शुक्रवार, 25 मई 2018

चमार कौन थे?


" चमार शब्द है जाति अथवा व्यवसाय परक विशेषण -👇____________________________________

चमार कौन थे ? इतिहास का एक बिखरा हुआ अध्याय" )👇.                        "इतिहास  के अँधेरों में ग़ु़म  एक महान जाति ।

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रुढ़िवादी वर्ण-व्यवस्था के पोषक पुरोहित वर्ग विशेष  द्वारा चमार को व्यवसाय परक विशेषण से जातिपरक नाम देकर शास्त्रों में उन पर शासन करने के विधान पारित अथव  आरोपित कर दिए गये।

और चमार शब्द को संस्कृत भाषा के चर्मकार शब्द से व्युत्पन्न कर दिया गया ; और समाज द्वारा यही इसकी व्युत्पत्ति- सिद्ध मान भी ली गयी ।

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यद्यपि अवान्तर काल में चमड़े का काम करने वाली(कौलितरीय- द्रविड वर्ग) की इस जन-जाति के लिए चमार शब्द व्यवसाय परक विशेषण के रूप में भी रूढ़ हो गया था। परन्तु  इनके लिए वस्त्र निर्माण हेतु भी चर्म से जुड़ना एक संयोग ही था। 

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पुष्य-मित्र सुंग ई०पू० (148) के निर्देशन में जब ब्राह्मण वर्चस्व को पुन:स्थापित करने के लिए योजना बद्ध तरीके से बौद्धमत के विरोध की प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गये अनेक ग्रन्थों  -जैसे मनु-स्मृति" पाराशर स्मृति आदि में 'चमार' जाति की उत्पत्ति (चाण्डाल स्त्री और निषाद पुरुष )से बतलाकर नि:सन्देह इनको हीन व हेय बनाने का प्रयास  की गया। 

★–जैसे कहीं कहीं  (वैदेह स्त्री और निषाद पुरुष) से  भी चर्मकार की उत्पत्ति वर्णित है।

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"कारावरो निषादात्तु चर्मकारः प्रसूयते । वैदेहिकादन्ध्रमेदौ बहिर्ग्रामप्रतिश्रयौ ।।36।

 (मनु-स्मृति- 10.36), 

"कारावरो निषाद्यां तु चर्मकार: प्रसूयते।चाण्डालात्पाण्डुसौपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान्।।२६।।

महाभारत अनुशासन पर्व बम्बई संस्करण (आध्याय 83 का 26वीँ श्लोक ।

" ब्रह्मवैवरत पुराण (दशमोऽध्याय श्लोक संख्या-103 पर तीव्र से चाण्डाल कन्या में चर्म कर) की व्युत्पत्ति बतायी जो प्रक्षिप्त ही है ।

तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह ।।
चर्मकार्य्यां च चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह। १०३।। (ब्रह्मवैवर्त पुराण)
अर्थात तीवर  पुरुष द्वारा चाण्डाल कन्या में चर्मकार उत्पन्न होता है।
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वर्द्धकी नापितो गोप : आशाप : कुंभकारक |
वाणिक्कित कायस्थ मालाकार कुटुंबिन ||
वरहो मेद चंडाल : दासी स्वपच कोलका |
एषां सम्भाषणात्स्नानं दर्शनादार्क वीक्षणम ||
( व्यास स्मृति:– 1/11-12)

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जबकि इनसे पूर्व की स्मृति जो शुक्राचार्य अथवा उशना के नाम पर रची गयी उस स्मृति में चर्मकार को सूत पिता और क्षत्राणी माता से उत्पन्न माना है। 

और यह तथ्य संगत भी है कि चर्मकार ढालधारी सैनिक होते थे।

यद्यपि सूत को भी प्रतिलोम क्षत्रिय माना गया है ; परन्तु प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न ।

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प्रतिलोम वह विवाह जिसमें पुरुष निम्न वर्ण का और स्त्री उच्चा वर्ण की हो।

प्रतिलोम शब्द का अर्थ ब्राह्मण के द्वारा ही अपने को उच्च मानकर निर्धारित किया गया है ।

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"शुक्रस्मृति में चर्मकार जाति का जन्म" 

नृपाद्ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।२।। जात: सूतोऽत्र निर्दिष्ट: प्रतिलोमविधिर्द्विज: वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:।।३।

"अर्थ–★

"नृप(क्षत्रिय) द्वारा ब्राह्मण की कन्या में विवाह सम्बन्ध होने पर जो पुत्र उत्पन्न होता है। वह सूत है ; और ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण द्विज हैं । ब्राह्मण शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य वर्ण के पुरुष जिनको शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत धारण अथवा (उपनयन) करने का अधिकार है वे द्विज ही हैं । 

मनुस्मृति के अनुसार यज्ञोपवीत मनुष्य का दूसरा जन्म माना गया है अत: सूत तो शास्त्रीय आधार पर क्षत्रिय ही है ; वह भी सात्विक क्षत्रिय क्योंकि जिसकी ब्राह्मणी माता है ।

ययाति की पत्नी देवयानी भी ब्राह्मणी थी; परन्तु उनकी सन्ताने तो वर्णसंकर अथवा प्रतिलोम नहीं थीं। केवल ययाति के शाप के कारण ही उन्हें तत्कालीन पुरोहितों ने हीन रूप में वर्णन किया अन्यथा वे क्षत्रिय ही थे।



★–सूत में हैं ब्राह्मण और क्षत्रिय के गुण-

 सूत में ब्राह्मण भाव के कारण  शास्त्रों का वक्ता होने का गुण विद्यमान हुआ । और क्षत्रिय भाव के कारण योद्धा का मार्गदर्शक अथवा उसके रथ को हाँकरने वाला होने का गुण विद्यमान हुआ।

 अत: सूत श्रेष्ठ  अथवा सात्विक क्षत्रिय है; जो रजोगुणी क्षत्रिय से श्रेष्ठ है; क्योंकि क्षत्रिय वर्ण के माता-पिता की सन्तान राजसिक क्षत्रिय होती है और सतोगुण- रजोगुण की अपेक्षा श्रेष्ठ व उच्च गुण है।  और सूत के द्वारा क्षत्रिय की कन्या में उत्पन्न संतान चर्म्मकार(चमार)है अत: चर्मकार श्रेष्ठ क्षत्रिय है ।  

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★–परन्तु सत्य को छिपा कर और अनुवाद गलत करके इन महान जातियों को हीन और पतित सिद्ध किया गया।

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और हीनता से ग्रस्त जनजातियांँ कब स्वाभिमान पर जीवन व्यतीत कर पाती हैं यह तो सर्वविदित ही है।

देखें---काशी के ब्राह्मणों द्वारा रचित पाराशर- स्मृति में ये श्लोकबद्ध वर्णन कल्पित व मनगढ़न्त है जिसमें अनेक सम्पन्न जातियों को भी शूद्र रूप में परिगणित किया गया है।

जो श्लोक पाराशर स्मृति में वर्णित है वह असंगत है क्योंकि इसमें सिद्धान्त हीन होकर अनेक जनजातियों को शूद्र वर्ण में वर्णन कर दिया है । ..

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"वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारको वणिक्। किरात: कायस्थो मालाकार: कुटुम्बिन ऐते चान्ये बहव: शूद्रा भिन्न स्वकर्मभिर्चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नटो वरटो मेद चाण्डादास श्वपचकोलका:।११।

एतेन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषांसम्भाषणाद्स्नानंदर्शनार्क वीक्षणम्।१२। 

अर्थ-

"वर्द्धकी (बढ़ई) ,नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 

चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।

और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन  करना चाहिए तब शुद्धि  होती है।

★–(यहाँ  कुछ बातें विचारणीय हैं कि वणिक् ( बनिया) और कायस्थ जो भारतीय समाज आज तक (सम्प्रति) में आर्थिकता और शैक्षिकता के उच्च पायदान पर प्रतिष्ठित हैं उन्हें स्मृतिकार द्वार शूद्र वर्ण में समायोजित करना इन ग्रन्थों के प्रक्षेपीकरण को सूचित करता है।

यहाँ कुछ बातें विचारणीय कि वणिक् और कायस्थ जो भारतीय समाज में आर्थिक और शैक्षिकता के उच्चपायदान पर आज भी प्रतिष्ठित हैं । उन्हे अन्य ग्रन्थों में एक पृथक वर्ण के रूप में  निर्धारित किया गया ।        जैसे कायस्थ का सम्बन्ध करण क्षत्रिय जाति से है।    और वणिक वैश्य वर्ण के अन्तर्गत पहले से ही समायोजित है तो यह मूर्खता पूर्ण लेखन इनके प्रक्षेप को प्रकाशित ही करता है। 

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भारतीय ग्रन्थों में अन्तर्विरोध और विरोधाभासी प्रकरण बहुतायत से हैं ;जो ग्रन्थों की प्रमाणिकता और प्राचीनता को संदिग्ध ही करते हैं ।

_________________________द्विजस्य भार्या शूद्रा तु धर्मार्थम् न क्व चिद् भवेत् रत्यर्थम् त तस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता।।(२६/५ विष्णु स्मृति)


द्विजस्य भार्या शूद्रा तु धर्मार्थे न भवेत् क्वचित्।५
रत्यर्थेमेव सा तस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिका।६
विष्णु स्मृति (२६)

"नृपाद् ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।२‌।

जात: सूतोऽत्र निर्दिष्ट: प्रति  लोमविधिर्द्विज: वेदानर्हस्तथा चैषां धर्माणां बोधक:।३।

अर्थ-क्षत्रिय से ब्राह्मण कन्या में विवाह होने पर जो पुत्र उत्पन्न होता है। वह सूत जाति का कहलाता है। यह प्रतिलोम विधि का द्विज क्षत्रिय है । यह वेदों के योग्य तथा धर्म का अनुबोधक होता है ।२-३।

"सूतात्विप्रप्रसूतायां सुतो वेणुक उच्यते। नृपायाम् तस्येैव जातो य: चर्मकारक:।।४।

सूत से ब्राह्मण की कन्या में उत्पन्न पुत्र वेणुक कहलाता है  और क्षत्रीय की कन्या में सूत से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह चर्मकार(चमार ) है। ।४।
सन्दर्भ सूत्र-
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"ब्राह्मण्यांक्षत्रियात्। चौर्याद्रथकार: प्रजायते।        वृत्तं च शूद्रवत्त सम द्विजत्वं प्रतिषिध्यते ।।५।            यानानां ये च वोढारस्तेषां च परिचारका:शूद्रवृत्या तु जीवति न क्षात्रं धर्माचरेत्।।६।  _______________________औशनसीस्मृतिप्रथमअध्याय-


वोढृ-(वहतीति  (वह् + तृच्) “ सूत रथवाहक-                  (मेदिनी कोश)
 
 
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"नृपाद् ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।।          जात:सूतोऽत्र निर्दिष्ट प्रतिलोमविधिर्द्विज:।        वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:।        (औशनसीस्मृति-     प्रथमोऽध्याय)

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अर्थान्वय- 
राजा (क्षत्रिय) से ब्राह्मण कन्या में विवाह सम्बन्ध होने से उत्पन्न सन्तान सूत है । अत: बीज प्रधान होने से सूत प्रतिलोम क्षत्रिय ही हैै।
 यह निर्देशित है ये प्रतिलोम( विपरीत) विधि का द्विज क्षत्रिय है ।                                    वेदों के योग्य और इन वेदों के धर्म का अनुबोधक ( व्याख्याता) होते हैं ।
उपर्युक्त श्लोक में यह कहीं नहीं लिखा है कि सूत को वेदों का अधिकार नहीं है ।
वस्तुत: सूत मैं ब्राह्मण और क्षत्रिय के समन्वित गुण होते हैं ।

अत: चर्मकार ( चमार )क्षत्रिय है।परन्तु इसे वर्ण संकर कहने का कारण क्या है ? 

चर्म्म चर्म्मनिर्म्मितद्रव्यादिकं करोतीति  इति चर्म्मकार उच्यते ।  (कृ + “कर्म्मण्यण्” )।  ३। २ । १।  इति अण् )  वर्णसङ्करजातिविशेषः ।  चामार इति मुचि इति च भाषा ।।  

"स तु चाण्डाल्यां तीवराज्जात: इति पाराशरपद्धति:" 

तत्पर्य्यायः  १-पादूकृत् इत्यमरः । २। १। ७।।  पादुकृत् २ चर्म्मारः ३ । इति तट्टीका ।।  चर्म्मकृत् ४ पादुकाकारः । इति हलायुधः ।।  चर्म्मरुः ५ कुरटः      । इति त्रिकाण्डशेषः ।।  

चर्म्म तन्निर्म्मितं पादुकादि करोति कृ--अण् उप० स० । १ पादुकादिकारके “चाण्डाल्यां तीव- राज्जातश्चर्म्मकार इति स्मृतः” पराशरोक्ते, २ सङ्कीर्ण्ण- जातिभेदे पुंस्त्री स्त्रियां जातित्वात् ङीष् । “चर्म्मकारस्य द्वौ पुत्रौ गणकोवाद्यपूरकः” । “मनुना तु वैदेह्यां निषादाज्जातस्य कारावराख्यचर्म्मकारसंज्ञोक्ता यथा “कारावरो निषादात्तु चर्म्मकारः प्रसूयते” उत्तरत्र वैदेह्यामेवेत्युक्तेः अत्रापि तस्यामेवेत्यन्वयः । उशनसा तु “सूताद्विप्रप्रसूतायां सूतोवेणुक उच्यते  नृपायामेव तस्यैव जातोयश्चर्म्मकारकः” इत्युक्तम् । एवञ्च मुनित्रयप्रामाण्यात् त्रिविधैव चर्मकारजातिः “धिग्वर्ण्णानां चर्म्म कार्य्यम्” मनुना तेषां वृत्तिरुक्ता  चर्म्मकरोति क्विप् चर्म्मकृदप्यत्र । ण्वुल् चर्म्मकारक तत्रार्थे

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परन्तु ये व्युत्पत्तियाँ शूद्र शब्द के समान ही आनुमानिक व मन गड़न्त और परस्पर विकल्प सूचक हैं जो सत्य की द्योतक नहीं हैं ।

क्योंकि सभी ग्रन्थों में एक समान नहीं हैं  किसी में कुछ लिखा तो किसी में कुछ ।
और विकल्प सत्य का द्योतक नहीं है ।
यह सब मिथ्या व झूँठ है ; 

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झूँठ बहुरूपिया व कायर होता है ।
जो टिक नहीं सकता अधिक देर तक ; परन्तु सत्य का कोई विकल्प नहीं होता है ।
ये निर्भीक व स्थिर होता है ।
प्रमाणित तथ्यों के आधार पर चमार शब्द की व्युत्पत्ति- शम्बर शब्द से हुई है ,जो कालान्तरण में चम्बर शब्द के रूप में आया , चम्बर ही चम्मारों का आदि पुरुष था।

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क्योंकि भारोपीय वर्ग की भाषाओं में यह प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं ।
कि "श" तालव्य उष्म वर्ण अपने वर्ग के " च" वर्ण मे परिवर्तित प्राय: हो जाता है ।

शम्बर का  (Chamber) यूरोपीय भाषा परिवार में रूप है । जिसे फ्रेंच भाषा के प्रभाव से  शम्बर उच्चारण करेंगे
तथा ग्रीक भाषा के प्रभाव से कम्बर उच्चारण करेंगे ।
लैटिन---जर्मन प्रभाव से चम्बर उच्चारण करेंगे ...
जैसे चाचा को काका अंग्रेज़ी(जर्मन- लैटिन ) प्रभाव से कहा गया .....
नि:सन्देह चोर और चम्बर (चम्वर) शब्दों का मूल अर्थ "आच्छादित करने वाला " ही है ।

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-👇सर्वे चौरकुले जाताश्चोरयानाः परस्परम् ।स्वल्पेनाख्या भविष्यन्ति यत्किंचित्प्राप्य दुर्गताः।।१९।

अर्थ-

सभी बौद्ध चौर( चौल-कोल) कुल में उत्पन्न होकर चोरी करते हुए आपस में लूटेगें अल्प धन से ही ख्यात हो जायेंगे और फिर दुर्गति को प्राप्त होंगें।

न ते धर्मं करिष्यन्ति मानवा निर्गते युगे । ऊषार्कबहुला भूमिःपन्थानस्तस्करावृताः।२०

 अर्थ-

न वे लोग धर्म करेंगे युग की समाप्ति पर भूमि ऊषर और अकोआ से व्याप्त हो जाएगी।

हरिवंशपुराण भविष्य्य पर्व-3.3.२० ।।

(हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अध्याय तृतीय)

"चोल " शब्द "कोल" का परवर्ती दक्षि़णीय रूप है ;और कोल जन जाति के लोग परम्परागत रूप से  हिमालय पर चम्बर गाय के वालों से ऊनी वस्त्रों का निर्माण करते थे ।

चीन की सीमा-क्षेत्रों पर ये लोग रहते थे ।
कोरिया देश प्रमाणत: कोलों का देश है ।
कोरियन लोग बौद्ध मत के अनुगामी हैं ।
चीन का सांस्कृतिक नाम ड्रेगन (Dragan)
है जो द्रविड का नमान्तरण है।

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कालान्तरण में ड्रेगन का अर्थ केवल सर्प तक रूढं कर लिया लैटिन शब्द ड्रेकॉ (Draco) से सम्बद्ध  यह शब्द भारोपीय वर्ग की भाषाओं में है। 

"द्रविडों की एक प्रधान शाखा थी कोल जिनका तादात्म्य प्राचीन फ्रॉन्स के गॉल जन-जाति से प्रस्तावित है। जिनके पुरोहित ड्रयूड (Druids) थे ।शम्बर कोल जन जाति से सम्बद्ध था।

लोक-वार्ताओं के अनुसार आज भी चमार-कोरिया शब्द साथ-साथ हैं।

चम्बर को कालान्तरण में एक पुरुष सत्ता के रूप में मिथकीय रूप भी दिया गया ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के तृतीय सूक्त के छठे .श्लोकाँश (ऋचा) में यही तथ्य पूर्ण- रूपेण प्रतिध्वनित है ।

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साबर लोग ( शबर और साओरा ) मुंडा जातीय समूह जनजाति के आदिवासी में से एक हैं जो मुख्य रूप से झारखंड , छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश , उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में रहते हैं । 

ब्रिटिश राज के दौरान, उन्हें आपराधिक जनजाति अधिनियम 1871 के तहत 'आपराधिक जनजातियों' में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया था, और अभी भी आधुनिक समय में सामाजिक कलंक और बहिष्कार से पीड़ित हैं।

सबारा जन जाति को भी नम्बर से सम्बन्धित माना जाता है।
ये महत्वपूर्ण आबादी के साथ क्षेत्र
ओडिशा 10,000
धर्म
पारंपरिक मान्यताओं, सरना विश्वास
संबंधित जातीय समूह
मुंडास , हो , संथाल और अन्य सोम-खमेर लोग
साओरा के रूप में भी जाना जाता है, 

सबर जनजाति को हिंदू महाकाव्य महाभारत में उल्लेख मिलता हैै। जबकि पूर्वी सिंहभाम जिले के कुछ हिस्सों में मुख्य रूप से मुसाबानी में , उन्हें करिया में जाना जाता है। 

कार्यकर्ता महाश्वेता देवी इन वन जनजातियों के साथ काम करने के लिए जाने जाते हैं। 

यह समावेशी जनजाति मुख्य रूप से झारखंड के पूर्व सिंहभाम जिले में और पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में पाया जाता है।

परंपरागत रूप से वन-निवास जनजाति में कृषि में अनुभव का अभाव है, और अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर भरोसा करते हैं। 

हाल के वर्षों में, क्षेत्र में नक्सली विद्रोह के प्रसार के साथ, पुलिस अक्सर जंगल तक पहुंच तक सीमित होती है। 2004 में, मिदनापुर जिले के अमलासोल के सबार गांव में पांच लोगों की मौत कई महीनों के भुखमरी के बाद हुई,।

जो एक राष्ट्रीय मीडिया फूरोर की ओर अग्रसर है। इसके बाद, दरबार महिला सामनवे कमेटी (डीएमएससी) ने कोलकाता से यौन श्रमिकों द्वारा आंशिक रूप से वित्त पोषित क्षेत्र में एक स्कूल शुरू किया। 

शम्बर से सम्बद्ध होने से ये जन-जाति शाबर कहलाती है ।

एक दैत्य जो वेद के अनुसार दिवोदास का बड़ा शत्रु था। दिवोदास की रक्षा के लिये इंद्र ने इसे पहाड़ पर से नीचे गिराकर मार डाला था।

एक दैत्य जो रामायण और महाभारत में कामदेव का शत्रु कहा गया है। 

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जून 2008 में, साबर को अपने कई पश्चिम बंगाल गांवों में गंभीर बाढ़ का सामना करना पड़ा, और फिर कैथोलिक मिशनरियों से बड़ी मात्रा में सहायता प्राप्त हुई।

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महासावेता देवी द्वारा हंटर की पुस्तक , सागाड़ी और मंडीरा सेनगुप्ता, 2002 के सीगल द्वारा अनुवादित। आईएसबीएन 81-7046-204-5 ।
12 अक्टूबर, 2007 को महास्वेता देवी , तेहेल्का ने नफरत, अपमानित, कुचला।

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वस्तुत: विद्रोही बागी असुर और दस्यु जैसे शब्द समानार्थी ही थे 

दस्यु का अर्थ यद्यपि ईरानी भाषा में दह्यु के रूप पराक्रमी ,नायक आदि है ।
चौर की मर्यादाऐं भले ही नहों परन्तु 
दस्युयों में भी मर्यादाऐं होती हैं ।

 क्यों दस्यु वस्तुत वे विद्रोही थे जिन्होनें शुंग कालीन ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था और सामाजिक मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया और अपने अधिकारों के लिए विद्रोह का पथ अधिग्रहीत किया।
(महाभारत के शान्ति पर्व के अन्तर्गत आपद्धर्म 
एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय ) 
दस्युयों की नैतिकता और मर्यादाओं का वर्णन करते हुए उनकी प्रशंसा की है।
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यथा सद्भि: परादानमहिंसा दस्युभि: कृता ।
अनुरज्यन्ति भूतानि समर्यादेषु दस्युषु।।15।
दस्यु में भी मर्यादा होती है जैसे अच्छे डाकू दूसरों का धन तो लूटते हैं परंतु हिंसा नहीं करते किसी की इज्जत नहीं लूटते हैं ।
जो मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं उन लुटेरों में बहुत से प्राणी नैतिकता का पालन तथा स्नेह भी करते हैं क्योंकि उनके द्वारा बहुतों की रक्षा भी होती है।15

अयुद्ध्यमानस्य वधो दारामर्ष: कृतघ्ना।
ब्रह्मवित्तस्य चादानं नि:शेषकरणं  तथा ।16।

स्त्रिया मोष: पतिस्थानं दस्युष्वेतद् विगर्हितम्।
संश्लेषं च परस्त्रीभिर्दस्युरेतानि वर्जयेत्।17।

युद्ध ना करने वालों को मारना, पराई स्त्री का बलात्कार करना, कृतघ्नता, ब्राह्मण के धन का अपरण, किसी का सर्वस्व छीन लेना ,कुमारी कन्या का अपहरण करना, तथा किसी ग्राम आदि पर आक्रमण करके स्वयं उसका स्वामी बन बैठना – यह सब बातें डाकुओं में भी निन्दित मानी गई हैं।16-17।

अभिसंदधते ये च विश्वासायास्य मानवा: ।
अशेषमेवोपलभ्य कुर्वन्तीति विनिश्चय:।18।

जिनका सर्वस लूट लिया जाता है वह मनुष्य और डाकुओं के साथ मेलजोल और विश्वास बढ़ाने की चेष्टा करते हैं और उनके स्थान आज का पता लगाकर फिर उनका सर्वस्व नष्ट कर देते हैं यह निश्चित बात है।18।

तस्मात् सशेषं कर्तव्यं  स्वाधीनमपि दस्युभि:।
न बलस्थो८हमस्मीति नृशंसानि समाचरेत् ।19।

इसलिए दस्युयों को उचित है कि वह दूसरों के धन को अपने अधिकार में पाकर भी कुछ से छोड़ दें सारा का सारा न लूट ले "मैं बलवान हूं ऐसा समझकर क्रूरता पूर्वक बर्ताव न करें।19

स शेषकारिणस्तत्र शेषं पश्यन्ति सर्वश:।
नि:शेषकारिणो नित्यं नि:शेषकरणाद् भयम्।20।

जो डाकू दूसरों के धन को शेष छोड़ देते हैं वह सब ओर से अपने धन का भी अवशेष देख पाते हैं तथा जो दूसरों के धन से कुछ अवशेष नहीं छोड़ते उन्हें सदा अपने धन के भी अवशेष न रह जाने का भय बना रहता है।20।

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"उत दासं कौलितरं बृहत:पर्वतात् अधि।      आवहन इन्द्र शम्बरम्।।

(ऋगवेद मण्डल चतुर्थ  सूक्त ३०

पद-पाठ-

उत । दासम् । कौलिऽतरम् । बृहतः । पर्वतात् । अधि ।अव । अहन् । इन्द्र । शम्बरम् ॥१४।

(सायणभाष्यार्थ-)

“उत =अपि च हे "इन्द्र त्वं "दासम् =उपक्षपयितारं "कौलितरं =कुलितरनाम्नोऽपत्यं “शम्बरम्= असुरं "बृहतः= महतः पर्वतात् =अद्रेः "अधि= उपरि "अव =अवाचीनं कृत्वा "अहन्= हतवानसि ॥  

(कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्”)

  "इस सूक्त की  लगभग सभी  ऋचाओं में (उत दासं) पद  हैं । सायण ने भी कहीं दास पद का अर्थ (उपक्षयितार).  

"दसु=दस्=उपक्षये(विनाशे) 

दस्=धातु के धातु पाठ में अन्य अर्थ भी हैं । परन्तु सायण ने रूढिवाद से प्रेरित पूर्वाग्रह पूर्वक दस् धातु का अर्थ प्रकरण अनुरूप नाशकरना( उपक्षयकरना ही किया है । अन्यथा धातुपाठ में तो ये निम्न अर्थ भी हैं ।


 - दस्यति अदसत् दस्त्वा, दसित्वा वा दान्तशान्त (7227) इति दस्तः, दसितः रक् (द्र0 उ0 213) दस्रो अश्विनौ यजिमनिशुन्धि (उ0 320) इति युच्-दस्युः 101अर्थ


शंबर (कौलितर) n.  एक असुर, जो इंद्र का शत्रु था [ऋ. १.५१.६, ५४.४] । ‘कुलितर’ का पुत्र होने के कारण, इसे ‘कौलितर’ पैतृक नाम प्राप्त हुआ था [ऋ. ४.३०.१४] । सायण के अनुसार, आकाश में स्थित मेघ को ही वैदिक साहित्य में ‘शंबर’ कहा गया है । इस संबंध में यह ‘वृत्र’ से साम्य रखता है (वृत्र देखिये) ।
शंबर (कौलितर) n.  इस ग्रंथ में शुष्ण, पिप्रु, वर्चिन्, आदि असुरों के साथ इसका निर्देश प्राप्त है [ऋ. १.१०१, १०३, २.१९.६] । यह एक दास था, एवं यह पर्वत पर रहता था [ऋ. २.१२] । वृत्र के समान इसके भी आकाश में अनेकानेक दुर्ग (शंबराणि) थे, जिनकी संख्या ऋग्वेद में नब्बे [ऋ. १.१३०]; निन्यान्वे [ऋ. २.१९]; अथवा एक सौ [ऋ. २.१४] बतायी गयी है ।
शंबर (कौलितर) n.  यह स्वयं को देवता समझने लगा, जिस कारण इंद्र ने इसे काट कर पर्वत से नीचे गिरा दिया, एवं इसके सारे दुर्ग ध्वस्त किये [ऋ. ७.१८, १.५४, १३०] । इसका प्रमुख शत्रु दिवोदास अतिथिग्व था, जिसके कहने पर इंद्र ने इसका वध किया [ऋ. १.५१] । इसका वध करने के लिए, मरुतों ने एवं अश्विनों ने इंद्र की यहायता की थी [ऋ. ३.४७, १. ११२.१४] । ऋग्वेद में अन्यत्र, बृहस्पति के द्वारा इसके दुर्ग ध्वस्त किये जाने का निर्देश प्राप्त है [ऋग्वेद. २.२४] ।
शंबर (कौलितर) n.  इन ग्रन्थों में इसे कश्यप एवं दनु का पुत्र कहा गया है [भागवत. ६.१०.१९] । यह वृत्रासुर का अनुयायी था, जिस कारण इंद्र-वृत्र युद्ध में इंद्र ने इसका वध किया [महाभारत. सौ. ११.२२] । अपनी मृत्यु के पूर्व इंद्र को इसने ब्राह्मण-महात्म्य समझाया था [महाभारत. अनुशासन. ३६.४-११] । धर्म ने अपने समर्थन के लिये, इसके अनेकानेक उद्धरणों का उपयोग किया था [महा. उद्योग. ७२.२२] । इससे प्रतीत होता है कि, यह स्वयं एक राजनीतिज्ञ, एवं ग्रन्थकार भी था । योगवसिष्ठ में इसकी कथा ‘ब्राह्मत्वभाव’ के तत्त्व का प्रतिपादन करने के लिए दी गयी है [योग. वाशिष्ठ. ४.२५] ।
शंबर (कौलितर) II. n.  कंस का अनुयायी एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था । इसकी पत्‍नी का नाम मायावती था । कृष्णपुत्र प्रद्युम्न के द्वारा अपना वध होने की वार्ता एक बार इसे आकाशवाणी से ज्ञात हुई जिस कारण, इसने उसका अर्भकवस्था में वध करना चाहा। किंतु इसकी पत्‍नी मायावती ने प्रद्युम्न की जान बचायी। आगे चल कर प्रद्युम्न ने ‘महामाया विद्या’ की सहायता से इसका, पुत्र अमात्य, एवं सेनापतियों के साथ वध किया [महाभारत. अनु. १४.२८];[ विष्णुपुराण. २७];[ भागवत. १०.३६.३६]; प्रद्युम्न एवं मायावती देखिये । पुराणों में इसके सौ पुत्रों का निर्देश प्राप्त है, किंतु इसकी पत्‍नी मायावती संतानरहित होने का भी निर्देश प्राप्त है । इससे प्रतीत होता है कि, इसकी मायावती के अतिरिक्त कई अन्या पत्‍नीयाँ भी थी।
शंबर (कौलितर) III. n.  एक दानव राजा, जो हिरण्याक्ष का पुत्र था [भागवत. ७.२.४] । बलि वैरोचन के साथ, वामन ने इसे भी पाताललोक में ढकेल दिया [ब्रह्मांडपुराण. ३.४.६] ।
शंबर (कौलितर) IV. n.  त्रिपुर नगरी का एक असुर, जिसने इंद्रबलि-युद्ध में बलि के पक्ष में भाग लिया था [भागवत. ८.६.३१] ।
शंबर (कौलितर) V. n.  कीकट देश का एक अंत्यज, जो शालिग्राम तीर्थ में स्नान करने के कारण मुक्त हुआ [पद्मपुराण. पाताल खण्ड. २०] ।

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उत दासं कौलितरं बृहतःपर्वतादधि ।
अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥१४॥

उत दासस्य वर्चिनः सहस्राणि शतावधीः ।
अधि पञ्च प्रधीँरिव ॥१५॥

उत त्यं पुत्रमग्रुवः परावृक्तं शतक्रतुः ।
उक्थेष्विन्द्र आभजत् ॥१६॥

उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥

उत त्या सद्य आर्या सरयोरिन्द्र पारतः ।
अर्णाचित्ररथावधीः ॥१८॥

अनु द्वा जहिता नयोऽन्धं श्रोणं च वृत्रहन् ।
न तत्ते सुम्नमष्टवे ॥१९॥

शतमश्मन्मयीनां पुरामिन्द्रो व्यास्यत् ।
दिवोदासाय दाशुषे ॥२०॥

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अर्थात् शम्बर के पिता कोलों के राजा थे ।
इसी शम्बर का युद्ध देव संस्कृति के अनुयायी भारत में आगत देवों से हुआ था ;जो इन्द्र के अनुुुयायी थे ।
इस सूक्त के अंश में कहा गया है " कि शम्बर नामक दास जो कोलों का मुखिया है; पर्वतों से नीचे इन्द्र ने युद्ध में गिरा दिया "
ऐसा ऋग्वेद में वर्णन है ।
भारोपीयमूल से सम्बद्ध भाषा फ्रेंच में भी यह शब्द है ।

भारतीय पुराणों में निम्नलिखित जनजातियां जो देव संस्कृति के सदैव से विरुद्ध रहीं हैं ।

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त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम् ।
महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे ॥६॥ (ऋग्वेद १/५१/६)

पदपाठ-

त्वम् । कुत्सम् । शुष्णऽहत्येषु । आविथ । अरन्धयः । अतिथिऽग्वाय । शम्बरम् ।महान्तम् । चित् । अर्बुदम् । नि । क्रमीः । पदा । सनात् । एव । दस्युऽहत्याय । जज्ञिषे ॥६।

