रविवार, 10 मई 2020

गुर्जर जाट और अहीर का समन्वय .... संशोधित संस्करण




तुच्छ मनुष्यों का स्वभाव ही  होता है कि वे जिसका विरोध और बहिष्कार करते हैं ।
 तो उस पर आक्षेपों का धूल उड़ा देते हैं  भले ही उस में लाख गुण ही क्यों न हों ! 
जैसे सभा या महफिल से जाते हुए को धकियाना ये रिवाज है धूर्तों का पुराना।

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अहीर ही वास्तविक यादवों का रूप हैं ।
जिनकी अन्य शाखाएें गौश्चर: (गुर्जर) तथा जाट हैं।
यद्यपि वर्तमान में गुर्जर और जाट संघ के रूप में हैं 
जिनमें कुषाण तुषार हूणों चोलो पल्लव अहीरों ( हीर ,आभीर घोसी ) जातियों का भी समन्वय है ।
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महाभारत आदि ग्रन्थों से उद्धृत प्रमाणों द्वारा
प्रथम वार अद्भुत प्रमाणित इतिहास प्रस्तुत है ।
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दशवीं सदी में अल- बरुनी ने बाबा नन्द को जाट के रूप में वर्णित किया है 
सत्रहवीं सदी के भरत पुर के राजा सूरज मल यदुवंशी जाट राजा थे ।  इतिहास कार अलबरूनी  का पूरा नाम अबु रेहान मुहम्मद बिन अहमद अल-बरुनी या अल बेरुनी था; और यह एक फ़ारसी विद्वान लेखक, धर्म वेत्ता तथा एवं इतिहास कार था। 
अल बेरुनी की रचनाएँ अरबी भाषा में हैं परन्तु उसे अपनी मातृभाषा फ़ारसी के अलावा कम से कम तीन और भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया था - 
सीरियाई (सामी भाषा ) संस्कृत, और यूनानी आदि। 
वो भारत और श्रीलंका की यात्रा पर ईस्वी सन् 1017-20 के मध्य आया था।
और उन्होंने कृष्ण से सम्बद्ध इतिहास का विवरण अपने ग्रन्थ "तहकीक ए हिन्द" में लिपिबद्ध किया ।
उन्होंने लिखा " ..जाट अर्थात् (यदु ) के वंशज हैं ।
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अहीर ,जाट ,गुर्जर आदि जन जातियों को शारीरिक रूप से शक्ति शाली और वीर होने पर भी तथा कथित ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय नहीं माना...
और इन्होंने अपने को क्षत्रिय प्रमाण पत्र की आवश्यकता भी नहीं समझा 
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क्योंकि श्रृंँगार तो सौन्दर्य हीन लोग या महिलाओं को ही सार्थक है 

रूप वालों के लिए कदापि नहीं 
जैसे डिग्रीयों को ही दिखाने और मानने वाले ही योग्य या विद्वान ही हों ऐसा कदापि नहीं समझे ! ____________________________________________

क्योंकि इनके पूर्वज यदु पुरोहितों की दुर्व्यवस्थाओं का विरोध करने के कारण दास घोषित कर दिये थे ।....

यद्यपि वैदिक कालीन सन्दर्भ में दास का अर्थ देव संस्कृति का विद्रोही है ।
नौकर ,चाकर या गुलाम नहीं ।

 और आज जो राजपूत अथवा ठाकुर अथवा क्षत्रिय स्वयं को लिखने या मानने वाले हैं ।
 और क्षत्रिय प्रमाण पत्र पर अपना एकाधिकार मानते हैं तो यह उनका भूल और घमण्ड ही है ।

... वो यदु वंश से सम्बद्ध कभी नहीं हो सकते हैं । 
भले ही लाख झूँठ बोलकर दावा करें ।

क्योंकि राजपूत शब्द भी चारण (करण ) और भाट  जन-जातियों के लिए रूढ़ हुआ 

ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

< ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
←  ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १० श्लोक संख्या १११👇

क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
१/१०/१११

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करण कन्या मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की  होती है 
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

अन्य ग्रन्थों में भी जैसे- स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड के अध्याय २६ में वर्णित है ।👇
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शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।१।
तथा वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद :।।२।

अर्थात्‌  राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र स्त्री में उत्पन्न सन्तान है 
जो क्रूरकर्मा ,शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध और युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।
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ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर स्कन्द पुराणों के हबाले से लिखा भारतीय समाज शास्त्रीयों 'ने राजपूतों की उत्पत्ति का एेसा ही वर्णन किया है ।
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धर्मशास्त्रों(स्मृति ग्रन्थों) में भी राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःस्मृति )

वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

इसी लिए राजपूत शब्द पौराणिक ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय (निम्न) है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ शब्द है  ।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
यही आज राजपूत संघ में सर्वोच्च हैं ।
राजपूत भी संघ ही हैं जिसमे छत्तीस से ज्यादा जातियों का समन्वय है ।
राजपूत संघ में विदेशी जातियों का भी समन्वय है
अब जिनकी पहचाने भी परस्पर विलीन हो गयीं हैं 

यदि वे राजपूत जाटों या अहीरों या  गूजरों से अपना अस्तित्व नहीं मानते हैं तो क्योंकि वेदों में भी यदु को दास (देव-संस्कृति  विद्रोही)अथवा असुर के रूप में वर्णित किया है।

जादौन तो अफ़्ग़ानिस्तान में तथा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में पठान थे ।

और भारतीय राज्य राजस्थान में जादौन छोटे और बड़े राठौड़ चारण बंजारों के उपसमुदाय के अन्‍तर्गत हैं जो जादौन सातवीं सदी में कुछ इस्लाम में चले गये और कुछ भारत में राजपूत अथवा नवी सदी में ठाकुर के रूप में उदित हुए तुर्को के प्रभाव से ठक्कुर(तेक्वुर tekvur
लकब धारण करने लगे ।

... यद्यपि जादौन पठान स्वयं को यहूदी ही मानते हैं .... ___________________________________________
परन्तु हैं ये पठान लोग धर्म की दृष्टि से मुसलमान हैं ... पश्चिमीय एशिया में भी अबीर (अभीर) यहूदीयों की प्रमाणित शाखा है ।

भारतीय गजेटियरों जादौन अफ्रीया (आभीरिया) से विकसित या समरूपक हैं ।
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करौली राजस्थान के इतिहास में जादौन मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर के वंशज हैं ।

 विदित हो की वैदिक कालीन यदु को पश्चिमीय एशिया में यहुदह् ही कहा गया ... 

हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये" और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है ।
दौनों व्युत्पत्ति समानार्थक है ।
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वेदों में वर्णित तथ्य ही ऐतिहासिक श्रोत हो सकते हैं

न कि रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थ में वर्णित तथ्य.... ये पुराण आदि ग्रन्थ बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये वेदों की छाया या परछाँईं हैं हैं ।। 
बुद्ध का वर्णन महाभारत के शान्ति पर्व में है ।
भीष्म बुद्ध की स्तुति करते हुए वर्णित हैं ।

और भविष्य-पुराण सबसे बाद अर्थात् में उन्नीसवीं सदी तक लिखा जाता रहा। 

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आभीर: , गौश्चर: ,गोप: गोपाल : गुप्त: यादव - इन शब्दों को एक दूसरे का पर्याय वाची समझा जाता है। 

अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है,।

यद्यपि इन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया
जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया था

गुप्त कालीन संस्कृत शब्द -कोश "अमरकोष " में गोप शब्द के अर्थ गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर:, वल्लभ, आदि बताये गए हैं। 

कितने राजपूत गोपों से या अहीरों से अपना सम्बन्ध मानते हैं 
वे तो अहीरों को परोक्ष रूप से उनके पूछे गालियाँ ही देते सुन्दर गये हैं।
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प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर, अरोरा व ग्वाला सभी समानार्थी शब्द हैं।

हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं।

वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी अहीर, और घोषी नामक जो मुसलमान गद्दी जन-जाति है ।
इधर महाराष्ट्र और गुजरात भरूच क्षेत्र में भारवाड़ अहीर चरावाहों की व्रज शाखा है-
वह भी इन्ही अहीरों से विकसित है । 

हिमाचल प्रदेश में गद्दी आज भी हिन्दू हैं । 
तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान भी इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है। 
और जिसकी समकक्षता भारोपीय भाषाओं के अभिवीर आवीर अथवा सम्प्रसारित रूप आर्य्य से है ।

आर्य्य चरावाहे थे जिन्होंने कृषि मूलक संस्कृतियों का विकास किया ।

आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई। 
एेसा भी कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मणों का पूर्व 
दुराग्रहों से ग्रस्त मत या मान्यताऐं हैं । 

परन्तु उन ब्राह्मणों ने स्वयं को भारत का आदिवासी घोषित कर दिया है ।
उपनिषदों के काल में ब्राह्मण सत्य वादी थे 
'परन्तु कालान्तरण में धर्म में विकृति-पूर्ण स्थिति हो जाने से कुछ ब्राह्मण भी पतित हो गये ।
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परन्तु प्रमाण तो यह भी हैं कि अहीर लोग , देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध भारतीय आर्यों से बहुत पहले ही इस भू- मध्य रेखीय देश भारत में आ गये थे, जब भरत नाम की इनकी सहवर्ती जन-जाति निवास कर कहा थी ।
भारत नामकरण भी यहीं से हुआ है... 
आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन भाषाओं तथा सुमेरियन सैमेटिक भाषाओं में भी है ।
यह जातिगत 'न होकर वीरता प्रवृत्ति मूलक विशेषण था ।

भारत दक्षिण में रहने वाली एक जंगली या पहाड़ी जाति।
संस्कृत कोश कारों ने भरत के अन्य अर्थ कियेे  जंगली। वहशी जो कालान्तरण में संस्कार और आध्यात्मिक ज्ञान से वञ्चित होने के का शूद्र तथा भीलों से सम्बद्ध जन-जातियों में समाहित हो गये ।
 
और भारतीय पुरोहित वर्ग या ब्राह्मणों को जिस जन-जाति का उत्पत्ति इतिहास का  पता न हो तो उसे इन्होंने अपने धर्म ग्रन्थों में गाय या पहाड़ से से चमत्कारिक ढ़ग से उत्पन्न कर दिया है।
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कुछ नकली ब्राह्मणों की कल्पना तो देखें कि ये गाय के गोबर से ही मनुष्य उत्पन्न कर देते हैं ।
🐂🐃✍
जैसे महाभारत , वाल्मीकि रामायण तथा पुराणों में एक काल्पनिक कथा सृजित करके महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अन्तर्गत अध्याय 174 के अनुसार है ।

जिसमे वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के सन्दर्भ में विश्वामित्र का पराभव को दर्शाते हुए कहा -- 
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कि एक बार जब विश्वामित्र और वशिष्ठ का युद्ध हुआ तो वशिष्ठ की गाय नन्दिनी ने --

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अपनी पूंछ से बारम्बार अंगार की भारी वर्षा करते हुए पूंछ से ही "पह्रवों "की सृष्टि की, और थनों से द्रविड़ों और शकों को उत्‍पन्‍न किया, योनि देश से यवनों और गोबर से बहुतेरे शबरों को जन्‍म दिया।

कितने ही शबर उसके मूत्र से प्रकट हुए।
उसके पार्श्‍वभाग से पौण्‍ड्र,(पुण्डीर) किरात, यवन,सिंहल) , बर्बर (बरवारा) और खसों की सृष्टि की। 
इसी प्रकार उस गाय ने फेन से चिबुक, पुलिन्‍द, चीन, हूण, और केरल आदि बहुत प्रकार के म्लेच्‍छों की सृष्टि की।
इनमें आज ज्यादा तर राजपूतों के संघ के रूप में हैं

उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकार के म्लेच्‍छों के गणों की वे विशाल सेनाएं जो अनेक प्रकार के कवच आदि से आच्‍छादित थीं। 

सबने भाँति-भाँति के आयुध धारण कर रखे थे और सभी सैनिक क्रोध में भरे हुए थे। 

उन्‍होंने विश्वामित्र के देखते-देखते उसकी सेना को तितर-बितर कर दिया। 
विश्वामित्र के एक-एक सैनिक को म्लेच्‍छ सेना के पांच-पांच, सात-सात योद्धाओं ने घेर रखा था।

उस समय अस्‍त्र-शस्‍त्रों की भारी वर्षा से घायल होकर विश्वामित्र की सेना के पांव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग चले।

भरतश्रेष्‍ठ ! क्रोध में भरे हुए होने पर वशिष्ठ सेना के सैनिक विश्वामित्र के किसी भी योद्धा का प्राण नहीं लेते थे। 
इस प्रकार नंदिनी गाय ने उनको सारी सेना को दूर भगा दिया। 

अब पाठक बुद्धिजीवी स्वयं विचार करें कि क्या ये मानवीय सृष्टि प्राकृतिक सिद्धान्त और नियमों के अनुरूप है ?

क्या प्रजनन का यह सिद्धान्त भी प्रमाणित है ?

अन्धों पर शासन करने के लिए कानों (काणों) ने ये कपोल कल्पित कथाऐं बना डाली .

