शनिवार, 12 मई 2018

स्वर्ग की खोज और देवों का रहस्य . ....यथार्थ के धरा तल पर प्रतिष्ठित एक आधुनिक शोध है।

स्वर्ग की खोज और देवों का रहस्य .
....यथार्थ के धरा तल पर प्रतिष्ठित एक आधुनिक शोध है।
भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है ।
और भारत देश के नाम करण का  कारण  भी यही भरत जन जाति थी।

भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे ।
जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के एेंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात्
इंग्लेण्ड नाम  कर दिया था
और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।

     इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है
  दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी ।
      जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे।
जिसके नाम से भारत शब्द बना। एेसी मान्यताऐं भी जैनियों में हैं ।
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...🌓⚡⛅......आज से दश सहस्र ( दस हज़ार )वर्ष पूर्व मानव सभ्यता की व्यवस्थित संस्था आर्य सुर अथवा देव जनजाति का प्रस्थान स्वर्ग से भू- मध्य रेखीय स्थल अर्थात् आधुनिक भारत में हुआ था |
देव संस्कृति के अनुयायीयों का भारत  आगमन का समय ई०पू० १५०० से १२०० तक निर्धारित है ।
यद्यपि अवान्तर - यात्रा काल में सुमेरियन तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों से भी देव संस्कृति के अनुयायीयों ने साक्षात्कार किया ।
जहाँ से इनकी देव सूची--- में विष्णु का का समायोजन हुआ ।
SUMER ORIGIN OF VISHNU IN NAME AND FORM 83 is evidently a variant spelling of the Sumerian Pi-es' or Pish for " Great Fish " with the pictograph word-sign of Fig, 19. — Sumerian Sun-Fish as Indian Sun-god Vishnu. From an eighteen th-centuiy Indian image (after Moor's Hindoo Pantheon). Note the Sun-Cross pendant on his necklace. He is given four arms to carry his emblems : la) Disc of the Fiery Wheel {weapon) of the Sun, (M Club or Stone-mace (Gada or Kaumo-daki) 1 of the Sky-god Vanma, (c) Conch-shell (S'ank-ha), trumpet of the Sea-Serpent demon, 1 (d) Lotus (Pad ma) as Sun- flower.* i. Significantly this word " Kaumo-daki " seems to be the Sumerian Qum, " to kill or crush to pieces " (B., 4173 ; B.W.. 193) and Dak or Daggu " a cut stone " (B., 5221, 5233). a. " Protector of the S'ankha (or Conch) " is the title of the first and greatest Sea- Serpent king in Buddhist myth, see my List of Naga (or Sea-Serpent) Kings in Jour. Roy. Asiat. Soc, Jan, 1894. 3. On the Lotus as symbol of heavenly birth, see my W.B.T., 338, 381, 388.
84 INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED Fish joined to sign " great." 1 This now discloses the Sumerian origin not only of the " Vish " in Vish-nu, but also of the English '* Fish," Latin " Piscis," etc.— the labials B, P, F and V being freely interchangeable in the Aryan family of languages.
The affix nu in " Vish-nu " is obviously the Sumerian Nu title of the aqueous form of the Sun-god S'amas and of his father-god la or In-duru इन्द्र:  (Indra) as " God of the Deep." ' It literally defines them as " The lying down, reclining or bedded " (god) 3 or " drawer or pourer out of water." ' It thus explains the common Indian representation of Vishnu as reclining upon the Serpent of the Deep amidst the Waters, and also seems to disclose the Sumerian origin of the Ancient Egyptian name Nu for the " God of the Deep." 5 Thus the name
" Vish-nu " is seen to be the equivalent of the Sumerian Pisk-nu,(पिस्क- नु ) and to mean " The reclining Great Fish (-god) of the Waters " ; and it will doubtless be found in that full form in Sumerian when searched for. And it would seem that this early " Fish " epithet of Vishnu for his " first incarnation " continued to be applied by the Indian Brahmans to that Sun-god even in his later "
incarnations " as the "striding" Sun-god in the heavens. Indeed the Sumerian root Pish or Pis for " Great Fish " still survives in Sanskrit as Fts-ara विसार:  " fish." " This name thus affords another of the many instances which I 1 On sign T.D., 139; B.W., 303. The sign is called " Increased Fish " {Kua-gunu, i.e., Khd-ganu, B., 6925), in which significantly the Sumerian grammatical term gunu meaning " increased " as applied to combined signs, is radically identical with the Sanskrit grammatical term gut.a ( = " multi- plied or auxiliary," M.W.D., 357) which is applied to the increased elements in bases forming diphthongs, and thus disclosing also the identity of Sanskrit and Sumerian grammatical terminology.
