शुक्रवार, 1 मई 2020

अहीरों के साक्ष्य जो वैदिक सन्दर्भों से समन्वित हैं । अहीर बनाम जादौन । (Evidence of Ahirs that are coherent with Vedic references. Ahir versus. Jadaun.


कोर्ट ऐैतिहासिक फैसले साक्ष्यों के आधार पर ही कर सकता है । 
यादवों के इतिहास के साक्ष्य वेदों के आधार पर ही मान्य हैं । 
क्यों कि पुराण भी वैदिक सिद्धान्तों की प्रतिच्छाया है । वेदों में भी ऋग्वेद प्राचीनत्तम साक्ष्य है । 

अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक-- इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है। 

वह भी दास अथवा असुर रूप में यद्यपि दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ देव संस्कृति के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है। 
और असुर 'वह वैसे कभी नहीं थे जैसा वर्णन भारतीय पुराणों तथा शास्त्रों में किया जाता है ।
क्योंकि असुर शब्द की व्युत्पत्ति असु (प्राण)परक है 
(असु +र) का वर्ण विन्यास इस प्रकार है ।
अर्थात्‌ जो प्राण या शक्ति सम्पन्न है ; वह असुर है ।
असुर शब्द में असु मूल शब्द है ।

असु नपुंसक लिंग (अस्यतेऽनेन इति अस् + उ ):- चित्तं । उपतापः  इत्युणादिकोषः ॥

तथा असुः, पुंल्लिंग (अस्यन्ते इति  अस् + उ ):- प्राणः पञ्चप्राणेषु बहुवचनान्तः = असवः " इत्यमरःकोश ॥ (“तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति” ।
(भतृहरि नीतिशतके  ९९ श्लोकः )
अर्थात्‌ "तेजस्वी लोग सुखपूर्वक ही प्राणों को त्यागते हैं "

 ऋग्वेद में असुर' शब्द का प्रयोग लगभग 105 बार हुआ है।
 उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु -परक अथवा प्राण-शक्ति मूलक अर्थों में किया गया है ।

और केवल 15 स्थनों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 
 देवों के शत्रु के अर्थ में होने पर इसका वर्ण-विन्यास  (अ+सुर)=असुर ( जो सुर 'न हो ) इस प्रकार से किया गया है ;वह भी परवर्ती वैदिक काल में 
वस्तुतः प्रथम और मौलिक अर्थ असुर शब्द का प्राणवन्त ही है ।
'असुर' का व्युत्पत्ति-लब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न है देखें निम्नलिखित सन्दर्भ👇

('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
( यास्क निरुक्तकोश )
और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में भी व्यवहृत किया गया है।
 विशेषत: वरुण के लिए सूर्य के लिए भी और अग्नि के लिए भी ...
ईरानी अग्नि के अखण्ड उपासक थे ।
ईरानी धर्म में असुर महत् ( अहुर मज्दा) ईरानी आर्य्यों  का सबसे बड़ा उपास्य है ।

सुमेरियन, बैबीलॉनियन संस्कृतियों में इन्हीं असुरों को असीरियन कहा गया।

 परन्तु ये दास या असुर अपने दान , उदारता और पराक्रम बुद्धि- कौशल से समन्वित ही रहे हैं । 

अत: दास का अर्थ प्रारम्भ काल में दानी, या दाता का वाचक था।
 और उन्हीं प्राचीनत्तम सन्दर्भों में असुर और दास शब्दों के अर्थ को निर्धारित करने चाहिए न कि आधुनिक अर्थों में... 
क्यों कि वैदिक सन्दर्भों में तथा पूर्ववर्ती काल में भी घृणा शब्द दया ( करुणा) का वाचक है ।

परन्तु आज परवर्ती काल में घृणा नफ़रत का ही  वाचक है ।
यदि वेदों में घृणा शब्द पढ़ोगे तो नफरत या घृणा करने से अनर्थ ही होगा।
इसी प्रकार साहस शब्द का अर्थ भी अपनी विपरीत स्थिति में जा पहुँचा है ।
पहले साहस का अर्थ व्यभिचार मूलक था ।
'परन्तु आज उत्साह या हिम्मत मूलक है ।

शब्द कल्पद्रुमः संस्कृत कोश में घृणा शब्द का प्राचीन अर्थ निम्नलिखित सन्दर्भों में देखें।👇
____
घृणा- स्त्रीलिंग रूप  (घ्रियते सिच्यते हृदयमनया इति घृणा) घृ सेके + बाहुलकात् नक् स्त्रियां टाप् )
संस्कृत की घृ= सींचना धातु से घृणा शब्द व्युपन्न होता है। 👇
अर्थात्‌जिसका वर्ण विन्यास दयारसेन हि हृदयं सिक्तमिवार्द्रं भवतीति तथात्वम् 
अर्थात्‌ दया रस से ही हृदय आद्र होता है ।
हृदय को जिसके द्वारा सींचा जाता है वह घृणा है. 
दया करुणा घृणा ये परस्पर पर्य्याय वाची ही है ।👇

 जैसे किरातार्ज्जुनीय महाकाव्य में
 “मन्दमस्यन्निषुलतां घृणया मुनिरेष वः ।
 प्रणुदत्यागतावज्ञं जघनेषु पशूनिव ॥
परन्तु बाद में जब यह नफरत का वाचक हुआ तब इसका व्युत्पत्ति की गयी 
घ्रियते आच्छाद्यते गुणादिकमनयेति )
अर्थात्‌ जिसके द्वारा गुण आच्छादित हो जाते हैं 
  । १५। १३ ।

आज  घृणा शब्द का नकारात्मक अर्थ में ही प्रयुक्त है। जैसे जुगुप्सा ( नफरत)।

 दया अथवा करुणा के पर्य्यायः रूप में  १- अर्त्तनम् २- ऋतीया ३- हृणीया ४-करुणा ५-घृणा इस प्रकार से अनेक शब्द अमर कोश में हैं। ३। २। ३२

  रघुःवंश महाकाव्य में भी घृणा शब्द का अर्थ करुणा ही है  ।११।१७। देखें निम्नलिखित सन्दर्भ👇

“तां विलोक्य वनिता वधे घृणां पत्रिणा सह मुमोच राघवः"
अमरकोशः में 
घृणा स्त्रीलिंग  

करुणरसः 
समानार्थक:कारुण्य,करुणा,घृणा,कृपा,दया,अनुकम्पा,
अनुक्रोश,बत,हन्त 
1।7।18।1।5 
_______
उत्साहवर्धनो वीरः कारुण्यं करुणा घृणा। 
कृपा दयानुकम्पा स्यादनुक्रोशोऽप्यथो हसः॥ 
पदार्थ-विभागः : , गुणः, मानसिकभावः
घृणा स्त्री। 
जुगुप्सनम् 
समानार्थक:अर्तन,ऋतीया,हृणीया,घृणा,किम् 
3।2।32।2।4 

उपशायो विशायश्च पर्यायशयनार्थकौ। 
अर्तनं च ऋतीया च हृणीया च घृणार्थकाः॥ 
पदार्थ-विभागः : , क्रिया
घृणा स्त्री। 
जुगुप्सा 

समानार्थक:अवर्ण,आक्षेप,निर्वाद,परीवाद,अपवाद,
उपक्रोश,जुगुप्सा,कुत्सा,निन्दा,गर्हण,घृणा,कु 
3।3।51।2।2 

त्रिषु पाण्डौ च हरिणः स्थूणा स्तम्भेऽपि वेश्मनः। 
तृष्णे स्पृहापिपासे द्वे जुगुप्साकरुणे घृणे॥ 
पदार्थ-विभागः : , गुणः, मानसिकभावः

इसी प्रकार साहस शब्द का अर्थ भी नकारात्मक हो गया 
 पूर्ववर्ती काल में साहसम् (नपुंसक लिंग) के रूप में यह शब्द बलात्कार अथवा बल से कार्य करने के अर्थ में रूढ़ था । 
(सहसा बलेन निर्वृत्तम् सहस् + “तेन निर्वृत्तम् ” ४। २ । ६८। इति अण् )-साहसम्  ।
बलात्कार अथवा बल के द्वारा कोई कार्य करना साहस है।
 👇
मनुष्यमारणञ्चौर्यं परदाराभिमशनम्। 
पारुष्यमुभयञ्चेति साहसं स्याच्चतुर्विधम्” 
(इति वृहस्पति स्मृति ) 
मानव-हत्या ,चौरी ,पराई स्त्री से संभोग और कठोरता ये चार साहस के रूप हैं ।
'परन्तु परवर्ती काल में साहस का अर्थ हिम्मत भी हो गया और यही अर्थ आज तक मान्य है।

इसी प्रकार से कुछ शब्दों के अर्थ कालान्तरण पूर्ण रूप से विपरीत हो जाते हैं ।
यह हमने जाना इसी प्रकार असुर , राक्षस, दानव ,और दास आदि शब्द के अर्थ के साथ भी यही हुआ ।

इस लिए विद्वानों को इन वैदिक कालीन शब्दों का अर्थ भी प्राचीन सन्दर्भ या प्रसंंगों में ग्रहण करना चाहिए नकि आधुनिक प्रसंग अथवा अर्थों में क्योंकि यदि आधुनिक अर्थों में या प्रसंंगों के अनुरूप इनका अर्थ ग्रहण किया जाएगा तो यह असंगत और अनर्थ मूलक ही होगा ।
जैसा कि महर्षि दयान्द के अनुयायी यह अनर्थ अपने विशेष स्वार्थों से प्रेरित होकर कर भी रहे हैं ।

 ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: "दास" के रूप में सम्बोधित किया गया है। 👇
 वह भी गोपों के रूप में तो यहांँ "गोप" का अर्थ तो 
गो-पालन करने वाला है ; 'परन्तु दास का अर्थ प्राचीन सन्दर्भ में देवों का विद्रोही या विरोधी ही है ।
 नकि आधुनिक अर्थों के अनुरूप गुलाम या सेवक 
 ________________________________________ " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
 " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
 (ऋग्वेद १०/६२/१०) यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दासों 
(देव संस्कृतियों के विरोधी )की प्रशंसा या वर्णन करते हैं।
 यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। 
जो गायों से घिरा हुआ है ।
गो-पालक ही गोप होते हैं ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और (र्तुव:)तुर्वसु का वर्णन साथ-साथ नकारात्मक रूप में ही अधिकतर हुआ है। 👇

