रविवार, 27 अक्तूबर 2019

कर्म की व्याख्यायित अभिव्यञ्जना ...

एक सतसंग में निरंकारी मिशन के महापुरुष
-जब मंच पर खुल कर विचार करने की हम्हें अनुमति देते हैं ।
और प्रश्न करते हैं कि कर्म-- क्या है ?

और यह किस प्रकार उत्पन्न होता है ?
कई विद्वानों से यह प्रश्न किया जाता है ।
मुझे भी अनुमति मिलती है ।
कर्म जीवन का आधार है ।

मुझे भी आश्चर्य होता है !
कि जिस प्रश्न को हम पर कोई उत्तर नहीं है ।
फिर अचानक ही कुछ शब्दों का प्रवाह मुखार-बिन्दु से नि:सृत हो रहा है ।
यद्यपि में सुन भी रहा हूँ ।

कि अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल है ।
क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।
स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।

और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है ।
जैसे-  संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गया निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गया मानसिक दृढ़ता है ।
परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।

और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो जाती है ।
और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की
कर्म इस जीवन और संसार का सृष्टा है।

महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।
जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा

संसार का सार है  संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती  स्थितियाँ अनुभव हुईं

मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च"
ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष ।
मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।
उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश
ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।
मुझे लगा कि  अब हम सत्य के समीप आचुके हैं
मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है

पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।
और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।
क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।
और स्त्रीयों में कठोरता का  अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानते हैं ।
और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ;
वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही  ख़ूबसूरत है।
वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना  का जन्म हुआ है । और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है ।

कर्म भारतीय सनातन संस्कृति की वह अवधारणा है ! जो
उन्हें  दुनियाँ के आदिम द्रव- वेता  द्रविडो से व्याख्यायित रूप में  एक प्रतिक्रियात्मक प्रणाली के  माध्यम से कार्य-कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती हुई प्राप्त हुई है, !!
जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और अहितकर कार्यों का अहितकर प्रभाव प्राप्त होता है, जो पुनर्जन्म का एक चक्र बनाते हुए आत्मा के जीवन में पुन: अवतरण या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की रचना करती है। ..
.....
कहा जाता है कि कार्य-कारण सिद्धांत न केवल भौतिक जगत् में लागू होता है, बल्कि हमारे विचारों, शब्दों, कार्यों और उन कार्यों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं।
जब पुनर्जन्म का चक्र समाप्त हो जाता है, तब कहा जाता है कि उस व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है, या संसार से मुक्ति मिलती है।
मुक्ति आत्मा की स्वावस्था है ।
यह स्व अहम से भिन्न आत्मा की मूल अवस्था है ।
सभी पुनर्जन्म मानव योनि में ही नहीं होते हैं।
कहते हैं कि पृथ्वी पर जन्म और मृत्यु का चक्र 84 लाख योनियों में चलता रहता है,।
सायद इससे भी ज्यादा भी हो सकते हैं ।
लेकिन केवल मानव योनि में ही इस चक्र से बाहर निकलना संभव है।
क्यों कि यह कर्म योनि भी है ।

चेतना के क्रमिक विकास का स्तर ही विभिन्न प्रकार की यौनियों का निर्धारक है ।

कर्म व्युत्पत्ति का आधार मन का संकल्प- प्रवाह है संकल्प की गन्ध और इच्छाऔं का पराग से ही कर्म पुष्प का स्वरूप है जो भोग के फल का कारक है
किये गए कृत्यों के निर्णायक प्रतिफल के सन्दर्भ में आत्मा के देहांतरण या पुनर्जन्म का सिद्धांत ऋग्वेद में नहीं मिलता है।

कर्म की अवधारणा सर्वप्रथम भगवद गीता (पञ्चम सदी ) में सशक्त शब्दों में प्रकट हुई।

पुराणों में कर्म के विषय का उल्लेख है।
कहते हैं कि कलियुग के दौरान ज्ञान को सुरक्षित रखने के लिए द्वापर युग के अंत में संत व्यास द्वारा पुराण लिखे गये थे ।

कहा जाता है कि पहले वही ज्ञान भिक्षुओं द्वारा याद रखा जाता था और मौखिक रूप से दूसरों को दिया जाता था।

काल परिवर्तन और कर्म क्रमशः वाष्प जल और हिम के सदृश्य विका - क्रम की श्रृंखला हैं ..
"कर्म" का शाब्दिक अर्थ है "काम" या "क्रिया" और भी मोटे तौर पर यह निमित्त और परिणाम तथा क्रिया और प्रतिक्रिया कहलाता है, जिसके बारे में प्रचीन भारतीयों का मानना है -------
जीवन एक पुष्प है प्रवृत्ति उसकी गन्ध ,तथा स्वभाव पराग के सदृश्य है ।

मन आत्मा और शरीर अथवा कहें जड़ और चेतन की प्रथम सन्तान है और काम अथवा कामना इस मन की प्रथम सन्तान है 

और यह भाव होते हुए भी विचार मूलक ही है 

यही संसार का प्ररधान सञ्चालक  है ...


इन्हीं गन्ध और पराग के द्वारा
प्रारब्ध के फल का निर्माण होता है

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विचार - विश्लेषण ---- यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़..8077160219----सम्पर्क - सूत्र

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