* M., 6741, 6759 ; B., 8988. s B., 8990-1, 8997. 4 lb., 8993. 5 This Nu is probably a contraction for Nun, or " Great Fish," a title of the god la (or Induru) इन्द्ररु of the Deep (B., 2627). Its Akkad synonym of Naku, as "drawer or pourer out of Water," appears cognate with the Anu(n)-«aAi, or " Spirits of the Deep," and with the Sanskrit Ndga or " Sea-Serpent." • M.W.D., 1000. The affix ara is presumably the Sanskrit affix ra, added to roots to form substantives, just as in Sumerian the affix ra is similarly added (cp., L.S.G., 81).

परन्तु अपनी इन  इन्होंने प्रारम्भिक स्मृतियों को सँजोए रखा ।
स्वर्ग और नरक की धारणाऐं सुमेरियन संस्कृति में शियोल और नरगल के रूप में अवशिष्ट रहीं ,
सुमेरियन लोगों ने शियॉल नाम से एक काल्पनिक लोग की कल्पना की थी ।
जहाँ मृत्यु के बाद आत्माऐं जाती हैं ।
हमारा वर्ण्य- विषय भी स्वर्ग और नरक ही है ।

.......यह तथ्य अपने आप में यथार्थ होते हुए भी रूढ़िवादी जन समुदाय की चेतनाओं में समायोजित होना कठिन है !!
फिर भी प्रमाणों के द्वारा इस तथ्य को सिद्ध किया गया है ! यह नवीन शोध .....📚📘📝📖..... यादव योगेश कुमार रोहि .........की दीर्घ कालिक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक साधनाओं का परिणाम है ।
विश्व इतिहास में यह अब तक का सबसे नवीनत्तम और अद्भुत शोध है !!!
निश्चित रूप से रूढ़िवादी जगत् के लिए यह शोध एक बबण्डर सिद्ध होगा ; बुद्धि जीवीयों तक यह सन्देश न पहँच पाए इस हेतु के लिए अनिष्ट कारी शक्तियों ने अनेक विघ्न उत्पन्न किए हैं!
तीन वार यह विघ्न उत्पन्न हुआ है ! पूरा सन्देश डिलीट कर दिया गया है परन्तु वह कारक अज्ञात ही था जिसके द्वारा यह संदेश नष्ट किया गया था फिर ईश्वर की कृपा निरन्तर बनी रही ..........आर्य संस्कृति का प्रादुर्भाव देवों अथवा स्वरों { सुरों} से हुआ है |
सत्य पूछा जाए तो आर्य शब्द जन-जाति सूचक विशेषण नहीं है।
केवल सुर जन-जाति का अस्तित्व जर्मनिक जन-जातियाें की पूर्व शाखा के रूप में नॉर्स कथाओं में वर्णित हैं ।
यह भारतीय संस्कृति की दृढ़ मान्यता है ,
सुर { स्वर } जिस स्थान { रज} पर पर रहते थे उसे ही स्वर्ग कहा गया है ---
"स्वरा: सुरा:वा राजन्ते यस्मिन् देशे तद् स्वर्गम् कथ्यते "....जहाँ छःमहीने का दिन और छःमहीने की रातें होती हैं वास्तव में आधुनिक समय में यह स्थान स्वीडन { Sweden} है जो उत्तरी ध्रुव पर हैमर पाष्ट के समीप है प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन को ही स्वरगे { Svirge } कहा है ..🌓⛅🌓⛅🌑🌚🌝.भारतीय आर्यों को इतना स्मरण था कि उनके पूर्वज सुर { देव} उत्तरी ध्रुव के समीप स्वेरिगी में रहते थे इस तथ्य के भारतीय सन्दर्भ भी विद्यमान् हैं बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में लिपि बद्ध ग्रन्थ मनु स्मृति में वर्णित है ।
.......📖........📖📝....||..अहो रात्रे विभजते सूर्यो मानुष देैविके !! देवे रात्र्यहनी वर्ष प्र वि भागस्तयोःपुनः || अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्यात् दक्षिणायनं ------ मनु स्मृति १/६७ ...अर्थात् देवों और मनुष्यों के दिन रात का विभाग सूर्य करता है मनुष्य का एक वर्ष देवताओं का एक दिन रात होता है अर्थात् छः मास का दिन .जब सूर्य उत्तारायण होता है !