हिन्दुस्तान का दुर्भाग्य इसी प्रकार लिखा जाता रहा ।

अर्थात् शबर जन-जाति का उल्लेख हिन्दू पौराणिक महाकाव्य महाभारत के आदि पर्व में हुआ है।

पुराणों और वाल्मीकि रामायण में भी हुआ ।
और लिखा कि यह एक म्लेच्छ जाति थी, जो वशिष्ठ जी की नंदिनी नामक गाय के गोबर तथा गोमूत्र से उत्पन्न हुई थी।

चलो नाम लीजिए कि गाय के गोबर से ये उत्पन्न हुए 
तो गाय तो पवित्रों है और उसका गोबर उससे भी पवित्र।
फिर भी ये म्लेच्‍छ हो गये।
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पौराणिक कोश के लेखक: राणा प्रसाद शर्मा ने भी लिखा है
प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |
संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 488 

महाभारत आदि पर्व 174.36-37
भरत ही शबर कहलाए और ये ही जुलाहे थे ।

और शम्बर की वंशज जन-जातियाँ हैं ये 
भरत वृत्र के अनुयायी हैं।

संस्कृत साहित्य में शवरे तन्तुवाये च के रूप में इनका वर्णन किया गया है ।

शूद्रों की यूरोपीय पुरातन शाखा स्कॉटलेण्ड में शुट्र (Shouter) थी 
स्कॉटलेण्ड का नाम आयर लेण्ड भी नाम था ।

तथा जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) भी इसी को कहा गया ... स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र आयबेरिया इन अहीरों की एक शाखा की क्रीडा-स्थली रहा है ! 
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परन्तु इतिहास कारों की अनभिज्ञता कहें या ब्राह्मण वाद का षड्यन्त्र कि जो गुज्जर जन-जाति आभीरों अथवा गोपोंं की सन्निकट शाखा है ।

उन्हें सूर्य वंशी अथवा रघुवंशी वर्णित कर दिया ।
जबकि राधा और वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को ये गुर्ज्जरः अपने चैंची गोत्र से सम्बद्ध मानते हैं।

राधा और वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को पुराणों में आभीर कन्या बताया गया है।

वस्तुत ये विरोधाभासी बातें ऐैतिहासिक तथ्यों के सर्वथा विपरीत है 

गुर्जर अभिलेखो के हिसाब से ये सूर्यवंशी या रघुवंशी हैं।
इतिहास कारों ने यह अनुमान लगाया जो समीकरण मूलक नहीं ,👇

संस्कृत साहित्य में गुर्जर शब्द की व्युत्पत्ति तल्कालीन सामाजिक गतिविधियों एवं उनकी प्रवृत्ति पर आधारित है 
गुर्ज्जरः शब्द वस्तुत संस्कृत गौश्चर: का ही रूपान्तरण एवं परवर्ती तद्भव रूप है ।

प्रोफेसर मदन मोहन झा द्वारा सम्पादित हिन्दी कोश में संस्कृत पुराणों के हबाले से गूजर शब्द का विवरण इस प्रकार दिया है👇
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संज्ञा पुं० [सं० गुर्जर] [स्त्री० गूजरी, गुजरिया] १. अहीरों की एक जाति । ग्वाला । २. क्षत्रियों का एक भेद ।
संस्कृत कोश कारों के द्वारा उद्धृत👇
गुर्ज्जरः - गौश्चर:
लिङ्गम् प्रकारश्च :पुंल्लिंग 
अर्थःसन्दर्भश्च :: (गुर्शत्रुकृतताडनं
बधोद्यमादिकंवाउज्जरयतियोदेशः।कलिङ्गाःसाहसिकाइतिवद्देशस्थजनेलक्षणेतिज्ञेयम् ) 
गुज्जराटदेशः। 

गुर् =शत्रु उज्जर-(उत्-जर) उद् जीर्णयति उज्जीर्णयति अर्थात्‌ जो शत्रु के उज्जीर्ण कर देता है है वह वीर गुर्जर है ।शत्रु बधकर्ता = गुर्ज्जरः
वस्तुत यह व्युत्पत्ति केवल वीर प्रवृत्ति-मूलक है।

-जैसे कि अमरकोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति की गयी है 
🐂🐃🐃🐃आभीरः, पुं, (आ समन्तात् भियं राति । रा दाने आत इति कः ) गोपः । इत्यमरः ॥ आहिर इति भाषा 
इति शब्दरत्नावली॥

प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जरों को 'रघुकुल-तिलक' तथा 'रघुग्रामिणी' कहा है।

बस इसी आधार पर गुर्ज्जरः स्वयं को सूर्य वंशी कहने लगे
राज शेखर का समय (विक्रमाब्द 930- 977 तक) है ।
ये काव्य-शास्त्र के पण्डित थे।

राजशेखर को स्वयं इतिहास बोध नहीं था।

वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मन्त्री थे। 

७ वी से १० वी शतब्दी के गुर्जर शिलालेखो पर सुर्यदेव की कलाकृतियाँ भी इनके सुर्यवंशी होने की पुष्टि करती हैं। राजस्थान में आज भी गुर्जरों को सम्मान से 'मिहिर' बोलते हैं, जिसका अर्थ 'सूर्य' होता है।

ये गूजरों के इतिहास में भ्रान्ति मूलक अवधारणा है
परन्तु व्रज प्रान्त में मिहिर अथवा महर नन्द का विशेषण है ।
राधा को प्रेम सागर-जैसे 'ब्रजभाषा के ग्रन्थों में महरेटी महार की बेटा कहा गया है ।


यदि इतिहास कारों ने मिहिर शब्द को गुर्ज्जरः जन-जाति के वंश - विश्लेषण का आधार बनाया है।

तो मिहिर मित्र ( सूर्य ) का परवर्ती तद्भव रूप तो है ही परन्तु मिहिर शुद्ध संस्कृत तत्सम शब्द भी है जो चन्द्रमा का भी वाचक है 👇

मिह् धातु में उणादि सूत्र से किरच् प्रत्यय

मिह--किरच् = मिहिर 👇
१ सूर्य्ये २ अर्कवृक्षे ३ वृद्धे मेदिनीकोश ४ मेघे हेमचन्द्र कोश ५ वायौ, ६ चन्द्रे, विक्रमादित्यसभास्थे नवरत्नमध्यस्थे पण्डितभेदे च शब्दक० ।
तच्चिन्त्यम् । “धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कुवेतालभट्टघटकर्परकालि- दासः ।

ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य” 

ज्योतिर्विदाभरणवाक्ये वराहः 

मिहिराइवेत्येव तत्र समासे वराहमिहिर इत्येकः “वराहमिहिरात्मजेन पृथुयशसा” तत्पुत्रकृतषट्पञ्चा- शिकायामुक्तेः द्वित्वे वररुचिना सह दशसंख्यापत्तेश्च ।
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संज्ञा पुं० [सं० महत् या महार्ह, हिं० महरा ( बड़ा, श्रेष्ठ)] [स्त्री० महरि] १. व्रज में बोला जानेवाला एक आदर- सूचक शब्द जिसका व्यवहार विशेषतः जमींदारों और वैश्यों आदि के संबंध में होता है। 
(कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल श्रीकृष्ण के पालक और पिता नंद के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है)।

उदाहरण—महर निनय दोउ कर जोरे 
घृत मिष्टान षय बहुत मनाया।—सूरदास (शब्द०)। 

(ख) फूर आभलाषन को चाखने के माखन लै 
दाखन मधुर भरे महर मंगाय रे।—दीन (शब्द०)। 

(ग) व्रज की विरह अरु संग महर की कुवरिहि वरत न नेकु लजान।—तुलसी (शब्द०)।

२. एक प्रकार का पक्षी। उ०— सारो सुवा महर कोकिला। रहसत आइ पपीहा मिला।—जायसी (शब्द०)। 

३. देखें ' महरा '। नाऊ बारी महर सब, धाऊ धाय समेत।—रघुराज (शब्द०)।

'महरि'। उ०—करे नन्द जसोदा महरी। 

पल भर कृष्ण राख ना बहरी।—कबीर साहित्य, पृ० ४४।

[हिन्दी की व्रज बोली में महर ] एक प्रकार का आदरसूचक शब्द जिसका व्यवहार ब्रज में प्रतिष्ठित स्त्रियों के संबंध में होता है।

 विशेष—कभी कभी इस शब्द का व्यवहार केवल यशोदा के लिये भी बिना उनका नाम लिए ही होता है।जैसा कि लल्लूलाल कृत प्रेम-सागर में नन्द महर !

२. गृहस्वामिनी। मालकिन। घरवाली। उदाहरण—बाल बोलि डहिक बिरावत चरित लखि गोपीगन महरि मुदित पुलकित गात।— तुलसी दास (शब्दावली)।

३. ग्वालिन नामक पक्षी। दहिंगल। उदाहरण— 

दही दही कर महरि पुकारा। 
हारिल विनवइ आपु निहारा।— जायसी (शब्द०)।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुर्जर मध्य एशिया के कॉकेसस क्षेत्र (अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए आर्य योद्धा थे।

कुछ विद्वान इन्हे विदेशी भी बताते हैं क्योंकि गुर्जरों का नाम एक अभिलेख में हूणों के साथ कज्जर रूप में मिलता है, परन्तु इसका कोई एतिहासिक प्रमाण नहीं है।

संस्कृत के कुछ रूढ़िवादी विद्वानों के अनुसार, गुर्जर शुद्ध संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ 'शत्रु का नाश करने वाला' अर्थात 'शत्रु विनाशक' होता है। -जैसा कि हमने राजशेखर के सन्दर्भ में उद्धृत किया।

प्राचीन महाकवि राजशेखर ने गुर्जर नरेश महिपाल को अपने महाकाव्य में दहाड़ता गुर्जर कह कर सम्बोधित किया है।

कुछ इतिहासकार कुषाणों को गुर्जर बताते हैं तथा कनिष्क के "रबातक" शिलालेख पर अंकित 'गुसुर' को गुर्जर का ही एक रूप बताते हैं। 
उनका मानना है कि गुशुर या गुर्जर लोग विजेता के रूप में भारत में आये क्योंकि गुशुर का अर्थ 'उच्च कुलीन' होता है।
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गुर्ज्जरः जन-जाति जिस प्रकार पौराणिक पात्र राधा और गायत्री को अपनी कुल देवी मानते हैं ।

वह उनके अहीरों से सम्बद्ध होने का पौराणिक आधार है 

परन्तु पुराणों में गायत्री और राधा को आभीर कन्या ही कहा है 🙏
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।सावित्र्युवाच।लक्ष्मीर्नाद्यापिचायातिसतीनैवेहदृश्यतेबृहदाग्रायणेहूताशक्राणीगच्छतीत्विह।
नाहमेकाकिनीयास्येयावन्नायान्तिताः
स्त्रियः॥

ब्रूहिगत्वाविरिञ्चिन्तं तिष्ठत्विहृमुहूर्त्तकम्॥वदमानांतथाध्वर्य्युस्त्यक्त्वादेवमुपागमत्।सावित्रीव्याकुलादेवीप्रसक्तागृहकर्म्मणि॥सख्योनाभ्यागतायावत्तावन्नागमनंमम।एवमुक्तोऽस्मिवैदेव !कालश्चाप्यतिवर्त्तते॥यश्चयोम्यंभवेदत्रतत्कुरुष्वपितामह !एवमुक्तेतदावाक्यंकिञ्चित्कोपसमन्वितः॥पत्नीञ्चान्यांमदर्थन्तुशीघ्रं त्वञ्चसमानय।प्रवर्त्ततेयथायज्ञःकालहीनोनजायते॥तथाशीघ्रंविधेहित्वंनारींकाञ्चिदुपानयएवमुक्तस्तथाशक्रोगत्वासर्व्वंधरातलम्स्त्रियोदृष्टास्तुयास्तेन सर्व्वास्तास्तुपरिग्रहाः।

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आभीरकन्यासुरूपासु
भाषाचारुलोचना॥

ददर्शतांसुचार्व्वङ्गीं कमलायतलोचनाम्।
कासिकस्यकुतश्चत्वमागतासुभ्रु ! 
कथ्यताम्॥
एकाकिनीकिमर्थञ्चवीथिमध्येऽवतिष्ठसे।
रूपान्विताचसाकन्या

शक्रंप्रोवाचवेपती॥ 
गोपकन्या अहंवीर !

_________जाट ______
बात जब जाटों की होती है तब भी इनके इतिहास को भ्रान्ति मूलक प्रारूप दिया जाता है । 
भारतीय परम्परागत किंवदन्तियों में जाटों को यदु वंश से सम्बद्ध किया जाता है ।

और हिन्दी कोश ग्रन्थों में यादव - जादव - जाडव - जाडु तथा जड्ड / जट्ट के रूप में जाट शब्द का विकास क्रम दर्शातया जाता है । 
यज्ञ शब्दः का विकास यज् धातु मूलक है और
यदु शब्द भी यज् धातु मूलक है ।
यष्टि और यदु दौनों शब्द यज् धातु मूलक हैं _________________________________________

प्रोफेसर मदन मोहन झा द्वारा सम्पादित हिन्दी कोश में वर्णन है👇
संज्ञा पु० [सं० यष्टि अथवा सं० यादव, > जादव > जाडव > जाडअ > जाटअ > जाट] :-
१. भारतवर्ष की एक प्रसिद्ध जाति जो समस्त पंजाब, सिंध, राजपूताने और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में फैली हुई है ।

विशेष—इस जाति के लोग संख्या में बहुत अधिक हैं और भिन्न भिन्न प्रदेश में भिन्न भिन्न नामों से प्रसिद्ध हैं ।
इस जाति के अधिकांश आचार व्यवहार आदि राजपूतों से मिलते जुलते होते हैं ।

कहीं कहीं ये लोग अपने को राजपूतों के अंतर्गत भी बतलाते हैं । 
राजपूतों के ३६ वंशों में जाटों का भी नाम आया है ।

कुछ देशों में जाटों और राजपूतों का विवाह संबंध भी होता है । 

पर कहीं कहीं के जाटों में विधवा विवाह और सगाई की प्रथा भी प्रचलित है ।

जाटों की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं ।
कोई कहता है कि इनकी उत्पत्ति शिव की जटा से हुई; और कोई जाटों को यदुवंशी और जाट शब्द को यदु या यादव से संबंद्ध बतलाता है ।

अधिकांश जाट खेती बारी से ही अपना निर्वाह करते हैं । पंजाब, अफगानिस्तान और बलूचिस्तान में बहुत से मुसलमान जाट भी हैं ।
२. एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना ।
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आयरिश भाषा और संस्कृति का समन्वय प्राचीन फ्रॉन्स की ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड संस्कृति से था ।
ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटॉन् भी इसी संस्कृति से सम्बद्ध थे ।

महाभारत में वर्णन है कि "जाट" "वाहीक" अथवा बाह्लीक देश के निवासी थे जिन्हें महाभारत में "जर्तिका" कहा ।

इसी सन्दर्भ में जट्ट जन-जाति का उल्लेख भी है जिसे जर्तिका नाम से अभिहित किया है ।

जट्टिया चमारों का आह्वावान प्राचीन भारत के के इतिहास कार देवी दास ने दिल्ली के एक सामाजिक सम्मेलन में किया और उन्हें जाटव नाम दिया ।

यह समय सन 1922 ईस्वी का है ।

यद्यपि जाट और जट्ट अलग अलग थे ।
जाटों का सम्बन्ध यदुवंश से रहा परन्तु जट्ट अपने को ईरानीयों से ही सम्बद्ध मानते रहे ।

