मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है ; इसीलिए योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय अथवा एकता अपेक्षित है । तृतीय चरण की प्रस्तुति ...

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योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है ; इसीलिए योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय अथवा एकता अपेक्षित  है ।

योग’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा की  ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप से है ।
इस चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से ही योग शब्द  निष्पन्न होता है।

इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध।

और चित्त की वृत्ति क्या हैं ?
अर्थात्- चित्त का व्यापार ।
वस्तुत यह मन की ही चञ्चलता है
--जो उसके स्वाभाविक 'व्यवहार' का स्वरूप है।
योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं  निम्न प्रकार से हैं।
👇
१-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध।
चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) से है ;
जो स्वभाव जन्य हैं ।

साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है :--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन)
की शक्ति देता है।

साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।

स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं:— 👇

1- मन, 2-बुद्धि, 3- चित्त और 5-अहंकार ।
इसे ही अन्त:करण चतुष्टय कहते हैं।

१- संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं ।

२-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि कहते हैं ( -जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है; और वही बुद्धि है ।

और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं ।

ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं ।
योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।

वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं।
वैसे जीव शब्द दिव् धातु का विकसित रूप है ।

उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती। 🌸🌸🌸

योगसूत्र के अनुसार चित्त-वृत्ति पाँच प्रकार की है
मन ही चित्त का रूप है —
१-प्रमाण, २-विपर्यय, ३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा  कुछ विचारक तीन और वृत्तियों को मानते हैं ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण;

ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं ।
अतः ये इस प्रकार आठ हो जाती हैं।

चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ; नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।

१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है ।

२-स्वरूपज्ञान के बिना मन की कल्पना "विकल्प "है

३-सब विषयों के अभाव का बोध ही  निद्रा है

४-और कालान्तरण में पूर्व किए गये कर्मों के अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है;
यह जाग्रति का बोध है ।

पञ्च-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पक्षगोलक लिखा है।

परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अन्तःकरण के सारे व्यापारों का स्थान हृदय न मानकर मस्तिष्क में माना है; जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्र-स्थान है ।

खोपड़ी के अन्दर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है । 💥

वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारों के सम्पादन होता हैं ।
ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।

भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।
जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है
और बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है ;

इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।

जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।
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शारीरिक दृष्टि से पीनियल ग्रन्थि मानव-शरीर का सबसे छोटा अवयव है।

यह एक-चौथाई इंच लंबा एवं सौ मिलीग्राम भारी होता है।
इतना छोटा अंग शायद ही कभी इतनी उत्तेजना का कारण बना हो।

गरदन और सिर के मिलन बिंदु पर मेरुदंड के ठीक ऊपर स्थित यह ग्रंथ भूमध्य भाग में मस्तिष्क की दीवार से जुड़ी है।

ग्रीक वैज्ञानिक हीरोबिस जो ईसा से चार शताब्दी पूर्व शरीर-विज्ञान की अपनी व्याख्याओं के कारण काफी प्रसिद्ध हुए थे, पीनियल संबंधी अपने विचारों से विवादास्पद भी रहे।

वे इस ग्रंथि को विचार-प्रवाह का नियामक मानते थे। उनके अनुसार यह ग्रंथि शारीरिक एवं मानसिक क्षेत्र के मध्यस्थ के रूप में कार्य करती है।

प्रारंभिक लैटिन संरचना शास्त्रियों ने भी इसे स्वामी ग्रंथि की संज्ञा दी थी।

सोलहवीं शताब्दी के फ्राँसीसी दार्शनिक एवं स्नायु विज्ञानी रैने डेस्कार्टिस ने इसे आत्मा का निवास स्थान बताया था।

सन् 1100 में दो वैज्ञानिकों एच. डब्ल्यू ग्राफ तथा ई. बाल्डविन स्पेन्सर ने पीनियल पर गहन शोध की।

उनके शोध-निष्कर्षों ने यह प्रमाणित किया कि यह ग्रंथि वातावरण के प्रकाश से सीधे और चर्म चक्षु के स्नायु मार्ग द्वारा दोनों ही तरह से प्रतिक्रिया करती है। यह निष्कर्ष अध्यात्मवेत्ताओं की इस घोषणा से साम्य रखता है।
कि पीनियल ग्लैंड ही तृतीय चक्षु है।

हाल के वर्षों में मेलाटोनिन तथा सेरोटोनिन नामक दो हार्मोन पीनियल ग्रंथि से पृथक किए गए हैं।

इन दोनों रसस्रावों के गुणों एवं कार्यों के संबंध में किया गया अनुसंधान स्थूल शरीर की रहस्यमय परतों के संबंध में कई नए तथ्य उजागर करता है।

येल स्कूल ऑफ मेडिसिन में कार्यरत मूर्द्धन्य वैज्ञानिक डेनिस लिचेन ने सन् 1160 में पीनियल से मेलाटोनिन नामक हार्मोन पृथक किया।

यह पदार्थ मेढ़क तथा मछलियों में वातावरणीय प्रकाश परिवर्तन की प्रतिक्रिया स्वरूप त्वचा में रंग-परिवर्तन हेतु जिम्मेदार है और मनुष्य में यही भावनात्मक बदलाव का तथा क्रोध एवं भय के आवेगों का नियंत्रणकर्त्ता समझा जाता है।

वयः संधि के प्रारंभ में तथा मनुष्य के यौन विकास में इसकी विशिष्ट भूमिका हैं।

जैसे-जैसे बच्चे वयः संधि काल में प्रवेश करते हैं, उनकी पीनियल ग्रंथि का आकार और कार्य-क्षमता घटती जाती है।

ऐसा माना जाता है कि उक्त ग्रंथि यौन विकास के प्रारंभ को अपने नियंत्रण में रखती है और जब उसका नियमन हट जाता है, तो यही कार्य पिट्यूटरी अपने जिम्मे ले लेती हैं।

कामेंद्रिय को पिट्यूटरी ग्लैंड के माध्यम से नियंत्रित करने में इस तरह का सक्रिय योगदान पीनियल की महत्वपूर्ण भूमिका प्रतिपादित करता है।

आज्ञाचक्र का जागरण क्या है? इसे यदि सरल शब्दों में समझा जाए, तो यह विवेक का अनावरण कहलाएगा। इस विवेक का सहारा लेकर जब मनुष्य अपनी समस्त क्षमताओं को रचनात्मकता की ओर मोड़ लेता है, तो अचेतन की सुप्त संपदा के हीरे-मोती उसे प्राप्त हो जाते हैं। यही प्रसुप्त का जागरण है।

सर्वसामान्य में इस अवयव की सक्रियता उतनी ही होती है, जितने से शरीरगत क्रियाप्रणाली सुचारु रूप से चलती रह सके।
यह साधारण स्थिति और इसका भौतिक स्वरूप हुआ। इस दशा में इसका क्रिया-कलाप शरीर-तंत्र को नियमित-नियंत्रित भर करने तक सीमित होता है, किन्तु जब इसे उत्तेजित कर जाग्रत् किया जाता है, तब यह अपनी सूक्ष्म शक्ति के साथ प्रकट होता और साधक के व्यक्तित्व एवं दृष्टिकोण में ऐसा आमूलचूल परिवर्तन लाता है, जिसे किसी भी प्रकार कायाकल्प स्तर से कम का नहीं कहा जा सकता।

दूरदर्शी विवेकशीलता इसका प्रथम लक्षण है। जिस व्यक्ति में यह दिखलाई पड़े, उसके बारे में असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि उसमें पीनियल की सूक्ष्म शक्ति जाग्रत् हो चुकी है। जब यह शक्ति संपूर्ण रूप से उद्बुद्ध होती है, तो आदमी में अनेक प्रकार की आध्यात्मिक विभूतियों का प्रादुर्भाव होता और वह साधारण से असाधारण बन जाता है।

भौतिक स्तर पर इसे प्रभावित करने का कोई उपाय नहीं है, पर आध्यात्मिक स्तर पर इसको उद्दीप्त करने के कितने ही उपाय-उपचार बताए गए है, जिनमें अगोचरी मुद्रा, शाम्भवी मुद्रा, खेचरी मुद्रा, त्राटक, ध्यान-धारणा आदि प्रमुख है।

हार्मोन्स में हमारे शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास की अनंत संभावनाएँ भरी पड़ी हैं। योगाभ्यास द्वार, मनोमय कोश का जागरण और तृतीय नेत्र उन्मीलन का महत् उद्देश्य व्यक्तित्व का परिमार्जन और चिंतन का परिष्कार हैं।
शारीरिक बल-वृद्धि तथा मानसिक स्वास्थ्य के रूप में

पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।
यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है।

यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन के रूप हैं।.
(पीनियल ग्रन्थिका का स्वरूप) _____________________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।
यह पूर्व भी निर्देशित है कि इसका उपस्थिति:- मानव में पीनियल ग्रन्थिका लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।

यह अधिचेतक भाग का अवयव है।

पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है
और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है।

पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन
भी कहा जाता है।
जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।
वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है ।
और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है ।

योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है ।
और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ; और ज्ञान ही जान है ।
अस्तित्व की पहिचान है ।
कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है । 👇 ________________________________________________
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।।

इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।

( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ )

अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है ; अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है।
--जो स्वयं चालक नहीं है ।
यह शरीर रथ है ।

बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े ।
और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।
एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता के रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।

--जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है ।
भारोपीय भाषाओं में
आत्मा के अतिरक्त रूप प्रचलित हैं ।

(प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है।
आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।

और प्रेरणा कोई कर्म नहीं एक निर्देशन है !
अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ;
परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से लोग के द्वारा प्रेत शब्द का अर्थ ही बदल गया !

इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।

प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे । कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में है परन्तु शान्ति पर्व में समायोजित है कुछ शब्दों के अन्तर के साथ।

महाभारत के भीष्म पर्व में समायोजित श्रीमद्भगवत् गीता उपनिषद् कठोपोपनिषद का रूपान्तरण न सही परन्तु 'बहुत से श्लोक दोनों के समान हैं।

निम्न गद्यांशों में महाभारत का 'वह श्लोक देखें महाभारत के स्त्री पर्व के अन्तर्गत सातवें अध्याय के श्लोक 13-14 में वर्णन है कि

" विद्वान् पुरुष कहते हैं कि प्राणियों का शरीर रथ के समान है ; सत्व सारथी है इन्द्रिय घोड़े हैं ।

(कर्म करने वाला बुद्धि) मन लगाम है और जो पुरुष स्वेच्छा पूर्वक दौड़ते हुए घोड़ों के वेग का अनुसरण करता है ।

वह तो इस संसार चक्र में पहिए के समान घूमता रहता है।13-14👇

रथ: शरीरं भूतानां सत्वामाहुस्तु सारिथिम् ।
इन्द्रियाणि हयानाहु:कर्मबुद्धिस्तु रश्मय:।13।

तेषां हयानां यो वेगं धावतामनुधावति।
स तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तते।14।

यस्तान् संयमते बुद्ध्या संयतो न नवर्तते ।
ये तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तिते।15।

भ्रममाणा न मुह्यन्ति संसारे न भ्रमन्ति ते।

किन्तु जो संयम शील होकर बुद्धि के द्वारा उन इन्द्रियरूपी अश्वों को नियन्त्रण में रखते हैं ।
वे फिर इस संसार में नहीं लौटते।

जो लोग चक्र की भांति घूमने वाले इस संसार चक्कर में घूमते हुए भी मोह के वशीभूत नहीं होते उन्हें फिर संसार में नहीं भटकना पड़ता।।15। _________________________________________

यही बात कठोपोपनिषद में भी दो चार शब्दों के अन्तर से है 👇।
कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देव के बीच आध्यात्मिक प्रश्नोत्तरों का कथा रूप में वर्णन है।

यम और नचिकेता का संवाद हुआ था कि नहीं यह प्रमाणित तथ्य नहीं है अपितु तथ्य ज्ञान की प्रमाणिकता का है ।
कि यह ज्ञान सत्य है अथवा असत्य ।

बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध स्पष्ट करते हैं ।

संबंधित आख्यान में यम देवता के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन हम्हें प्रभावित करते हैं ।

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)

(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्,
बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् )

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु आवश्यक है ।
अगले मन्त्र में उल्लेख है  )

इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)

अन्वय:-(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः )

मनीषियों, विवेकी पुरुषों ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीर-रूपी रथ के द्वारा काल पथ पर भोग करने वाला बताया है ।

प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है ।

ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान
उन्हें भी रहा ही होगा ।
किन्तु उनके प्रयास रहे थे ;
कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें ।

इसी लिए उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के सर्था  विपरीत रही ।

स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी विचार धारा
को प्रदर्शित करते हैं ।

तृतीय चरण की प्रस्तुति ...

यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219

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