जैसे – उद्गाता पुरोहित इन्द्र से प्रार्थना करता है कि 👇

 _____________________________________ 
हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो। और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८)
_______
प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:। नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।। (ऋग्वेद ७/१९/८ ) 
यही उपर्युक्त  ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) पर है ।

(  अथर्व वेद और ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो । 
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो। 🎧

और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।... और भी देखें--- 👇 


_________________________________________ अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
 अवाहन् नवतीर्नव ।१। 
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
 (ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)

 हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । 
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
 शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया।२।

 यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।

सुमेरियन मिथकों में यदु का वर्णन उदु के रूप में है ।
 असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं ।
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
और देव संस्कृतियों के अनुयायी इन्द्र के उपासक पुरोहितों की  यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी 👇 
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
 व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२)
 हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।

 अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” (ऋ० ८, ४५, २७)
 अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । 

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/ हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । 

तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
तुम मुझे क्षीण न करो ।
 यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदीयों के पूर्वज यहुदह् ही थे।
__________
और दूसरी बात की दास और असुर शब्द ईरानी आर्य्यों के धर्म ग्रन्थों अवेस्ता ए जेन्द में उच्चतम अर्थों में मान्य हैं 
असु-र महत् ( अहुर मज्दा के रूप में ईरानी आर्य्यों का सबसे बड़ा उपास्य और दास शब्द दाहे के रूप में दाता या दानी का वाचक है ; तथा दागेस्तान के मूल निवासीयों का वाचक है ।
 जिसका अन्य रूप देसिया भी है ।
अब भक्त स्वयं अन्दाजा लगा सकते हैं कि किस प्रकार कालान्तरण में शब्दों के अर्थ विपरीत अर्थ को प्रकट करने लगते हैं ।

 यद्यपि  वैदिक कालीन यदु और हिब्रूू यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है । 
अर्थात् दौनों ही व्युत्पत्ति यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध  हैं  
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 यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है । ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सैमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।

और  यदु एेसे स्थान पर रहते थे। 
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
पश्चिमीय एशिया इज़राएल जॉरडन फलिस्तीन आदि में यह स्थान है ।
और वहाँ ऊँटों का बाहुल्य भी है ।

 यह उष्ट्र शब्द उष् (वस) +स्था (उष ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )। (ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् ।
उष्ट्र वैसे भी मरुस्थलीय प्राणी है।

 यह उष्ट्र रेगिस्तानीय पशु है 
उसका नामकरण भी उसकी पारिवेशक तथा जलवायवीय विशेषताओं को समन्वित किए हुए हुआ है 
विदित हो की ईरानी भाषा मे उष्ट्र ही वर्ण-विपर्यय के नियम से "शुतुर" रूप हो गया जिसका अर्थ भी ऊँट ही है।
 “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् देखें-👇 

-ऋग्वेद में यादवों विषय में ये प्रसंंग हैं ।
 शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
 राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।

 उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् । 
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।👇

 यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! 
(ऋग्वेद ८/६/४६)
वस्तुतः यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है । 
अब यादवों के इस इतिहास की जानकारी भारतीय पौराणिक पुरोहित वर्ग को नहीं !

क्या अहीरों को नकली और खुद को असली कहने वाले  जादौन चारण बंजारे यादवों के इतिहास के इन रूपों से अपने को समायोजित करते हैं?  
क्या वे यादवों के पूर्वज यदु के इस ऐैतिहासिक विवरण को जानते और मानते हैं ?
कभी नहीं !
विदित हो की देव संस्कृतियों के पुरोहित ब्राह्मणों का आगमन यूरोप के स्वीडन से मैसॉपोटमिया ,सुमेरो-फोनिशियनों (पणियों) के सम्पर्क में रहते हुए हुआ था ।
 अत: भारतीय वैदिक सन्दर्भों में  सुमेरियन, बैबीलॉनियन सांस्कृतिक रूपों का भी समन्वय भी हुआ ।
विष्णु देव की सुमेरियन( विष् नु- अर्ध मत्स्य मानव ) से एकरूपता  है। 
इन्द्र  की सुमेरियन इन-दरु तथा यूरोपीयों एण्ड्रो (Endro) तथा वरुण आदि देव की सुमेरियन विष् यूरोपीय युरेनस से है । 
वल , शम्बर वृत्र त्वष्टा आदि का समन्वय हुआ ।
_________
 सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते हैं ।

 ईरानी में बिरहमन तथा जो जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ,ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है।
 जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है। 

पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास (गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।
तत्कालीन सन्दर्भों में दस्यु का अर्थ बागी या विद्रोही है जो दास का उन्नत प्रतिरूप है ।

ईरानी मिथकों में "दह्यु"शब्द वैदिक दस्यु का रूपान्तरण ही है।
 _________________________________________ यहूदियों के जादौन पठानों में भी मणिहार बंजारे हैं ।
मध्य काल  में जादौं भी जब ब्राह्मणों'ने जब -नीच जातियों में घोषित किए तो कुछ नीचे ही बने रहे जो बंजारे कहलाऐ और जो मौका देखकर राजपूत संघ में सम्मिलित हो गये उन्होंने खुद को क्षत्रिय मानना प्रारम्भ कर दिया जादौनों की ज्यादा तर कबीले अफगानिस्तान सिंध और पश्चिमी भारत के ही हैं ।
दरअसल यह एक लम्बा अन्तराल हो गया जादौन राजपूत 'न लगाकर ठाकुर टाइटल लगाते हैं ।
जो कि तुर्की आर्मेनियन व फारसी ''में ताक्वुर जमीदारी लकब है ।

भारतीय जादौन ये गादौन / अफगानिस्तान के पठानों और भारतीय व्रज प्रान्तों के अहीरों का मिलमा -जुलमा रूप है।
निम्नलिखित सन्दर्भों में जादौं का द्वितीय अर्थ नीचकुल में उत्पन्न जादौन बंजारे की तरफ संकेत करता है👇



"यह समग्र शोध श्रृंखला :- यादव योगेश कुमार' 'रोहि' के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है "
 ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में विद्यमान हैं ।

ऋग्वेद में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास और गोप के रूप में सम्बोधित किया गया है।
दास शब्द की व्याख्या विवादित है ।
वर्तमान में दास भक्त का वाचक और गोप गो- पालक का वाचक है ।
यह तथ्य हम पूर्व में वर्णित कह चुके हैं ।

 अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं। 

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: 
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: 
(2।9।57।2।5)
 अमरकोशः) 

अत: साक्ष्य अहीरों के पक्ष में ही अधिक हैं यदुवंशी होने के और सम्पूर्ण भारत में अहीर ही यादव या गोप के रूप में मान्य हैं ।

'परन्तु जादौनों के रूप में कोई पौराणिक साक्ष्य नहीं है ।
इनकी निकासी भी आठवीं सदीं के मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है ।

और सोलहवीं सदी के बाद से ये लोग राजपूत संघ में सम्मिलित हो गये । 

प्रसिद्ध समाज शास्त्रीयों ने भारतीय इतिहास में जादौन जन-जाति को चारण बंजारों का एक छोटे राठौड़ों का समुदाय रूप में वर्गीकृत किया है । 🌸
अर्थात्‌ राठौड़ और जादौन चारण बंजारों के रूपान्तरण हैं ।
अफगानिस्तान में जादौन पशु भेड़ बकरी पालक पठानों का समुदाय है ।
 जो स्वयं को यहूदियों से उत्पन्न मानते हैं ।
और यहूदी भी यादवों का रूपान्तरण ही हैं।

इनके विषय में आगे अधिक स्पष्ट किया जाएगा ! 

विदित हो कि यादवों की एक शाखा कुकुर कहलाती थी  ये लोग अन्धक राजा के पुत्र कुकुर के वंशज माने जाते हैं  दाशार्ह देशबाल -दशवार , ,सात्वत ,जो कालान्तरण में हिन्दी की व्रज बोली क्रमशः सावत ,सावन्त , कुक्कुर कुर्रा , कुर्रू आदि रूपों परिवर्तित हो गये ।

 ये वस्तुत यादवों के कबीलागत विशेषण हैं ।
 कुकुर एक प्रदेश जहाँ कुक्कुर जाति के यादव रहते थे यह देश राजपूताने के अन्तर्गत है ; 
जो कभी मत्स्या देश था । 

और कालान्तरण में उसके वंशजों द्वारा नामकरण हुआ । कुकुर अवलि =कुकुरावलि --कुरावली---करौली।

'परन्तु मुगल काल में पारसी में करौल का अर्थ छावनी या सैनिक पढ़ाब  होने से इस स्थान पर मुगलों के सैनिक पढ़ाब डाल कर रहते थे इस लिए भी इसे करौली या करौल कहा गया । 

ध्यान रखें
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करौली राजस्‍थान का ऐतिहासिक नगर है।
 यह करौली जिला का मुख्यालय है। 
इसकी स्‍थापना 955 ई. के आसपास राजा विजय पाल ने की थी जिनके बारे में कहा जाता है कि वे भगवान कृष्‍ण के वंशज थे। 

एक समय जलेसर व करौली राज्यों पर जादौन राज परिवारों का शासन रहा है।

 इनका निकास मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है। इसका प्रमाण  सन्दर्भ निम्नलिखित रूप में देखें👇
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[1] Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ 43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-2.
यह ब्रह्म पाल दशवें अहीर/ पाल शासक थे 
आभीर पाल शासक की श्रृँखला क्रम इस प्रकार है ।

१-धर्म्मपाल

२-सिंहपाल

३-जगपाल 

४- नरपाल

५-संग्रामपाल

६-कुन्तपाल

७-भौमपाल

८-सोचपाल

९-पोचपाल

१०-ब्रह्मपाल

११-जैतपाल ।

करौली का इतिहास प्रारम्भ होता है ब्रह्म पाल और विजयपाल आभीर शासकों से ---

यह विजयपाल बारहवाँ पाल शासक था ---
 जिनका शासन-समापन समय 1030 ई०सन्  के समकालिक है विजयपाल से तुलसी पाल तक पैंतीस -छत्तीस पाल शासकों का राज रहा ।

१२- त्रिभुवनपाल(1000)
१३- विजयपाल (1030)
१४-धर्मपाल (1090)
१५- कुँवरपाल (1120)
१६- अनंगपाल(1122 )
१७-अजयपाल(1150)
१८-हरिपाल ( 1180)
१९-सुघड़पाल(1196)
२०-पृथ्वी पाल (1242)
२१-राजपाल (1264)
२२- त्रिलोकपाल(1284)
२३-विप्पलपाल(1330)
२४-गुगोलपाल(1352)
२५-अर्जुनपाल(1374)
२६- विक्रमपाल(1396)
२७-अभयन्द्रपाल (1418)
२८- पृथ्वी राज पाल (1440)
२९चन्द्रसेनपाल(1462)
३०-भारतीचन्द्रपाल(1484)
३१-गोपालदास (1506)
३२- द्वारिका दास(1528)
३३-मुकुन्ददास(1550)
३४- युगपाल(1572)
३५- धर्म्मपाल(1616)
३६-रतनपाल(1638)
३७-आरतीपाल ( 1860) 
३८- अजयपाल(1682)
३९-रक्षपाल (1704)
४०-सुधाधरपाल( 1726  )
४१-कँवरपाल(1748 ) 
४२-श्रीगोपाल( 1770  )
४३-माणिक्यपाल( 1792 )
४४-अमोलपाल(1814 ) 
४५-हरिपाल ( 1836)
४६-मधुपाल (1856 )
४७-अर्जुन पाल (1879)
४८-तुलसीपाल (1894)
गोपल,पाल, गोप ,पल्लव, वल्लव ये अहीरों के गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण थे 
और वंशमूलक रूप में ये यादव थे ही।

उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक अड़तालीस यदुवंशी पाल उपाधि धारक शासकों की शासन सत्ता रही व्रज क्षेत्र कि परिसीमा करौली रियासत में ---👇

कालान्तरण में जातिवंशमूलक ज्ञान के विलुप्त हो जाने से ये मध्य प्रदेश के अहीर घोषों के समान अपने को राजपूत संघ में सम्मिलित मानने लगे ।

और अपने ही पूर्वज अहीरों से मतभेद करने लगे 
करौली के ये शासक अपने नाम- के बाद पाल उपाधि लगाते थे ।
कुछ ने दास उपाधि को भी लगाया।
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दास शब्द और गोप शब्द ऋग्वेद के कई सन्दर्भों में यदु और तुर्वसु के लिए आया है । 👇

ऋग्वेद 10/62/10 
उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च ।।ऋ०10/62/10 
वस्तुत ये समग्र समीकरण मूलक प्रमाण अहीरों के पक्ष में हैं कि करौली के शासक स्वयं को पाल अथवा गोपाल या गोपोंं के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं 

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 संस्कृत ग्रन्थों में कुकुर यादवों के विषय में पर्याप्त आख्यान परक विवरण प्राप्त होता है ।

 कोश ग्रन्थों में इस शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक रूप से इस प्रकार दर्शायी है ।
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 कुम् पृथिवीं कुरति त्यजति स्वामित्वेन इति कुकुर । यदुवंशीयनृपभेदे तेषां ययातिशापात् राज्यं नास्तीति पुराणकथा यदु शब्दे दृश्या । 

अर्थात् कुकुर 'वह हैं --जो अपने स्वामित्व के द्वारा 'पृथ्वी का राज को त्यागते हैं क्यों कि यदु के वंशज जिनके पूर्वज यदु ने ययाति के शाप से राज्य प्राप्त नहीं किया । 
इस रूढ़िवादी परम्पराओं के प्रभाव से ...

'परन्तु हरिवंशपुराण तथा अन्य पुराणों में हैहयवंश के यादव सहस्रबाहु चक्रवर्ती सम्राट भी थे ।

तो यह कहना भी मिथ्या ही है कि यदु तथा उनके वंशज राज्य हीन ही रहे ।

इन्हीं कुकल यादवों की परवर्ती शाखा में भजमान शुचि ,कम्बलबर्हिषतथा अन्धक आदि हुए ।

कमरिया अहीरों का सम्बन्ध कम्बलबर्हिष से है जो आजकल कमलनयन राजा से सम्बद्ध करते हैं ।
कामलिया रूप से यह जादौनों का भी गौत्र है ।
भिरुगुदी जादौन और अहीरों का समान गोत्र है ।

कम्बलबर्हिष का विवरण पुराणों में है ।

 “ भजमानशुचिकम्बलबर्हिषास्तथान्धकस्य पुत्राः” इति (विष्णु पुराण)
 “कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः ।
 “अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोलभतात्मजान् कुकुरं भजमानं च शमं कम्बलबहिषम्” 
(हरिवंश पुराण ३८ अध्याय) । ________________________________________

 विदित हो कि मध्यकालीन वारगाथा काल में नल्ह सिह भाट द्वारा विजय पाल रासो के रचना की गयी 
 नल्हसिंह भाट कृत इस रचना के केवल '42' छन्द उपलब्ध है।

 विजयपाल, जिनके विषय में यह रासो काव्य है, विजयगढ़, करौली के पाल  'यादव' राजा थे।

 इनके आश्रित कवि के रुप में 'नल्ह सिंह' का नाम आता है।
 रचना की भाषा से यह ज्ञात होता है कि यह रचना 17 वीं शताब्दी से पूर्व की नहीं हो सकती है।" 

विजयपाल का समय 1030  के समकालिक है ।
अस्तु काल के प्रभाव से मथुरा को त्याग कर जब विजयपाल के वंशज सम्वत् 1052 में बयाने के पास बनी पहाड़ी की उपत्यका में ये जा बसे | 

क्यों कि बयाना वज्रायन शब्द का तद्भव रूप है । 
और वज्र कृष्ण के प्रपौत्र (नाती) थे ।
और इनके पुरोहित शाण्डिल्य ही थे ।
जो युवा अवस्था में नन्द के पुरोहित भी थे ।
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प्रथम (1) अध्याय

श्रीमद्भागवत माहात्म्य: प्रथम अध्यायः श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद

वज्रनाभ ने कहा—‘महराज! आप मुझसे जो कुछ कह रहे हैं, वह सर्वथा आपके अनुरूप है। 
आपके पिता ने भी मुझे धनुर्वेद की शिक्षा देकर मेरा महान् उपकार किया है । 
इसलिये मुझे किसी बात की तनिक भी चिन्ता नहीं; क्योंकि उनकी कृपा से मैं क्षत्रियोचित शूरवीरता से भलीभाँति सम्पन्न हूँ। 
मुझे केवल एक बात की बहुत बड़ी चिन्ता है, आप उसके सम्बन्ध में कुछ विचार कीजिये ।
 यद्यपि मैं मथुरा मण्डल के राज्य पर अभिषिक्त हूँ, तथापि मैं यहाँ निर्जन वन में ही रहता हूँ। 
इस बात मुझे कुछ भी पता नहीं है कि यहाँ की प्रजा कहाँ चली गयी; क्योंकि राज्य का सुख तो तभी है, जब प्रजा रहे’ । 

जब वज्रनाभ ने परीक्षित् से यह बात कही, तब उन्होंने वज्रनाभ का सन्देह मिटाने के लिये महर्षि शाण्डिल को बुलवाया। 
ये ही महर्षि शाण्डिल पहले नन्द आदि यदुवंशी गोपों के पुरोहित थे ।
 परीक्षित् का सन्देश पाते ही महर्षि शाण्डिल अपनी कुटी छोड़कर वहाँ आ पहुँचे। 
वज्रनाभ ने विधिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया और वे एक ऊँचे आसन पर विराजमान हुए ।
 राजा परीक्षित् ने वज्रनाभ की बात उन्हें कह सुनायी। इसके बाद महर्षि शाण्डिल बड़ी प्रसन्नता से उनको सान्त्वना देते हुए कहने लगे— शाण्डिल ने कहा—प्रिय परीक्षित् और वज्रनाभ !
 मैं तुम लोगों से वज्रभूमि का रहस्य बतलाता हूँ।
 तुम दत्तचित्त होकर सुनो। 
‘व्रज’ शब्द का अर्थ है व्याप्ति। 
इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण ही इस भूमि का नाम ‘व्रज’ पड़ा है ।
 सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रम्ह है, वही व्यापक है। 
इसलिये उसे ‘व्रज’ कहते हैं।
 वह सदानन्दस्वरुप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है।
 जीवन्मुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं । 
इस परब्रम्हस्वरूप व्रजधाम में नन्दनन्दन भगवान श्रीकृष्ण का निवास है। 
उनका एक-एक अंग सच्चिदानन्दस्वरुप है। 
वे आत्माराम और आप्तकाम हैं।
 प्रेम रस में डूबे हुए रसिकजन ही उनका अनुभव करते हैं । 
भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा है—राधिका; उनसे रमण करने के कारण ही रहस्य रस के मर्मज्ञ ज्ञानी पुरुष उन्हें ‘आत्माराम’ कहते हैं । ‘काम’ शब्द का अर्थ हिया कामना—अभिलाषा; व्रज में भगवान श्रीकृष्ण के वांछित पदार्थ हैं—
गौएँ, ग्वालबाल, गोपियाँ और उनके साथ लीला-विहार आदि; वे सब-के-सब यहाँ नित्य प्राप्त हैं। इसी से श्रीकृष्ण को ‘आप्तकाम’ कहा गया है । भगवान श्रीकृष्ण की यह रहस्य-लीला प्रकृति से परे है। वे जिस समय प्रकृति के साथ खेलने लगते हैं, उस समय दूसरे लोग भी उनकी लीला का अनुभव करते हैं ।
 प्रकृति के साथ होने वाली लीला में ही रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है। 
इस प्रकार यह निश्चय होता है कि भगवान की लीला दो प्रकार की है—
एक वास्तवी और दूसरी व्यावहारिकी ।
 वास्तवी लीला स्वयंवेद्द है—उसे स्वयं भगवान और उनके रसिक भक्तजन ही जानते हैं। 
जीवों के सामने जो लीला होती है, वह व्यावहारिकी लीला है। 
वास्तवी लीला के बिना व्यावहारिकी लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्यावहारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता ।
 तुम दोनों भगवान की जिस लीला को देख रहे हो, यह व्यावहारिकी लीला है।
 यह पृथ्वी और स्वर्ग आदि लोक इसी लीला के अन्तर्गत हैं। 
इसी पृथ्वी पर यह मथुरा मण्डल है ।
यद्यपि व्रज शब्द की काल्पनिक मनगड़न्त है ।
व्रज का मूल अर्थ गायों का बाड़ा है।👇

