शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

अहीर जाति की प्राचीनता और महानता के पौराणिक दस्तावेज़- जिसमें कालान्तर में यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ- यादव योगेश कुमार रोहि" की। मसिधर से ...

अहीर जाति की प्राचीनता और महानता के पौराणिक दस्तावेज़- जिसमें कालान्तर में यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ- 

अहीर जाति-

सेमेटिक पुरा कथाओं में जिस प्रकार यहुदह् ( यदु:) के पिता याकूव/ जैकव को अबीर नाम से वर्णन किया गया है जो की ईश्वर का एक नाम है।
और भारतीय पुराणों में ययाति का वर्णन भी उसी प्रकार है जिस प्रकार सेमेटिक मिथकों में याकूव का । 
याकूव से जैकव तथा फिर हाकिम जैसे शब्द विकिसित हुए।
उसी प्रकार पद्म पुराण में अहीर जाति में ही अत्रि से लेकर ययाति तथा उनके वाद के यदु: और तुर्वसु को दर्शाया गया है। जबकि अत्रि ब्रह्मा को सात मानस पुत्रों में से एक हैं। जो स्वयं वेदों सी अधिष्ठात्री देवी गायत्री का विवाह जगतपिता ब्रह्मा के साथ कराते हैं।
यदि हम सैमेटिक मिथकों में याकूव की। बात करें तो यह शब्द यूरोप री अनेक भाषाओं में बहुत से उच्चारण भेदी रूपों में दृष्टिगोचर होता है।

इसी सा रूपान्तरण जेम्स( jems) एक अंग्रेजी भाषा का शब्द है; जिसे हिब्रू मूल का नाम दिया गया है, जो आमतौर पर पुरुषों के लिए उपयोग किया जाता है। यह मूलत: हिब्रू भाषा के याकूब शब्द का रूपान्तरण है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से याकूव और जेम्स शब्द मूलत: एक है।
यह एक आधुनिक  याकूव का वंशज शब्द है।जिसे हम जेम्स कहते हैं।
पुराने फ्रांसीसी जेम्स के माध्यम से , वल्गर लैटिन में आईकोमस(Icomus) (तुलना करें- इटालियन-( गियाकोमो ), पुर्तगाली- (टियागो) , स्पैनिश -(इगो), सैंटियागो ) , लैटिन -(इकोबस) से जो कि  एक व्युत्पन्न संस्करण है। 
हिब्रू याकूव नाम का जैकब  लैटिन रूप है। (मूल हिब्रू: יעקב) .
अंग्रेजी के पहले नामों में अंतिम -एस(s) पुराने फ्रेंच से उधार लिए गए लोगों के लिए विशिष्ट है।
 
चूंकि स्पैनिश और इसके डेरिवेटिव(व्युत्पन्न- शब्द)में J का उच्चारण / x / (Kh) किया जाता है, कई यहूदियों ने इस नाम का इस्तेमाल है इसके हिब्रू नाम का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया था जिसे चा-यिम (उच्चारण खा-यिम) या इसके समान रूपों को स्पेनिश और अंग्रेजी में जा-यिम में के रूप में भी लिखा गया था।
जेमी या जिम, भले ही दो नामों की उत्पत्ति बहुत भिन्न हो। लेकिन बहुत से शब्द मूलत: एक होते हुए भी बहुरूपी हो जाते हैं ।
नीचे याकू से बने बहुरूपी शब्दों को उदाहरण हैं 
__________________________________
जैक , जैकी, जैकी
जैमे या जेमी
जिम या जिमी
जिम्बो
विभिन्न भाषाओं में जेम्स और जैकब के प्रकार ही हैं।
१-अफ्रीकी : जैकोबस, कूस (छोटा), कोबस (छोटा), जाको (छोटा)
२-अल्बानियाई : जैकुप, जैकब, जैकब या जैकोव
३-अलेमानिक : कोबी, चोबी, जोकेल, जैकोब्ली (छोटा), जोकेली (छोटा), जोगी

४-अम्हारिक् : (याकूब)
५-अरबी : يعقوب ( Yaʻqub )
६-अर्गोनी - चाइम, चाकोबो
७-अर्मेनियाई : शास्त्रीय शब्दावली में और सुधारित शब्दावली में ( पश्चिमी : हागोप, पूर्वी : हाकोब)

८-अस्तुरियन : डिएगू, ज़ाकोबू, ज़ैमे
९-अज़रबैजानी : याकूब
१०-बास्क : जैकू, जैकब, जैकोबे, जगोबा, जैमे , जेक; जकोबा, जगोबे (स्त्रीकृत); 
जागो (छोटा)
११-बवेरियन : जैकल, जॉक, जॉक, जॉकी
१२-बेलारूसी : Jakub, куб (याकूब), Jakaŭ, каў (Yakaw)
१३-बंगाली : মস (Jēms/Jēmsh), াকুব (Iyakub)
___________
१४-बाइबिल हिब्रू : याकोव (יעקב)
१५-बोस्नियाई : Jakub
________________
१६-ब्रेटन : जगु, (जगट), जैकट, जेक, जेक, जेकेज़, जेकेज़िग, जकोउ, जालम, चाल्म।

१७-बल्गेरियाई : ков (याकोव)
१८-कैंटोनीज़ (जीम-देखें)
१९-कातालान : जैम, ज़ाउम, जेकमे, जैकब, डिडैक, सैंटियागो
२०-चीनी : 詹姆斯 (ज़ानमुसी), 詹姆士 (ज़ानमुशी)
२१-कोर्निश : जागो, जैम्स, जम्मा
२२-क्रोएशियाई : जैकोव, जैकब, जकसाक
२३-चेक : जैकब, जैकोबेक (छोटा), कुबा (छोटा),

 कुबिक (छोटा), कुबिसेक (छोटा), कुबास (अनौपचारिक, असामान्य), कुबी (अनौपचारिक), कुब्सिक (अनौपचारिक, असामान्य)
२४-डेनिश : इब, जैकब, जैकब, जेप्पे, जिम, जिमी
२५-डच : जैकब, जैकोबस, जैकब, जैको, जैको, कोबस, कूस, जाप, कोबे, कोबस, कूस, सजाक, स्जाकी
२५-अंग्रेजी :
जैक
याकूब
जैकब (असामान्य, जर्मन, यिडिश, आदि के माध्यम से)
जैकोबी (दुर्लभ, मुख्यतः अमेरिकी, और मूल रूप से एक उपनाम)

जेक , जेकी (छोटा)
कोबी/कोबी (छोटा, असामान्य, मुख्यतः अमेरिकी)
जेमी (अल्पसंख्यक, सभी मुख्य रूप से अंग्रेजी बोलने वाली भूमि, यूनाइटेड किंगडम, आयरलैंड, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, आदि में पाया जाता है)
Jaime/Jaimie (छोटे, असामान्य, मुख्यतः अमेरिकी, और स्पेनिश के माध्यम से)
जिम
जिमी / जिमी / जिमी / जिमी / जिमी (छोटा)
जिम्बो (छोटा)
जंबो

२६-एस्पेरान्तो : जैकोबोस
२७-एस्टोनियाई : जैकब, जाकोब, जागुप , जाकी
फिरोज़ी : जैकुप , जक्कू (केवल डबल नामों में जैसे जोआन जक्कू, हंस जक्कू। पहले जैकब/जैकब की वर्तनी थी)
२८-फिलिपिनो : जैमे, जैकब, सैंटियागो (धार्मिक उपयोग)
२९-फिनिश : जाकोब, जाकोप्पी, जाको, जस्का , जिमिक
३०फ्रेंच : जैक्स , जैकलिन (स्त्रीकृत), जेम्स, जैम्स, जैकब, जैक्कोट (छोटा), जैकोट (छोटा), जैकोटे (स्त्रीकृत), जैको (छोटा), जैक (छोटा), जैकी (छोटा), जैक (छोटा), जैकी (छोटा)
३१-फ़्रिसियाई : जापिको
३२-फ्रीयुलियन : जैकुम
३३-गैलिशियन् : ज़ैमे, इयागो, डिएगो, ज़ाकोबे, ज़ाकोमे
३४-जॉर्जियाई : (इकोब), (कोबा)
३५-जर्मन : जैकब, जैकोबस, जेकेल (छोटा), जैकेल (छोटा), कोब्स (छोटा), कोबी ( स्विस जर्मन छोटा)
__________________
३६-ग्रीक :
ακώβ (इयाकोव, सेप्टुआजेंट में )
βος (इकोवोस, न्यू टेस्टामेंट )
ακουμής (याकौमिस, बोलचाल, संभवतः Ιωακείμ (जोआचिम) से भी)
Ιακωβίνα (इकोविना, नारीकृत)
(यांगोस, शायद स्लाव भाषाओं के माध्यम से
Δημήτρης (दिमित्रिस) संभवतः /Γιάννης (Ioannis/Yannis, John या Jonah) से भी
या ακ (ज़ाकिस या ज़क, फ़्रेंच-साउंडिंग)
हवाईयन : किमो, इकोबो, इकोपो
हिब्रू : जैकब और जेम्स दो अलग-अलग, असंबंधित नाम हैं एसा कुछ लोगों कि मत है परन्तु यह सत्य नहीं है।
जैकब (याकोव या याकोव) है,।

जेम्स के लिए स्पेनिश नाम जैम का उच्चारण स्पेनिश में के इज़राइली उच्चारण की तरह किया जाता है।

(हैम या चैम ने खा-यिम और अर्थ जीवन का उच्चारण किया)।
चैम के अल्पार्थक हैं:

Chayimee (येहुदी या स्पेनिश Jaime से)
'ל/חיימקה (येदिश से चीकेल/चायिमके)
३७-हिंदी : पोजिशन (Jēmsa)
३८-हंगेरियन : जैकब, जैकोबी
३९-आइसलैंडिक : जैकोबी
इग्बो जेम्स, जेम्स, जेकीबी
४०-इन्डोनेशियाई : याकोबस, याकूबुसो
४१-आयरिश : सेमास / सेमास / सेमस , शेमाइस (संवादात्मक , जहां से अंग्रेजी : हामिश ), सीमस ( अंग्रेजी), शामस ( अंग्रेजी ), सेमी (छोटा), सेमिन (छोटा), सेमुइसिन (छोटा), इकोब
४२-इटालियन : जियाकोमो, इकोपो या जैकोपो, जियाकोबे, जियाकोमिनो, जियाको, जियामो, मिनो
४५-जापानी : ジェームス (जुमुसु)
४६-जेरियास : जिमसी
४७-कन्नड़ : (Jēms)
४८-कज़ाख : ақып (ज़ाकिप, जैकब), куб (याकूब, याकूब)
किकुयू : जेमुथी, जेमेथी, जिम्मी, जकुबू (उच्चारण "जकूफू")
४९-कोरियाई : 제임스 (जेमसेउ), (याकोबो)
स्वर्गीय रोमन : इकोमुस
५०-लैटिन : Iacobus, Iacomus (vulgarized), डिडाकस (बाद में लैटिन)
५१-लातवियाई : जैकब्स, जैकब्स, जैकबसी
५२-लिम्बर्गिश : जैकब, सजाक, सजक, केयूबेक
५३-लिथुआनियाई : जोकिबासी
लोम्बार्ड : जियाकॉम, जियाकम, जैकोम
निचला जर्मन : जैक, जैकब, कोब, कोप्के
लक्ज़मबर्ग : जैकब, जैक, जेक, जेकिक
मकदूनियाई : аков (याकोव)
५४-मलय : يعقوب ( याकूब ), याकूब, याकूब
मलयालम : चाको, जैकब, याकोब (उच्चारण याह-कोहब)
माल्टीज़ : akbu, akmu, Jakbu
मैंक्स : जैमिस
माओरी : हेमी
उत्तरी सामी : जाहकोटी
नार्वेजियन : जैकब, जैकोप, जेप्पे
ओसीटान : जैक्मे (उच्चारण जम्मे), जैम, जैम्स (उपनाम, उच्चारण जम्मे), जेम्स (उपनाम, उच्चारण जम्मे)
५५-फ़ारसी : وب ( याक़ुब )
पीडमोंटिस : जियाको, जैको (मोंटफेरैट बोली); छोटा: जियाकोलिन, जियाकोलेट, जैकोलिन
५६-पोलिश : जैकब, कुबा (छोटा), कुबुन (छोटा प्यारा)
५७-पुर्तगाली : जैको ( ओटी फॉर्म), जैकब, जैमे, इगो, टियागो ( एनटी में प्रयुक्त अनुबंधित रूप ), थियागो और थियागो (ब्राजील में प्रयुक्त संस्करण), डिओगो, डिएगो, सैंटियागो, जैकलीन (महिला।)
प्रोवेनकल : जैकमी
५८-पंजाबी : (जुमासा)
५९-रोमानियाई : इकोब, इकोव
६०-रूसी : Иаков (याकोव) (पुरातन ओटी रूप), ков (याकोव, याकोव), а (यशा) (छोटा)
सामोन : इकोपो, सेमीसी, सिमी (जिम)
६१-सार्डिनियन : जियागु (लोगुडोरेस), इयाकू (नूरोसे)
६२-स्कॉट्स : जेम्स, जेम्स, जेमी , जेज़र , जेमी
६३-स्कॉटिश गेलिक : सेउमास , शूमाइस (संवादात्मक), हामिश (अंग्रेजी)
६४-सर्बियाई (सिरिलिक/लैटिनिक): Јаков/Jakov (याकोव); акша/जक्ष (यक्ष); аша/जसा (यशा) (छोटा)
सिसिलियन : जियाकुमु, जुकुमु
६५-सिंहल : (डिओगु), (जैकब), (संथियागो), (याकोब)
६६-स्लोवाक : Jakub, Kubo, Kubko (छोटा), Jakubko (छोटा)
६७-स्लोवेनियाई : जैकब, जकास
६८-सोमाली : याकूब
६९-स्पेनिश : जैमे, जैकोबो, यागो, टियागो,
इसके अतिरिक्त दुनियाँ सी अन्य भाषाओं में भी यह शब्द है ।

सैंटियागो , डिएगो , जैकोबा (महिला), जैकब
स्वाहिली : याकूब
स्वीडिश : जैकोबो
सिलहटी : া (याकूब)
सिरिएक : (याकूब)
तमिल : ்ஸ் (Jēms)
तेलुगु : ు (याकिबू) (जिम्स)
थाई : (जेम, सेम्सो )
तुर्की : याकूब, याकूब
यूक्रेनियन : ків (याकिव)
उर्दू : مز (जेम्स), وب (याकूब)
विनीशियन : जोकोमो, जोको
वालून : जोके
वेल्श : इयागो, सियाम्सो
येहुदी : (यांकेव/यांकिफ), /קופפל (कप्पेल/कोप्पेल), /יענקלה (यांकेल/यांकेलेह), (यांकी), (याकब - रोमानियाई इकोब से), और अन्यजातियों का नाम जैकब से संबद्ध नहीं है: (जेम्स)
योरूबा जकोब, जकोबुस
ज़ुलु : जैकोबी
लोकप्रियता संपादन करना
जेम्स अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया में सबसे आम पुरुष नामों में से एक है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, जेम्स बीसवीं शताब्दी के अधिकांश समय में पुरुष शिशुओं के लिए दिए गए पांच सबसे आम नामों में से एक था। 
अरबी - हाकिम-
संस्कृत- ययाति-
_____________________     

अबीर अर्थ-

बाइबिल हिब्रू में अबीर

मैं

🔼 नाम अबीर: सारांश

अर्थ- पराक्रमी, रक्षक, ढाल
शब्द-साधन( शब्द व्युत्पत्ति)
क्रिया אבר ( 'br ) से, बलवान होना या रक्षा करना। संस्कृत वृ(आवृणोति)

🔼 बाइबिल में नाम अबीर

अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर( शक्तिशाली) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। (अवर)अबीर नाम बाईबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले नहीं; पाँच बार यह (याकूब) नाम के साथ और एक बार इस्राएल के साथ जोड़ा गया है।

यशायाह 1:24 में हम प्रभु के चार नामों को तेजी से उत्तराधिकार में पाते हैं जैसा कि यशायाह रिपोर्ट करता है: "इसलिए १-अदोन २-यहोवा ३-सबोत  ४अबीर  इज़राइल घोषित करता है । यद्यपि -"एलॉहिम"  भी ईश्वर का एक अन्य नाम है जोकि "एल" का बहुवचन रूप है ।

यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी मिलती है: "सभी मांस जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा मुक्तिदाता, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

पूरा नाम अबीर जैकब सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था।  अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीर्वाद दिया, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों की आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजनहार ने राजा डेविड को याद किया, जिसने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक कि उसे (YHWH) "यह्व" के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132:2-5)।

🔼 अबीर नाम की व्युत्पत्ति

अबीर नाम जड़ אבר ( 'br' ) से आया है, जिसका मोटे तौर पर मतलब होता है मजबूत होना:

 क्रिया אבר ( 'br ) का अर्थ है मजबूत या दृढ़ होना, विशेष रूप से रक्षात्मक तरीके से (आक्रामक के बजाय)। व्युत्पन्न संज्ञाएं אבר ( ' एबर ) और אברה ( 'एब्रा ) पिनियन (ओं) को संदर्भित करती हैं; जो एक पक्षी के पंख बनाती हैं, जिसका अर्थ है कि पूर्वजों ने एवियन पंखों को उड़ने के बजाय रक्षा करने के साधन के रूप में देखा (हस्ताक्षर) इसलिए, स्वर्गदूतों की विशेषता उड़ने की क्षमता नहीं बल्कि रक्षा करने की प्रवृत्ति है)।

क्रिया ( अबार ) पिनियन से की जाने वाली गतिविधियों का वर्णन करती है, जो उड़ना या रक्षा करना है। विशेषण ( 'अब्बीर' ) , जिसका अर्थ है रक्षात्मक तरीके से मजबूत; सुरक्षात्मक।

_____________________________________
हमारे समाज और देश में बड़े बड़े अनुसन्धान कर्ता  हुए हैं। 
अभी अभी एक शूद्र वादी  विचारधारा के पोषक  विद्वान  लेखक "राकेश यादव जी" ने 'अहीर शब्द की कुण्डली को खोज कर इसकी व्युत्पत्ति की नयी थ्योरी ईजाद की  है।

उनके अनुसार अहीर शब्द वर्हि: शब्द का रूपान्तरण है।
न कि आभीर शब्द का

परन्तु  लेखक ने  संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण वर्हि; शब्द का अर्थ केवल मोर को ही माना हैं। जबकि वर्हि: का अर्थ मुर्गा भी होता है ।

("वर्हमस्य+ इन) -व्युपत्ति से जिसके वर्हम ( पूँछ-पंख हो  वह वर्हिण- या वर्हि: होने से मयूर तथा मुर्गा का वाचक है ।

यद्यपि अहीर लोग मोर अथवा मुर्गा तो नहीं पालते थे जिन्हें वर्हि से सम्बद्ध किया जाए।
 
परन्तु मोर पंख का मुकुट  अहीर  जाति में उत्पन्न यादवों के तत्कालिक नायक श्रीकृष्ण अवश्य धारण करते थे ।
 
मयूर पालना गुप्त काल में  मगध के  मौर्यों  का कार्य रहा है  ।
विदित हो कि ब्राह्मणीय-
वर्ण-व्यवस्था में यादवों अथवा अहीर जाति को समाहित नहीं किया जा सकता है।

क्यों कि जब वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा भी नहीं थी तब  भी अहीर जाति  थी।

क्यों कि अहीर जाति में ईश्वरीय विभूतियों के रूप में अनेक वैष्णवी शक्तियों ने अवतरण किया है।

आभीर जाति के नायक / नायिका "गायत्री "दुर्गा "राधा  और विन्ध्याचल वासिनी तथा कृष्ण और बलराम आदि के रूप में  गोप लीला करते हुए भी भागवत धर्म का द्वार समस्त शूद्र और स्त्रीयों के लिए खोल देते हैं ।

गोप अहीरों के द्वारा नारायणी सेना बना कर दुष्टों का संहार कर देते हैं ।
युद्ध- भूमि में कृष्ण सूत बनकर रथ भी हाँकते हैं।

और युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में शूद्र बनकर उच्छिष्ट ( झूँठी) पत्तर भी  कृष्ण  उठाते हैं।
 
