सोमवार, 22 जून 2020

कृष्ण चरित्र पुराणों से परे ...

क्या आप कृष्ण को पुराणों और महाभारत तक ही सीमित मानते हो ?

क्या कृष्ण के चरित्र को दूषित करने के लिए अनेक सिद्धान्त विहीन व मन गड़न्त कथाऐं नहीं जोड़ी गयीं ?

कृष्ण का चरित्र पुराणों से पूर्व का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 👇
उपनिषत् वेदों के परवर्ती हैं जिन्हें वेदान्त के रूप में स्वीकार किया जाता है ।

छान्दोग्य उपनिषत् (3.17.6 )👇
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच”इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः
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 उपर्युक्त श्लोक में कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।

श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था । 
यद्यपि जैन और बौद्ध मिथकों में भी कृष्ण चरित्र भिन्न भिन्न रूपोमें वर्णित है।
कृष्ण भागवत धर्म के प्रतिष्ठापक
और देव-संस्कृति के विध्वंसक भी थे । 
इन्द्र की पूजा और वर्ण व्यवस्था का खण्डन करने वाले भी वही थे 
लोक- तन्त्र के प्रचारक और प्रसारक कृष्ण थे ।


'परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों 'ने कृष्ण के प्रभाव को सहन नहीं कर पाया परिणाम स्वरूप भागवत धर्म से समझौता किया ।
और वैष्णव धारा के रूप में भागवत धर्म से समझौता तो किया 'परन्तु कपट पूर्ण रूप से 
भागवत के प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वाद का वर्चस्व और उनके दान देने का विधान प्रतिपादन कर दिया ।

और फिर रूढि वादी  पुरोहितों ने अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं कृष्ण के साथ समायोजित कर दी 
जैसे- जमुना नदी को ही उनकी चौथी पटरानी बना दिया । 

शम्बर असुर का बध करा दिया । अनेक  असुरों का संहार करा दिया ।

वर्ण व्यवस्था को ईश्वर कृत कहलवा दिया।

 परन्तु ये केवल काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।

क्योंकि  यादव और असुर परस्पर बान्धव  सोम के वंशज अर्थात्‌ सैमेटिक थे ।
असुर ही असीरियन जन जाति के लोग थे ---जो यहूदीयों के सजातीय सेमेटिक ( सोम वंशी) लोग थे ।
ये दजला और फरात सदीयों के मुहाने पर मेसोपोटामिया की सभ्यता के प्रकाशक और प्रवर्तक भी थे ।

ऋग्वेद में कृष्ण को स्पष्टत: असुर अथवा अदेव कहा है ।

---जो यमुना की तलहटी में चरावाहे के रूप में इन्द्र से युद्ध करते हैं दश हजार गोप मण्डली के साथ -
और गीता में भी उसी शिक्षा का प्रतिपादन किया ---जो द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध है  ।

गीता में कुछ श्लोक ही कृष्ण के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं । लगभग 100 के करीब उनके ही माध्यम से  कृष्ण ने  द्रविड संस्कृति को प्रकाशित किया है ।
किया गया है।
श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् में वर्तमान में ७००श्लोक हैं ।
जो विस्तार अतिशय का परिणाम हैं ।
ब्रह्म सूत्र पदों के माध्यम से बौद्धों के सम्प्रदाय भी गीता में वर्णित कर दिये हैं यह कार्य पाँचवीं सदी में हुआ ।
श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् शान्ति पर्व के अनुकूल रचना है इसका भीष्म पर्व में संपृक्त करना युक्तियुक्त नहीं था ।

परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
और कुछ इसमें ये तोड़ दी 
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जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:"
तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" 

क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।

अब एक अन्य  कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं। (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के  तटवर्ती प्रदेश में रहता था । 

और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है।

यद्यपि सुरा संस्कृति देव संस्कृतियों का अभिन्न अंग था ।
'परन्तु उसमें सुरा से यादवों को जोड़ने की कोशिश की गयी ।
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विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है  देखें---
अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् । 
सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र । 
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रामायण ( ४३ अ० )। 


पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति (सन्तान)रूप में वर्णित किया है ।

ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।

द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: 
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: 
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार  (ग्वालो)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना 
तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।

जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गायें चराता है ।
चरन्तीर्बृहस्पतिना में चरन्तम् ( गाय चराते हुए को) क्रिया पद कृष्ण के गोप रूप को प्रकट करता है ।
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कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।

वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
और गोप भी गोपालन वृत्ति यादवों का सनातन परम्परागत कार्य है ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के बासठ वें सूक्त की दशवीं ऋचा में दास और गोप कहा 'परन्तु वैदिक सन्दर्भ में दास असुर का वाचक है।

यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त  वरुण , अग्नि आदि का वाचक भी है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है।
उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। 

विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। 

इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। 
असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे।
यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे ।

अनन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। 

फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर:(अ-सुर- असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया ।
इसका वर्ण-विन्यास (अ-सुर) रूप में किया ।
जबकि (असु-र) यह वर्ण विन्यास 
शक्ति शाली और प्राणवन्त  अर्थ का द्योतक है ।

कालान्तरण में देव संस्कृतियों के अनुयायीयों द्वारा असु-र शब्द का अर्थ द्वेष वश विकृति-पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित किया गया ।
जबकि ईरानी आर्य्यों 'ने देव शब्द को दएव के रूप में दुष्ट या अधम अर्थ में मान्य कर दिया ।

अर्थात्‌ इधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। 

फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।

(ऋक्. १०।१३८।३-४)
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शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।

(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)---( यास्क निरुक्त)

ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।

पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।

शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।

देव संस्कृतियों के आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है। 

पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।

यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे । 

इसी लिए भारतीय पुराणों में यादवों को असुर , (असीरियन) दस्यु अथवा दास कहकर मधु असुर का वंशज भी वर्णित किया है । 
ये मधु असुर मधुमती के पिता और यदु के नाना थे । 
हरिवंश पुराण में हर्यश्व जो इक्ष्वाकु वंशी राजा थे उन्हें मधुमती का पति बताया 
तो कहीं ययाति की पत्नी को असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री से यदु का जन्म दर्शाया है ।
 
यद्यपि बाद में काल्पनिक रूप से यदु के पुत्र को मधु वर्णित किया परन्तु समाधान संदिग्ध रहा ।
क्योंकि हरिवशं पुराण में माधव भी यदु का ज्येष्ठ पुत्र है ।
'परन्तु यदु के नाना मधु असुर है ।

क्योंकि (मधुपर) अथवा मथुरा मधु दैत्य के आधार पर नाामित है। 
और यह यादवों की प्राचीनत्तम राजधानी है ।
इसी लिए इन्हें सेमेटिक 
सोम वंश का कहा जाता है ।

पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को असुर कहा जाना आश्चर्य की  बात नहीं है ।

यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें--जो यदु को दास अथवा असुर कहती है ।

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )

इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित ही है ।

यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं । 

जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
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पुराणों में कृष्ण को  प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है। 

"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में  राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था । 
'परन्तु कृष्ण के चरित्र को दूषित दर्शाने के लिए इन्द्र उपासक पुरोहितों का बड़ा हाथ है ।

बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए  भागवत धर्म को रूढ़िवादी पुरोहितों'ने दिखावा के तौर पर आत्मसात तो किया 'परन्तु विद्रोह वश ।

द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को  विलास पुरुष बना दिया ।"
जबकि कामी विलासी इन्द्र था ।

वास्तव में भागवत धर्म जो भक्ति सम्मूलक धर्म है द्रविड़ों की ही संस्कृति है ।
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कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।

अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से जिनमें गुर्जर गौश्चर:(गा: चारयति येन सो गौश्चर: इतिभाषायां गुर्जर) जाट तथा दलित और पिछड़ी जन-जातियाँ भी हैं। 

पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह यदुवंशजों के विरुद्ध चलता रहा ।
जैसे --"भुसे में सुलगती आग "
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सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत 
यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई-
जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।
जिन लोगों को यादवों का इतिहास ज्ञात नहीं था वे अहीरों को गोपों'ने से अलग और गोपों' को यादवों से अलग बताते रहे इसमें कुछ द्वेष भी था ...
'परन्तु ये तीनों विशेषण यादवों के हैं आभीर यदु से भी प्राचीन विशेषण है । 

हिब्रूू बाइबिल जैनेसिस खण्ड में यदु पूर्वज ययाति को अबीर शब्द से सम्बोधित किया अबीर शब्द हिब्रूू बाइबिल में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है । 
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    यादव योगेश कुमार 'रोहि'

1 टिप्पणी:

  1. Abheer,Yadav,Gop.....ek hai nhi
    Ye teeno ek nhi hai.....blki Yadav ek kabile ka naam hai...Abheer bhi ek kabile ka naam hai....lekin Gop koi Kabila nhi blki...karmasoochak shabd hai...jo ki Punjab ke aas paas ke pashupalak aur kheti krne waale dono ke liya use hua hai....Abheero ne bade paimane par kheti aur pashupalan shuru kiya aur bhagwat dharam ko apnya isliye baad me krisna aur balram ko apna vanshaj manane lge....Aaj Abheero ki alag clan bahut si jaatio me payi jaati hai...Brahmino me chamaro me jaato me kshatriyo me sunaro me yha tak ki aadivasiyo me gadariyo me etc....

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