🌓⚡🌓⚡🌓⚡🌓⚡🌓⚡और छःमास की ही रात्रि होती है जब सूर्य दक्षिणायनहोता है ! प्रकृति का यह दृश्य केवल ध्रुव देशों में ही होता है ! वेदों का उद्धरण भी है .......📖📝..."अस्माकं वीरा: उत्तरे भवन्ति " हमारे वीर { आर्य } उत्तर में हुए ..इतना ही नहीं भारतीय पुराणों मे वर्णन है कि ...कि स्वर्ग उत्तर दिशा में है !! वेदों में भी इस प्रकार के अनेक संकेत हैं .....मा नो दीर्घा अभिनशन् तमिस्राः ऋग्वेद २/२७/१४ वैदिक काल के ऋषि उत्तरीय ध्रुव से निम्मनतर प्रदेश बाल्टिक सागर के तटों पर अधिवास कर रहे थे , उस समय का यह वर्णन है ......कि लम्बी रातें हम्हें अभिभूत न करें ....वैदिक पुरोहित भय भीत रहते थे, कि प्रातः काल होगा भी अथवा नहीं , क्यों कि रात्रियाँ छः मास तक लम्बी रहती थीं 🌓⚡🌓⚡..रात्रि र्वै चित्र वसुख्युष्ट़इ्यै वा एतस्यै पुरा ब्राह्मणा अभैषुः --- तैत्तीरीय संहित्ता १ ,५, ७, ५ अर्थात् चित्र वसु रात्रि है अतः ब्राह्मण भयभीत है कि सुबह ( व्युष्टि ) न होगी !!! आशंका है . ....... ध्यातव्य है कि ध्रुव बिन्दुओं पर ही दिन रात क्रमशःछः छः महीने के होते है | परन्तु उत्तरीय ध्रुव से नीचे क्रमशः चलने पर भू - मध्य रेखा पर्यन्त स्थान भेद से दिन रात की अवधि में भी भेद हो जाता है . और यह अन्तर चौबीस घण्टे से लेकर छः छः महीने का हो जाता है |
...... अग्नि और सूर्य की महिमा आर्यों को उत्तरीय ध्रुव के शीत प्रदेशों में ही हो गयी थी !!!!! .
.अतः अग्नि - अनुष्ठान वैदिक सांस्कृतिक परम्पराओं का अनिवार्यतः अंग
था .जो परम्पराओं के रूप में यज्ञ के रूप में रूढ़ हो गया ...
....... .........अग्निम् ईडे पुरोहितम् यज्ञस्य देवम् ऋतुज्यं होतारं रत्नधातव  ...ऋग्वेद १/१/१ ........
अग्नि के लिए २००सूक्त हैं ।
अग्नि और वस्त्र आर्यों की अनिवार्य आवश्यकताएें थी |
वास्तव में तीन लोकों का तात्पर्य पृथ्वी के तीन रूपों से ही था |
उत्तरीय ध्रुव उच्चत्तम स्थान होने से स्वर्ग है !
जैसा कि जर्मन आर्यों की मान्यता थी .....उन्होंने स्वेरिकी या स्वेरिगी को अपने पूर्वजों का प्रस्थान बिन्दु माना यह स्थान आधुनिक स्वीडन { Sweden} ही था |
प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन का ही प्राचीन नाम स्वेरिगे { Sverige } है !
यह स्वेरिगे Sverige .} देव संस्कृति का आदिम स्थल था,  वास्तव में स्वेरिगे Sverige ..शब्द के नाम करण का कारण भी उत्तर पश्चिम जर्मनी आर्यों की स्वीअर { Sviar } नामकी जन जाति थी .अतः स्वेरिगे शब्द की व्युत्पत्ति भी सटीक है।
Sverige is The region of sviar ....This is still the formal Names for Sweden in old Swedish Language..Etymological form ....Svea ( स्वः + Rike - Region रीजन अर्थात् रज = स्थान .. तथा शासन क्षेत्र | संस्कृत तथा ग्रीक /लैटिन शब्द लोक के समानार्थक है ....... "रज् प्रकाशने अनुशासने च"पुरानी नॉर्स Risa गौथ भाषा में Reisan अंग्रेजी Rise .. पाणिनीय धातु पाठ .देखें ...लैटिन फ्रेंच तथा जर्मन वर्ग की भाषाओं में लैटिन ...Regere = To rule अनुशासन करना ..इसी का present perfect रूप Regens ,तथ regentis आदि हैं Regence = goverment राज प्रणाली .. जर्मनी भाषा में Rice तथा reich रूप हैं !! पुरानी फ्रेंच में Regne .,reign लैटिन रूप Regnum = to rule ..... संस्कृत लोक शब्द लैटिन फ्रेंच आदि में Locus के रूप में है जिसका अर्थ होता है प्रकाश और स्थान ..तात्पर्य स्वर अथवा सुरों ( आर्यों ) का राज ( अनुशासन क्षेत्र ) ही स्वर्ग स्वः रज ..समाक्षर लोप से सान्धिक रूप हुआ स्वर्ग .
.🌓⚡🌓⚡⛅🌝🌝🌝🌝🌝🌝स्वर्ग उत्तरीय ध्रुव पर स्थित पृथ्वी का वह उच्चत्तम भू - भाग है जहाँ छःमास का दिन और छःमास की दीर्घ रात्रियाँ होती हैं भौगोलिक तथ्यों से यह प्रमाणित हो गया है दिन रात की एसी दीर्घ आवृत्तियाँ केवल ध्रुवों पर ही होती हैं इसका कारण पृथ्वी अपने अक्ष ( धुरी ) पर २३ १/२ ° अर्थात् तैईस सही एक बट्टे दो डिग्री अंश दक्षिणी शिरे पर झुकी हुई है |
अतः उत्तरीय शिरे पर उतनी ही उठी हुई है ! और भू- मध्य स्थल दौनो शिरों के मध्य में है ..पृथ्वी अण्डाकार रूप में सूर्य का परिक्रमण करती है जो ऋतुओं के परिवर्तन का कारण है अस्तु ..स्वर्ग को ही संस्कृत के श्रेण्य साहित्य में पुरुः और ध्रुवम् भी कहा है पुरुः शब्द प्राचीनत्तम भारोपीय शब्द है ********** जिसका ग्रीक / तथा लैटिन भाषाओं में Pole रूप प्रस्तावित है ** पॉल का अर्थ हीवेन Heaven या Sky है Heaven = to heave उत्थान करना उपर चढ़ना ।
संस्कृत भाषा में भी उत्तर शब्द यथावत है जिसका मूल अर्थ है अधिक ऊपर।

Utter-- Extreme = अन्तिम उच्चत्तम विन्दु ।
अपने प्रारम्भिक प्रवास में स्वीडन ग्रीन लेण्ड ( स्वेरिगे ) आदि स्थलों परआर्य लोग बसे हुए थे । , यूरोपीय भाषा में भी इसी अर्थ को ध्वनित करता है ।

हम बताऐं की नरक भी यहीं स्वीलेण्ड ( स्वर्ग) के दक्षिण में स्थित था ।----------