-जैसे गौश्चर और जोर्जियस् --जो बाद में गुर्ज्जरः या गूजर कहलाए 

परन्तु गूजर अहीरों की शाखा के रूप में आठवीं सदी से पूर्व थे ।
कालान्तरण में गूजरों का अलग इतिहास बनने लगा ।
और अहीरों का अलग ..
ऐसे ही जाट और जट्ट (जर्तिका) जन-जाति का सम्बन्ध रहा है ।

सम्भवत: ये पूर्व में समानार्थक नस्ल के हों ! 
जाटों को भारतीय संस्कृत कोश कार तथा मध्यकालीन इतिहास कार यादवों का एक समुदाय मानते हैं ।
अब महाभारत के लेखक ने ई०पू० पञ्चम् सदी का वर्णन किया है कि वाहीकों के रूप में अधिकतर जट्ट (जर्तिका) जन-जाति काजाट यद्यपि 36 राज्यकुलों की सूची में जित वा जाट ने भी स्थान पाया है।

 'परन्तु न तो कोई इन्हें राजपूत मानता है और ना इनका किसी राजपूत जाति के साथ विवाह होना पाया जाता है या भारत भर में फैले हुए हैं इनमें भरतपुर के राजा प्रसिद्ध है ।

शेष लोग खेती बाड़ी का काम करते हैं उनके संस्कार भी लोप हो गए हैं तथा इनमें कण्व भी होता है इस कारण उत्तम कक्षा से गिर जाते हैं ।

पंजाब में ये जिट कहे जाते हैं इनकी जाति व आदि निवास स्थान सिंध नदी के पश्चिम तरफ के देश माने गए हैं ।
महाभारत के कर्ण पर्व में जर्तिका नाम की जाति ही आज कल के जाट हैं। 
यह आभीरों की ही शाखा है --जो शॉलोमन( शल्य) के साथ उनकी सेना में यौद्धा थे ।

और इनको यदुवंश से निकला हुआ मानते हैं ।
अंग्रेज विद्वान "टाड" साहब इनको मध्य-एशिया तथा चीन की यूची या यूटी शाखा में मानते हैं यह तक्षक की शाखा भी माने जाते हैं तथा दन्तकथा से महादेव जी की जटा से कोई इनकी उत्पत्ति मानते हैं ।
--जो कि कल्पना प्रसूत है ।

पर एक शिलालेख में पाया जाता है कि जिटवंशी राजा की माता यदुकुल की थी जिसके कारण इनको 36 राजकुलों में भव्य स्थान मिला है ।

ईसा की पांचवी शताब्दी में यह पंजाब में बस गए थे ।
और सन 440 ईसवी में राज करना भी पाया जाता है।

टाडसाहब का कहना है कि "जब यादव लोग शालिवाहन पुर से बाहर हुए तब सतलज नदी उतरकर मरुस्थल में दाहिया और जोहिया जन-जातियों के सहवर्ती हुए वहां देरावल राजधानी स्थापित की और यहीं से किसी दबाव के कारण उन्होंने यदु नाम छोड़कर जाट नाम धारण कर लिया "" 

यदुकुल के इतिहास में जाटों की बीस शाखा पाई जाती हैं यह लोग बड़े वीर होते हैं इन्होंने महमूद गजनवी का मुकाबला भी किया।

ईस्वी सन 971-1020 के समय में इनका निवास सिन्धु नदी के पूर्वी किनारे पर था महाराज रणजीतसिंह इसी वंश में थे इस जाति के अकाली नाम धारियों में अभी तक चक्र धारण किया जाता है जिसका व्यवहार भगवान कृष्ण  जी ने स्वयं किया।

चौधरी का तत्सम चक्रधारि चक्कधारि चौधारी-है।
यदुवंशीयों में जाटों और अहीरों में चौधरी उपाधि 
उनके चक ( भू-खण्डों) के धारक होने से भी है 
चौधरी उपाधि जमींदारों की है ।

वास्तव में ब्राह्मणों ने जाटों और जटों को शूद्र और हेय वर्णित किया है।
जैसा कि आपने अभी महाभारत के कर्ण पर्व में देखा-

गुरू नानक के सिख धर्म को अपनाया और ये पंजाब, पाकिस्तान में बहुतायत से हैं ।

ज्यादातर जट्ट इस्लामीय शरीयत के परस्तिश हो गये 
ये जट्ट स्वतन्त्र विचारों के होते हैं ।

इनकी स्त्रीयाँ सुन्दर डील डौल वाली, लम्बी और सुन्दर ईरानी नस्ल की होती हैं ।

महाभारत में ईरानी प्रदेश मीदिया (मद्रदेश) के शासक शल्य के शासन में थे ।

वास्तव में शल्य शोलोमन का रूपान्तरण है ।
जिसकी सेना में इज़राएल के अहीर यौद्धा होते थे ।

महाभारत के कर्ण पर्व में जर्तिका जन-जाति का वर्णन है जिनका तादात्म्य-एकरूपता जट्ट जन-जाति से है ।👇

बहष्कृता हिमवता गङ्गया च बहिष्कृता ।
सरस्वत्या यमुनयाकुरुक्षेत्रेण चापि ये ।6।

पञ्चानां सिन्धुषष्ठानां नदीनां ये८न्तराश्रिता :।
तान् धर्मबाह्यानशुचीन् वाहीकानपि वर्जयेत्।7।

गोवर्धनो नाम वट: सुभद्रं नाम चत्वरम् ।
एतद् राजकुलद्वारमाकुमारात् स्मराम्यहम् ।।8।

कार्येणात्यर्थगूढेन वाहीकेषूषितं मया ।
तत एषां समाचार: संवासाद् विदितो मम ।।9।

शाकलं नाम नगरमापगा नाम निम्नगा ।
जर्तिका नाम वाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम् ।।10।

धाना गौड्यासवं पीत्वा गोमांसं लशुनै: सह ।
अपूप मांस वाट्यानामाशिन शीलवर्जिता : ।11।

गायन्त्यथ च नृत्यन्ति स्त्रियो मत्ता विवासस: ।
नगरागारवप्रेषु बहिर्माल्यानुलेपना: ।12।

मत्तावगीतैर्विविधै: खरोष्ट्रनिनपदोपमै:।
अनावृता मैथुने ता: कामाचाराश्च सर्वश:।13।

आहुरन्योन्यसूक्तानि प्रब्रुवाणा मदोत्कटा:।
हे हते हे हतेत्येवं स्वामिभर्तृहतेति च ।14।

आक्रोशन्त्य: प्रनृत्यन्ति व्रात्या: जो त्वष्टा परिवार का सदस्य हैं ।
 तो इसके पीछे यह कारण था , कि ये यदु की सन्तानें हैं
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यदु को ब्राह्मणों ने आर्य वर्ग से बहिष्कृत कर उसके वंशजों को ज्ञान संस्कार तथा धार्मिक अनुष्ठानों से वञ्चित कर दिया था । और इन्हें दास -(दक्ष) घोषित कर दिया था ।
वैदिक कालीन सन्दर्भ में दास शब्द देव-संस्कृति विद्रोही अथवा बागीयों का वाचक था  ईरानी आर्य्यों की भाषा में दाहे अथवा दाहक शब्द दास का रूपान्तरण है क्योंकि कि ईरानी में संस्कृत (स )वर्ण (ह )वर्ण में परिवर्तन हो जाते है ।
ईरानी में दास का अर्थ दाता या दानी है ।
दागेस्तान के मूल निवासीयों का वाचक है।
इसका एक प्रमाण देखें 
दाहिया जाट अहीर और गुर्जर गोत्र भी है ।

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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे-

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ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२ सूक्त के १० वें श्लोकाँश में.. यहाँ यदु और तुर्वसु दौनों को दास कर सम्बोधित किया गया है ।
यदु और तुर्वसु नामक दास गायों से घिरे हुए हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं।
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ईरानी आर्यों की भाषा में दास शब्द दाह/ के रूप में है जिसका अर्थ है ---पूज्य  दाता व पवित्र अर्थात् (दक्ष ) यदु का वर्णन प्राचीन पश्चिमीय एशिया के धार्मिक साहित्य में गायों के सानिध्य में ही किया है ।

 अत: यदु के वंशज गोप अथवा गोपाल के रूप में भारत में प्रसिद्ध हुए..... हिब्रू बाइबिल में ईसा मसीह की बिलादत(जन्म) भी गौओं के सानिध्य में ही हुई ... ईसा( कृष्ट) और कृष्ण के चरित्र का भी साम्य है ईसा के गुरु एेंजीलस( Angelus)/Angel हैं ,जिसे हिब्रू परम्पराओं ने फ़रिश्ता माना है । 
तो कृष्ण के गुरु घोर- आंगीरस हैं ।
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दास शब्द ईरानी असुर आर्यों की भाषा में दाहे के रूप में उच्च अर्थों को ध्वनित करता है।
बहुतायत से अहीरों को दस्यु उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है ।

सम्भवत: इन्होंने चतुर्थ वर्ण के रूप में दासता की वेणियों को स्वीकार नहीं किया, और ब्राह्मण जाति के प्रति विद्रोह कर दिया तभी से ये दास से दस्यु: हो गये ...  

वस्तुत: दास का बहुवचन रूप ही दस्यु: रहा है । जो अंगेजी प्रभाव से डॉकू अथवा (dacoit )हो गया ।

------------------------------------------------------------------- महाभारत में भी युद्धप्रिय, घुमक्कड़, गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है। महाभारत के मूसल पर्व में आभीरों को लक्ष्य करके प्रक्षिप्त और विरोधाभासी अंश जोड़ दिए हैं ।

कि इन्होने प्रभास क्षेत्र में गोपियों सहित अर्जुन को भील रूप में लूट लिया था ।

आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। 

आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है।

 ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा। अन्ततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाए, जिन्हें राजपूतों से भी बड़कर योद्धा माना गया। 
मथुरा के यादव शासक ब्रह्म पाल अहीर से जादौन स्वयं को निकला मानते हैं ।
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मनु-स्मृति में अहीरों को काल्पनिक रूप में ब्राह्मण पिता तथा अम्बष्ठ माता से उत्पन्न कर दिया है । 

आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं
ब्राह्मणद्वैश्य कन्यायायामबष्ठो नाम जायते ।
"आभीरोsम्बष्टकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण"
इति-----( मनु-स्मृति ) अध्याय १०/१५

परन्तु एक अन्य -स्मृति वर्णन करती है 
"ब्राह्मणेन संगता माहिष्य कन्यायां आभीर जायते "

अब आप बताऐं कि दो स्त्रीयों से एक पुत्र उत्पन्न हो सकता है ?
दो व्यक्तियों से एक स्त्री में तो हो सकता है ।
यह सब अहीरों को नीच बनाने का षड्यन्त्र है ।

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तारानाथ वाचस्पत्य कोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- दी है --- "आ समन्तात् भियं शत्रुणाम् हृत्सु राति ददाति - इति आभीर : " अर्थात् सर्वत्र शत्रुओं के हृदय में भय  करने वाला है ।

- यह अर्थ तो इनकी साहसी और वीर प्रवृत्ति के कारण दिया गया था 
क्योंकि शूद्रों का दर्जा इन्होने स्वीकार नहीं किया ।
 दास होने की अपेक्षा दस्यु बनना उचित समझा। 
अत: इतिहास कारों नें इन्हें दस्यु या लुटेरा ही लिखा ।

जबकि अपने अधिकारों के लिए इनकी यह लड़ाई थी ।
महाभारत में अहीरों और जाटों का भी वर्णन भी है ।
परन्तु गुर्ज्जरः जन-जाति का वर्णन नहीं !
क्यों कि इनका समावेश अहीरों में ही हो गया है ।

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तासां किलावलिप्तानां निवससन् कुरुजांगले ।15।

कश्चिद् वाहीकदुष्टानां नातिहृष्टमना जगौ।
सा नूनं बृहती गौरी सूक्ष्मकम्बलवासिनी।16।

मामनुस्मरती शेते वाहीकं कुरुजांगले।
शतद्रुकामहं तीर्त्वा तां च रम्यामिरावतीम् ।17।

गत्वा स्वदेशं द्रक्ष्यामि स्थूलशंखा शुभा : स्त्रिय:।
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(महाभारते कर्णपर्वणि चतुश्चत्वारिंशो८ध्याय:)
(महाभारत कर्णपर्व चबालीसवाँ अध्याय)

" जो प्रदेश हिमालय ,गंगा ,सरस्वती ,यमुना और कुरुक्षेत्र की सीमा से बाहर है।
तथा जो सतलज, ब्यास ,रावी, चिनाव ,और झेलम इन पाँचो एवं छठी सिंध नदी के बीच में स्थित है ।
उन्हें बाहीक कहते हैं वह धर्म से बाहर और अपवित्र हैं उन्हें त्याग देना चाहिए ।6-7।

गोवर्द्धन नामक वटवृक्ष और सुभद्र नामक चबूतरा यह दोनों वहां के राज भवन के द्वार पर स्थित हैं।
जिन्हें मैं बचपन से ही भूल नहीं पाता हूँ।8।

कर्ण कहता है शल्य से कि मैं अत्यन्त गुप्त कार्य बस कुछ दिनों तक बाल्हीक देश में रहा था ;
इससे वहां के निवासियों के संपर्क में आकर मैंने उनके आचार विचार की बहुत सी बातें जान ली थी।9 ।

वहां (साकल) स्यालकोट- नामक एक नगर और आपगा नाम की एक नदी है जहां जर्तिका( जट्ट) नाम वाले वाहीक निवास करते हैं उनका चरित्र अत्यन्त निन्दित है ।10।

वह भुने हुए जौ और लहसुन के साथ गोमांस खाते और गुड़ से बनी हुई मदिरा पीकर मतवाले बने रहते हैं।

पुआ ,मांस और बाटी खाने वाले बाहीक देश के लोग शील और आचार से शून्य हैं ।11।

वहां की स्त्रियां बाहर दिखाई देने वाली माला और अंगराग धारण करने वाली मतवाली और नंगी होकर नगर एवं घरों की चहारदीवारीयों के पास गाती और नाचती हैं ।12।

गधों के रैंकने और ऊंटों के बलबलाने की सी आवाजों से मतवाले पन में ही भाँति भाँति के गीत गाती हैं और मैथुन काल में भी पर्दे के भीतर नहीं रहती हैं।
वह सब की सब सर्वथा स्वैच्छाचारिणी होती हैं।13।

मद से उन्मत्त होकर परस्पर सरस विनोद युक्त बातें करती हुई वो एक दूसरे को कहती हैं मजाक करते हुए "घायल की हुई " किसी की मारी हुई"
हे पति मर्दते ! 

-जैसे मजाक में 
इत्यादि कह कर पुकारती और नृत्त करती हैं पर्व और त्योहारों के अवसर पर तो उन नृत्य करती हुई संस्कार हीन रमणियों के संयम का बाँध और भी टूट जाता है।।।14।

उन्हीं वाहिक देशीय मदमस्त एवं दुष्ट स्त्रियों का कोई संबंधी वहां से आकर कुरुजांगल प्रदेश में निवास करता था ।
वह अत्यन्त खिन्नचित्त होकर इस प्रकार गुनगुनाया करता था ।15।

निश्चय ही वह लम्बी गोरी और महीन कम्बल की साड़ी पहनने वाली मेरी प्रेयसी कुरुजांगल प्रदेश में निवास करने वाले मुझ वाहीक को निरन्तर याद करती हुई सोती होगी ।16।

मैं कब सतजल और उस रमणीय रावी नदी को पार करके अपने देश में पहुंचकर शंख की बनी हुई मोटी मोटी चूड़ियों को धारण करने वाली वहां की सुंदर स्त्रियों को देखूंगा ।17।

जिनके नेत्रों के प्रांत भाग मैनसिल के आलेपन से उज्जवल हैं दोनों नेत्र और ललाट अंजन से सुशोभित हैं तथा जिन के सारे अंग कंबल और मृग चरम से अावृत हैं वे गोरे रंग वाली प्रियदर्शना और मृदंग ,ढोलक ,और शंख,और मर्दल बाजों की धुन के साथ साथ कब नृत्य करती दिखाई देगी ।18।

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बाह्लीक:– कांबोज के उत्तरीय प्रान्त का प्राचीन नाम जहाँ आजकल बलख है।
बाह्लीक को कुछ विद्वान कुरू वंशी यादवों कुरुष मानते हैं 
विशेष—यह स्थान काबुल से उत्तर की ओर पड़ता है। इसका प्राचीन पारसी नाम बक्तर है ।
जिससे यूनानी शब्द बैक्ट्रिया बना है।

वाहीक महाभारत काल में पंजाब के आरट्ठ देश का ही एक नाम था। 
यहाँ के निवासियों को महाभारत, कर्णपर्व में भ्रष्ट आचरण के लिए कुख्यात बताया गया है।

वाहीक नाम की उत्पत्ति नमहा इस प्रकार कही गई है-

'वहिश्चनाम हीकश्च विपााशायां पिशाचकौ तयोरप्यं वाहीका नैषा सृष्टिः प्रजापतेः।'

अर्थात "विपाशा नदी में दो पिशाच रहते थे, 'वहि' और 'हीक'। इन्हीं दोनों की संतान 'वाहीक' कहलाती है।"

पिशाच जाति का प्राचीन ग्रंथों में वर्णन है।
पैशाची भाषा में ग्रंथों की रचना भी हुई है।
जैसे-गुणाढ्य की वृहदकथा ।

यह भी माना जाता है कि देव-संस्कृति अनुयायीयों के आने के पूर्व कश्मीर में पिशाच और नाग जातियों
(नागालेण्ड के मूल नवासी )का निवास था।

जान पड़ता है कि वाहीक, 'बाह्लिक' या 'बाह्लीक' का ही रूपान्तरण है, जो मूल रूप से बल्ख या बेक्ट्रिया का प्राचीन भारतीय नाम था। 

यहीं के लोग कालांतर में पंजाब और निकटवर्ती क्षेत्रों में आकर बस गये थे। 

ईरानीयों की संस्कृतियों से ये प्रभावित थे 
ये अपने रीति रिवाजों के कारण उस समय -देव संस्कृतियों के अनुयायीयों में अनादर की दृष्टि से देखे जाते थे।

वाहीकों का मुुख्य नगर शाकल (श्यालकोट)था, जहां 'जर्तिक' (जट्ट) नाम के वाहीक रहते थे-

'शाकलं नाम नगरमापगाा नाम निम्नगा,
जर्तिकानामवाहीकास्तेषां वृत्तं सुनिन्दितम्।'
(महाभारत)
सियालकोट वर्तमान में पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के उत्तर-पूर्व में स्थित सियालकोट जिले का मुख्यालय एवं सैनिक छावनी है।

नगर उत्तरी-पश्चिमी रेलमार्ग पर लाहौर से १०० किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है।
यह नगर अनेक व्यवसायों एवं उद्योगों का केंद्र है।
नगर में १०वीं शताब्दी के एक किले के भग्नावशेष हैं जो एक टीले पर खड़े हैं।

वाहीक का अर्थ बाह्य या विदेशी भी हो सकता है, किंतु अधिक संभव यही जान पड़ता है कि यह शब्द, जिसकी काल्पनिक या लोक प्रचलित व्युत्पत्ति महाभारत के उपर्युक्त उद्धरण में बताई गई है, वस्तुतः बाह्लिक या फ़ारसी बल्ख का ही रूपान्तरण है।

फ़ारसी एक भाषा है जो ईरान, ताज़िकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और उज़बेकिस्तान में बोली जाती है। यह तीन देशों की राजभाषा है और इसे क़रीब 7.5 करोड़ लोग इस्तेमाल करते हैं।

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प्रथम अंक 

यह हिन्द यूरोपीय भाषाई परिवार की हिन्द ईरानी (इण्डो ईरानियन) शाखा की ईरानी उपशाखा का सदस्य है और इसमें क्रियापद वाक्य के अंत में आता है। 
फ़ारसी संस्कृत से क़ाफ़ी मिलती-जुलती है, और उर्दू (और हिन्दी) में इसके कई शब्द प्रयुक्त होते हैं। 
ये फ़ारसी-अरबी लिपि में लिखी जाती है। 

अंग्रेज़ों के आगमन से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में फ़ारसी भाषा का प्रयोग दरबारी कामों तथा लेखन की भाषा के रूप में होता है।
संस्कृत से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
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प्रस्तुति-करण:-यादव योगेश कुमार "रोहि
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परन्तु पाँचवी-सदी में जर्मन जाति से सम्बद्ध एेंजीलस शाखा ने इनको परास्त कर ब्रिटेन का नया नाम आंग्ललेण्ड देकर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया --- भारत के नाम का भी ऐसा ही इतिहास है ।
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आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- " अभित: ईरयति इति आभीर " के रूप में भी मान्य है । इनका तादात्म्य यहूदीयों के कबीले अबीरों (Abeer) से प्रस्तावित है ।

"( और इस शब्द की व्युत्पत्ति- अभीरु के अर्थ अभीर से प्रस्तावित है--- जिसका अर्थ होता है ।जो भीरु अथवा कायर नहीं है ,अर्थात् अभीर 
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इतिहास मे भी अहीरों की निर्भीकता और वीरता का वर्णन प्राचीनत्तम है । 
इज़राएल में आज भी अबीर यहूदीयों का एक वर्ग है । जो अपनी वीरता तथा युद्ध कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है । कहीं पर " आ समन्तात् भीयं राति ददाति इति आभीर : इस प्रकार आभीर शब्द की व्युत्पत्ति-की है , जो अहीर जाति के भयप्रद रूप का प्रकाशन करती है । 

अर्थात् सर्वत्र भय उत्पन्न करने वाला आभीर है । 
यह सत्य है कि अहीरों ने दास होने की अपेक्षा दस्यु होना उचित समझा ... 
तत्कालीन ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित आडम्बर का विरोध किया । 

अत: ये ब्राह्मणों के चिर विरोधी बन गये और ब्राह्मणों ने इन्हें दस्यु ही कहा " 
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बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया हुआ बताया है , वह भी यवन (यूनानीयों)के साथ ... देखिए कितना विरोधाभासी वर्णन है । 
फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गया.... और वह भी गोपिकाओं को लूटने वाले .. _________________________________________________

जबकि गोप को ही अहीर कहा गया है । संस्कृत साहित्य में.. इधर उसी महाभारत के लेखन काल में लिखित स्मृति-ग्रन्थों में व्यास-स्मृति के अध्याय १ के श्लोक संख्या ११---१२ पर गोप, कायस्थ ,कोल आदि को इतना अपवित्र माना, कि इनको देखने के बाद तुरन्त स्नान करना चाहिए.. ________________________________________________

यूनानी लोग भारत में ई०पू० ३२३ में आये और महाभारत को आप ई०पू० ३०००वर्ष पूर्व का मानते हो.. फिर अहीर कब बाहर से आये ई०पू० ३२३ अथवा ई०पू० ३०००में .... 
भागवत पुराण में तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार माना लिया गया है । 
जबकि वाल्मीकि-रामायण में राम बुद्ध को चोर और नास्तिक कहते हैं ।
 राम का और बुद्ध के समय का क्या मेल है ? अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३४ वें श्लोक में राम कहते हैं--जावालि ऋषि से---

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यथा ही चोर:स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि

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बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया..... फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये....
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किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: 
आभीर शका यवना खशादय :। 
येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया 
शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:
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श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ 
वास्तव में एैसे काल्पनिक ग्रन्थों का उद्धरण देकर जो लोग अहीरों(यादवों) पर आक्षेप करते हैं । 
नि: सन्देह वे अल्पज्ञानी व मानसिक रोगी हैं .. वैदिक साहित्य का अध्ययन कर के वे अपना उपचार कर लें ...

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हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ---वीर अथवा शक्तिशाली (Strong or brave) आभीरों को म्लेच्छ देश में निवास करने के कारण अन्य स्थानीय आदिम जातियों के साथ म्लेच्छों की कोटि में रखा जाता था, तथा वृत्य क्षत्रिय कहा जाता था। वृत्य अथवा वार्त्र भरत जन-जाति जो वृत्र की अनुयायी तथा उपासक थी । जिस वृत्र को कैल्ट संस्कृति में ए-बरटा (Abarta)कहा है ।
जो त्वष्टा परिवार का सदस्य हैं । तो इसके पीछे यह कारण था , कि ये यदु की सन्तानें हैं
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यदु को ब्राह्मणों ने आर्य वर्ग से बहिष्कृत कर उसके वंशजों को ज्ञान संस्कार तथा धार्मिक अनुष्ठानों से वञ्चित कर दिया था । और इन्हें दास -(दक्ष) घोषित कर दिया था 
इसका एक प्रमाण देखें 

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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे-

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ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२ सूक्त के १० वें श्लोकाँश में.. यहाँ यदु और तुर्वसु दौनों को दास कर सम्बोधित किया गया है ।
यदु और तुर्वसु नामक दास गायों से घिरे हुए हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं।
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ईरानी आर्यों की भाषा में दास शब्द दाह/ के रूप में है जिसका अर्थ है ---पूज्य व पवित्र अर्थात् (दक्ष ) यदु का वर्णन प्राचीन पश्चिमीय एशिया के धार्मिक साहित्य में गायों के सानिध्य में ही किया है । अत: यदु के वंशज गोप अथवा गोपाल के रूप में भारत में प्रसिद्ध हुए..... हिब्रू बाइबिल में ईसा मसीह की बिलादत(जन्म) भी गौओं के सानिध्य में ही हुई ... ईसा( कृष्ट) और कृष्ण के चरित्र का भी साम्य है ईसा के गुरु एेंजीलस( Angelus)/Angel हैं ,जिसे हिब्रू परम्पराओं ने फ़रिश्ता माना है । 
तो कृष्ण के गुरु घोर- आंगीरस हैं ।
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दास शब्द ईरानी असुर आर्यों की भाषा में दाहे के रूप में उच्च अर्थों को ध्वनित करता है।
बहुतायत से अहीरों को दस्यु उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है 
सम्भवत: इन्होंने चतुर्थ वर्ण के रूप में दासता की वेणियों को स्वीकार नहीं किया, और ब्राह्मण जाति के प्रति विद्रोह कर दिया तभी से ये दास से दस्यु: हो गये ... जाटों में दाहिया गोत्र इसका रूप है ।
वस्तुत: दास का बहुवचन रूप ही दस्यु: रहा है । जो अंगेजी प्रभाव से डॉकू अथवा (dacoit )हो गया ।

------------------------------------------------------------------- महाभारत में भी युद्धप्रिय, घुमक्कड़, गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है। महाभारत के मूसल पर्व में आभीरों को लक्ष्य करके प्रक्षिप्त और विरोधाभासी अंश जोड़ दिए हैं ।
कि इन्होने प्रभास क्षेत्र में गोपियों सहित अर्जुन को भील रूप में लूट लिया था ।
आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। 
आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा। अन्ततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाए, जिन्हें राजपूतों से भी बड़कर योद्धा माना गया। 
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मनु-स्मृति में अहीरों को काल्पनिक रूप में ब्राह्मण पिता तथा अम्बष्ठ माता से उत्पन्न कर दिया है । 

आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं
ब्राह्मणद्वैश्य कन्यायायामबष्ठो नाम जायते ।
"आभीरोsम्बष्टकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण"
इति-----( मनु-स्मृति ) अध्याय १०/१५
परन्तु एक अन्य -स्मृति वर्णन करती है ब्राह्मणेन संगता माहिष्य कन्यायां आभीर जायते "

अब आप बताऐं कि दो स्त्रीयों से एक पुत्र उत्पन्न हो सकता है ?
दो व्यक्तियों से एक स्त्री में तो हो सकता है ।
यह सब अहीरों को नीच बनाने का षड्यन्त्र है ।

तारानाथ वाचस्पत्य कोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- दी है --- "आ समन्तात् भियं राति ददाति - इति आभीर : " अर्थात् सर्वत्र भय भीत करने वाले हैं ।

- यह अर्थ तो इनकी साहसी और वीर प्रवृत्ति के कारण दिया गया था 
क्योंकि शूद्रों का दर्जा इन्होने स्वीकार नहीं किया । दास होने की अपेक्षा दस्यु बनना उचित समझा। 

अत: इतिहास कारों नें इन्हें दस्यु या लुटेरा ही लिखा ।

जबकि अपने अधिकारों के लिए इनकी यह लड़ाई थी ।
महाभारत में अहीरों और जाटों का भी वर्णन भी है ।
परन्तु गुर्ज्जरः जन-जाति का वर्णन नहीं !
क्यों कि इनका समावेश अहीरों में ही हो गया है ।


जाट संघ के यदुवंशी गौत्र :-
सिनसिनवार ,सहारन ,बरार ,
बराड़, सिद्धू ,भट्टी ,भाटी , धालीवाल ,रंधावा , काजला गोत्र यदुवंशी है :

दिलीप सिंह के अनुसार वृष्णि, अन्धक,  हाला ,शेओखन्दे डागुर ,दीगराना ,खिरवार,बल्हारा , सरन सिनसिनवार ,सोगरवाल छोंकर ,भोज ,हंगा,घनिहार , रावत गौत्र यदुवंशी हैं।


यदुवंश की प्राचीनत्तम शाखा अहीरों के अधिक गोत्र स्थान के नाम पर भी बने हैं जहां पर उनका निवास रहा उसी के नाम पर गौत्र बना लिया ।

प्रसिद्ध पुरुषों के नाम पर प्रचलित इनके गोत्र कम हैं।
 तब भी अहीर गोत्र जाटों के गोत्रों से मिलते हैं। 

जाट गोत्रों से मिलने वाले अहीर गोत्रों के कुछ नाम निम्नलिखित हैं - 

1. कादल 2. लोहचब 3. नैन 4. डागर 5. धालीवाल 6. सिसौदिया 7. रावत 8. कठ 9. ठुकरिला 10. मल्ही 11. नारा 12. बोगदा/बोगदावत 13. बूरा 14. मूण्ड 15. भिण्ड 16. यदु 17. सिकरवाल 18. अत्री 19. बाछिक 20. हाड़ी 21. दाहिया 22. गोर्सी /गोर्जी

(जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत,) पृष्ठान्त-519 पर अहीर और जाटों के गोत्रों की समानता दर्शाते हैं ।


20. देशवाल जैसा अहीर गौत्र दशवार - महाभारत दाशार्ह 21. किंग 22. दहिया 23. झाझड़या 24. मल्ल 25. धारण 26. गहला 27. लाम्बा आदि ।

नोट - भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं में जाटों की भांति अहीर लोग भी मुसलमानधर्मी बन गये।
ब्राह्मणाों से बगावत करके क्योंकि ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत इन्हें शूद्र श्रेणि में व्यवसथित करने में थे ।


पौराणिक ब्राह्मणों ने केवल राजपूतों को शुद्ध क्षत्रिय घोषित कर दिया। 
क्योंकि बौद्ध और जैन धर्म से  ब्राह्मणों का विरोध था 
ब्राह्मण बौद्धों को हराने के लिए राजपूतों को अपना रहे थे 
चारण भाट बंजारे शक सीथियन आदि जन-जातियों 'ने राजपूत संघ में प्रवेश किया।

इसलिए अनेक जातियों के लोग स्वयं को राजपूत और राजपूतवंशी कहलाने में अपनी महत्ता समझने लगे।
ये  सुनार, गडरिये, छीपी, कोरी, कुर्मी, बंजारे, कहार किरार बाच चारण भूभाड़िया आदि जातियां भी अपने को राजपूत कहने लगीं।

 राजपूत शासनकाल और इनके शक्तिकाल में जो दल इनके साथी या सहायक बनते रहे वे सब राजपूत कहलाने लगे।


राजपूत संघ जाट, गुर्जर, अहीर, भारतीय क्षत्रिय आर्यों तथा शक, सीथियन, हूण आदि अनेक जातियों का मिला जुला संघ है।

अंग्रेज लेखकों ने राजपूतों को विदेशी आक्रमणकारी लिखा है जो भारत में आकर बस गये, यह भारत देश के लोग नहीं हैं। 
किन्तु राजपूतों के  बहुत से गोत्र स्पष्ट तौर से प्रमाण देते हैं कि ये लोगों में भी असली क्षत्रिय  हैं जो भारतवर्ष के आदि-निवासी हैं, जो राजपूत कहलाने से पहले जाट, गुर्जर और अहीरो के रूप में थे।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 113 पर लिखा है कि “दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में बनी राजपूत जाति, जाट और गुर्जरों का संघ है।”


आगे यही लेखक पृ० 66-67 पर लिखते हैं कि “हम चैलेंज पूर्वक कहते हैं कि भाटों और व्यासों की बहियों (पोथियों) में जाटों को राजपूतों में से होने की जो कथा लिखी हुई है, वह सफेद झूठ है।” 
सभी राजपूत विदेशी नहीं जिनके गौत्र गुर्जर जाट और अहीरों से मिलते हैं वे मूलतः पहले गुर्जर जाट और अहीरों से सम्बद्ध थे ।
यहां केवल जस्टिस कैम्पवेल का मत इस विषय में दिया जाता है ।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने राजपूतों के विषय में लिखा है -

यह दशवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी में जाट ,अहीर और गुर्जरों से बना राजपूत संघ है।

भविष्य पुराण में साफ लिखा हुआ है कि “आबू पर्वत का यज्ञ सम्मेलन बौद्धों के विरुद्ध किया गया था जिसका तात्पर्य बौद्धों के विरुद्ध एक नवीन योद्धा संघ बनाने का था।” (भविष्य पुराण, लेखक एस० आर० शर्मा (1970 बरेली)। (पृ० 171, 174, 175)।
भविष्य पुराणों का सम्पादन कार्य अठारह वीं सदी तक चलता रहा है।
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जाट, अहीर, गुर्जर जिन्होंने नवीन हिन्दू / ब्राह्मण धर्म (पौराणिक धर्म) अपना लिया वे राजपूत कहलाए और जो इस धर्म के अनुयायी नहीं बने वे

 जाट, अहीर, गुर्जर नाम से ही कहलाते रहे।

 जाट और राजपूतों के पूर्वपुरुष एक ही थे। 
जाट और राजपूत जाति एक ही पुरखा की संतान हैं। (पृ० 116)

जाट इतिहास अंग्रेजी, लेखक लेफ्टिनेंट रामसरूप जून ने राजपूतों के विषय में लिखा है -

अहीरों के कुछ प्रमुख गौत्र जो विभिन्न राज्यों में हैं ।
गूजरों और जाटों से भी मिलते हैं ।
देखें निम्नलिखित अहीके गौत्र।.👇

महाराष्ट्र:- अहीर, यादव, राधव, ग्वाला, गौल्ला, पंवार, शिर्द भालेकर, धूमल, लटके, घोले, धगे, महादिक, खेडकर, वजहा, नारे, फगबले, डाबरे, मिरटल, काटे, किलाजे, तटकर, चीले, दलाया, बनिया, जांगडे , भारवाड़।


उत्तर प्रदेश:- अहीर, घोसी, कमरिया, ग्वाला, यादव, यदुवंशी इनमें बी बहुत से उप गोत्र हैं विशेषत कमरिया और घोसी अहीरों में | 

अहीरों की शाखाएं हें: वेणुवंशी, भिरगुडी, दोहा, धनधौरी, गद्दी, गोमला, घोड़चढ़ा, घोषी, गूजर, खूनखुनिया, राजोरिया, और रावत |

मध्य युग में यादवों का एक समूह मराठों में, दूसरा जाटों में और तीसरा समूह गूजरों और कुछ राजपूतों में विलीन हो गया| 

जैसलमेर के भाटी अहीर  यादव राजपूत हो गये,
कुछ गूजरों में चले गये ।
 पटियाला, नाभा, आदि के जादम शासक जाट हो गए|

 इसी प्रकार भरतपुर के यादव शासक भी कालांतर में जाट संघ में विलीन होकर जाट कहलाने लगे|

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, व मध्य प्रदेश के जादौन अपने को कृष्ण के वंशज बताते हें पर ठाकुर कहलवाते हें
जादौनों की निकासी मथुरा के यादव शासक ब्रह्मपाल अहीर से  है ।👇


 शिवाजी की माँ जिजाबाई यादव वंश में पैदा हुई थी|
पटियाला के महधिराज का तो विरुद्ध ही था: "यदुकुल अवतंश, भट्टी भूषण|"
मध्य प्रदेश:- अहीर, ग्वाला, ग्वाल, गोलाआ, कंस, ठाकुर, जाधव (जादव), गोप, रापत, राव, घोषी आदि|

इनके दो मुख्य भाग है:- हवेलियों में रहने वाले, तथा बिरचिया- जंगलो में बसनेवाले यादव|

आन्ध्र प्रदेश:- गोल्ला, धनगर, एड्द्यर, कोनार, कुब्र, कुर्वा, यादव, पेरागेल्ला (कुछ अपने नाम के अंत में राव, रेड्डी, रेड्द्य्याह, स्वामी, आदि लगाते है| 

गोत्र/ शाखाए:- फल्ला, पिनयानि, प्रकृति, दुई, सरसिधिदी, सोनानोयाना, नमी, डोकरा, प्रिय्तल, मनियाला, रोमला, बोरी, तुमदुल्ला, खारोड़, कोन एव गुन्तु बोयना|

आसाम, त्रिपुरा, सिक्किम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल आदि पूर्वी राज्य:- ग्वाला, घोष, गोअल, गोआला, गोप, अहीर, यादव, मंडल, पाल|

आन्दमान तथा निकोबार द्वीप समूह:- यादव, रोलाला, काटू, भाटी एवं कोणार|

बिहार:- यादव, ग्वाला, गोप, अहीर, सदगोप, घोषी, नंदगोप, गोरिया, गोयल, सफलगोप|

मुख्य शाखाएं:- महरोत, सत्मुलिया, किशनोंत, गोरिया या दहिराज तथा धहियारा, मंडल, महतो (महता), गुरुमहता, खिरहरी, मारिक, भंडारी, मांजी, लोदवयन, राय, रावत, नन्दनिया|

गुजरात:- आहिर, अहीर, यादव, ग्वाला|

हरियाणा, चन्दीगढ़, पंजाब, हिमाचल, राजस्थान, एवं देहली के यादव अहीर, ग्वाला, गोवाला, राव तथा यादव कहलाते है|

कर्णाटक:- गौल्ला, गौवली, गोपाल, यादव, अस्थाना, अडवी, गोल्ला, हंबर, दुधिगोला, कोणार, गौडा, गौड़ा|
कन्नड़ गौला की शाखाएं:- हल, हव, कड, कम्पे, उज|
बेलगाँव की शाखाएं:- अडवी अथवा तेलगु, हनम, किशनौत, लेंगुरी, पकनक, और शस्यगौला|
बीजापुर की शाखाएं:- मोरे, पवार, शिंदे, और यादव अथवा जाधव (जादव)

केरल:- यादव, एडायन, एरुमन, कोयला, कोलना, मनियाना, अय्यर, नैयर, उर्लीनैयर, कोणार, पिल्लै, कृष्नावाह, नाम्बियार|

गोवा:- यादव, ग्वलि, ग्वाला, अहीर, गोप, गवली|
तमिलनाडु और पांडिचेरी:- एथियर, एडियर,कोणार, उदयर, यादवन, वडूगा अय्यर, वदुगा एदेअय्यर, गोल्ला, मोंड गोल्ला, कोण, पिल्लै, मंथी, दास, करयालन,

पश्चिमी बंगाल:- अहीर, गोल्ला, गोप, सदगोप, घोष, यादव, मंडल, ग्वार, पाल, दास, महतो, मासिक, फाटक, गुरुमहता, कपास|
(कुछ घोष कायस्थों के संघ में समाहित हो गये )

उड़ीसा:- प्रधान, गोला, गोल्ला, गोप, सदगोप, अहीर, गौर्र, गौडा, मेकल, गौल्ला, यादव, पाल, भुतियाँ, रावत, गुर्भोलिया,महतो|

दादरा एवं नागर हवेली:- अहीर/ आहिर, भखाद, यादव
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गोत्र उन लोगों को संदर्भित करता है जिनका वंशज एक आम पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है।

व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पणिनी में की गोत्र परिभाषा है 'अपत्यम् पौत्रप्रभृति गोत्रम्' (4.1.162), अर्थात 'गोत्र शब्द का अर्थ हैे पुत्र के पुत्र के साथ प्रारम्भ होने वाली सन्तान से है ।

अष्टाध्यायी के अनुसार "अपत्यं प्रभृति यद गोत्रम् पौत्र", एक पुरखा के पोते, पडपोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी।

 मुख्य रूप से चार वंश है
जाट संघ में गोत अधिक हैं इनकी संख्या दश हजार तक भी है।
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चंद्रवंशी मूल के जाट

आर्यों में क्षत्रिय जो चन्द्रमा की पूजा करते थे अथवा -जो सैमेटिक थे । 

भागवतपुराण के अनुसार ब्रह्मा के एक अत्रि पुत्र थे जिनके पुत्र (चन्द्र) सोम थे. सोम के बुध पुत्र थे. 

मनु - पुत्री 'इला' का विवाह 'बुध' के साथ हुआ.
 इन दोनों से चन्द्रवंश का चलन होना बताया गया है.
 इनका पहला पुरूरवा पुत्र था इनका बेटा 'नहुष' और नहुष का ययाति. 