और वैश्यवृत्ति समझी जाने वाले कार्य  कृषि-और गोपालन  करने वाले होकर गायें भी चराते हैं ।

फिर अहीरों के लिए वर्ण- व्यवस्था के क्या मायने हैं ? 
अहीर हिन्दु नहीं हैं क्योंकि हिन्दुत्व में बनिया ब्राह्मण और ठाकुर या राजपूत  समझे जाने वाले लोग श्रीराम के नाम पर भगवा के बैनर तले एक जुट हैं ।
अहीरों तुम हिन्दू नहीं हो उन अर्थों में जिन अर्थों में तुम आज स्वयं को कह रहो हो ।
हिन्दू ब्राह्मण वाद या पूरक शब्द है ।

और हिन्दु को रूप में वर्णव्यवस्था को अन्तर्गत आपको शूद्र वर्ण में स्थित किया जाएगा ।

अहीर भागवत हैं  सात्वत हैं ।
जिसे मनु स्मृति कार ने पूर्वदुराग्रह वश शूद्र बनाने की कोशिश की है।

वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और (सात्वत) कहते हैं।

जबकि पुराणों के अनुसार (सात्वत) यादवों का वह समुदाय है जिसने भागवत धर्म का प्रतिपादन किया।

सात्वत संहिता या सात्त्वत संहिता एक पञ्चरात्र संहिता है। सात्वतसंहिता, पौस्करसंहिता तथा जयाख्यासंहिता को सम्मिलित रूप से 'त्रिरत्न' कहा जाता है। सात्त्वत संहिता की रचना ५०० ई के आसपास हुई मानी जाती है। 

अतः यह सबसे प्राचीन पंचरात्रों में से एक है। यह गुप्त काल था जब भागवत धर्म अपने चरम पर था।सभी गुप्त राजा परमभागवत की उपाधि अपने नाम के अन्त में लगाते थे यही वो काल था जब भगवान श्रीकृष्ण सी बहुतायत नीतियों का निर्माण हुआ।

सातत्व का शाब्दिक अर्थ
  • संज्ञा पुं० [सं०] (१) बलराम (२) श्रीकृष्ण (३) विष्णु (४) यदुवंशी । यादव (५) परन्तु मनुस्मृति-संहिता के अनुसार  सात्वत एक वर्ण संकर जाति है  ।जिसकी उत्पत्ति जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान  सात्वत के अनुयायी । प्राचीन ग्रन्थों में ये सात्वत  वैष्णव हैं (७) एक प्राचीन देश का नाम ।
______
मनुस्मृतिकार ने तो अहीर जाति को भी वर्णसंकर बनाकर निम्नरूप में वर्णन किया है।


उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) उसमें ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण कहते हैं ।
_________________________________
जबकि स्मृतियों से पूर्व लिखित ग्रन्थ पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व सिद्ध होता है जब कोई वर्णसंकर जाति भी सृष्टि में नहीं थी तब अहीर थे । अत: अहीरों को वर्णसंकर कहना शास्त्रकार की मूढ़ता का परिचायक है ।
अहीर वह प्राचीनतम जाति है जिसमें सतयुग को प्रारम्भ में ही गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं। अत: अहीर प्रत्येक रूप में वैष्णव ही हैं । और इनकी सात्विकता तथा सदाचार या वर्णन सबसे प्राचीन पुराण पद्म पुराण भी करता है।
हिन्दी अनुवाद -★विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नाम की कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।१५।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति में यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ।१६।
और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) तब होगी जब धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा।१७।(स्कन्दपुराणनागर खण्ड)-में भी गायत्री की कथा-का वर्णन निम्न लिखित है।
"
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥













____________

स्कन्दपुराण को नागर खण्ड में वर्णन है कि  गोपा अथवा आभीर जहाँ भी रहेंगे वहीं वहीं मेरे वंश के प्रभाव से सभी देवता और लक्ष्मी निवास करेंगे चाहें वह स्थान वन ही क्यों न हो!!
वास्तव में वैष्णव ही इन अहीरों का अपना वर्ण है विष्णु" का  एक मत्स्य मानव के रूप में  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णन है वे वहाँ भी विष्णु एक सुमियिन देवता है।
वे विष्णु ही वेदों में गोप के रूप में  गायों का पालन करता है।
वही विष्णु अहीरों में जन्म लेते हैं । और यह
अहीर शब्द भी अपने पूर्व में वीर शब्द का रूपान्तरण होता  है।
________

परन्तु परवर्ती शब्दकोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की। है जैसे क्रमश: देखें-
____

यह प्रथम उत्पत्ति अमरसिंह के शब्दकोश अमरकोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोशकार 
(२)-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति (अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर: ) के  रूप में की अमरसिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।
तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

क्योंकि अहीर ही गो और महिष पालने वाले "वीर" चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शलआर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप  "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 
__
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।
अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि "अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका के  जिम्बाब्वे में था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थी ।
________

प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

परन्तु परवर्ती पुराण तथा स्मृतियों में अहीरों की महानता से द्वेष रखने वाले पुरोहितों ने अहीरों को शूद्र और व्यभिचारी रूप में वर्णित किया है ।

जैसा कि वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को मानते हुए भी स्कन्द पुराण ,नान्दी उपपुराण, और लक्ष्मी नारायणसंहिता आदि ग्रन्थों में अहीरों को सावित्री के शाप के बहाने से दुराचारी तक बताया गया है । 

एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा शक्रं प्रोवाच सादरम् ॥
कृतस्नानं सुरैः सार्धं विनयावनतं स्थितम् ॥४९॥

सहस्राक्षं त्वया कष्टं मन्मखे विपुलं कृतम् ॥
आनीता च तथा पत्नी गायत्री च सुमध्यमा ॥ ६.१९०.५० ॥ -स्कन्दपुराण नागर खण्ड १९०

स्कन्द पुराण के १९२ वें अध्याय में प्रक्षेप रूप में
गायत्री का नामकरण कथानक का भाव कम शं भंग करके शंकर( ईश्वर) के द्वारा गायत्री का नामकरण कराया गया जबकि इससे इसी नागरखण्ड के पहले १९०वें अध्याय में  अहीर कन्या को गायत्री नाम पहले से ही ब्रह्मा को द्वारा संबोधित है।
और तो और इस पुराण के इस खण्ड में अहीरों को अपवित्र तथा उनकी स्त्रियों को बहुत से पतियों वाली बताकर दुराचारी रूप नें दर्शाया है ।

स्कन्दपुराणम्- खण्डः ६ (नागरखण्डः)अध्यायः १९२वाँ अध्याय-

                  ॥ सूत उवाच ॥ 
अथ श्रुत्वा महानादं वाद्यानां समुपस्थितम् ॥
नारदः सम्मुखः प्रायाज्ज्ञात्वा च जननीं निजाम्॥ १॥
प्रणिपत्य स दीनात्मा भूत्वा चाश्रुपरिप्लुतः॥
प्राह गद्गदया वाचा कण्ठे बाष्पसमावृतः ॥२॥

आत्मनः शापरक्षार्थं तस्याः कोपविवृद्धये ॥
कलिप्रियस्तदा विप्रो देवस्त्रीणां पुरः स्थितः ॥३॥

मेघगम्भीरया वाचा प्रस्खलंत्या पदेपदे ॥
मया त्वं देवि चाहूता पुलस्त्येन ततः परम् ॥४॥

स्त्रीस्वभावं समाश्रित्य दीक्षाकालेऽपि नागता॥५॥
___________________________________
ततो विधेः समादेशाच्छक्रेणान्या समाहृता ॥
काचिद्गोपसमुद्भूता कुमारी देव रूपिणी ॥ ६ ॥

गोमुख में प्रवेश कराकर गुदा मार्ग से निकालने पर गायत्री नाम का विधान तथा आभीर कन्या को ब्राह्मणी बनाना-★

गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्यमार्गेण तत्क्षणात् ॥
आकर्षिता महाभागे समानीताथ तत्क्षणात् ॥७॥

सा विष्णुना विवाहार्थं ततश्चैवानुमोदिता ॥
ईश्वरेण कृतं नाम गायत्री च तवानुगम् ॥८॥

ब्राह्मणैः सकलैः प्रोक्तं ब्राह्मणीति भवत्वियम्॥
अस्माकं वचनाद्ब्रह्मन्कुरु हस्तग्रहं विभो॥९॥
__________
 देवैः सर्वैः स सम्प्रोक्तस्ततस्तां च वराननाम् ॥
ततः पत्न्युत्थधर्मेण योजयामास सत्वरम् ॥६.१९२. १० ॥

किं वा ते बहुनोक्तेन पत्नीशालां समागता ॥
रशना योजिता तस्या गोप्याः कट्यां सुरेश्वरि॥११॥

तद्दृष्ट्वा गर्हितं कर्म निष्क्रांतो यज्ञमण्डपात् ॥
अमर्ष वशमापन्नो न शक्तो वीक्षितुं च ताम् ॥१२॥

एतज्ज्ञात्वा महाभागे यत्क्षमं तत्समाचर ॥
गच्छ वा तिष्ठ वा तत्र मण्डपे धर्मवर्जिते ॥ १३॥

तच्छ्रुत्वा सा तदा देवी सावित्री द्विजसत्तमाः ॥
प्रम्लानवदना जाता पद्मिनीव हिमागमे ॥१४ ॥

लतेव च्छिन्नमूला सा चक्रीव प्रियविच्युता ॥
शुचिशुक्लागमे काले सरसीव गतोदका ॥१५॥

प्रक्षीणचन्द्रलेखेव मृगीव मृगवर्जिता ॥
सेनेव हतभूपाला सतीव गतभर्तृका ॥ १६ ॥

संशुष्का पुष्पमालेव मृतवत्सैव सौरभी ॥
वैमनस्यं परं गत्वा निश्चलत्वमुपस्थिताम् ॥
तां दृष्ट्वा देवपत्न्यस्ता जगदुर्नारदं तदा ॥ १७ ॥

धिग्धिक्कलिप्रिय त्वां च रागे वैराग्यकारकम् ॥
त्वया कृतं सर्वमेतद्विधेस्तस्य तथान्तरम् ॥ १८ ॥
                      ॥ गौर्युवाच ॥
अयं कलिप्रियो देवि ब्रूते सत्यानृतं वचः ॥
अनेन कर्मणा प्राणान्बिभर्त्येष सदा मुनिः ॥ १९ ॥