Narke ( Swedish pronunciation) is a swedish traditional province or landskap situated in Sviar-land in south central ...sweden
  नरक शब्द नॉर्स के पुराने शब्द नार( Nar )
से निकला है, जिसका अर्थ होता है - संकीर्ण अथवा तंग (narrow )
  ग्रीक भाषा में नारके Narke तथा narcotic जैसे शब्दों का विकास हुआ ।
ग्रीक भाषा में नारके Narke शब्द का अर्थ जड़ ,सुन्न ( Numbness, deadness
   है ।
संस्कृत भाषा में नड् नल् तथा नर् जैसे शब्दों का मूल अर्थ बाँधना या जकड़ना है ।
इन्हीं से संस्कृत का नार शब्द जल के अर्थ में विकसित हुआ ।
संस्कृत धातु- पाठ में नी तथा  नृ धातुऐं हैं  आगे ले जाने के अर्थ में - नये ( आगे ले जाना ) नरयति / नीयते वा इस रूप में है ।
अर्थात् गतिशीलता जल का गुण है ।
   उत्तर दिशा के वाचक  नॉर्थ शब्द नार मूलक ही है
क्योंकि यह दिशा हिम और जल से युक्त है ।
भारोपीय धातु स्नर्ग   *(s)nerg- To turn, twist
अर्थात् बाँधना या लपेटना से  भी सम्बद्ध माना जाता है
परन्तु जकड़ना बाँधना ये सब शीत की गुण क्रियाऐं हैं ।

अत: संस्कृत में नरक शब्द यहाँ से आया और इसका अर्थ है --- वह स्थान जहाँ जीवन की चेतनाऐं जड़ता को प्राप्त करती हैं ।
    वही स्थान नरक है ।
निश्चित रूप से नरक स्वर्ग ( स्वीलेण्ड)या  स्वीडन के दक्षिण में स्थित था !
स्वर्ग का और नरक का वर्णन तो हमने कर दिया
परन्तु भारतीय संस्कृति में जिसे स्वर्ग का अधिपति
माना गया उस इन्द्र का वर्णन न किया जाए तो
  पाठक- गण हमारे शोध को कल्पनाओं की उड़ान
और निर् धार ही मानेंगे ----
अत: हम आपको ऐसी अवसर ही प्रदान नहीं करेंगे।
    
यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को एण्ड्रीज (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है ।
जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।
   जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।

संस्कृत भाषा में 1. ज्ञातिः (जाति बन्धु)
(यथा   मनुः । ५।१०४ । 
“ न विप्रं स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण नाययेत् ।
अस्वर्ग्या ह्याहुतिः सा स्यात् शूद्रसंस्पर्शदूषिता ॥  “ ) आत्मा ।  इत्यमरः । ३। ३ । २१०॥
(यथा  रघुः । २। ५५ । 
“ सेयं स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण न्याय्या मय मोचयितुं भवत्तः ॥  “ विष्णुः ।
  इति महाभारतम् ।  १३ ।  १४९ । ११७
और जर्मनिक वर्ग की भाषाओं में निर्मित शब्द
स्वीडिश (स्वीडिश: स्वीवर; पुराना नॉर्स: Svir  की प्रतिक्रियात्मक pronominal root  swi से, "स्वयं के अर्थ में ।
[ स्वर जनजातियों / रिश्तेदारों का वाचक शब्द भी ]";
---पुरानी अंग्रेज़ी: स्वॉनस) थे एक उत्तर जर्मनिक जनजाति ।
वैदिक स्वर या सुर से प्रतरूपित
इस जनजाति के बारे में लिखने पहला लेखक  रोमन इतिहास कार टैसिटस है,