जाट जाति का सम्बन्ध 'ययाति' की संतानों के साथ है. श्रीकृष्ण का जन्म भी चन्द्रवंश में हुआ था. 
जाटों में अधिकांश समूह चंद्रवंशियों के हैं.
वंशज चन्द्र भी आग ये चल कर कुछ भागो में बट गया
व्यक्ति के नाम पर  जगह के नाम पर

चन्द्रवंश ( यदुवंश)

 वर्गीकृत मुख्य जाट इस गोत्र प्रकार हैं: आभीर,(आहिर) अहलावत, ओहलावत, अका, ओहर,(आभीर) अजमेरिया, अजमीडिया, अंजुरिया, अनजिया, अधरान,अंदार, अंधला, अंधरा, औद्ध, औधरान, ओद्र, ओध्र, ओंद, ओक, आंध्र, आंध्राणा, अंग, अंजना, आनव, बल, बल, बलयाण, बाल्यान, चीमा, चीना, छीना, अर्क, अत्री, आत्रेय, बल्ल, बलारिया, बल्दवा, ठकुरेला, बनगा, बाना, भादू, भाटू, (भाटी,) बलहारा, भोज, भूरी, भूरिया, बमरौलिया, मिटाण, बुधवार, बधवार, बोध, बोधा, चकोरा, चंधारी, चवेल, (दहिया), दोहन, दाहन, दुहन, दनीवाल, दरद, दराल, दार, दियार, ओरा, ओरे, दुसाध, दोसांझ, गौदल, गठवाल, कठवाल, कठिया, कटवार, गठोये, गठोने, गथवाल, गथना, गादड, गंधार, गंधारी, गांधार, गंडीला, गडीर, गैना, गैणा, गेना, गैन्धर, गैन्धल, गैन्धु, हंस, हांस, हंसावत, हरचतवाल, हुदाह, ऐचरा, जाखड़, जग्गल, जानू, जोहे, (लोधा), कल्हन, खिरवार, खिरवाल, खिनवाल, खिरवाली, खरे, कितावत, करमी, किरम, किचार, कुंतल, खुटैल, खुंटेल, खुंतल, कौंटेल, कुंठळ, कुंडळ, कैरु, कौरव, कसवां, लम्बोरिया, (मधु,) मदेरणा, मद्रक, मद्र मद्रेणा, मधान, मद्, मध, मल्ल, मल्ला, मालय, महला, महलावत, महलान, महलानिया, मल्ली, महलवार, मेहला, मेला, (मावलिया, मावला, मोटसरा, न्योल , नूहनियाँ, नोहर, यटेसर, नलवा, नौहवार, नववीर, नव, नेतड़ा, नेतड़ा, यौधेय, नृग, पाण्डु, पाँडुर, परसवाळ, फरसवाळ, पौरुसवाल, पोरस, पोरसवाल, पौरूस, पनहार, पनही, (पुण्डीर) फोर, (पवार), पोंवार , पोर, पौरिया, पुनरिया, राठी, सरावग, सिनमार, शिवी, सिबी, सिबिया, शिवाज, शूर, सूरा, श्याम, श्योकंद, शॉकीन, श्योराण, सोगरिया, सोगरवाल, सुराहे, दोहन, दाहन, दनीवाल, सुवाल, सेवा सेवलिया, , सियाल, स्याल, तलान, तालान, ताहलाण, तालियान, याट, बसातिया, बसाति, वसु, वैस, बैसवार, वैसोरा, वासोड़ा, बोचल्या, व्रसोली, जोहिया, जोहिल, कुलहरी, खीचड़, माहिल, यटेसर,
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हैमेटिक या 
सूर्यवंशी मूल के जाट
यद्यपि वैदिक कालीन पात्र सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों में भी है जैसे रामऔर इनके पूर्वज जैसे तशरत, राम-सिन, बरत सुन, सिता परशुराम, विश्वामित्र आदि आदि ।

आर्यों में क्षत्रिय जो सूर्य की पूजा करते थे  ब्रह्मा के मारीच पुत्र से कश्यप ऋषि पैदा हुए. 

कश्यप की पत्नी आदिति (दक्ष की पुत्री) से विवस्वान (सूर्य) पैदा हुए एवं उसके मनु पुत्र से इक्षवाकु पैदा हुए जिनसे सूर्यवंश चला. 

राम और लक्ष्मन का जन्म सूर्यवंश में हुआ. 
जाटों में कुछ कम संख्या में समूह सूर्यवंशियों के हैं.

राम के बेटो के नाम पर
सूर्यवंश में वर्गीकृत मुख्य जाट इस गोत्र प्रकार हैं:

 अजमेदिया, असरोध, बुरडक, भारूका, विर्क, वृक, वरिक, चट्ठा, धरतवाल, धनोये, दगोलिया, गरुड़, गोरा, घरूका, गहलोत, गहलावत, गोहिल, इनतर, काक, काकरान, काकराना, कक्कुर, काकतीय, कलसमान, कंग, कांग, कंगरी, कास्या, काश्य, काशिया, कास्यण, कश्यप, कछवाहा, कछवाला, कुश, कसवां, कुसवां, कसुवां, कुसुमा, कुशमान, (कुषाण), कुशवाह, कोयड़, खोये मौर्य मौर्य, , मौरी, भडाडरा, लांगल, लाङ्गा, लांगर, लावा, लांबा, लामवंशी, मान, मीया, म्यां, मियाला, गोलिया, मांगा, बाजवा, महार, महरया, महेरिया, नलवा, नेहरा, यौधेय, नृग, रघुवंशी, राज्यान, राजन राजेन, रोहितिक, वसु, वारसिर, यजानिया, जुनावा, लौर, खत्री
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गुर्जर संघ में भी कुछ अहीरों का समावेश हो गया है
जो अब स्वयं को अब गुर्जर ही कहते हैं ।
भारतीय गुर्जर जातिसंघ में केवल पाँच गोत्र हूण सरदारों के नाम पर हैं, तथा शेष गुर्जर जाट गोत्रों से संबन्धित हैं। कुछ गुर्जर गोत्र जैसे कि (कसाना), खटाना, बिरकेट कुषाणों से सम्बद्ध तो घोषी (या घोर्षी), अहीरों के गोत्र से सम्बद्धहै।
भारतीय मानव विज्ञान शास्त्री के॰एस॰ सिंह के अनुसार-
ग्वाल(ग्वाला), डाढ़ोर, यादव, यदुवंशी, अहीर, किशनौत, गुज्जर, गनेरिया इत्यादि जिन्हें सम्मिलित रूप से ज्यादा से ज्यादा ग्वालों कि उपजाति कहा जा सकता है।
जो वंशमूलक रूप में यदुवंशी हैं और कृष्ण से संबन्धित हैं ये ही पौराणिक विरासत व सम्मान से युक्त ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का प्राचीन जाति समुदाय है,
 जो कि मथुरा - वृन्दावन मूल से उत्पन्न व प्रसारित है।
 ये लोग हिन्दी देवनागरी लिपि मे लिखते हैं, हिन्दी बोलते हैं व जातिगत अंतरगामी व कुल-गोत्र बहिर्गामी विवाह पद्धति का अनुसरण करते है।
 
मुस्लिम घोसी भी अहीर या गुर्जर मूल का दावा करते हैं। मोटे तौर पर, भारत मे अहीर, चारण, गद्दी, गौढ़ा, गुर्जर-घोष या घोसी, घासी, गोवारी, गुज्जर, गुर्जर, ईडुयान, कावुन्दन आदि गोपालकों के रूप में वर्गीकृत किए गए है।
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खानदेश मे अहीरों के पाँच उप-समुदाय हैं- ग्वालवंशी, भार्वतिया,ढिडांवार (ढिंडोर), घोसी व गुर्जर।









Jat tribes in Western Asia and European
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The Thracian Tomb of Sveshtari, 3rd century BC
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The Getae (/ˈdʒiːtiː, ˈɡiːtiː/ JEE-tee, GHEE-tee) or Gets (/dʒɛts, ɡɛts/ JETS, GHETS; 
Ancient Greek: Γέται, singular Γέτης) were several Thracian 
सन्दर्भ:- ब्रिटानिका, इंक। 16 अगस्त, 2018 को लिया गया। गेटे, थ्रेसियन मूल के एक प्राचीन लोग, निचले डेन्यूब क्षेत्र और पास के मैदानों के किनारे बसे हुए हैं।


 tribes that once inhabited the regions to either side of the Lower Danube,
 in what is today northern Bulgaria and southern Romania.

 Both the singular form Get and plural Getae may be derived from a Greek exonym:

 the area was the hinterland of Greek colonies on the Black Sea coast, bringing the Getae into contact with the ancient Greeks from an early date. 

Although it is believed that the Getae were related to their westward neighbours, the Dacians, several scholars, especially in the Romanian historiography, posit that the Getae and the Dacians were the same people.

Ethnonym :-

The ethnonym Getae was first used by Herodotus. The root was also used for the (Tyragetae,) Thyssagetae, Massagetae, and others.

(Getae and Dacian)



Beaker with birds and animals, Thraco-Getian, 4th century BC, silver, height: 18.7 cm (7.4 in), Metropolitan Museum of Art
Strabo, one of the first ancient sources to mention Getae and Dacians, stated in his Geographica
 (c. 7 BC – 20 AD) that the Dacians lived in the western parts of Dacia, "towards Germania and the sources of the Danube", 
while the Getae lived in the eastern parts, towards the Black Sea, both south and north of the Danube.[2]

 The ancient geographer also wrote that the Dacians and Getae spoke the same language,[3] 
after stating the same about Getae and Thracians.[4]

Pliny the Elder, in his Naturalis Historia (Natural History), c. 77–79 AD, stated something similar: "... though various races have occupied the adjacent shores; at one spot the Getae, by the Romans called Daci".[5]

Appian, who began writing his Roman History under Antoninus Pius, Roman Emperor from 138 to 161, 

noted: "[B]ut going beyond these rivers in places they rule some of the Celts over the Rhine and the Getae over the Danube, whom they call Dacians".[6][7]

Justin, the 3rd century AD Latin historian, wrote in his Epitome of Pompeius Trogus that Dacians are spoken of as descendants of the Getae: "Daci quoque suboles Getarum sunt" (The Dacians as well are a scion of the Getae).[8][9]

In his Roman History (c. 200 AD), Cassius Dio added: "I call the people Dacians, the name used by the natives themselves as well as by the Romans, though I am not ignorant that some Greek writers refer to them as Getae, whether that is the right term or not...".[10][11] 

He also said the Dacians lived on both sides of the Lower Danube; the ones south of the river (today's northern Bulgaria), in Moesia, were called Moesians, while the ones north of the river were called Dacians. 
He argued that the Dacians are "Getae or Thracians of Dacian race":[12]

In ancient times, it is true, Moesians and Getae occupied all the land between Haemus and the Ister; but as time went on some of them changed their names, and since then there have been included under the name of Moesia all the tribes living above Dalmatia, Macedonia, and Thrace, and separated from Pannonia by the Savus, a tributary of the Ister.

 Two of the many tribes found among them are those formerly called the Triballi, and the Dardani, who still retain their old name.[13]

Modern interpretations
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There is a dispute among scholars about the relations between the Getae and Dacians, and this dispute also covers the interpretation of ancient sources. 

Some historians such as (Ronald Arthur )Crossland state that even Ancient Greeks used the two designations "interchangeable or with some confusion". 
___
Thus, it is generally considered that the two groups were related to a certain degree,[14] 

the exact relation is a matter of controversy.

Same people :-Onomastic range of the Dacian, Getae, and Moesian towns with the dava or deva ending, covering Dacia, Moesia, Thrace, and Dalmatia, and showcasing linguistic continuity
Strabo, 

as well as other ancient sources, led some modern historians to consider that, if the Thracian ethnic group should be divided, one of this divisions should be the "Daco-Getae".[15]

 The linguist Ivan Duridanov also identified a "Dacian linguistic area"[16] 
in Dacia, Scythia Minor, Lower Moesia, and Upper Moesia.

Romanian scholars generally went further with the identification, historian Constantin C. Giurescu claiming the two were identical.[17] The archaeologist Mircea Babeș spoke of a "veritable ethno-cultural unity" between the Getae and the Dacians.[citation needed] According to Glanville Price, the account of the Greek geographer Strabo shows that the Getae and the Dacians were one and the same people.

[18] Others who support the identity between Getae and Dacians with ancient sources include freelance writer James Minahan and Catherine 
B Avery, who claim the people whom the Greek called Getae were called Daci by the Romans.[19]
 [20] 

This same belief is stated by some British historians such as David Sandler Berkowitz and Philip Matyszak.[21][22]

 The Bulgarian historian and thracologist Alexander Fol considers that the Getae became known as "Dacians" in Greek and Latin in the writings of Caesar, Strabo and Pliny the Elder, as Roman observers adopted the name of the Dacian tribe to refer to all the unconquered inhabitants north of the Danube.[23]

 Also, Edward Bunbury believed the name of Getae, by which they were originally known to the Greeks on the Euxine, was always retained by the latter in common usage: 
while that of Dacians, whatever be its origin, was that by which the more western tribes, adjoining the Pannonians, first became known to the Romans.[24] 

Some scholars consider the Getae and Dacians to be the same people at different stages of their history and discuss their culture as Geto-Dacian.[25]

Same language, distinct people

Historian and archaeologist Alexandru Vulpe found a remarkable uniformity of the Geto-Dacian culture
,[26]

 however he is one of the few Romanian archaeologists to make a clear distinction between the Getae and Dacians, arguing against the traditional position of the Romanian historiography that considered the two people the same.[27]

 Nevertheless, he chose to use the term "Geto-Dacians" as a conventional concept for the Thracian tribes inhabiting the future territory of Romania, not necessarily meaning an "absolute ethnic, linguistic or historical unity".[27]

Ronald Arthur Crossland suggested the two designations may refer to two groups of a "linguistically homogeneous people" that had come to historical prominence at two distinct periods of time. 

He also compared the probable linguistic situation with the relation between modern Norwegian and Danish languages.[28] 

Paul Lachlan MacKendrick considered the two as "branches" of the same tribe, speaking two dialects of a common language.[29]

The Romanian historian of ideas and historiographer Lucian Boia stated: "At a certain point, the phrase Geto-Dacian was coined in the Romanian historiography to suggest a unity of Getae and Dacians".
[30]
 Lucian Boia took a sceptical position, arguing the ancient writers distinguished among the two people, treating them as two distinct groups of the Thracian ethnos.[30][31]

 Boia contended that it would be naive to assume Strabo knew the Thracian dialects so well,[30] 
alleging that Strabo had "no competence in the field of Thracian dialects".
[31] The latter claim is contested, some studies attesting Strabo's reliability and sources.[32] 

There is no reason to disregard Strabo's belief that the Daci and the Getae spoke the same language.[18] 

Boia also stressed that some Romanian authors cited Strabo indiscriminately.[31]

A similar position was adopted by Romanian historian and archaeologist G. A. Niculescu, who also criticized the Romanian historiography and the archaeological interpretation, particularly on the "Geto-Dacian" culture.[33]

 In his opinion, Alexandru Vulpe saw ancient people as modern nations, leading the latter to interpret the common language as a sign of a common people, despite Strabo making a distinction between the two.[27]
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Suggested link to Jats
There have long been attempts to link the Getae and Massagetae to the Jats of South Asia. Likewise, the Dacians have been linked to the Dahae of Central Asia (and the Dahae to the Dasas of South Asia).
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W. W. Hunter claimed in 1886, suggested that the Jats were an Iranian people – most likely Scythian/Saka in origin,[34] 

Alexander Cunningham (1888) believed that references in classical European sources – like Strabo, Ptolemy and Pliny – to peoples such as the Zaths, may have been the Getae and/or Jats.[35][36] 

More recent authors, like Tadeusz Sulimirski,[37] Weer Rajendra Rishi,[38] and Chandra Chakraberty,[39][40] 
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have also linked the Getae and Jats.

Less credible, however, are parallel claims by Alexander Cunningham that the Xanthii (or Zanthi) and Iatioi – mentioned by Strabo, Ptolemy and Pliny – may have been synonymous with the Getae and/or Jats.[35] 

The Xanthii were later established to be a subgroup (tribe or clan) of the Dahae.

