतमम् अल्पेनैव कालेन पक्वम् परिणतफलोपेतं सत् सृण्यः। द्वितीयार्थे षष्ठी । सृणिम् अङ्कुशं लवनसाधनं दात्रादिकम् आ यवम् आयौतु प्राप्नोतु । यौतेश्छान्दसे लङि 'तिङां तिङो भवन्ति' (पावा ७,१,३९) इति तिपो मिप् । 'यदा वा अन्नं पच्यतेथ तत्सृण्योपचरन्ति' (माश ७,२,२,५) इति वाजसनेयकम् ।
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लाङ्गलम् । पवीरऽवत् । सुऽशीमम् । सोमसत्ऽसरु ।उत् । इत् । वपतु । गाम् । अविम् । प्रस्थाऽवत् । रथऽवाहनम् । पीबरीम् । च । प्रऽफर्व्यम्॥३॥
पवीरवत् पवीरं पविर्वज्रम् । स्वार्थिको रप्रत्ययः । यद् वज्रमिव निशितधारं लाङ्गलाग्रे प्रोतं सदयोमयं शल्यं भूमिं विपाटयति तत्सहितम् । पविशब्दात् 'कृदिकारादक्तिनः' (पाग ४,१,४५) इति ङीष् । सुशीमम् कर्षकस्य सुखकरं सोमसत्सरु व्रीह्यादिसंपादनद्वारा सोमयागनिष्पादकः त्सरुः भूमौ प्रच्छन्नगमनम् कर्षकहस्तग्राह्योऽवयवविशेषो वा यस्य तत् तथोक्तम्। त्सर छद्मगतौ इत्यस्मात् 'भृमृशीतॄचरित्सरि' (पाउ १,७) इत्यादिना उप्रत्ययः । एवंगुणविशिष्टं लाङ्गलम् उदिद् वपतु । इद् इत्यवधारणे। उद्धरतु । संपादयतु इत्यर्थः। किं तद् इत्याह-–गाम् अविं च प्रस्थावत् प्रस्थानयुक्तं गमनसमर्थम् । प्रपूर्वात् तिष्ठतेः 'आतश्चोपसर्गे' (पा ३,३,१०६) इति भावे अङ् । रथवाहनम् रथवाहनसमर्थम् अश्वबलीवर्दादिकं पीवरीम् स्थूलां सर्वकामसमर्थां प्रफर्व्यम्। प्रथमवयाः कन्या प्रफर्वी ताम् । ‘वा छन्दसि' (पा ६,१,१०६) इति अभिपूर्वत्वस्य विकल्पनाद् यण् । कर्षणेन धान्यादिसमृद्धौ सत्याम् एतद्भवादिसमृद्धिर्भवतीति भावः।
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इन्द्रः । सीताम् । नि । गृह्णातु । ताम् । पूषा । अभि । रक्षतु ।सा । नः । पयस्वती । दुहाम् । उत्तराम्ऽउत्तराम् । समाम् ॥ ४ ॥
इन्द्रो देवः सीताम् लाङ्गलपद्धतिं नि गृह्णातु नीचीनं गृह्णातु । तां पूषा पोषको देवः अभि रक्षतु सर्वतः पालयतु । सा सीता नः अस्मभ्यं पयस्वती। पय इत्युपलक्षितम् अभिमतफलम । तद्युक्ता सती उत्तरामुत्तरां समाम् उत्तरोत्तरं संवत्सरम् । अत्यन्तसंयोगे द्वितीया । सर्वेष्वपि कालेषु इत्यर्थः । दुहाम् दुग्धाम् । अभिमतफलम् इति शेषः । यद्वा पयस्वती उदकवती सती दुहाम् व्रीहियवादिसस्यानि दुग्धाम् उत्तरोत्तरं संवत्सरम् इति द्विकर्मकः। 'अकथितं च' (पा १,४,५१) इति कर्मसंज्ञा । दुहाम् इति । 'लोपस्त आत्मनेपदेषु' (पा ७,१,४१) इति तलोपः।
शु॒नं सु॑पा॒ला वि तु॑दन्तु॒ भूमिं॑ शु॒नं की॒नाशा॒ अनु॑ यन्तु वा॒हान्।
शुना॑सीरा ह॒विषा॒ तोश॑माना सुपिप्प॒ला ओष॑धीः कर्तम॒स्मै ।।५।।
सुफालाः शोभनानि लाङ्गलमुखानि अस्माकं शुनम् सुखं यथा भवति तथा भूमिं वि तुदन्तु विकृषन्तु । कीनाशाः= कर्षकाः शुनं यथा भवति तथा वाहान् बलीवर्दान् अनु यन्तु अनुगच्छन्तु । वाह्यन्त इति वाहाः । कर्मणि घञ् । 'कर्षात्वतो घञोन्त उदात्तः' (पा ६,१,१५९) इति अन्तोदात्तत्वम् । शुनासीरा हे शुनासीरौ वाय्वादित्यौ । 'शुनो वायुः सीर आदित्यः' इति हि यास्कः ( नि ९,४०)। यद्वा शुनः सुखकरो देवः । सीरो लाङ्गलाभिमानी देवः । तौ युवां हविषा अस्मदीयेन तोषमाणा तोषमाणौ तुष्यन्तौ अस्मै यजमानाय ओषधीः व्रीहियवाद्याः सुपिप्पलाः शोभनफलोपेताः कर्तम् कुरुतम् ।