जो अपने जर्मनिया ऐैतिहासिक ग्रन्थ में 98 ई०सन्  से  स्वेन्स जन-जाति का उल्लेख करता है।
इतिहास कार जॉर्डन, छठी शताब्दी में, स्वेन्स और स्वॉन्स का उल्लेख करते हैं।
शुरुआती स्रोतों जैसे कि सागों, विशेष रूप से हेमस्किंगला के अनुसार, "
सुर स्वीडन की एक शक्तिशाली जनजाति थे" जिनके राजाओं ने देव फ्रायर  से अपने वंश के प्रादुर्भाव का दावा किया था।
वाइकिंग एज (समुद्रीय डॉकूओं का युग ) के दौरान वे वारांगियन उपसमुच्चय, वाइकिंग्स के आधार का गठन करते थे ;
जो पूर्व की ओर यात्रा करते थे । अर्थात् भू-मध्य-रेखीय देशों में -
और अधिक जानकारी के लिए
(रस (ऋषि ) 'लोगों को देखें)।
नाम पर
जैसा कि स्वीडिश राजाओं के वर्चस्व में वृद्धि हुई, जनजाति का नाम अधिक सामान्यतः मध्य युग के दौरान लागू किया जा सकता था ;
ताकि गीता, ज्यूट जीटा  को भी शामिल किया जा सके।
बाद में इसका मतलब यह था कि केवल गेट्स की जगह स्वेलैंड में मूल आदिवासियों के रहने वाले लोग ही थे।
आधुनिक उत्तरी जर्मनिक भाषाओं में, विशेषण के रूप में स्वीवेन और उसके बहुवचन svenskar नाम svear जगह ले ली है ।
और आज, स्वीडन के सभी नागरिकों को निरूपित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
स्वीडन के मूल निवासी सुर थे ।
आदिवासी स्वीडन (स्वीवेर) और आधुनिक स्वीडन (स्वेन्स्कोर) के बीच अन्तर 20 वीं शताब्दी के शुरुआती दिनों में प्रभावी रहा है, ।
जब नॉर्डिक फैमिल्जेबोक ने कहा कि स्वीवेर ने लगभग स्वीडिश लोगों के नाम के रूप में स्वीवेर को बदल दिया था। तात्पर्य यह कि स्वर (सुर) देवता यहीं स्वीडन में रहते थे ।क्योंकि ---पुरानी नॉर्स माइथॉलॉजी में स्वीडन को स्वर्ग (Sveriki ) कहा गया है
यद्यपि यह भेद आधुनिक नार्वेजियन, डेनिश और स्वीडिश, आइसलैंडिक और फ़रोइज़ में सम्मिलित नहीं है, आधुनिक स्वीडन के शब्दों के रूप में स्विटिरियर (आइसलैंडिक) या  Svar स्वर (फ़रोइज़) और सेन्स्किर (आइसलैंडिक) या स्वेन्स्करार (फिरोज़ी) के बीच अंतर नहीं है। सभी पर्याय वाची रूप हैं
शब्द-साधन अथवा व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण की दृष्टि से --रूप है स्यूनेस
रोमन लेखक टेसिटस की जर्मनिया पुस्तक  में यही रूप दिखाई देता है ।
एक समान रूप से इसी तरह के रूप, स्वेन (जैसे), पुरानी अंग्रेज़ी में और हैम्बर्ग-ब्रेमेन आर्चबिशप के बारे में एडम ऑफ ब्रेमेन के गेस्टा हैम्बुर्गेंसिस परिषद के पेंटिफ्रिमेन्ट में पाए जाते हैं, जो सुएऑन्स को चिह्नित करते हैं।
संस्कृत भाषा का स्वामी शब्द का अर्थ भी स्वयं अथवा सॉन मूलक है ।
अधिकांश विद्वान सहमत हैं कि सूएनेस और नामित साक्षांकित जर्मन रूप उसी प्रोटो-इंडो-यूरोपीय आत्मक्षेपी प्रोटोमनी जड़, * Swi  से लैटिन सूस के रूप में प्राप्त होता है।
जिससे कालान्तरण में स्वर सुर तथा स्वामी जैसे स्वतन्त्रता मूलक शब्दों का जन्म हुआ ।