 Subsequent scholars, such as Edwin Pulleyblank, Josef Markwart (also known as Joseph Marquart) and László Torday, suggest that Iatioi may be another name for a people known in classical Chinese sources as the Yuezhi and in South Asian contexts as the Kuṣānas (or Kushans).[36]

History :-


Eastern Europe in 200 BC showing the Getae tribes north of the Danube river
7th – 4th century BC


From the 7th century BC onwards, the Getae came into economic and cultural contact with the Greeks, who were establishing colonies on the western side of Pontus Euxinus, nowadays the Black Sea. The Getae are mentioned for the first time together in Herodotus in his narrative of the Scythian campaign of Darius I 
in 513 BC, during which the latter conquered the Getae.[41] 

According to Herodotus, the Getae differed from other Thracian tribes in their religion, centered around the god (daimon) Zalmoxis whom some of the Getae called Gebeleizis.[42]

Between the 5th and 3rd centuries BC, the Getae were mostly under the rule of the flourishing Odrysian kingdom. During this time, the Getae provided military services and became famous for their cavalry. After the disintegration of the Odrysian kingdom, smaller Getic principalities began to consolidate themselves.

Prosperity :-

Before setting out on his Persian expedition, Alexander the Great defeated the Getae and razed one of their settlements.[43] 

In 313 BC, the Getae formed an alliance with Callatis, Odessos, and other western Pontic Greek colonies against Lysimachus, who held a fortress at Tirizis (modern Kaliakra).[44]

The Getae flourished especially in the first half of the 3rd century BC. By about 200 BC, the authority of the Getic prince, Zalmodegicus, stretched as far as Histria, as a contemporary inscription shows.[45] 
Other strong princes included Zoltes and Rhemaxos (about 180 BC). Also, several Getic rulers minted their own coins. The ancient authors Strabo[46] 
and Cassius Dio[47]

 say that Getae practiced ruler cult, and this is confirmed by archaeological remains.

Conflict with Rome :-
In 72–71 BC Marcus Terentius Varro Lucullus became the first Roman commander to march against the Getae. 

This was done to strike at the western Pontic allies of Mithridates VI, but he had limited success. A decade later, a coalition of Scythians, Getae, Bastarnae and Greek colonists defeated C. Antonius Hybrida at Histria.[48][49] 
This victory over the Romans allowed Burebista, the leader of this coalition, to dominate the region for a short period (60–50 BC).

In the mid-first BC Burebista organized a kingdom consisting of descendants of those whom the Greeks had called Getae, as well as Dacians, or Daci, the name applied to people of the region by the Romans.[25]

Augustus aimed at subjugating the entire Balkan peninsula, and used an incursion of the Bastarnae across the Danube as a pretext to devastate the Getae and Thracians.

 He put Marcus Licinius Crassus in charge of the plan. In 29 BC, Crassus defeated the Bastarnae with the help of the Getic prince Rholes.[50]

 Crassus promised him help for his support against the Getic ruler Dapyx.[51]
 After Crassus had reached as far the Danube Delta, Rholes was appointed king and returned to Rome.

 In 16 BC, the Sarmatae invaded the Getic territory and were driven back by Roman troops.[52] The Getae were placed under the control of the Roman vassal king in Thrace, Rhoemetalces I. 

In 6 AD, the province of Moesia was founded, incorporating the Getae south of the Danube River. The Getae north of the Danube continued tribal autonomy outside the Roman Empire.

Culture :-

According to Herodotus, the Getae were "the noblest as well as the most just of all the Thracian tribes".[53]

 When the Persians, led by Darius the Great, campaigned against the Scythians, the Thracian tribes in the Balkans surrendered to Darius on his way to Scythia, and only the Getae offered resistance.[53]

One episode from the history of the Getae is attested by several ancient writers.[54][55]

When Lysimachus tried to subdue the Getae he was defeated by them. The Getae king, Dromichaetes, took him prisoner but he treated him well and convinced Lysimachus there is more to gain as an ally than as an enemy of the Getae and released him. According to Diodorus, Dromichaetes entertained Lysimachus at his palace at Helis, where food was served on gold and silver plates.

 The discovery of the celebrated tomb at Sveshtari (1982) suggests that Helis was located perhaps in its vicinity,[56] where remains of a large antique city are found along with dozens of other Thracian mound tombs.

As stated earlier, just like the Dacians, the principal god of the Getae was Zalmoxis whom they sometimes called Gebeleizis.

This same people, when it lightens and thunders, aim their arrows at the sky, uttering threats against the god; and they do not believe that there is any god but their own.
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— Herodotus. Histories, 4.94.
Pliny the Elder in his Naturalis Historia mentions a tribe called the Tyragetae,[57]
 apparently a Daco-Thracian tribe who dwelt by the river Tyras (the Dniester). 

Their tribal name appears to be a combination of Tyras and Getae; 
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see also the names Thyssagetae and Massagetae.

The Roman poet Ovid, during his long exile in Tomis, is asserted to 



स्वेश्तरी का थ्रेसियन मकबरा, तीसरी शताब्दी ई.पू.
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गेटे (/ ˈdʒiatiˈɡ, ːiːti J / JEE-tee, GHEE-tee) या हो जाता है (/ dʒɛts, /ts / JETS, GHETS;
प्राचीन ग्रीक: Greekαι, एकवचन several) कई थ्रेशियन थे 
(सन्दर्भ:-[1]एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, इंक।
 16 अगस्त, 2018 को लिया गया। गेटे, थ्रेसियन मूल के एक प्राचीन लोग, निचले डेन्यूब क्षेत्र और पास के मैदानों के किनारे बसे हुए हैं।)


 जनजातियाँ जो एक बार निचले डेन्यूब के दोनों ओर के क्षेत्रों का निवास करती थीं,
 क्या आज उत्तरी बुल्गारिया और दक्षिणी रोमानिया है।

 दोनों एकवचन रूप प्राप्त करें और बहुवचन Getae एक ग्रीक नाम से लिया जा सकता है:

 यह क्षेत्र काले सागर तट पर ग्रीक उपनिवेशों का केंद्र था, जो प्राचीन युग के आरंभिक दिनों के साथ गेटा के संपर्क में था।

हालांकि यह माना जाता है कि गेटे उनके पश्चिम के पड़ोसी, डैसीयन से संबंधित थे, कई विद्वान, विशेष रूप से रोमानियाई इतिहासलेखन में, यह मानते हैं कि गेटे और डेसीयन एक ही लोग थे।

Ethnonym: -

सबसे पहले गेटन का इस्तेमाल हेरोडोटस ने किया था। जड़ (टायरगेटे, थिस्सागेटे, मस्सागेटे, और अन्य) के लिए भी इस्तेमाल किया गया था।

(गेटे और डासियन)



पक्षियों और जानवरों के साथ बीकर, थ्रैको-गेटियन, चौथी शताब्दी ईसा पूर्व, चांदी, ऊंचाई: 18.7 सेमी (7.4 इंच), मेट्रोपॉलिटन म्यूजियम ऑफ आर्ट
स्ट्रेबो, गेटा और डैशियन्स का उल्लेख करने वाले पहले प्राचीन स्रोतों में से एक, उनके भूगोल में कहा गया है
 (सी। ians ई.पू. - २० ई.प.) कि डैकिया के पश्चिमी हिस्सों में डैसियन रहते थे, "जर्मनिया और डेन्यूब के स्रोत",
गेटा पूर्वी भागों में रहते थे, काला सागर की ओर, डेन्यूब के दक्षिण और उत्तर दोनों ओर।
सन्दर्भ स्ट्रैबो एंड २० ईस्वी, VII ३,१३।)

 प्राचीन भूगोलवेत्ता ने यह भी लिखा कि डैसीयन और गेटे एक ही भाषा बोलते थे, [3]
गेटे और थ्रेसियन के बारे में समान बताने के बाद। [4]

प्लिनी द एल्डर, नेचुरलिस हिस्टोरिया (प्राकृतिक इतिहास) में, सी। 77-79 ई।, कुछ इसी तरह से कहा गया है: "... हालांकि विभिन्न नस्लों ने आसन्न तटों पर कब्जा कर लिया है, एक स्थान पर गेटे, रोमन द्वारा डेसी" कहा जाता है। "[5]

एपियन, जिन्होंने एंटोनिनस पायस के तहत अपना रोमन इतिहास लिखना शुरू किया, रोमन सम्राट 138 से 161 तक

नोट किया गया: "[ख] इन नदियों के पार जाने के स्थान पर वे राइन के ऊपर कुछ सेल्ट्स और डेन्यूब के ऊपर गेटे पर शासन करते हैं, जिन्हें वे डेसियन कहते हैं"। [६] []]

जस्टिन, तीसरी शताब्दी ईस्वी लैटिन इतिहासकार, ने अपने एपिटोम ऑफ पोम्पेयस ट्रोगस में लिखा है कि डेसीयन गेटे के वंशज के रूप में बोले जाते हैं: "डेसी क्वोक सूपर गेटारम सन" (डैकियन के साथ-साथ गेटए के एक वंशज हैं)। [AD] [9]

अपने रोमन इतिहास (सी। 200 ई।) में, कैसियस डियो ने कहा: "मैं लोगों को डैसियन कहता हूं, नाम का उपयोग स्वयं मूल निवासी और साथ ही रोमन करते हैं, हालांकि मैं अनजान नहीं हूं कि कुछ ग्रीक लेखक गेटे का उल्लेख करते हैं। , कि सही शब्द है या नहीं ... "[१०] [११]

उन्होंने यह भी कहा कि डेसियन लोअर डेन्यूब के दोनों किनारों पर रहते थे; नदी के दक्षिण में (आज का उत्तरी बुल्गारिया), Moesia में, Moesians कहा जाता था, जबकि नदी के उत्तर में Dacians कहा जाता था।
उन्होंने तर्क दिया कि डेसीयन "गेटे या डेक्रियन जाति के थ्रेशियन हैं": [१२]

प्राचीन काल में, यह सच है, हेसियस और गेटे ने हेमस और इस्टर के बीच सभी भूमि पर कब्जा कर लिया; लेकिन जैसे ही समय बीतता गया उनमें से कुछ ने अपना नाम बदल दिया, और तब से मोतिया के नाम के तहत सभी कबीले डालमिया, मैसेडोनिया और थ्रेस के ऊपर रहने लगे, और सॉनस, आइस्टर की एक तबाही से पन्नोनिया से अलग हो गए।

 उनके बीच पाई जाने वाली कई जनजातियों में से दो को पहले आदिवासी और दारदानी कहा जाता था, जो अब भी अपना पुराना नाम बरकरार रखते हैं। [१३]

आधुनिक व्याख्या
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गेटे और डैकियन के संबंधों के बारे में विद्वानों में विवाद है, और यह विवाद प्राचीन स्रोतों की व्याख्या को भी कवर करता है।

कुछ इतिहासकार जैसे (रोनाल्ड आर्थर) क्रॉसलैंड बताते हैं कि प्राचीन यूनानियों ने भी दो पदनामों का उपयोग किया था "विनिमेय या कुछ भ्रम के साथ"।
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इस प्रकार, आमतौर पर यह माना जाता है कि दो समूह एक निश्चित डिग्री से संबंधित थे, [14]

सटीक संबंध विवाद का विषय है।

एक जैसे लोग: -ओसोमैटिक रेंज ऑफ़ द डैशियन, गेटे, और मॉसियन टाउनज़ इन दवा या डेवा एंडिंग, कवरिंग देशिया, मोइशिया, थ्रेस और डेलमेटिया और लिकिंगसिटी निरंतरता
स्ट्रैबो,

अन्य प्राचीन स्रोतों के साथ-साथ, कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने इस पर विचार करने के लिए नेतृत्व किया कि अगर थ्रेशियन जातीय समूह को विभाजित किया जाना चाहिए, तो इस विभाजन में से एक "डको-गेटे" होना चाहिए। [१५]

 भाषाविद् इवान डुरिडानोव ने भी "डासियन भाषाई क्षेत्र" की पहचान की [16]
Dacia, Scythia Minor, Lower Moesia और Upper Moesia में।

रोमानियाई विद्वान आम तौर पर पहचान के साथ आगे बढ़ते हैं, इतिहासकार कॉन्स्टेंटिन सी। गिरेस्कु दावा करते हैं कि दोनों समान थे। [१ with] पुरातत्वविद Mircea Babe archae ने गेटे और डैकियों के बीच एक "सत्य नैतिक-सांस्कृतिक एकता" की बात की। [उद्धरण वांछित] ग्लेनविले मूल्य के अनुसार, ग्रीक भूगोलवेत्ता स्ट्रैबो के खाते से पता चलता है कि गेटे और डैसियन एक और एक ही लोग थे। ।

[१ support] अन्य जो प्राचीन स्रोतों के साथ गेटा और डैकियन के बीच की पहचान का समर्थन करते हैं, उनमें स्वतंत्र लेखक जेम्स मिनाहन और कैथरीन शामिल हैं
B Avery, जो दावा करते हैं कि जिन लोगों ने ग्रीक को गेटे कहा था उन्हें रोम के लोग Daci कहते थे। [१ ९]
 [20]

इसी विश्वास को कुछ ब्रिटिश इतिहासकारों जैसे डेविड सैंडलर बर्कोवित्ज़ और फिलिप मैटिसज़क ने भी कहा है। [२१] [११]

 बुल्गारियाई इतिहासकार और थ्रैकोलॉजिस्ट अलेक्जेंडर फूल मानते हैं कि गेटे ग्रीक और लैटिन में सीज़र, स्ट्रैबो और प्लिनी द एल्डर के लेखन में "डेसीयन" के रूप में जाना जाता है, क्योंकि रोमन पर्यवेक्षकों ने सभी असंबद्ध निवासियों का उल्लेख करने के लिए डेशियन जनजाति का नाम अपनाया था। डेन्यूब के उत्तर में। [23]

 इसके अलावा, एडवर्ड बानबरी ने गेटे के नाम पर विश्वास किया था, जिसके द्वारा वे मूल रूप से यूनान के यूनानियों के लिए जाने जाते थे, उन्हें हमेशा सामान्य उपयोग में बाद में बनाए रखा गया था:
जब कि डैसियन, जो भी इसका मूल है, वह वह था, जिसके द्वारा अधिक पश्चिमी जनजातियों, जो कि पन्नोनियों से सटे थे, पहले रोमन लोगों के लिए जाना जाने लगा। [२४]

कुछ विद्वान गेटे और डासियन को अपने इतिहास के विभिन्न चरणों में एक ही व्यक्ति मानते हैं और गेटो-डेशियन के रूप में उनकी संस्कृति पर चर्चा करते हैं। [२५]

एक ही भाषा, अलग लोग

इतिहासकार और पुरातत्वविद् अलेक्जेंड्रू वल्पे ने गेटो-डेशियन संस्कृति की उल्लेखनीय एकरूपता पाई
[26]

 हालाँकि, वे कुछ रोमानियाई पुरातत्वविदों में से एक हैं जिन्होंने गेटे और डैकियन्स के बीच स्पष्ट अंतर करने के लिए, रोमानियाई इतिहासलेखन की पारंपरिक स्थिति के खिलाफ बहस की, जिसने दोनों लोगों को एक ही माना। [२ the]

 फिर भी, उन्होंने "गेटो-डेशियंस" शब्द का उपयोग रोमानिया के भविष्य के इलाके में निवास करने वाले थ्रेसियन जनजातियों के लिए एक पारंपरिक अवधारणा के रूप में किया, जरूरी नहीं कि इसका अर्थ "पूर्ण जातीय, भाषाई या ऐतिहासिक एकता" हो। [27]

रोनाल्ड आर्थर क्रॉसलैंड ने सुझाव दिया कि दो पदनाम "भाषाई रूप से सजातीय लोगों" के दो समूहों को संदर्भित कर सकते हैं जो दो अलग-अलग समय पर ऐतिहासिक प्रमुखता में आए थे।

उन्होंने आधुनिक नॉर्वेजियन और डेनिश भाषाओं के बीच संभावित भाषाई स्थिति की तुलना की। [२able]

पॉल लाचलैन मैककेंड्रिक ने दोनों को एक ही जनजाति की "शाखाएँ" माना, एक सामान्य भाषा की दो बोलियाँ।

विचारों के रोमानियाई इतिहासकार और इतिहासकार लुसियन बोआया ने कहा: "एक निश्चित बिंदु पर, गेटो-डेशियन को रोमानियाई इतिहासकार में गेटा और डासियन की एकता का सुझाव देने के लिए तैयार किया गया था"।
[30]
 लुसियन बोया ने संदेहजनक स्थिति ली, प्राचीन लेखकों को दो लोगों के बीच प्रतिष्ठित करते हुए, उन्हें थ्रेशियन नृवंश के दो अलग-अलग समूहों के रूप में माना। [३०] [३१]

 बोआ ने तर्क दिया कि यह मानना ​​आसान होगा कि स्ट्रैबो थ्रेशियन बोलियों को अच्छी तरह से जानता था, [30]
यह आरोप लगाते हुए कि स्ट्रैबो की "थ्रेशियन बोलियों के क्षेत्र में कोई योग्यता नहीं है"।
[३१] बाद का दावा किया जाता है, स्ट्रैबो की विश्वसनीयता और स्रोतों को ध्यान में रखते हुए कुछ अध्ययन। [३२]

स्ट्रैबो के इस विश्वास की अवहेलना करने का कोई कारण नहीं है कि डेसी और गेटे ने एक ही भाषा बोली थी। [१ dis]

बोआ ने यह भी जोर देकर कहा कि कुछ रोमानियाई लेखकों ने स्ट्रैबो का अंधाधुंध तरीके से हवाला दिया। [३१]

इसी तरह की स्थिति रोमानियाई इतिहासकार और पुरातत्वविद् जी ए निकुलेस्कु ने अपनाई, जिन्होंने रोमानियाई इतिहासलेखन और पुरातात्विक व्याख्या की आलोचना की, विशेष रूप से "गेटो-डेशियन" संस्कृति पर। [33]

 अपनी राय में, अलेक्जेंड्रू वल्पे ने प्राचीन लोगों को आधुनिक राष्ट्रों के रूप में देखा, जिसके कारण बाद में आम लोगों को आम लोगों के संकेत के रूप में व्याख्या करने के लिए प्रेरित किया गया, बावजूद इसके कि स्ट्रैबो ने दोनों के बीच अंतर किया। [२and]
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जाटों को सुझाया लिंक
लंबे समय से दक्षिण एशिया के जाटों के लिए गेटे और मस्सागेटे को जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है। इसी तरह, डैशियनों को मध्य एशिया के दाहे (और दक्षिण एशिया के दासों के लिए दाहे) से जोड़ा गया है।
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डब्ल्यू। डब्ल्यू। हंटर ने 1886 में दावा किया था कि जाट एक ईरानी लोग थे - मूल रूप से स्काइथियन / साका, [34]

अलेक्जेंडर कनिंघम (1888) का मानना ​​था कि शास्त्रीय यूरोपीय स्रोतों - जैसे स्ट्रैबो, टॉलेमी और प्लिनी - में ज़ैथ्स जैसे लोग, गेटे और / या जाट हो सकते हैं। [35] [36]

हाल ही के लेखक, जैसे तेदुस्स सुलेमीरस्की, [३ T] वीर राजेंद्र ऋषि, [३ and] और चंद्र चक्रवर्ती, [३ ९] [४०]
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गेटे और जाटों को भी जोड़ा है।

कम विश्वसनीय, हालांकि, अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा समानांतर दावे हैं कि ज़ेंथि (या ज़ांथी) और इतिओसी - स्ट्रैबो, टॉलेमी और प्लिनी द्वारा उल्लिखित - गेटा और / या जाटों का पर्याय हो सकता है। [35]

Xanthii को बाद में दाहे के एक उपसमूह (जनजाति या कबीले) के रूप में स्थापित किया गया था।

 बाद के विद्वानों, जैसे कि एडविन पुलीब्लांक, जोसेफ मार्कवर्ट (जोसेफ मार्क्वार्ट के नाम से भी जाना जाता है) और लेज़्ज़्लो टोर्डे, का सुझाव है कि इओतिई शास्त्रीय चीनी स्रोतों में यूज़ी के रूप में और दक्षिण एशियाई संदर्भों में कुआनास (या कुषाण) के रूप में जाने जाने वाले लोगों के लिए एक और नाम हो सकता है। )। [36]

इतिहास :-


200 ईसा पूर्व में पूर्वी यूरोप में डेन्यूब नदी के उत्तर में गेटा जनजातियां दिखाई देती हैं
7 वीं - चौथी शताब्दी ई.पू.


7 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से, गेटे यूनानियों के साथ आर्थिक और सांस्कृतिक संपर्क में आए, जो कि पोंटस यूक्सिनस के पश्चिमी भाग में उपनिवेश स्थापित कर रहे थे, आजकल काला सागर। गेटा का उल्लेख पहली बार हेरोडोटस में डेरियस I के सिथियन अभियान के उनके कथन में किया गया है
513 ईसा पूर्व में, जिसके दौरान बाद में गेटे पर विजय प्राप्त हुई। [41]

हेरोडोटस के अनुसार, गेटे अपने धर्म में अन्य थ्रेशियन जनजातियों से भिन्न थे, भगवान (डेमोन) ज़ल्मोक्सिस के आसपास केंद्रित थे जिन्हें गेटा के कुछ लोग गेबेलेज़िस कहते थे। [42]

5 वीं और 3 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच, गेटा ज्यादातर फलने-फूलने वाले ओडिशा के शासन के अधीन थे। इस समय के दौरान, गेटे ने सैन्य सेवाएं प्रदान की और अपने घुड़सवार सेना के लिए प्रसिद्ध हो गया। ओड्रिसियन राज्य के विघटन के बाद, छोटी गेटिक रियासतों ने खुद को मजबूत करना शुरू कर दिया।

समृद्धि: -

अपने फारसी अभियान पर निकलने से पहले, अलेक्जेंडर द ग्रेट ने गेटे को हराया और अपनी एक बस्ती को चकित कर दिया। [43]

313 ईसा पूर्व में, गेटे ने लिसीमाचस के खिलाफ कैलाटिस, ओडेसोस और अन्य पश्चिमी पोंटिक यूनानी उपनिवेशों के साथ गठबंधन किया, जिन्होंने तिरिज़िस (आधुनिक कालिका) में एक किले का निर्माण किया। [44]

गेटे विशेष रूप से तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की पहली छमाही में फला-फूला। लगभग 200 ईसा पूर्व तक, गेटिक राजकुमार, ज़ल्मोडेगिकस का अधिकार, समकालीन शिलालेख के रूप में हिस्ट्रिया तक फैला हुआ था। [45]
अन्य मजबूत राजकुमारों में ज़ोलट्स और रेहेमाक्सोस (लगभग 180 ईसा पूर्व) शामिल थे। इसके अलावा, कई गेटिक शासकों ने अपने सिक्कों का खनन किया। प्राचीन लेखक स्ट्रैबो [46]
और कैसियस डियो [47]

 कहते हैं कि गेटे शासक पंथ का अभ्यास करते थे, और इसकी पुष्टि पुरातात्विक अवशेषों से होती है।

रोम के साथ संघर्ष: -
72-71 ईसा पूर्व में मार्कस टेरेंटियस वरो ल्यूकुल्स गेटे के खिलाफ मार्च करने वाले पहले रोमन कमांडर बने।

यह मिथ्रिडेट्स VI के पश्चिमी पोंटिक सहयोगियों पर हमला करने के लिए किया गया था, लेकिन उन्हें सीमित सफलता मिली थी। एक दशक बाद, सिथियन, गेटे, बस्तरर्न और ग्रीक उपनिवेशवादियों के गठबंधन ने हिस्ट्रिया में सी। एंटोनियस हाइब्रिडा को हराया। [४]] [४ ९]
रोमनों पर इस जीत ने इस गठबंधन के नेता, ब्यूरिस्टा को इस क्षेत्र पर थोड़े समय (60–20 ईसा पूर्व) के लिए हावी रहने दिया।

ईसा पूर्व के मध्य में ब्यूरिस्टा ने उन लोगों के वंशजों से मिलकर एक साम्राज्य का गठन किया, जिन्हें यूनानियों ने गेटे कहा था, साथ ही साथ डैसियन या डासी नाम, इस क्षेत्र के लोगों के लिए रोमन द्वारा लागू नाम था। [२५]

ऑगस्टस का उद्देश्य पूरे बाल्कन प्रायद्वीप को अधीन करना है, और गेटे और थ्रेसियन को तबाह करने के बहाने डेन्यूब के बस्तरर्न की एक टुकड़ी का इस्तेमाल किया।

 उन्होंने मार्कस लिसिनियस क्रैसस को योजना के प्रभारी के रूप में रखा। 29 ईसा पूर्व में, ग्रास ने गेटिक राजकुमार रोड्स की मदद से बस्तराने को हराया। [50]

 गैसास शासक Dapyx के खिलाफ अपने समर्थन के लिए क्रासस ने उनसे मदद का वादा किया। [५१]
 बाद में क्रैसस डेन्यूब डेल्टा तक पहुंच गया था, रोड्स को राजा नियुक्त किया गया था और रोम लौट आया था।

 16 ईसा पूर्व में, सरमाटे ने गेटिक क्षेत्र पर आक्रमण किया और रोमन सैनिकों द्वारा वापस चला दिया गया। [52] गेटे को थ्रेस, रोएमेथालिस I में रोमन जागीरदार राजा के नियंत्रण में रखा गया था।

6 ईस्वी में, मोन्सिया प्रांत की स्थापना हुई, जिसमें डेन्यूब नदी के दक्षिण में गेटा शामिल था। डेन्यूब के उत्तर में गेटे ने रोमन साम्राज्य के बाहर जनजातीय स्वायत्तता जारी रखी।

संस्कृति: -

हेरोडोटस के अनुसार, गेटे "कुलीन जनजातियों के साथ-साथ सबसे अच्छे व्यक्ति थे"। [५३]

 जब दर्सियन द ग्रेट की अगुवाई में फारसियों ने सीथियन के खिलाफ अभियान चलाया, तो बाल्कन में थ्रेसियन जनजाति ने सिर्थिया के रास्ते में डेरियस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, और केवल गेटा ने प्रतिरोध की पेशकश की। [53]

गेटे के इतिहास का एक प्रकरण कई प्राचीन लेखकों द्वारा अनुप्रमाणित है। [५४] [५५]

जब लिसिमाचस ने गेटे को अपने अधीन करने की कोशिश की तो वह उनसे हार गया। गेटे राजा, ड्रोमीचेस, उसे कैदी के रूप में ले गया लेकिन उसने उसके साथ अच्छा व्यवहार किया और लिसिमाचस को आश्वस्त किया कि गेटे के दुश्मन के रूप में सहयोगी के रूप में हासिल करने के लिए अधिक है और उसे रिहा कर दिया। डायोडोरस के अनुसार, ड्रोमीचेस ने हेलिस के अपने महल में लिसिमैचस का मनोरंजन किया, जहां सोने और चांदी की प्लेटों पर भोजन परोसा जाता था।

 Sveshtari (1982) में मनाए गए मकबरे की खोज से पता चलता है कि हेलिस शायद इसके आसपास के क्षेत्र में स्थित था, [56] जहां एक बड़े प्राचीन शहर के अवशेष दर्जनों अन्य थ्रेसियन टीले कब्रों के साथ पाए जाते हैं।

जैसा कि पहले कहा गया था, डैसीयन की तरह, गेटे के प्रमुख देवता ज़ालमोक्सिस थे, जिन्हें वे कभी-कभी गेबेलेज़िस कहते थे।

यह वही लोग, जब यह हल्का और गरजता है, तो आकाश में अपने तीर का लक्ष्य बनाते हैं, भगवान के खिलाफ धमकी देते हैं; और वे यह नहीं मानते कि कोई भगवान है लेकिन उनका अपना है।
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- हेरोडोटस। इतिहास, 4.94।
प्लिनी द एल्डर इन द नेचुरलिस हिस्टोरिया में एक जनजाति का उल्लेख किया गया है जिसे टायरगेटे कहा जाता है, [57]
 जाहिरा तौर पर एक डको-थ्रेसियन जनजाति जो तिरस नदी (डेनिस्टर) से बहती थी।

उनका आदिवासी नाम तिरस और गेटे का संयोजन प्रतीत होता है;
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Thyssagetae और Massagetae के नाम भी देखें।

रोमन कवि ओविद, टॉमिस में अपने लंबे निर्वासन के दौरान, मुखर हैं।


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साभार - "इतिहास के बिखरे हुए पन्ने "
अगला लेख: मनस् सिन्धु की विचार लहरें ! जहाँ ज्ञान के बुद्बुद ठहरें !


 
 

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