सायण-भाष्य-

हे इन्द्र “त्वं “कुत्सं =कुत्ससंज्ञकमृषिं “शुष्णहत्येषु । शुष्णः= शोषयिता- एतन्नाम्नोऽसुरस्य हननयुक्तेषु= संग्रामेषु “आविथ =ररक्षिथ । तथा “अतिथिग्वाय ={अतिथिभिर्गन्तव्याय दिवोदासाय “शम्बरम्= एतन्नामानमसुरम् "अरन्धयः= हिंसां प्रापयः । तथा “महान्तं “चित् अतिप्रवृद्धमपि “अर्बुदम् एतत्संज्ञकमसुरं "पदा =पादेन “नि “क्रमीः =नितरामाक्रमिताभूः । यस्मादेवं तस्मात् "सनादेव चिरकालादेवारभ्य “दस्युहत्याय =उपक्षपयितॄणां हननाय }“जज्ञिषे । सर्वदा त्वं दस्युहननशीलो भवसीत्यर्थः॥ अरन्धयः । ‘रध हिंसासंराद्ध्योः'। “रधिजभोरचि' ( पा. सू. ७. १. ६१) इति धातोः नुम् । अतिथिग्वाय । गमेः औणादिको ड्वप्रत्ययः । क्रमीः । ‘ क्रमु पादविक्षेपे'। हम्यन्तक्षण ' ( पा. सू. ७. २. ५) इति वृद्धिप्रतिषेधः। ‘ बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि ' इति अडभावः । पदा । सावेकाचः° ' इति वा ‘ उडिदंपदादि° ' इति वा विभक्तेरुदात्तत्वम् । जज्ञिषे । ‘जनी= प्रादुर्भावे'। लिटि • गमहन इत्यादिना उपधालोपः ॥

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कोल जाति को पतित क्षत्रिय के रूप वर्णन पुराण और स्मृतियों में हुआ है ।

"शका यवनकाम्बोजाः पारदाश्च विशाम्पते ।
कोलिसर्पाः समहिषा दार्द्याश्चोलाः सकेरलाः।१८।

हरिवंशपुराणम् पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः १४-

एक प्रदेश या राज्य का प्राचीन नाम विशेष—हरिवंश में कोल राज्य का नाम दक्षिण के पांडय और केरल के साथ आया है । 

पर बौद्ध ग्रंथों में कोल राज्य कपिलवस्तु के पूर्व रोहिणी नदी के उस पार बतलाया गया है । शु्द्धौदन और सिद्धार्थ दोनों का विवाह इसी वंश में हुआ था । 

इस कोल वंश के विषय में बौद्धों मे ऐसा प्रसिद्ध कि इक्ष्वाकुवंश के चार पुरुष अपनी कोढ़िन बहन को हिमालय के अंचल में ले गए और उसे एक गुफा में बंद कर आए ।

कुछ दिनों के उपरांत काशी का एक कोढ़ी राजा भी उसी स्थान पर पहुँचा और काली मिर्च (कौल) खाकर अच्छा हो गया ।

 राजा ने एक दिन देखा कि एक सिंह उस गुफा के द्वार पर रखे हुए पत्थर को हटाना चाहता है । राजा ने सिंह को मारा और गुहा से उसे कन्या का उद्धार करके उसका कुष्ट रोग छुड़ा दिया ।

उन्ही दोनों के संयोग से कौल वंश की उत्पत्ति हुई। स्कंद पुराण के हिमवत् खंड लिखा में है कि कोल एक राजबंस जाति

पद्मपुराण में लिखा है कि जब यवन, पल्लव, कोलि, सर्प आदि सगर के भय से वशिष्ठ की शरण में आए, तब उन्होंने उनका सिर आदि मुँड़ाकर उन्हें केवल संस्कारभ्रष्ट कर दिया । आजकल जो कोल नाम की एक जंगली जाति है, वह आर्यों से स्वतत्र एक आदिम जाति जान पड़ती है, और छोटा नागपुर से लेकर मिरजापुर के जंगलों तक फैली हुई है । 

प्राचीन जातीयों मिथकीय रूप दिया गया जो परस्पर विरोधान्वित हैं। शम्बर शब्द भारोपीय वर्ग की भाषाओं में भी है।

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(Chamber) तथा( Chamber )अथवा (Camera )
के रूप में वर्णित है।
"सिमरी " या  "वेल्स"..अथवा वराह लोगों का विशेषण था यह चम्बर शब्द ...
जिनका सम्बन्ध फ्राँस के मूल निवासी गॉलों से था ।
यह हम ऊपर संकेत कर चुके हैं ।
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सिमरी (Cymri)
जर्मनिक जन-जातियाँ  से सम्बद्ध नहीं थे नहीं थे 
वह तो गॉलों से सम्बद्ध थे।                          ग्रीक पुरातन कथाओं में भी भारतीय आर्यों के समान शम्बर का वर्णन"चिमेरा"(Chimaera )के रूप में है -- जो अग्नि को अपने मुख से नि:सृत करता है ।
भारतीय वेदों में इसे ही शम्बर कहा है

प्राचीन काल में आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से दलित और अस्पृश्य जाति के रूप में यह चम्बर के वंशज हिंदू वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्ण में मान्य होकर शताब्दियों से हीन स्तर पर स्थित रहे ।

इसका कारण भी यही था कि ये लोग कोलों से सम्बद्ध थे!
कुली अथवा  दास बनाकर जिनसे दीर्घ काल तक भार-वाहक के रूप में दासता कर बायी गयी ।
और ये कोल लोग बाद मे आगत देव- संस्कृति के उपासक पुरुष सत्ता प्रधान  देवों उपासकों के सांस्कृतिक विरोधी तो थे ही  ।
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देव संस्कृति के अनुयायी पुरोहितों ने इन कोलों  को सर्व-प्रथम शूद्र कहा ..
कोल :--काली अथवा दुर्गा के उपासक मातृ सत्ता-प्रधान समाज के अनुमोदक थे।                ये लोग परम्परागत रूप से वस्त्रों का निर्माण करते हीे थे ,

भारतीय ब्राह्मणो के सांस्कृतिक ग्रन्थों में --
इनके स्वरूप पर व्यंग्य किया है ।
------------------------------------------------------------भविष्य पुराण मेें शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति अनुमानित रूप में इस प्रकार है ।

शोचन्तश्व द्रवन्तश्च परिचर्यासु ये नराः ।
निस्तेजसोऽल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानब्रवीत्तु सः शूूू्द्रोच्यते।।२३।

 भविष्यपुराण  प्रथम ब्रह्मखण्ड अध्याय (44) श्लोक (23)

___________
शूद्र शब्द भी यही अर्थ है -----"वस्त्रों का निर्माण करने वाला "।
इस शब्द का तादात्म्य यूरोपीय भाषा परिवार में आगत शूद्र शुट्र (Shouter) शब्द से है जो लैटिन में (Sutor)
प्राचीन नॉर्स में सुटारी -(Sutari) एग्लो- सैक्शन -(Sutere)
तथा गॉथिक भाषा में -(Sooter)
के रूप में है ।
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अन्त: शाक्ता बहिश्शैवा सभा मध्ये च वैष्णवा 
नाना रूप धरा कौला विचरन्तीह महितले ||
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अर्थात् भीतर से ये शक्ति यानि दुर्गा आदि के उपासक शाक्त हैं ।
बाह्य रूप से शिव के उपासक ,सभा के मध्य में वैष्णव हैं
अनेक रूपों में ये द्रविड लोग इस पृथ्वी पर विचरण करते हैं ।
बुद्ध की माता और पत्नी दौनों कोल समाज से थी
शाक्य शब्द का अर्थ शक्ति का उपासक कोल समुदाय ही है ।......
कदाचित वाल्मीकि-रामायण कार ने ...
इसी भाव से भी प्रेरित होकर ....
अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३४ वें श्लोक में "चोर:"
कहा है ।
क्योंकि बुद्ध से पूर्व चोर: शब्द चोल अथवा कोल  जन जाति का विशेषण था ।
क्योंकि वे आच्छादित करने वाले अथवा वस्त्रों का निर्माण करने वाले थे ।
कोल शब्द ही जुलाहा के रूप में लोक में प्रसिद्ध हो गया ..
ईरानी आर्यों ने शाक्तों को सीथियन (Scythian) कहा
जो शक लोग ही थे ।,
सत्य पूछा जाय तो शक भी शाक्यों या कोलों की ही एक शाखा थी ।
सुमेरियन संस्कृति में ये लोग केल्डियनों के अथवा द्रुजों के रूप में बाइबिल में वर्णित हैं .....

तथा बाल्टिक सागर अथवा स्केण्डिनेवियन संस्कृति में ये  कैल्ट तथा ड्रयूडों के रूप में  विद्यमान थे ।.
दक्षिण भारत में द्रविड लोग.. चेल चेट चेर तथा कोल कोड गौड़ तथा कोर के रूप में भी हैं ...
इसी चोल  से चोर शब्द का विकास हुआ है
यह भाषा वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो गया है ।
जिसका मूल अर्थ होता है ---"आच्छादक या छुपाने वाला " परन्तु शरीर को को शीत वर्षा आदि से आच्छादन हेतु वस्त्रों का निर्माण करने वाला।

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परन्तु कालान्तरण में ब्राह्मण समाज के लेखकों ने चोर शब्द का अर्थ द्वेष वश तस्कर के रूप में विकृत कर दिया ।
प्रथम प्रयोग...
वाल्मीकि - रामायण में बुद्ध से लिए "चोर" शब्द का हुआ ,
वाल्मीकि-रामायण में राम के द्वारा जावालि ऋष से सम्वाद करते हुए ...
राम के द्वारा बुद्ध को चोर और नास्तिक कहलवाया गया है ..
बुद्ध को चोर तथा नास्तिक राम के द्वारा कहलवाया
देखें---
यथा ही चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं
नास्तिकमत्र विद्धि ।।
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वाल्मीकि-रामायण :---अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण के रूप में वर्णित किया गया है ।......
इसी प्रकार और शब्दों की भी दुर्दशा हुई .........

जैसे- बुद्ध आदि शब्दों को बुद्धू कर दिया
जिसका अर्थ है :----- मूर्ख...
कहीं अरब़ी/फ़ारसी भाषा में "बुत"
मूर्ति का वाचक हो गया...
विश्व इतिहास में इन द्रविडों का बहुत ऊँचा स्थान है ।
यूरोपीय पुरातन कथाओं में ड्रयूड (Druids) के रूप में..
भारतीय धरातल पर शूद्र जन-जाति द्रविड परिवार की एक शाखा के रूप में वर्णित है ।

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शुक्लदन्ताऽञ्जिताक्षाश्च मुण्डाः काषायवासस:।शूद्रा धर्मं चरिष्यन्ति शाक्यबुद्धोपजीविनः।१५।।

भारतीय पुराणों में भी और यूरोपीय पुरातन कथाओं में भी....
भारत में रहने वाले शूद्र ...
क्योंकि अहीरों के सानिध्य में रहने वाले ये शूद्र लोग बिलोचिस्तान में ब्राहुई भाषा बोलते थे ।
जो द्रविड परिवार की एक शाखा थी ।

परन्तु अहीर जनजाति में ही यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ। 
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द्रविड प्राचीन काल में अध्यात्म विद्या के प्रथम प्रवर्तक थे ।
सृष्टि के मूल-पदार्थ (द्रव) के विद--अर्थात् वेत्ता होने से इनकी द्रविड संज्ञा सार्थक हुई ।......
योग की क्रिया-विधि इनके लिए आत्म-अनुसन्धान की एक माध्यमिकता थी ।

आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म और कर्म वाद के सम्बन्ध में इनकी ज्ञान-प्राप्ति सैद्धान्तिक थी।  
भारतीय आर्यों के सांस्कृतिक ग्रन्थों में वर्णित(ऊँ)प्रणवाक्षर नाद-ब्रह्म के सूचक ओ३म् शब्द...
तथा धर्म जैसे शब्द भी मौलिक रूप से द्रविड परिवार के थे "

ये ओ३म् का उच्चारण यहूदीयों के "यहोवा "की तरह एक विशेष अक्षर विन्यास से युक्त होकर करते थे :--
जैसे ऑग्मा (Ogma)अथवा  आ-ओमा (Awoma)  तथा  धर्म को druma. कहते थे ...
जो वन संस्कृति से सम्बद्ध है ... संस्कृत शब्द द्रुम: में यह भाव ध्वनित है
परन्तु देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से आगत भारतीय आर्यों ने इन्हीं के इन सांस्कृतिक शब्दों को
इन्हीं के लिए प्रतिबन्धित कर दिया :---
वैदिक विधानों का निर्माण करते.
"स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम "

मनु-स्मृति में वर्णित है
:- धर्मोपदेश विप्राणाम् अस्य कुवर्त: ।
तप्तम् आसेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिव:।।

तप्तमासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ।७५। (मत्स्य पुराण अध्याय 227का  75वाँ श्लोक)

मत्स्य पुराण में भी शूद्रों के प्रति दण्ड का यही विधान वर्णन है ।

एकजातिर्द्विजातिन्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यः प्रथमो हि सः ।। २२७.७३ ।।

नामजातिगृहं तेषामभद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयो मयः सङ्कुर्ज्वलन्नास्ये दशाङ्गुलः ।। २२७.७४ ।।

धर्मोपदेशं शूद्रस्तु द्विजानामभिकुर्वतः।
तप्तमासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ।। २२७.७५ ।।

श्रुतिं देशञ्च जातिञ्च कर्म शारीरमेव च।
वितथञ्च ब्रुवन् दण्ड्यो राजा द्विगुणसाहसम् ।। २२७.७६ ।।

मत्स्य पुराण अध्याय– (२२७)
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अर्थात् शूद्रों को केवल ब्राह्मण समुदाय का आदेश सुनकर उसे शिरोधार्य करने का कर्तव्य नियत था ,
उन्हें धर्म संगत करने का भी अधिकार नहीं था ,यदि वे ऐसा कर भी लेते आत्म-कल्याण की भावना से तो,  वैदिक विधान पारित कर , शूद्र जन-जाति की
ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया.
और इसका दण्ड भी बड़ा ही यातना-पूर्ण था ।
उनके मुख और कानों में तप्त तैल डाल दिया जाता था ।

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सभी वर्णों का अपराध कुछ आर्थिक दण्ड के रूप में निस्तारित हो जाता था , परन्तु शूद्रों के लिए केवल मृत्यु का ही विधान था ...
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देखें ---शतं ब्राह्मण माक्रश्य क्षत्रियो दण्डं अर्हति।
वैश्योप्यर्ध शतं द्वेवा शूद्रस्तु वधम् अर्हसि ।।।
                     मनु-स्मृति-- ८/२६७/
मनु-स्मृति में वर्णित है ,कि ब्राह्मण बुरे कर्म करे तब भी पूज्य है ।
क्योंकि ये भू- मण्डल का परम देवता है ।
देखें---
राम चरित मानस के अरण्यकाण्ड मे तुलसी दास लिखते हैं ।
" पूजयें विप्र सकल गुण हीना ।
शूद्र ना पूजिये ज्ञान प्रवीणा ।।

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अर्थात् ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ,
परन्तु शूद्र विद्वान होने पर भी पूज्य नहीं है "
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दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न तु शूद्रो जितेन्द्रियः।                                             कःपरित्यज्य गां दुष्टांगा दुहेच्छीलवतीं खरीं।८.२५। (पराशरस्मृति अष्टमोऽध्याय)

"दुराचारी ब्राह्मण भी पूजनीय है। परन्तु शूद्र जितेन्द्रीय भी पूजनीय नहीं है कौन दूषित अंगों वाली गाय को छोड़कर शीलवती गधईया को दुहे"
मनु स्मृति में भी कुछ ऐसा ही लिखा है ।
--------------------------------------------------
एवं यद्यपि अनिष्टेषु वर्तन्ते सर्व कर्मसु ।
सर्वथा ब्राह्मणा पूज्या: परमं दैवतं हितत् ।।
    --------------------------------                               (मनु-स्मृति-९/३१९ )
निश्चित रूप से तुलसी दास जी ने मनु-स्मृति का अनुशरण किया है ।


गायत्रीरहितो विप्रः शूद्रादप्यशुचिर्भवेत् ।
गायत्रीब्रह्मतत्त्वज्ञाः संपूज्यन्ते जनैर्द्विजाः।८.२४।(पराशरस्मृति अध्यायआठ)

"गायत्री मन्त्र से रहित ब्राह्मण शूद्र से श्रेष्ठ है ,"
मनु के नाम पर निर्मित मनु-स्मृति में
पुष्य-मित्र सुंग के निर्देशन में....
ब्राह्मणों ने विधान पारित कर दिया :--- कि शूद्र  ब्राह्मण तथा अन्य क्षत्रिय वर्णों  का झूँठन ही खायें , तथा उनकी वमन (उल्टी)भी  चाटे ..
  देखें---
__________________________________________

उच्छिष्टं अन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च ।
पुलकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।।
------------------------------------------
-अर्थात् उस शूद्र या सेवक को उच्छिष्ट झूँठन
बचा हुआ भोजन दें ।
फटे पुराने कपड़े , तथा खराब अनाज दें...

एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन् ।जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः ।।(8/270 मनुस्मृति)

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क्या खाद्य(खाने योग्य) है ? क्या अखाद्य है ?     
इसका निर्धारण भी तत्कालीन ब्राह्मण समाज के निहित स्वार्थ को ध्वनित करता है।यहाँ ब्राह्मण समाज की कुत्सित मानसिकता व कपट भावना मुखर हो गयी है ।
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अर्थात् ब्राह्मण माँस भक्षण करे , तो भी यह धर्म युक्त है
ब्राह्मण हिंसा (शर्मण) करे  , तब यह मेध है ।
जैसा कि कहा
मनु-स्मृति में-------
"वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति"
मनु-स्मृति- में देखें--- ब्राह्मण को माँस खाने का
विधान पारित हुआ है ।
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                  ★- विधान.......
यज्ञार्थ ब्राह्मणैर्वध्या: प्रशस्ता मृगपक्षिण:
प्रोक्षितं भक्षयन् मासं ब्राह्मणानां च काम्यया।।
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अर्थात् - ब्राह्मण पशु ,पक्षीयों का  ,
यज्ञ के लिए अत्यधिक वध करें ।
तथा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण उनके मांस को धोकर खायें ...

चमार केवल मृत पशु ओं के शरीर से चर्म उतारते थे , क्योंकि वे बुद्ध का अनुयायी होने से हिंसा नहीं करते थे।

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चम्मारों का कार्य वस्त्रों का निर्माण करना भी था युद्ध में ये लोग ही ढाल-धारी सैनिक थे..

 तब ये चर्मार: कहलाते थे .....
क्योंकि चर्मम् संस्कृत भाषा में ढाल को कहते हैं ।
यूरोपीय भाषा परिवार में सॉल्ज़र अथवा सॉडियर )Soudier ) अथवा Soldier
भी यही थे ।
सॉल्ज़र शब्द की व्युत्पत्ति- यद्यपि रोमन
शब्द Solidus -(एक स्वर्ण सिक्का )
के आधार पर निर्धारित की है ।
परन्तु ये पृक्त या पिक्ट लोग थे जो स्कॉटलेण्ड में शुट्र नामक गॉलों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
जो भारत में कोल कहलाते थे ।
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कारण संभवत: उनका वही उद्यम है, जिसमें चमड़े के जूते बनाना, मृत पशुओं की खाल उधेड़ना और चमड़े तथा उससे बनी वस्तुओं का व्यापार करना आदि आदि था।
संस्कृत के चर्मार, चर्म्मरु: चर्मकृत, चर्मक आदि चर्मकार के पर्याय वाची रूप हैं।
संस्कृत के चर्मार, चर्मकृत, चर्मक आदि चर्मकार के पर्यायवाची शब्द इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं।
आज सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से चमड़े का उद्योग एक अधम व्यवसाय बन गया है ।

परन्तु यूरोप की शीत प्रधान जल-वायु में चर्म कार्य हीन नहीं था न आज भी है ।
बड़ा ही श्लाघनीय था ।
यह केवल भारत में हुआ .
इसी से चर्मकार हीन समझे जाने लगे।.......

कालान्तरण में उद्यम के आधार पर जब जाति की उच्चता अथवा हीनता का प्रश्न उपस्थित हुआ ,
तब विचारकों का ध्यान इस ओर गया , और उन्होंने वर्णव्यवस्था के विपरीत मत प्रकट किए।
वर्णव्यवस्था के समर्थकों और विरोधियों के बीच यह समस्या दीर्घकाल तक उपस्थित रही।
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14 वीं शताब्दी के आसपास इस ढंग के संशोधनवादी और सुधारवादी दर्शन के कई व्यख्याता हुए ,जिन्होंने जातिगत रूढ़ियों और संस्कारों के विरुद्ध संगठित आंदोलन किए।
परन्तु कामयावी नहीं मिली .
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सत्रह करोड़ चमार क्या चमड़े का ही कार्य करते हैं ?
यह एक प्रश्नवाचक है तथ्य है ?
परन्तु फिर भी केवल चर्म कार्य करने वाले अर्थ में ही  चमार शब्द रूढ़ कर दिया गया है ।
जाटवों को चमार ही कहा गया है , तो यह एक द्वेष पूर्ण षड्यन्त्र ही था ।

"जाटव और चमार यद्यपि पृथक जाति के सूचक थे परन्तु कालानतरण में दौनों परसपर विलय होगये जाटव शब्द का उदय महाराष्ट्र से हुआ जादव शब्द से जिसे सन १९२२ ईस्वी सन् में कुछ जातीय अन्वेषक इतिहास कारों ने "जटिया चमारों से सम्बद्ध कर दिया यद्यपि जाटव मराठी जादव शब्द का पंजाबी करण रूप है। और  और जादव का मूल यादव शब्द है यद्यपि यादवों का चर्मव्यवसाय से दूर तक भी सम्बन्ध नहीं है परन्तु आधुनिक चमार "जाटव-(जादव) और महार का समायोजित रूप हैं । 


जाटव महासभा १९१७ में बनाई गई जिसके लीडर साहब माणिक चंद जाटव और स्वामी अछूनानंद आर्य समाजी थे।
१९१० के दशक में चमारों के लिए 'जाटव' उपनाम को अपनाने के लिए अभियान चलाया गया।
१९३१ की जनगणना में, उन्होंने चमारों को क्षत्रिय समूह में शामिल करने और उन्हें चमार से 'जाटव' के रूप में नामित करने की अपनी मांग के लिए एक आक्रामक भूमिका निभाई।  वे सफल हुए और भारत की नई जनगणना में चमारों को 'जाटव' कहा गया।_______________________________________

अखिल भारतीय जाटव महासभा– की स्थापना 1917 में राव साहब माणिक चंद जाटव और स्वामी अच्युतानंद के नेतृत्व में हुई थी । 

इसका गठन क्षत्रिय वर्ण में सामाजिक उत्थान के लिए चमारों के हितों को बढ़ावा देने के लिए किया गया था ।

अखिल भारतीय जाटव महासभा
संक्षेपाक्षर ★एबीजेएम
गठन★19 अक्टूबर 1917 (103 साल पहले)
संस्थापक★माणिक चंद जाटव-वीर
प्रकार★जाटव और चमार सामुदायिक संगठन
मुख्यालय★आगरा , उत्तर प्रदेश
क्षेत्र★भारत
मुख्य लोग★खेमचंद बोहरे (अध्यक्ष)
जुड़ाव★चमार , रविदासिया

नींव-

1910 के दशक में माणिक चंद जाटव, रामनारायण यादवेंदु और अन्य एक दूसरे के संपर्क में आए। उन्होंने चमारों के उत्थान और जाति को इस अपमानजनक नाम से मुक्त करने के लिए काम किया । उन्होंने ' जाटव ' उपनाम को अपनाने के लिए अभियान चलाया, जो उन नामों के साथ बदल गया जो निम्न पदानुक्रम को दर्शाता है। [1]

'जाटव' नाम पंडित सुंदरलाल सागर की पुस्तक 'जाटव जीवन' और रामनारायण यादवेंदु की 'का इतिहास' से आया है जो अपनी समान विरासत और ब्रज क्षेत्र के जाटों पर आधारित थे । उन्होंने क्षत्रियों की स्थिति की मांग की और आर्थिक समृद्धि ने कई चमारों को इन मध्यम जातियों के बराबर बना दिया। [२] [३] ब्रिटिश सरकार। आगरा, दिल्ली, मेरठ, कानपुर और अन्य प्रमुख शहरों में छावनी की स्थापना की, जिसने चमारों को खुद को साबित करने का अवसर दिया, उन्हें ब्रिटिश भारतीय सेना के लिए चमड़े के उत्पाद बनाने के लिए निविदाएं मिलीं , और कई जाटव सेना में भी शामिल हो गए। इस परिवर्तन ने स्थानीय चमारों पर प्रभाव डाला और वे एक छतरी के नीचे संगठित होने लगे। [४]

1931 की जनगणना में, उन्होंने चमारों को क्षत्रिय समूह में शामिल करने और उन्हें चमार से 'जाटव' नाम देने की अपनी मांग के लिए एक आक्रामक भूमिका निभाई । वे सफल हुए और भारत की नई जनगणना में चमारों को 'जाटव' कहा गया। [५]

गतिविधियां–

जाटवों ने मांसाहारी और जीवन शैली को उच्च जातियों के रूप में छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और उनमें से कुछ ने 'पवित्र धागा' अपनाया जो पहले आर्य समाज के प्रभाव में थे । [6]

उन्होंने कई स्कूलों की स्थापना की, संस्कृत को बढ़ावा दिया , व्यापार में निवेश और महिला सशक्तिकरण किया।

मुख्य लोग -

संदर्भ- 

  1. ^ पाई, सुधा (30 अगस्त 2002)। दलित अभिकथन और अधूरी लोकतांत्रिक क्रांति: उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी । सेज प्रकाशन भारत। आईएसबीएन 978-81-321-1991-3.
  2. ^ गायक, मिल्टन बी.; कोहन, बर्नार्ड एस (1970)। भारतीय समाज में संरचना और परिवर्तन । लेन-देन प्रकाशक। आईएसबीएन 978-0-202-36933-4.
  3. ^ जैफ्रेलॉट, क्रिस्टोफ़ (2003)। भारत की मूक क्रांति: उत्तर भारत में निचली जातियों का उदय । हर्स्ट। आईएसबीएन 978-1-85065-670-8.
  4. ^ रावत, रामनारायण एस। (2011)। अस्पृश्यता पर पुनर्विचार: उत्तर भारत में चमार और दलित इतिहास । ब्लूमिंगटन: इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 978-0-253-35558-4ओसीएलसी  526083948 ।
  5. ^ रावत, रामनारायण एस। (2011)। अस्पृश्यता पर पुनर्विचार: उत्तर भारत में चमार और दलित इतिहास । इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 978-0-253-22262-6.
  6. ^ रावत, रामनारायण एस। (2011)। अस्पृश्यता पर पुनर्विचार: उत्तर भारत में चमार और दलित इतिहास । इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 978-0-253-22262-6.
  7. ^ पासवान, संजय; जयदेव, प्रमांशी (२००२)। भारत में दलितों का विश्वकोश: नेता । ज्ञान पब्लिशिंग हाउस। आईएसबीएन 978-81-7835-033-2.
  8. ^ क्षीरसागर, रामचंद्र (1994)। भारत में दलित आंदोलन और उसके नेता, १८५७-१९५६ । एमडी प्रकाशन प्रा। लिमिटेड आईएसबीएन 978-81-85880-43-3.
  9. ^ आहूजा, अमित (26 जुलाई 2019)। हाशिये पर पड़े लोगों को संगठित करना: जातीय आंदोलनों के बिना जातीय दल । ऑक्सफोर्ड यूनिवरसिटि प्रेस। आईएसबीएन 978-0-19-091642-8.
  10. ^ "सदस्य बायोप्रोफाइल" । loksabhaph.nic.in । 7 जून 2020 को लिया गया ।
  11. ^ क्षीरसागर, रामचंद्र (1994)। भारत में दलित आंदोलन और उसके नेता, १८५७-१९५६ । एमडी प्रकाशन प्रा। लिमिटेड आईएसबीएन 978-81-85880-43-3.
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यद्यपि जाटव शब्द महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के पौत्र तथा शम्भु जी महाराज के पुत्र शाहु जी महाराज की उपाधि (title)जादव /जाधव से विकसित हुआ। 

जिनका सम्बन्ध व्रज- क्षेत्र की महर गोप जाति से था ।
जिन्हें समाज मे उचित सम्मान न मिला ..
महाराष्ट्र के मूल में भी महार शब्द ही है ।

"जाति भास्कर ग्रंथ में ज्वाला प्रसाद मिश्र ने महारों का उदय ब्रज के गोपों से बता डाला हैं ।  महारों के सहयोग से शिवाजी महाराज ने मराठी साम्राज्य की स्थापना की ...
मराठी बोली का विकास भी व्रज-क्षेत्र की शौरसेनी प्राकृत से  हुआ है । ............
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तत्कालीन ब्राह्मण समाज - व्यवस्था में ये महार और इन्हीं के सहवर्ती लोग शूद्रों के रूप में वर्णित हुए है ।
पेशवा ब्राह्मण थे जो शाहु जी महाराज की उदारता का चालाकी से अनुचित लाभ लेकर ..
शाहु जी के प्रति विद्रोही स्वर में बगावत कर बैठे।


और उनके वंश को शूद्र घोषित कर दिया...
महाराष्ट्र में जाधव/जादव आज भी शूद्र हैं ...
और सामाजिक रूप से महारों से सम्बद्ध  हैं ।
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सत्य पूछा जाय तो यह जादव शब्द यादव शब्द का ही व्रज-क्षेत्रीय अथवा राजस्थानी रूप है ।
क्योंकि शिवाजी महाराज स्वयं यादव वंशी थे ।सन् १९२२ के समकक्ष इतिहास कारों विशेषत: देवीदास ने प्रबल प्रमाणों के आधार पर दिल्ली के एक एैतिसिक -सम्मेलन में प्रथम बार जटिया चमारों के लिए जाटव उपाधि से नवाज़ा था ।
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अत: अब वह जादव ही जाटव हो गया है ।
जादव से जाटव बनने में पञ्जाबी प्रभाव है ।
रामानंद के प्रसिद्ध शिष्य रैदास इन्हीं में से थे, जिन्हें चमार जाति के लोग अपना पूर्वपुरुष मानते हैं। 

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"यद्यपि चमार यादवों से मूलत: पृथक जाति थी परन्तु सहवर्ती अवश्य थे । और दोनों ही ब्राह्मण वाद के विरुद्ध एकजुट थे ;चमार बौद्ध अनुयायी थे ;तो अहीर अथवा यादव भागवत धर्म के प्रवर्तक तथा अनुयायी थे ।

यहाँ तक कि रैदास शब्द आगे चलकर चमारों की सम्मानित उपाधि बन गया।......
निर्गुनियाँ संतों ने एक स्वर से जातिगत संकीर्णता का खुला विरोध किया।
किन्तु इतना होते हुए भी चमार जाति में वांछित परिवर्तन न हुआ।
आधुनिक युग में परिगणित, पिछड़ी तथा अछूत जाति के अंतर्गत चमारों को सामाजिक-राजनीतिक अधिकार प्रदान करने के निमित्त कानून बने और सुधारान्दोलन भी किए गए।
इस जाति के मुख्य निवासस्थान बिहार और उत्तर प्रदेश हैं।......
किन्तु अब ये भारत के अन्य भागों - बंगाल, पंजाब, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में बस गए हैं।
दक्षिण भारत के द्रविडमूल जातियों में भी इनका अस्तित्व है।
वर्तमान समय में यह जाति अनेक धंधे करती है ,जिनमें कृषि तथा चर्म उद्योग मुख्य हैं।
अब ये लोग शिक्षा के क्षेत्र में सभी दलित जन-जातियों से आगे हैं ।
प्राय: इनका स्वरूप श्रमजीवी, खेतिहर मजदूर जाति का है।
इसकी अनेक उपजातियाँ हैं।
उनमें जैसवार, धुसिया, जटुआ, हराले आदि मुख्य हैं। मद्रास और राजस्थान में इन्हें क्रमश: 'चमूर' और 'बोलस' कहा जाता है।
इसकी सभी उपजातियों में सामाजिक तथा वैवाहिक संबंध बहुत घनिष्ट हैं।
बहुविवाह की प्रथा अब समाप्त हो रही है।
इनकी जातीय पंचायतें आपसी विवादों को तय करती तथा सामाजिक और धार्मिक कार्यो का संचालन करती हैं। 

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इनमें विधवा -विवाह की व्यापक मान्यता है।
यह पृथा यहूदीयों में थी ....
अर्थात् यादवों में
रोमन संस्कृति में लैविरेट( levitate)
वैदिक विधानों मे" द्वित्तीयो वर: इति देवर:"
-----यास्क निरुक्त में यह व्युत्पत्ति-
प्रतिबिम्ब है उस परम्परा का ...
आर्यों ने नियोग पृथा का निर्माण भी विधवा विवाह के समाधान हेतु किया ...
पुरानी प्रथा के अनुसार वधूमूल्य भी प्रचलित है ।
लेकिन इन सभी स्थितियों में अब तेजी से परिवर्तन हो रहा हैै।
यह असुर अथवा असीरियन पृथाओं के अवशेष मात्र हैं।

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इस जाति में अज्ञान और ब्राह्मणों के प्रभाव से अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं।
भूत प्रेत, जादू टोना, देवी भवानी की सामान्य रूप से सभी ओर गहरी मान्यता है।
क्योंकि ये लोग शाक्तों का ही रूप थे ...
शम्बर को परवर्ती पुराण साहित्य में चम्बर भी कहा है .
चमार समाज में ..
अनेक अहिंदू देवता भी पूजे जाते हैं , जिन्हें विविध चढ़ावे चढ़ते हैं।
बलि की प्रथा प्राय: सभी प्रांतों के चमारों में प्रचलित है। 

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"यद्यपि आज के शिक्षित जाटव( चमार) बौद्ध मत से प्रभावित होकर ब्राह्मण देवी देवताओं के विरोध में अग्रसर हैं । और इस आवेशी कदम- चाल में यादवों के आराध्य और यादव वंश से सम्बन्धित कृष्ण के चरित्र पर भी ब्राह्मण वाद की दूषित लाञ्छानाऐं प्रस्तुत कर यादव अथवा अहीर समाज के विरोध में चल पड़े हैं। क्यों कि कृष्ण के चरित्र को धूमिल करने लिए इन्द्रोपासक वर्णव्यवस्था वादी पुरोहितों ने तो अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ ही दिए हैं और ये लोग उनके आधार बनाकर कृष्ण को कभी मदिरा पान करते हुए तो कभी स्त्रीयों के वस्त्र चुराते हुए कहकर यादव समाज के विरोध में ही हैं।  आज आवश्यकता हैं कि ये कृष्ण के समतावादी अहिंसावादी देववादी व्यवस्था के विरोधक व्यक्तित्व को भी जाने  इन्द्र पूजा का विधान समाप्त करने वाले प्रथम महा मा वन कृष्ण ही थे ! 