व्रजःपुल्लिंग शब्द (व्रज गतौ + “गोचरसंचरेति ।३ । ३ । ११९ । इति घप्रत्ययेन निपातनात् साधुः ।) अर्थात्‌ जहाँ गायें चरती या चलती हैं वह स्थान व्रज है 
समूहः । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, महाभारते । १ । १८९ । १२ । “ततः प्रतापः सुमहान् शब्दश्चैव विभावसोः । प्रादुरासीत् तदा तेन बुबुधे स जनव्रजः ॥) गोष्ठम् । (यथा, माघे । २ । ६४ । 
 पुराणों में वज्रनाभ का वर्णन इस प्रकार है :- 
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श्रीकृष्णप्रपौत्त्रः- यथा   -“ अनिरुद्धात् सुभद्रायां वज्रो नाम नृपोऽभवत् ।
 प्रतिबाहुर्वज्रसुतश्चारुस्तस्य सुतोऽभवत् ॥
( इति गरुडपुराण १४४ अध्याय)....

करौली के यदुवंशी राजा शौरसैनी कहे जाते थे यह कहना भी निर्धारित व मनगड़न्त मिथक है ।

क्योंकि यदुवंशीयों का वंशमूलक विशेषण यादव और व्यवसाय मूलक विशेषण गोप तथा ईसा० पूर्व द्वत्तीय सदी के संस्कृत विद्वानों'ने आभीर या अभीर भी कहा ।
यादवों का घोष विशेषण भी गोष: के अर्थ रूपों गोप का ही वाचक रहा है ।

कुछ यदुवंशी बाद में समय के प्रभाव से मथुरा को त्याग कर और सम्वत् 1052 में बयाने के पास बनी पहाड़ी की उपत्यका में ये जा बसे |
 राजा विजयपाल के पुत्र तहनपाल (त्रिभुवनपाल) ने तहनगढ़ का किला बनवाया ।

 तहनपाल के पुत्र धर्मपाल (द्वितीय) और हरिपाल थे ; जिनका समय संवत् 1227 का है ।
 
कृष्ण जी के प्रपौत्र (नाती )वज्र को मथुरा का अधिपति बनाने का प्रसंग श्रीमद भागवत् के दशम स्कन्ध में आता है और वज्रनाभ के पुरोहित शाण्डिल्य ही थे ।
जो  गर्गाचाय की शिष्य परम्परा में थे।
शाण्डिल्य शण्डिल के पुत्र के थे ।

शडि--इलच् । शाण्डिल्यस्य पितरि मुनिभदे तस्यापत्यं गर्गा० घञ् शण्डिल्य ।

कहा जाता है की लगभग सातवीं शताब्दी के आस पास सिंध से (जहां भाटियों का वर्चस्व था ). 
कुछ यदुवंशी मथुरा वापस आ गए और उन्हों ने यह इलाका पुनः जीत लिया विदित हो की भाटी चारण (करण)बंजारों के रूपान्तरण थे ।

जो वंशमूलक विरुदावलियों का संग्रह और गायन करते थे।
वे भी यदुवंशी हमने लगे ।
 ________
 इन करौली के  यदुवंशी पाल  राजाओं की वंशावली राजा धर्मपाल से शुरू होती है जो की श्री कृष्ण 77वीं पीढ़ी के वंशज थे । 

 यह तथ्य कमान  के चौंसठ खम्बा शिलालेख पर उत्कीर्ण भी है ।
 वर्तमान काल में करौली के राजघराना में पाल राजाओं के वंशज हैं ।

 पाल अहीरों का प्राचीनत्तम विशेषण रहा है।

 पहाड़ों पर बसने वाले डोगरा राजपूतों में भी इनकी कई खांपें मिली हुई हैं ।

 ये ढढोर कबीला तो अहीर से सम्बद्ध हैं  
ढढोर ' यदुवंशी अहीरों की एक प्रसिद्ध गोत्र है जिनका निर्गमन राजस्थान के प्रसिद्ध ढूंढार क्षेत्र से हुआ माना दाता है। 

इनके उर हृदय में दृढ़ता( दृढ़+उर)थी तो लोगों ने इन्हें डिढ़ोर भी कहा जाने लगा 
इन्होंने अपनी वीरता का प्रदर्शन और ड़िढोरा किया इस लिए भी कुछ लोग इन्हें डिढ़ोर कहते ।

राजस्थान में जयपुर के आसपास के क्षेत्र जैसे करौली, धौलपुर, नीमराणा और ढींग (दीर्घपुर) बयाना (वज्रायन) के विशाल क्षेत्र को " ढूंढार " कहा जाता है एवं यहाँ ढूंढारी भाषा बोली जाती है। 
जादौनों की वस्तियाँ राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में  (एटा , अलीगढ़, फीरोजाबाद , हाथरस , बुलन्दशहर ) तक हैं ।


आज भी यहाँ ढंढोर अहीरों के गांव यहाँ मौजूद हैं।
 ढढोर अहीर मूलतः द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण के प्रपौत्र युवराज वज्रनाभ  के वंशजों में से एक माने जाते हैं एवं इनकी अराध्य देवी कैलादेवी(कंकाली माता) हैं। _______________________________________ भगवान कृष्ण की पीढ़ी के 135 वें पाल या अहीर राजा विजयपाल यदुवंशी के ही विभिन्न पुत्रों में से एक से यह "ढढोर" वंश चला।
_____

 ऐसा "विजयपाल रासो "में भी वर्णन मिलता है कि यदुवंशी क्षत्रियों के उस समय राजस्थान और बृज में 1444 गोत्र उपस्थित थे।

 इन्हीं विभिन्न 1444 यदुवंशी क्षत्रियों के गोत्र में से एक था ।
 ढढोर गोत्र जिन्होंने मुहम्मद गौरी के राजस्थान पर आक्रमण के समय गुर्जर राजा पृथ्वीराज चौहान की ओर से लड़ते हुए गौरी की सेना से युद्ध किया था। 
आज ये अहीर ही हैं ।

सन् 1018 में मथुरा के महाराज कुलचन्द्र यादव और महमूद गज़नी के बीच भीषण युद्ध हुआ जिसमें गज़नी की सेना ने कपट पूर्वक यदुवंशीयों को पराजित कर दिया। 

राजा कुलचंद्र यादव के पुत्र राजा विजयपाल अहीर के नेतृत्व में ज्यादातर यादव बयाना आ गए।
'परन्तु यह शुरुआत ( आगा़ज) मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से ही हो गयी थी ।

और  बयाना शब्द अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ के आधार पर है ।

यह  वज्रायन शब्द का तद्भव है ।
 इस लिए विजयपाल ने मथुरा के क्षेत्र में बनी अपनी प्राचीन राजधानी छोड़कर पूर्वी राजस्थान की मानी नामक पहाड़ी के उच्च-स्थली भाग पर बयाना का दुर्ग का निर्माण किया।

 विजयपाल रासो नामक ग्रन्थ में इस राजा के पराक्रम का अच्छा वर्णन है ।

 इसमें लिखा है कि महाराजा विजयपाल का 1045 ई0 में अबूबक्र शाह कान्धारी से घमासान युद्ध हुआ ।

 संवत 1103 में यवनों ने संगठित होकर अबूबक्र कंधारी के नेतृत्व में विजय मंदिर गढ़ पर हमला किया और दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया इस युद्ध में विजयपाल वीरगति को प्राप्त हुये ।

और कालान्तरण में उनके साथ उनके 18 में से 11 पुत्र भी वीरगति को प्राप्त हुए पराजय का समाचार किले में पहुचते ही महाराजा विजयपाल की रानियों ने राजपरिवार की अन्य स्त्रियों एवं किले की सैकड़ो अहीर क्षत्राणियों के साथ अग्नि की प्रचंड ज्वाला में कूद कर जौहर कर लिया शायद ही देश के इतिहास में इतना बड़ा जौहर हुआ होगा 

यह चित्तौड़ के जौहर से भी बड़ा जौहर था जिसके साक्ष्य आज भी विजयमन्दिरगढ़ किले में मौजूद है यह घटना फाल्गुन वदी तीज दिन सोमवार संवत 1103 को घटित हुई थी । _________________________________________

 सन् 1196 ई0 सन् में मोहम्मद गौरी ने बयाना( विजयमन्दिरगढ़) और तिमनगढं पर हमला किया जिसमे विजयपाल यदुवंशी के पीढ़ी के शासक राजा कुंवरपाल सिंह यदुवंशी के नेतृत्व में यादव सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना का डटकर रणभूमि में मुकबला किया ;
 लेकिन  कम मात्रा रह गये सेना के लोगों को पराजित होकर वहाँ से पलायन करना पड़ा।

 इसके पश्चात वहाँ से पलायन कर राजा कुंवरपाल सिंह यदुवंशी ने बचे हुए यादव सेना और सामंतों के साथ चित्तौड़ में शरण ली ।

 यादव रजवाड़ों ने चित्तौड़ के दुर्ग में अपने कुल देवी माँ योगमाया गोप कन्या विन्ध्यावासिनी के भव्य मंदिर का निमार्ण करवाया जो आज कंकाली माता के मंदिर के नाम से भी प्रसिद्ध हैं।

 राजा कुवंरपाल अहीर के पुत्र हुए महिपाल सिंह अन्य अहीरों के साथ राजस्थान के कोटा से 22 किलो मीटर दूर पाटन में आये तथा यहाँ तक यदुवंशी अभीरों के 14 44 गोत्र एक साथ मौजूद थे । 