शुनम् । वाहाः । शुनम् । नरः । शुनम् । कृषतु । लाङ्गलम् ।शुनम् । वरत्राः । बध्यन्ताम् । शुनम् । अष्ट्राम् । उत् । इङ्गय ॥ ६ ॥
वाहाः बलीवर्दाः शुनम् सुखं कृषन्तु । नरः कर्षकाः शुनम् सुखं कृषन्तु । लाङ्गलम् हलं शुनं यथा भवति तथा कृषतु। कृष विलेखने। तौदादिकः। वरत्राः रज्जवः शुनम् सुखं बध्यन्ताम् । अष्ट्राम् प्रतोदं शुनम् सुखार्थम् उदिङ्गय प्रेरय । अत्र शुनासीरयोर्मध्ये शुनः संबोध्यः।
शुनासीरा । इह । स्म । मे। जुषेथाम् ।यत् । दिवि । चक्रथुः । पयः । तेन । माम् । उप । सिञ्चतम् । ७॥
'शुनासीरा शुनासीरौ देवी इह स्म इह खलु अस्मिन् क्षेत्रे मे मदीयं हविः "जुषेताम् सेवेताम् । यत् तौ देवौ दिवि आकाशे पयः उदकं 'चक्रतुः कृतवन्तौ तेन वृष्टिजलेन इमाम् कृष्यमाणां भूमिम् उप 'सिञ्चताम् आर्द्रींकुरुताम् ।
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सीते । वन्दामहे । त्वा । अर्वाची । सुऽभगे । भव ।यथा । नः । सुऽमनाः । असः । यथा । नः । सुऽफला । भुवः ॥८॥
हे सीते त्वा त्वां वन्दामहे नमस्कुर्मः। हे सुभगे सुभाग्ये सीताभिमानिदेवते त्वम् अर्वाची अस्मदभिमुखी भव । यथा येन प्रकारेण नः अस्माकं सुमनाः शोभनमनस्का असः स्याः। यथा येन प्रकारेण नः अस्माकं सुफला शोभनफलोपेता भुवः भवेः। तथा अर्वाची भवेति संबन्धः । अस्तेर्भवतेश्च लेटि अडागमः । शब्लुकि 'भूसुवोस्तिङि' (पा ७,३,८८ ) इति गुणप्रतिषेधे उवङ् ।
घृतेन । सीता । मधुना । सम्ऽअक्ता । विश्वैः । देवैः । अनुऽमता । मरुत्ऽभिः।सा । नः । सीते। पयसा । अभिऽआववृत्स्व । ऊर्जस्वती । घृतऽवत् । पिन्वमाना ॥ ९ ॥
घृतेन उदकेन मधुना मधुररसेन समक्ता सम्यग् अक्ता सिक्ता । ‘गतिरनन्तरः' (पा ६,२,४९ ) इति गतेः प्रकृतिस्वरत्वम् । सा सीता विश्वैर्देवैः मरुद्भिः च अनुमता अङ्गीकृता । हे सीते सा त्वं पयसा उदकेन नः अस्मान् अभ्याववृत्स्व अभिमुखम् आवर्तस्व । 'बहुलं छन्दसि' (पा २,४,७६ ) इति वृतेः शपः श्लुः। कथंभूता। ऊर्जस्वती बलोपेता घृतवत् घृतयुक्तम् अन्नं पिन्वमाना सिञ्चन्ती । पिवि सेचने। व्यत्ययेन आत्मनेपदम् । अदुपदेशाल्लसार्वधातुक' (पा ६,१,१८६) इति अनुदात्तत्वे धातुस्वरः।
इति चतुर्थेऽनुवाके द्वितीयं सूक्तम् ॥
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किसान शब्द का मूल खोजते हुए संस्कृत भाषा की √कृष् धातु की ओर ध्यान जाता है। कृष् का अर्थ है खींचना, चीरना, हल चलाना, खेती करना आदि है। कर्षण, आकर्षण में भी यही कृष् धातु विद्यमान है और इस आकर्षण के कारण ही कृष्ण कृष्ण कहलाते हैं। कृष् से अनेक अन्य शब्द बने हैं जिनमें एक है कृषक।
कृषक अर्थात् हलवाहा, किसान, हल की फाल। किसान सीधे भी इसी कृष् धातु से जुड़ा है। कृष् से प्राकृत में एक शब्द बना है कृषाण और कृषाण से ही हिंदी में बन गया किसान।
कृष्ण कृषक, कृषिकर्मी, कृषीबल किसान के अन्य नाम हैं।