अहं त्र्यक्षेण सावित्रि पुरा प्रोक्ता मुहुर्मुहुः ॥
नारदस्य मुनेर्वाक्यं न श्रद्धेयं त्वया प्रिये ॥
यदि वांछसि सौख्यानि मम जातानि पार्वति ॥ ६.१९२.२० ॥

ततःप्रभृति नैवाहं श्रद्दधेऽस्य वचः क्वचित् ॥
तस्माद्गच्छामहे तत्र यत्र तिष्ठति ते पतिः ॥ २१ ॥

स्वयं दृष्ट्वैव वृत्तांतं कर्तव्यं यत्क्षमं ततः ॥
नात्रास्य वचनादद्य स्थातव्यं तत्र गम्यताम् ॥२२॥

                ॥ सूत उवाच ॥ 
गौर्या स्तद्वचनं श्रुत्वा सावित्री हर्षवर्जिता ॥
मखमण्डपमुद्दिश्य प्रस्खलन्ती पदेपदे ॥ २३ ॥

प्रजगाम द्विजश्रेष्ठाः शून्येन मनसा तदा ॥
प्रतिभाति तदा गीतं तस्या मधुरमप्यहो ॥२४॥

कर्णशूलं यथाऽऽयातमसकृद्द्विजसत्तमाः ॥
वन्ध्यवाद्यं यथा वाद्यं मृदंगानकपूर्वकम् ॥ २५ ॥

प्रेतसंदर्शनं यद्वन्मर्त्यं तत्सा महासती ॥
वीक्षितुं न च शक्रोति गच्छमाना तदा मखे ॥२६॥

शृंगारं च तथांगारं मन्यते सा तनुस्थितम् ॥
वाष्पपूर्णेक्षणा दीना प्रजगाम महासती ॥२७॥

ततः कृच्छ्रात्समासाद्य सैवं तं यज्ञमंडपम् ॥
कृच्छ्रात्कारागृहं तद्वद्दुष्प्रेक्ष्यं दृक्पथं गतम् ॥२८॥

अथ दृष्ट्वा तु संप्राप्तां सावित्रीं यज्ञमण्डपम् ॥
तत्क्षणाच्च चतुर्वक्त्रः संस्थितोऽधोमुखो ह्रिया।२९॥

तथा शम्भुश्च शक्रश्च (वासुदेवस्तथैव) च ॥
ये चान्ये विबुधास्तत्र संस्थिता यज्ञमंडपे ॥ ६.१९२.३०॥

ते च ब्राह्मणशार्दूलास्त्यक्त्वा वेदध्वनिं ततः ॥
मूकीभावं गताः सर्वे भयसंत्रस्तमानसाः ॥३१॥

अथ संवीक्ष्य सावित्री सपत्न्या सहितं पतिम् ॥
कोपसंरक्तनयना परुषं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
                  ॥ सावित्र्युवाच ॥
किमेतद्युज्यते कर्तुं तव वृद्ध तमाकृते ॥
ऊढवानसि यत्पत्नीमेतां गोपसमुद्भवाम्।३३।
_____________________
उभयोः पक्षयोर्यस्याः स्त्रीणां कांता यथेप्सिताः ॥
शौचाचारपरित्यक्ता धर्मकृत्यपराङ्मुखाः ॥३४॥
________________
यदन्वये जनाः सर्वे पशुधर्मरतोत्सवाः॥
सोदर्यां भगिनीं त्यक्त्वा जननीं च तथा पराम्॥ ३५॥
____________
तस्याः कुले प्रसेवंते सर्वां नारीं जनाः पराम् ॥
यथा हि पशवोऽश्नंति तृणानि जलपानगाः ॥३६॥

विण्मूत्रं केवलं चक्रुर्भारोद्वहनमेव च॥९
तद्वदस्याः कुलं सर्वं तक्रमश्राति केवलम् ॥३७॥
______________
कृत्वा मूत्रपुरीषं च जन्मभोगविवर्जितम् ॥
नान्यज्जानाति कर्तव्यं धर्मं स्वोदरसं श्रयात्॥३८।

अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम् ॥
आभीरास्तच्च कुर्वंति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥३९॥
___________________________________
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ॥
त्वया वा ब्राह्मणी कापि प्रख्याता भुवनत्रये ॥ ६.१९२.४०॥
_________________________
नोढा विधे वृथा मुण्ड नूनं धूर्तोऽसि मे मतः ॥
यत्त्वया शौचसंत्यक्ता कन्याभावप्रदूषिता॥४१॥

प्रभुक्ता बहुभिः पूर्वं तथा गोपकुमारिका॥
एषा प्राप्ता सुपापाढ्या वेश्याजनशताधिका॥४२॥

अन्त्यजाता तथा कन्या क्षतयोनिः प्रजायते॥
तथा गोपकुमारी च काचित्तादृक्प्रजायते॥४३॥

मातृकं पैतृकं वंशं श्वाशुरं च प्रपातयेत्।
तस्मादेतेन कृत्येन गर्हितेन धरातले॥४४॥

न त्वं प्राप्स्यसि तां पूजां तथा न्ये विबुधोत्तमाः॥
अनेन कर्मणा चैव यदि मेस्ति ऋतं क्वचित्॥४४॥

पूजां ये च करिष्यंति भविष्यंति च निर्धनाः॥
कथं न लज्जितोसि त्वमेतत्कुर्वन्विगर्हितम्॥४६॥
________________   
पुत्राणामथ पौत्राणामन्येषां च दिवौकसाम्॥
अयोग्यं चैव विप्राणां यदेतत्कृतवानसि॥४७॥

अथ वा नैष दोषस्ते न कामवशगा नराः॥
लज्जंति च विजानंति कृत्याकृत्यं शुभाशुभम्॥४८॥
अकृत्यं मन्यते कृत्यं मित्रं शत्रुं च मन्यते॥
शत्रुं च मन्यते मित्रं जनः कामवशं गतः॥४९॥

द्यूतकारे यथा सत्यं यथा चौरं च सौहृदम्॥
यथा नृपस्य नो मित्रं तथा लज्जा न कामिनाम्॥६.१९२.५०॥

अपि स्याच्छीतलो वह्निश्चंद्रमा दहनात्मकः।
क्षाराब्दिरपि मिष्टः स्यान्न कामी लज्जते ध्रुवम्॥५१॥

न मे स्याद्दुखमेतद्धि यत्सापत्न्यमुपस्थितम्॥
सहस्रमपि नारीणां पुरुषाणां यथा भवेत्॥ ५२॥

कुलीनानां च शुद्धानां स्वजात्यानां विशेषतः॥
त्वं कुरुष्व पराणां च यदि कामवशं गतः॥५३॥
_________
एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥ ५४॥

तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥ ५५ ॥

अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे ॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥५६ ॥

अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ५७ ॥

भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये ॥५८॥

एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९॥

न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः ॥ ६.१९२.६० ॥

करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित् ॥
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता ॥ ६१ ॥
______________
पापिष्ठा नष्टचारित्रा यथैषा पंचभर्तृका ॥
विख्यातिं यास्यते लोके यथा चासौ तथैव सा ॥ ६२ ॥

एतस्या अन्वयः पापो भविष्यति निशाचर ॥
सत्यशौचपरित्यक्ताः शिष्टसंगविवर्जिताः ॥ ६३ ॥

अनिकेता भविष्यंति वंशेऽस्या गोप्रजीविनः ॥
एवं शप्त्वा विधिं साध्वी गायत्रीं च ततः परम् ॥ ६४॥
__________________
ततो देवगणान्सर्वाञ्छशाप च तदा सती ॥
भोभोः शक्र त्वयानीता यदेषा पंचभर्तृका ॥ ६५॥

तदाप्नुहि फलं सम्यक्छुभं कृत्वा गुरोरिदम् ॥
त्वं शत्रुभिर्जितो युद्धे बंधनं समवाप्स्यसि ॥ ६६ ॥

कारागारे चिरं कालं संगमिष्यत्यसंशयम् ॥
वासुदेव त्वया यस्मादेषा वै पंचभर्तृका ॥ ६७ ॥

अनुमोदिता विधेः पूर्वं तस्माच्छप्स्याम्यसंशयम् ॥
त्वं चापि परभृत्यत्वं संप्राप्स्यसि सुदुर्मते ॥ ६८ ॥

समीपस्थोऽपि रुद्र त्वं कर्मैतद्यदुपेक्षसे ॥
निषेधयसि नो मूढ तस्माच्शृणु वचो मम ॥ ६९ ॥

जीवमानस्य कांतस्य मया तद्विरहोद्भवम् ॥
संसेवितं मृतायां ते दयितायां भविष्यति ॥ ६.१९२.७० ॥

यत्र यज्ञे प्रविष्टेयं गर्हिता पंचभर्तृका ॥
भवानपि हविर्वह्ने यत्त्वं गृह्णासि लौल्यतः ॥ ७१ ॥

तथान्येषु च यज्ञेषु सम्यक्छंकाविवर्जितः ॥
तस्माद्दुष्टसमाचार सर्वभक्षो भविष्यसि ॥ ७२ ॥

स्वधया स्वाहया सार्धं सदा दुःखसमन्वितः ॥
नैवाप्स्यसि परं सौख्यं सर्वकालं यथा पुरा ॥ ७३ ॥

एते च ब्राह्मणाः सर्वे लोभोपहतचेतसः ॥
होमं प्रकुर्वते ये च मखे चापि विगर्हिते। ७४ ॥

वित्तलोभेन यत्रैषा निविष्टा पञ्चभर्तृका ॥
तथा च वचनं प्रोक्तं ब्राह्मणीयं भविष्यति ॥ ७५ ॥

दरिद्रोपहतास्तस्माद्वृषलीपतयस्तथा ॥
वेदविक्रयकर्तारो भविष्यथ न संशयः ॥ ७६ ॥

भोभो वित्तपते वित्तं ददासि मखविप्लवे ॥
तस्माद्यत्तेऽखिलं वित्तमभोग्यं संभविष्यति ॥७७ ॥
________
तथा देवगणाः सर्वे साहाय्यं ये समाश्रिताः ॥
अत्र कुर्वंति दोषाढ्ये यज्ञे वै पांचभर्तृके ॥ ७८॥