तथा यहाँ केशवराय जी के विशाल मन्दिर का निर्माण कराया इस मन्दिर के नाम से ही आज वह शहर केशवराय पाटन शहर के नाम से जाना जाता है।

 पाटन से यादव समाज के लोग बिखर गए और राजा कुंवरपाल यदुवंशी के जेष्ठ पुत्र महिपाल सिंह यादव के नेतृत्व में यादव वंश के 86 गोत्र नर्मदांचल में आकर बस गए और शिवपुरी में स्वतंत्र जागीर स्थापित करी।
यह अहीर अस्मिता को भूलने लगे और राजपूत संघ में सम्मिलित होने लगे ।

 इन्हीं 1444 गोत्रों में से एक गोत्र है ढंढोर गोत्र जो मुहम्मद गौरी से युद्ध के बाद राजस्थान से पलायन कर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के गोरखपुर, आज़मगढ़ आदि इलाकों में जा बसे।
और आज भी स्वयं को अहीर ही कहते हैं ।

 करौली के सस्थापक कुकुर यादवों की शाखा से लोग थे यद्यपि ये लोग चरावाहों की परम्पराओं का निर्वहन यदु को द्वारा स्थापित होने से करते थे ।

 क्यों कि यदु ने कभी भी राज्य स्वीकार नहीं किया ।
 वे गोप थे और हमेशा गायों से घिरे रहते थे ।

 ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में देखें-- " उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।।ऋ०10/62/10 ।

और यदुवंश के सूर्य भगवान श्रीकृष्ण 'ने स्वयं कहा कि मेंने जन्म गोपों में लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए  दुरात्‍माओं का दमन कर सकूँ 👇

________________________
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 11 श्लोक 56-60
_______
एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्‍म च।
अमीषामुत्‍पथस्‍थानां निग्रहार्थं दुरात्‍मनाम्।।58।।
__________________________
 इसलिए व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और  मैंने गोपों में जन्म लिया ताकि इस संसार में कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्‍माओं का दमन कर सकूँ 
।।58।।
 
_______________________

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ ।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्‍णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोअध्‍याय:।



इतिहास लेखक मोहन दास गुप्ता ने लिखा की ये कभी भी  राजपूत सूचक विशेषण सिंह अपने नाम के पश्चात् नहीं लगाते थे केवल पाल विशेषण लगाते थे ।
क्योंकि सिंह गाय को कैसे छोड़ सकता है ।

 ये स्वयं को गोपाल कृष्ण का वंशज मानते थे । गोपाल , पाल गोप तथा आभीर केवल यादवों के व्यवसाय और प्रवृत्तिपरक विशेषण हैं ।

 और आभीर वीरता सूचक प्रवृत्ति का सूचक है । 
करौली के मन्दिर में गाय और भेड़ यदुवंशी शासकों के पाल गोपाल रूपों की स्मृति के आज तक जीवन्त अवशेष हैं। 

इसलिए जादौन समाज का यह दावा निराधार व भ्रान्ति मूलक है कि अहीर यदुवंशी नहीं होते हैं ।
जबकि स्वयं जादौन जन-जाति चारण बंजारों का उप समुदाय है ।
चारण या करण तथा भाट ये बंजारों और वंशमूलक विरुदावलियों का संग्रह और गायन करने वाले हैं ये कालान्तरण में स्वयं को राजपूत भी कहने लगे 

क्योंकि भारतीय पुराणों में विशेषत: ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तथा स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति दर्शायी है ।👇
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यद्यपि विकीपीडिया पर विभिन्न इतिहास कारों के हबाले सन्दर्भ दिए गये हैं कि जादौन अहीरों की सन्तान हैं 
जादौन या जादों अहीर[1]❣
ब्रह्मपाल अहीर से जिनका उदय हुआ है।[5][6]
सन्दर्भ 5)-
[5] Cunningham, Joseph Davey; Garrett, H. L. O. A History of the Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. पृ॰ 7.

 आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 April 2016. Quote: "The little chiefship of Karauli. 

The raja is admitted by the genealogists to be of the Yadu or lunar race, but people sometimes say that his being an Ahir or cowherd forms his only relation to Krishna, the pastoral Apollo of the Indians." 

The Yadu Ahir are descendants of Lord Krishna, founded in 900 CE by Raja Brahm Pal. 

The town itself dates from 1348, and is located in a geographical setting naturally defended by ravines on the north and east, and is further protected by a great wall   “Karauli”।
 ब्रिटैनिका विश्वकोष (11th) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
_____________________

सन्दर्भित -
[५] कनिंघम, जोसेफ डेवी; गैरेट, एच। एल। ओ। ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स ऑफ़ द नेशन ओरिजिन ऑफ़ द नेशन ऑफ़ द नेशन ऑफ़ द सतलज ()t)। एशियाई शैक्षिक सेवाएँ। पृष्ठभूमि। 7।

 आईयूएससबीबैन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 अप्रैल 2016. उद्धरण: "करौली की छोटी मुखिया।

रजा को वंशावलियों द्वारा यदु या चंद्र जाति का माना जाता है, लेकिन लोग कभी-कभी कहते हैं कि उनका अहीर या चरवाहा होना भारतीयों के देहाती अपोलो कृष्ण से उनका एकमात्र संबंध है। "

यदु अहीर भगवान ब्रह्मा द्वारा 900 सीई में स्थापित भगवान कृष्ण के वंशज हैं।

यह शहर 1348 से है, और यह उत्तर और पूर्व में प्राकृतिक रूप से रवीनों द्वारा संरक्षित एक भौगोलिक सेटिंग में स्थित है, और इसे एक महान दीवार "करौली" द्वारा संरक्षित किया गया है।
 बिटैनिका विश्वकोश (11 वां) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
____________________________________________
______________________
(सन्दर्भ 6)-[6] Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ 43. 
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-2.
__________________________________________

 CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो।
गोपनीयता डेस्कटॉप
सन्दर्भ 
❣[1] Gazetteer of Ulwur. Trübner & Company, 1878. 1878. पृ॰ 43.
______
और एक विवरण के अनुसार जादौन राठौड़  राजपूत बंजारा जाति का सहवर्ती चारण गोत्र है✨[2] देखें निम्नलिखित सन्दर्भों में👇
✨[2] Singh, David Emmanuel (2012). Islamization in Modern South Asia: Deobandi Reform and the Gujjar Response. Walter de Gruyter,. पृ॰ संख्या 200. अभिगमन तिथि 30 September 2014.
______
 बंजारा जाति के एक समुदाय को भी जादोेेैन नाम से जाना जाता है।[3]👇
_____
यह देखें निम्नलिखित सन्दर्भों में👇
[3]
- Shashishekhar Gopal Deogaonkar, Shailaja Shashishekhar Deogaonkar (1992). The Banjara. Concept Publishing Company. पृ॰ संख्या 18, 19. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170224334.
____
एक समय जलेसर (एटा) व करौली (राजस्थान) राज्यों पर जादौन[4] राजपूत परिवारों का शासन रहा है।
 इनका निकास मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है।[5][6]✨
 Deogaonkar (1992). The Banjara. Concept Publishing Company. पपृ॰ 18, 19. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170224334.
↑ Lucia Michelutti (2018). Sons of Krishna: The Politics of Yadav community formation in a North Indian town (PDF). London School of Economics. पृ॰ 47. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ Phd Thesis Social Anthropology |isbn= के मान की जाँच करें: invalid character (मदद).
↑ Cunningham, Joseph Davey; Garrett, H. L. O. A History of the Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. पृ॰ 7. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 April 2016. Quote: "The little chiefship of Karauli. The raja is admitted by the genealogists to be of the Yadu or lunar race, but people sometimes say that his being an Ahir or cowherd forms his only relation to Krishna, the pastoral Apollo of the Indians." 

The Yadu Ahir are descendants of Lord Krishna, founded in 900 CE by Raja Brahm Pal. 
The town itself dates from 1348, and is located in a geographical setting naturally defended by ravines on the north and east, and is further protected by a great wall  “Karauli”। ब्रिटैनिका विश्वकोष (11th) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस।
↑ Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ सख्या०43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-


सामग्री CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उल्लेख ना किया गया हो।
गोपनीयताडेस्कटॉप
सन्दर्भ
[5] Cunningham, Joseph Davey; Garrett, H. L. O. A History of the Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. पृ॰ 7. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 April 2016. Quote: "The little chiefship of Karauli. The raja is admitted by the genealogists to be of the Yadu or lunar race, but people sometimes say that his being an Ahir or cowherd forms his only relation to Krishna, the pastoral Apollo of the Indians." The Yadu Ahir are descendants of Lord Krishna, founded in 900 CE by Raja Brahm Pal. The town itself dates from 1348, and is located in a geographical setting naturally defended by ravines on the north and east, and is further protected by a great wall   “Karauli”।
 ब्रिटैनिका विश्वकोष (11th) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस।[6] Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ 43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-2.
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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः१० ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
श्लोक संख्या १११
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10।।111
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।👇

( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
 लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
←  ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १० श्लोक संख्या १११
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10/१११

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं  ।चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में 
वर्णित है ।
शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।१
 तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद :।।२।

कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है 
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का एेसा वर्णन किया है ।
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःस्मृति )
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

 चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं;  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
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सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है कि जब राजा, 
अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे।[7][8]👇
सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
[7] "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009

[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.