इन्द्रं “वर्धन्तः= वर्धयन्तः “अप्तुरः= उदकस्य प्रेरकाः “विश्वं सोममस्मदीयकर्मार्थम् “आर्यं अरणीयाशील: कृषक:वा “कृण्वन्तः= कुर्वन्तः "अराव्णः= अदातॄन "अपघ्नन्तः= विनाशयन्तः । अभ्यर्षन्तीत्युत्तरया संबन्धः ॥ ॥ ३० ॥ (ऋग्वेद ९/६३/३०) उपर्युक्त ऋचा में आर्य शब्द कृषक: या वाचक है।
(इन्द्रम्) इन्द्रीयबल को (वर्धन्तः) बढ़ाते हुए (अप्तुरः) जलीय साधनों से युक्त (अराव्णः)अदाताओं का (अपघ्नन्तः) नाश करते हुए (विश्वं) सब (आर्यम्) कृषिकर्म कृण्वन्तः) करते हुए बने॥५॥
यथा । वशन्ति । देवाः । तथा । इत् । असत् । तत् । एषाम् । नकिः । आ । मिनत् ।(अरावा )= अदाता। चन । मर्त्यः ॥४। (ऋग्वेद ८/२८/४)
गांवों में खेतों की जिस तरह माप की जाती है, उसका उल्लेख ॠग्वेद में प्राप्त होता है।
वैदिक काल में अन्न से ग्राम समृद्ध रहते थे।
यजुर्वेद में अनेक अन्नों के नाम इस प्रकार दिए गए हैं-
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शुक्लयजुर्वेद अध्याय १८-
व्रीहयश् च मे यवाश् च मे माषाश् च मे तिलाश् च मे मुद्गाश् च मे खल्वाश् च मे प्रियङ्गवश् च मे ऽणवश् च मे श्यामाकाश् च मे नीवाराश् च मे गोधूमाश् च मे मसूराश् च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥१२।।
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वैदिक काल में भी ग्रामों में आजकल की तरह अनाज की कटाई, मड़ाई आदि होती थी तथा अन्न को भूसे से अलग किया जाता था।
इसके स्पष्ट संकेत ॠग्वेद में अनेक स्थानों पर उपलब्ध होते हैं।
ग्रामों में खेतों की सिंचाई का भी उत्तम प्रबंध था, जिसके लिए कूप, कुल्या, सुत्पार (नाला), आवद्रय (पोखर) तथा वैशन्त (तालाब) इत्यादि का उल्लेख प्राप्त होता है।
ॠग्वेद इत्यादि में सूर्योदय तथा अन्य प्रकृति के जो चित्रण प्राप्त होते हैं उनका मूल उत्स ग्राम ही हैं।
ग्राम धन के स्रोत हैं। इन्द्र के लिए मरुतों के ग्रामों से धन देने का कथन ॠग्वेद में प्राप्त होता है-
ग्रामों सदैव से भारतीय संस्कृति की आत्मा बसती हैं वह भी किसानों के जीवन में ।
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सः । ग्रामेभिः । सनिता । सः । रथेभिः । विदे । विश्वाभिः । कृष्टिऽभिः । नु । अद्य ।सः । पौंस्येभिः । अभिऽभूः । अशस्तीः । मरुत्वान् । नः । भवतु । इन्द्रः । ऊती ॥१०
“सः= इन्द्रः "ग्रामेभिः =मरुत्संघैः सह "सनिता= फलानां प्रदाता भवति । “सः च "अद्य =अस्मिन्नहनि “नु= क्षिप्रं “विश्वाभिः “कृष्टिभिः= सर्वैर्मनुष्यैः “रथेभिः= इन्द्रसंबन्धिभिः रथैः करणभूतैः “विदे =विज्ञायते ।
अपि च “सः =इन्द्रः पौंस्येभिः= स्वकीयैर्बलैः "अशस्तीः= अशंसनीयान् शत्रून् “अभिभूः= अभिभवन् वर्तते । "मरुत्वान् सः “इन्द्रः “नः= अस्माकं रक्षणाय “भवतु ॥ ग्रामेभिः । ‘ बहुलं छन्दसि ' इति भिस ऐसभावः । ‘ग्रामादीनां च ' (फि. सू. ३८ ) इत्याद्युदात्तत्वम् । विदे। ‘ विद ज्ञाने'। कर्मणि लट् ।' बहुलं छन्दसि' इति विकरणस्य लुक् । ' लोपस्त आत्मनेपदेषु' इति तलोपः ॥ ॥ ९ ॥
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‘तैत्तिरीय संहिता’ में अन्न बोने की भिन्न-भिन्न ॠतुओं का वर्णन प्राप्त होता है।
सामवेद के एक मंत्र में सभी ॠतुओं के अनुकूल होने की कामना की गई हैः-
देवता: अग्निः ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः काण्ड: आरण्यं काण्डम्
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वसन्त इन्नु रन्त्यो ग्रीष्म इन्नु रन्त्यः ।
वर्षाण्यनु शरदो हेमन्तः शिशिर इन्नु रन्त्यः॥६१६।।
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सामवेद » - पूर्वार्चिकः / मन्त्र संख्या - 616 | (कौथोम) 6 / 3 / 4 / 2 | (रानायाणीय) 6 / 4 /2
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इस ऋचा में ऋतुओं की रमणीयता प्रतिपादित की गयी है।
भाषानुवाद -
परमेश्वर की सृष्टि में (वसन्तः) वसन्त ऋतु (इत् नु) निश्चय ही (रन्त्यः) रमणीय है, (ग्रीष्मः) ग्रीष्म ऋतु (इत् नु) निश्चय ही (रन्त्यः) रमणीय है। (वर्षाणि अनु) वर्षा-दिनों के अनन्तर (शरदः) शरद् ऋतु के दिन और (हेमन्तः) हेमन्त ऋतु भी, रमणीय हैं। (शिशिरः) शिशिर ऋतु भी (इत् नु) निश्चय ही (रन्त्यः) रमणीय है ॥२॥
इस मन्त्र में ‘इन्नु रन्त्यः’ की आवृत्ति में लाटानुप्रास है ॥२॥
अर्थात वसन्त और ग्रीष्म ॠतुएं रमणीय हों, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ॠतुएं भी हमारे लिए रम्य रहें।
यहां ॠतुओं का क्रम से उल्लेख है जिसका ज्ञान ग्रामीण संस्कृति के बिना असम्भव है।
ॠग्वेद के एक मंत्र में ग्राम के प्राणियों की हृष्ट-पुष्टता तथा द्विपद और चतुष्पद का उल्लेख तथा इसकी शांति की व्यवस्था होने का वर्णन है-
देव. रुद्रः। जगती, १०-११ त्रिष्टुप्। |
इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मतीः ।
यथा शमसद्द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम् ॥१॥
यहां ‘द्विपद’ मनुष्यों के लिए तथा ‘चतुष्पद’ पशुओं के लिए कहा गया है। इससे वैदिक युग में पशुपालन होने का संकेत मिलता है।
ॠग्वेद के पुरुष सूक्त में अनेक पशुओं की उत्पत्ति का कथन प्राप्त होता है-
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः॥६॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥७॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम्।
पशून् ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये ॥८॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥९॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥१०॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥११॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१२॥
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥१५॥
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥१६॥
(ऋग्वेद दशम मण्डल सूक्त ९०-)
यद्यपि ऋग्वेद या दशम मण्डल या पुरुष सूक्त ईसापूर्व सप्तम सदी कि है।
परन्तु इसमें पशु पालन की प्राचीन परम्परा की झाँकी है।
पुरुष सूक्त में दही से सम्पृक्तत घृत का वर्णन ग्रामों की संस्कृति का कथन करता है।
सर्वहुत पाग से ग्राम्य पशुओं का प्रादुर्भाव भी पशुपालन का स्पष्ट संकेत है।
वन्य पशु भी थे और ग्रामों में पशुपालन भी होता था। जैसा कि उल्लेख आया है-
तस्माद्यज्ञात सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम|
पशून तॉंश्चक्रे वायव्यानारण्यान ग्राम्याश्च ये॥
अथर्ववेद में भी आरण्य (वन्य) तथा ग्राम्य पशुओं का उल्लेख है-
पार्थिवा दिन्याः पशवः आरण्या ग्रामाश्च ये|
इससे पता चलता है कि ग्रामों में पशुपालन होता था तथा वैदिक काल में पशु अथवा गायें ही मुख्य धन थीं। इससे ग्रामों की पर्याप्त समृद्धि का ज्ञान होता है।
गाय, अश्व, बकरी, भेड़ तथा कुत्ते पालतू पशु थे| बैल के अनेक रूपों का वर्णन वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है। ॠषभ, अरुण, दिव्यवाह, पंचावि, त्रिवत्स, तुर्यवाह, प्रष्ठवाह आदि अनेक नाम बैलों के लिए विभिन्न अवस्थाओं में दिए जाते थे।
गाय तो सबसे प्रिय तथा पवित्र पशु थी, जिसे रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री तथा आदित्यों की बहन के रूप में प्रस्तुत करते हुए वेद में उसे अहिंसनीय बताया गया है।
इस प्रकार कृषि तथा पशुपालन की दृष्टि से वैदिक ग्राम पर्याप्त विकसित थे।
‘ग्राम’ शब्द का अर्थ मनुष्यों के समुदाय का वासस्थान है परंतु यह नगर की संस्कृति से भिन्न है। खेत, नदी, जंगल तथा सरोवर इत्यादि के आसपास मनुष्यों के घरों का समूह ग्राम शब्द से अभिधेय हो सकता है।
ग्रामों में कदाचित इसीलिए भेड़िए आदि का आतंक रहता था जिसका उल्लेख ॠग्वेद में प्राप्त होता है।
वेद का कथन है कि ग्राम केवल मनुष्यों का ही नहीं अपितु पशुओं तथा पक्षियों इत्यादि जीव-जन्तुओं के सुखपूर्वक शयन का निश्रब्ध स्थान था-।
।अथ वेदोक्तं रात्रिसूक्तम्।
ॐ रात्रीत्याद्यष्टर्चस्य सूक्तस्यकुशिकः सौभरो रात्रिर्वा भारद्वाजो ऋषिः, रात्रिर्देवता,गायत्री छन्दः, देवीमाहात्म्यपाठे विनियोगः।
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभिः। विश्वा अधि श्रियोऽधित॥1॥
ओर्वप्रा अमर्त्यानिवतो देव्युद्वतः। ज्योतिषा बाधते तमः॥2॥
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्यायती। अपेदु हासते तमः॥3॥
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वयः॥4॥
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः। नि श्येनासश्चिदर्थिनः॥5॥
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा नः सुतरा भव॥6॥
उप मा पेपिशत्तमः कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव यातय॥7॥
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिवः। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे॥8॥
।इति ऋग्वेदोक्तं रात्रिसूक्तं समाप्तं।
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महत्तत्त्वादिरूप व्यापक इन्द्रियों से सब देशों में समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करने वाली ये रात्रिरूपा देवी अपने उत्पन्न किये हुए जगत के जीवों के शुभाशुभ कर्मों को विशेष रूप से देखती हैं और उनके अनुरूप फल की व्यवस्था करने के लिए समस्त विभूतियों को धारण करती हैं( 1)