संतानेन परित्यक्तास्ते भविष्यंति सांप्रतम्॥
दानवैश्च पराभूता दुःखं प्राप्स्यति केवलम् ॥ ७९ ॥
एतस्याः पार्श्वतश्चान्याश्चतस्रो या व्यवस्थिताः ॥
आभीरीति सपत्नीति प्रोक्ता ध्यानप्रहर्षिताः ॥ ६.१९२.८० ॥

मम द्वेषपरा नित्यं शिवदूतीपुरस्सराः ॥
तासां परस्परं संगः कदाचिच्च भविष्यति ॥ ८१ ॥

नान्येनात्र नरेणापि दृष्टिमात्रमपि क्षितौ ॥
पर्वताग्रेषु दुर्गेषु चागम्येषु च देहिनाम् ॥
वासः संपत्स्यते नित्यं सर्वभोगविवर्जितः ॥ ८२ ॥
                ॥ सूत उवाच ॥
एवमुक्त्वाऽथ सावित्रीकोपोपहतचेतसा ॥
विसृज्य देवपत्नीस्ताः सर्वा याः पार्श्वतःस्थिताः॥ ८३॥

उदङ्मुखी प्रतस्थे च वार्यमाणापि सर्वतः॥
सर्वाभिर्देवपत्नीभिर्लक्ष्मीपूर्वाभिरेवच ॥८४॥

तत्र यास्यामि नो यत्र नामापि किल वै यतः॥
श्रूयते कामुकस्यास्य तत्र यास्याम्यहं द्रुतम्॥८५॥

एकश्चरणयोर्न्यस्तो वामः पर्वतरोधसि ॥
द्वितीयेन समारूढा तस्यागस्य तथोपरि ॥८६॥

अद्यापि तत्पदं वामं तस्यास्तत्र प्रदृश्यते ॥
सर्वपापहरं पुण्यं स्थितं पर्वतरोधसि ॥ ८७ ॥

अपि पापसमाचारो यस्तं पूजयते नरः ॥
सर्वपातकनिर्मुक्तः स याति परमं पदम् ॥ ८८ ॥

यो यं काममभि ध्याय तमर्चयति मानवः ॥
अवश्यं समवाप्नोति यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्॥ ८९ ॥
                  ॥ सूत उवाच ॥
एवं तत्र स्थिता देवी सावित्री पर्वता श्रया ॥
अपमानं महत्प्राप्य सकाशात्स्वपतेस्तदा ॥ ६.१९२.९० ॥
यस्तामर्चयते सम्यक्पौर्णमास्यां विशेषतः ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति स मनोवांछितां स्तदा ॥९१॥

या नारी कुरुते भक्त्या दीपदानं तदग्रतः ॥
रक्ततंतुभिराज्येन श्रूयतां तस्य यत्फलम् ॥ ९२ ॥

यावन्तस्तंतवस्तस्य दह्यंते दीप संभवाः ॥
मुहूर्तानि च यावंति घृतदीपश्च तिष्ठति ॥
तावज्जन्मसहस्राणि सा स्यात्सौभाग्यभांगिनी॥ ९३॥

पुत्रपौत्रसमोपेता धनिनी शील मंडना। ॥
न दुर्भगा न वन्ध्या च न च काणा विरूपिका ॥ ९४ ॥

या नृत्यं कुरुते नारी विधवापि तदग्रतः ॥
गीतं वा कुरुते तत्र तस्याः शृणुत यत्फलम् ॥९५॥

यथायथा नृत्यमाना स्वगात्रं विधुनोति च ॥
तथातथा धुनोत्येव यत्पापं प्रकृतं पुरा ॥ ९६ ॥

यावन्तो जन्तवो गीतं तस्याः शृण्वंति तत्र च ॥
तावंति दिवि वर्षाणि सहस्राणि वसेच्च सा ॥९७॥

सावित्रीं या समुद्दिश्य फलदानं करोति सा ॥
फलसंख्याप्रमाणानि युगानि दिवि मोदते ॥ ९८ ॥

मिष्टान्नं यच्छते यश्च नारीणां च विशेषतः ॥
तस्या दक्षिणमूर्तौ च भर्त्राढ्यानां द्विजोत्तमाः ॥
स च सिक्थप्रमाणानि युगा नि दिवि मोदते ॥९९॥

यः श्राद्धं कुरुते तत्र सम्यक्छ्रद्धासमन्वितः ॥
रसेनैकेन सस्येन तथैकेन द्विजोत्तमाः ॥
तस्यापि जायते पुण्यं गयाश्राद्धेन यद्भवेत् ॥ ६.१९२.१०० ॥

यः करोति द्विजस्तस्या दक्षिणां दिशमाश्रितः॥
सन्ध्योपासनमेकं तु स्वपत्न्या क्षिपितैर्जलैः॥१०१॥

सायंतने च संप्राप्ते काले ब्राह्मणसत्तमाः॥
तेन स्याद्वंदिता संध्या सम्यग्द्वादशवार्षिकी ॥१०२॥
_____
यो जपेद्ब्राह्मणस्तस्याः सावित्रीं पुरतः स्थितः ॥
तस्य यत्स्यात्फलं विप्राः श्रूयतां तद्वदामि वः ॥ १०३ ॥

दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेन च पुरा कृतम् ॥
त्रियुगे तु सहस्रेण तस्य नश्यति पातकम् ॥१०४॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चमत्कारपुरं प्रति ॥
गत्वा तां पूजयेद्देवीं स्तोतव्या च विशेषतः ॥१०५॥

सावित्र्या इदमाख्यानं यः पठेच्छृणुयाच्च वा ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुखभागत्र जायते ॥१०६॥

एतद्वः सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं द्विजोत्तमाः ॥
सावित्र्याः कृत्स्नं माहात्म्यं किं भूयः प्रवदाम्यहम् ॥१०७॥

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सावित्रीमाहात्म्यवर्णनंनाम द्विनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १९२ ॥
_____________________

जबकि पद्मपुराण अहीरों को सदाचारी को रूप में वर्णन करता है ।
______________

जिन अहीरों की जाति में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को  भी वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का भी जन्म होता है
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है ;
यदु और तुर्वसु को ऋग्वेद के दशम् मण्डल के बासठवें सूक्त की दशम ऋचा में गायों से घिरा हुआ गायों के दाता और त्राता के रूप  में स्तुत्य किया गया है ।
____
न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् ।
सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे ॥९॥
____
उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥

सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुःसूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।
____________
प्र नूनं जायतामयं मनुस्तोक्मेव रोहतु ।
यः सहस्रं शताश्वं सद्यो दानाय मंहते ॥८॥
पदपाठ-
प्र । नूनम् । जायताम् । अयम् । मनुः । तोक्मऽइव । रोहतु ।यः । सहस्रम् । शतऽअश्वम् । सद्यः । दानाय । मंहते ॥८।
भाष्य-
“अयं सावर्णिः “मनुः "नूनं क्षिप्रं “प्र “जायतां =प्रजातो भवतु । धनादिभिः पुत्रादिभिश्च “रोहतु प्रादुर्भवतु । तत्र दृष्टान्तः । “तोक्मेव । यथा जलक्लिन्नं बीजं प्रादुर्भवति एवं कर्मफलसंयुक्तः स मनुः पुत्रादिभिः रोहतु । “यः अयं मनुः “शताश्वं बह्वश्वसंयुक्तं “सहस्रं गवां “सद्यः तदानीमेव “दानाय= “मंहते अस्मा ऋषये दातुं प्रेरयति ॥८।

न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।

“तं सावर्णिं मनुं “कश्चन कश्चिदपि “आरभम् आरब्धुं स्वकर्मणा “न “अश्नोति न व्याप्नोति । यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् । “दिवइव द्युलोकस्य “सानु समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य “सावर्ण्यस्य मनोरियं गवादिदक्षिणा “सिन्धुरिव स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां “पप्रथे विप्रथते । विस्तीर्णा भवति।

उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा ।यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०

“उत =अपि च। "स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ। “गोपरीणसा= गोपरीणसौ =गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ।
 “दासा =दातारौ दासृ =दाने
 ( दासति ददास दासिता दासत इत्यादि ) दाशतिवत् 878 (क्षीरतरंगिणीधातुपाठ)

स्थितौ =तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च= एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे = माहमहे   । 

सहस्रऽदाः । ग्रामऽनीः । मा । रिषत् । मनुः । सूर्येण । अस्य । यतमाना । एतु । दक्षिणा ।सावर्णेः । देवाः । प्र । तिरन्तु । आयुः । यस्मिन् । अश्रान्ताः । असनाम । वाजम् ॥११

“सहस्रदाः गवादीनां सहस्रस्य दाता “ग्रामणीः ग्रामाणां नेता कर्ता जनपदानामयं “मनुः “मा “रिषत् न कैश्चिदपि रिष्टो हिंसितो भवतु । यद्वा । कर्मनेतॄनस्मान्मा हिनस्तु किंतु धनादिदानेन पूजयतु । “अस्य “यतमाना गच्छन्ती “दक्षिणा “सूर्येण सह “एतु संगच्छताम् । त्रिषु लोकेषु प्रसिद्धा भवत्वित्यर्थः । तस्यास्य “सावर्णेः सवर्णपुत्रस्य मनोः “देवाः इन्द्रादयः “आयुः जीवन “प्र “तिरन्तु प्रवर्धयन्तु । “अश्रान्ताः कर्मसु अनलसाः सर्वं कर्म कुर्वन्तो वयं “यस्मिन् मनौ “वाजं गोलक्षणमन्नम् “असनाम संभजेमहि । नाभानेदिष्ठोऽहमलभ इत्याशास्ते ॥ २ ॥
_____
और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुष ,नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है  ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।

वर्तमान में  भारतीयों को इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है।
 क्यों कि अहीरों से यादव हैं नकि यादवों से अहीर।

अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं 
सप्तऋषियों में गिने गये अत्रि ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । नकि जैविक अथवा मैथुनीय पुत्र!

पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है कि प्रारम्भ में गोत्र नहीं थे ।

गोत्र की अवधारणा-"†
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं। 
जो ब्राह्माके पुत्र अत्रि की भी माता सिद्ध होती है ‌

अत्रि- सप्तर्षियों में से एक । विशेष—ये ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते हैं । इनकी स्त्री अनुसूया थीं । दत्तात्रेय, दुर्वासा और सोम  इनके पुत्र थे । इनका नाम दस प्रजापतियों में भी है। 

और जब आभीर कन्या गायत्री का विवाह ब्रह्मा से होता है तब अत्रि ऋषि स्वयं पुरोहित बनते हैं ।
अत: अहीरों या गोत्र अत्रि नहीं है।।
अत्रिर्होतार्चिकस्तत्र पुलस्त्योऽध्वर्युरेव च॥
उद्गाताऽथो मरीचिश्च ब्रह्माहं सुरपुंगवः॥7.1.165.३०॥ 
(स्कन्दपुराणम्‎ | खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)‎ | प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्
__________
परन्तु अहीर जाति का अत्रि और सोम से क्या सम्बन्ध हैं भारतीय पुराणकार यह स्पष्ट नहीं कर पाए क्यों कि पुराण कारों नें यह कथाऐं कनानी और हिब्रू संस्कृतियों से ग्रहण की हैं ।

कनानी मिथकों में एब्राहम को जगत का पिता बताया गया है । 

सुमेर के उर नामक नगर में जिनका जन्म हुआ था।

भारतीय पुराणों में वर्णित जगत पिता की जैविक समानता सैमेटिक मिथकों से मिलती जुलती है ।कुछ अतिरञ्जनीओं ने  कथाओं में परस्पर भिन्नताओं को स्थापित कर दिया है ।
__________________
 तेरह के पुत्र अब्राहम को ही सैमेटिक मिथकों में जगत का पिता माना गया है ।जो कि ब्राह्म का रूपान्तरण है ।

हिब्रू कुलपति
वैकल्पिक शीर्षक: अब्राम, अवराम, अवराम, इब्राहीमी

प्रमुख प्रश्न
इब्राहीम क्यों महत्वपूर्ण है?

इब्राहीम कहाँ का था?

इब्राहीम का परिवार कैसा था?

अब्राहम किस लिए जाना जाता है?

अब्राहम किसमें विश्वास करता था?

इब्राहीम , हिब्रू में अव्राहम , जिसे मूल रूप से अब्राम कहा जाता है या, हिब्रू में, अवराम , (शुरुआती दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में फला-फूला नाम ) , 

हिब्रू पितृसत्ताओं में से पहला और तीन महान एकेश्वरवादी धर्मों- यहूदी धर्म , ईसाई धर्म और इस्लाम द्वारा सम्मानित व्यक्ति का नाम।

बाइबिल की उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार , अब्राहम ने मेसोपोटामिया में ऊर नगर को छोड़ दिया , क्योंकि ईश्वर ने उसे एक अज्ञात भूमि में एक नया राष्ट्र खोजने के लिए बुलाया।

 जिसे बाद में उसने सीखा कि वह देश कनान था। उसने निर्विवाद रूप से परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन किया

जिनसे उसे बार-बार वादे और एक वाचा मिली कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा।

यहूदी धर्म में वादा किया गया वंश समझा जाता है कि यहूदी लोग इब्राहीम के बेटे

यहूदी इसहाक से पैदा हुए थे, जो उनकी पत्नी सारा से पैदा हुए थे । 

इसी तरह, ईसाई धर्म में यीशु की वंशावली का पता इसहाक से लगाया जाता है,।

और इब्राहीम के इसहाक के निकट-बलिदान को क्रूस पर यीशु के बलिदान के पूर्वाभास के रूप में देखा जाता है।

 इस्लाम में यह इश्माएल है, इब्राहीम का जेठा पुत्र, हाजिरा से पैदा हुआ , जिसे ईश्वर के वादे की पूर्ति के रूप में देखा जाता है, और पैगंबर मुहम्मद उसके वंशज हैं।

जोजसेफ मोलनार: द मार्च ऑफ अब्राहम
जोज़सेफ मोलनार: अब्राहम का मार्च
सभी मीडिया देखें
फला-फूला: c.2000 ईसा पूर्व - c.1501 ईसा पूर्व  उर
उल्लेखनीय परिवार के सदस्य: पत्नी सारा पुत्र इसहाक
अब्राहम की "जीवनी" की गंभीर समस्या
सामान्य अर्थों में अब्राहम की कोई जीवनी नहीं हो सकती।

सबसे अधिक जो किया जा सकता है वह यह है कि आधुनिक ऐतिहासिक खोजों की व्याख्या को बाइबिल सामग्री पर लागू किया जाए ताकि उसके जीवन में घटनाओं की पृष्ठभूमि और पैटर्न के बारे में एक संभावित निर्णय पर पहुंचा जा सके। 

इसमें पितृसत्तात्मक युग का पुनर्निर्माण शामिल है (अब्राहम, इसहाक , जैकब , और जोसेफ ; प्रारंभिक 2 सहस्राब्दी ईसा पूर्व ), जो 19 वीं शताब्दी के अंत तक अज्ञात था।

और लगभग अनजाना माना जाता था। यह माना गया था, काल्पनिक बाइबिल स्रोतों की एक अनुमानित डेटिंग के आधार पर , कि बाइबिल में पितृसत्तात्मक कथाएं बहुत बाद की अवधि (9वीं -5 वीं शताब्दी) की स्थिति और चिंताओं का एक प्रक्षेपण मात्र थीं।

ईसा पूर्व ) और संदिग्ध ऐतिहासिक मूल्य।

आख्यानों की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत विकसित किए गए थे- उदाहरण के लिए, कि पितृसत्ता पौराणिक प्राणी या जनजातियों या लोककथाओं या etiological (व्याख्यात्मक) आकृतियों के व्यक्तित्व थे जिन्हें विभिन्न सामाजिक, न्यायिक या सांस्कृतिक प्रतिमानों के लिए बनाया गया था।

हालांकि, प्रथम विश्व युद्ध के बाद , पुरातात्विक अनुसंधान ने स्मारकों और दस्तावेजों की खोज के साथ काफी प्रगति की है, जिनमें से कई पारंपरिक खाते में पितृसत्ताओं को सौंपी गई अवधि के हैं।

एक शाही महल की खुदाई उदाहरण के लिए, यूफ्रेट्स (फरात नदी) पर एक प्राचीन शहर मारी , हजारों क्यूनिफॉर्म टैबलेट (आधिकारिक अभिलेखागार और पत्राचार और धार्मिक और न्यायिक ग्रंथ) को प्रकाश में लाया और इस तरह व्याख्या को एक नया आधार प्रदान किया, जिसका उपयोग विशेषज्ञों ने यह दिखाने के लिए किया, बाइबिल की पुस्तक में उत्पत्ति , कथाएं अन्य स्रोतों से पूरी तरह से फिट बैठती हैं, 

जो आज दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में जानी जाती हैं, लेकिन बाद की अवधि के साथ अपूर्ण रूप से जानी जाती हैं। 

1940 के दशक में बाइबल के एक विद्वान ने इस परिणाम को "पुराने नियम की पुनः खोज" कहा।

इस प्रकार, पिता इब्राहीम की आकृति के पुनर्निर्माण के लिए दो मुख्य स्रोत हैं: उत्पत्ति की पुस्तक- तेरह (अब्राहम के पिता) की वंशावली से और अध्याय 11 में ऊर से हारान के लिए उनके प्रस्थान से अध्याय 25 में अब्राहम की मृत्यु तक और हाल ही में उस क्षेत्र और युग से संबंधित पुरातात्विक खोज और व्याख्या जिसमें बाइबिल का वर्णन होता है।

बाइबिल खाता-

बाइबिल के खाते के अनुसार, अब्राम ("पिता [या भगवान] ऊंचा है"), जिसे बाद में इब्राहीम ("कई राष्ट्रों का पिता") नाम दिया गया, जो एक मूल निवासी थामेसोपोटामिया में उर , 
परमेश्वर (यहोवा) द्वारा अपने देश और लोगों को छोड़ने और एक अज्ञात भूमि की यात्रा करने के लिए कहा जाता है, जहां वह एक नए राष्ट्र का संस्थापक बन जाएगा।

 वह निर्विवाद रूप से कॉल का पालन करता है और (75 वर्ष की आयु में) अपनी बंजर पत्नी, सराय के साथ आगे बढ़ता है, जिसे बाद में नाम दिया गया सारा ("राजकुमारी"), उसका भतीजा लूत, और अन्य साथियों की भूमि के लिए कनान ( सीरिया और मिस्र के बीच )।


वहाँ निःसंतान सेप्टुजेनेरियन को बार-बार वादे और परमेश्वर से एक वाचा प्राप्त होती है कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा और एक असंख्य राष्ट्र बन जाएगा। 

आखिरकार, उनका न केवल एक बेटा है,इश्माएल , अपनी पत्नी की दासी द्वारा हाजिरा लेकिन, 100 वर्ष की आयु में, सारा द्वारा एक वैध पुत्र है,इसहाक , जो वचन का वारिस होगा।

 फिर भी इब्राहीम इसहाक को बलिदान करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार है, जो उसके विश्वास की परीक्षा है, जिसे अंत में पूरा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि परमेश्वर एक मेढ़े को प्रतिस्थापित करता है। 

सारा की मृत्यु पर, वह खरीदता है मकपेला की गुफा के पास हेब्रोन , साथ में आसपास के मैदान के साथ, एक परिवार के दफन स्थान के रूप में। 

यह इब्राहीम और उसकी भावी पीढ़ी द्वारा वादा की गई भूमि के एक टुकड़े का पहला स्पष्ट स्वामित्व है।

अपने जीवन के अंत में, वह यह देखता है कि उसका बेटा इसहाक एक कनानी महिला के बजाय मेसोपोटामिया में अपने ही लोगों की एक लड़की से शादी करता है।

 इब्राहीम की 175 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाती है और उसे सारा के बगल में मकपेला की गुफा में दफनाया जाता है।

_______

यद्यपि गायत्री को भारतीय पुराणों में ब्रह्मा की पत्नी तो बताया है परन्तु गायत्री को पुराणों में ब्राह्मी शक्ति न मानकर वैष्णवी शक्ति  का अवतार माना हैं ।

दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्र बनती हैं तब इनका नाम यदुवंशसमुद्भवा के रूप में नन्दजा भी होता है ।

पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माँ सावित्री है। 

पौराणिक इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया।
तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया जो ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।

स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
_______________________________
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -

                           *-भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।

                 *-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
__________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
______
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
______
*******************************
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।

अनया (गायत्र्या )तारितो गच्छ (यूयं भो आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
________________________ 
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
______________

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।

एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
___________________
भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

____________________________
ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

_________________________________

बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
 ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।

- भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हूँ।

पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था।
 दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।
उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 
उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘कश्यप मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
 कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।

प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 

धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
_______________

अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥

मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥

उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।

पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥

धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥

हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥

छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥

वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥

तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥

नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥

तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥

तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥

स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥

कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 

चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।

                   ।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।

                 ।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
_____________________________________
तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 

इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।

फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए।
इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
______________________
उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।

‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। 

ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।

जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। 

जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। 

इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
____________________
 तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
 वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। 

एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ? 

इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
_____________________________________
उनमें से प्रत्‍येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार उन महात्‍मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्‍छा नहीं करते थे।
________________________________________
 प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्‍पत्ति शशबिन्‍दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्‍पादक हुआ।

_______________________________    
संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे  १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र । 
६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ । 
१०. बंधु । भाई । 
११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान । 
१३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । 
_________________________________   

विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
_____
सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।

यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है 
जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
 
यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ  बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
 
परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।

केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा । 
यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे और पतिपत्नी भी ।
मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं । 
ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
___________________
एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से  विवाह भी निषिद्ध ही है।
यद्यपि  गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में  वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
____
त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।

ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥

— ऋग्वेद १/५१/३॥
___________________________________

 - पदपाठ
त्वम् । गोत्रम् । अङ्गिरःऽभ्यः । अवृणोः । अप । उत । अत्रये । शतऽदुरेषु । गातुऽवित् ।

ससेन । चित् । विऽमदाय । अवहः । वसु । आजौ । अद्रिम् । ववसानस्य । नर्तयन् ॥३।

सायण भाष्य-

हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा । (गोत्रं गोसमूहं) पणिभिरपहृतं गुहासु निहितम् अङ्गिरोभ्यः ऋषिभ्यः अप अवृणोः गुहाद्वारोद्घाटनेन प्रकाशयः।
 "उत अपि च "अत्रये महर्षये । कीदृशाय । “शतदुरेषु शतद्वारेषु यन्त्रेष्वसुरैः पीडार्थं प्रक्षिप्ताय "गातुवित् मार्गस्य लम्भयिताभूः ।
 तथा “विमदाय “चित् विमदनाम्ने महर्षयेऽपि "ससेन अन्नेन युक्तं “वसु धनम् “अवहः प्रापितवान् । तथा “आजौ संग्रामे जयार्थं "ववसानस्य निवसतो वर्तमानस्यान्यस्यापि स्तोतुः "अद्रिं वज्रं “नर्तयन् रक्षणं कृतवानसीति शेषः । अतस्तव महिमा केन वर्णयितुं शक्यते इति भावः ॥
 गोत्रम् ।' गुङ् अव्यक्ते शब्दे । औणादिकः त्रप्रत्ययः । यद्वा । खलगोरथात्' इत्यनुवृत्तौ ‘ इनित्रकट्यचश्च' (पा. सू. ४. २. ५१) इति समूहार्थे त्रप्रत्ययः । शतदुरेषु । शतं दुरा द्वाराण्येषाम् । द्वृ इत्येके । द्वर्यन्ते संव्रियन्ते इति दुराः। घञर्थे कविधानम्' इति कप्रत्ययः। छान्दसं संप्रसारणं परपूर्वत्वम् । तच्च यो ह्युभयोः स्थाने भवति स लभतेऽन्यतरेणापि व्यपदेशम् इति • उरण् रपरः ' ( पाणिनि सूूूूत्र १. १. ५१ ) इति रपरं भवति । 

यद्वा । द्वारशब्दस्यैव छान्दसं संप्रसारणं द्रष्टव्यम् । गातुवित् । ‘गाङ् गतौ' । अस्मात् ‘कमिमनिजनिभागापायाहिभ्यश्च' (उ. सू. १. ७२ ) इति तुप्रत्ययः । तं वेदयति लम्भयतीति गातुवित् । ‘विद्लृ लाभे' । अन्तर्भावितण्यर्थात् क्विप् । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम्। ससेन । ससम् इति अन्ननाम । ‘ससं नमः आयुः' (नि.२.७.२१) इति तन्नामसु पाठात् । आजिः इति संग्रामनाम । “आहवे आजौ ' (नि. २. १७. ८) इति तत्र पाठात् । अद्रिम् । अत्ति भक्षयति वैरिणम् इति अद्रिर्वज्रः । ‘ अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्' इति क्रिन्प्रत्ययः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । यास्कस्त्वेवम् अद्रिशब्दं व्याचख्यौ- अद्रिरादृणात्यनेनापि वात्तेः स्यात् ' ( निरु. ४. ४ ) इति । ववसानस्य । ‘वस निवासे । कर्तरि ताच्छीलिकः चानश् । 'बहुलं छन्दसि ' इति शपः श्लुः । द्विर्भावहलादिशेषौ । चित्वादन्तोदात्तत्वम् 

इसको निघण्टु (मेघः । इति निघण्टुः । १ । १० । ) तथा सायण के भाष्य में मेघ का अर्थ दिया है। यथा सायणभाष्य से :

हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा ।

मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :

'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।

यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् 

— ऋग्वेद ८/५०/१०॥

सायण-भाष्य-
हे अद्रिवः वज्रिवन् इन्द्र मेधे यज्ञे यथा येन प्रकारेण कण्वे एतन्नामके ऋषौ निमित्ते हरिश्रियम् । हरिः जगत्तापहर्त्री हरितवर्णा वा श्रीः जललक्ष्मीर्यस्य तादृशम् । गोत्रं मेघम् असिसासः दत्तवानसि । ईदृशे कण्वे अध्वरे । ध्वरतिर्हिंसाकर्मा । तद्रहिते दीर्घनीथे दीर्घं स्वर्लोकपर्यन्तं नीथं हविः प्रापणं यस्य तथाभूते । पुनः कीदृशे । दमूनसि दानमनसि उदारे । यथा च गोशर्ये एतन्नामके ऋषौ मेघं दत्तवानसि तथा मयि पुष्टिगौ हरिश्रियं गोत्रं देहि। यथा तयोरनुग्रहदृष्ट्या मेघवृष्टिं कृतवानसि तथा मय्यपि कृपादृष्ट्या अभिलषितवृष्टिं कुर्वित्यभिप्रायः ॥ ॥ १७ ॥
इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है। इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल  के रूप में हुआ।

इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।

गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।

यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।

इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। 

क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।

यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :

गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥

 छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥

यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।

गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश) 

तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
____________________________

गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।

तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।

इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।

तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका  एक अर्थ  छतरी( छत्र भी है।

__________________________________________
क्योंकि उस वैदिक समय  में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर  14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में  उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।

यमी अपने सगे भाई यम से  संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। 
परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
पदान्वय-
न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।

अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।

सायण-भाष्य★

यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥

“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)

इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष  के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
मनु स्मृति –5/60
(सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।

 (जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने)  जानने  से, (समान-उदक भावः तु) आपस में  (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
 इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
_____________________________________
“सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. 
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।

जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।

आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों  की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। 

विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।

इन कोशिकाओं में कुछ  गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। 

इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। 

यद्यपि  डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।

 इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स"   से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।

डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड  (संकेतावली)

को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
_________________

आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,

जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है। 

एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।

और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।

इस विज्ञान का मूल उद्देश्य आनुवंशिकता के ढंगों (पद्धति) का अध्ययन करना है ।

_______________________________

गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।

समस्त जीव, चाहे वे जन्तु हों या वनस्पति, अपने पूर्वजों के यथार्थ प्रतिरूप होते हैं। 

वैज्ञानिक भाषा में इसे 'समान से समान की उत्पति' (लाइक बिगेट्स लाइक) का सिद्धान्त कहते हैं। 

आनुवंशिकी के अन्तर्गत कतिपय कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। जो निम्नलिखित हैं।

प्रथम कारक आनुवंशिकता है। किसी जीव की आनुवंशिकता उसके जनकों (पूर्वजों या माता पिता) की जननकोशिकाओं द्वारा प्राप्त रासायनिक सूचनाएँ होती हैं।

जैसे कोई प्राणी किस प्रकार परिवर्धित होगा, इसका निर्धारण उसकी आनुवंशिकता ही करेगी।
दूसरा कारक विभेद है जिसे हम किसी प्राणी तथा उसकी सन्तान में पाते  हैं।

प्रायः सभी जीव अपने माता पिता या कभी कभी बाबा, दादी या उनसे पूर्व की पीढ़ी के लक्षण प्रदर्शित करते हैं।
ऐसा भी सम्भव है कि उसके कुछ लक्षण सर्वथा नवीन हों।
 इस प्रकार के परिवर्तनों या विभेदों के अनेक कारण होते हैं।
________________________________________
जीवों का परिवर्धन तथा उनके परिवेश अथवा पर्यावरण (एन्वाइरनमेंट) पर भी निर्भर करता है। 

प्राणियों के परिवेश अत्यन्त जटिल होते हैं; इसके अंतर्गत जीव के वे समस्त पदार्थ तत्व बल  तथा अन्य सजीव प्राणी (आर्गेनिज़्म) समाहित हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।

वैज्ञानिक इन समस्त कारकों का सम्यक्‌ अध्ययन करता है, एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि आनुवंशिकी वह विज्ञान है।
जिसके अन्तर्गत आनुवंश्किता के कारण जीवों तथा उनके पूर्वजों (या संततियों) में समानता तथा विभेदों, उनकी उत्पत्ति के कारणों और विकसित होने की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है।
_________________________________________

पैतृक गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।

 उत्परिवर्तन की प्रक्रिया-। 

जीन दोहराव अतिरेक(आवश्यकता से अधिक होने का भाव, गुण या स्थिति / आधिक्य )आदि प्रदान करके विविधीकरण की अनुमति देता है।