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विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है ।
कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गयी 
जिसमें कुछ चारण भाट तथा विदेशी जातियों का समावेश हो गया।
और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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 'परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी बंजारों का समूह ही राजपूतों में विभाजित है ।

 : 54 (10 सबसे बड़ा दिखाया गया) सभी दिखाएं
उपसमूह का नाम जनसंख्या।

नाइक 471,000

चौहान 35,000

मथुरा 32,000

 सनार (anar )23,000

लबाना (abana) 19,000

मुकेरी (ukeri )16,000

हंजरा (anjra) 14,000

पंवार 14,000

बहुरूपिया ahrupi 9100

भूटिया खोला 5,900
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परिचय / इतिहास
हिंदू बंजारा, जिन्हें 53 विभिन्न नामों से जाना जाता है, मुख्य रूप से लमबाड़ी या लमानी (53%), और बंजारा (25%) बोलते हैं। 

वे भारत में सबसे बड़े खानाबदोश समूह हैं और पृथ्वी के मूल रोमानी के रूप में जाने जाते हैं। 

रोमनी ने सैकड़ों साल पहले भारत से यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा शुरू की, और अलग-अलग बोलियाँ उन क्षेत्रों में विकसित हुईं जिनमें प्रत्येक समूह बसता था। 

बंजारा का नाम बाजिका( वाणिज्यार )शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है व्यापार या व्यवसाय, और बैंजी से, जिसका अर्थ है पैल्डलर पैक। 
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कई लोग उन्हें मिस्र से निर्वासित किए गए यहूदियों के रूप में मानते हैं, क्योंकि वे मिस्र और फारस से भारत आए थे। 

कुछ का मानना ​​है कि उन्हें मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा अपनी मातृभूमि से निष्कासित कर दिया गया था। 
अब वे भारत के पचास प्रतिशत से अधिक जिलों में स्थित हैं।

उनका जीवन किस जैसा है?
अधिकांश भारतीय रोमानी जैतून की त्वचा, काले बाल और भूरी आँखें हैं। 

हालाँकि हम आम तौर पर इन समूहों को भाग्य से रंग-बिरंगे कारवां में जगह-जगह से यात्रा करने वालों के बैंड के साथ जोड़ते हैं, लेकिन अब बंजारा के साथ ऐसा नहीं है।

 ऐतिहासिक रूप से वे खानाबदोश थे और मवेशी रखते थे, नमक का कारोबार करते थे और माल का परिवहन करते थे। 

अब, उनमें से अधिकांश खेती या पशु या अनाज को पालने-पोसने के लिए बस गए हैं।

 अन्य अभी भी नमक और अन्य वस्तुओं का व्यापार करते हैं। 

कुछ क्षेत्रों में, कुछ सफेदपोश पदों को धारण करते हैं या सरकारी कर्मचारियों के रूप में काम करते हैं।

 वे चमकदार डिस्क और मोतियों के साथ जटिल कढ़ाई वाले रंगीन कपड़े भी सिलते हैं।

 वे गहने और अलंकृत गहने बनाते हैं, जो महिलाएं भी पहनती हैं। 

न केवल बंजारे के पास आमतौर पर एक से अधिक व्यवसाय होते हैं,।
 वे समय पर समाज की जरूरतों के आधार पर, अपनी आय को पूरक करने के लिए अतिरिक्त कौशल का भी उपयोग करते हैं। 

कुछ लोग झाड़ू, लोहे के औजार और सुई जैसी वस्तुएं बनाने में माहिर हैं। 

वे उपकरणों की मरम्मत भी कर सकते हैं या पत्थर के साथ काम कर सकते हैं। 

दूसरों का मानना ​​है कि किसी को "धार्मिक भीख" से जीवन यापन के लिए काम नहीं करना पड़ता है।

 वे विशिष्ट देवता के नाम पर भीख माँगते हुए विशेष श्रृंगार में गाते और पहनते हैं।

 बंजारा को संगीत पसंद है, लोक वाद्य बजाना और नृत्य करना। बंजार भी कलाबाज, जादूगर, चालबाज, कहानीकार और भाग्य बताने वाले हैं। 

क्योंकि वे गरीब हैं, वे डेयरी उत्पादों के साथ अपने बागानों में उगाए गए खाद्य पदार्थ खाते हैं। 

कई घास की झोपड़ियों में रहते हैं, अक्सर विस्तारित परिवारों के साथ।

 अन्य जातियों के साथ न्यूनतम संबंध रखने वाले बंजारा परिवार घनिष्ठ हैं।

 समुदाय के नेता की भूमिका नेता के बेटे को दी जाती है।
 सभी जैविक पुत्रों को पैतृक संपत्ति से बराबर हिस्सा मिलता है।

 विवाह की व्यवस्था की जा सकती है, खासकर तीन पीढ़ियों के रिश्तेदारों के मिलन से बचने के लिए। 

कुछ समूहों में, हालांकि, बहिन से चचेरे भाई को शादी करने की अनुमति है। 

दहेज 20,000 रुपये या लगभग $ 450.00 के रूप में उच्च हो सकता है।
 शादीशुदा महिलाएं हाथी दांत की मेहंदी लगाती हैं।

उनके विश्वास क्या हैं?
बंजारा बहुसंख्यक हिंदू हैं; कुछ ने हिंदू प्रथाओं को अपनी खुद की एनिमेटिड मान्यताओं के साथ जोड़ दिया है। 

अन्य समूह इस्लाम का पालन करते हैं; अभी तक अन्य सिख हैं। 
रोमानी अक्सर लोक मान्यताओं का पालन करते हैं, और इन धार्मिक मान्यताओं के साथ मिश्रित कई वर्जनाएं हैं (चीजें जो कभी नहीं करनी चाहिए।)

 एक हिंदू वर्जना यह है कि एक महिला के बालों को कंघी नहीं करना चाहिए या पुरुषों की उपस्थिति में लंबे समय तक नीचे नहीं रहना चाहिए।

 एक और बात यह है कि एक महिला को बैठे हुए पुरुष के सामने से नहीं गुजरना चाहिए, बल्कि उसके पीछे होना चाहिए। 

भले ही रोमानी भाषण में अनारक्षित हैं, कई में उच्च नैतिक मानक हैं। 
उदाहरण के लिए, शुद्धता बहुत महत्वपूर्ण है।
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कुल या वंश की उच्चता का  निर्धारण व्यक्तियों के संस्कार और व्यवहार से ही किया जाता है ।

श्रेष्ठ वंश में श्रेष्ठ सन्तानें का ही प्रादुर्भाव होता है ।
दोगले और गाँलि- गलोज करने वाले और अय्याश लोग नि: सन्देह अवैध यौनाचारों से उत्पन्न होते हैं ।
भले हीं वे स्वयं को समाज में अपने ही मुख से ऊँचा आँकते हों ।
जिनके पास कुतर्क ,गाली और भौंकने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता !
जिनमें न क्षमा  होती है; और न क्षमता ही ।
 वह  लोग धैर्य  हीन बन्दर के समान चंचल व 
लंगोटी से कच्चे होते हैं ।
और बात बात पर गीदड़ धमकी कभी पुलिस की तो कभी कोर्ट की और गालियाँ तो जिनका वाणी का श्रृँगार होती हैं।

जिनमें मिथ्या अहं और मुर्दों जैसी अकड़ ही होती है ।
ज्ञान के नाम पर रूढ़िवादी पुरोहितों से सुनी सुनायीं किंवदन्तियाँ ही प्रमाण होती हैं ।
'परन्तु पौराणिक या वैदिक कोई साक्ष्य जिनके पास नहीं होता ।

अहीरों को द्वेष वश गालियाँ  देने वाले कुछ चारण बंजारे और माली जन-जाति के लोग इसका प्रबल प्रमाण हैं ।

ये वास्तविक रूप  में अवैध संताने हैं , उन दासी पुत्रों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है ?


 कुलहीन, संस्कारहीन मनुष्य से अच्छे तो जानवर है .
विदित हो कि अपनी फेस बुक या ब्लोगर आइडी पर अहीरों को निरन्तर गाली या उनके इतिहास की गलत तरीके से ऐडिटिंग करने वाले ..
ये भाटी भाट या चारण बंजारे का एक समुदाय है ।

जादौन - ये बंजारा समुदाय हैऔर भारत में आने से पहले अफगानिस्तान में जादून/ गादूँन पठान थे 
भारत में बीकानेर और जैसलमैर में जादौन बंजारे हैं ।
आधुनिक समाज शास्त्री यों ने इन्हें छोटी राठौड़ों समुदाय के अन्तर्गत चिन्हित किया है ।
इन्हीं के समानान्तरण जाडेजा हैं 
जाड़ेज़ा - जाम उनार बिन बबिनाह नाम के  मुसलिमों के वंशज हैं ये लोग जो ठीक से हिन्दु भी नहीं हैं इनका जाम जाड़ा भी मुसलिमों से सम्बद्ध था ।

और सैनी - ये माली लोग इनकी हैसियत सिर्फ़ पेड़ पौधों को पानी देने की है .
आज ये शूरसेन से सम्बद्ध होने का प्रयास कर रहे हैं।

विदित हो कि कायस्थों में सैनी और शक्सैनी वे लोग थे; जिन्होंने शक और सीथियनों की सैना में नौकरी की ..
अब य भी स्वयं को राजपूत लिखते हैं ।
 
ये ख़ुद को मालिया राजपूत कहते हैं ; सैना में काम करने कारण ये सैनिक से सैनी उपनाम लगाने लगे . 

और अब सैनी स्वयं को शूरसेन से जोड़ रहे है। 
विदित हो की सिसौदिया आदि राजपूत इन्हें कम ही स्वीकार करते हैं।

जादौन जन-जाति का यदुवंश से प्रत्यक्ष कोई  सम्बन्ध नहीं है ।
अफगानिस्तान के गादौन जादौन पठान जो वनी इज़राएल या यहूदियों की स्वयं को शाखा मानते हैं 
उसी के आधार पर ये भी अपने को यदुवंशी मानने की बात करते हैं ।

जबकि समस्त यदुवंशज स्वयं को गोप अथवा यादव ही मानते थे ।

इस आधार पर कल को कोई वसुदेव सैनी भी लिखा सकता है ।
सूरसैनी नाम ये प्राचीनत्तम ग्रन्थों में किसी यदुवंशी का विवरण नहीं है ।
-सूर सैन के किसी वंशज 'ने भी यह विशेषण कभी अपने नाम के पश्चात नहीं लगाया ।
केवल यादव गोप और घोष विशेषण ही रूढ़ रहे 
आभीर शब्द तो आर्य्य का ही रूपान्तरण है ।
आर्य्य शब्द का प्रयोग 'न करके भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने आभीर शब्द का प्रयोग यादवों या गोपों को ईसा० पूर्व द्वत्तीय सदी के समकालिक किया था ।
जो परवर्ती प्राकृत अपभ्रंश और हिन्दी भाषाओं में आहिर अहीर ,अहर आदि रूपान्तरण में प्रकाशिका हुआ ।
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अभी तक जादौन , राठौड़ और भाटी आदि चारण बंजारों के रूप में थे अव ये लोग स्वयं को राजपूत भी कहने लगे हैं ।