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चमारों में रैदासी, कबीरपंथी, शिवनारायनी बहुतायत से पाए जाते हैं।                          कुछ चमारों ने सिख, ईसाई और मुस्लिम धर्म भी स्वीकार कर लिया है।

क्योंकि ब्राह्मण समाज के धर्म-अध्यक्षों ने
इन्हें हीन तथा हेय बनाया
अशिक्षा और संस्कार हीनता के कारण इनमें अनेक अनैतिकताओं का समावेश हो गया।

वस्तुत: ये शिक्षा और धर्म-संस्कार के अधिकार इन से ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक छीन लिए गये थे ।

मन्दिरों में प्रवेश करना इनके लिए जघन्य पाप कर्म घोषित कर दिया था ।........
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फिर ऐसी जहालत भरी हालातों मे इनका बौद्धिक विकास न हो सका ..
परन्तु इनके रक्त में महान पूर्वजों का गुण था ।
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इस लिए ये जन-जातीयाँ विना साधन के भी बहुत आगे बढ़ी चली गयीं ...
और अपने प्रतिद्वन्द्वी ब्राह्मण समाज से मुकाबला करने वाला  यही प्रथम समाज था ...
और आज भी है ।

निम्न सन्दर्भों में चमार जनजाति का बौद्धों के रूप में पुराणों में वर्णन किया गया है ।

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 हरिवंशपुराणम् पर्व (३) (भविष्यपर्व) अध्यायः (३) _________    

शुक्लदन्ताऽञ्जिताक्षाश्च मुण्डाःकाषायवासस:।        शूद्रा धर्मं चरिष्यन्ति शाक्यबुद्धोपजीविनः।१५।

शूद्र लोग शाक्यवंशी बुद्ध के मत का आश्रय लेकर शूद्र धर्म का आचरण करेंगे वे दाँत श्वेत किए रहेंगे और आँखों में अञ्चन और मुड़ मुड़ाकर गैर नए वस्त्र धारण करेंगे।

(हरिवंशपुराण भविष्य पर्व तृतीय अध्याय)


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सायणभाष्यम्

‘ नकिरिन्द्र ' इति चतुर्विंशत्यृचं नवमं सूक्तं वामदेवस्यार्षं गायत्रम् । अष्टमी चतुर्विंशी च द्वे अनुष्टुभौ । इन्द्रो देवता ।' दिवश्चिद्धा' इत्ययं तृच उषोदेवताक इन्द्रदेवताकश्च । तथा चानुक्रान्तं -- ‘नकिश्चतुर्विंशतिर्दिवश्चित्तृच उषस्यश्च गायत्रं ह्यष्टम्यन्त्ये चानुष्टुभौ ' इति । अतिरात्रे तृतीये पर्याये मैत्रावरुणशस्त्रे उत्तमावर्जमिदं सूक्तम् । तथा च सूत्रितं- नकिरिन्द्र त्वदुत्तर इत्युत्तमामुद्धरेत्' ( आश्व. श्रौ. ६. ४ ) इति ।।॥३॥______________

नकिः । इन्द्र । त्वत् । उत्ऽतरः । न । ज्यायान् । अस्ति । वृत्रऽहन् । नकिः ।एव ।यथा ।त्वम् ॥१।

सायणभाष्यार्थ

हे "वृत्रहन् "इन्द्र वृत्रस्य नाशकेन्द्र । लोके एकोऽपति शेषः । "त्वत् त्वत्तः "उत्तरः उत्कृष्टतरः “नकिः "अस्ति न भवति । त्वत्तः “ज्यायान् प्रशस्यतरः एकोऽपि "न अस्ति । हे इन्द्र “त्वं लोके "यथा प्रसिद्धो भवसि तथाविध एकोऽपि “नकिरेव अस्ति नैव भवति । कश्चिदपि लोके इन्द्रसदृशो नास्तीत्यर्थः ।।

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सत्रा । ते । अनु । कृष्टयः । विश्वा । चक्राऽइव । ववृतुः । सत्रा । महान् । असि । श्रुतः ॥२।

सायणभाष्यार्थ

हे इन्द्र "कृष्टयः प्रजाः "ते त्वाम् "अनु लक्षीकृत्य "सत्रा सत्यमेव “ववृतुः वर्तन्ते । तत्र दृष्टान्तः । “विश्वा विश्वानि व्याप्तानि "चक्रेव चक्राणीव । यथा चक्राणि शकटमनुवर्तन्ते तद्वत् । हे इन्द्र "महान् त्वं "सत्रा सत्यमेव “श्रुतः विश्रुतः "असि । गुणैः प्रख्यातो भवसि ॥

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विश्वे । चन । इत् । अना । त्वा । देवासः । इन्द्र । युयुधुः । यत् । अहा । नक्तम् । आ । अतिरः ॥३।

सायणभाष्यार्थ

हे “इन्द्र “विश्वे "चनेत् सर्वे एव "देवासः असुरान् विजिगीषवो देवाः "अना प्राणरूपेण बलेन “त्वा त्वां सहायं लब्ध्वा "युयुधुः असुरैः सह युद्धं चक्रुः । "यत् यस्मात् कारणात् "अहा अहःसु “नक्तं रात्रिषु च "आतिरः आ समन्तात् शत्रूनवधीः । अतः कारणात् युयुधुरिति पूर्वेण संबन्धः ।

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यत्र । उत । बाधितेभ्यः । चक्रम् । कुत्साय । युध्यते । मुषायः । इन्द्र । सूर्यम् ॥४।

सायणभाष्यार्थ

"यत्र यस्मिन् युद्धे "उत अपि च हे "इन्द्र त्वं “बाधितेभ्यः कुत्ससहायेभ्यः "युध्यते युद्धं कुर्वते “कुत्साय च "सूर्यं सूर्यसंबन्धि "चक्रं "मुषायः अमुष्णाः । अपहृतवानसीत्यर्थः । तस्मिन् युद्धे ‘प्रावः शचीभिरेतशम् ' इति परेण संबन्धः ॥

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यत्र । देवान् । ऋघायतः । विश्वान् । अयुध्यः । एकः । इत् ।त्वम् । इन्द्र । वनून् । अहन् ॥५।

सायणभाष्यार्थ

हे "इन्द्र “त्वम् “एक "इत् असहाय एव "यत्र यस्मिन् संग्रामे “देवान् इन्द्रादीन् "ऋघायतः बाधमानान् "विश्वान् सर्वान् राक्षसादीन् "अयुध्यः युद्धमकरोः । तथा “वनृन् हिंसकान् "अहन् अवधीः ॥ ॥ १९ ॥

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यत्र । उत । मर्त्याय । कम् । अरिणाः । इन्द्र । सूर्यम् ।प्र । आवः । शचीभिः । एतशम् ॥६।

सायणभाष्यार्थ

“यत्र यस्मिन् संग्रामे “उत अपि च हे “इन्द्र त्वं "मर्त्याय मनुष्याय एतशाख्याय ऋषये "सूर्यम् “अरिणाः अहिंसीः । "कम् इति पूरणः । तदानीं "शचीभिः युद्धकर्मभिः "एतशम् एतत्संज्ञकमृषिं "प्रावः प्रकर्षेणारक्षः ।।॥ २ ॥

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किम् । आत् । उत । असि । वृत्रऽहन् । मघऽवन् । मन्युमत्ऽतमः । अत्र । अह । दानुम् । आ । अतिरः ॥७।

सायणभाष्यार्थ

हे "वृत्रहन् वृत्राणामावरकाणां तमसां हन्तः "मघवन् धनवन् इन्द्र त्वम् "आत् अनन्तरमेव “उत अपि च । "किम् इति प्रश्ने । “मन्युमत्तमः "असि अत्यन्तं क्रोधवान् भवसि । “अत्र अस्मिन्नन्तरिक्षे "अह एव "दानुं दनोः पुत्रं वृत्रम् "आतिरः आ समन्तादहिंसीः ।।॥३॥

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एतत् । घ । इत् । उत । वीर्यम् । इन्द्र । चकर्थ । पौंस्यम् ।स्त्रियम् । यत् । दुःऽहनायुवम् । वधीः । दुहितरम् । दिवः ॥८।

सायणभाष्यार्थ

हे “इन्द्र “उत अपि च "यत् यस्त्वम् "एतत् उपलक्षितं "पौंस्यं बलं "वीर्यं सामर्थ्योपेतं "चकर्थ कृतवानसि । “घ "इत् इति पूरणौ। किंच “दुर्हणायुवं दुष्टं हननम् इच्छन्तीं “दिवः “दुहितरं द्युलोकसकाशादुत्पन्नां "स्त्रियम् उषसं “वधीः अवधीः ॥

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दिवः । चित् । घ । दुहितरम् । महान् । महीयमानाम् ।उषसम् । इन्द्र । सम् । पिणक् ॥९।

सायणभाष्यार्थ

हे "इन्द्र "महान् त्वं "दिवः "दुहितरं द्युलोकस्य पुत्रीं "महीयमानां पूज्यमानाम् "उषसम् उषोदेवीं “सं "पिणक् "चिद्ध संपिष्टवानसि खलु ।।

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अप । उषाः। अनसः । सरत् । सम्ऽपिष्टात् ।अह । बिभ्युषी ।नि।यत् ।सीम् । शिश्नथत् । वृषा॥१०।

सायणभाष्यार्थ

“वृषा कामानां वर्षिता इन्द्रः "यत् यदा "सीम् एतत् उषसः संबन्धि शकटं “नि "शिश्नथत् न्यवधीत् तदा “उषाः उषोदेवता “बिभ्युषी इन्द्रसकाशात् भीता सती "संपिष्टात् इन्द्रेण संचूर्णितात् "अनसः शकटात् "अप "सरत् अपासरत् अपजगाम । "अह इति पूरणः ॥ ॥ २० ॥

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एतत् । अस्याः । अनः । शये । सुऽसम्पिष्टम् । विऽपाशि । आ । ससार । सीम् । पराऽवतः ॥११।

सायणभाष्यार्थ

“सुसंपिष्टम् इन्द्रेण सुष्ठु संचूर्णितम् "अस्याः उषसः संबन्धि “एतत् "अनः शकटं “विपाशि । विपाडाख्या नदी । तस्यां तत्तीरे “आ “शये आ समन्तात् शेते अशेत । "सीम् इयमुषोदेवता शकटे भग्ने सति "परावतः दूरदेशात् "ससार अपससार।

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उत । सिन्धुम् । विऽबाल्यम् । विऽतस्थानाम् । अधि । क्षमि ।परि । स्थाः । इन्द्र । मायया ॥१२।

सायणभाष्यार्थ

हे “इन्द्र “उत अपि च "विबाल्यं विगतबाल्यावस्थां संपूर्णजलां "वितस्थानां वितिष्ठमानां “सिन्धुं नदीम् "अधि "क्षमि क्षमायां "मायया प्रज्ञया “परि “ष्ठाः पर्यस्थाः । सर्वतः स्थापनं कृतवानसि ॥

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उत । शुष्णस्य । धृष्णुऽया । प्र । मृक्षः । अभि । वेदनम् ।पुरः । यत् । अस्य । सम्ऽपिणक् ॥१३।

सायणभाष्यार्थ

“उत अपि च हे इन्द्र “धृष्णुया धृष्णुः धर्षकस्त्वं "शुष्णस्य शुष्णनाम्नोऽसुरस्य संबन्धि "वेदनं वित्तम् "अभि अभितः सर्वतः “प्र “मृक्षः प्रकर्षेणाबाधथाः। "यत् यदा "अस्य शुष्णस्य “पुरः पुराणि नगराणि "संपिणक् संपिष्टवानसि । तदा प्र मृक्षः इति संबन्धः ॥

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उत । दासम् । कौलिऽतरम् । बृहतः । पर्वतात् । अधि ।अव । अहन् । इन्द्र । शम्बरम् ॥१४।

सायणभाष्यार्थ

“उत अपि च हे "इन्द्र त्वं "दासम् उपक्षपयितारं "कौलितरं कुलितरनाम्नोऽपत्यं “शम्बरम् असुरं "बृहतः महतः पर्वतात् अद्रेः "अधि उपरि "अव अवाचीनं कृत्वा "अहन् हतवानसि ॥

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उत । दासस्य । वर्चिनः । सहस्राणि । शता । अवधीः ।अधि । पञ्च । प्रधीन्ऽइव ॥१५।

सायणभाष्यार्थ

“उत अपि च हे इन्द्र त्वं “प्रधीनिव चक्रस्य परितः स्थितान् शङ्कूनिव हिंसकान् "पञ्च “शता पञ्चशतानि पञ्चशतसंख्याकान् "सहस्राणि सहस्रसंख्याकान् "दासस्य लोकानामुपक्षपयितुः "वर्चिनः वर्चिनामकस्यासुरस्य संबन्धिनोऽनुचरान् पुरुषान् "अधि अधिकम् "अवधीः हतवानसि ।२१॥___________________________________

उत । त्यम् । पुत्रम् । अग्रुवः । पराऽवृक्तम् । शतऽक्रतुः ।उक्थेषु । इन्द्रः।आ।अभजत् ॥१६।

सायणभाष्यार्थ

"उत अपि च "शतक्रतुः शतकर्मा "इन्द्रः “त्यं तं प्रसिद्धम् "अग्रुवः एतन्नाम्न्याः "पुत्रं "परावृक्तम् एतन्नामकम् "उक्थेषु स्तोत्रेषु "आभजत् भागिनं कृतवान् । अयमर्थः ‘वम्रीभिः पुत्रमग्रुवः ' ( ऋ. सं. ४. १९. ९) इत्यस्यामृचि प्रतिपादित इति ॥

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उत । त्या । तुर्वशायदू इति । अस्नातारा । शचीऽपतिः ।इन्द्रः । विद्वान् । अपारयत् ॥१७।

भाष्यार्थ÷ 

{उत =अपि च} "{अस्नातारा= अस्नातारौ = न डूबने वाले द्विवचन  } "{त्या= त्यौ} {तौ =प्रसिद्धौ }“तुर्वशायदू= तुर्वशनामानं यदुनामकं च राजानौ। {शचिपति=कर्मणापालक:यद्वा शचीन्द्रस्य भार्या  } । तस्याः पतिर्भर्ता "विद्वान् =सकलमपि जानन् “इन्द्रः "अपारयत् = लङ् लकार का प्रथम पुरुष एकवचन रूप (पार कर दिया, दूरकर दिया।

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उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥

{पदपाठ}-÷

उत ।दासा।परिऽविषे।स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी। गोऽपरीणसा।यदुः। तुर्वः।च । ममहे ॥१०।

सायणभाष्यार्थ

{“उत= अपि च} "{स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ }“गोपरीणसा =(गोपरीणसौ –गोभिः परिवृतौ) बहुगवादियुक्तौ {“दासा =दासवत् प्रेष्यवत् } स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी {“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय }"मामहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् ॥

[उपर्युक्त ऋचा में सायण ने "दासा" द्विवचन 'प्रथमाविभक्ति' का वैदिक रूप है जिसका अर्थ= प्रेष्यवत् सेेेवक  –किया है जोकि वैदिक अर्थ को अनुरूप नहीं हैं । 

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उत । त्या । सद्यः । आर्या । सरयोः । इन्द्र । पारतः । अर्णाचित्ररथा । अवधीः ॥१८।

सायणभाष्यार्थ

“उत =अपि च "सद्यः सपदि हे “इन्द्र त्वं “त्या त्यौ तौ "आर्या आर्यौ आर्यत्वाभिमानिनौ सन्तावपि । इन्द्रविषयभक्तिश्रद्धारहितावित्यर्थः । "सरयोः =सरय्वा नद्याः “पारतः पारे तीरे वसन्तौ “अर्णाचित्ररथा अर्णनामकं चित्ररथनामकं च राजानौ “अवधीः= अहिंसीः ।।

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अनु । द्वा । जहिता । नयः । अन्धम् । श्रोणम् । च । वृत्रऽहन् ।न । तत् । ते । सुम्नम् । अष्टवे ॥१९।

सायणभाष्यार्थ

हे "वृत्रहन् वृत्रस्य हिंसकेन्द्र त्वं "जहिता जहितौ सर्वैर्बन्धुभिस्त्यक्तौ "अन्धं चक्षुर्हीनमेकं “श्रोणं “च पङ्गुमपरं च "द्वा एतौ द्वौ “अनु "नयः अन्धपङ्गुत्वपरिहारेण अनुनीतवानसि । हे इन्द्र "ते त्वया दत्तं "तत् "सुम्नं सुखम् "अष्टवे व्याप्तुं कोऽपि "न । प्रभवतीति शेषः ॥

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शतम् । अश्मन्ऽमयीनाम् । पुराम् । इन्द्रः । वि । आस्यत् ।दिवःऽदासाय । दाशुषे ॥२०।

सायणभाष्यार्थ

“इन्द्रः "अश्मन्मयीनां पाषाणैर्निर्मितानां "पुरां शम्बरस्य संबन्धिनां नगराणां “शतं शतसंख्याकं “दिवोदासाय एतन्नामकाय "दाशुषे हविर्दत्तवते यजमानाय “व्यास्यत् व्यक्षिपत् ॥ ॥ २२ ॥

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अस्वापयत् । दभीतये । सहस्रा । त्रिंशतम् ।     हथैः ।दासानाम् । इन्द्रः । मायया ॥२१।

सायणभाष्यार्थ

"इन्द्रो "मायया स्वकीयया शक्त्या "दासानां लोकानामुपक्षपयितॄणां राक्षसादीनां "त्रिंशतं त्रिंशत्संख्याकानि "सहस्रा सहस्राणि “दभीतये दभीतिनामकस्यार्थाय "हथैः हननसाधनैरायुधैः “अस्वापयत् अवधीत् ॥

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सः । घ ।इत् ।उत ।असि । वृत्रऽहन् ।समानः । इन्द्र । गोऽपतिः।यः। ता।विश्वानि ।चिच्युषे ॥२२।

सायणभाष्यार्थ

“उत अपि च हे "इन्द्र "यः त्वं "ता तानि "विश्वानि समस्तान् शत्रून् 'चिच्युषे प्राच्यावयः । हे "वृत्रहन् वृत्राणां शत्रूणां हिंसकेन्द्र “गोपतिः गवां पालकः "सः त्वं "समानः सर्वेषां यजमानानां समः सन् प्रख्यातः असि । "घेत् इति पूरणौ ॥

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उत । नूनम् । यत् । इन्द्रियम् । करिष्याः । इन्द्र । पौंस्यम् ।अद्य । नकिः । तत् । आ । मिनत् ॥२३।

सायणभाष्यार्थ

“उत अपि च हे "इन्द्र "यत् “पौंस्यं त्वदीयं बलम् "इन्द्रियं सामर्थ्योपेतं "नूनं "करिष्याः कृतवानसि खलु । "अद्य अद्यतनः कश्चित् "तत् बलं "नकिः “आ “मिनत् न हिंस्यात् ।।

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वमम्ऽवामम् । ते । आऽदुरे । देवः । ददातु । अर्यमा ।वामम् । पूषा । वामम् । भगः । वामम् । देवः । करूळती ॥२४।

सायणभाष्यार्थ

हे "आदुरे शत्रूणाम् आदारयितरिन्द्र "ते तव "वामंवामं यद्यत् वननीयं संभजनीयं धनमस्ति लोके तद्वामं वसु "अर्यमा अरीणां नियमयिता एतन्नामकः "देवो "ददातु प्रयच्छतु। तथा "करूळती कृत्तदन्तः “पूषा पोषकः "देवः “वामं धनं ददातु । तथा “भगः अपि “वामं धनं ददातु । ननु करूळतीत्येतत् संनिहितत्वाद्भग इत्यनेन संबन्धनीयम् । अथवा अर्यमादीनां त्रयाणामपि विशेषणत्वेन भाव्यम् । कथं पूष्णो विशेषणं स्यादिति साकाङ्क्षत्वात् । न । सांनिध्याकाङ्क्षयोः सद्भावेऽपि योग्यतामन्तरेण अन्वयायोगात् । तस्मात् पूषा प्रपिष्टभागोऽदन्तको हि' (तै. सं. २. ६. ८. ५) इत्यादिश्रुतिषु पूष्ण एवादन्तकत्वेन प्रसिद्धेः व्यवहितस्यापि तस्यैव विशेषणत्वं युक्तम् । वामं बननीयं भवति' (निरु. ६. ३१) इत्यादि निरुक्तमत्र द्रष्टव्यम् ॥ ॥ २३ ॥

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जब शास्त्रों में वर्णन व्यवस्था का निर्धारण जन्मजात गुण स्वभाव और प्रवृत्ति के आधार पर किया गया तो फिर जाति ( जन्म) के आधार पर समाज में क्यों प्रचलित है ?

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ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परस्परम् ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।२४।

१-शमस्तपो दमः शौचं क्षांतिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म (ब्राह्मण) स्वभावजम् ।२५।

२-शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म (क्षत्रिय)  स्वभावजम् ।२६।

३-कृषिगोरक्षवाणिज्यं वैश्यकर्म (वैश्य) स्वभावजम् ।
४-परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि ( शूद्र:) स्वभावजम् ।२७।

(भविष्य पुराण ब्रह्म खण्ड अध्याय ४४)

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योगस्तपो दया दानं सत्यं धर्मश्रुतिर्घृणा ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यमेतद्ब्राह्मणलक्षणम् ।२८।

शिखा ज्ञानमयी यस्य पवित्रं च तपोमयम् ।
ब्राह्मण्यं पुष्कलं तस्य मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्।२९।

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यत्र वा तत्र वा वर्णे उत्तमाधममध्यमाः ।
निवृत्तः पापकर्मेभ्यो ब्राह्मणः स विधीयते । । 1.44.३० 

(भविष्य पुराण ब्रह्म खण्ड अध्याय ४४)

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शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो ब्राह्मणादधिको भवेत् ।
ब्राह्मणो विगताचारः शूद्राद्धीनतरो भवेत् ।३१।

न सुरां सन्धयेद्यस्तु आपणेषु गृहेषु च ।
न विक्रीणाति च तथा सच्छूद्रो हि स उच्यते । । ।३२।

यद्येका स्फुटमेव जातिरपरा कृत्यात्परं भेदिनी ।
यद्वा व्याहृतिरेकतामधिगता यच्चान्यधर्मं ययौ । ।
एकैकाखिलभावभेदनिधनोत्पत्तिस्थितिव्यापिनी ।
किं नासौ प्रतिपत्तिगोचरपथं यायाद्विभक्त्या नृणाम् ।३३।

इति श्री भविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि षष्ठीकल्पे वर्णविभागविवेकवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ( ४४ )

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ब्राह्मणः सर्ववर्णानां ज्येष्ठः श्रेष्ठस्तथोत्तमः ।
एवमस्मिन्पुराणे तु संस्कारान्ब्राह्मणस्य तु ।१७१।

शृणोति यश्च जानाति यश्चापि पठते सदा।
ऋद्धिं वृद्धिं तथा कीर्तिं प्राप्येह श्रियमुत्तमाम् ।१७२।
धनं धान्यं यशश्चापि पुत्रान्बन्धून्सुरूपताम् ।
सावित्रं लोकमासाद्य ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् ।१७३।

इति श्रीभविष्य महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि द्वितीयोऽध्यायः । २।

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पुराणों में परस्पर अन्तर्विरोध और विरोधाभास पदे पदे परिलक्षित है ।  

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निम्न श्लोकों में चारों वर्णों को जातिगत रूप में निर्धारित करते हुए उनके नाम के साथ विशेषण लगाने का विधान भी निश्चित किया गया ।

जैसे धन संयुक्त पद वैश्य के साथ घृणा संयुक्त पद शूद्र के साथ और शर्मवद् ब्राह्मण के साथ तथा रक्षा समन्वित विशेषण पद क्षत्रिय के साथ निश्चित किया गया है ।

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वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य च जुगुप्सितम् ।धनवर्धनेति वैश्यस्य सर्वदासेति हीनजे । ९।

मनुना च तथा प्रोक्तं नाम्नो लक्षणमुत्तमम् ।शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।1.3.१०

वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ।      स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थमनोरमम् । । ११

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मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्।द्वादशेऽहनि राजेन्द्र शिशोर्निष्कमणं गृहात्। १२

चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं तथान्येषां मतं विभो ।षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यथेष्टं मङ्गलं कुले । १३

चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामनुपूर्वशः।    प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं कुरुनन्दन ।१४।

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मनु के नाम पर बनायी गयी मनुस्मृति में अनेक ब्राह्मण व्यवस्था को स्वीकार न करने वाली जन जातियों को शूद्र और वर्णसंकर बनाकर उनके दमन के विधान बनाये गये है मनु स्मृति का दशम अध्याय विचारणीय है ।

             मनुस्मृतिः(दशमोध्याय)

             ← मनुस्मृतिः

अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः।
प्रब्रूयाद्ब्राह्मणस्त्वेषां नेतराविति निश्चयः।१०.१। 

सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद्वृत्त्युपायान्यथाविधि ।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत् ।१०.२।

वैशेष्यात्प्रकृतिश्रैष्ठ्यान्नियमस्य च धारणात्।
संस्कारस्य विशेषाच्च वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः। १०.३।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः। १०.४।

सर्ववर्णेषु तुल्यासु पत्नीष्वक्षतयोनिषु ।
आनुलोम्येन संभूता जात्या ज्ञेयास्त एव ते।१०.५।

स्त्रीष्वनन्तरजातासु द्विजैरुत्पादितान्सुतान्।
सदृशानेव तानाहुर्मातृदोषविगर्हितान्।१०.६।

अनन्तरासु जातानां विधिरेष सनातनः।
द्व्येकान्तरासु जातानां धर्म्यं विद्यादिमं विधिम्। १०.७।

ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायां अम्बष्ठो नाम जायते।
निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते। १०.८। 

क्षत्रियाच्छूद्रकन्यायां क्रूराचारविहारवान् ।
क्षत्रशूद्रवपुर्जन्तुरुग्रो नाम प्रजायते ।१०.९ ।

विप्रस्य त्रिषु वर्णेषु नृपतेर्वर्णयोर्द्वयोः।
वैश्यस्य वर्णे चैकस्मिन्षडेतेऽपसदाः स्मृताः।१०.१०।

क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः ।
वैश्यान्मागधवैदेहौ राजविप्राङ्गनासुतौ।१०.११।

शूद्रादायोगवः क्षत्ता चण्डालश्चाधमो नृणाम् ।
वैश्यराजन्यविप्रासु जायन्ते वर्णसंकराः।१०.१२।

एकान्तरे त्वानुलोम्यादम्बष्ठोग्रौ यथा स्मृतौ।
क्षत्तृवैदेहकौ तद्वत्प्रातिलोम्येऽपि जन्मनि।१०.१३।

पुत्रा येऽनन्तरस्त्रीजाः क्रमेणोक्ता द्विजन्मनाम्।
ताननन्तरनाम्नस्तु मातृदोषात्प्रचक्षते।१०.१४।

ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते।
आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः।१०.१५।

आयोगवश्च क्षत्ता च चण्डालश्चाधमो नृणाम् ।
प्रातिलोम्येन जायन्ते शूद्रादपसदास्त्रयः।१०.१६।

वैश्यान्मागधवैदेहौ क्षत्रियात्सूत एव तु।
प्रतीपं एते जायन्ते परेऽप्यपसदास्त्रयः।१०.१७। 

जातो निषादाच्छूद्रायां जात्या भवति पुक्कसः।
शूद्राज्जातो निषाद्यां तु स वै कुक्कुटकः स्मृतः। १०.१८।

क्षत्तुर्जातस्तथोग्रायां श्वपाक इति कीर्त्यते।
वैदेहकेन त्वम्बष्ठ्यां उत्पन्नो वेण उच्यते ।१०.१९।

द्विजातयः सवर्णासु जनयन्त्यव्रतांस्तु यान् ।
तान्सावित्रीपरिभ्रष्टान्व्रात्यानिति विनिर्दिशेत्। १०.२०।

व्रात्यात्तु जायते विप्रात्पापात्मा भूर्जकण्टकः।
आवन्त्यवाटधानौ च पुष्पधः शैख एव च । १०.२१।

झल्लो मल्लश्च राजन्याद्व्रात्यान्निच्छिविरेव च
नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड एव च। १०.२२।

वैश्यात्तु जायते व्रात्यात्सुधन्वाचार्य एव च।
कारुषश्च विजन्मा च मैत्रः सात्वत एव च। १०.२३।

व्यभिचारेण वर्णानां अवेद्यावेदनेन च ।
स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते वर्णसंकराः। १०.२४।

संकीर्णयोनयो ये तु प्रतिलोमानुलोमजाः।
अन्योन्यव्यतिषक्ताश्च तान्प्रवक्ष्याम्यशेषतः। १०.२५।

सूतो वैदेहकश्चैव चण्डालश्च नराधमः।
मागधः तथायोगव एव च क्षत्रजातिश्च।१०.२६ ।

एते षट्सदृशान्वर्णाञ् जनयन्ति स्वयोनिषु।
मातृजात्यां प्रसूयन्ते प्रवारासु च योनिषु ।१०.२७।

यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।
आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात्।१०.२८ ।

ते चापि बाह्यान्सुबहूंस्ततोऽप्यधिकदूषितान् ।
परस्परस्य दारेषु जनयन्ति विगर्हितान्।१०.२९ । 

यथैव शूद्रो ब्राह्मण्यां बाह्यं जन्तुं प्रसूयते ।
तथा बाह्यतरं बाह्यश्चातुर्वर्ण्ये प्रसूयते।१०.३०।

प्रतिकूलं वर्तमाना बाह्या बाह्यतरान्पुनः ।
हीना हीनान्प्रसूयन्ते वर्णान्पञ्चदशैव तु।१०.३१।

प्रसाधनोपचारज्ञं अदासं दासजीवनम् ।
सैरिन्ध्रं वागुरावृत्तिं सूते दस्युरयोगवे ।१०.३२।

मैत्रेयकं तु वैदेहो माधूकं संप्रसूयते।
नॄन्प्रशंसत्यजस्रं यो घण्टाताडोऽरुणोदये। १०.३३।

निषादो मार्गवं सूते दासं नौकर्मजीविनम् ।
कैवर्तं इति यं प्राहुरार्यावर्तनिवासिनः।१०.३४

मृतवस्त्रभृत्स्व्नारीषु गर्हितान्नाशनासु च ।
भवन्त्यायोगवीष्वेते जातिहीनाः पृथक्त्रयः। १०.३५।

कारावरो निषादात्तु चर्मकारः प्रसूयते ।
वैदेहिकादन्ध्रमेदौ बहिर्ग्रामप्रतिश्रयौ ।१०.३६।

चण्डालात्पाण्डुसोपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान्।
आहिण्डिको निषादेन वैदेह्यां एव जायते। १०.३७।

चण्डालेन तु सोपाको मूलव्यसनवृत्तिमान् ।
पुक्कस्यां जायते पापः सदा सज्जनगर्हितः।१०.३८।

निषादस्त्री तु चण्डालात्पुत्रं अन्त्यावसायिनम् ।
श्मशानगोचरं सूते बाह्यानां अपि गर्हितम्।१०.३९।

संकरे जातयस्त्वेताः पितृमातृप्रदर्शिताः।
प्रछन्ना वा प्रकाशा वा वेदितव्याः स्वकर्मभिः। १०.४०।

स्वजातिजानन्तरजाः षट्सुता द्विजधर्मिणः।
शूद्राणां तु सधर्माणः सर्वेऽपध्वंसजाः स्मृताः। १०.४१।

तपोबीजप्रभावैस्तु ते गच्छन्ति युगे युगे ।
उत्कर्षं चापकर्षं च मनुष्येष्विह जन्मम्।१०.४२। 

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च।१०.४३।

पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः।
पारदापह्लवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः। १०.४४ । ।

मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः ।
म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः।
 १०.४५ ।

ये द्विजानां अपसदा ये चापध्वंसजाः स्मृताः ।
ते निन्दितैर्वर्तयेयुर्द्विजानां एव कर्मभिः।१०.४६। 

सूतानां अश्वसारथ्यं अम्बष्ठानां चिकित्सनम् ।
वैदेहकानां स्त्रीकार्यं मागधानां वणिक्पथः। १०.४७ ।

मत्स्यघातो निषादानां त्वष्टिस्त्वायोगवस्य च ।
मेदान्ध्रचुञ्चुमद्गूनां आरण्यपशुहिंसनम् ।१०.४८।