एक जीन जीव को नुकसान पहुंचाए बिना अपने मूल कार्य को मूक( म्यूट ) और खो सकता है।

डी़.एन.ए प्रतिकृति की प्रक्रिया के दौरान, दूसरी स्ट्रैंड(  रस्सी का बल)के बहुलकीकरण में कभी-कभी त्रुटियां होती हैं। 

म्यूटेशन नामक ये त्रुटियां किसी जीव के फेनोटाइप को प्रभावित कर सकती हैं।

फिनोटाइप(phenotype) क्या है ?
लक्षण प्रारूप या फिनोटाइप समलक्षी जीवो के विभिन्न गुणों जैसे आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव आदि को व्यक्त करता है।

जीनोटाइप(genotype)
जीव प्रारूप या जीनोटाइप जीनी संरचना जीव के जैनिक संगठन को व्यक्त करता है,।

जो कि उसमें विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।

फेनोटाइप और जीनोटाइप में अन्तर  "लक्षण 'प्ररूप और जीव प्ररूप में अन्तर-
फेनोटाइप(लक्षण   प्ररूप)  जीनोटाइप(जीव प्ररूप)
यह जीवों के विभिन्न गुण आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव को व्यक्त करता है। 
यह जैनिक संगठन को व्यक्त करता है जो उसमे विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।

जीवो को प्रत्यक्ष देखने से ही समलक्षणी का पता चल जाता है। 
इस संरचना को जीवो की पूर्वज -कथा या संतति के आधार पर ही स्थापित किया जा सकता है।
समान समलक्षणी वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो भी सकती और नहीं भी। 
समान जीनी संरचना वाले जीवों के एक ही पर्यावरण में होने पर उनका समलक्षणी भी समान होता है।
इनके व्यक्त करने का आधार दृश्य संरचना(देखकर) है। इनका आधार जीन संरचना है।
उम्र के साथ बदलते  रहते हैं। यह पूरी उम्र एक समान होते है।
खासकर अगर वे एक जीन के प्रोटीन कोडिंग अनुक्रम के भीतर होती हैं।

डी.एन.ए पोलीमरेज़ की "प्रूफरीडिंग" क्षमता के कारण, प्रत्येक 10–100 मिलियन बेस में त्रुटि दर आमतौर पर बहुत कम होती है।

डी.एन.ए में परिवर्तन की दर को बढ़ाने वाली प्रक्रियाओं को उत्परिवर्तजन कहा जाता है: 

उत्परिवर्तजन रसायन डी.एन.ए प्रतिकृति में त्रुटियों को बढ़ावा देते हैं, अक्सर आधार-युग्मन की संरचना में हस्तक्षेप करके, जबकि यूवी विकिरण डी.एन.ए संरचना को नुकसान पहुंचाकर उत्परिवर्तन को प्रेरित करता है।

डीएनए के लिए रासायनिक क्षति स्वाभाविक रूप से होती है और कोशिकाएँ बेमेल और टूटने की मरम्मत के लिए डी.एन.ए मरम्मत तंत्र का उपयोग करती हैं। 
  ________________

हालांकि, मरम्मत हमेशा मूल अनुक्रम को पुनर्स्थापित नहीं करती है।

डीएनए और पुनः संयोजक जीनों के आदान-प्रदान के लिए क्रोमोसोमल क्रॉसओवर का उपयोग करने वाले जीवों में, अर्धसूत्रीविभाजन के दौरान संरेखण में त्रुटियां भी उत्परिवर्तन का कारण बन सकती हैं। 

क्रॉसओवर में त्रुटियां विशेष रूप से होने की संभावना है जब समान अनुक्रम पार्टनर गुणसूत्रों को गलत संरेखण को अपनाने का कारण बनाते हैं; 

यह जीनोम में कुछ क्षेत्रों को इस तरह से उत्परिवर्तन के लिए अधिक प्रवण बनाता है। 

ये त्रुटियां डीएनए अनुक्रम में बड़े संरचनात्मक परिवर्तन पैदा करती हैं - दोहराव, व्युत्क्रम, संपूर्ण क्षेत्रों का विलोपन - या विभिन्न गुणसूत्रों (गुणसूत्र अनुवाद) के बीच अनुक्रमों के पूरे भागों का आकस्मिक विनिमय।
_____________________________________________

प्राकृतिक चयन और विकास -
उत्परिवर्तन एक जीव के जीनोटाइप को बदल देते हैं और कभी-कभी यह विभिन्न फेनोटाइप को प्रकट करने का कारण बनता है। 

अधिकांश उत्परिवर्तन एक जीव के फेनोटाइप, स्वास्थ्य या प्रजनन फिटनेस  (शारीरिक रूप से उपयुक्त) बहुत कम प्रभाव डालते हैं। 

कई पीढ़ियों से, जीवों के जीनोम में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो सकता है,।

जिसके परिणामस्वरूप गोत्र विकास होता है। अनुकूलन नामक प्रक्रिया में, लाभकारी उत्परिवर्तन के लिए चयन एक प्रजाति को उनके पर्यावरण में जीवित रहने के लिए बेहतर रूप में विकसित करने का कारण बन सकता है।

विभिन्न प्रजातियों के जीनोम के बीच की होमोलॉजी की तुलना करके, उनके बीच विकासवादी दूरी की गणना करना संभव है।

और जब वे अलग हो सकते हैं। आनुवंशिक तुलना को आमतौर पर फेनोटाइपिक विशेषताओं की तुलना में प्रजातियों के बीच संबंधितता को चिह्नित करने का एक अधिक सटीक तरीका माना जाता है।

प्रजातियों के बीच विकासवादी दूरी का उपयोग विकासवादी वृक्ष बनाने के लिए किया जा सकता है; ये वृक्ष समय के साथ सामान्य वंश और प्रजातियों के विचलन का प्रतिनिधित्व करते हैं,।

हालांकि वे असंबंधित प्रजातियों (क्षैतिज जीन स्थानांतरण और बैक्टीरिया में सबसे आम के रूप में ज्ञात) के बीच आनुवंशिक सामग्री के हस्तांतरण को नहीं दिखाते हैं

आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार (inbreeding multiplier) अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से अर्थात एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है.
गणित के समीकरण के अनुसार इसे समझे-
अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,)
पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है।
तात्पर्य स्पष्ट है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है।
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो ने सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था।

सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग , अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक क्षमता की कमी, अपंगता, विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. ।

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से  समर्थित/अनुमोदित व्यवस्था है.। 
___________________________________

प्राचीन सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं.
 एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है. 
ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं, और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते.
आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं।

माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु,अंगिरा, मरीचि और अत्रि।
भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के कुल में गौतम और भरद्वाज,मरीचि के कश्यप,वसिष्ट, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए.
इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए. 
_______________________________________
गौत्र एक अवधारणा का आधार यह भी तथ्य है ।
अत्रि के विश्वामित्र के साथ एक और भी गोत्र चला बताते हैं.इस प्रकार के विवरण से प्राप्त होती है आदि ऋषियों के आश्रम के नाम.अपने नाम के साथ गुरु शिष्य परम्परा, पिता पुत्र परम्परा आदि, अपने नगर, क्षेत्र, व्यवसाय समुदाय के नाम जोड कर बताने की प्रथा चल पडी थीं.
 परन्तु वैवाहिक सम्बंध के लिए सपिंड की सावधानी सदैव वांछित रहती है. 
आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है।
.इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड देना आवश्यक नही रह गया है.

 परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती. सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रहती. इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है.
____________________________________________
इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया.

परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है.
वैदिक सभ्यता मे हर जन को उचित है के अपनी बुद्धि का विकास अवश्य करे. इसी लिए गायत्री मंत्र सब से अधिक महत्वपूर्ण माना और पाया जाता है.

निष्कर्ष यह निकलता है कि सपिण्ड विवाह नही करना चाहिये. गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये.

सन्ध्याहीनोऽशुचिर्नित्यं कृष्णे वा विमुखो द्विजः ।
स एव ब्राह्मणाभासो विषहीनो यथोरगः (१.२.४०)

अनुवाद- सन्ध्याहीन तन-मन की पवित्रता से रहित हमेशा कृष्ण से विमुख रहने वाला ब्राह्मण केवल दिखावे कि ब्राह्मण ही है जैसे विष से हीन कोई सर्प होता नाम मात्र का।।४०।
 
गुरुवक्त्राद्विष्णुमंत्रो यस्य कर्णे प्रविश्यति ।
तं वैष्णवं महापूतं जीवन्मुक्तं वदेद्विधिः (१.२.४१) 
अनुवाद-
गुरु के मुख से विष्णु-मन्त्र जिसके कानों में प्रवेश करता है। वह वैष्णव महा पवित्र होकर जीवन - मुक्त विधि पूर्वक कहा गया।४२।

पुंसां मातामहादीनां शतैःसार्द्धं हरेः पदम् ।
प्रयाति वैष्णवःपुंसामात्मनःकुलकोटिभिः(१.२.४२)

________________________________
ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा (१.२.४३)
अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व  वैष्णव नाम से है  और  उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)

ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविन्दपदपङ्कजम् ।
ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च सन्निधौ (१.२.४४)
वैष्णव जन सदैव गोविन्द के चरणो-कमलों ध्यान करते हैं। और गोविन्द ( कृष्ण) उनका ध्यान करते हुए उनके पास में रहते हैं।
( ब्रह्मवैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय एकादश( ११)

सुदर्शनं संनियोज्य भक्तानां रक्षणाय च ।
तथापि न हि निश्चिन्तोऽवतिष्ठेद्भक्तसन्निधौ (१.२.४५)
अनुवाद-
सुदर्शन को  भक्तों की रक्षा में नियुक्त करके भी स्वयं भक्तों के सान्निध्य में श्री हरि हमेशा निवास करते हैं ।४५।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे वैष्णवप्रशंसा नामैकादशोऽध्यायः( ११)


___________________________________________

परमपूज्य गुरुदेव  श्री सुमन्त कुमार यादव जौरा" के श्री चरणों में समर्पित यह विचारों की अञ्जलि-
_________
 प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार रोहि-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें