शनिवार, 8 दिसंबर 2018

गायत्री मन्त्र की व्याख्या व्याकरणिक समन्वित।

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ऊँ तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्र च उदयात्। (ऋ० ३/६२/१०)
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(१) ॐ= सूर्य का वाचक तथा रवि का भावक रूप
(२) भूर्भव: स्व: = पृथ्वी पर जिसके कारण प्रकाश हो !
(३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य  = उस सूर्य का वरण करना चाहिए  !  --जो अग्नि देव का रूप है ।
यह अग्नि रूप सूर्य देव के प्र - प्रकृष्ट  च-और  उदयात् = उदय होने से (प्रचोदयात् ) ।
धीमहि = हम सब धारण करें
धियो = बुद्धि में स्वर् = प्रकाश  यो = जो  न: = हम सबके लिए है ।

वेद की अधिष्ठात्री देवी गायत्री
अहीरों की एक कन्या थी ।
जैसे राधा अहीरों की एक कन्या थी ।

  गायत्री मन्त्र' की अश्लीलता जिनको समझ में आती है वे नि:सन्देह मूर्ख तो हैं ही ; उनका अन्त: करण भी वासनाओं के द्वारा मलिन है ।
फिर इस प्रकार के लोग अर्थ का अनर्थ तो करेंगे ही-- ***************************************** गायत्री यद्यपि एक प्रसिद्ध वैदिक छन्द का नाम है ।
---जो ऋग्वेद में बहुतायत से प्रयुक्त हुआ है जिसमें गायत्री ( ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी का मानवीय करण अलंकार रूप में कर स्तवन (गायन)किया गया है । गायत्री मन्त्र को अश्लीलता परक बताने वाले मूर्खों को वैदिक भाषा का कुछ भी ज्ञान नहीं है !

इसलिए वे गायत्री मन्त्र का किस प्रकार अश्लील अर्थ करते हैं - जैसे यदि उनके सामने यह संस्कृत वाक्य  प्रस्तुत कर दिया जाए " भो ! श्री पश्ये चूतात् फलानि पतन्ति "  तो वे इसकी व्याख्या करेंगे :--भोसरी पस्साद चूत से फलान पकरते हैं"
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गायत्री मन्त्र को अश्लील बताने वाले वही मूर्ख हैं ; जो "भो ! श्री पश्ये चूतात् फलानि पतन्ति " संस्कृत वाक्य का अर्थ करते हैं :- भोसरी पस्साद चूत से फलान को पकरते हैं " परन्तु इसमें वाक्य का अर्थ अश्लील कभ नहीं  अपितु सही  अर्थ तो इस प्रकार है --" भो अर्थात् हे ।
श्री अर्थात् लक्ष्मी । पश्ये अर्थात् देखें- । चूतात् अाम्र वृक्षात्।  फलानि पतन्ति अर्थात् फल गिरते हैं
उपर्युक्त वाक्य का अर्थ इस प्रकार है :- हे लक्ष्मी देखो ! आम के वृक्ष से फल गिरते हैं !
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गायत्री मन्त्र का अर्थ करने वाले को गायत्री और सावित्री ब्रह्मा की पुत्री दिखाई देती हैं ।

---जो कि किसी संस्कृत शास्त्र में वर्णित नहीं है। गायत्री नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या थी ।
जो ब्रह्मा ने ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी नियुक्त की। और सावित्री को कर्म की अधिष्ठात्री देवी नियुक्त किया । _________________________________________

गायत्री को वेदों की माता कहा जाता है।
.. कहते हैं गायत्री की व्याख्या करने के लिए ही ब्रह्मा ने 4 वेदों की रचा की थी।
इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद, आदि का निर्माण हुआ।
इन्हीं-ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु और संगीत आदि 64 कलाओं का निर्माण हुआ।
इस प्रकार गायत्री समस्त ज्ञान विज्ञान की जननी हुई। जिस प्रकार बीज में विशालकाय पीपल का वृक्ष छिपा होता है ठीक वैसे ही गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में संसार का पूरा ज्ञान छिपा है।
यद्यपि गायत्री एक वैदिक छन्द का नाम है ।
परन्तु परवर्ती साहित्य में यह एक मन्त्र रूप में प्रकट हुआ । गायत्री का शाब्दिक अर्थ :- गायन शक्ति ।
विदित हो कि  वाणी का सौम्य रूप गायन अथवा पद्य ही है । और यही सृष्टि का आदि रूप है ।

विचार करो !
जब एक शिशु का  प्रसव (जन्म) होता है
तब वह भी स्वरों के आलापमयी प्रवाह के रूप में रुदन करता है । अत: गद्य गेय है । वेदौं का प्रारम्भिक रूप भी गद्य ही है ।
मनुष्यों की वाणी की प्रखरता उसके ज्ञान का प्रतिबिम्ब है ।
सूर्य का रवि विशेषण रूप ध्वन्यात्मक है ।
ओ३म भी सूर्य का वाचक रहा है ।
मिश्र की हैमेटिक संस्कृति में दौनों शब्द आज भी उपस्थित है । अमोन- रा के रूप में ।

जगत और कुछ भी नहीं बल्कि गायत्री का ही ज्ञान मय विस्तार है।
प्रतिदिन गायत्री मन्त्र का उच्चारण और जप करने से आत्मबल बढ़ता है ।
एकाग्रता बढ़ती है... और व्यक्ति अधिक शान्त होता जाता है।
यूं तो हजारों साल लम्बे सनातन धर्म में ऋषियों ने बहुत से प्रभावशाली मन्त्रों का अविष्कार किया है
...ज्यादातर बीज मन्त्र ऐसी ध्वनियाँ होती हैं जिन्हें उचित तरीके से उच्चारित करने पर अदृश्य शक्तियां जागृत होती हैं ।
ठीक यही गायत्री मन्त्र के साथ भी है... इसके उच्चारण से भी शक्ति प्रकट होती है विशेष  बात तो ये है कि इस मन्त्र के शब्दों का एक सुन्दर अर्थ भी विधमान है।

देखें--- शब्द अन्वय सहित अर्थ:-
ऊँ = प्लुत  स्वर जो आध्यात्म से पूर्ण सूर्य नाद का वाचक है, यह सृष्टि का मूलध्वनि है !
अन्यत्र संस्कृतियों में आमीन् , जैसे (हिब्रू/अरब़ी) आदि सैमेटिक संस्कृतियों में स्कैण्डनेवियन कैल्टिक संस्कृति में आउ-मा (Ow-ma)मिश्र में अमॉन (Amon) तथा आरमेनियन सीरयन ऑविन ग्रीक ऑग्मिऑस रूप ....ओङ्कारः, पुंल्लिंग, (ओम् + कार  प्रत्ययः ) प्रणवः ।

इत्यमरःकोश ॥ (यथाह स्मृतिः । “ओङ्कारः पूर्वमुच्चार्य्यस्ततो वेदमधीयते” । “ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा । कण्ठं भित्त्वा विनिर्ज्जातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ” । इति व्याकरणटीकायां दुर्गादासः ।
“प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तत ओङ्कारमर्हति”
॥ इति मनुः । २ । ७५ ॥ अत्राह आवस्तम्बः, “ओङ्कारः स्वर्गद्वारं तद्ब्रह्म अध्येष्यमाण एत- दापि प्रतिपद्येत विकथां चान्यां कृत्वा एवं लौकिक्या वाचा व्यावर्त्तते” ।
लौकिक्या वाचा व्याव- र्त्तते तया मिश्रितं न भवतीत्यर्थ: 👆
भू := धरती या भूमि पर
भुव:= हो जाय  । 🌐🌐🌐
स्व:= अन्तरिक्ष या स्वर्ग , प्रकाश
तत् सवितुर् = वह सूर्य या तेजोमय स्वरूप का । वरेण्यं =  वरण करने योग्य / या चाहिए ।
भर्गो = महत्ता या शक्ति 👂
भृगुः, पुल्लिंग (तपसा भृज्ज्यते पञ्चतपादिभिर्वेति । भ्रस्ज धातु + “प्रथिम्रादिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च ।” उणादि सूत्र १। २९।
इति कुः सम्प्रसारणं सलोपः,
न्यङ्कादित्वात् कुत्वञ्च यद्वा भृज्जतीति क्विप् ।
भृक् ज्वाला तया सहोत्पन्न इति उः
भृगुः = अग्नि स्वरूप )
देवस्य =देव का
धीमहि = ध्यान करें !
धियो = बुद्धि का
यो = (य:) विसर्ग से परे स्वर या व्यञ्जन आने से विसर्ग में जो विकार होता है, उसे विसर्ग सन्धि कहते है
। विसर्ग सन्धि के नियम
१. यदि ‘अ’ से परे विसर्ग हो और उसके सामने वर्ग का तीसरा, चौथा, या पाँचवा वर्ग अथवा य, र, ल, व, में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग ‘अः’ के स्थान पर ‘ओ’ हो जाता है।

य: में अ स्वर के बाद (विसर्ग :) लगने से रूप हुआ है योन: ।

वस्तुत: योन: यौनि शब्द का रूप कभी नहीं है जैसे कि एक विशेष विचार धारा के लोग हैं ।
जैसे – मनः + हर = मनोहर मनः + योग = मनोयोग. आदि....
न: = हमारे या हमें प्रचोदयात् = देने का आग्रह से भाव - परम पिता परमेश्वर, जो धरती, आकाश और ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं... जो दिव्यमान ज्योति हैं।
... और नमन के योग्य हैं... उस शक्तिमान देव का मैं ध्यान करता हूं... और उनसे ज्ञान की याचना करता हूं।

इस प्रकार से गायत्री मन्त्र कहीं से भी अश्लील नहीं है ।
य: और न: विसर्ग सन्धि रूप य: = यो न: = हमारे लिए (अस्मभ्यं का वैदिक रूप) चुद् धातु का प्रचीन भारोपीय रूप चोद्यम्, क्ली, (चोदयति प्रेरयति चित्तं रसविशेषे अनेनेति । चुद् + णिच् + ण्यत् ) अद्भुतम् । प्रश्नः ।
इति मेदिनी । (यथा, महा- भारते । ५ । ४३ । ३४ । “सत्यं ध्यानं समाधानं चोद्यं षैराग्यमेव च ।
अस्तेयं ब्रह्मचर्य्यञ्च तथासंग्रहमेव च ॥
चोद्यः, त्रि, (चोदयितुं प्रेरयितुं योग्यः ।
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यद्यपि  प्रचोदयात् में प्र उपसर्ग (prefixe ) च निपात तथा उदय संज्ञा का पञ्चम् विभक्ति रूप अपादान कारक है ।
और यह पद सूर्य (सविता )के उदित होने के सन्दर्भ में है ।

“अर्हे कृत्यतृचश्च ३ । ३ । १६९ । इति यत् )
चोदनार्हः । प्रेरणयोग्यः । इति मेदिनी कोश ।
सवितु:= सविता शब्द का षष्ठी एक वचन सम्बन्ध कारक का रूप।
स्व:= स्वर प्रकाश।
अत: इसमें अश्लीलता कहीं नहीं है।  __________________________________________ पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है ।
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व , सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८।
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी। इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ८।
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।। पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !
यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द । जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है । क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९। देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु । गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है । अब यहाँ भी देखें--- भागवत पुराण :-- १०/१/२२ में स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
"
अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।

वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए .. तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है।

आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम् अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ।४० एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ।५४
आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः
(इति श्रीवह्निपुराणे नांदीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः ।।
संपूर्णः ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
यद्यपि ई०पू० 1500 में इसमें कुछ नवीनीकरण हुआ।

गायत्री महामन्त्र वेदों का एक महत्त्वपूर्ण मन्त्र है जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है।
यह यजुर्वेद के मन्त्र 'ॐ भूर्भुवः स्वः'
और ऋग्वेद के छन्द 3.62.10 के मेल से बना है।
इस मन्त्र में सवितृ देव की उपासना है ;
इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है।

ऐसा माना जाता है कि इस मन्त्र के उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है।
इसे श्री गायत्री देवी के स्त्री रुप मे भी पूजा जाता है।

'गायत्री' एक छन्द भी है जो ऋग्वेद के सात प्रसिद्ध छन्दों में एक है।
इन सात छन्दों के नाम हैं- १-गायत्री,२- उष्णिक्, ३-अनुष्टुप्, ४-बृहती, ५-विराट,६- त्रिष्टुप् और ७-जगती।
गायत्री छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। ऋग्वेद के मंत्रों में त्रिष्टुप् को छोड़कर सबसे अधिक संख्या गायत्री छन्दों की है।
गायत्री के तीन पद होते हैं (त्रिपदा वै गायत्री)।
अतएव जब छन्द या वाक के रूप में सृष्टि के प्रतीक की कल्पना की जाने लगी तब इस विश्व को त्रिपदा गायत्री का स्वरूप माना गया।
जब गायत्री के रूप में जीवन की प्रतीकात्मक व्याख्या होने लगी तब गायत्री छन्द की बढ़ती हुई महिता के अनुरूप विशेष मन्त्र की रचना हुई, जो इस प्रकार है:

तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्र च उदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)
गायत्री महामन्त्र----

गायत्री मन्त्र का देवी के रूप में चित्रण!
आर्य समाजीयों के की गयी व्याख्या निम्न है ।👇

ॐ भूर् भुवः स्वः।
तत् सवितुर्वरेण्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥🌏
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हिन्दी में भावार्थ :-
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें।
वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

सू-तृच् = सवितृ प्रथमा विभक्ति एक वचन रूप सविता । १ जगत्स्रष्टरि परमेश्वरे “तत्सवितु- र्वरेण्यमि” ति श्रुतिः । २ सूर्ये
।  ३ अर्कवृक्षे अमरः कोश।
। ४  मातरि स्त्री हेमच० ङीप् । सवितुरिदं घ सवित्रिय तत्सम्बन्धिनि त्रि० ।
स देवताऽस्य अण् । सावित्र तद्देवताकचर्वादौ
त्रि० स्त्रियां ङीप् ।
" भर्ग " पुल्लिंग भ्रस्ज् धातु--घञ् प्रतत्यय भर्जादेशे कुत्वम्। भृगु
 
ज्योतिः-पदार्थे 

३ आदित्यान्तर्गते ऐश्वरे तेजसि, 
“आदित्यान्तर्गतंवर्चा भर्गाख्यं तन्मुमुक्षिभिः। जन्ममृत्युविनाशायदुःखस्य त्रितयस्य च।
ध्यानेन पुरुषैर्यच्च द्रष्टव्यं सूर्य्य-मण्डले”

तस्य तेजस ऐश्वरत्वञ्च 
“यदा-दित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि य-च्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मासकम्”
इति गीतायामुक्तम्। भावे घञ्। 

भर्जने च। 

यह मन्त्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है।
इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता ( सूर्य ) हैं।
वैसे तो यह मन्त्र विश्वामित्र के इस सूक्त के १८ मन्त्रों में केवल एक है, किन्तु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरम्भ में ही ऋषियों ने कर लिया था ।
और सम्पूर्ण ऋग्वेद के १० सहस्र मन्त्रों में इस मन्त्र के अर्थ की गंभीर व्यञ्जना सबसे अधिक की गई।
इस मन्त्र में २४ अक्षर हैं।
उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं।
किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में और कालान्तरण के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओ३म् कार को जोड़कर मन्त्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ:
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(१) ॐ= सूर्य का वाचक तथा रवि का भावक रूप
(२) भूर्भव: स्व: = पृथ्वी पर जिसके कारण प्रकाश हो !
(३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य  = उस सूर्य का वरण करना चाहिए  !  --जो अग्नि देव का रूप है ।
यह अग्नि रूप सूर्य देव के प्र - प्रकृष्ट  च-और  उदयात् = उदय होने से (प्रचोदयात् ) ।
धीमहि = हम सब धारण करें । धियो = बुद्धि में स्वर् = प्रकाश  यो = जो  न: = हम सबके लिए है ।

गायत्री तत्व क्या है और क्यों इस मन्त्र की इतनी महिमा है, इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है।
ऋषियों की मान्यता के अनुसार गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मान
व जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक सम्बन्धों की पूरी व्याख्या कर देती है।
इस मन्त्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है।
जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है वैसे मन भी देव है ।
(देवं मन: ऋग्वेद, १,१६४,१८)।

मन ही प्राण का प्रेरक है।
मन और प्राण के इस सम्बन्ध की व्याख्या गायत्री मन्त्र को इष्ट है।
सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है।
इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है।
ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है।
कर्माणि धिय:, अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किन्तु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है।
यही उसकी चरितार्थता है।
किन्तु मन की इस कर्मक्षमशक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है।
उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरण के लिए आवश्यक है वही वरेण्य भर्ग है।
मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है।
उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो।
इस गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती।
यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है ।

धीमहि Gāyatrīmantra, ऋग्वेद - 3.62.1. नः – अस्मद्-इति उत्तमपुरुषवाचकं सर्वनाम | तस्य षष्ठी विभक्तिः बहुवचनं च | धियः धीः [ध्यै भावे क्विप् संप्रसारणं च] 1- Intellect, understanding;
धियः समग्रैः स गुणैरुदारधीः ऋग्वेद 3.3; तुलना करें. कुधी, सुधी . धियो यो नः प्र च उदयात्

__________________________________________ प्रस्तुति करण -यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---

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