क्षत्त्रुग्रपुक्कसानां तु बिलौकोवधबन्धनम् ।
धिग्वणानां चर्मकार्यं वेणानां भाण्डवादनम् । १०.४९ ।

चैत्यद्रुमश्मशानेषु शैलेषूपवनेषु च ।
वसेयुरेते विज्ञाता वर्तयन्तः स्वकर्मभिः।१०.५०। 

चण्डालश्वपचानां तु बहिर्ग्रामात्प्रतिश्रयः ।
अपपात्राश्च कर्तव्या धनं एषां श्वगर्दभम् । १०.५१।

वासांसि मृतचैलानि भिन्नभाण्डेषु भोजनम् ।
कार्ष्णायसं अलङ्कारः परिव्रज्या च नित्यशः।१०.५२।

न तैः समयं अन्विच्छेत्पुरुषो धर्मं आचरन्।
व्यवहारो मिथस्तेषां विवाहः सदृशैः सह। १०.५३।

अन्नं एषां पराधीनं देयं स्याद्भिन्नभाजने ।
रात्रौ न विचरेयुस्ते ग्रामेषु नगरेषु च ।१०.५४।

दिवा चरेयुः कार्यार्थं चिह्निता राजशासनैः।
अबान्धवं शवं चैव निर्हरेयुरिति स्थितिः।१०.५५। 

वध्यांश्च हन्युः सततं यथाशास्त्रं नृपाज्ञया।
वध्यवासांसि गृह्णीयुः शय्याश्चाभरणानि च। १०.५६ ।

वर्णापेतं अविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम् ।
आर्यरूपं इवानार्यं कर्मभिः स्वैर्विभावयेत्। १०.५७।

अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता निष्क्रियात्मता ।
पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम्। १०.५८।

पित्र्यं वा भजते शीलं मातुर्वोभयं एव वा ।
न कथं चन दुर्योनिः प्रकृतिं स्वां नियच्छति। १०.५९ ।

कुले मुख्येऽपि जातस्य यस्य स्याद्योनिसंकरः।
संश्रयत्येव तच्छीलं नरोऽल्पं अपि वा बहु । १०.६०।

यत्र त्वेते परिध्वंसाज्जायन्ते वर्णदूषकाः 
राष्ट्रिकैः सह तद्राष्ट्रं क्षिप्रं एव विनश्यति ।१०.६१।

ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा देहत्यागोऽनुपस्कृतः ।
स्त्रीबालाभ्युपपत्तौ च बाह्यानां सिद्धिकारणम् । १०.६२।

अहिंसा सत्यं अस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः
एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्येऽब्रवीन्मनुः। १०.६३।

शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातः श्रेयसा चेत्प्रजायते ।
अश्रेयान्श्रेयसीं जातिं गच्छत्या सप्तमाद्युगात्।१०.६४

शूद्रो ब्राह्मणतां एति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातं एवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। १०.६५।

अनार्यायां समुत्पन्नो ब्राह्मणात्तु यदृच्छया ।
ब्राह्मण्यां अप्यनार्यात्तु श्रेयस्त्वं क्वेति चेद्भवेत्।१०.६६।

जातो नार्यां अनार्यायां आर्यादार्यो भवेद्गुणैः
जातोऽप्यनार्यादार्यायां अनार्य इति निश्चयः १०.६७।

तावुभावप्यसंस्कार्याविति धर्मो व्यवस्थितः ।
वैगुण्याज्जन्मनः पूर्व उत्तरः प्रतिलोमतः ।१०.६८

सुबीजं चैव सुक्षेत्रे जातं संपद्यते यथा ।
तथार्याज्जात आर्यायां सर्वं संस्कारं अर्हति । १०.६९ ।

बीजं एके प्रशंसन्ति क्षेत्रं अन्ये मनीषिणः ।
बीजक्षेत्रे तथैवान्ये तत्रेयं तु व्यवस्थितिः। १०.७०।

अक्षेत्रे बीजं उत्सृष्टं अन्तरैव विनश्यति ।
अबीजकं अपि क्षेत्रं केवलं स्थण्डिलं भवेत् । । १०.७१ ।

यस्माद्बीजप्रभावेण तिर्यग्जा ऋषयोऽभवन् ।
पूजिताश्च प्रशस्ताश्च तस्माद्बीजं प्रशस्यते। १०.७२।

अनार्यं आर्यकर्माणं आर्यं चानार्यकर्मिणम् ।
संप्रधार्याब्रवीद्धाता न समौ नासमाविति । । १०.७३।

ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ये स्वकर्मण्यवस्थिताः ।
ते सम्यगुपजीवेयुः षट्कर्माणि यथाक्रमम् । । १०.७४।

अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट्कर्माण्यग्रजन्मनः।१०.७५।

षण्णां तु कर्मणां अस्य त्रीणि कर्माणि जीविका ।
याजनाध्यापने चैव विशुद्धाच्च प्रतिग्रहः।१०.७६

त्रयो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्क्षत्रियं प्रति ।
अध्यापनं याजनं च तृतीयश्च प्रतिग्रहः।१०.७७।

वैश्यं प्रति तथैवैते निवर्तेरन्निति स्थितिः।
न तौ प्रति हि तान्धर्मान्मनुराह प्रजापतिः। १०.७८।

शस्त्रास्त्रभृत्त्वं क्षत्रस्य वणिक्पशुकृषिर्विषः ।
आजीवनार्थं धर्मस्तु दानं अध्ययनं यजिः । । १०.७९ । ।

वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम् ।
वार्ताकर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु । । १०.८० । ।

अजीवंस्तु यथोक्तेन ब्राह्मणः स्वेन कर्मणा ।
जीवेत्क्षत्रियधर्मेण स ह्यस्य प्रत्यनन्तरः । । १०.८१ । ।

उभाभ्यां अप्यजीवंस्तु कथं स्यादिति चेद्भवेत् ।
कृषिगोरक्षं आस्थाय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम् । । १०.८२ । ।

वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा ।
हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् । । १०.८३ । ।

कृषिं साध्विति मन्यन्ते सा वृत्तिः सद्विगर्हिताः ।
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्ति काष्ठं अयोमुखम् । । १०.८४ । ।

इदं तु वृत्तिवैकल्यात्त्यजतो धर्मनैपुणम् ।
विट्पण्यं उद्धृतोद्धारं विक्रेयं वित्तवर्धनम् । । १०.८५ । ।

सर्वान्रसानपोहेत कृतान्नं च तिलैः सह ।
अश्मनो लवणं चैव पशवो ये च मानुषाः । । १०.८६ । ।

सर्वं च तान्तवं रक्तं शाणक्षौमाविकानि च ।
अपि चेत्स्युररक्तानि फलमूले तथौषधीः । । १०.८७ । ।

अपः शस्त्रं विषं मांसं सोमं गन्धांश्च सर्वशः ।
क्षीरं क्षौद्रं दधि घृतं तैलं मधु गुडं कुशान् । । १०.८८ । ।

आरण्यांश्च पशून्सर्वान्दंष्ट्रिणश्च वयांसि च ।
मद्यं नीलिं च लाक्षां च सर्वांश्चैकशफांस्तथा । । १०.८९ । ।

कामं उत्पाद्य कृष्यां तु स्वयं एव कृषीवलः ।
विक्रीणीत तिलाञ् शूद्रान्धर्मार्थं अचिरस्थितान् । । १०.९० । ।

भोजनाभ्यञ्जनाद्दानाद्यदन्यत्कुरुते तिलैः ।
कृमिभूतः श्वविष्ठायां पितृभिः सह मज्जति । । १०.९१ । ।

सद्यः पतति मांसेन लाक्षया लवणेन च ।
त्र्यहेण शूद्रो भवति ब्राह्मणः क्षीरविक्रयात् । । १०.९२ । ।

इतरेषां तु पण्यानां विक्रयादिह कामतः ।
ब्राह्मणः सप्तरात्रेण वैश्यभावं नियच्छति । । १०.९३ । ।

रसा रसैर्निमातव्या न त्वेव लवणं रसैः ।
कृतान्नं च कृतान्नेन तिला धान्येन तत्समाः । । १०.९४ । ।

जीवेदेतेन राजन्यः सर्वेणाप्यनयं गतः ।
न त्वेव ज्यायंसीं वृत्तिं अभिमन्येत कर्हि चित् । । १०.९५ । ।

यो लोभादधमो जात्या जीवेदुत्कृष्टकर्मभिः ।
तं राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रं एव प्रवासयेत् । । १०.९६ । ।

वरं स्वधर्मो विगुणो न पारक्यः स्वनुष्ठितः ।
परधर्मेण जीवन्हि सद्यः पतति जातितः । । १०.९७ । ।

वैश्योऽजीवन्स्वधर्मेण शूद्रवृत्त्यापि वर्तयेत् ।
अनाचरन्नकार्याणि निवर्तेत च शक्तिमान् । । १०.९८ । ।

अशक्नुवंस्तु शुश्रूषां शूद्रः कर्तुं द्विजन्मनाम् ।
पुत्रदारात्ययं प्राप्तो जीवेत्कारुककर्मभिः । । १०.९९ । ।

यैः कर्मभिः प्रचरितैः शुश्रूष्यन्ते द्विजातयः ।
तानि कारुककर्माणि शिल्पानि विविधानि च । । १०.१०० । ।

वैश्यवृत्तिं अनातिष्ठन्ब्राह्मणः स्वे पथि स्थितः ।
अवृत्तिकर्षितःसीदन्निमं धर्मं समाचरेत्।१०.१०१।

सर्वतः प्रतिगृह्णीयाद्ब्राह्मणस्त्वनयं गतः ।
पवित्रं दुष्यतीत्येतद्धर्मतो नोपपद्यते।१०.१०२।

नाध्यापनाद्याजनाद्वा गर्हिताद्वा प्रतिग्रहात् ।
दोषो भवति विप्राणां ज्वलनाम्बुसमा हि ते। १०.१०३।

जीवितात्ययं आपन्नो योऽन्नं अत्ति ततस्ततः ।
आकाशं इव पङ्केन न स पापेन लिप्यते । । १०.१०४ । ।

अजीगर्तः सुतं हन्तुं उपासर्पद्बुभुक्षितः ।
न चालिप्यत पापेन क्षुत्प्रतीकारं आचरन्। १०.१०५ । ।

श्वमांसं इच्छनार्तोऽत्तुं धर्माधर्मविचक्षणः ।
प्राणानां परिरक्षार्थं वामदेवो न लिप्तवान्। १०.१०६ । ।

भरद्वाजः क्षुधार्तस्तु सपुत्रो विजने वने ।
बह्वीर्गाः प्रतिजग्राह वृधोस्तक्ष्णो महातपाः । । १०.१०७ । ।

क्षुधार्तश्चात्तुं अभ्यागाद्विश्वामित्रः श्वजाघनीम् ।
चण्डालहस्तादादाय धर्माधर्मविचक्षणः । । १०.१०८ । ।

प्रतिग्रहाद्याजनाद्वा तथैवाध्यापनादपि ।
प्रतिग्रहः प्रत्यवरः प्रेत्य विप्रस्य गर्हितः।१०.१०९।

याजनाध्यापने नित्यं क्रियेते संस्कृतात्मनाम् ।
प्रतिग्रहस्तु क्रियते शूद्रादप्यन्त्यजन्मनः । । १०.११० । ।

जपहोमैरपैत्येनो याजनाध्यापनैः कृतम् ।
प्रतिग्रहनिमित्तं तु त्यागेन तपसैव च।१०.१११।

शिलोञ्छं अप्याददीत विप्रोऽजीवन्यतस्ततः ।
प्रतिग्रहाच्छिलः श्रेयांस्ततोऽप्युञ्छः प्रशस्यते। १०.११२ ।

सीदद्भिः कुप्यं इच्छद्भिर्धने वा पृथिवीपतिः ।
याच्यः स्यात्स्नातकैर्विप्रैरदित्संस्त्यागं अर्हति । १०.११३ । ।

अकृतं च कृतात्क्षेत्राद्गौरजाविकं एव च ।
हिरण्यं धान्यं अन्नं च पूर्वं पूर्वं अदोषवत् । । १०.११४ । ।

सप्त वित्तागमा धर्म्या दायो लाभः क्रयो जयः ।
प्रयोगः कर्मयोगश्च सत्प्रतिग्रह एव च । । १०.११५ । ।

विद्या शिल्पं भृतिः सेवा गोरक्ष्यं विपणिः कृषिः ।
धृतिर्भैक्षं कुसीदं च दश जीवनहेतवः । । १०.११६ । ।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वृद्धिं नैव प्रयोजयेत् ।
कामं तु खलु धर्मार्थं दद्यात्पापीयसेऽल्पिकाम् । । १०.११७ । ।

चतुर्थं आददानोऽपि क्षत्रियो भागं आपदि ।
प्रजा रक्षन्परं शक्त्या किल्बिषात्प्रतिमुच्यते । । १०.११८ । ।

स्वधर्मो विजयस्तस्य नाहवे स्यात्पराङ्मुखः ।
शस्त्रेण वैश्यान्रक्षित्वा धर्म्यं आहारयेद्बलिम् । । १०.११९ । ।

धान्येऽष्टमं विशां शुल्कं विंशं कार्षापणावरम् ।
कर्मोपकरणाः शूद्राः कारवः शिल्पिनस्तथा । । १०.१२० । ।

शूद्रस्तु वृत्तिं आकाङ्क्षन्क्षत्रं आराधयेद्यदि ।
धनिनं वाप्युपाराध्य वैश्यं शूद्रो जिजीविषेत् । । १०.१२१ । ।

स्वर्गार्थं उभयार्थं वा विप्रानाराधयेत्तु सः ।
जातब्राह्मणशब्दस्य सा ह्यस्य कृतकृत्यता । । १०.१२२ । ।

विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते ।
यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्यस्य निष्फलम् । । १०.१२३ । ।

प्रकल्प्या तस्य तैर्वृत्तिः स्वकुटुम्बाद्यथार्हतः ।
शक्तिं चावेक्ष्य दाक्ष्यं च भृत्यानां च परिग्रहम् । । १०.१२४ । ।

उच्छिष्टं अन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च ।
पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः । । १०.१२५ । ।

न शूद्रे पातकं किं चिन्न च संस्कारं अर्हति ।
नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति न धर्मात्प्रतिषेधनम् । । १०.१२६ । ।

धर्मेप्सवस्तु धर्मज्ञाः सतां वृत्तं अनुष्ठिताः ।
मन्त्रवर्ज्यं न दुष्यन्ति प्रशंसां प्राप्नुवन्ति च । । १०.१२७ । ।

यथा यथा हि सद्वृत्तं आतिष्ठत्यनसूयकः ।
तथा तथेमं चामुं च लोकं प्राप्नोत्यनिन्दितः । । १०.१२८ । ।

शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यो धनसंचयः ।
शूद्रो हि धनं आसाद्य ब्राह्मणानेव बाधते । । १०.१२९ । ।

एते चतुर्णां वर्णानां आपद्धर्माः प्रकीर्तिताः ।
यान्सम्यगनुतिष्ठन्तो व्रजन्ति परमं गतिम् । । १०.१३० । ।

एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः ।
अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तविधिं शुभम् । । १०.१३१ । ।

________________________________

व्यवहारान्दिदृक्षुस्तु ब्राह्मणैः सह पार्थिवः ।
मन्त्रज्ञैर्मन्त्रिभिश्चैव विनीतः प्रविशेत्सभाम् ।८.१।

तत्रासीनः स्थितो वापि पाणिं उद्यम्य दक्षिणम् ।
विनीतवेषाभरणः पश्येत्कार्याणि कार्यिणाम् । । ८.२ । ।

प्रत्यहं देशदृष्टैश्च शास्त्रदृष्टैश्च हेतुभिः ।
अष्टादशसु मार्गेषु निबद्धानि पृथक्पृथक् । । ८.३ । ।

तेषां आद्यं ऋणादानं निक्षेपोऽस्वामिविक्रयः।
संभूय च समुत्थानं दत्तस्यानपकर्म च ।८.४ ।

वेतनस्यैव चादानं संविदश्च व्यतिक्रमः ।
क्रयविक्रयानुशयो विवादः स्वामिपालयोः। ८.५।

सीमाविवादधर्मश्च पारुष्ये दण्डवाचिके ।
स्तेयं च साहसं चैव स्त्रीसंग्रहणं एव च ।८.६ ।

स्त्रीपुंधर्मो विभागश्च द्यूतं आह्वय एव च ।
पदान्यष्टादशैतानि व्यवहारस्थिताविह ।८.७ । ।

एषु स्थानेषु भूयिष्ठं विवादं चरतां नृणाम् ।
धर्मं शाश्वतं आश्रित्य कुर्यात्कार्यविनिर्णयम्। ८.८ । ।

यदा स्वयं न कुर्यात्तु नृपतिः कार्यदर्शनम् ।
तदा नियुञ्ज्याद्विद्वांसं ब्राह्मणं कार्यदर्शने। ८.९ । ।

सोऽस्य कार्याणि संपश्येत्सभ्यैरेव त्रिभिर्वृतः ।
सभां एव प्रविश्याग्र्यां आसीनः स्थित एव वा । ८.१० । ।

यस्मिन्देशे निषीदन्ति विप्रा वेदविदस्त्रयः ।
राज्ञश्चाधिकृतो विद्वान्ब्रह्मणस्तां सभां विदुः । । ८.११ । ।

धर्मो विद्धस्त्वधर्मेण सभां यत्रोपतिष्ठते ।
शल्यं चास्य न कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः। ८.१२ । ।

सभां वा न प्रवेष्टव्यं वक्तव्यं वा समञ्जसम् ।
अब्रुवन्विब्रुवन्वापि नरो भवति किल्बिषी । । ८.१३ । ।

यत्र धर्मो ह्यधर्मेण सत्यं यत्रानृतेन च ।
हन्यते प्रेक्षमाणानां हतास्तत्र सभासदः।८.१४ ।

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् । । ८.१५ । ।

वृषो हि भगवान्धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् ।
वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् । । ८.१६ । ।

एक एव सुहृद्धर्मो निधानेऽप्यनुयाति यः ।
शरीरेण समं नाशं सर्वं अन्यद्धि गच्छति । । ८.१७ । ।

पादोऽधर्मस्य कर्तारं पादः साक्षिणं ऋच्छति ।
पादः सभासदः सर्वान्पादो राजानं ऋच्छति । । ८.१८ । ।

राजा भवत्यनेनास्तु मुच्यन्ते च सभासदः ।
एनो गच्छति कर्तारं निन्दार्हो यत्र निन्द्यते । । ८.१९ । ।

जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद्ब्राह्मणब्रुवः ।
धर्मप्रवक्ता नृपतेर्न तु शूद्रः कथं चन।८.२० । ।

यस्य शूद्रस्तु कुरुते राज्ञो धर्मविवेचनम् ।
तस्य सीदति तद्राष्ट्रं पङ्के गौरिव पश्यतः । । ८.२१ । ।

यद्राष्ट्रं शूद्रभूयिष्ठं नास्तिकाक्रान्तं अद्विजम् ।
विनश्यत्याशु तत्कृत्स्नं दुर्भिक्षव्याधिपीडितम् । । ८.२२ । ।

धर्मासनं अधिष्ठाय संवीताङ्गः समाहितः ।
प्रणम्य लोकपालेभ्यः कार्यदर्शनं आरभेत् । । ८.२३ । ।

अर्थानर्थावुभौ बुद्ध्वा धर्माधर्मौ च केवलौ ।
वर्णक्रमेण सर्वाणि पश्येत्कार्याणि कार्यिणाम् । । ८.२४ । ।

बाह्यैर्विभावयेल्लिङ्गैर्भावं अन्तर्गतं नृणाम् ।
स्वरवर्णेङ्गिताकारैश्चक्षुषा चेष्टितेन च ।८.२५ । ।

आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषितेन च ।
नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः। ८.२६ । ।

बालदायादिकं रिक्थं तावद्राजानुपालयेत् ।
यावत्स स्यात्समावृत्तो यावच्चातीतशैशवः ८.२७।

वशापुत्रासु चैवं स्याद्रक्षणं निष्कुलासु च ।
पतिव्रतासु च स्त्रीषु विधवास्वातुरासु च । । ८.२८ । ।

जीवन्तीनां तु तासां ये तद्धरेयुः स्वबान्धवाः ।
ताञ् शिष्याच्चौरदण्डेन धार्मिकः पृथिवीपतिः । । ८.२९ । ।

प्रणष्टस्वामिकं रिक्थं राजा त्र्यब्दं निधापयेत् ।
अर्वाक्त्र्यब्दाद्धरेत्स्वामी परेण नृपतिर्हरेत् । । ८.३० । ।

ममेदं इति यो ब्रूयात्सोऽनुयोज्यो यथाविधि ।
संवाद्य रूपसंख्यादीन्स्वामी तद्द्रव्यं अर्हति । । ८.३१ । ।

अवेदयानो नष्टस्य देशं कालं च तत्त्वतः ।
वर्णं रूपं प्रमाणं च तत्समं दण्डं अर्हति । । ८.३२ । ।

आददीताथ षड्भागं प्रनष्टाधिगतान्नृपः ।
दशमं द्वादशं वापि सतां धर्मं अनुस्मरन् । । ८.३३ । ।

प्रनष्टाधिगतं द्रव्यं तिष्ठेद्युक्तैरधिष्ठितम् ।
यांस्तत्र चौरान्गृह्णीयात्तान्राजेभेन घातयेत् । । ८.३४ । ।

ममायं इति यो ब्रूयान्निधिं सत्येन मानवः ।
तस्याददीत षड्भागं राजा द्वादशं एव वा । । ८.३५ । ।

अनृतं तु वदन्दण्ड्यः स्ववित्तस्यांशं अष्टमम् ।
तस्यैव वा निधानस्य संख्ययाल्पीयसीं कलाम् । । ८.३६ । ।

विद्वांस्तु ब्राह्मणो दृष्ट्वा पूर्वोपनिहितं निधिम् ।
अशेषतोऽप्याददीत सर्वस्याधिपतिर्हि सः । । ८.३७ । ।

यं तु पश्येन्निधिं राजा पुराणं निहितं क्षितौ ।
तस्माद्द्विजेभ्यो दत्त्वार्धं अर्धं कोशे प्रवेशयेत् । । ८.३८ । ।

निधीनां तु पुराणानां धातूनां एव च क्षितौ ।
अर्धभाग्रक्षणाद्राजा भूमेरधिपतिर्हि सः । । ८.३९ । ।

दातव्यं सर्ववर्णेभ्यो राज्ञा चौरैर्हृतं धनम् ।
राजा तदुपयुञ्जानश्चौरस्याप्नोति किल्बिषम् । । ८.४० । ।

जातिजानपदान्धर्मान्श्रेणीधर्मांश्च धर्मवित् ।
समीक्ष्य कुलधर्मांश्च स्वधर्मं प्रतिपादयेत् । । ८.४१ । ।

स्वानि कर्माणि कुर्वाणा दूरे सन्तोऽपि मानवाः ।
प्रिया भवन्ति लोकस्य स्वे स्वे कर्मण्यवस्थिताः । । ८.४२ । ।

नोत्पादयेत्स्वयं कार्यं राजा नाप्यस्य पुरुषः ।
न च प्रापितं अन्येन ग्रसेदर्थं कथं चन ८.४३ । ।

यथा नयत्यसृक्पातैर्मृगस्य मृगयुः पदम् ।
नयेत्तथानुमानेन धर्मस्य नृपतिः पदम्  ८.४४ । ।

सत्यं अर्थं च संपश्येदात्मानं अथ साक्षिणः ।
देशं रूपं च कालं च व्यवहारविधौ स्थितः । ८.४५ । ।

सद्भिराचरितं यत्स्याद्धार्मिकैश्च द्विजातिभिः ।
तद्देशकुलजातीनां अविरुद्धं प्रकल्पयेत् । ८.४६।

अधमर्णार्थसिद्ध्यर्थं उत्तमर्णेन चोदितः ।
दापयेद्धनिकस्यार्थं अधमर्णाद्विभावितम् । । ८.४७ । ।

यैर्यैरुपायैरर्थं स्वं प्राप्नुयादुत्तमर्णिकः ।
तैर्तैरुपायैः संगृह्य दापयेदधमर्णिकम् ।८.४८ । ।

धर्मेण व्यवहारेण छलेनाचरितेन च ।
प्रयुक्तं साधयेदर्थं पञ्चमेन बलेन च ।८.४९ । ।

यः स्वयं साधयेदर्थं उत्तमर्णोऽधमर्णिकात् ।
न स राज्ञाभियोक्तव्यः स्वकं संसाधयन्धनम्। ८.५० । ।

अर्थेऽपव्ययमानं तु करणेन विभावितम् ।
दापयेद्धनिकस्यार्थं दण्डलेशं च शक्तितः। ८.५१।

अपह्नवेऽधमर्णस्य देहीत्युक्तस्य संसदि ।
अभियोक्ता दिशेद्देश्यं करणं वान्यदुद्दिशेत् । । ८.५२ । ।

अदेश्यं यश्च दिशति निर्दिश्यापह्नुते च यः ।
यश्चाधरोत्तरानर्थान्विगीतान्नावबुध्यते

८.५३ । ।

अपदिश्यापदेश्यं च पुनर्यस्त्वपधावति ।
सम्यक्प्रणिहितं चार्थं पृष्टः सन्नाभिनन्दति । । ८.५४ । ।

असंभाष्ये साक्षिभिश्च देशे संभाषते मिथः ।
निरुच्यमानं प्रश्नं च नेच्छेद्यश्चापि निष्पतेत् । । ८.५५ । ।

ब्रूहीत्युक्तश्च न ब्रूयादुक्तं च न विभावयेत् ।
न च पूर्वापरं विद्यात्तस्मादर्थात्स हीयते । । ८.५६ । ।

साक्षिणःसन्ति मेत्युक्त्वा दिशेत्युक्तो दिशेन्न यः ।
धर्मस्थः कारणैरेतैर्हीनं तं अपि निर्दिशेत् ।८.५७।

अभियोक्ता न चेद्ब्रूयाद्बध्यो दण्ड्यश्च धर्मतः ।
न चेत्त्रिपक्षात्प्रब्रूयाद्धर्मं प्रति पराजितः । । ८.५८ । ।

यो यावन्निह्नुवीतार्थं मिथ्या यावति वा वदेत् ।
तौ नृपेण ह्यधर्मज्ञौ दाप्यो तद्द्विगुणं दमम् । । ८.५९ । ।

पृष्टोऽपव्ययमानस्तु कृतावस्थो धनैषिणा ।
त्र्यवरैः साक्षिभिर्भाव्यो नृपब्राह्मणसंनिधौ । । ८.६० । ।

यादृशा धनिभिः कार्या व्यवहारेषु साक्षिणः ।
तादृशान्संप्रवक्ष्यामि यथा वाच्यं ऋतं च तैः । । ८.६१ । ।

गृहिणः पुत्रिणो मौलाः क्षत्रविश्शूद्रयोनयः ।
अर्थ्युक्ताः साक्ष्यं अर्हन्ति न ये के चिदनापदि । । ८.६२ । ।

आप्ताः सर्वेषु वर्णेषु कार्याः कार्येषु साक्षिणः ।
सर्वधर्मविदोऽलुब्धा विपरीतांस्तु वर्जयेत् । । ८.६३ । ।

नार्थसंबन्धिनो नाप्ता न सहाया न वैरिणः ।
न दृष्टदोषाः कर्तव्या न व्याध्यार्ता न दूषिताः । । ८.६४ । ।

न साक्षी नृपतिः कार्यो न कारुककुशीलवौ ।
न श्रोत्रियो न लिङ्गस्थो न सङ्गेभ्यो विनिर्गतः । । ८.६५ । ।

नाध्यधीनो न वक्तव्यो न दस्युर्न विकर्मकृत् ।
न वृद्धो न शिशुर्नैको नान्त्यो न विकलेन्द्रियः । । ८.६६ । ।

नार्तो न मत्तो नोन्मत्तो न क्षुत्तृष्णोपपीडितः ।
न श्रमार्तो न कामार्तो न क्रुद्धो नापि तस्करः । । ८.६७ । ।

स्त्रीणां साक्ष्यं स्त्रियः कुर्युर्द्विजानां सदृशा द्विजाः 
शूद्राश्च सन्तः शूद्राणां अन्त्यानां अन्त्ययोनयः  । ८.६८ । ।

अनुभावी तु यः कश्चित्कुर्यात्साक्ष्यं विवादिनाम् ।
अन्तर्वेश्मन्यरण्ये वा शरीरस्यापि चात्यये । । ८.६९ । ।

स्त्रियाप्यसंभावे कार्यं बालेन स्थविरेण वा ।
शिष्येण बन्धुना वापि दासेन भृतकेन वा ।८.७० 

बालवृद्धातुराणां च साक्ष्येषु वदतां मृषा ।
जानीयादस्थिरां वाचं उत्सिक्तमनसां तथा । ८.७१ । ।

साहसेषु च सर्वेषु स्तेयसंग्रहणेषु च ।
वाग्दण्डयोश्च पारुष्ये न परीक्षेत साक्षिणः। ८.७२ । ।

बहुत्वं परिगृह्णीयात्साक्षिद्वैधे नराधिपः ।
समेषु तु गुणोत्कृष्टान्गुणिद्वैधे द्विजोत्तमान् । ८.७३ । ।

समक्षदर्शनात्साक्ष्यं श्रवणाच्चैव सिध्यति ।
तत्र सत्यं ब्रुवन्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते। ८.७४।

साक्षी दृष्टश्रुतादन्यद्विब्रुवन्नार्यसंसदि ।
अवाङ्नरकं अभ्येति प्रेत्य स्वर्गाच्च हीयते । । ८.७५ । ।

यत्रानिबद्धोऽपीक्षेत शृणुयाद्वापि किं चन ।
पृष्टस्तत्रापि तद्ब्रूयाद्यथादृष्टं यथाश्रुतम् । । ८.७६ । ।

एकोऽलुब्धस्तु साक्षी स्याद्बह्व्यः शुच्योऽपि न स्त्रियः ।
स्त्रीबुद्धेरस्थिरत्वात्तु दोषैश्चान्येऽपि ये वृताः । । ८.७७ । ।

स्वभावेनैव यद्ब्रूयुस्तद्ग्राह्यं व्यावहारिकम् ।
अतो यदन्यद्विब्रूयुर्धर्मार्थं तदपार्थकम्।८.७८।

सभान्तः साक्षिणः प्राप्तानर्थिप्रत्यर्थिसंनिधौ ।
प्राड्विवाकोऽनुयुञ्जीत विधिनानेन सान्त्वयन् । । ८.७९ । ।

यद्द्वयोरनयोर्वेत्थ कार्येऽस्मिंश्चेष्टितं मिथः ।
तद्ब्रूत सर्वं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता। ८.८० । ।

सत्यं साक्ष्ये ब्रुवन्साक्षी लोकानाप्नोति पुष्कलान् 
इह चानुत्तमां कीर्तिं वागेषा ब्रह्मपूजिता । । ८.८१ । ।

साक्ष्येऽनृतं वदन्पाशैर्बध्यते वारुणैर्भृशम् ।
विवशः शतं आजातीस्तस्मात्साक्ष्यं वदेदृतम् । । ८.८२ । ।

सत्येन पूयते साक्षी धर्मः सत्येन वर्धते ।
तस्मात्सत्यं हि वक्तव्यं सर्ववर्णेषु साक्षिभिः। ८.८३ । ।

आत्मैव ह्यात्मनः साक्षी गतिरात्मा तथात्मनः ।
मावमंस्थाः स्वं आत्मानं नृणां साक्षिणं उत्तमम् । । ८.८४ । ।

मन्यन्ते वै पापकृतो न कश्चित्पश्यतीति नः ।
तांस्तु देवाः प्रपश्यन्ति स्वस्यैवान्तरपूरुषः । । ८.८५ । ।

द्यौर्भूमिरापो हृदयं चन्द्रार्काग्नियमानिलाः ।
रात्रिः संध्ये च धर्मश्च वृत्तज्ञाः सर्वदेहिनाम् । । ८.८६ । ।

देवब्राह्मणसांनिध्ये साक्ष्यं पृच्छेदृतं द्विजान् ।
उदङ्मुखान्प्राङ्मुखान्वा पूर्वाह्णे वै शुचिः शुचीन् । । ८.८७ । ।

ब्रूहीति ब्राह्मणं पृच्छेत्सत्यं ब्रूहीति पार्थिवम् ।
गोबीजकाञ्चनैर्वैश्यं शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः । । ८.८८ । ।

ब्रह्मघ्नो ये स्मृता लोका ये च स्त्रीबालघातिनः ।
मित्रद्रुहः कृतघ्नस्य ते ते स्युर्ब्रुवतो मृषा । । ८.८९ । ।

जन्मप्रभृति यत्किं चित्पुण्यं भद्र त्वया कृतम् ।
तत्ते सर्वं शुनो गच्छेद्यदि ब्रूयास्त्वं अन्यथा । । ८.९० । ।

एकोऽहं अस्मीत्यात्मानं यस्त्वं कल्याण मन्यसे ।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः । । ८.९१ । ।

यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैष हृदि स्थितः ।
तेन चेदविवादस्ते मा गङ्गां मा कुरून्गमः । । ८.९२ । ।

नग्नो मुण्डः कपालेन च भिक्षार्थी क्षुत्पिपासितः 
अन्धः शत्रुकुलं गच्छेद्यः साक्ष्यं अनृतं वदेत्। ८.९३ । ।

