शुक्रवार, 8 मई 2020

गीता एक विश्लेषण

गीता में प्रक्षेप (द्वितीय अध्याय)➖

▪️(1) गीता के दूसरे अध्याय का (श्लोक 24) प्रक्षिप्त है। इसके प्रक्षिप्त होने में कारण है पुनरूक्ति। इस श्लोक का आवश्यक सब बिषय पिछले श्लोक में आ चुका है। श्लोक पढिए—

अच्छेद्योऽयमदाह्रोऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्य: सर्वगत स्थाणुरचलोऽयं सनातन: ।।2.24।।

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य (काटी नहीं जा सकती),  अदाह्य (जलाई नहीं जा सकती),  अक्लेद्य (गीली नहीं हो सकती ) और अशोष्य (सुखाई नहीं जा सकती) है;  यह नित्य,  सर्वगत,  स्थाणु (स्थिर),  अचल और सनातन है।।

🔹आत्मा के काटने और जलाये न जा सकने का विधान (श्लोक 23) में आ चुका है।
👇 
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।।2.23।।

शस्त्र इस आत्मा को काट नहीं सकते अग्नि इसको जला नहीं सकती

🔹इसे नित्य और अविकारी (श्लोक 21) में कहा गया है।
 
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।

हे पार्थ जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है? वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा

🔹इसे नित्य और अविकारी कह देने पर स्थिर कहने की कोई आवश्यकता रह ही नहीं जाती।

 अतः स्पष्ट है कि आत्मा को सर्वव्यापी कहने के लिए ही इस श्लोक की रचना की गई है और यह भी गीताकार का सिद्धांत नहीं। इससे पहले कृष्ण कह आये हैं-
  👇

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
  नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
  तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
  न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।। 
 
 “पुराने शरीर को छोड़ कर देहधारी अन्य नयै शरीर में चला जाता है” (गीता, 2.22)

एक शरीर को छोड़ कर दूसरे में जाना सर्वव्यापी का काम नहीं। वह तो पहले से ही सर्वत्र विद्यमान है। अतः यह श्लोक प्रक्षिप्त है। 

इसी अध्याय में (श्लोक 48) तक सांख्य का निरुपण कर (श्लोक 49) श्लोक से गीताकार ने योग के वर्णन का आरंभ किया है। गीता में योग नाम निष्काम कर्म का है। फल की कामना न करते हुए कर्तव्य बुद्धि से जो कर्म किया जाता है उसे निष्काम कर्म कहते हैं। इस ध्येय को ध्यान में रखकर इस अध्याय के (श्लोक 41 से 44 तक) फल की कामना से किये गये कर्म को बुद्धि में विक्षेप पैदा करने वाला कह कर निन्दित कहा है। और “फल की कामना से ही कर्म करना चाहिये, इसके बिना कुछ लिया ही नहीं जा सकता” ऐसा कहने वाले लोगों को वेद के ज्ञानी न कहकर, ‘#वेदवादरत’ (वेद के नाम से शोर मचाने वाले आर्य समाजी) कहा है।

▪️(2) इस अध्याय में (45 और 46 श्लोक) प्रक्षिप्त हैं। श्लोक ये हैं —

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।2.46।।

वेद तीनों गुणोंके कार्यका ही वर्णन करनेवाले हैं अथवा यह कहे कि वेदों में तीन गुणों का ही प्रतिपादन है। तू इन तीन गुणों से बाहर निकल, सत्व में स्थित हो, द्वन्द्व को छोड़ दे, सांसारिक व्यवहार से ऊँचा उठ और आत्मिक बल को धारण कर।।45।।

सब ओर से परिपूर्ण जलराशि के होने पर मनुष्य का छोटे जलाशय में जितना प्रयोजन रहता है? बैसा ही ब्राह्मण का सभी वेदों से प्रयोजन रहता है।।46।।

इन श्लोको के प्रक्षिप्त होने में दो कारण हैं। एक यह है कि इनका इस प्रकरण के साथ संबंध नहीं है और दूसरा ये गीताकार के मत के अनुकूल नहीं हैं।

यह प्रकरण निष्काम कर्म का है। ऊपर के श्लोको में फल की आकांक्षा से कर्म करने वाले लोगों की निन्दा की गई है और (श्लोक 47) में निष्काम कर्म का विधान किया गया है। ऐसी अवस्था में इन बीच के दो श्लोकों में भी निष्काम कर्म के संबंध में कुछ कहना चाहिए था। परन्तु इन में स्पष्ट ही वेदों की निन्दा की गई है और उनके विषय के प्रति उपेक्षा का भाव प्रकट किया गया है। इसलिए प्रकरण के साथ संबंध न होने से ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं। 

ये श्लोक गीताकार के मत के अनुकूल भी नहीं हैं। त्रैगुण से ऊँचा उठे हुए अधिकारी के लिए भी श्रीकृष्ण ने वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान आवश्यक बतलाया है। अपने ही विषय में उन्होने कहा है — 

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।3.22।।

हे अर्जुन! त्रैलोक्य में मेरे लिए कुछ कर्तव्य शेष नहीं रह गया है और न कोई वस्तु ही ऐसी है जिसकी प्राप्ति की मुझे इच्छा हो, परन्तु फिर भी कर्म करता हूँ।

इन श्लोको में यह भी कहा गया है कि वेदों में तीन गुणों का ही विधान है और विज्ञानी को वेदों की आवश्यकता नहीं है। परन्तु ये विचार भी गीताकार के मत के विरुद्ध है। 
गीताकार ने वेदों में तीन गुणों का ही नहीं, परमेश्वर प्राप्ति का वर्णन भी माना है। यह जानने के लिए गीता के (अध्याय 8, श्लोक 11 को पढिये—

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागा: । यदिच्छन्तो ब्रह्माचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥

भाव- वेद के ज्ञाता लोग जिस अविनाशी ब्रह्म का व्याख्यान करते हैं, वीतराग यति जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, वह पद संक्षेप से कहता हूँ।

इस श्लोक से स्पष्ट है कि वेद के जानने वाले ब्रह्म का वर्णन कर सकते हैं इसलिए गीताकार वेद में ब्रह्म का पूर्ण वर्णन मानता है। गीताकार यह भी नहीं मानता कि विज्ञानी के लिए वेदों की आवश्यकता नहीं है। अध्याय - 14 से लेकर 18 तक गीता में विज्ञान का वर्णन किया गया है। और वह विज्ञान है सत्व आदि गुणों और आत्मा का विवेक। परन्तु इस विज्ञान के बाद भी इस वर्णन के अंत में उन्होने ईश्वर की शरण में जाने की आवश्यकता बतलाई है। और ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है वेदों से, इसलिए विज्ञानी के लिए भी गीता के मत में वेदों की आवश्यकता है। इसलिए गीता के मत से विरुद्ध होने के कारण ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं। 

▪️(3) अध्याय-2 में (60 और 61 श्लोक) प्रक्षिप्त हैं। श्लोक ये हैं -

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥2.60॥

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।।

भावार्थ — हे अर्जुन! बड़ा प्रयत्न करने वाले विद्वान पुरुष के लिए मन को भी प्रबल इन्द्रियां बल से खींच ले जाती हैं। इन सब को रोक कर योगी पुरुष मुझे इष्ट मान ले। इन्द्रिये जिसके वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।। 60-61।।

इन श्लोकों के प्रक्षिप्त होने में दो प्रमाण है। एक यह कि यहां इन श्लोकों का प्रसंग नहीं था। इनसे पहले श्लोक में कहा गया है कि 

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।

“भोजन छोड़ देने पर पुरुष का विषयों से तो संबंध टूट जाता है, परन्तु उनकी चाह नहीं छूटती। और परमात्मतत्त्वका अनुभव होने पर वह चाह भी निवृत्त हो जाती है”।

आगे चल कर (श्लोक 62 से लेकर 65 तक) “यह विषयों की चाह कैसे उत्पन्न होती है, बुद्धि का यह किस प्रकार नाश कर देती है, ईश्वर प्राप्ति से पहले इसकी निवृत्ति का क्या उपाय है और इसके निवृत्ति होने पर बुद्धि किस प्रकार स्थिर हो जाती है”, इन प्रसंगों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार (59, 62, 63, 64, 65) श्लोकों में विषयों की चाह से बुद्धि की चंचलता और चाह की निवृति से बुद्धि की स्थिति का वर्णन है। फिर इस प्रसंग के बीच में ही ₹श्लोक 60 और 61) में बुद्धि की स्थिति के दूसरे उपाय ‘इन्द्रियों के निरोध’ का वर्णन कैसे संगत माना जा सकता है, जब कि उस चाह के स्वरूप और उसी की उत्पत्ति का वर्णन (श्लोक 62) से आरम्भ होता है और उसे बुद्धि के नाश का कारण बतलाते हुए, (श्लोक 64) से बुद्धि की स्थिति का उपाय बतलाना आरंभ किया गया है। एक प्रसंग के बीच में दूसरा प्रसंग प्रक्षिप्त ही कहा जा सकता है।

इन श्लोकों के प्रक्षिप्त होने में दूसरा कारण है पुनरूक्ति। 

“इन्द्रियों का निरोध बुद्धि की स्थिति में कारण है” 

यह प्रसंग श्लोक 58 में पहिले आ चुका है। श्लोक नीचे पढिये 👇 

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.58।।

भाव- जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार जो मनुष्य इन्द्रियों को उनके विषयों से हटा लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।। 

▪️(4) इसी अध्याय में निम्नांकित 67, 68 और 69 श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं।

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.68।।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।

भावार्थ - इन्द्रियों के पीछे - पीछे बाहर जाने वाला मन, मनुष्य की बुद्धि को इस प्रकार विचलित कर देता है, जैसे पानी में वायु नाव को।। 67।।
इसलिए हे अर्जुन! जिसकी इन्द्रियें सब ओर से विषयों से हटी हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।। 68।।
जो सब प्राणियों की रात है, संयमी पुरुष उसमें जागता है और जब सब प्राणी जागते हैं, वह ज्ञानी मुनि की रात है।। 69।।

पहले दो श्लोकों में फिर इन्द्रियों के निरोध को बुद्धि के स्थिर करने में कारण बतलाया गया है। हम पहले लिख आये हैं कि यह विचार 58वें श्लोक में प्रकट किया जा चुका है, अतः इसका यहां फिर प्रकट करना पुनरूक्ति है। इसलिए ये दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं।।। इन तीनों ही श्लोकों के प्रक्षिप्त होने में एक यह कारण है कि इनका प्रसंग के साथ संबंध नहीं है। इन श्लोकों से पहले 66वें श्लोक में कहा गया है — जो कर्मयोगी नहीं है उसे समबुद्धि और समभावना प्राप्त नहीं हो सकती और समभावना के बिना शान्ति नहीं मिल सकती और शान्ति के बिना सुख कहां से आये? इस प्रकार इस श्लोक में शान्ति के लाभ का साधन बतलाया गया है।

आगे चलकर 70वें श्लोक में कहा गया है कि 

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।2.70।।

'स्थिर और भरे हुए समुद्र में जिस प्रकार जल प्रविष्ट होते हैं, उसी प्रकार सब कामनाएँ जिस में प्रविष्ट हो जाती है वह शांति का लाभ करता है, कामनाओं की चाहा वाला नहीं'

इस प्रकार इस श्लोक में शांति की प्राप्ति का साधन बतलाया गया है। 66वें श्लोक में शांति की अप्राप्ति के कारण का, और 70वें श्लोक में शान्ति की प्राप्ति के कारण का वर्णन है इसलिए ये दोनों श्लोक एक दूसरे से सम्बद्ध प्रतीत होते हैं। इन दोनों के बीच में किसी अन्य प्रसंग के उल्लेख को प्रक्षिप्त मानने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं हैं।यह प्रसंग यहां किसी ने क्यों डाल दिया यह समझ में नहीं आया।

                                           
                                               

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें