सोमवार, 18 अप्रैल 2022

अहीर जाति को प्राचीनतम पौराणिक दस्तावेज़-गायत्री से लेकर कृष्ण कालतक- यादव योगेश कुमार रोहि-

पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग से ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
पद्म पुराण को निम्न श्लोक ही इनकी प्राचीनता और महानता को साक्ष्य हैं ।
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है  ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तु सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य री सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।


वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है । 
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का  गोप के रूप में वेदों में  वर्णन है।
वही विष्णु अहीरों में जन्म लेता है । 
औरअहीर शब्द ही वीर शब्द का रूपान्तरण है।
विदित हो की  "आभीर शब्द अभीर का समूह वाची रूप है।  परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: १- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है 
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार 
२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के  रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
क्योंकि

 अहीर "वीर"  चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के  जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप   "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।
अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
__________________________________
प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि"



अहीर जाति के प्राचीनतम सतयुग कालीन पौराणिक दस्तावेज़- 
प्रस्तुति करण:-  यादव योगेश कुमार रोहि-  
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अहीर जाति की प्राचीनता और महानता के पौराणिक दस्तावेज़- जिसमें कालान्तर में यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ- आज हम कई भारतीय प्राचीन शास्त्रों से सन्दर्भित कर रहे हैं ।

सेमेटिक पुरा कथाओं में जिस प्रकार यहुदह् ( यदु:)- यहूदियों के पूर्वज के पिता याकूव/ जैकव को अबीर नाम से वर्णन किया गया है। हिब्रू बाइबिल को जैनेसिस खण्ड में -जो की ईश्वर का एक नाम है।

ठीक उसी प्रकार सबसे पुराने पौराणिक दस्तावेज़ पद्मपुराण में अहीर जाति में ही अत्रि से लेकर पुरुरवा, आयुस्, नहुष , ययाति तथा उनके बाद के यदु: और तुर्वसु को भी दर्शाया गया है।

अब कुछ लोग प्रश्न कर सकते हैं कि क्या अहीर शब्द यादव शब्द से पूर्व है?

तो हमारा उत्तर होगा हाँ√
क्योंकि सत् युग में जब एक समय ब्रह्मा पुष्कर क्षेत्र में यज्ञ करते हैं तो  ब्रह्मा की। 
पत्नी सावित्री के मुहूर्त काल में यज्ञार्थ उपस्थित न  होने पर ब्रह्माजी यज्ञ कराने वाले ऋषियों की। प्रेरणा से यज्ञार्थ पत्नी लाने को लिए पृथ्वी पर इन्द्र को भेजते हैं।
 तब  भगवान विष्णु कि कृपा से वैष्णवी शक्ति गायत्री एक अहीर कन्या को रूप में दधि और छाछ लाते हुए इन्द्र को प्राप्त होती हैं ।

तब विष्णु उसके दत्ता( कन्यादान करने वाले )बनकर ब्रह्मा को पत्नी रूप में देते हैं ।
परन्तु जब सावित्री यज्ञ स्थल पर ब्रह्मा को साथ गायत्री को देखती हैं तो वे क्रमश: ब्रह्मा के दे वित्तीय  विवाह को लिए जिम्मेदार सभी देवताओं देवीयों और ऋषियों तथा ब्रह्मा विष्णु और शंकर को भी शाप देती हैं ।

परन्तु गायत्री द्वारा दिए गये शाप को वरदान में बदल कर सावित्री से स्वयं को सर्वोपरि सिद्ध कर देती हैं । 
इसी प्रसंग जब सावित्री इन्द्र सी पत्नी शचि को  नहुष द्वारा अधिग्रहित करने का शाप देती है । 
तब नहुष कि उपस्थिति ययाति और यदु से पूर्व होने के कारण अहीर की स्थिति होती है ।
पुरुरवा के आयुष और आयुष के नहुष हुए-
नहुष की कथा पुराणों में चन्द्रवंशी राजा के रूप में है ।

महाभारत में इसे चंद्रवंशी आयुष राजा का पुत्र माना जाता है।
विशेष—पुराणानुसार यह बडा़ प्रतापी राजा था। जब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था उस समय इंद्र को ब्रह्महत्या लगी थी। 
उसके भय से इंद्र १००० वर्ष तक कमलनाल में छिपकर रहा था। 
उस समय इंद्रासन शून्य देख गुरु बृहस्पति ने इसको योग्य जान कुछ दिनों के लिये इंद्र पद दिया था।

 उस अवसर पर इंद्राणी पर मोहित होकर इसने उसे अपने पास बुलाना चाहा। 
तब बृहस्पति की सम्मति से इंद्राणी ने कहला दिया कि 'पालकी पर बैठकर सप्तर्षियों के कंधे पर हमारे यहाँ आओ तब हम तुम्हारे साथ चलें'।

यह सुन राजा ने तदनुसार ही  कार्य किया और घबराहट में आकर सप्तर्षियों से कहा—सर्प सर्प (जल्दी चलो), इसपर अगस्त्य मुनि ने शाप दे दिया कि 'जा, सर्प हो जा'।
 तब वह वहाँ से पतित होकर बहुत दिनों तक सर्प योनि में रहा। 
महाभारत में लिखा है कि पाँडव लोग जब द्वैतवन में रहत थे तब एक बार भीम शिकार खेलने गए थे। उस समय उन्हें एक बहुत बडे़ साँप ने पक़ड लिया। जब उनके लौटने में देर हुई तब युधिष्ठिर उन्हें ढूँढ़ने निकले।

एक स्थान पर उन्होंने देखा कि एक बडा़ साँप भीम को पकडे़ हुए हैं।

उनके पूछने पर साँप ने कहा कि मैं महाप्रतापी राजा नहुष हूँ; ब्रह्मर्षि, देवता, राक्षस और पन्नग आदि मुझे कर ( tex)देते थे। 

ब्रह्मर्षि लोग मेरी पालकी उठाकर चला करते थे। एक बार अगस्त्य मुनि मेरी पालकी उठाए हुए थे, उस समय मेरा पैर उन्हें लग गया जिससे उन्होंने मुझे शाप दिया कि जाओ, तुम साँप हो जाओ।

 मेरे बहुत प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा कि इस योनि से राजा युधिष्ठिर तुम्हें मुक्त करेंगे।
 इसके बाद उसने युधिष्टिर से अनेक प्रश्न भी किए थे जिनका उन्होंने यथेष्ट उत्तर दिया था। 
इसके उपरांत साँप ने भीम को छोड़ दिया और दिव्य शरीर धारण करके स्वर्ग को प्रस्थान किया।
ये कथाऐं प्रागैतिहासिक होने से मिथकीय रूप में परिवर्तित होकर आज तक संस्कृतियों का अंग हैं।
अत: आभीर ( अहीर) शब्द की अवधारणा  यादव शब्द से भी पूर्व की है यह एक जनजातीय का वाचक है ।
जिसमें यदुवंश का प्रादुर्भाव होता है ।
और उसी यदुवंश में वृष्णिकुल का प्रादुर्भाव जिसमें कृष्ण का जन्म होता है।
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परन्तु आज कुछ लोग जिन्हें न तो भाषाविज्ञान सा बोध है न ही इतिहास का वे अहीर शब्द की नयी नयी काल्पनिक व्युत्पति कर देते हैं ।

हमारे समाज और देश में बड़े बड़े अनुसन्धान कर्ता  हुए हैं। 
अभी अभी एक शूद्र वादी  विचारधारा के पोषक  विद्वान  लेखक "राकेश यादव जी" ने 'अहीर शब्द की कुण्डली को खोज कर इसकी व्युत्पत्ति की नयी थ्योरी ईजाद की  है।

उनके अनुसार अहीर शब्द वर्हि: शब्द का रूपान्तरण है।
न कि आभीर शब्द का

परन्तु  लेखक ने  संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण वर्हि; शब्द का अर्थ केवल मोर को ही माना हैं। जबकि वर्हि: का अर्थ मुर्गा भी होता है ।

 ("वर्हमस्य+ इन) -व्युपत्ति से जिसके वर्हम ( पूँछ-पंख हो  वह वर्हिण- या वर्हि: होने से मयूर तथा मुर्गा का वाचक है ।

यद्यपि अहीर लोग मोर अथवा मुर्गा तो नहीं पालते थे जिन्हें वर्हि से सम्बद्ध किया जाए।
 
परन्तु मोर पंख का मुकुट  अहीर  जाति में उत्पन्न यादवों के तत्कालिक नायक श्रीकृष्ण अवश्य धारण करते थे ।
 
मयूर पालना गुप्त काल में  मगध के  मौर्यों  का कार्य रहा है  ।
विदित हो कि ब्राह्मणीय-
वर्ण-व्यवस्था में यादवों अथवा अहीर जाति को समाहित नहीं किया जा सकता है।

क्यों कि जब वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा भी नहीं थी तब  भी अहीर जाति  थी।

क्यों कि अहीर जाति में ईश्वरीय विभूतियों के रूप में अनेक वैष्णवी शक्तियों ने अवतरण किया है।

आभीर जाति के नायक / नायिका "गायत्री "दुर्गा "राधा  और विन्ध्याचल वासिनी तथा कृष्ण और बलराम आदि के रूप में  गोप लीला करते हुए भी भागवत धर्म का द्वार समस्त शूद्र और स्त्रीयों के लिए खोल देते हैं ।

गोप अहीरों के द्वारा नारायणी सेना बना कर दुष्टों का संहार कर देते हैं ।
 युद्ध- भूमि में कृष्ण सूत बनकर रथ भी हाँकते हैं।

और युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में शूद्र बनकर उच्छिष्ट ( झूँठी) पत्तर भी  कृष्ण  उठाते हैं।
 
और वैश्यवृत्ति समझी जाने वाले कार्य  कृषि-और गोपालन करने वाले होकर गायें भी चराते हैं ।

फिर अहीरों के लिए वर्ण- व्यवस्था के क्या मायने हैं ? अहीर हिन्दु नहीं हैं क्योंकि हिन्दुत्व में बनिया ब्राह्मण और ठाकुर या राजपूत  समझे जाने वाले लोग श्रीराम के नाम पर भगवा के बैनर तले एक जुट हैं ।

अहीर भागवत हैं  सात्वत हैं ।
जिसे मनु स्मृति कार ने पूर्वदुराग्रह वश शूद्र बनाने की कोशिश की है।
_______
वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च।
कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च॥10.23॥
(मनुस्मृति-)
वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
जबकि पुराणों के अनुसार सात्वत यादवों का वह समुदाय है जिसने भागवत धर्म का प्रतिपादन किया।

मनुस्मृतिकार ने तो अहीर जाति को ही वर्णसंकर बनाकर निम्नरूप में वर्णन किया है।
_________
ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतो नाम जायते।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यां तु धिग्वणः॥
[मनु स्मृति 10.15]
उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) में ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण

 पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व है ।
जिसमें गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं।
_______
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया (गायत्र्या) तारितो  गच्छ  (युवां भो आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद -

विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है  ।

हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तु सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य री सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।

 वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है । 
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का  गोप के रूप में वेदों में  वर्णन है।

वही विष्णु अहीरों में जन्म लेता है । और
अहीर शब्द ही वीर शब्द का रूपान्तरण है।

विदित हो की  "आभीर शब्द अभीर का समूह वाची रूप है।  

परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: 
१- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है 

- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।

अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार 

२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के  रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।

तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

क्योंकि अहीर "वीर"  चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के  जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।

हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप   "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 

अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।

चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।

अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।

जो अफ्रीका कि अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को  जिम्बाब्वे नें था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थी ।
________

प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।

अत: ययाति के पूर्व पुरुषों  की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। 
_____
और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब पुरुरवा  आयुष 
नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें "अवर" जाति है  है ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।

वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है । 

अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं 
पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है ।

गोत्र की अवधारणा-
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं,।
_______
यद्यपि गायत्री वैष्णवी शक्ति  का अवतार हैं ।
दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्र बनती हैं तब इनका नाम यदुवंश समुद्भवा भी होता है ।।

पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माँ सावित्री है। 

इतिहास अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया।
तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया जो ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।
 
स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -

                          *-भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।

                    *-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
__________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
______
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।

अनया( गायत्र्या) तारितो गच्छ (युवां भो आभीरा:) दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
________________________ 
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
______________

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।

एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।

___________________
भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

____________________________
ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

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बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
 ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।

- भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
 स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हूँ।
पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था।
 दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।

उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 

उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘क’ मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
 कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 

अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।
 प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 
धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥

मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥

उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।

पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥

धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥

हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥

छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥

वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥

तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥

नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥

तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥

तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥

स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥

कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 

चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।

                     ।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।

                   ।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
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तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। 
उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 

इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।

फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए।
 इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।

 ‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। 

ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।

जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। 

जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। 

इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’।
 अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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 तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
 वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। 

एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ? 
इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।

इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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उनमें से प्रत्‍येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार उन महात्‍मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्‍छा नहीं करते थे।
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प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्‍पत्ति शशबिन्‍दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्‍पादक हुआ।

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संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे  १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र । 
६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ । 
१०. बंधु । भाई । 
११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान । 
१३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । 
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विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
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सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।

यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है 
जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
 
यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ  बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
 
परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।

केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा । 
यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे 
और पतिपत्नी भी ।

मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं । 
ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
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एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से  विवाह भी निषिद्ध ही है।
यद्यपि  गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में  वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
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त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।

ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥

— ऋग्वेद १/५१/३॥
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 - पदपाठ
त्वम् । गोत्रम् । अङ्गिरःऽभ्यः । अवृणोः । अप । उत । अत्रये । शतऽदुरेषु । गातुऽवित् ।

ससेन । चित् । विऽमदाय । अवहः । वसु । आजौ । अद्रिम् । ववसानस्य । नर्तयन् ॥३।

सायण भाष्य-

हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा । (गोत्रं गोसमूहं) पणिभिरपहृतं गुहासु निहितम् अङ्गिरोभ्यः ऋषिभ्यः अप अवृणोः गुहाद्वारोद्घाटनेन प्रकाशयः । "उत अपि च "अत्रये महर्षये । कीदृशाय । “शतदुरेषु शतद्वारेषु यन्त्रेष्वसुरैः पीडार्थं प्रक्षिप्ताय "गातुवित् मार्गस्य लम्भयिताभूः ।
 तथा “विमदाय “चित् विमदनाम्ने महर्षयेऽपि "ससेन अन्नेन युक्तं “वसु धनम् “अवहः प्रापितवान् । तथा “आजौ संग्रामे जयार्थं "ववसानस्य निवसतो वर्तमानस्यान्यस्यापि स्तोतुः "अद्रिं वज्रं “नर्तयन् रक्षणं कृतवानसीति शेषः । अतस्तव महिमा केन वर्णयितुं शक्यते इति भावः ॥
 गोत्रम् ।' गुङ् अव्यक्ते शब्दे । औणादिकः त्रप्रत्ययः । यद्वा । खलगोरथात्' इत्यनुवृत्तौ ‘ इनित्रकट्यचश्च' (पा. सू. ४. २. ५१) इति समूहार्थे त्रप्रत्ययः । शतदुरेषु । शतं दुरा द्वाराण्येषाम् । द्वृ इत्येके । द्वर्यन्ते संव्रियन्ते इति दुराः। घञर्थे कविधानम्' इति कप्रत्ययः। छान्दसं संप्रसारणं परपूर्वत्वम् । तच्च यो ह्युभयोः स्थाने भवति स लभतेऽन्यतरेणापि व्यपदेशम् इति • उरण् रपरः ' ( पाणिनि सूूूूत्र १. १. ५१ ) इति रपरं भवति । 

यद्वा । द्वारशब्दस्यैव छान्दसं संप्रसारणं द्रष्टव्यम् । गातुवित् । ‘गाङ् गतौ' । अस्मात् ‘कमिमनिजनिभागापायाहिभ्यश्च' (उ. सू. १. ७२ ) इति तुप्रत्ययः । तं वेदयति लम्भयतीति गातुवित् । ‘विद्लृ लाभे' । अन्तर्भावितण्यर्थात् क्विप् । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम्। ससेन । ससम् इति अन्ननाम । ‘ससं नमः आयुः' (नि.२.७.२१) इति तन्नामसु पाठात् । आजिः इति संग्रामनाम । “आहवे आजौ ' (नि. २. १७. ८) इति तत्र पाठात् । अद्रिम् । अत्ति भक्षयति वैरिणम् इति अद्रिर्वज्रः । ‘ अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्' इति क्रिन्प्रत्ययः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । यास्कस्त्वेवम् अद्रिशब्दं व्याचख्यौ- अद्रिरादृणात्यनेनापि वात्तेः स्यात् ' ( निरु. ४. ४ ) इति । ववसानस्य । ‘वस निवासे । कर्तरि ताच्छीलिकः चानश् । 'बहुलं छन्दसि ' इति शपः श्लुः । द्विर्भावहलादिशेषौ । चित्वादन्तोदात्तत्वम् 

इसको निघण्टु (मेघः । इति निघण्टुः । १ । १० । ) तथा सायण के भाष्य में मेघ का अर्थ दिया है। यथा सायणभाष्य से :

हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा ।

मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :

'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।

यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् 

— ऋग्वेद ८/५०/१०॥

सायण-भाष्य-
हे अद्रिवः वज्रिवन् इन्द्र मेधे यज्ञे यथा येन प्रकारेण कण्वे एतन्नामके ऋषौ निमित्ते हरिश्रियम् । हरिः जगत्तापहर्त्री हरितवर्णा वा श्रीः जललक्ष्मीर्यस्य तादृशम् । गोत्रं मेघम् असिसासः दत्तवानसि । ईदृशे कण्वे अध्वरे । ध्वरतिर्हिंसाकर्मा । तद्रहिते दीर्घनीथे दीर्घं स्वर्लोकपर्यन्तं नीथं हविः प्रापणं यस्य तथाभूते । पुनः कीदृशे । दमूनसि दानमनसि उदारे । यथा च गोशर्ये एतन्नामके ऋषौ मेघं दत्तवानसि तथा मयि पुष्टिगौ हरिश्रियं गोत्रं देहि। यथा तयोरनुग्रहदृष्ट्या मेघवृष्टिं कृतवानसि तथा मय्यपि कृपादृष्ट्या अभिलषितवृष्टिं कुर्वित्यभिप्रायः ॥ ॥ १७ ॥
इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है। इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल  के रूप में हुआ।

इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।

गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।

यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।

इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। 

क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।

 यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :

गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥

 छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥

यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।

गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश) 

तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।

तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।

इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।

तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका  एक अर्थ  छतरी( छत्र भी है।

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क्योंकि उस वैदिक समय  में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर  14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में  उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।

यमी अपने सगे भाई यम से  संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। 

परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।

और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
पदान्वय-
न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।

अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।

सायण-भाष्य

यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥

“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)

इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष  के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
मनु स्मृति –5/60
(सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।

 (जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने)  जानने  से, (समान-उदक भावः तु) आपस में  (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
 इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
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“सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. 
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।

जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।

आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों  की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। 

विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।

इन कोशिकाओं में कुछ  गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। 

इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। 

यद्यपि  डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।

 इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स"   से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।

डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड  (संकेतावली)

को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
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आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,

जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है। 

एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।

और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।

इस विज्ञान का मूल उद्देश्य आनुवंशिकता के ढंगों (पद्धति) का अध्ययन करना है ।

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गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।

समस्त जीव, चाहे वे जन्तु हों या वनस्पति, अपने पूर्वजों के यथार्थ प्रतिरूप होते हैं। 

वैज्ञानिक भाषा में इसे 'समान से समान की उत्पति' (लाइक बिगेट्स लाइक) का सिद्धान्त कहते हैं। 

आनुवंशिकी के अन्तर्गत कतिपय कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। जो निम्नलिखित हैं।

प्रथम कारक आनुवंशिकता है। किसी जीव की आनुवंशिकता उसके जनकों (पूर्वजों या माता पिता) की जननकोशिकाओं द्वारा प्राप्त रासायनिक सूचनाएँ होती हैं।

जैसे कोई प्राणी किस प्रकार परिवर्धित होगा, इसका निर्धारण उसकी आनुवंशिकता ही करेगी।
दूसरा कारक विभेद है जिसे हम किसी प्राणी तथा उसकी सन्तान में पाते  हैं।

 प्रायः सभी जीव अपने माता पिता या कभी कभी बाबा, दादी या उनसे पूर्व की पीढ़ी के लक्षण प्रदर्शित करते हैं।
 ऐसा भी सम्भव है कि उसके कुछ लक्षण सर्वथा नवीन हों।
 इस प्रकार के परिवर्तनों या विभेदों के अनेक कारण होते हैं।
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जीवों का परिवर्धन तथा उनके परिवेश अथवा पर्यावरण (एन्वाइरनमेंट) पर भी निर्भर करता है। 

प्राणियों के परिवेश अत्यन्त जटिल होते हैं; इसके अंतर्गत जीव के वे समस्त पदार्थ तत्व बल  तथा अन्य सजीव प्राणी (आर्गेनिज़्म) समाहित हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।

वैज्ञानिक इन समस्त कारकों का सम्यक्‌ अध्ययन करता है, एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि आनुवंशिकी वह विज्ञान है।

जिसके अन्तर्गत आनुवंश्किता के कारण जीवों तथा उनके पूर्वजों (या संततियों) में समानता तथा विभेदों, उनकी उत्पत्ति के कारणों और विकसित होने की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है।
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पैतृक गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।

 उत्परिवर्तन की प्रक्रिया-। 

जीन दोहराव अतिरेक(आवश्यकता से अधिक होने का भाव, गुण या स्थिति / आधिक्य )आदि प्रदान करके विविधीकरण की अनुमति देता है।

एक जीन जीव को नुकसान पहुंचाए बिना अपने मूल कार्य को मूक( म्यूट ) और खो सकता है।

डी़.एन.ए प्रतिकृति की प्रक्रिया के दौरान, दूसरी स्ट्रैंड(  रस्सी का बल)के बहुलकीकरण में कभी-कभी त्रुटियां होती हैं। 

म्यूटेशन नामक ये त्रुटियां किसी जीव के फेनोटाइप को प्रभावित कर सकती हैं।

फिनोटाइप(phenotype) क्या है ?
लक्षण प्रारूप या फिनोटाइप समलक्षी जीवो के विभिन्न गुणों जैसे आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव आदि को व्यक्त करता है।

जीनोटाइप(genotype)
जीव प्रारूप या जीनोटाइप जीनी संरचना जीव के जैनिक संगठन को व्यक्त करता है,।

जो कि उसमें विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।

फेनोटाइप और जीनोटाइप में अन्तर  "लक्षण 'प्ररूप और जीव प्ररूप में अन्तर-
फेनोटाइप(लक्षण   प्ररूप)  जीनोटाइप(जीव प्ररूप)
यह जीवों के विभिन्न गुण आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव को व्यक्त करता है। 
यह जैनिक संगठन को व्यक्त करता है जो उसमे विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।

जीवो को प्रत्यक्ष देखने से ही समलक्षणी का पता चल जाता है। 
इस संरचना को जीवो की पूर्वज -कथा या संतति के आधार पर ही स्थापित किया जा सकता है।
समान समलक्षणी वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो भी सकती और नहीं भी। 
समान जीनी संरचना वाले जीवों के एक ही पर्यावरण में होने पर उनका समलक्षणी भी समान होता है।
इनके व्यक्त करने का आधार दृश्य संरचना(देखकर) है। इनका आधार जीन संरचना है।
उम्र के साथ बदलते  रहते हैं। यह पूरी उम्र एक समान होते है।
खासकर अगर वे एक जीन के प्रोटीन कोडिंग अनुक्रम के भीतर होती हैं।

डी.एन.ए पोलीमरेज़ की "प्रूफरीडिंग" क्षमता के कारण, प्रत्येक 10–100 मिलियन बेस में त्रुटि दर आमतौर पर बहुत कम होती है।

डी.एन.ए में परिवर्तन की दर को बढ़ाने वाली प्रक्रियाओं को उत्परिवर्तजन कहा जाता है: 

उत्परिवर्तजन रसायन डी.एन.ए प्रतिकृति में त्रुटियों को बढ़ावा देते हैं, अक्सर आधार-युग्मन की संरचना में हस्तक्षेप करके, जबकि यूवी विकिरण डी.एन.ए संरचना को नुकसान पहुंचाकर उत्परिवर्तन को प्रेरित करता है।

डीएनए के लिए रासायनिक क्षति स्वाभाविक रूप से होती है और कोशिकाएँ बेमेल और टूटने की मरम्मत के लिए डी.एन.ए मरम्मत तंत्र का उपयोग करती हैं। 
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हालांकि, मरम्मत हमेशा मूल अनुक्रम को पुनर्स्थापित नहीं करती है।

डीएनए और पुनः संयोजक जीनों के आदान-प्रदान के लिए क्रोमोसोमल क्रॉसओवर का उपयोग करने वाले जीवों में, अर्धसूत्रीविभाजन के दौरान संरेखण में त्रुटियां भी उत्परिवर्तन का कारण बन सकती हैं। 

क्रॉसओवर में त्रुटियां विशेष रूप से होने की संभावना है जब समान अनुक्रम पार्टनर गुणसूत्रों को गलत संरेखण को अपनाने का कारण बनाते हैं; 

यह जीनोम में कुछ क्षेत्रों को इस तरह से उत्परिवर्तन के लिए अधिक प्रवण बनाता है। 

ये त्रुटियां डीएनए अनुक्रम में बड़े संरचनात्मक परिवर्तन पैदा करती हैं - दोहराव, व्युत्क्रम, संपूर्ण क्षेत्रों का विलोपन - या विभिन्न गुणसूत्रों (गुणसूत्र अनुवाद) के बीच अनुक्रमों के पूरे भागों का आकस्मिक विनिमय।
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प्राकृतिक चयन और विकास -
उत्परिवर्तन एक जीव के जीनोटाइप को बदल देते हैं और कभी-कभी यह विभिन्न फेनोटाइप को प्रकट करने का कारण बनता है। 

अधिकांश उत्परिवर्तन एक जीव के फेनोटाइप, स्वास्थ्य या प्रजनन फिटनेस  (शारीरिक रूप से उपयुक्त) बहुत कम प्रभाव डालते हैं। 

कई पीढ़ियों से, जीवों के जीनोम में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो सकता है,।

 जिसके परिणामस्वरूप गोत्र विकास होता है। अनुकूलन नामक प्रक्रिया में, लाभकारी उत्परिवर्तन के लिए चयन एक प्रजाति को उनके पर्यावरण में जीवित रहने के लिए बेहतर रूप में विकसित करने का कारण बन सकता है।

विभिन्न प्रजातियों के जीनोम के बीच की होमोलॉजी की तुलना करके, उनके बीच विकासवादी दूरी की गणना करना संभव है।

और जब वे अलग हो सकते हैं। आनुवंशिक तुलना को आमतौर पर फेनोटाइपिक विशेषताओं की तुलना में प्रजातियों के बीच संबंधितता को चिह्नित करने का एक अधिक सटीक तरीका माना जाता है।

प्रजातियों के बीच विकासवादी दूरी का उपयोग विकासवादी वृक्ष बनाने के लिए किया जा सकता है; ये वृक्ष समय के साथ सामान्य वंश और प्रजातियों के विचलन का प्रतिनिधित्व करते हैं,।

हालांकि वे असंबंधित प्रजातियों (क्षैतिज जीन स्थानांतरण और बैक्टीरिया में सबसे आम के रूप में ज्ञात) के बीच आनुवंशिक सामग्री के हस्तांतरण को नहीं दिखाते हैं

आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार (inbreeding multiplier) अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से अर्थात एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है.
गणित के समीकरण के अनुसार इसे समझे-
अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,)
पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है।
तात्पर्य स्पष्ट है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है।
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो ने सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था।

सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग , अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक क्षमता की कमी, अपंगता, विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. ।

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से  समर्थित/अनुमोदित व्यवस्था है.। 
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प्राचीन सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है।
 परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं.
 एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है. 
ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं; और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते.
आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं।

माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु,अंगिरा, मरीचि और अत्रि।
भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के कुल में गौतम और भरद्वाज,मरीचि के कश्यप,वसिष्ट, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए.
इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए. 
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गौत्र एक अवधारणा का आधार यह भी तथ्य है ।
अत्रि के विश्वामित्र के साथ एक और भी गोत्र चला बताते हैं।
इस प्रकार के विवरण से प्राप्त होती है आदि ऋषियों के आश्रम के नाम.अपने नाम के साथ गुरु शिष्य परम्परा, पिता पुत्र परम्परा आदि, अपने नगर, क्षेत्र, व्यवसाय समुदाय के नाम जोड कर बताने की प्रथा चल पडी थीं.

परन्तु वैवाहिक सम्बंध के लिए सपिंड की सावधानी सदैव वांछित रहती है। 
आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है।

इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड देना आवश्यक नही रह गया है.

 परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती. सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रहती।
इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है.
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इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया.

परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है.
वैदिक सभ्यता मे हर जन को उचित है के अपनी बुद्धि का विकास अवश्य करे. इसी लिए गायत्री मंत्र सब से अधिक महत्वपूर्ण माना और पाया जाता है.

निष्कर्ष यह निकलता है कि सपिण्ड विवाह नही करना चाहिये. गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये.

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परमपूज्य गुरुदेव  श्री सुमन्त कुमार यादव जौरा" के श्री चरणों में समर्पित यह विचारों की अञ्जलि-
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 प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार रोहि


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