अवाक्शिरास्तमस्यन्धे किल्बिषी नरकं व्रजेत् ।
यः प्रश्नं वितथं ब्रूयात्पृष्टः सन्धर्मनिश्चये । । ८.९४ । ।

अन्धो मत्स्यानिवाश्नाति स नरः कण्टकैः सह ।
यो भाषतेऽर्थवैकल्यं अप्रत्यक्षं सभां गतः।८.९५।

यस्य विद्वान्हि वदतः क्षेत्रज्ञो नाभिशङ्कते ।
तस्मान्न देवाः श्रेयांसं लोकेऽन्यं पुरुषं विदुः । । ८.९६ । ।

यावतो बान्धवान्यस्मिन्हन्ति साक्ष्येऽनृतं वदन् ।
तावतः संख्यया तस्मिन्शृणु सौम्यानुपूर्वशः । । ८.९७ । ।

पञ्च पश्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते ।
शतं अश्वानृते हन्ति सहस्रं पुरुषानृते ।८.९८ । ।

हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थेऽनृतं वदन् ।
सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं वदीः । । ८.९९ । ।

अप्सु भूमिवदित्याहुः स्त्रीणां भोगे च मैथुने ।
अब्जेषु चैव रत्नेषु सर्वेष्वश्ममयेषु च।८.१०० । 

एतान्दोषानवेक्ष्य त्वं सर्वाननृतभाषणे ।
यथाश्रुतं यथादृष्टं सर्वं एवाञ्जसा वद । । ८.१०१ । ।

गोरक्षकान्वाणिजिकांस्तथा कारुकुशीलवान् ।
प्रेष्यान्वार्धुषिकांश्चैव विप्रान्शूद्रवदाचरेत् । । ८.१०२ । ।

तद्वदन्धर्मतोऽर्थेषु जानन्नप्यन्य्था नरः ।
न स्वर्गाच्च्यवते लोकाद्दैवीं वाचं वदन्ति ताम् । । ८.१०३ । ।

शूद्रविट्क्षत्रविप्राणां यत्र र्तोक्तौ भवेद्वधः ।
तत्र वक्तव्यं अनृतं तद्धि सत्याद्विशिष्यते । । ८.१०४ । ।

वाग्गैवत्यैश्च चरुभिर्यजेरंस्ते सरस्वतीम् ।
अनृतस्यैनसस्तस्य कुर्वाणा निष्कृतिं पराम् । । ८.१०५ । ।

कूष्माण्डैर्वापि जुहुयाद्घृतं अग्नौ यथाविधि ।
उदित्यृचा वा वारुण्या तृचेनाब्दैवतेन वा । । ८.१०६ । ।

त्रिपक्षादब्रुवन्साक्ष्यं ऋणादिषु नरोऽगदः ।
तदृणं प्राप्नुयात्सर्वं दशबन्धं च सर्वतः८.१०७ । ।

यस्य दृश्येत सप्ताहादुक्तवाक्यस्य साक्षिणः ।
रोगोऽग्निर्ज्ञातिमरणं ऋणं दाप्यो दमं च सः । । ८.१०८ । ।

असाक्षिकेषु त्वर्थेषु मिथो विवादमानयोः ।
अविन्दंस्तत्त्वतः सत्यं शपथेनापि लम्भयेत् । । ८.१०९ । ।

महर्षिभिश्च देवैश्च कार्यार्थं शपथाः कृताः ।
वसिष्ठश्चापि शपथं शेपे पैजवने नृपे।८.११० । ।

न वृथा शपथं कुर्यात्स्वल्पेऽप्यर्थे नरो बुधः ।
वृथा हि शपथं कुर्वन्प्रेत्य चेह च नश्यति । । ८.१११ । ।

कामिनीषु विवाहेषु गवां भक्ष्ये तथेन्धने ।
ब्राह्मणाभ्युपपत्तौ च शपथे नास्ति पातकम् । । ८.११२ । ।

सत्येन शापयेद्विप्रं क्षत्रियं वाहनायुधैः ।
गोबीजकाञ्चनैर्वैश्यं शूद्रं सर्वैस्तु पातकैः । । ८.११३ । ।

अग्निं वाहारयेदेनं अप्सु चैनं निमज्जयेत् ।
पुत्रदारस्य वाप्येनं शिरांसि स्पर्शयेत्पृथक् । । ८.११४ । ।

यं इद्धो न दहत्यग्निरापो नोन्मज्जयन्ति च ।
न चार्तिं ऋच्छति क्षिप्रं स ज्ञेयः शपथे शुचिः । । ८.११५ । ।

वत्सस्य ह्यभिशस्तस्य पुरा भ्रात्रा यवीयसा ।
नाग्निर्ददाह रोमापि सत्येन जगतः स्पशः । । ८.११६ । ।

यस्मिन्यस्मिन्विवादे तु कौटसाक्ष्यं कृतं भवेत् ।
तत्तत्कार्यं निवर्तेत कृतं चाप्यकृतं भवेत् । । ८.११७ । ।

लोभान्मोहाद्भयान्मैत्रात्कामात्क्रोधात्तथैव च ।
अज्ञानाद्बालभावाच्च साक्ष्यं वितथं उच्यते । । ८.११८ । ।

एषां अन्यतमे स्थाने यः साक्ष्यं अनृतं वदेत् ।
तस्य दण्डविशेषांस्तु प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः । । ८.११९ । ।

लोभात्सहस्रं दण्ड्यस्तु मोहात्पूर्वं तु साहसम् ।
भयाद्द्वौ मध्यमौ दण्डौ मैत्रात्पूर्वं चतुर्गुणम् । । ८.१२० । ।

कामाद्दशगुणं पूर्वं क्रोधात्तु त्रिगुणं परम् ।
अज्ञानाद्द्वे शते पूर्णे बालिश्याच्छतं एव तु । । ८.१२१ । ।

एतानाहुः कौटसाक्ष्ये प्रोक्तान्दण्डान्मनीषिभिः ।
धर्मस्याव्यभिचारार्थं अधर्मनियमाय च । । ८.१२२ । ।

कौटसाक्ष्यं तु कुर्वाणांस्त्रीन्वर्णान्धार्मिको नृपः ।
प्रवासयेद्दण्डयित्वा ब्राह्मणं तु विवासयेत् । । ८.१२३ । ।

दश स्थानानि दण्डस्य मनुः स्वयंभुवोऽब्रवीत् ।
त्रिषु वर्णेषु यानि स्युरक्षतो ब्राह्मणो व्रजेत् । । ८.१२४ । ।

उपस्थं उदरं जिह्वा हस्तौ पादौ च पञ्चमम् ।
चक्षुर्नासा च कर्णौ च धनं देहस्तथैव च । । ८.१२५ । ।

अनुबन्धं परिज्ञाय देशकालौ च तत्त्वतः ।
सारापराधो चालोक्य दण्डं दण्ड्येषु पातयेत् । । ८.१२६ । ।

अधर्मदण्डनं लोके यशोघ्नं कीर्तिनाशनम् ।
अस्वर्ग्यं च परत्रापि तस्मात्तत्परिवर्जयेत् । । ८.१२७ । ।

अदण्ड्यान्दण्डयन्राजा दण्ड्यांश्चैवाप्यदण्डयन् ।
अयशो महदाप्नोति नरकं चैव गच्छति । । ८.१२८ । ।

वाग्दण्डं प्रथमं कुर्याद्धिग्दण्डं तदनन्तरम् ।
तृतीयं धनदण्डं तु वधदण्डं अतः परम् । । ८.१२९ । ।

वधेनापि यदा त्वेतान्निग्रहीतुं न शक्नुयात् ।
तदैषु सर्वं अप्येतत्प्रयुञ्जीत चतुष्टयम् । । ८.१३० । ।

लोकसंव्यवहारार्थं याः संज्ञाः प्रथिता भुवि ।
ताम्ररूप्यसुवर्णानां ताः प्रवक्ष्याम्यशेषतः । । ८.१३१ । ।

जालान्तरगते भानौ यत्सूक्ष्मं दृश्यते रजः ।
प्रथमं तत्प्रमाणानां त्रसरेणुं प्रचक्षते।८.१३२  ।

त्रसरेणवोऽष्टौ विज्ञेया लिक्षैका परिमाणतः ।
ता राजसर्षपस्तिस्रस्ते त्रयो गौरसर्षपः। ८.१३३।

सर्षपाः षड्यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम् ।
पञ्चकृष्णलको माषस्ते सुवर्णस्तु षोडश । । ८.१३४ । ।

पलं सुवर्णाश्चत्वारः पलानि धरणं दश ।
द्वे कृष्णले समधृते विज्ञेयो रौप्यमाषकः।८.१३५।

ते षोडश स्याद्धरणं पुराणश्चैव राजतः ।
कार्षापणस्तु विज्ञेयस्ताम्रिकः कार्षिकः पणः । । ८.१३६ । ।

धरणानि दश ज्ञेयः शतमानस्तु राजतः ।
चतुःसौवर्णिको निष्को विज्ञेयस्तु प्रमाणतः । । ८.१३७ । ।

पणानां द्वे शते सार्धे प्रथमः साहसः स्मृतः ।
मध्यमः पञ्च विज्ञेयः सहस्रं त्वेव चोत्तमः । । ८.१३८ । ।

ऋणे देये प्रतिज्ञाते पञ्चकं शतं अर्हति ।
अपह्नवे तद्द्विगुणं तन्मनोरनुशासनम् । । ८.१३९ । ।

वसिष्ठविहितां वृद्धिं सृजेद्वित्तविवर्धिनीम् ।
अशीतिभागं गृह्णीयान्मासाद्वार्धुषिकः शते । । ८.१४० । ।

द्विकं शतं वा गृह्णीयात्सतां धर्मं अनुस्मरन् ।
द्विकं शतं हि गृह्णानो न भवत्यर्थकिल्बिषी । । ८.१४१ । ।

द्विकं त्रिकं चतुष्कं च पञ्चकं च शतं समम् ।
मासस्य वृद्धिं गृह्णीयाद्वर्णानां अनुपूर्वशः । । ८.१४२ । ।

न त्वेवाधौ सोपकारे कौसीदीं वृद्धिं आप्नुयात् ।
न चाधेः कालसंरोधान्निसर्गोऽस्ति न विक्रयः । । ८.१४३ । ।

न भोक्तव्यो बलादाधिर्भुञ्जानो वृद्धिं उत्सृजेत् ।
मूल्येन तोषयेच्चैनं आधिस्तेनोऽन्यथा भवेत् । । ८.१४४ । ।

आधिश्चोपनिधिश्चोभौ न कालात्ययं अर्हतः ।
अवहार्यौ भवेतां तौ दीर्घकालं अवस्थितौ । । ८.१४५ । ।

संप्रीत्या भुज्यमानानि न नश्यन्ति कदा चन ।
धेनुरुष्ट्रो वहन्नश्वो यश्च दम्यः प्रयुज्यते । । ८.१४६ । ।

यत्किं चिद्दशवर्षाणि संनिधौ प्रेक्षते धनी ।
भुज्यमानं परैस्तूष्णीं न स तल्लब्धुं अर्हति । । ८.१४७ । ।

अजडश्चेदपोगण्डो विषये चास्य भुज्यते ।
भग्नं तद्व्यवहारेण भोक्ता तद्द्रव्यं अर्हति । । ८.१४८ । ।

आधिः सीमा बालधनं निक्षेपोपनिधिः स्त्रियः ।
राजस्वं श्रोत्रियस्वं च न भोगेन प्रणश्यति । । ८.१४९ । ।

यः स्वामिनाननुज्ञातं आधिं भूङ्क्तेऽविचक्षणः ।
तेनार्धवृद्धिर्मोक्तव्या तस्य भोगस्य निष्कृतिः । । ८.१५० । ।

कुसीदवृद्धिर्द्वैगुण्यं नात्येति सकृदाहृता ।
धान्ये सदे लवे वाह्ये नातिक्रामति पञ्चताम् । । ८.१५१ । ।

कृतानुसारादधिका व्यतिरिक्ता न सिध्यति ।
कुसीदपथं आहुस्तं पञ्चकं शतं अर्हति । । ८.१५२ । ।

नातिसांवत्सरीं वृद्धिं न चादृष्टां पुनर्हरेत् ।
चक्रवृद्धिः कालवृद्धिः कारिता कायिका च या । । ८.१५३ । ।

ऋणं दातुं अशक्तो यः कर्तुं इच्छेत्पुनः क्रियाम् ।
स दत्त्वा निर्जितां वृद्धिं करणं परिवर्तयेत् । । ८.१५४ । ।

अदर्शयित्वा तत्रैव हिरण्यं परिवर्तयेत् ।
यावती संभवेद्वृद्धिस्तावतीं दातुं अर्हति । । ८.१५५ । ।

चक्रवृद्धिं समारूढो देशकालव्यवस्थितः ।
अतिक्रामन्देशकालौ न तत्फलं अवाप्नुयात् । । ८.१५६ । ।

समुद्रयानकुशला देशकालार्थदर्शिनः ।
स्थापयन्ति तु यां वृद्धिं सा तत्राधिगमं प्रति । । ८.१५७ । ।

यो यस्य प्रतिभूस्तिष्ठेद्दर्शनायेह मानवः ।
अदर्शयन्स तं तस्य प्रयच्छेत्स्वधनादृणम् । । ८.१५८ । ।

प्रातिभाव्यं वृथादानं आक्षिकं सौरिकां च यत् ।
दण्डशुल्कावशेषं च न पुत्रो दातुं अर्हति । । ८.१५९ । ।

दर्शनप्रातिभाव्ये तु विधिः स्यात्पूर्वचोदितः ।
दानप्रतिभुवि प्रेते दायादानपि दापयेत् । । ८.१६० । ।

अदातरि पुनर्दाता विज्ञातप्रकृतावृणम् ।
पश्चात्प्रतिभुवि प्रेते परीप्सेत्केन हेतुना । । ८.१६१ । ।

निरादिष्टधनश्चेत्तु प्रतिभूः स्यादलंधनः ।
स्वधनादेव तद्दद्यान्निरादिष्ट इति स्थितिः । । ८.१६२ । ।

मत्तोन्मत्तार्ताध्यधीनैर्बालेन स्थविरेण वा ।
असंबद्धकृतश्चैव व्यावहारो न सिध्यति । । ८.१६३ । ।

सत्या न भाषा भवति यद्यपि स्यात्प्रतिष्ठिता ।
बहिश्चेद्भाष्यते धर्मान्नियताद्व्यवहारिकात् । । ८.१६४ । ।

योगाधमनविक्रीतं योगदानप्रतिग्रहम् ।
यत्र वाप्युपधिं पश्येत्तत्सर्वं विनिवर्तयेत् । । ८.१६५ । ।

ग्रहीता यदि नष्टः स्यात्कुटुम्बार्थे कृतो व्ययः ।
दातव्यं बान्धवैस्तत्स्यात्प्रविभक्तैरपि स्वतः । । ८.१६६ । ।

कुटुम्बार्थेऽध्यधीनोऽपि व्यवहारं यं आचरेत् ।
स्वदेशे वा विदेशे वा तं ज्यायान्न विचालयेत् । । ८.१६७ । ।

बलाद्दत्तं बलाद्भुक्तं बलाद्यच्चापि लेखितम् ।
सर्वान्बलकृतानर्थानकृतान्मनुरब्रवीत् । । ८.१६८ । ।

त्रयः परार्थे क्लिश्यन्ति साक्षिणः प्रतिभूः कुलम् 
चत्वारस्तूपचीयन्ते विप्र आढ्यो वणिङ्नृपः ८.१६९ ।

अनादेयं नाददीत परिक्षीणोऽपि पार्थिवः ।
न चादेयं समृद्धोऽपि सूक्ष्मं अप्यर्थं उत्सृजेत् । । ८.१७० । ।

अनादेयस्य चादानादादेयस्य च वर्जनात् ।
दौर्बल्यं ख्याप्यते राज्ञः स प्रेत्येह च नश्यति । । ८.१७१ । ।

स्वादानाद्वर्णसंसर्गात्त्वबलानां च रक्षणात् ।
बलं संजायते राज्ञः स प्रेत्येह च वर्धते । । ८.१७२ । ।

तस्माद्यम इव स्वामी स्वयं हित्वा प्रियाप्रिये ।
वर्तेत याम्यया वृत्त्या जितक्रोधो जितेन्द्रियः । । ८.१७३ । ।

यस्त्वधर्मेण कार्याणि मोहात्कुर्यान्नराधिपः ।
अचिरात्तं दुरात्मानं वशे कुर्वन्ति शत्रवः । । ८.१७४ । ।

कामक्रोधौ तु संयम्य योऽर्थान्धर्मेण पश्यति ।
प्रजास्तं अनुवर्तन्ते समुद्रं इव सिन्धवः । । ८.१७५ । ।

यः साधयन्तं छन्देन वेदयेद्धनिकं नृपे ।
स राज्ञा तच्चतुर्भागं दाप्यस्तस्य च तद्धनम् । । ८.१७६ । ।

कर्मणापि समं कुर्याद्धनिकायाधमर्णिकः ।
समोऽवकृष्टजातिस्तु दद्याच्छ्रेयांस्तु तच्छनैः । । ८.१७७ । ।

अनेन विधिना राजा मिथो विवदतां नृणाम् ।
साक्षिप्रत्ययसिद्धानि कार्याणि समतां नयेत् । । ८.१७८ । ।

कुलजे वृत्तसंपन्ने धर्मज्ञे सत्यवादिनि ।
महापक्षे धनिन्यार्ये निक्षेपं निक्षिपेद्बुधः । । ८.१७९ । ।

यो यथा निक्षिपेद्धस्ते यं अर्थं यस्य मानवः ।
स तथैव ग्रहीतव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः । । ८.१८० । ।

यो निक्षेपं याच्यमानो निक्षेप्तुर्न प्रयच्छति ।
स याच्यः प्राड्विवाकेन तन्निक्षेप्तुरसंनिधौ । । ८.१८१ । ।

साक्ष्यभावे प्रणिधिभिर्वयोरूपसमन्वितैः ।
अपदेशैश्च संन्यस्य हिरण्यं तस्य तत्त्वतः । । ८.१८२ । ।

स यदि प्रतिपद्येत यथान्यस्तं यथाकृतम् ।
न तत्र विद्यते किं चिद्यत्परैरभियुज्यते । । ८.१८३ । ।

तेषां न दद्याद्यदि तु तद्धिरण्यं यथाविधि ।
उभौ निगृह्य दाप्यः स्यादिति धर्मस्य धारणा । । ८.१८४ । ।

निक्षेपोपनिधी नित्यं न देयौ प्रत्यनन्तरे ।
नश्यतो विनिपाते तावनिपाते त्वनाशिनौ । । ८.१८५ । ।

स्वयं एव तु यौ दद्यान्मृतस्य प्रत्यनन्तरे ।
न स राज्ञाभियोक्तव्यो न निक्षेप्तुश्च बन्धुभिः । । ८.१८६ । ।

अच्छलेनैव चान्विच्छेत्तं अर्थं प्रीतिपूर्वकम् ।
विचार्य तस्य वा वृत्तं साम्नैव परिसाधयेत् । । ८.१८७ । ।

निक्षेपेष्वेषु सर्वेषु विधिः स्यात्परिसाधने ।
समुद्रे नाप्नुयात्किं चिद्यदि तस्मान्न संहरेत् । । ८.१८८ । ।

चौरैर्हृतं जलेनोढं अग्निना दग्धं एव वा ।
न दद्याद्यदि तस्मात्स न संहरति किं चन । । ८.१८९ । ।

निक्षेपस्यापहर्तारं अनिक्षेप्तारं एव च ।
सर्वैरुपायैरन्विच्छेच्छपथैश्चैव वैदिकैः।८.१९० ।

यो निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षिप्य याचते ।
तावुभौ चौरवच्छास्यौ दाप्यौ वा तत्समं दमम् । । ८.१९१ । ।

निक्षेपस्यापहर्तारं तत्समं दापयेद्दमम् ।
तथोपनिधिहर्तारं अविशेषेण पार्थिवः । । ८.१९२ । ।

उपधाभिश्च यः कश्चित्परद्रव्यं हरेन्नरः ।
ससहायः स हन्तव्यः प्रकाशं विविधैर्वधैः । । ८.१९३ । ।

निक्षेपो यः कृतो येन यावांश्च कुलसंनिधौ ।
तावानेव स विज्ञेयो विब्रुवन्दण्डं अर्हति । । ८.१९४ । ।

मिथो दायः कृतो येन गृहीतो मिथ एव वा ।
मिथ एव प्रदातव्यो यथा दायस्तथा ग्रहः । । ८.१९५ । ।

निक्षिप्तस्य धनस्यैवं प्रीत्योपनिहितस्य च ।
राजा विनिर्णयं कुर्यादक्षिण्वन्न्यासधारिणम् । । ८.१९६ । ।

विक्रीणीते परस्य स्वं योऽस्वामी स्वाम्यसम्मतः ।
न तं नयेत साक्ष्यं तु स्तेनं अस्तेनमानिनम् । । ८.१९७ । ।

अवहार्यो भवेच्चैव सान्वयः षट्शतं दमम् ।
निरन्वयोऽनपसरः प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् । । ८.१९८ । ।

अस्वामिना कृतो यस्तु दायो विक्रय एव वा ।
अकृतः स तु विज्ञेयो व्यवहारे यथा स्थितिः । । ८.१९९ । ।

संभोगो दृश्यते यत्र न दृश्येतागमः क्व चित् ।
आगमः कारणं तत्र न संभोग इति स्थितिः । । ८.२०० । ।

विक्रयाद्यो धनं किं चिद्गृह्णीयत्कुलसंनिधौ ।
क्रयेण स विशुद्धं हि न्यायतो लभते धनम् । । ८.२०१ । ।

अथ मूलं अनाहार्यं प्रकाशक्रयशोधितः ।
अदण्ड्यो मुच्यते राज्ञा नाष्टिको लभते धनम् । । ८.२०२ । ।

नान्यदन्येन संसृष्ट रूपं विक्रयं अर्हति ।
न चासारं न च न्यूनं न दूरेण तिरोहितम् । ८.२०३ । ।

अन्यां चेद्दर्शयित्वान्या वोढुः कन्या प्रदीयते ।
उभे त एकशुल्केन वहेदित्यब्रवीन्मनुः। ८.२०४ ।

नोन्मत्ताया न कुष्ठिन्या न च या स्पृष्टमैथुना ।
पूर्वं दोषानभिख्याप्य प्रदाता दण्डं अर्हति । । ८.२०५ । ।

ऋत्विग्यदि वृतो यज्ञे स्वकर्म परिहापयेत् ।
तस्य कर्मानुरूपेण देयोऽंशः सहकर्तृभिः । । ८.२०६ । ।

दक्षिणासु च दत्तासु स्वकर्म परिहापयन् ।
कृत्स्नं एव लभेतांशं अन्येनैव च कारयेत् । । ८.२०७ । ।

यस्मिन्कर्मणि यास्तु स्युरुक्ताः प्रत्यङ्गदक्षिणाः ।
स एव ता आदिदीत भजेरन्सर्व एव वा । । ८.२०८ । ।

रथं हरेत्चाध्वर्युर्ब्रह्माधाने च वाजिनम् ।
होता वापि हरेदश्वं उद्गाता चाप्यनः क्रये । । ८.२०९ । ।

सर्वेषां अर्धिनो मुख्यास्तदर्धेनार्धिनोऽपरे ।
तृतीयिनस्तृतीयांशाश्चतुर्थांशाश्च पादिनः । । ८.२१० । ।

संभूय स्वानि कर्माणि कुर्वद्भिरिह मानवैः ।
अनेन विधियोगेन कर्तव्यांशप्रकल्पना । । ८.२११ । ।

धर्मार्थं येन दत्तं स्यात्कस्मै चिद्याचते धनम् ।
पश्चाच्च न तथा तत्स्यान्न देयं तस्य तद्भवेत् । । ८.२१२ । ।

यदि संसाधयेत्तत्तु दर्पाल्लोभेन वा पुनः ।
राज्ञा दाप्यः सुवर्णं स्यात्तस्य स्तेयस्य निष्कृतिः । । ८.२१३ । ।

दत्तस्यैषोदिता धर्म्या यथावदनपक्रिया ।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वेतनस्यानपक्रियाम् । । ८.२१४ । ।

भृतो नार्तो न कुर्याद्यो दर्पात्कर्म यथोदितम् ।
स दण्ड्यः कृष्णलान्यष्टौ न देयं चास्य वेतनम् । । ८.२१५ । ।

आर्तस्तु कुर्यात्स्वस्थः सन्यथाभाषितं आदितः ।
स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लभेतैव वेतनम् । । ८.२१६ । ।

यथोक्तं आर्तः सुस्थो वा यस्तत्कर्म न कारयेत् ।
न तस्य वेतनं देयं अल्पोनस्यापि कर्मणः । । ८.२१७ । ।

एष धर्मोऽखिलेनोक्तो वेतनादानकर्मणः ।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धर्मं समयभेदिनाम् । । ८.२१८ । ।

यो ग्रामदेशसंघानां कृत्वा सत्येन संविदम् ।
विसंवदेन्नरो लोभात्तं राष्ट्राद्विप्रवासयेत् । । ८.२१९ । ।

निगृह्य दापयेच्चैनं समयव्यभिचारिणम् ।
चतुःसुवर्णान्षण्निष्कांश्छतमानं च राजकम् । । ८.२२० । ।

एतद्दण्डविधिं कुर्याद्धार्मिकः पृथिवीपतिः ।
ग्रामजातिसमूहेषु समयव्यभिचारिणाम् । । ८.२२१ । ।

क्रीत्वा विक्रीय वा किं चिद्यस्येहानुशयो भवेत् ।
सोऽन्तर्दशाहात्तद्द्रव्यं दद्याच्चैवाददीत वा । । ८.२२२ । ।

परेण तु दशाहस्य न दद्यान्नापि दापयेत् ।
आददानो ददत्चैव राज्ञा दण्ड्यौ शतानि षट् । । ८.२२३ । ।

यस्तु दोषवतीं कन्यां अनाख्याय प्रयच्छति ।
तस्य कुर्यान्नृपो दण्डं स्वयं षण्णवतिं पणान् । । ८.२२४ । ।

अकन्येति तु यः कन्यां ब्रूयाद्द्वेषेण मानवः ।
स शतं प्राप्नुयाद्दण्डं तस्या दोषं अदर्शयन् । । ८.२२५ । ।

पाणिग्रहणिका मन्त्राः कन्यास्वेव प्रतिष्ठिताः ।
नाकन्यासु क्व चिन्नॄणां लुप्तधर्मक्रिया हि ताः । । ८.२२६ । ।

पाणिग्रहणिका मन्त्रा नियतं दारलक्षणम् ।
तेषां निष्ठा तु विज्ञेया विद्वद्भिः सप्तमे पदे । । ८.२२७ । ।

यस्मिन्यस्मिन्कृते कार्ये यस्येहानुशयो भवेत् ।
तं अनेन विधानेन धर्म्ये पथि निवेशयेत् । । ८.२२८ । ।

पशुषु स्वामिनां चैव पालानां च व्यतिक्रमे ।
विवादं संप्रवक्ष्यामि यथावद्धर्मतत्त्वतः । । ८.२२९ । ।

दिवा वक्तव्यता पाले रात्रौ स्वामिनि तद्गृहे ।
योगक्षेमेऽन्यथा चेत्तु पालो वक्तव्यतां इयात् । । ८.२३० । ।

गोपः क्षीरभृतो यस्तु स दुह्याद्दशतो वराम् ।
गोस्वाम्यनुमते भृत्यः सा स्यात्पालेऽभृते भृतिः । । ८.२३१ । ।

नष्टं विनष्टं कृमिभिः श्वहतं विषमे मृतम् ।
हीनं पुरुषकारेण प्रदद्यात्पाल एव तु । । ८.२३२ । ।

विघुष्य तु हृतं चौरैर्न पालो दातुं अर्हति ।
यदि देशे च काले च स्वामिनः स्वस्य शंसति । । ८.२३३ । ।

कर्णौ चर्म च वालांश्च बस्तिं स्नायुं च रोचनाम् ।
पशुषु स्वामिनां दद्यान्मृतेष्वङ्कानि दर्शयेत् । । ८.२३४ । ।

अजाविके तु संरुद्धे वृकैः पाले त्वनायति ।
यां प्रसह्य वृको हन्यात्पाले तत्किल्बिषं भवेत् । । ८.२३५ । ।

तासां चेदवरुद्धानां चरन्तीनां मिथो वने ।
यां उत्प्लुत्य वृको हन्यान्न पालस्तत्र किल्बिषी । । ८.२३६ । ।

धनुःशतं परीहारो ग्रामस्य स्यात्समन्ततः ।
शम्यापातास्त्रयो वापि त्रिगुणो नगरस्य तु । । ८.२३७ । ।

तत्रापरिवृतं धान्यं विहिंस्युः पशवो यदि ।
न तत्र प्रणयेद्दण्डं नृपतिः पशुरक्षिणाम् । । ८.२३८ । ।

वृतिं तत्र प्रकुर्वीत यां उष्ट्रो न विलोकयेत् ।
छिद्रं च वारयेत्सर्वं श्वसूकरमुखानुगम् । । ८.२३९ । ।

पथि क्षेत्रे परिवृते ग्रामान्तीयेऽथ वा पुनः ।
सपालः शतदण्डार्हो विपालान्वारयेत्पशून् । । ८.२४० । ।

क्षेत्रेष्वन्येषु तु पशुः सपादं पणं अर्हति ।
सर्वत्र तु सदो देयः क्षेत्रिकस्येति धारणा । । ८.२४१ । ।

अनिर्दशाहां गां सूतां वृषान्देवपशूंस्तथा ।
सपालान्वा विपालान्वा न दण्ड्यान्मनुरब्रवीत् । । ८.२४२ । ।

क्षेत्रियस्यात्यये दण्डो भागाद्दशगुणो भवेत् ।
ततोऽर्धदण्डो भृत्यानां अज्ञानात्क्षेत्रिकस्य तु । । ८.२४३ । ।

एतद्विधानं आतिष्ठेद्धार्मिकः पृथिवीपतिः ।
स्वामिनां च पशूनां च पालानां च व्यतिक्रमे । । ८.२४४ । ।

सीमां प्रति समुत्पन्ने विवादे ग्रामयोर्द्वयोः ।
ज्येष्ठे मासि नयेत्सीमां सुप्रकाशेषु सेतुषु । । ८.२४५ । ।

सींआवृक्षांश्च कुर्वीत न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकान् ।
शाल्मलीन्सालतालांश्च क्षीरिणश्चैव पादपान् । । ८.२४६ । ।

गुल्मान्वेणूंश्च विविधान्शमीवल्लीस्थलानि च ।
शरान्कुब्जकगुल्मांश्च तथा सीमा न नश्यति । । ८.२४७ । ।

तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च । । ८.२४८अ[ं२५०] । ।
सीमासंधिषु कार्याणि देवतायतनानि च । । ८.२४८[ं२५०च्] । ।

उपछन्नानि चान्यानि सीमालिङ्गानि कारयेत् ।
सीमाज्ञाने नृणां वीक्ष्य नित्यं लोके विपर्ययम् । । ८.२४९ । ।

अश्मनोऽस्थीनि गोवालांस्तुषान्भस्म कपालिकाः 
करीषं इष्टकाङ्गारांश्शर्करा वालुकास्तथा । । ८.२५०[ं२४८] । ।

यानि चैवंप्रकाराणि कालाद्भूमिर्न भक्षयेत् ।
तानि संधिषु सीमायां अप्रकाशानि कारयेत् । । ८.२५१ । ।

एतैर्लिङ्गैर्नयेत्सीमां राजा विवदमानयोः ।
पूर्वभुक्त्या च सततं उदकस्यागमेन च । । ८.२५२ । ।

यदि संशय एव स्याल्लिङ्गानां अपि दर्शने ।
साक्षिप्रत्यय एव स्यात्सीमावादविनिर्णयः । । ८.२५३ । ।

ग्रामीयककुलानां च समक्षं सीम्नि साक्षिणः ।
प्रष्टव्याः सीमलिङ्गानि तयोश्चैव विवादिनोः । । ८.२५४ । ।

ते पृष्टास्तु यथा ब्रूयुः समस्ताः सीम्नि निश्चयम् ।
निबध्नीयात्तथा सीमां सर्वांस्तांश्चैव नामतः । । ८.२५५ । ।

शिरोभिस्ते गृहीत्वोर्वीं स्रग्विणो रक्तवाससः ।
सुकृतैः शापिथाः स्वैः स्वैर्नयेयुस्ते समञ्जसम् । । ८.२५६ । ।

यथोक्तेन नयन्तस्ते पूयन्ते सत्यसाक्षिणः ।
विपरीतं नयन्तस्तु दाप्याः स्युर्द्विशतं दमम् । । ८.२५७ । ।

साक्ष्यभावे तु चत्वारो ग्रामाः सामन्तवासिनः ।
सीमाविनिर्णयं कुर्युः प्रयता राजसंनिधौ । । ८.२५८ । ।

सामन्तानां अभावे तु मौलानां सीम्नि साक्षिणाम् 
इमानप्यनुयुञ्जीत पुरुषान्वनगोचरान् । । ८.२५९ । ।

व्याधाञ् शाकुनिकान्गोपान्कैवर्तान्मूलखानकान्
व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः। ८.२६० । ।

ते पृष्टास्तु यथा ब्रूयुः सीमासंधिषु लक्षणम् ।
तत्तथा स्थापयेद्राजा धर्मेण ग्रामयोर्द्वयोः । । ८.२६१ । ।

क्षेत्रकूपतडागानां आरामस्य गृहस्य च ।
सामन्तप्रत्ययो ज्ञेयः सीमासेतुविनिर्णयः । । ८.२६२ । ।

सामन्ताश्चेन्मृषा ब्रूयुः सेतौ विवादतां नृणाम् ।
सर्वे पृथक्पृथग्दण्ड्या राज्ञा मध्यमसाहसम् । । ८.२६३ । ।

गृहं तडागं आरामं क्षेत्रं वा भीषया हरन् ।
शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादज्ञानाद्द्विशतो दमः । । ८.२६४ । ।

सीमायां अविषह्यायां स्वयं राजैव धर्मवित् ।
प्रदिशेद्भूमिं एकेषां उपकारादिति स्थितिः । । ८.२६५ । ।

एषोऽखिलेनाभिहितो धर्मः सीमाविनिर्णये ।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि वाक्पारुष्यविनिर्णयम् । । ८.२६६ । ।

शतं ब्राह्मणं आक्रुश्य क्षत्रियो दण्डं अर्हति ।
वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शूद्रस्तु वधं अर्हति । । ८.२६७ । ।

पञ्चाशद्ब्राह्मणो दण्ड्यः क्षत्रियस्याभिशंसने ।
वैश्ये स्यादर्धपञ्चाशच्छूद्रे द्वादशको दमः । । ८.२६८ । ।

समवर्णे द्विजातीनां द्वादशैव व्यतिक्रमे ।
वादेष्ववचनीयेषु तदेव द्विगुणं भवेत् । । ८.२६९ । ।

एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन् ।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः । । ८.२७० । ।

नामजातिग्रहं त्वेषां अभिद्रोहेण कुर्वतः ।
निक्षेप्योऽयोमयः शङ्कुर्ज्वलन्नास्ये दशाङ्गुलः । । ८.२७१ । ।

धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणां अस्य कुर्वतः ।
तप्तं आसेचयेत्तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः । । ८.२७२ । ।

श्रुतं देशं च जातिं च कर्म शरीरं एव च ।
वितथेन ब्रुवन्दर्पाद्दाप्यः स्याद्द्विशतं दमम् । । ८.२७३ । ।

काणं वाप्यथ वा खञ्जं अन्यं वापि तथाविधम् ।
तथ्येनापि ब्रुवन्दाप्यो दण्डं कार्षापणावरम् । । ८.२७४ । ।

मातरं पितरं जायां भ्रातरं तनयं गुरुम् ।
आक्षारयञ् शतं दाप्यः पन्थानं चाददद्गुरोः । । ८.२७५ । ।

ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां तु दण्डः कार्यो विजानता ।
ब्राह्मणे साहसः पूर्वः क्षत्रिये त्वेव मध्यमः । । ८.२७६ । ।

विट्शूद्रयोरेवं एव स्वजातिं प्रति तत्त्वतः ।
छेदवर्जं प्रणयनं दण्डस्येति विनिश्चयः । । ८.२७७ । ।

एष दण्डविधिः प्रोक्तो वाक्पारुष्यस्य तत्त्वतः ।
अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि दण्डपारुष्यनिर्णयम् । । ८.२७८ । ।

येन केन चिदङ्गेन हिंस्याच्चेच्छ्रेष्ठं अन्त्यजः ।
छेत्तव्यं तद्तदेवास्य तन्मनोरनुशासनम् । । ८.२७९ । ।

पाणिं उद्यम्य दण्डं वा पाणिच्छेदनं अर्हति ।
पादेन प्रहरन्कोपात्पादच्छेदनं अर्हति । । ८.२८० । ।

सहासनं अभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वास्यावकर्तयेत् । । ८.२८१ । ।

अवनिष्ठीवतो दर्पाद्द्वावोष्ठौ छेदयेन्नृपः ।
अवमूत्रयतो मेढ्रं अवशर्धयतो गुदम् । । ८.२८२ । ।

केशेषु गृह्णतो हस्तौ छेदयेदविचारयन् ।
पादयोर्दाढिकायां च ग्रीवायां वृषणेषु च । । ८.२८३ । ।

त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः ।
मांसभेत्ता तु षण्निष्कान्प्रवास्यस्त्वस्थिभेदकः । । ८.२८४ । ।

वनस्पतीनां सर्वेषां उपभोगो यथा यथा ।
यथा तथा दमः कार्यो हिंसायां इति धारणा । । ८.२८५ । ।

मनुष्याणां पशूनां च दुःखाय प्रहृते सति ।
यथा यथा महद्दुःखं दण्डं कुर्यात्तथा तथा । । ८.२८६ । ।

अङ्गावपीडनायां च व्रणशोनितयोस्तथा ।
समुत्थानव्ययं दाप्यः सर्वदण्डं अथापि वा । । ८.२८७ । ।

द्रव्याणि हिंस्याद्यो यस्य ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा ।
स तस्योत्पादयेत्तुष्टिं राज्ञे दद्याच्च तत्समम् । । ८.२८८ । ।

चर्मचार्मिकभाण्डेषु काष्ठलोष्टमयेषु ।
मूल्यात्पञ्चगुणो दण्डः पुष्पमूलफलेषु च । । ८.२८९ । ।

यानस्य चैव यातुश्च यानस्वामिन एव च ।
दशातिवर्तनान्याहुः शेषे दण्डो विधीयते । । ८.२९० । ।

छिन्ननास्ये भग्नयुगे तिर्यक्प्रतिमुखागते ।
अक्षभङ्गे च यानस्य चक्रभङ्गे तथैव च । । ८.२९१ । ।

छेदने चैव यन्त्राणां योक्त्ररश्म्योस्तथैव च ।
आक्रन्दे चाप्यपैहीति न दण्डं मनुरब्रवीत् । । ८.२९२ । ।

यत्रापवर्तते युग्यं वैगुण्यात्प्राजकस्य तु ।
तत्र स्वामी भवेद्दण्ड्यो हिंसायां द्विशतं दमम् । । ८.२९३ । ।

प्राजकश्चेद्भवेदाप्तः प्राजको दण्डं अर्हति ।
युग्यस्थाः प्राजकेऽनाप्ते सर्वे दण्ड्याः शतं शतम् । । ८.२९४ । ।

स चेत्तु पथि संरुद्धः पशुभिर्वा रथेन वा ।
प्रमापयेत्प्राणभृतस्तत्र दण्डोऽविचारितः । । ८.२९५ । ।

मनुष्यमारणे क्षिप्रं चौरवत्किल्बिषं भवेत् ।
प्राणभृत्सु महत्स्वर्धं गोगजोष्ट्रहयादिषु । । ८.२९६ । ।

क्षुद्रकाणां पशूनां तु हिंसायां द्विशतो दमः ।
पञ्चाशत्तु भवेद्दण्डः शुभेषु मृगपक्षिषु । । ८.२९७ । ।

गर्धभाजाविकानां तु दण्डः स्यात्पञ्चमाषिकः ।
माषिकस्तु भवेद्दण्डः श्वसूकरनिपातने । । ८.२९८ । ।

भार्या पुत्रश्च दासश्च प्रेष्यो भ्रात्रा च सोदरः ।
प्राप्तापराधास्ताड्याः स्यू रज्ज्वा वेणुदलेन वा । । ८.२९९ । ।

पृष्ठतस्तु शरीरस्य नोत्तमाङ्गे कथं चन ।
अतोऽन्यथा तु प्रहरन्प्राप्तः स्याच्चौरकिल्बिषम् । । ८.३०० । ।

एषोऽखिलेनाभिहितो दण्डपारुष्यनिर्णयः ।
स्तेनस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं दण्डविनिर्णये । । ८.३०१ । ।

परमं यत्नं आतिष्ठेत्स्तेनानां निग्रहे नृपः ।
स्तेनानां निग्रहादस्य यशो राष्ट्रं च वर्धते । । ८.३०२ । ।

अभयस्य हि यो दाता स पूज्यः सततं नृपः ।
सत्त्रं हि वर्धते तस्य सदैवाभयदक्षिणम् । । ८.३०३ । ।

सर्वतो धर्मषड्भागो राज्ञो भवति रक्षतः ।
अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य ह्यरक्षतः । । ८.३०४ । ।

यदधीते यद्यजते यद्ददाति यदर्चति ।
तस्य षड्भागभाग्राजा सम्यग्भवति रक्षणात् । । ८.३०५ । ।

रक्षन्धर्मेण भूतानि राजा वध्यांश्च घातयन् ।
यजतेऽहरहर्यज्ञैः सहस्रशतदक्षिणैः । । ८.३०६ । ।

योऽरक्षन्बलिं आदत्ते करं शुल्कं च पार्थिवः ।
प्रतिभागं च दण्डं च स सद्यो नरकं व्रजेत् । । ८.३०७ । ।

अरक्षितारं राजानं बलिषड्भागहारिणम् ।
तं आहुः सर्वलोकस्य समग्रमलहारकम् । । ८.३०८ । ।

अनपेक्षितमर्यादं नास्तिकं विप्रलुंपकम् ।
अरक्षितारं अत्तारं नृपं विद्यादधोगतिम् । । ८.३०९ । ।

अधार्मिकं त्रिभिर्न्यायैर्निगृह्णीयात्प्रयत्नतः ।
निरोधनेन बन्धेन विविधेन वधेन च । । ८.३१० । ।

निग्रहेण हि पापानां साधूनां संग्रहेण च ।
द्विजातय इवेज्याभिः पूयन्ते सततं नृपाः । । ८.३११ । ।

क्षन्तव्यं प्रभुणा नित्यं क्षिपतां कार्यिणां नृणाम् ।
बालवृद्धातुराणां च कुर्वता हितं आत्मनः । । ८.३१२ । ।

यः क्षिप्तो मर्षयत्यार्तैस्तेन स्वर्गे महीयते ।
यस्त्वैश्वर्यान्न क्षमते नरकं तेन गच्छति । । ८.३१३ । ।

राजा स्तेनेन गन्तव्यो मुक्तकेशेन धावता ।
आचक्षाणेन तत्स्तेयं एवंकर्मास्मि शाधि माम् । । ८.३१४ । ।

स्कन्धेनादाय मुसलं लगुडं वापि खादिरम् ।
शक्तिं चोभयतस्तीक्ष्णां आयसं दण्डं एव वा । । ८.३१५ । ।

शासनाद्वा विमोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद्विमुच्यते ।
अशासित्वा तु तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् । । ८.३१६ । ।

अन्नादे भ्रूणहा मार्ष्टि पत्यौ भार्यापचारिणी ।
गुरौ शिष्यश्च याज्यश्च स्तेनो राजनि किल्बिषम् । । ८.३१७ । ।

राजभिः कृतदण्डास्तु कृत्वा पापानि मानवाः ।
निर्मलाः स्वर्गं आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा । । ८.३१८ । ।

यस्तु रज्जुं घटं कूपाद्धरेद्भिन्द्याच्च यः प्रपाम् ।
स दण्डं प्राप्नुयान्माषं तच्च तस्मिन्समाहरेत् । । ८.३१९ । ।

धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो हरतोऽभ्यधिकं वधः ।
शेषेऽप्येकादशगुणं दाप्यस्तस्य च तद्धनम् । । ८.३२० । ।

तथा धरिममेयानां शतादभ्यधिके वधः ।
सुवर्णरजतादीनां उत्तमानां च वाससाम् । । ८.३२१ । ।

पञ्चाशतस्त्वभ्यधिके हस्तच्छेदनं इष्यते ।
शेषे त्वेकादशगुणं मूल्याद्दण्डं प्रकल्पयेत् । । ८.३२२ । ।

पुरुषाणां कुलीनानां नारीणां च विशेषतः ।
मुख्यानां चैव रत्नानां हरणे वधं अर्हति । । ८.३२३ । ।

महापशूनां हरणे शस्त्राणां औषधस्य च ।
कालं आसाद्य कार्यं च दण्डं राजा प्रकल्पयेत् । । ८.३२४ । ।

गोषु ब्राह्मणसंस्थासु छुरिकायाश्च भेदने ।
पशूनां हरणे चैव सद्यः कार्योऽर्धपादिकः । । ८.३२५ । ।

सूत्रकार्पासकिण्वानां गोमयस्य गुडस्य च ।
दध्नः क्षीरस्य तक्रस्य पानीयस्य तृणस्य च । । ८.३२६ । ।

वेणुवैदलभाण्डानां लवणानां तथैव च ।
मृण्मयानां च हरणे मृदो भस्मन एव च । । ८.३२७ । ।

मत्स्यानां पक्षिणां चैव तैलस्य च घृतस्य च ।
मांसस्य मधुनश्चैव यच्चान्यत्पशुसंभवम् । । ८.३२८ । ।

अन्येषां चैवमादीनां मद्यानां ओदनस्य च ।
पक्वान्नानां च सर्वेषां तन्मुल्याद्द्विगुणो दमः । । ८.३२९ । ।

पुष्पेषु हरिते धान्ये गुल्मवल्लीनगेषु च ।
अन्येष्वपरिपूतेषु दण्डः स्यात्पञ्चकृष्णलः । । ८.३३० । ।

परिपूतेषु धान्येषु शाकमूलफलेषु च ।
निरन्वये शतं दण्डः सान्वयेऽर्धशतं दमः । । ८.३३१ । ।

स्यात्साहसं त्वन्वयवत्प्रसभं कर्म यत्कृतम् ।
निरन्वयं भवेत्स्तेयं हृत्वापव्ययते च यत् । । ८.३३२ । ।

यस्त्वेतान्युपक्ल्प्तानि द्रव्याणि स्तेनयेन्नरः ।
तं आद्यं दण्डयेद्राजा यश्चाग्निं चोरयेद्गृहात् । । ८.३३३ । ।

येन येन यथाङ्गेन स्तेनो नृषु विचेष्टते ।
तत्तदेव हरेत्तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः । । ८.३३४ । ।

पिताचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः ।
नादण्ड्यो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति । । ८.३३५ । ।

कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः ।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रं इति धारणा । । ८.३३६ । ।

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्बिषम् ।
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च । । ८.३३७ । ।

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वापि शतं भवेत् ।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिस्तद्दोषगुणविद्धि सः । । ८.३३८ । ।

वानस्पत्यं मूलफलं दार्वग्न्यर्थं तथैव च ।
तृणं च गोभ्यो ग्रासार्थं अस्तेयं मनुरब्रवीत् । । ८.३३९ । ।

योऽदत्तादायिनो हस्ताल्लिप्सेत ब्राह्मणो धनम् ।
याजनाध्यापनेनापि यथा स्तेनस्तथैव सः । । ८.३४० । ।

द्विजोऽध्वगः क्षीणवृत्तिर्द्वाविक्षू द्वे च मूलके ।
आददानः परक्षेत्रान्न दण्डं दातुं अर्हति । । ८.३४१ । ।

असंदितानां संदाता संदितानां च मोक्षकः ।
दासाश्वरथहर्ता च प्राप्तः स्याच्चोरकिल्बिषम् । । ८.३४२ । ।

अनेन विधिना राजा कुर्वाणः स्तेननिग्रहम् ।
यशोऽस्मिन्प्राप्नुयाल्लोके प्रेत्य चानुत्तमं सुखम् । । ८.३४३ । ।

ऐन्द्रं स्थानं अभिप्रेप्सुर्यशश्चाक्षयं अव्ययम् ।
नोपेक्षेत क्षणं अपि राजा साहसिकं नरम् । । ८.३४४ । ।

वाग्दुष्टात्तस्कराच्चैव दण्डेनैव च हिंसतः ।
साहसस्य नरः कर्ता विज्ञेयः पापकृत्तमः । । ८.३४५ । ।

साहसे वर्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः ।
स विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति । । ८.३४६ । ।

न मित्रकारणाद्राजा विपुलाद्वा धनागमात् ।
समुत्सृजेत्साहसिकान्सर्वभूतभयावहान् । । ८.३४७ । ।

शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते ।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते । । ८.३४८ । ।

आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे ।
स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन्धर्मेण न दुष्यति । । ८.३४९ । ।

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनं आयान्तं हन्यादेवाविचारयन् । । ८.३५० । ।

नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ।
प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युं ऋच्छति । । ८.३५१ । ।

परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान्नॄन्महीपतिः ।
उद्वेजनकरैर्दण्डैश्छिन्नयित्वा प्रवासयेत् । । ८.३५२ । ।

तत्समुत्थो हि लोकस्य जायते वर्णसंकरः ।
येन मूलहरोऽधर्मः सर्वनाशाय कल्पते । । ८.३५३ । ।

परस्य पत्न्या पुरुषः संभाषां योजयन्रहः ।
पूर्वं आक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम् । । ८.३५४ । ।

यस्त्वनाक्षारितः पूर्वं अभिभाषते कारणात् ।
न दोषं प्राप्नुयात्किं चिन्न हि तस्य व्यतिक्रमः । । ८.३५५ । ।

परस्त्रियं योऽभिवदेत्तीर्थेऽरण्ये वनेऽपि वा ।
नदीनां वापि संभेदे स संग्रहणं आप्नुयात् । । ८.३५६ । ।

उपचारक्रिया केलिः स्पर्शो भूषणवाससाम् ।
सह खट्वासनं चैव सर्वं संग्रहणं स्मृतम् । । ८.३५७ । ।

स्त्रियं स्पृशेददेशे यः स्पृष्टो वा मर्षयेत्तया ।
परस्परस्यानुमते सर्वं संग्रहणं स्मृतम् । । ८.३५८ । ।

अब्राह्मणः संग्रहणे प्राणान्तं दण्डं अर्हति ।
चतुर्णां अपि वर्णानां दारा रक्ष्यतमाः सदा । । ८.३५९ । ।

भिक्षुका बन्दिनश्चैव दीक्षिताः कारवस्तथा ।
संभाषनं सह स्त्रीभिः कुर्युरप्रतिवारिताः । । ८.३६० । ।

न संभाषां परस्त्रीभिः प्रतिषिद्धः समाचरेत् ।
निषिद्धो भाषमाणस्तु सुवर्णं दण्डं अर्हति । । ८.३६१ । ।

नैष चारणदारेषु विधिर्नात्मोपजीविषु ।
सज्जयन्ति हि ते नारीर्निगूढाश्चारयन्ति च । । ८.३६२ । ।

किं चिदेव तु दाप्यः स्यात्संभाषां ताभिराचरन् ।
प्रैष्यासु चैकभक्तासु रहः प्रव्रजितासु च । । ८.३६३ । ।

योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधं अर्हति ।
सकामां दूषयंस्तुल्यो न वधं प्राप्नुयान्नरः । । ८.३६४ । ।

कन्यां भजन्तीं उत्कृष्टं न किं चिदपि दापयेत् ।
जघन्यं सेवमानां तु संयतां वासयेद्गृहे । । ८.३६५ । ।

उत्तमां सेवमानस्तु जघन्यो वधं अर्हति ।
शुल्कं दद्यात्सेवमानः समां इच्छेत्पिता यदि । । ८.३६६ । ।

अभिषह्य तु यः कन्यां कुर्याद्दर्पेण मानवः ।
तस्याशु कर्त्ये अङ्गुल्यौ दण्डं चार्हति षट्शतम् । । ८.३६७ । ।

सकामां दूषयंस्तुल्यो नाङ्गुलिच्छेदं आप्नुयात् ।
द्विशतं तु दमं दाप्यः प्रसङ्गविनिवृत्तये । । ८.३६८ । ।

कन्यैव कन्यां या कुर्यात्तस्याः स्याद्द्विशतो दमः ।
शुल्कं च द्विगुणं दद्याच्छिफाश्चैवाप्नुयाद्दश । । ८.३६९ । ।

या तु कन्यां प्रकुर्यात्स्त्री सा सद्यो मौण्ड्यं अर्हति ।
अङ्गुल्योरेव वा छेदं खरेणोद्वहनं तथा । । ८.३७० । ।

भर्तारं लङ्घयेद्या तु स्त्री ज्ञातिगुणदर्पिता ।
तां श्वभिः खादयेद्राजा संस्थाने बहुसंस्थिते । । ८.३७१ । ।

पुमांसं दाहयेत्पापं शयने तप्त आयसे ।
अभ्यादध्युश्च काष्ठानि तत्र दह्येत पापकृत् । । ८.३७२ । ।

संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो दमः ।
व्रात्यया सह संवासे चाण्डाल्या तावदेव तु । । ८.३७३ । ।

शूद्रो गुप्तं अगुप्तं वा द्वैजातं वर्णं आवसन् ।
अगुप्तं अङ्गसर्वस्वैर्गुप्तं सर्वेण हीयते । । ८.३७४ । ।

वैश्यः सर्वस्वदण्डः स्यात्संवत्सरनिरोधतः ।
सहस्रं क्षत्रियो दण्ड्यो मौण्ड्यं मूत्रेण चार्हति । । ८.३७५ । ।

ब्राह्मणीं यद्यगुप्तां तु गच्छेतां वैश्यपार्थिवौ ।
वैश्यं पञ्चशतं कुर्यात्क्षत्रियं तु सहस्रिणम् । । ८.३७६ । ।

उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह ।
विप्लुतौ शूद्रवद्दण्ड्यौ दग्धव्यौ वा कटाग्निना । । ८.३७७ । ।

सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्यो गुप्तां विप्रां बलाद्व्रजन् ।
शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह संगतः । । ८.३७८ । ।

मौण्ड्यं प्राणान्तिकं दण्डो ब्राह्मणस्य विधीयते ।
इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत् । । ८.३७९ । ।

न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम् ।
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनं अक्षतम् । । ८.३८० । ।

न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मो विद्यते भुवि ।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत् । । ८.३८१ । ।

वैश्यश्चेत्क्षत्रियां गुप्तां वैश्यां वा क्षत्रियो व्रजेत् ।
यो ब्राह्मण्यां अगुप्तायां तावुभौ दण्डं अर्हतः । । ८.३८२ । ।

सहस्रं ब्राह्मणो दण्डं दाप्यो गुप्ते तु ते व्रजन् ।
शूद्रायां क्षत्रियविशोः साहस्रो वै भवेद्दमः । । ८.३८३ । ।

क्षत्रियायां अगुप्तायां वैश्ये पञ्चशतं दमः ।
मूत्रेण मौण्ड्यं इच्छेत्तु क्षत्रियो दण्डं एव वा । । ८.३८४ । ।

अगुप्ते क्षत्रियावैश्ये शूद्रां वा ब्राह्मणो व्रजन् ।
शतानि पञ्च दण्ड्यः स्यात्सहस्रं त्वन्त्यजस्त्रियम् । । ८.३८५ । ।

यस्य स्तेनः पुरे नास्ति नान्यस्त्रीगो न दुष्टवाक् ।
न साहसिकदण्डघ्नो स राजा शक्रलोकभाक् । । ८.३८६ । ।

एतेषां निग्रहो राज्ञः पञ्चानां विषये स्वके ।
सांराज्यकृत्सजात्येषु लोके चैव यशस्करः । । ८.३८७ । ।

ऋत्विजं यस्त्यजेद्याज्यो याज्यं च र्त्विक्त्यजेद्यदि ।
शक्तं कर्मण्यदुष्टं च तयोर्दण्डः शतं शतम् । । ८.३८८ । ।

न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागं अर्हति ।
त्यजन्नपतितानेतान्राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट् । । ८.३८९ । ।

आश्रमेषु द्विजातीनां कार्ये विवदतां मिथः ।
न विब्रूयान्नृपो धर्मं चिकीर्षन्हितं आत्मनः । । ८.३९० । ।

यथार्हं एतानभ्यर्च्य ब्राह्मणैः सह पार्थिवः ।
सान्त्वेन प्रशमय्यादौ स्वधर्मं प्रतिपादयेत् । । ८.३९१ । ।

प्रतिवेश्यानुवेश्यौ च कल्याणे विंशतिद्विजे ।
अर्हावभोजयन्विप्रो दण्डं अर्हति माषकम् । । ८.३९२ । ।

श्रोत्रियः श्रोत्रियं साधुं भूतिकृत्येष्वभोजयन् ।
तदन्नं द्विगुणं दाप्यो हिरण्यं चैव माषकम् । । ८.३९३ । ।

अन्धो जडः पीठसर्पी सप्तत्या स्थविरश्च यः ।
श्रोत्रियेषूपकुर्वंश्च न दाप्याः केन चित्करम् । । ८.३९४ । ।

श्रोत्रियं व्याधितार्तौ च बालवृद्धावकिंचनम् ।
महाकुलीनं आर्यं च राजा संपूजयेत्सदा । । ८.३९५ । ।

शाल्मलीफलके श्लक्ष्णे नेनिज्यान्नेजकः शनैः ।
न च वासांसि वासोभिर्निर्हरेन्न च वासयेत् । । ८.३९६ । ।

तन्तुवायो दशपलं दद्यादेकपलाधिकम् ।
अतोऽन्यथा वर्तमानो दाप्यो द्वादशकं दमम् । । ८.३९७ । ।

शुल्कस्थानेषु कुशलाः सर्वपण्यविचक्षणाः ।
कुर्युरर्घं यथापण्यं ततो विंशं नृपो हरेत् । । ८.३९८ । ।

राज्ञः प्रख्यातभाण्डानि प्रतिषिद्धानि यानि च ।
ताणि निर्हरतो लोभात्सर्वहारं हरेन्नृपः । । ८.३९९ । ।

शुल्कस्थानं परिहरन्नकाले क्रयविक्रयी ।
मिथ्यावादी च संख्याने दाप्योऽष्टगुणं अत्ययम् । । ८.४०० । ।

आगमं निर्गमं स्थानं तथा वृद्धिक्षयावुभौ ।
विचार्य सर्वपण्यानां कारयेत्क्रयविक्रयौ । । ८.४०१ । ।

पञ्चरात्रे पञ्चरात्रे पक्षे पक्षेऽथ वा गते ।
कुर्वीत चैषां प्रत्यक्षं अर्घसंस्थापनं नृपः । । ८.४०२ । ।

तुलामानं प्रतीमानं सर्वं च स्यात्सुलक्षितम् ।
षट्सु षट्सु च मासेषु पुनरेव परीक्षयेत् । । ८.४०३ । ।

पणं यानं तरे दाप्यं पौरुषोऽर्धपणं तरे ।
पादं पशुश्च योषिच्च पादार्धं रिक्तकः पुमान् । । ८.४०४ । ।

भाण्डपूर्णानि यानानि तार्यं दाप्यानि सारतः ।
रिक्तभाण्डानि यत्किं चित्पुमांसश्चापरिच्छदाः । । ८.४०५ । ।

दीर्घाध्वनि यथादेशं यथाकालं तरो भवेत् ।
नदीतीरेषु तद्विद्यात्समुद्रे नास्ति लक्षणम् । । ८.४०६ । ।

गर्भिणी तु द्विमासादिस्तथा प्रव्रजितो मुनिः ।
ब्राह्मणा लिङ्गिनश्चैव न दाप्यास्तारिकं तरे । । ८.४०७ । ।

यन्नावि किं चिद्दाशानां विशीर्येतापराधतः ।
तद्दाशैरेव दातव्यं समागम्य स्वतोऽंशतः । । ८.४०८ । ।

एष नौयायिनां उक्तो व्यवहारस्य निर्णयः ।
दाशापराधतस्तोये दैविके नास्ति निग्रहः । । ८.४०९ । ।

वाणिज्यं कारयेद्वैश्यं कुसीदं कृषिं एव च ।
पशूनां रक्षणं चैव दास्यं शूद्रं द्विजन्मनाम् । । ८.४१० । ।

क्षत्रियं चैव वैश्यं च ब्राह्मणो वृत्तिकर्शितौ ।
बिभृयादानृशंस्येन स्वानि कर्माणि कारयेत् । । ८.४११ । ।

दास्यं तु कारयंल्लोभाद्ब्राह्मणः संस्कृतान्द्विजान् 
अनिच्छतः प्राभवत्याद्राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट् । । ८.४१२ । ।

शूद्रं तु कारयेद्दास्यं क्रीतं अक्रीतं एव वा ।
दास्यायैव हि सृष्टोऽसौ ब्राह्मणस्य स्वयंभुवा । । ८.४१३ । ।

न स्वामिना निसृष्टोऽपि शूद्रो दास्याद्विमुच्यते ।
निसर्गजं हि तत्तस्य कस्तस्मात्तदपोहति । । ८.४१४ । ।

ध्वजाहृतो भक्तदासो गृहजः क्रीतदत्त्रिमौ ।
पैत्रिको दण्डदासश्च सप्तैते दासयोनयः । । ८.४१५ । ।

भार्या पुत्रश्च दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः ।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् । । ८.४१६ । ।

विस्रब्धं ब्राह्मणः शूद्राद्द्रव्योपादानं आचरेत् ।
न हि तस्यास्ति किं चित्स्वं भर्तृहार्यधनो हि सः । । ८.४१७ । ।

वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत् ।
तौ हि च्युतौ स्वकर्मभ्यः क्षोभयेतां इदं जगत् । । ८.४१८ । ।

अहन्यहन्यवेक्षेत कर्मान्तान्वाहनानि च ।
आयव्ययौ च नियतावाकरान्कोशं एव च । । ८.४१९ । ।

एवं सर्वानिमान्राजा व्यवहारान्समापयन् ।
व्यपोह्य किल्बिषं सर्वं प्राप्नोति परमां गतिम् । । ८.४२० । ।

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मनुस्मृति के दंड विधान पर एक दृष्टि डालिए तो निश्चित ही सभी विधान असामाजिक व अमानवीय ही हैं कुछ उदाहरण निम्न सन्दर्भों में वर्णित हैं।
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कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो त्रान्यः प्रकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा।।
(मनुस्मृति-, 8/335)
भावार्थ - साधारण प्रजा को जिस अपराध के लिए एक पैसा दंड दिया जाता है, उसी अपराध में लिप्त होने पर राजा पर हजार पैसा दंड लगाया जाना चाहिए।
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अष्टापद्यं तु शुद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
षौडशैस्तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च।।
(मनुस्मृति 8-236)
भावार्थ- यदि चोरी शुद्र, वैश्य या क्षत्रिय करता है तो उन्हें पाप का क्रमशः आठ, सोलह और बत्तीस गुना भागीदार बनना पड़ता है।
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ब्राह्मणस्य चतुःषष्टि पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा च चतुःषष्टिस्तद्दोषगुण विद्धि सः।

(मनुस्मृति, 8-337)
भावार्थ - इसी प्रकार चूंकि ब्राह्मण को चोरी के गुण-दोष का सर्वाधिक ज्ञान होता है, अतः वह चोरी करता है तो उसे पाप का चौंसठ गुना भागीदार बनना पड़ता है।

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उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह।
विलुप्तौ शुद्रवद्दण्ड्यौ दग्ध्व्यौ वा कटाग्निना।।
(मनुस्मृति, 8-376)
भावार्थ - यदि रक्षिण ब्राह्मणी से वैश्य या क्षत्रिय शारीरिक संबंध स्थापित करे तो उन्हें शुद्र के समान दंड देते हुए आग में जलाकर मार देना चाहिए।

सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्योगुप्तां विप्रां बलाद् व्रजन्।
शतानि पत्र्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह सड्.गतः।।

(मनुस्मृति, 8-377)
भावार्थ - रक्षित ब्राह्मणी से यदि ब्राह्मण बलात मैथुन करता है तो उस पर दो हजार पैसा दंड लगाना चाहिए। यदि ब्राह्मणी की सहमति से ऐसा करता है तो उसे पांच सौ पैसा दंड देना चाहिए।
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मौण्ड्यं प्राणान्तिकोदण्डोब्राह्मणस्य विधीन्यते।
इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत्।।

(मनुस्मृति 8-378)
भावार्थ - ब्राह्मण के सिर मुंडवाने का अर्थ ही उसको मृत्युदंड देना है, जबकि अन्य वर्णवालों को मृत्युदंड मिलने पर उनका सचमुच वध किया जाना चाहिए।
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न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम्।
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्षतम्।।

(मनुस्मृति, 8-379)
भावार्थ- भले ही ब्राह्मण ने अनेक महापाप किए हों, किंतु उसका वध करना निषिद्ध है। उसे देश निकाले की सजा दी जा सकती है, ऐसी स्थिति में उसका धन उसे दे देना उचित है।

न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मा विद्यते भुवि।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत्।।

(मनुस्मति, 8-380)
भावार्थ- ब्राह्मण के वध से बढ़कर और कोई पाप नहीं। ब्राह्मण का वध करने की तो राजा को कल्पना भी नहीं करना चाहिए।
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शतं ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति।
वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शुद्रस्तुवधमर्हति।।

(मनुस्मृति, 8-266)
भावार्थ- ब्राह्मण को यदि क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र द्वारा अपशब्द या कठोर वचन कहा जाए तो उन्हें क्रमशः सौ पैसा, डेड़ सौ पैसा तथा वध का दंड देना चाहिए।

पत्र्चाशद् ब्राह्मणो दण्डः क्षत्रियस्याभिशंसने।
वैश्ये स्यादर्धपत्र्चाशच्छूद्रे द्वादशको दम्ः।।

(मनुस्मृति, 8-267)
भावार्थ- यदि ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र को अपशब्द कहा जाए तो उसे क्रमशः पचास, पच्चीस और बारह पैसा आर्थिक दंड देना चाहिए।

एकाजातिद्र्विजातीस्तु वाचा दारूण या क्षिपन्।
जिह्नयाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः।।

(मनुस्मृति, 8-269)
भावार्थ - शुद्र द्वारा द्विजातियों को अपशब्द कहा जाए तो उसकी जिह्ना काट लेनी चाहिए, ऐसे अधम के लिए यही दंड उचित है।
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नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयोमयः ‘ांकुज्र्वलन्नास्ये दशांगुलः ।।