इन्हीं जातियों के कुछ लोग  पुष्य-मित्र सुंग कालीन काल्पनिक स्मृतियों और पुराणों तथा महाभारत आदि के हबाले से अहीरों को शूद्र तथा म्लेच्‍छ और दस्यु के रूप में दिखाते हैं।
इनका अहीरों से द्वेष उनके यदुवंश को लेकर है ।
जादौन जन-जाति का पूर्वाग्रह इस लिए भी की इतिहास कारों'ने जादौन जन-जाति की उत्पत्ति अहीरों या गूजरों से प्रतिपादित की 
'परन्तु इनका तो कोई विवरण ही नहीं पुराणों में 

 विदित हो कि पुराणों या स्मृतियों ने जिन वेदों को आपना उपजीव्य माना है ।

उनमें भी यदु और तुर्वशु को दास, दस्यु और असुर तक कह कर वर्णित किया है।
'परन्तु प्राचीन काल में इनके अर्थ आज के अर्थ से विपरीत ही थे ।

जैसे- ऋग्वेद में --जो भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम ग्रन्थ है ।

और जिसके सूक्त ई०पू० २५०० से १५००के काल तक का दिग्दर्शन करते हैं --
इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है ।


गो-पालक ही गोप होते हैं 
अन्यत्र ऋग्वेद में प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है । 👇


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अब जादौन जन-जाति के लोग क्या अपने पूर्वज यदु के इन ऐतिहासिक तथ्यों को जानते और मानते हैं।
कभी नहीं ! 
मध्य कालीन भारतीय ग्रन्थों में जादौं एक निम्न जातिके रूप में वर्णित हैं।
 
जैसे जादौन (जिसे जादोैं के रूप में भी जाना जाता है) राजपूतों के एक कबीले (गोत्र) से सम्बद्ध हैं।
जादौन मूलतः चारण बंजारा समुदाय रहा है ।

एक खानाबदोश समुदाय, माली (माली) जाति का एक समूह और भारत में यह जादौं कुर्मी जाति की एक उपजाति को भी सन्दर्भित करता है।

पहले हम नीचे भारत के प्रसिद्ध समाजशास्त्री व
लेखक  एस.जी. देवगांवकर (S.G.DeoGaonkar) और उनकी सहायिका शैलजा एस. देवगांवकर के द्वारा लिखी बंजारा जन-जाति के गहन सर्वेक्षण पर आधारित पुस्तक "
"भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3"
से  जादौन जन-जाति से सम्बद्ध कुछ अंश उद्धृत करते हैं ।👇

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💐Sociologist Deu Gaonkar and his assistant Shelaja Gaonkar
Wrote in his book.
- which publishes books and lives on history.👇

"Mathurias ,Labhans and Dharias are The Charans Banjara , 

Who are more in numbers and important Among The Banjara are Divided into Five main class viz. 

Rathod, Panwar, Chauhan, puri and Jadon or Burthia.

Each Class Sept is Divided into a Number of Sub-Septs  Among Rathods The important Sub-sept of Bhurkiya called After The Bhika,

Rathod Which is Again sub-divided into four groups viz Merji, Mulaysi, Dheda and Khamdar( The Groups based on the four son of Bhika Rathod ) ⛑

The Mathuriya Banjara already referred to Aabove derive their name from mathura and are supposed to be bramins Whith The secred thread ceremony monj.

They are who called Ahiwasi.
The third Devision the Labhans Probably  Derived  Their from Labana i.e.

Salt Which they used to Carry from place to place Another etymology relate the Lava The son of Lord Rama chandra connecting lineage to him .

The Dharis( Dhadis) are The bards of the caste who get the lowest rank According to their story, their ancestor was a disple  of Guru Nanak (The Sikh guru) Whith whom The Attended a feast given by mughal Emperor humanyun .

There he ete cow flesh and conseguently become a muhmmedan and and was circumcised . 

He worked as a musicians at mughal court .his son joined at the Charans and became the Bards of the banjaras.
the Dharias are musicians and mendicants . 

they worship sarswati and their marriage offer a he-got to Gagi and Gandha.

The two sons of original bhat who become Muhammedan.
 From the used tahsil of Yeotmal District.

where both he  sub-Groups of Rathods viz.
the bada Rathod and The chhota Rathod are present the following clans are reported👇

Bada -Rathod :
(1-khola 2-Ralot 3- Khatrot 4- Gedawat 5- Raslinaya 6- Didawat .

Chhota- Bajara (1-Meghawat 2- Gheghawat 3-Ralsot 4- Ramavat 5-Khelkhawat 6- Manlot 7-Haravat 8-Tolawat 9-Dhudhwat 10- Sangawat 11- Patolot ..

These two types are from the Charans banjara Alternativly are called "Gormati" in the area Another set of reported from the area are ..

"The Banjara caste and tribe of India -3 "  
writer S.G.DeoGaonkar
Shailja S. Deogaonkar .

इसी का हिन्दी रूपान्तरण निम्न है 👇
भारत की बंजारा जाति और जनजाति - भाग 3"
लेखक  एस .जी.देवगॉनकर (S.G.DeoGaonkar)
और शैलजा एस. देवगांवकर
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अध्याय द्वितीय पृष्ठ संख्या- 18-👇

--जो लोग राजपूत हैं उन्हीं के कुछ समुदाय बंजारे भी हैं
-जैसे मथुरिया ,लाभान और धारीस ये चारण (भाट) हैं 
जो संख्या में अधिक हैं ;
और बंजारों के बीच  बंजारे रूप में ही महत्वपूर्ण पाँच मुख्य वर्गों में विभाजित हैं।
____________
१-राठौड़, २-पंवार, ३-चौहान, ४-पुरी और ५-जादौन या बुर्थिया।

भाटी ये भी मूलतः चारण बंजारे हैं --जो अब स्वयं को यदुवंशी या जादौनों से सम्बद्ध करते हैं ।
वस्तुत वे भाट या चारण ही हैं ।

भाट शब्द संस्कृत भरत ( नट- वंशावलि गायक) शब्द का तद्भव रूप है।

और व्रात्य का रूपान्तरण भी भाट या  भट्टा हुआ ।
अंग्रेज़ी में बरड(Bard) शब्द भरत का रूपान्तरण है।
क्यों कि दौनों रूपों से भाट या भट्टा शब्द ही विकसित होता है ।

मध्यकालीन हिन्दी कोशों में जादौं का अर्थ  नीच कुल में उत्पन्न / नीच जाति का । 
✍✍

👇 प्रोफेसर मदन मोहन झा द्वारा सम्पादित हिन्दी शब्द कोश में जादौं का एक अर्थ नीचजाति या नीच कुल में उत्पन्न लिखा है ।

प्रोफेसर, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, मानित विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से सम्बद्ध हैं ।

यद्यपि जादौन शब्द राजस्थानी भाषा में जादव का रूपान्तरण है ।

कुछ जादौन राजपूत स्वयं को करौली के यदुवंशी पाल ( आभीर) राजाओं का तो वंशज मानते हैं ; 

परन्तु अहीरों से पीढ़ी दर पीढ़ी घृणा करते रहते हैं ।
दर असल मुगल काल में ये लोग मुगलों से जागीरें मिलने के कारण ठाकुर उपाधि धारण करने लगे ।

और ब्राह्मणों ने इनका राजपूती करण करके इन्हे मूँज के जनेऊ पहनायी और इन्हें तभी क्षत्रिय प्रमाण पत्र दे दिया।
तब से अधिकतर बंजारे क्षत्रिय हो गये
और ब्राह्मण धर्म का पालन करने लगे ।

ठाकुर शब्द भी तुर्को के माध्यम से ईसा की नवम शताब्दी में प्रचलित होता है ।

यह मूलत: तेक्वुर (tekvur) रूप में है।
--जो संस्कृत कोश कारों ने ठक्कुर के रूप स्वीकार कर लिया।
_____________
विदित हो कि बाद में प्रत्येक वर्ग को राठौड़ बंजारों के बीच कई उप-वर्गों में विभाजित किया गया है। 

अब राठौर और राठौड़ --जो अलग अलग रूपों में दो जातियाँ बन गयी हैं ।

वे भी मूलत: एक ही थे एक राजपूत के रूप में हैं तो दूसरी बंजारे के रूप में।
आज भी हैं ।

ऐसे ही जादौनों का हाल हुआ है-।
जादौन --जो बंजारे थे वे मुगलों के प्रभाव में ठक्कुर हो गये ।
इसी प्रकार गौड और गौड़ जन-जातियों के भेद 
इतना ही नहीं अहीरों की शाखा गुज्जर और राजपूतों की गुर्ज्जरः दो हैं ।

'वह भी इसी प्रकार हुआ एक अपने को रघुवंश से सम्बद्ध मानते रहे हैं तो दूसरे नन्द या वृषभानु गोप अथवा अहीरों से सम्बद्ध मानते रहे हैं।
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क्यों कि राधा और वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री को अपने गुज्जर कबीले की मानने वाले अहीरों से सम्बद्ध हैं।

गुज्जर गायत्री और राधा को चैंची गोत्र की कन्या बताते हैं परन्तु पुराणों में इन्हें आभीर कन्या बताया गया

यद्यपि  पाश्चात्य इतिहास कार दोनों गुज्जर और गुर्ज्जरः को जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) से भी सम्बद्ध मानते हैं।
इसी प्रकार जाट और जट्ट दो रूप हैं ।

जट्ट गुरूमुखी होकर गुरूनानक के अनुयायी हैं 
और जाट मुसलमान और हिन्दु रूप में भी हैं ।

दर -असल  महाभारत के कर्ण पर्व में बल्ख अफगानिस्तान में तथा ईरान में रहने वाले जर्तिका जन -जाति-के रूप में हैं --जो पंजाब के अहीरों से सम्बद्ध हैं

वास्तव में जर्तिका शब्द पूर्व रूप में संस्कृत चारतिका का रूपान्तरण है।

क्यों कि ये चरावाहों का समुदाय था ।
जिसे पाश्चात्य इतिहास विदों ने आर्य्य कहा ।
गुर्ज्जरः तो गौश्चर का परवर्ती रूपान्तरण है ही ।
अब बात करते हैं कि जादौन शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई

विशेष:-जाट, गुर्जर तथा राजपूत ये सभी संघ हैं 
जिनमें बहुतायत से गुर्जर जाट और अहीरों से ही सम्बद्ध जनजातियाँ हैं ।
👇
यद्यपि ये जादौन यदुवंशी की अफगानिस्तान के जादौन पठानों से निकल् हुई शाखा है ।
जो स्वयं को वनी- इज़राएल अर्थात्‌ यहूदियों के वंशज मानते हैं । 🐂

इस लिए ये भी यदुवंश की ही एक यायावर शाखा थी ।
कालान्तरण में इन्होंने करौली रियासत के पाल उपाधि धारक यदुवंशी शासकों को अपनाया।

पाल केवल अहीरों का गो-पालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है।

धेनुकर धनगर इन्हें की शाखा है । 
अन्यत्र भी पश्चिमीय एशिया के संस्कृतियों में पॉल और गेडेरी शब्द चरावाहों के लिए रूढ़ हैं ।

इसलिए मध्यकालीन इतिहास कारों'ने जादौन जन-जाति को गुर्जर या अहीरों से ही सम्बद्ध माना है ।
यदुवंश एक प्राचीनत्तम चरावाहों का वंश है ।

जिसके वंशज पश्चिमी एशिया इज़राएल जॉरडन फलिस्तीन आदि में आबाद है ।

हिब्रू बाइबिल में पॉल ईसाई मिशनरीयों की उपाधि रही है --जो वपतिस्मा या उपनयन संस्कार करते थे ।

--जो मूलतः ये ईसाई भी  यहूदियों से सम्बद्ध थे ।
भारतीय चारण या भाट बंजारों में

जादौनों के बाद के भूरिया नामक महत्वपूर्ण उप-वर्ग, राठौड़ों में है;

जिसे फिर से चार समूहों में उप-विभाजित किया गया है , मुलसेई ,खेड़ा और खामदार और भीका ये राठौड़ के चार पुत्रों पर आधारित समूह) है ।

राजस्थान का भीकानगर ही बीकानेर हो गया ।

मथुरिया बंजारों का पहले ही ऊपर  उल्लेख किया है जो उनका नाम मथुरा से सम्बद्ध होता है और माना जाता है कि वे धार्मिकों  के रूप में थे।

ब्राह्मणों ने इन्हें मूँज का यज्ञोपवीत पहनाया।
ये ही कालान्तरण में ब्राह्मण धर्म के संरक्षक हुए 
ये ही लोग अपने को करौली से जोड़ने लगे ।
तीसरा विभाजन  लावनांस👴

लबना (लवण)यानि साल्ट से सम्बद्ध है जो लवण (नमक)एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए इस्तेमाल किया था!

ये लोग फिर लव से स्वयं को  सम्बद्ध मानने लगे । 
लव भगवान राम के पुत्र हैं , जो लावांस को इस लव के वंश से जोड़ते हैं।

धारीस (धादी) जाति के गोत्र हैं। 
सबसे निचली रैंक( श्रेणि) प्राप्त करें उनकी कहानी के अनुसार, उनके पूर्वज गुरु नानक (सिख गुरु) के एक शिष्य थे !

जिनका साथ मुगल सम्राट हुमायूं ने दी था।

वहाँ वह गाय का मांस खाता है और शंकुधारी होकर मुसलमान बन जाते हैं और उसका खतना कर दिया जाता है। 
फिर उन्होंने मुगल दरबार में एक संगीतकार के रूप में काम किया। 

यह भाट चारणों में शामिल होकर अन्त में बंजारों का आश्रय बन गये।

वे धारी संगीतकार अथवा गायक हैं।
वे सरस्वती की पूजा करते हैं और उनके विवाह की एक भेंट बकरा ,गगी और गन्ध से होती है।🚶🐂

मूलभाव के दो पुत्र जो भाट थे मुसलमान बने।
ये ओतमल जिले की प्रयुक्त तहसील से सम्बद्ध हैं । 
जहाँ दोनों ने राठौड़ों के उप-समूह मे स्वयं को समायोजित किया हैै ।

-जिन्हें इतिहास कारों ने १- बड़ा राठौड़ और २- छोटा राठौड़ रूपों में प्रस्तुत किया है। 
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इनके निम्नलिखित कबीले बताए गए हैं👇
बड़ा-राठौड़:
(1-  खोला 2-रालोट 3- खटरोट 4- गेडावत 5- रसलिनया 6- डिडावत।

छोटा- राठौड़-बंजारा (१-मेघावत २- घेघावत ३-रालसोत ४- रामावत ५-खलखावत ६- मनलोत--हारावत ।
-तोलावत ९-धुधावत १०संगावत ११- पटोलोट ।।

ये दो प्रकार के हैं चारण बंजारा वैकल्पिक रूप से क्षेत्र में गोरमती कहा जाता है।

वास्तव आज  बंजारों का रूपान्तरण राजपूतों के रूप में है।
ये प्राय: कुछ भूबड़िया के रूप में भी हैं ।
--जो चीमटा फूकनी आदि बनाते और अपनी जीविका उपार्जन करते  हैं।
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उद्धृत अंश भारत की बंजारा जाति और जनजाति -3"
लेखक S.G.DeoGaonkar
शैलजा एस. देवगांवकर पृष्ठ संख्या- (18)चैप्टर द्वितीय...
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Originally there were only one.
As a Rajput, then in the form of the second Banjara.
There has been a similar situation - -

After Bhuria, the important sub-class Bhuria is in Rathore;
Which is again subdivided into four groups, Mulsei Kheda and Khamdar (a group based on the four sons of Bhika Rathod).
Bhiknagar too became Bikaner.

Mathuria Bazar has already mentioned above that his name is associated with Mathura and it is believed that he was in the form of a religious.

These people started connecting themselves with Karauli.

Third partition lavanasanaSalt (salt) i.e. salt which they used to take from one place to another,
These people again believed to be associated with love.

Love is the son of Rama, who connects the lineage to the lineage.

Dharis (Dhari) are the tribes of caste.
Get the lowest rank according to his story, his ancestor was a disciple of Guru Nanak (Sikh Guru)
, With whom the Mughal emperor Humayun gave.

There he eats the flesh of the cow and becomes a conch, becomes a Muslim and is circumcised.
Then he worked as a musician in the Mughal court. This bhawan joined the barns and became a shelter for the buyers.

He is a striker composer and singer. They worship Saraswati and a gift from her marriage comes from herbs and smell.

Two sons of origin who became Muslims.
These are from the Tahsil used in Othamal district.
Where the two are the sub-groups of Rathodas - the history cars
1- Big Rathore and 2-small Rathore are presented,
The following clan has been described 👇
Bada-Rathod:
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(1-Opened 2-Ralot 3- Khatrot 4- Gedavat 5- Russellia-6-
Chhote-Rathod-Banjara (1-Meghavat 2-Ghaghav 3-Resolutions 4- Ramavat 5-Khalkhawat-6-Manlot-Harawat
-Returning 9-stunned 10-sympathetic 11-footolote ..

These are of two types: Charan Banjara is alternatively called Gormati in the area.
Today the conversion of Banjars is in the form of Rajputs.
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The excerpted portion of India's Banjara caste and tribe-3 "
Author S.G.DeOGaonkar
Shelaja S. Devgaonkar page no- (18) chapter II ...
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The Banjara
https://books.google.co.in › books

Shashishekhar Gopal Deogaonkar, ‎Shailaja Shashishekhar Deogaonkar - 1992 - ‎झलक देखें - ‎ज़्यादा वर्शन
Social life and customs of the Lambadi, nomadic tribe in Vidarbha Region, Maharashtra.



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जादौन या जादों अहीर[1] व राजपूत जाति का गोत्र है।[2] बंजारा जाति के एक समुदाय को भी जादोन नाम से जाना जाता है।[3]

एक समय जलेसर व करौली राज्यों पर जादौन[4] राज परिवारों का शासन रहा है। इनका निकास मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से है।[5][6]

सन्दर्भ-

↑ Gazetteer of Ulwur. Trübner & Company, 1878. 1878. पृ॰ 43.
↑ Singh, David Emmanuel (2012). Islamization in Modern South Asia: Deobandi Reform and the Gujjar Response. Walter de Gruyter,. पृ॰ 200. अभिगमन तिथि 30 September 2014.
↑ Shashishekhar Gopal Deogaonkar, Shailaja Shashishekhar Deogaonkar (1992). The Banjara. Concept Publishing Company. पपृ॰ 18, 19. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170224334.
↑ Lucia Michelutti (2018). Sons of Krishna: The Politics of Yadav community formation in a North Indian town (PDF). London School of Economics. पृ॰ 47. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ Phd Thesis Social Anthropology |isbn= के मान की जाँच करें: invalid character (मदद).
↑ Cunningham, Joseph Davey; Garrett, H. L. O. A History of the Sikhs from the Origin of the Nation to the Battles of the Sutlej (अंग्रेज़ी में). Asian Educational Services. पृ॰ 7. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120609501. अभिगमन तिथि 24 April 2016. Quote: "The little chiefship of Karauli. The raja is admitted by the genealogists to be of the Yadu or lunar race, but people sometimes say that his being an Ahir or cowherd forms his only relation to Krishna, the pastoral Apollo of the Indians." The Yadu Ahir are descendants of Lord Krishna, founded in 900 CE by Raja Brahm Pal.
 The town itself dates from 1348, and is located in a geographical setting naturally defended by ravines on the north and east, and is further protected by a great wall  “Karauli”। ब्रिटैनिका विश्वकोष (11th) 15। (1911)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस।
↑ Michelutti, Lucia (2008). The Vernacularisation of Democracy: Politics, Caste, and Religion in India. Routledge. पृ॰ 43. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-41546-732-2.
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विरोध के लिए विरोध करना 
कुछ अपनों का रिवाज है ।
 
 दोश्ती पहले निभाई कभी
  'परन्तु दुश्मनी आज है ।।__________________________________________

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