ये देवी अमर हैं और सम्पूर्ण विश्व को नीचे फैलने वाली लता आदि को तथा ऊपर बढ़ने वाले वृक्षों को भी व्याप्त करके स्थित हैं; इतना ही नहीं, ये ज्ञानमयी ज्योति से जीवों के अज्ञानान्धकार का नाश कर देती हैं। (2)
परा चिच्छक्तिरूपा रात्रिदेवी आकर अपनी बहिन ब्रह्मविद्यामयी उषादेवी को प्रकट करती हैं, जिससे अविद्यामय अन्धकार का नाश हो जाता है। (3)
ये रात्रि देवी इस समय मुझ पर प्रसन्न हों, जिनके आने पर हम लोग अपने घरों में सुख से सोते हैं ठीक वैसे ही जैसे रात्रि के समय पक्षी वृक्षों पर बनाये हुए अपने घोंसलों में सुखपूर्वक शयन करते हैं। (4)
उस करुणामयी रात्रि देवी के अंक में सम्पूर्ण ग्रामवासी मनुष्य, पैरों से चलने वाले गाय, घोड़े आदि पशु, पंखों से उड़ने वाले पक्षी एवं पतंग आदि किसी प्रयोजन से यात्रा करने वाले पथिक और बाज आदि भी सुखपूर्वक सोते हैं। (5)
हे रात्रिमयी चिच्छक्ति! तुम कृपा करके वासनामयी वृकी तथा पापमय वृक को हमसे अलग करो। काम आदि तस्कर समुदाय को दूर हटाओ। तदनन्तर हमारे लिए सुख पूर्वक तरने योग्य हो जाओ- मोक्षदायिनी एवं कल्याणकारिणी बन जाओ। (6)
हे उषा! हे रात्रि की अधिष्ठात्री देवी! सब ओर फैला हुआ यह अज्ञानमय कला अन्धकार मेरे निकट आ पहुंचा है।
तुम इसे ऋण की भाँति दूर करो जैसे धन देकर अपने भक्तों के ऋण दूर करती हो, उसी प्रकार ज्ञान देकर इस अज्ञान को भी मिटा दो। (7)
हे रात्रिदेवी! तुम दूध देने वळील गौ के समान हो। मैं तुम्हारे समीप आकर स्तुति आदि से तुम्हें अपने अनुकूल करता हूँ। परम व्योमस्वरूप परमात्मा की पुत्री तुम्हारी कृपा से मैं काम आदि शत्रुओं को जीत चुका हूँ, तुम स्तोम की भाँती मेरे इस हविष्य को भी ग्रहण करो।(8)
॥ इति ऋग्वेदोक्तं रात्रिसूक्तं समाप्तं ॥
‘‘निग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिणः|
नि श्येनासश्चि दर्शिनः॥
शत्रुओं तथा जंगली जानवरों से रक्षा हेतु वेदों में अनेक मंत्र आए हैं जिनमें ग्राम की भी रक्षा करने की स्तुति की गई है।
ॠग्वेद में वीर मरूतों से उत्तम अंतःकरण के द्वारा ग्रामों की रक्षा करते हुए बुद्धि के वर्द्धन की प्रार्थना इस प्रकार है-
यूयं न उग्रा मरुतः सुचेतुनारिष्टग्रामाः सुमतिं पिपर्तन।
यत्रा वो दिद्युद्रदति क्रिविर्दती रिणाति पश्वः सुधितेव बर्हणा ॥६॥ (ऋग्वेद १/१६६/६)
हे “उग्राः =उद्गूर्णबलाः "मरुतः "यूयं। "सुचेतुना= शोभनचेतसा "अरिष्टग्रामाः =अहिंसितजनसंघाः सन्तः। “नः =अस्माकं "सुमतिं =शोभनबुद्धिं। "पिपर्तन =पूरयत । कस्मिन्काले इति तदुच्यते । "यत्र यस्मिन् काले “वः युष्मत्संबन्धिनी “क्रिविर्दती विक्षेपणशीलदन्ती “दिद्युत् हेतिः "रदति =विलिखति मेघसंस्त्यायं “पश्वः =पशूंश्च "रिणाति= रेषति हिनस्ति । वायौ =वाति सति पशवः शीर्यन्ते इति प्रसिद्धम् । हिंसायां दृष्टान्तः ।
"सुधिता =सुहिता सुष्ठु प्रेरिता ।“बर्हणा हतिः तत्साधना हेतिर्वा यथा रिणाति तद्वत् ॥
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इसी प्रकार इन्द्र के लिए कहा गया है कि ये सम्पूर्ण गांव, गायें, रथ और घोड़े इन्द्र के ही हैं-
यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः ।
यः सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥७॥ (ऋग्वेद २/१२/७)
यह कथन इसीलिए है कि इन्द्र इन ग्रामों, अश्वों तथा रथों की रक्षा करें।
एक राजा दूसरे राजा के ग्रामों को युद्ध इत्यादि के द्वारा जीत लेता था।
वैदिक ग्रामों में कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त अन्य अनेक धंधे प्रचलित थे- कुलाल (कुम्हार), कार्मार (लोहार), चर्मम्न (चर्मकार), वप्ता (नाई) तथा भिषक (वैद्य) भी ग्रामों में अपना उद्योग करते थे।
ॠग्वेद में अनेक स्थानों पर इनका उल्लेख प्राप्त होता है। ग्रामों में वस्त्रों के बुनने, चटाई (कशिपु) बनाने तथा विभिन्न ग्रामोद्योग-व्यापार इत्यादि का पर्याप्त संकेत वेदों में उपलब्ध है।
‘पणि’ लोग व्यापार का कार्य करते थे। जिनके वंशज आज के बनिया लोग है पणियों को यूरोपीय इतिहास में फॉनिशियन लोग हैं ।
समुद्री व्यापार के ज़रिये यह 1550 से 300 ईसा-पूर्व के काल में भूमध्य सागर के दूर-दराज़ इलाक़ों में फैल गई।
उन्हें प्राचीन यूनानी और
रोमन लोग "जमुनी-रंग के व्यापारी" कहा करते थे क्योंकि रंगरेज़ी में इस्तेमाल होने वाले म्यूरक्स
घोंघे से बनाए जाने वाले जामुनी रंग केवल इन्ही से मिला करता था। इन्होने जिस
अक्षरमाला का इजाद किया उसपर विश्व की सारी प्रमुख अक्षरमालाएँ आधारित हैं।
कई भाषावैज्ञानिकों का मानना है कि देवनागरी-सहित भारत की सभी वर्णमालाएँ इसी
फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं।
पुराने नियम (पुरानी बाइबिल (old testament) में कभी भी फोनीशियन लोगों का उल्लेख नहीं किया गया है।
उस नाम का एकमात्र संदर्भ प्राचीन ग्रीक लेखन में है, और वे आधुनिक लेबनान के तटों पर स्थित शहरों में रहने वाले व्यापारियों के रूप में थे।
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वैदिक काल में ग्रामीण ॠण लेकर उसका ब्याज भी चुकाते थे।
वेद में ‘बेकनाट’ शब्द आया है जिसका अर्थ निरूक्त के अनुसार ‘ब्याज खाने वाले’ हैं।
इस प्रकार आजकल की भांति तत्कालीन समाज में ॠण की सुविधा भी उपलब्ध थी|
सामवेदीय गान ग्राम में ही गाया जाता था तथा अरण्य गान को ग्रामों में गाना शुभ नहीं माना जाता था
इस प्रकार ज्ञान तथा वेद वाङ्मय के विकास में ग्रामों की महत्वपूर्ण भूमिका थी|
आर्थिक स्तर के साथ ही साथ ग्रामों का साहित्यिक स्तर भी उच्च था|
वैदिक काल में ग्राम पंचायतें भी थीं, जिससे ग्राम के प्रशासनिक स्तर का पता चलता है।
ॠग्वेद में अनेक स्थानों पर ‘ग्रामणी’ शब्द आया है जो ग्राम प्रधान अथवा नेता के लिए है प्रयुक्त होता था।
ग्रामणी में तत्कालीन समाज का परम विश्वास था तथा वह उनका प्रिय नेता हुआ करता था।
संकट के अवसर पर अथवा आवश्यकता पड़ने पर समृद्ध ग्रामणी अपने लोगों को सहस्रों गायें प्रदान करता था।
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