(मनुस्मृति, 8-270)
भावार्थ - यदि शुद्र प्रभाव के अहंकार में द्विजातियों के नाम व जाति का उपहास करता है तो आग में तप्त दस उंगली शलाका (लोहे की छड़) उसके मुंह में डाल देनी चाहिए।

धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणामस्य कुर्वतः।
तप्तमासेचयेत्तैलं वक्तृ श्रोत्रे च पार्थिवः ।।

(मनुस्मृति, 8-271)
भावार्थ- यादि शुद्र दर्प में आकर द्विजातियों को धर्मोपदेश देने की धृष्टता करे तो राजा उसके मुंह व कान में खौलता तेल डलवा दे मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों में दंड विधान को बदल दिया गया है।

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇
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इसी करणी कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ "जातिभास्कर" में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया  ब्रह्मवैवर्तपुराणम् का सन्दर्भ देकर -

ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ प्रथम -(ब्रह्मखण्डः) अध्यायः१० 
श्लोक संख्या (१११)
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10/111
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है 👇

( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
 लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है।

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ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

( ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रथम  ब्रह्मखण्डः)
अध्यायः१० श्लोक संख्या १११
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः। 
1/10/111

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष के द्वारा करण कन्या में उत्पन्न होना  बताई है ।"
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
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तज्जातिश्चव्रात्यात् क्षत्रियात् सवर्णायामुत्पन्नः जाति- भेदः “झल्लोमल्लश्च राजन्यात् व्रात्यान्निच्छिविरेव च । 
नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड़ एव च” मनुः । करणरूपवर्णसङ्क- रस्यैव कायस्थनामता तस्या कर्भविशेषपरिपाकेण तज्जा- तिप्राप्तिस्तस्य वृत्तिभेदश्च ब्रह्मवै० पु० जन्मखण्डे ८५ उक्ते यथा  “तैलचौरस्तैलकीटो मूर्द्ध्निकीटस्त्रिजन्मकम् । ततो भवेत् स्वर्णकारो जन्मैकं दुष्टमानसः । तमःकु- ण्डे वर्षशतं स्थित्वा स्वर्णबणिग् भवेत् । जन्मैकञ्च दुसाचारो जन्मैकं करणो भवेत् । विश्वैकलिपिकर्त्ता च भक्ष्यदातुर्धनं हरेत् । कायस्थेनोदरस्थेन मातुर्मांस म नखादितम् । मत्र नास्ति कृपा तस्यदन्ताभावेक केवलम् । स्वर्णकारः स्वर्ण्णबणिक् कायस्थश्च व्रजेश्वरः! । मरेषु मध्ये ते धूर्त्ताः कृपाहीना महीतले । हृदयं क्षु- रधाराभं तेषाञ्च नास्ति सादरम् । शतेषु सज्जनः कोऽपि कायस्थो नेतरौ च तौ । सुबुद्धिः शिवभक्तश्च शास्त्रज्ञो धर्ममानसः” । 
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और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं । 
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
विदित हो कि शास्त्रों में क्षत्रिय एक वर्ण है जबकि राजपूत्र( राजपूत ) वर्णसंकर जाति इसी बात कि पुष्टि स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड में अध्याय २६ में से होती है जिसमें वर्णित है ।

"शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।47।

"तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद:।।48।
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कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है। 
जो क्रूरकर्मा और शस्त्र -वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं । ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं। यह आश्चर्य ही है कि गुण और प्रवृत्ति युद्ध की होने पर भी रूढ़िवादी पुरोहित समाज ने इन्हें क्षत्रिय प्रमाण पत्र शास्त्रीय आधार पर नहीं दिया है ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने "जातिभास्कर ग्रन्थ" में पृष्ठ संख्या -(१९७) पर राजपूतों की उत्पत्ति का ऐसा ही वर्णन किया है ।
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःपद्धति )
अब यहाँ वैश्य पुरुष से अम्बष्ठ कन्या में राजपूत की उत्पत्ति दर्शायी अर्थात पाराशर पद्धति के अनुसार-
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।
जबकि स्कन्द पुराण सह्याद्री खण्ड में क्षत्रिय से शूद्र कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है दर्शाया है ।
और ब्रह्मवैवर्त पुराण में क्षत्रिय के द्वारा करणी कन्या में राजपूत की उत्पत्ति दर्शायी है ।

भले ही इन शास्त्रों में राजपूतों की उत्पत्ति अनके मतान्तरणों में दर्शायी हो फिर राजपूत शुद्ध क्षत्रिय नहीं थे ।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
क्षत्रिय पुरुष और चारण कन्या से इनकी उत्पत्ति के अधिक प्रमाण हैं । चारण भले ही वर्णसंकर हों परन्तु चारणों का वृषलत्व( शूद्र तत् )कम ही है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना रहा  है ।

चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं;  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी भी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं । करणी ही उनकी कुल देवी बन गयी 
आज करणी चारणों की कुल देवी है ।
जिसके नाम से इन्होंने अपने को राजपूत के रूप में संगठित किया है ।
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सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, "मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है कि जब राजा, अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे।
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सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...

(१-) "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009
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[२] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.

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विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा तथा अम्बष्ठा
तीन  कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि तीन स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है जो सिद्ध करता है कि राजपूत क्षत्रिय या शुद्ध प्रतिमान है ।

कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गया 
जिसमें कुछ चारण' भाट तथा विदेशी जातियों का समावेश हो हुआ।
और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है।
इसी तरह चमार जो एक चर्म वत्ति से सम्बन्धित व्यवसाय परक विशेषण है । उनको भी जातीय रूप में राजपूतों से कहीं उच्चतम स्तर पर शास्त्रों में वर्णित किया तो कहीं उनसे निम्न स्तर पर इसी प्रकार गोप जो वस्तुत अहीरो अथवा यादव का गो पालन वृत्ति का विशेषण है  उसको भी असंगत रूप से वर्णसंकर रूप में वर्णन किया है 
औशनसीस्मृति से चारों की उत्पत्ति से सम्बद्ध कुछ सन्दर्भ हैं ।

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नृपाद्ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।२।। जात: सूतोऽत्र निर्दिष्ट: प्रतिलोमविधिर्द्विज: वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:।।३।

"नृप(क्षत्रिय) द्वारा ब्राह्मण की कन्या में विवाह सम्बन्ध होने पर जो पुत्र उत्पन्न होता है। वह सूत है ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण द्विज हैं ।ब्राह्मण शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य वर्ण के पुरुष जिनको शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है । 

मनु स्मृति के अनुसार यज्ञोपवीत मनुष्य का दूसरा जन्म माना गया है।
 अत: सूत तो शास्त्रीय आधार पर क्षत्रिय ही है वह भी सात्विक क्षत्रिय क्योंकि जिसकी ब्राह्मणी माता है।
 ययाति की पत्नी देवयानी भी ब्राह्मणी थी परन्तु उनकी सन्ताने तो वर्णसंकर अथवा प्रतिलोम नहीं थी केवल ययाति के शाप के कारण ही उन्हें तत्कालीन पुरोहितों ने हीन रूप में वर्णन किया अन्यथा वे क्षत्रिय ही थे ।
सूत में ब्राह्मण भाव के कारण शास्त्रो का वक्ता का गुण विद्यमान हुआ और क्षत्रिय भाव के कारण योद्धा का मार्गदर्शक अथवा उसके रथ को हाँ करने वाला होने का गुण विद्यमान हुआ अत: सूत श्रेष्ठ  अथवा सात्विक क्षत्रिय है जो रजोगुणी क्षत्रिय से श्रेष्ठ है; ।
क्योंकि क्षत्रिय वर्ण के माता-पिता की सन्तान राजसिक क्षत्रिय होती है और सतोगुण रजोगुण की अपेक्षा उच्च है ।
 और सूत के द्वारा क्षत्रिय की कन्या में उत्पन्न संतान चर्म्मकार(चमार)है ।  
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अत: चमार क्षत्रिय ही हैं प्रवृति और वृत्ति और वंश तीनों आधारों पर सिद्ध है।
यह ब्राह्मण शास्त्रों से प्रमाणित ही है नीचे शुक्राचार्य अथवा उशना की औशनसीस्मृति से सन्दर्भ हैं । 

अत: राजपूत चारों को गाली न दें !
 ब्रह्म वैवर्त पुराण में निम्न सन्दर्भों में वर्णसंकर जातियों का उल्लेख है ।
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       मत्स्यपुराणम्
   मत्स्यपुराण  अध्याय (२२७) 


       राजधर्मवर्णने दण्डविधानवर्णनम्।

                   ।मत्स्य उवाच।
निक्षेप्यस्य समं मूल्यं दण्ड्ये निक्षेपभुक् तथा।
वस्रादिकसमस्तस्य तदा धर्मो न हीयते।२२७.१ ।।

यो निक्षेपं नार्पयति यश्चानिक्षेप्य याचते।
तावुभौ चोरवच्छास्यौ दाप्यौ वा द्विगुणन्धनम् ।। २२७.२ ।।

उपधाभिश्च यः कश्चित्परद्रव्यं हरेन्नरः।
स सहायः स हन्तव्यः प्रकामं विविधैर्वधैः ।। २२७.३ ।।

यो याचितं समादाय न तद्दद्याद्यथाक्रमम्।
न निगृह्य बलाद्दाप्यो दण्ड्यो वा पूर्वसाहसम् ।। २२७.४ ।।

अज्ञानाद्यदि वा कुर्यात्परद्रव्यस्य विक्रयम्।
निर्दोषो ज्ञानपूर्वन्तु चोरवद्वधमर्हति ।२२७.५ ।।

मूल्यमादाय यो विद्यां शिल्पं वा न प्रयच्छति।
दण्ड्यः समूल्यं सकलं धर्मज्ञेन महीक्षिता । २२७.६ ।।

द्विजभोज्ये तु सम्प्राप्ते प्रतिवेश्ममभोजयन्।
हिरण्यमाषकं दड्यः पापे नास्ति व्यतिक्रमः। २२७.७ ।।

आमन्त्रितो द्विजो यस्तु वर्तमानश्च स्वे गृहे।
निष्कारणं न गच्छेद्यः स दाप्योऽष्टशतं दमम् ।। २२७.८ ।।

प्रतिश्रुत्या प्रदातारं सुवर्णं दण्डयेन्नृपः।
भृत्यश्चाज्ञां न कुर्याद्यो दर्पात्कर्म यथोदितम् । २२७.९ ।।

स दण्ड्यः कृष्मलान्यष्टौ न देयञ्चास्य वेतनम्।
संगृहीतं न दद्याद्यः काले वेतनमेव च २२७.१० ।।

अकाले तु त्यजेत् भृत्यं दण्ड्यः स्याच्छतमेव च।
यो ग्रामदेशसस्यानां कृत्वा सत्येन सम्विदम् ।। २२७.११ ।।

विसम्वदेन्नरो लोभात् तं राष्ट्राद्विप्र वासयेत्।
क्रीत्वा विक्रयवान् किञ्चित् यस्येहानुशयो भवेत् ।२२७.१२ ।

सोऽन्तर्दशाहात्तत्साम्यन्दद्याच्चैवाददीत वा।
परेण तु दशाहस्य न दद्यान्नैव दापयेत्।२२७.१३।

आददन्विददंश्चैव राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्।
यस्तु दोषवतीं कन्यामनाख्याय प्रयच्छति ।। २२७.१४ ।।

तस्य कुर्यान्नृपो दण्डं स्वयं षण्णवतिं पणान्।
अकन्यैवेति यः कन्यां ब्रूयाद्दोषेणमानवः ।। २२७.१५ ।।

स शतं प्राप्नुयाद्दण्डं तस्या दोषमदर्शयन्।
यस्त्वन्यां दर्शयित्वान्यां वोढुः कन्यां प्रयच्छति ।। २२७.१६ ।।

उत्तमन्तस्य कुर्वीत राजा दण्डं तु साहसम्।
वरो दोषाननाख्याय यः कन्या वरयेदिह ।। २२७.१७ ।।

दत्ताप्यदत्ता सा तस्य राज्ञा दड्यः शतद्वयम्।
प्रदाय कन्यां योऽन्यस्मै पुनस्तांसां प्रयच्छति ।। २२७.१८ ।।

दण्डः कार्यो नरेन्द्रेण तस्याप्युत्तम साहसः।
तत्प्रकारेण वा वाचा युक्तं पण्यमसंशयम् ।। २२७.१९ ।।

लुब्धोह्यन्यत्र विक्रेता षट्शतं दण्डमर्हति।
दुहितुः शुक्लविक्रेता सत्यं कारात्तु सन्त्यजेत् ।। २२७.२० ।।

द्विगुणं दण्डयेदेनमिति धर्मो व्यवस्थितः।
मूल्यैकदेशं दत्वा तु यदि क्रेता धनन्त्यजेत् । २२७.२१ ।

स दण्ड्यो मध्यमं दण्डं तस्य पण्यस्य मोक्षणम्।
दुह्याद्धेनुञ्च यः पालो गृहीत्वा भक्तवेतनम् । २२७.२२ ।।

स तु दण्ड्यः शतं राज्ञा सुवर्णञ्चाप्यरक्षिता।
दण्डं दत्वा तु विरमेत् स्वामितः कृतलक्षणः ।। २२७.२३ ।।

बद्धः कार्ष्णायसैः पाशैस्तस्य कर्मकरो भवेत्।
धनुः शतपरीणाहो ग्रामस्य तु समन्ततः ।। २२७.२४ ।।

द्विगुणं त्रिगुणं वापि नगरस्य तु कल्पयेत्।
वृत्तिं तत्र प्रकुर्वीत यामुष्ट्रो नावलोकयेत् ।। २२७.२५ ।।

छिद्रं वा वारयेत्सर्वं श्वसूकरमुखानुगम्।
यत्रापरिकृतं धान्यं विहिंस्तुः पशवो यदि ।। २२७.२६ ।।

न तत्र कारयेद्दण्डं नृपतिः पशुरक्षिणे।
अनिर्दशाहाद्गां सूतां वृषं देवपशुं तथा।२२७.२७ ।।

छिद्रं वा वारयेत्सर्वं न दण्ड्या मनुरब्रवीत्।
अतोऽन्यथा विनष्टस्य दशांशं दण्डमर्हति ।। २२७.२८ ।।

पाल्यस्य पालक स्वामी विनाशे क्षत्रियस्य तु।
भक्षयित्वोपविष्टस्तु द्विगुणं दण्डमर्हति ।। २२७.२९ ।।

विशं दण्ड्याद्दशगुणं विनाशे क्षत्रियस्य तु।
गृहं तडागमारामं क्षेत्रं वापि समाहरन् ।२२७.३०।

शतानि पञ्चदण्डः स्यादज्ञानाद् द्विशतोदमः।
सीमा बन्धनकाले तु सीमान्तं यो हि कारयेत् ।। २२७.३१ ।।

तेषां संज्ञां ददानस्तु जिह्वाच्छेदनमाप्नुयात्।
अथैनामपि यो दद्यात् संविदं वाधिगच्छति ।। २२७.३२ ।।

उत्तमं साहसं दंड्यः इति स्वायम्भुवोऽब्रवीत्।
वर्णानामानुपूर्व्येण त्रयाणामविशेषतः।२२७.३३ ।।

अकार्यकारिणः सर्वान् प्रायश्चित्तानि कारयेत्।
असत्येन प्रमाप्य स्त्री शूद्रहत्या व्रतं चरेत् ।। २२७.३४ ।।

दानेन च धनेनैकं सर्पादीनामशक्नुवन्।
एकैकं स चरेत्कृच्छ्रं द्विजः पापापनुत्तये।। २२७.३५ ।।

फलदानाञ्च वृक्षाणां छेदने जप्यमृक्शतम्।
गुल्मवल्ली लतानाञ्च पुष्पितानाञ्च वीरुधाम् ।। २२७.३६ ।।

अस्थिमताञ्च सत्वानां सहस्रस्य प्रमापणे।
पूर्णेवानस्य वस्थातुं शूद्रहत्या व्रतञ्चरेत् ।। २२७.३७ ।।

किञ्चिद्देयञ्च सत्वानां सहस्रस्य प्रमापणे।
अनस्न्याञ्चैव हिंसायां प्राणायामैर्विशुध्यति ।। २२७.३८ ।।

अन्नादिजानां सत्वानां रसजानाञ्च सर्वशः।
फलपुष्पोद्गतानाञ्च घृतप्राशो विशोधनम् ।। २२७.३९ ।।

कृष्टानामोषधीनाञ्च जातानाञ्च स्वयं वने।
वृथाच्छेदेन गच्छेत दिनमेकं पयोव्रती।२२७.४० ।।

एतैर्व्रतैरपोह्यं स्यादेनो हिंसा समुद्भवम्।
स्तेयकर्त्रपहर्तॄणां श्रूयतां व्रतमुत्तमम् ।२२७.४१ ।।

धान्यान्न धनचौर्याणि कृत्वा कामं द्विजोत्तमः।
सजातीयगृहादेव कृच्छ्रार्द्धेन विशुध्यति ।। २२७.४२ ।।

मनुष्याणान्तु हरणे स्त्रीणां क्षेत्रगृहस्य तु।
कूपवापीजलानान्तु शुद्धिश्चान्द्रायणं स्मृतम् ।। २२७.४३ ।।

द्रव्याणामल्पसाराणां स्तेयं कृत्वान्य वेश्मतः।
चरेत्सान्तपनं कृच्छ्रन्तन्निर्यात्य विशुद्धये ।। २२७.४४ ।।

भक्ष्यभोज्यापहरणे यानशय्यासनस्य तु।
पुष्पमूलफलानान्तु पञ्चगव्यं विशोधनम् ।। २२७.४५ ।।

तृणकाष्ठद्रुमाणान्तु शुष्कान्नस्य गुडस्य च।
चैलचर्मामिषाणान्तु त्रिरात्रं स्यादभोजनम् ।। २२७.४६ ।।

मणिमुक्ताप्रवालानां ताम्रस्य रजतस्य च।
अयः कांस्योपलानाञ्च द्वादशाहं कणान्नभुक् ।। २२७.४७ ।।

कार्पासकीटवर्णानां द्विशफैक शफस्य च।
पक्षिगन्धौषधानाञ्च रज्वाश्चैव त्र्यहं पयः ।। २२७.४८ ।।

एतैर्व्रतैरपोहन्ति पापं स्तेयकृतं द्विजः।
अगम्यागमनीयन्तु व्रतैरेभिरपानुदेत् ।२२७.४९ ।।

गुरुतल्पव्रतं कुर्याद्रेतः सिक्त्वा स्वयोनिषु।
सख्युः पुत्रस्य चस्त्रीषु कुमारीष्वंत्यजासु च ।। २२७.५० ।।

पितृष्वस्रीयभगिनीं स्वस्रीयां मातुरेव च।
मातुश्च भ्रातुरार्यायां गत्वा चान्द्रयणं चरेत् ।। २२७.५१ ।।

एतास्त्रियस्तु भार्यार्थे नोपगच्छेत्तु बुद्धिमान्।
ज्ञातींश्च मातुलेयास्ते पतिता उपयन्ति ये ।। २२७.५२ ।।

अमानुषीषु पुरुषो उदक्यायाम योनिषु।
रेतः सिक्त्वा जले चैव कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत् ।। २२७.५३ ।।

मैथुनञ्च समालोक्य पुंसि योषिति वा द्विजः।
गोयानेऽप्सुदिवा चैव सवासा स्नानमचरेत् ।। २७७.५४ ।।

चाण्डालान्त्य स्त्रियो गत्वा भुक्त्वा च प्रतिगृह्य च।
पतत्यज्ञानतो विप्रो ज्ञानात् साम्यन्तु गच्छति ।। २२७.५५ ।।

विप्रदुष्टां स्त्रियं भर्ता निरुन्ध्यादेकवेश्मनि।
यत्पुंसः परदारेषु तच्चैनाञ्चारयेद् व्रतम् ।। २२७.५६ ।।

सा चेत्पुनः प्रदुष्येत्तु सदृशेनोपमन्त्रिता।
कृच्छ्रं चान्द्रायणञ्चैव तत्तस्याः पावनं स्मृतम् ।। २२७.५७ ।।

यः करोत्येकरात्रेण वृषली-सेवनं द्विजः।
तदेकभुक् जपेन्नित्यं त्रिभिर्वर्षैर्व्यपोहति ।। २२७.५८ ।।

एषा पापकृतामुक्ता चतुर्णामपि निष्कृतिः।
पतितैः संप्रयुक्तानामिमां श्रृणुत निष्कृतिम् ।। २२७.५९ ।।

संवत्सरेण पतति पतितेन समाचरन्।
याजनाध्यापनाद्यौनादनुयानाशनासनात् ।। २२७.६० ।।

यो येन पतितेनैषां संसर्गं याति मानवः।
स तस्यैव व्रतं कुर्यात् तत्संसर्गविशुद्धये ।। २२७.६१ ।।

पतितस्योदकं कार्यं सपिण्डैर्बान्धवैः सह।
निन्दितेऽहनि सायाह्ने ज्ञातिभिर्गुरुसन्निधौ ।। २२७.६२ ।।

दासीघटमपां पूर्णं पर्यस्येत् प्रेतवत्सदा।
अहोरात्रमुपासीरन् नाशौचं बान्धवैः सह ।। २२७.६३ ।।

निवर्त्तयेरन् तस्मात्तु सम्भाषणसहासनम्।
दायादस्य प्रमाणञ्च यात्रामेवञ्च लौकिकीम् ।। २२७.६४ ।।

ज्येष्ठभावान्निवर्तेत ज्यैष्ठ्यावाप्तं च यत्पुनः।
ज्येष्ठांशं प्राप्नुयाच्चास्य यो वा स्याद् गुणतोऽधिकः ।। २२७.६५ ।।

स्थापिताञ्चापि मर्यादां ये भिन्द्युः पापकर्मिणः।
सर्वे पृथक् दण्डनीया राज्ञा प्रथमसाहसम् ।। २२७.६६ ।।

शतं ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति।
वैश्यस्तु द्विशतं राजन्! शूद्रस्तु वधमर्हति ।। २२७.६७ ।।

पञ्चाशद् ब्राह्मणो दण्ड्य क्षत्रियस्याभिशंसने।
वैश्यस्याप्यर्द्धपञ्चाशच्छूद्रे द्वादशको दमः ।। २२७.६८ ।।

क्षत्रिस्याप्नुयाद्वैश्यः साहसं पुनरेव च।
शूद्रः क्षत्रियमाक्रुश्च जिह्वाच्छेदनमाप्नुयात् ।। २२७.६९ ।।

पञ्चाशत् क्षत्रियो दण्ड्यस्तथा वैश्याभिशंसने।
शूद्रे चैवार्द्धपञ्चाशत्तथा धर्मो न हीयते ।। २२७.७० ।।

वैश्यस्याक्रोशने दण्ड्यः शूद्रश्चोत्तमसाहसम्।
शूद्राक्रोशे तथा वैश्यः शतार्द्धं दण्डमर्हति ।। २२७.७१ ।।

सवर्णाक्रोशने दंड्यस्तथा द्वादशकं स्मृतम्।
वादेष्ववचनीयेषु तदेव द्विगुणं भवेत्। २२७.७२ ।।

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एकजातिर्द्विजातिन्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यः प्रथमो हि सः ।। २२७.७३ ।।

नामजातिगृहं तेषामभद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयो मयः सङ्कुर्ज्वलन्नास्ये दशाङ्गुलः। २२७.७४ ।।

धर्मोपदेशं शूद्रस्तु द्विजानामभिकुर्वतः।
तप्तमासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः। २२७.७५ ।

श्रुतिं देशञ्च जातिञ्च कर्म शारीरमेव च।
वितथञ्च ब्रुवन् दण्ड्यो राजा द्विगुणसाहसम् ।। २२७.७६ ।।

यस्तु पातकसंयुक्तः क्षिपेद्वर्णान्तरं नरः।
उत्तमं साहसं दण्डः पात्यस्तस्मिन् यथाक्रमम् ।। २२७.७७ ।।

राज्ञो निवेशनियमं वितथं यान्ति वै मिथः।
सर्वे द्विगुणदण्ड्यास्ते विप्रलम्भान्नृपस्य तु ।। २२७.७८ ।।

प्रीत्या मयास्याभिहितं प्रमादेनाथ वा वदेत्।
भूयो न चैवं वक्ष्यामि स तु दण्डार्द्धभाग् भवेत् ।। २२७.७९ ।।

काणं वाप्यथ वा खञ्जमन्धं चापि तथा विधम्।
तथैवापि ब्रुवन्दाप्यो दण्डं कार्षापणं धनम् ।। २२७.८० ।।

मातरं पितरं ज्येष्ठं भ्रातरं श्वशुरं गुरुम्।
आक्रोशयन्शतं दण्ड्यः पन्थानं चार्थयन्गुरोः ।। २२७.८१ ।।

गुरुवर्ज्यन्तु मार्गार्हं यो हि मार्गं न यच्छति।
स दाप्यः कृष्णलं राज्ञस्तस्य पापस्य शान्तये ।। २२७.८२ ।।

एकजातिर्द्विजातिन्तु येनाङ्गेनापराध्नुयात्।
तदेव च्छेदयेत्तस्य क्षिप्रमेवाविचारयन्।२२७.८३ ।।

अवनिष्ठीवतो दर्पात् द्वावोष्ठौच्छेदयेन्नृप!।
अवमूत्रयतोमेढ्रमपशब्दयतो गुदम् ।। २२७.८४ ।।

सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत्।२२७.८५ ।।

केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च ।। २२७.८६ ।।

त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः।
मांसभेत्ता च षण्णिष्कान् निर्वास्यस्त्वस्थिभेदकः ।। २२७.८७ ।।

अङ्गभङ्गकरस्याङ्गं तदेवापहरेन्नृपः।
दण्डपारुष्यकृद्दण्ड्यौ समुत्थानव्ययन्तथा ।। २२७.८८ ।।

अर्द्धपादकरः कार्यो गोगजाश्वोष्ट्रघातकः।
पशुक्षुद्रमृगाणाञ्च हिंसायां द्विगुणो दमः ।। २२७.८९ ।।

पञ्चाशच्च भवेद्दण्ड्यस्तथैव मृगपक्षिषु।
कृमिकीटेषु दण्ड्यस्याद्रजतस्य च माषकम् ।। २२७.९० ।।

तस्यानुरूपं मौल्यञ्च प्रदद्यात् स्वामिने तथा।
स्वस्वामिकानां सकलं शेषाणां सकलं तथा ।। २२७.९१ ।।

वृक्षन्तु सफलं च्छित्वा सुवर्णं दण्डमर्हति।
द्विगुणं दण्डयेच्चैनं पथिसीम्नि जलाशये ।। २२७.९२ ।।

छेदनादफलस्यापि मध्यमं साहसं स्मृतम्।
गुल्मवल्लीलतानाञ्च सुवर्णस्य च माषकम् ।। २२७.९३ ।।

वृथाच्छेदी तृणस्यापि दण्ड्यः कार्षापणं भवेत्।
त्रिभागं कृष्णला दण्ड्याः प्राणिनस्ताडने तथा ।। २२७.९४ ।।

देशकालानुरूपेण मूल्यं राजा द्रुमादिषु।
तत्स्वामिनस्तथा दण्ड्या दण्डमुक्तन्तु पार्थिव! ।। २२७.९५ ।।

यत्रातिवर्तते युग्यं वैगुण्यात् प्राजकस्य तु।
तत्र स्वामी भवेद्दण्ड्यो नाप्तश्चेत् प्राजको भवेत् ।। २२७.९६ ।।

प्राजकश्च भवेदाप्तः प्राजको दण्डमर्हति।
नास्ति दण्डश्च तस्यापि तथा वै हेतुकल्पकः ।। २२७.९७ ।।

द्रव्याणि यो हरेद् यस्य जानतोऽजानतोऽपि वा।
स तस्योत्पादयेत्तुष्टिं राज्ञो दद्यात्ततो दमम् ।। २२७.९८ ।।

यस्तु रज्जुं घटं कूपाद्धरेद्भिन्द्याच्च तां प्रपाम्।
स दण्डं प्राप्नुयान्माषं तच्च सम्प्रतिपादयेत् ।। २२७.९९ ।।

धान्यं दशभ्यः कुम्भेभ्यो हरतोऽभ्यधिकं वधः।
शेषेऽप्येकादशगुणं तस्य दण्डं प्रकल्पयेत् ।। २२७.१०० ।।

तथा भक्ष्यान्नपानानां न तथाप्यधिके वधः।
सुवर्णरजतादीनामुत्तमानाञ्च वाससाम् ।। २२७.१०१ ।।

पुरुषाणां कुलीनानां नारीणाञ्च विशेषतः।
महापशूनां हरणे शस्त्राणामौषधस्य च ।। २२७.१०२ ।।

मुख्यानाञ्चैव रत्नानां हरणे वधमर्हति।
दध्नः क्षीरस्य तक्रस्य पानीयस्य रसस्य च ।। २२७.१०३ ।।

वेणु वैदलभाण्डानां लवणानां तथैव च।
मृण्मयानाञ्च सर्वेषां मृदो भस्मन एव च।। २२७.१०४ ।।

कालमासाद्य कार्य्यञ्च राजा दण्डं प्रकल्पयेत्।
गोषु ब्राह्मणसंस्थासु महिषीषु तथैव च ।। २२७.१०५ ।।

अश्वापहारकश्चैव सद्यः कार्योऽर्द्धपादकः।
सूत्रकार्पासकिण्वानां गोमयस्य गुड़स्य च ।। २२७.१०६ ।।

मत्स्यानां पक्षिणाञ्चैव तैलस्य च घृतस्य च।
मांसस्य मधुनश्चैव यच्चान्यद्वस्तु-सम्भवम्।। २२७.१०७ ।।

अन्येषां लवणादीनां मद्यानामोदनस्य च।
पक्वान्नानाञ्च सर्वेषान्तन्मूल्याद् द्विगुणोदमः ।। २२७.१०८ ।।

पुष्पेषु हरिते धान्ये गुल्मवल्लीलतासु च।
अन्नेषु परिपूर्णेषु दण्डः स्यात्पञ्चमाषकम् ।
परिपूर्णेषु धान्येषु शाकमूलफलेषु च ।। २२७.१०९ ।।

निरन्वये शतं दण्ड्यः सान्वये द्विशतन्दमः।
येन येन यथाङ्गेन स्तेनोऽन्येषु विचेष्टते ।। २२७.११० ।।

तत्तदेव हरेत्तस्य प्रत्यादेशाय पार्थिवः।
द्विजोऽध्वगः क्षीणवृत्तिर्द्वाविक्ष् द्वे च मूलके ।। २२७.१११ ।।

त्रपुसोर्वारुकौ द्वौ च तावन्मात्रं फलेषु च।
तथाच सर्वधान्यानां मुष्टिग्राहेण पर्थिव! ।। २२७.११२ ।।

शाके शाकप्रमाणेन गृह्यमाणेन दुष्यति।
वानस्पत्यं फलं मूलं दार्वग्न्यर्थं तथैव च ।। २२७.११३ ।।

तृणङ्गेऽभ्यवहारार्थमस्तेयं मनुरब्रवीत्।
अदेववाटिजं पुष्पं देवतार्थं तथैव च।२२७.११४ ।।

आददानः परक्षेत्रात् न दण्डं दातुमर्हति।
श्रृङ्गिणं नखिनं राजन्! दंष्ट्रिणञ्च वधोद्यतम् ।। २२७.११५ ।।

यो हन्यान्न स पापेन लिप्यते मनुजेश्वर!।
गुरुं वा बालवृद्धं वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।। २२७.११६ ।।

आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।
आततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ।। २२७.११७ ।।

प्रकाशं वाऽप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।
गृहक्षेत्राभिहर्तारस्तथागम्याभिगामिनः ।। २२७.११८ ।।

अग्निदोगरदश्चैव तता चाभ्युद्यतायुधः।
अभिचारन्तु कुर्वाणो राजगामि च पैशुनम् ।। २२७.११९ ।।

एते हि कथिता लोके धर्मज्ञैराततायिनः।
परस्त्रीणान्तु सम्भाषे तीर्थेऽरण्येक गृहेऽपि वा ।। २२७.१२० ।।

नदीनाञ्चैव सम्भेदैः स संग्रहणमाप्नुयात्।
न सम्भाषेत्सहस्त्रीभिः प्रतिषिद्धः समाचरेत् । २२७.१२१।।

प्रतिषिद्धे समाभाष्य सुवर्णं दण्डमर्हति।
नैव चारणदारेषु विधिरात्मोपजीविषु ।२२७१२२।

सज्जयन्ति मनुष्यैस्ता निगूढं वाचरन्त्युत।
किञ्चिदेवतुदाप्यः स्यात्सम्भाषेणापचारयन् ।। २२७.१२३ ।।

प्रेष्यासु चैव सर्वासु गृहप्रव्रजितासु च।
योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधमर्हति ।। २२७.१२४ ।।

सकामां दूषमाणस्तु प्राप्नुयाद्द्विशतं दमम्।
यश्चसंरक्षकस्तत्र पुरुषः स तथा भवेत् ।। २२७.१२५ ।।

पारदारिकवद्दण्ड्यो योऽपि स्यादवकाशदः।
बलात्संदूषयेद्यस्तु परभार्यां नरः क्वचित् ।। २२७.१२६ ।।

वधो दण्डो भवेत्तस्य नापराधो भवेत्स्त्रियः।
रजस्तृतीयं या कन्या स्वगृहे प्रतिपद्यते ।। २२७.१२७ ।।

अदण्ड्या सा भवेद्राज्ञा वरयन्ती पतिं स्वयम्।
स्वदेशे कन्यकान्दत्त्वा तामादाय तथा व्रजेत् ।। २२७.१२८ ।।

परदेशे भवेद्वध्यः स्त्रीचोरः स यतो भवेत्।
अद्रव्यां मृतपत्नीन्तु संगृह्णन्नापराध्यति ।। २२७.१२९ ।।

सद्रव्यां तां संग्रहीता दण्डन्तु क्षिप्रमर्हति।
उत्कृष्टं या भजेत्कन्या देया तस्यैव सा भवेत् ।। २२७.१३० ।।

यच्चान्यं सेवमानाञ्च संयतां वासयेद्गृहे।
जघन्यमुत्तमा नारी सेवमाना तथैव च ।। २२७.१३१।

भर्त्तारं लङ्घयेद्या स्त्री ज्ञातिभिर्बलदर्पिता।
ताञ्च निष्कासयेद्राजा संख्याने बहुसंस्थिते ।। २२७.१३२ ।।

हृताधिकारं मलिनां पिण्डमात्रोपजीविनीम्।
वासयेत् स्वैरिणीं नित्यं सवर्णोनाभिदूषिताम् ।। २२७.१३३ ।।

ज्यायसा दूषिता नारी मुण्डनं सम???प्नुयात्।
वासश्चमलिनंनित्यंशिखांसंप्राप्नुयाद्दश ।। २२७.१३४ ।।

ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः क्षत्रविट्शूद्रयोषितः।
ब्रह्मदाप्यो भवेद्राजादण्डमुत्तमसाहसम् ।। २२७.१३५ ।।

वैश्यागमे च विप्रस्य क्षत्रियस्यान्त्यजागमे।
मध्यमं वैश्योदण्ड्यःशूद्रागमाद्भवेत्।२२७.१३६ ।।

शूद्रः सवर्णागमने शतं दण्ड्योमहीक्षिता।
वैश्यस्तुद्विगुणंराजन्! क्षत्रस्तुत्रिगुणन्तथा ।। २२७.१३७ ।।

ब्राह्मणश्च भवेद्दण्ड्यस्तथाराजंश्चतुर्गुणम्।
अगुप्तासुभवेद्दण्डः स्वगुप्तास्वधिको भवेत् ।। २२७.१३८ ।।

मातापितृष्वसाश्वश्रुर्मातुलानी पितृव्याजा।
पितृव्यसखिशिष्यस्त्री गर्भिणी तत्सखी तथा ।। २२७.१३९ ।।

भातृभार्यागमे पूर्वाद् दण्डस्तुक द्विगुणो भवेत्।
चण्डालीञ्च श्वपाकीञ्च गच्छन् वधमवाप्नुयात् ।। २२७.१४० ।।

तिर्यग्योनिञ्च गोवर्ज्यं मैथुनं यो निषेवेते।
वपनं प्राप्नुयाद्दण्कडं तस्याश्च यवसादिकम् ।। २२७.१४१ ।।

सुवर्णञ्च भवेद्दण्ड्यो गां व्रजन्मनुजोत्तम!।
वेश्यागामी द्विजोदण्ड्यो वेश्याशुल्कसमम्पणम् ।। २२७.१४२ ।।

गृहगीत्वा वेतनं वेश्या लोभादन्यत्र गच्छति।
वेतनं द्विगुणं दद्याद्दण्डञ्च द्विगुणं तथा ।। २२७.१४३ ।।

अन्यमुद्दिश्ययोवेश्यांनयेदन्यस्यकारयेत्।
तस्यदण्डोभवेद्राजन्! सुवर्णस्यच माषकम् ।। २२७.१४४ ।।

नीत्वा भोगान्न यो दद्याद्दाप्यो द्विगुणवेतनम्।
राज्ञश्च द्विगुणं दण्डस्तथा धर्म्मो न हीयते ।। २२७.१४५ ।।

बहूनां व्रजतामेकां सर्वे ते द्विगुणन्दमम्।
दद्युः पृथक् पृथक् सर्वे दण्डञ्च द्विगुणं परम् ।। २२७.१४६ ।।

न माता न पिता न स्त्री न ऋत्विग् याज्यमानवाः।
अन्योन्यं पतितास्त्याज्या योगे दण्ड्याः शतानि षट् ।। २२७.१४७ ।।

पतिता गुरुवस्त्याज्या न तु माता कथञ्चन।
गर्भधारणपोषाभ्यां तेन माता गरीयसी ।। २२७.१४८ ।।

अधीयानोऽप्यनध्याये दण्ड्यः कार्षापणत्रयम्।
अध्यापकश्चद्विगुणं तथाचारस्य लङ्घने ।। २२७.१४९ ।।

अनुक्तस्य भवेद्दण्डः सुवर्णस्य च कृष्णलम्।
बार्यापुत्रश्चदासश्चशिष्योभ्राताचसोदरः ।। २२७.१५० ।।

कृतापराधास्ताड्याः स्यु रज्वा वेणुदलेन वा।
पृष्ठतस्तु शरीलस्य नोत्तमाङ्गं कथञ्चन ।। २२७.१५१ ।।

अतोऽन्यथा प्रहरतः प्राप्तःश्याच्योरकिल्विषम्।
दूतीं समाह्वयंश्चैवयोनिषिद्धंसमाचरेत् ।। २२७.१५२ ।।

आच्छन्नं वा प्रकाशं वा स दण्डयः पाथिवेच्छया।
वासांसि फलकैःश्लक्ष्णैर्निर्णिज्याद्रजकः शनैः ।। २२७.१५३ ।।

अतोऽन्यथाहि कुर्वंस्तु दण्ड्यः स्याद्रुक्ममाषकम्।
रक्षास्वधिकृतैश्चैवप्रदेयंयैर्विलुप्यते।२२७.१५४।

कर्षकेभ्योऽर्थमादाय यः कुर्यात्करमन्यथा।
तस्य सर्वस्वमादाय तं राजा विप्रवासयेत् ।। २२७.१५५ ।।

ये नियुक्ताः स्वकार्येषु हन्युः कार्याणि कार्यिणाम्।
निर्घृणाः क्रूरमनसः सर्वे कर्मापराधिनः ।। २२७.१५६ ।।

धनोष्मणा पच्यंमानास्तान्निः स्वान्कारयेन्नृपः।
कूटशासनकर्तॄं श्चप्रकृतीनाञ्च दूषकान् ।। २२७.१५७ ।।

स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च वध्या द्विट्सेविनस्तथा।
अमात्यः प्राड्विवाको वा यः कुर्यात्कार्यमन्यथा ।। २२७.१५८ ।।

तस्य सर्वस्वमादाय तं र्जा विप्रवासयेत्।
ब्रह्मघ्नश्च सुरापश्च तस्करो गुरुतल्पगः ।। २२७.१५९ ।।

एतान्सर्वान्पृथक्हिंस्यात्महापातकिनोनरान्।
महापातकिनोबध्याब्राह्मणन्तुविवासयेत् ।। २२७.१६० ।।

कृतचिह्नं स्वदेशाच्च श्रृणु चिह्नाकृतिन्ततः।
गुरुतल्पे भगः कार्यः सुरापाने सुराध्वजः ।। २२७.१६१ ।।

स्तेने तु श्वपदन्तद्वद्ब्रह्महण्यशिराः पुमान्।
असम्भाष्याह्यसम्भोज्याअसंवाह्याविशेषतः ।। २२७.१६२ ।।

त्यक्तव्यास्चतथारजन्! ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः।
महापातकिनोवित्तमादायनृपतिःस्वयम् ।। २२७.१६३ ।।

अप्सुप्रवेशयेद्दण्कडवरुणायोपपादयेत्।
सहोढं कन विना चोरं घातयेद्धार्मिको नृपः ।। २२७.१६४ ।।

सहोढं सोपकरणं घातयेदविचारयन्।
ग्रामेष्वपि च ये केचिच्चोराणां भक्ष्यदायकाः ।। २२७.१६५ ।।

भाण्डावकाशदाश्चैव सर्वांस्तानपिघातयेत्।
राष्ट्रेषु राज्ञाधिकृताः सामन्ताश्चैवदूषकाः ।। २२७.१६६ ।।

अभ्यघातेषु मध्यस्थाः क्षिप्रंशास्यास्तु चोरवत्।
ग्रामघाते मठाभङ्गे पथिमोषाफभिमर्दने ।। २२७.१६७ ।।

शक्तितो नाभिधावन्तो निर्वास्याः सपरिच्छदाः।
राज्ञः कोशापहर्तॄंश्चक प्रतिकूलेषु संस्थिताम् ।। २२७.१६८ ।।

अरीणामुपजर्तॄंश्च घातयेद्विविधैर्वधैः।
सन्धिं कृत्वा तु ये चौर्यं रात्रौकुर्वन्ति तस्कराः ।। २२७.१६९ ।।

तेषां छित्वा नृपोहस्तौ तीक्ष्णशूले निवेशयेत्।
तड़ागभेदकं हन्यादप्सु शुद्धवधेन तु।२२७.१७०।।

यस्तु पूर्वंनिविष्टंस्यात्तड़ागस्योदकं हरेत्।
आगमञ्चाप्यपंभिन्द्यात्सदाप्यः पूर्वशासनम् ।। २२७.१७१ ।।

कोष्ठागारायुघागारदेवागारविभेदकान्।
पापान् पापसमाचारान् घातयेच्छीघ्रमेव च ।। २२७.१७२ ।।

समुत्सृजेद्राजमार्गे यस्त्वमेध्यमनापदि।
स हि कार्षापणं दण्ड्यस्तत्त्वमेध्यञ्चशोधयेत ।। २२७.१७३ ।।

अजङ्गमोऽथवा वृद्धो गर्भिणी बाल एव च।
परिभाषणमर्हन्ति न च शोध्यमिति स्थितिः ।। २२७.१७४ ।।

प्रथणं साहसं दण्ड्योयश्च मिथ्या चिकित्सते।
परुषे मध्यमं दण्डमुत्तमञ्च तथोत्तमे ।। २२७.१७५ ।।

छत्रस्य ध्वजयष्टिनां प्रतिमानाञ्च भेदकाः।
प्रतिकुर्युस्ततः सर्वे पञ्चदण्ड्याः शतानि च ।। २२७.१७६ ।।

अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे भेदने तथा।
मणीनामपि भेदेन दण्ड्य प्रथमसाहसम् ।। २२७.१७७ ।।

समञ्च विषम़ञ्चैव कुरुते मूल्यतोऽपि वा।
समाप्नुयात्स वै पूर्वं दममध्यममेव च।२२७.१७८।।


बन्धनानि च सर्वाणि राजमार्गेनिवेशयेत्।
कर्षन्तो यत्र दिश्यन्ते विकृताःपापकारिणः ।। २२७.१७९ ।।

प्राकारस्य च भेत्तरं परिखानाञ्च भेदकम्।
द्वाराणां चैव भेत्तारं क्षिप्रं निर्वासयेत् पुरात् ।। २२७.१८० ।।

मूलकर्माभिचारेषु कर्त्वयो द्विशतोदमः।
अवीजविक्रयी यश्च बीजोत्कर्षक एव च ।। २२७.१८१ ।।

मर्यादाभेदकश्चापि विकृतं बन्धमाप्नुयात्।
सर्वसङ्करपापिष्ठं हेमकारं नराधिप! ।। २२७.१८२ ।।

अन्याये वर्तमानञ्च च्छेदयेल्लवशः क्षुरैः।
द्रव्यमादाय वणिजामनर्घेणावरुन्धताम् ।। २२७.१८३ ।।

द्रव्याणां दूषकोयस्तु प्रतिच्छन्नस्य विक्रयी।
मध्यमं प्राप्नुयाद्दण्डं कूटकर्त्तातथोत्तमम् ।। २२७.१८४ ।।

राजा पृथक् पृथक् कुर्याद्दण्डं चोत्तमसाहसम्।
शास्त्राणां यज्ञतपसां देशानां क्षेपको नरः ।। २२७.१८५ ।।

देवतानां सतीनाञ्च उत्तमं दण्डमर्हति।
एकस्य दण्डपारुष्ये बहूनां द्विगुणोदमः ।। २२७.१८६ ।।

कलहो यद्गतोदाप्यो दण्डश्च द्विगुणस्ततः।
मध्यमं ब्राह्मणं राजा विपयाद्विप्रवासयेत् ।। २२७.१८७ ।।

लशूनञ्च पलाण्डुञ्च शूकरं ग्रामकुक्कुटम्।
तथा पञ्चनखं सर्वं भक्ष्यादन्यत्तु भक्षयेत् ।। २२७.१८८ ।।

विवासयेत् क्षिप्रमेव ब्राह्मणं विषयात् स्वकात्।
अभक्ष्यभक्षणे दण्डयः शूद्रो भवति कृष्णलम् ।। २२७.१८९ ।।

ब्राह्मणक्षत्रियविशां चतुस्त्रिद्विगुणं स्मृतम्।
यःसाहसंकारयति सदण्ड्योद्विगुणन्दमम् ।। २२७.१९० ।।

यस्त्वेवमुक्त्वाऽहन्दाता कारयेत्स चतुर्गुणम्।
सन्दिष्टस्याप्रदाता च समुद्रगृहभेदकः ।। २२७.१९१ ।।

पञ्चाशत्पणिको दण्डस्तत्र कार्यो महीक्षिता।
अस्पृश्यञ्चास्पृशन्नार्य्यो ह्ययोग्योऽयोग्यकर्मकृत् ।। २२७.१९२ ।।

पुंस्त्वहर्त्तापशूनाञ्च दासीगर्भविनाशकृत्।
शूद्रप्रव्रजितानाञ्च दैवे पैत्र्ये च भोजकः ।। २२७.१९३ ।।

अव्रजन् वाढ़मुक्त्वा तु तथैव च निमन्त्रणे।
एते कार्षापणशतं सर्वे दण्ड्या महीक्षिता ।। २२७.१९४ ।।

दुःखोत्पादिगृहे द्रव्यं क्षिपेदन्धस्यकृष्णलम्।
पितापुत्रविरोधेच साक्षिणांद्विशतोदमः ।। २२७.१९५ ।।

तुलाशासनमानानां कूटकृन्नाणकस्य च।
एभिश्च व्यवहर्ता च स दण्ड्यो दममुत्तमम् ।। २२७.१९६ ।।

विषाग्निदाम्पतिगुरुनिजापत्यप्रमापणीम्।
विकर्णनासिकांव्योष्ठीं कृत्वागोभिःप्रमापयेत् ।। २२७.१९७ ।।

खलस्य दाहका येच येच क्षेत्रस्य वेश्मनः।
राजपत्न्यभिगामी च दग्धव्यास्तेकटाग्निना ।। २२७.१९८ ।।

ऊनं वाप्यधिकञ्चापि लिखेद्यो राजशासनम्।
परदारिकचौरं वा मुञ्चतो दण्ड उत्तमः ।। २२७.१९९ ।।

अभक्ष्येण द्विजं दूष्य दण्ड उत्तमसाहसः।
क्षत्रियं मध्यमं वैश्यं प्रथमं शूद्रमर्द्धकम् ।। २२७.२०० ।।

मृताङ्गलग्नविक्रेतुर्गान्तु ताडयतस्तथा।
राजयानासनारोढुर्दण्ड उत्तमसाहसः।२२७.२०१।।

यो मन्येताजितोऽस्मीति न्यायेनापि पराजितः।
तमायान्तं पुनर्जित्वा दण्डयेद् द्विगुणन्दमम् ।। २२७.२०२ ।।

आह्वानकरो मध्यः स्यादनाह्वाने तथाह्वयन्।
दण्डिकस्य च योहस्तादभियुक्तःपलायते ।। २२७.२०३ ।।

हीनपुरुषकारेण तं दण्ड्याद्दाण्डिकोधनम्।
प्रेष्यापराधात्प्रेष्यस्तु स दण्ड्याश्चार्द्धमेवच ।। २२७.२०४ ।।

दण्डार्थं नियमार्थञ्च नीयमानेषु बन्धनम्।
यदि कश्चित्पलायेत दण्डश्चाष्टगुणो भवेत् ।। २२७.२०५ ।।

अनिन्दिते विवादे तु नखरोमावतारणम्।
कारयेद्य स पुरुषो मध्यमं दण्कडमर्हति ।। २२७.२०६ ।।

बन्धनञ्चाप्यवध्यस्य बलान्मोचयते तु यः।
वन्ध्यं विमोचयेद्यस्तु दण्डदुद्विगुणभाग्भवेत् ।। २२७.२०७ ।।

दुर्दृष्टव्यवहाराणां सभ्यानां द्विगुणोदमः।
राज्ञा त्रिंशद्गुणोदण्डः प्रक्षेप्य उदके भवेत् ।। २२७.२०८।।

अल्पदण्डेऽधिकं कुर्याद्विपुले चाल्पमेव च।
ऊनाधिकन्तु तं दण्डं सभ्यो दद्यात् स्वकाद् गृहात्।२२७.२०९।

यावानवध्यस्य वधे तावान् वध्यस्य रक्षणे।
अधर्मोनृपतेर्दृष्टस्तथा बध्यस्य मोक्षणे ।२२७.२१०।

ब्राह्मणं नैव हन्यात्तु सर्वपापेष्ववस्थितम्।
प्रवासयेत् स्वकाद्राष्ट्रात्समग्रधनसंयुतम् । २२७.२११।।

न जातु ब्राह्मणंवध्यात् पातकं त्वधिकं भवेत्।
यस्मात्तस्मात्प्रयत्नेनब्रह्महत्यांविवर्जयेत् । २२७.२१२।।

अदण्ड्यान्दण्कडयेद्राजादण्ड्यांश्चैववाप्यदण्डयन्।
अयशोमहदाप्नोतिनरकञ्चाधिगच्छति। २२७.२१३।।

ज्ञात्वापराधं पुरुषस्य राजा कालं तथा चानुमतं द्विजानाम्।
दण्ड्येषु दण्डं परिकल्पयेत्तु यो यस्य युक्तः स समीक्ष्य कुर्यात् ।।२२७.२१४।।

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(ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्म खण्ड अध्याय दशम्)
______________________________
सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति ।।
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः ।। ९९ ।।
अर्थात क्षत्रिय पुरुष और राजपूत की कन्या से तीवर की उत्पत्ति होती है ।

तीवरस्य तु बीजेन तैलकारस्य योषिति।।
बभूव पतितो दस्युर्लेटश्च परिकीर्तितः ।। 1.10.१००।

लेटस्तीवरकन्यायां जनयामास षट् सुतान् ।
माल्लं मन्त्रं मातरं च भण्डं कोलं कलन्दरम् । १०१।।
___________________________________
ब्राह्मण्यां शूद्रवीर्य्येण पतितो जारदोषतः।।
सद्यो बभूव चण्डालः सर्वस्मादधमोऽशुचिः।। ।। १०२ ।।
___________________________________
तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह ।।
चर्मकार्य्यां च चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह। १०३।।
अर्थात तीवर  पुरुष द्वारा चाण्डाल कन्या में चर्म कर उत्पन्न होता है।

मांसच्छेद्यां तीवरेण कोञ्चश्च परिकीर्तितः।
कोञ्चस्त्रियां तु कैवर्त्तात्कर्त्तारः परिकीर्तितः। १०४।।

सद्यश्चण्डालकन्यायां लेटवीर्य्येण शौनक ।।
बभूवतुस्तौ द्वौ पुत्रौ दुष्टौ हड्डिडमौ तथा ।।१०५।

क्रमेण हड्डिकन्यायां सद्यश्चण्डालवीर्य्यतः ।।
बभूवुः पञ्च पुत्राश्च दुष्टा वनचराश्च ते ।।१०६।।
_________________________________
लेटात्तीवरकन्यायां गङ्गातीरे च शौनक।
बभूव सद्यो यो बालो गङ्गापुत्रः प्रकीर्तितः।१०७।

गङ्गापुत्रस्य कन्यायां वीर्य्याद्वै वेषधारिणः।
बभूव वेषधारी च पुत्रो (युङ्गी) प्रकीर्तितः।।१०८।।

वैश्यात्तीवरकन्यायां सद्यः (शुण्डी) बभूव ह ।।
शुण्डीयोषिति वैश्यानु (पौण्ड्रक:) च बभूव ह ।। १०९ ।।
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणाद् (आगर)इति प्रकीर्तितः ।। 1.10.११० ।।
(नमक बनानेवाला पुरुष आगर कहलाते  )

क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायां कैवर्त्तः परिकीर्तितः ।।
कलौ तीवरसंसर्गाद्धीवरः पतितो भुवि । १११।।

तीवर्यां धीवरात्पुत्रो बभूव रजकः स्मृतः ।।
रजक्यां तीवराच्चैव कोयालीति बभूव ह ।११२।

नापिताद्गोपकन्यायां सर्वस्वी तस्य योषिति ।।
क्षत्राद्बभूव व्याधश्च बलवान्मृगहिंसकः ।।११३।।

तीवराच्छुण्डिकन्यायां बभूवुः सप्त पुत्रकाः ।।
ते कलौ हड्डिसंसर्गाद्बभूवुर्दस्यवः सदा ।११४।

ब्राह्मण्यामृषिवीर्य्येण ऋतोः प्रथमवासरे ।।
कुत्सितश्चोदरे जातः कूदरस्तेन कीर्तितः ।११५।।

तदशौचं विप्रतुल्यं पतितश्चर्तुदोषतः ।।
सद्यः कोटकसंसर्गादधमो जगतीतले ।। ११६ ।।

क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायामृतोः प्रथमवासरे ।।
जातः पुत्रो महादस्युर्बलवांश्च धनुर्द्धरः ।११७ ।

चकार वागतीतं च क्षत्रियेणापि वारितः ।।
तेन जात्याः स पुत्रश्च वागतीतः प्रकीर्तितः।११८।।

क्षत्त्रवीर्य्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापतः ।।
बलवन्तो दुरन्ताश्च बभूवुर्म्लेच्छजातयः ।। ११९ ।।

अविद्धकर्णाः क्रूराश्च निर्भया रणदुर्जयाः
शौचाचारविहीनाश्च दुर्द्धर्षा धर्मवर्जिताः। 1.10.१२० ।।

म्लेच्छात्कुविन्दकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह।। ।
जोलात्कुविन्दकन्यायां शराङ्कः परिकीर्तितः ।। १२१ ।।

वर्णसङ्करदोषेण बह्व्यश्चाश्रुतजातय ।।
तासां नामानि संख्याश्च को वा वक्तुं क्षमो द्विज ।। १२२ ।।

वैद्योऽश्विनीकुमारेण जातो विप्रस्य योषिति ।।
वैद्यवीर्य्येण शूद्रायां बभूवुर्बहवो जनाः ।। १२३ ।।

ते च ग्राम्यगुणज्ञाश्च मन्त्रौषधिपरायणाः ।।
तेभ्यश्च जाताः शूद्रायां ये व्यालग्राहिणो भुवि ।। १२४ ।।

                    ।।शौनक उवाच ।।
कथं ब्राह्मणपत्न्यां तु सूर्य्यपुत्रोऽश्विनीसुतः ।।
अहो केनाविवेकेन वीर्य्याधानं चकार ह ।। १२९।

                     ।सौतिरुवाच ।।
गच्छन्तीं तीर्थयात्रायां ब्राह्मणीं रविनन्दनः ।।
ददर्श कामुकः शान्तः पुष्पोद्याने च निर्जने ।१२६।।

तया निवारितो यत्नाद्बलेन बलवान्सुरः।
अतीव सुन्दरीं दृष्ट्वा वीर्य्याधानं चकार सः।१२७।

द्रुतं तत्याज गर्भं सा पुष्पोद्याने मनोहरे।
सद्यो बभूव पुत्रश्च तप्तकाञ्चनस न्निभः।१२८।

सपुत्रा स्वामिनो गेहं जगाम व्रीडिता सदा ।
स्वामिनं कथयामास यन्मार्गे दैवसङ्कटम्।१२९।।

विप्रो रोषेण तत्याज तं च पुत्रं स्वकामिनीम् ।।
सरिद्बभूव योगेन सा च गोदावरी स्मृता । 1.10.१३०।।

पुत्रं चिकित्साशास्त्रं च पाठयामास यत्नतः ।।
नानाशिल्पं च मंत्रं च स्वयं स रविनन्दनः। १३१।।

विप्रश्च वेतनाज्योतिर्गणनाच्च निरन्तरम् ।।
वेदधर्मपरित्यक्तो बभूव गणको भुवि ।। १३२ ।।

लोभी विप्रश्च शूद्राणामग्रे दानं गृहीतवान् ।।
ग्रहणे मृतदानानामग्रादानो बभूव सः ।। १३३ ।।

कश्चित्पुमान्ब्रह्मयज्ञे यज्ञकुण्डात्समुत्थितः ।।
स सूतो धर्मवक्ता च मत्पूर्वपुरुषः स्मृतः।१३४ ।।

पुराणं पाठयामास तं च ब्रह्मा कृपानिधिः।
पुराणवक्ता सूतश्च यज्ञकुण्डसमुद्भवः।१३९ ।

वैश्यायां सूतवीर्य्येण पुमानेको बभूव ह ।।
स भट्टो वावदूकश्च सर्वेषां स्तुतिपाठकः। १३६ ।।

एवं ते कथितः किंचित्पृथिव्यां जातिनिर्णय ।।
वर्णसङ्करदोषेण बह्व्योऽन्याःसन्ति जातयः।१३७।।

सबन्धो येषु येषां यः सर्वजातिषु सर्वतः।
तत्त्वं ब्रवीमि वेदोक्तं ब्रह्मणा कथितं पुरा।१३८।

1.10.१३८ ।।

(ब्रह्म वैवर्त पुराण अध्याय (१०)

चमार रूप में परिवर्तित शम्बर. के वंशज कोल वंश से तो सम्बन्धित थे।।

 कुली अथवा दास बनाकर जिनसे दीर्घ काल तक भार-वाहक के रूप में दासता कर बायी गयी । 

और ये कोल लोग बाद मे आगत देव- संस्कृति के उपासक पुरुष सत्ता प्रधान पुरोहित वर्ग के सांस्कृतिक विरोधी थे ।

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देव संस्कृति के अनुयायीयों  ने इन कोलों  को सर्व-प्रथम शूद्र कहा कोल :-- जो काली अथवा दुर्गा के उपासक मातृ सत्ता-प्रधान समाज के अनुमोदक थे ।

ये लोग परम्परागत रूप से वस्त्रों का निर्माण करते हीे थे ,भारतीय आर्यों के सांस्कृतिक ग्रन्थों में --

इनके स्वरूप पर व्यंग्य किया है । देवी के रूप स्त्री पूजा  को लें में प्रचलित थी।

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द्रविड प्राचीन काल में अध्यात्म विद्या के प्रथम प्रवर्तक थे ; सृष्टि के मूल-पदार्थ (द्रव) के विद--अर्थात् वेत्ता होने से इनकी द्रविड संज्ञा सार्थक हुई ।......
योग की क्रिया-विधि इनके लिए आत्म-अनुसन्धान की एक माध्यमिकता थी ।
आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म और कर्म वाद के सम्बन्ध में इनकी ज्ञान-प्राप्ति सैद्धान्तिक थी ।
भारतीय आर्यों के सांस्कृतिक ग्रन्थों में वर्णित    (ऊँ ) प्रणवाक्षर नाद-ब्रह्म के सूचक ओ३म् शब्द...
तथा धर्म जैसे शब्द भी मौलिक रूप से द्रविड परिवार के थे "
ये ओ३म् का उच्चारण यहूदीयों के "यहोवा "की तरह एक विशेष अक्षर विन्यास से युक्त होकर करते थे :--
जैसे ऑग्मा (Ogma)अथवा  आ-ओमा (Awoma)  तथा  धर्म को druma. कहते थे ...
जो वन संस्कृति से सम्बद्ध है। ... संस्कृत शब्द द्रुम: शब्द में यह भाव ध्वनित है।
परन्तु देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से आगत भारतीय आर्यों ने इन्हीं के इन सांस्कृतिक शब्दों को 
इन्हीं के लिए प्रतिबन्धित कर दिया :---
वैदिक विधानों का निर्माण करते हुए शूद्रों के लिए ज्ञान के द्वार भी ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था में निर्धारित हुआ ; 

"स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम " अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें  सायद ब्राह्मणों को ज्ञात था कि ज्ञान ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है । और ---जो व्यक्ति शक्ति सम्पन्न है , वह किसी की दासता स्वीकार नहीं करेगा ।

मनु-स्मृति में वर्णित विधान शूद्रों के दमन हेतु निर्धारित किये गये थे ।

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अर्थात् - ब्राह्मण पशु ,पक्षीयों का  ,
यज्ञ के लिए अत्यधिक वध करें ।
तथा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण उनके मांस को धोकर खायें ...

चमार केवल मृत पशु ओं के शरीर से चर्म उतारते थे , क्योंकि वे बुद्ध का अनुयायी होने से हिंसा नहीं करते थे ।

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चम्मारों का कार्य वस्त्रों का निर्माण करना भी था 
युद्ध में ये लोग ही ढाल-धारी सैनिक थे..
तब ये चर्मार: कहलाते थे .....
क्योंकि चर्मम् संस्कृत भाषा में ढाल को कहते हैं ।
यूरोपीय भाषा परिवार में सॉल्ज़र अथवा सॉडियर Soudier ) अथवा Soldier 
भी यही थे।
सॉल्ज़र शब्द की व्युत्पत्ति- यद्यपि रोमन 
शब्द Solidus -(एक स्वर्ण सिक्का )
के आधार पर निर्धारित की है ।
परन्तु ये पृक्त या पिक्ट लोग थे जो स्कॉटलेण्ड में शुट्र नामक गॉलों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
जो भारत में कोल कहलाते थे ।
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कालान्तरण में उद्यम के आधार पर जब जाति की उच्चता अथवा हीनता का प्रश्न उपस्थित हुआ ,
तब विचारकों का ध्यान इस ओर गया , 
और उन्होंने वर्णव्यवस्था के विपरीत मत प्रकट किए। 
वर्णव्यवस्था के समर्थकों और विरोधियों के बीच यह समस्या दीर्घकाल तक उपस्थित रही। 
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14 वीं शताब्दी के आसपास इस ढंग के संशोधनवादी और सुधारवादी दर्शन के कई व्यख्याता हुए ,जिन्होंने जातिगत रूढ़ियों और संस्कारों के विरुद्ध संगठित आंदोलन किए।
परन्तु कामयावी नहीं मिली .
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जिनका सम्बन्ध व्रज- क्षेत्र की महार गोप जाति से था ।
प्राचीन व्रज के कवियों ने -जैसे लल्लूलाल कृत प्रेमसागर में राधा को वृषभानु महार की बेटी को कहा गया है।
महार गोपों का सम्माननीय विशेषण रहा है परन्तु रुढ़ि वादी ब्राह्मण समाज ने गोपों अथवा महारों को शूद्र वर्ण में वर्णित किया। 
जिन्हें समाज मे उचित सम्मान न मिला ..
महाराष्ट्र के मूल में भी महार शब्द ही है ।
महारों के सहयोग से शिवाजी महाराज ने मराठी साम्राज्य की स्थापना की ...
मराठी बोली का विकास भी व्रज-क्षेत्र की शौरसेनी प्राकृत से  हुआ है । ............
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सत्य पूछा जाय तो यह जादव शब्द यादव शब्द का ही व्रज-क्षेत्रीय अथवा राजस्थानी रूप है।
क्योंकि शिवाजी महाराज स्वयं यादव वंशी थे।
होयशल अथवा भोसले इनका कबीलायी नाम था। 
सन् १९२२ के समकक्ष इतिहास कारों विशेषत: देवीदास ने प्रबल प्रमाणों के आधार पर दिल्ली के एक एैतिहासिक -सम्मेलन में प्रथम बार जटिया चमारों के लिए जाटव उपाधि से नवाज़ा था ।
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फिर ऐसी जहालत (अज्ञानता) भरी हालातों मे इनका बौद्धिक विकास न हो सका ..
और ये लोग सदीयों तक हीनता और दीनता की जीवन जाते रहे ।
 परन्तु इनके रक्त में महान पूर्वजों का गुण था ।
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इस लिए ये जन-जातीयाँ बिना साधन के भी  शीघ्र ही बहुत आगे बढ़ी चली गयीं ...
और अपने प्रतिद्वन्द्वी ब्राह्मण समाज से मुकाबला करने वाला  यही प्रथम समाज था ...
और आज भी है।
                        
इतिहास की कुछ परतें गहरायी में प्रतिष्ठित होती हैं ।

जिसे उत्पाटित करने में युगों की साधनाऐं समर्पित हो जाती हैं । निश्पक्षता की कुदाल से ही यह सम्भव है । दुर्भाग्य से भारतीय इतिहास इसका अपवाद ही है। नि:सन्देह भारतीय इतिहास का सूत्रपात बुद्ध के काल से  कुछ प्रमाणित है ।

अन्यथा भारतीय इतिहास  विशेष वर्ग के लोगों द्वारा पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित होकर  अपने  हितों को ध्यान में रखकर लिखा गया ।

जिसमें पदे पदे  मतान्तर व विभिन्नता स्वाभाविक थी । क्योंकि सत्य शाश्वत् व विकल्प रहित अवस्था है और असत्य बहुरूप धारण करने वाला बहुरूपिया ।
  ---जो कुुछ काल तक ही दृष्टि -गोचर होता है ।
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"प्रस्तुति करण: – यादव योगेश कुमार "रोहि "    


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