स्वी (Swi )शब्द का अर्थ "खुद का, स्वयम् का  (जनजाति)" होना चाहिए ।
स्वजन अपनी जाति होना चाहिए ।
---जो कि भारोपीय संस्कृतियों में सुर हैं ।
आधुनिक स्कैंडिनेवियाई में, एक ही मूल शब्दों में प्रकट होती है जैसे स्काइगर (भाई कानून के दायरे में ) और svägerska (बहू-भाभी)।
शूबेन (स्वाबिया) नाम की इस दिन के लिए संरक्षित जर्मनिक जनजाति सुएबी नामक एक ही मूल और मूल अर्थ पाए गए हैं।
ध्वन्यात्मक विकास का विवरण भिन्न प्रस्तावों के बीच अलग-अलग होता है।
नोरिएन (19 20) ने प्रस्तावित किया कि सूओनेस एक लैटिन प्रोटो- इण्डो-जर्मनिक स्वेहिनीज़ है,
जो पीआईई( piee) रूट से आता है * स्विह- "अपना स्वयं का"।
प्रपत्र * स्विहिनाज में उल्फ़िला में 'गॉथिक बनें * स्वहिंस, जो बाद में सुएहंस के रूप में होगा जो कि जॉर्डन ने गेटिका में स्वीडन के नाम के रूप में उल्लेख किया था। परिणाम स्वरूप
, प्रोटो-नॉर्स फॉर्म * सफ़हानीज होता था, जो पुराने नॉर्स में ध्वनि-परिवर्तन के बाद पुराने पश्चिम नार्स स्वीवार और पुरानी पूर्व नॉर्स वायर्ड के परिणामस्वरूप थे।
वर्तमान में, हालांकि, "स्वयं के" के लिए रूट * swih के बजाय * s (w)i के रूप में पुनर्निर्माण किया जाता है, और यह सूइनेस के लिए पहचानित मूल है ।
पॉकरनी के 19 59 इन्डोगर्मिंस एटिज़ोलॉजिस्ट वॉर्टरबुच में और 2002 में नॉर्डिक भाषाएं: ओस्कर बंडले द्वारा संपादित उत्तर जर्मनिक भाषाओं के इतिहास की एक अंतरराष्ट्रीय पुस्तिका l
* वी भी वी। फ्रिसेन (19 15) द्वारा उद्धृत प्रपत्र है,
जो रूपों का मूल रूप से एक विशेषण, प्रोटो-जर्मनिक * स्वेनीज, जिसका अर्थ है "समान" के रूप में माना जाता है।
तो गॉथिक का स्वरूप * स्वियन और एच में सुएहंस में एक एपेंथेन्सिस होता।
प्रोटो-नॉर्स प्रपत्र तब भी होगा, * स्वेनीज, जो कि ऐतिहासिक रूप से साक्षांकित रूपों के रूप में भी होता।

द रनस्टोन डीआर 344 स्केन्डिनेविया में केवल नाम से जाना जाने वाला सबसे पहले जीवित उदाहरणों में से एक है (केवल रनस्टोन डॉ 216, बियोवुल्फ़ और शायद गेटिका पहले भी हैं)।
यह नाम एक परिसर का हिस्सा बन गया, जो पुराना पश्चिम नॉर्स में स्वविजोज़ ("सावेर लोगों", पुरानी पूर्व नॉर्स स्वेद्यूउड और पुरानी अंग्रेज़ी में स्वेदियोड में था। यह परिसर स्थानीय स्थानों में चलाया जाता है I suiþiuþu (Runestone Sö
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(" श्वेयर लोक" स्वर्ग Sveriki लोक  पुरानी पूर्व नॉर्स स्वीवेड में और पुरानी अंग्रेज़ी में स्वेदियोड।
यह परिसर स्थानीय स्थानों में सुपारी (रनस्टोन सो एफव 19 48;  28 9, एस्पा लूट, सोडरमैनलैंड) में एक रनिंग के रूप में दिखाई देता है।
, एक सुइइयुउ (रनस्टोन डीआर 344, सिमिस , स्कैनिया) और ओ सुओआइयू (रनस्टोन डीआर 216, टर्स्टेड, लॉलैंड)।
13 वीं सदी के डैनिश स्रोत स्क्रिप्लेट्स रीरम डाणिकारम में एक जगह का उल्लेख किया गया है जिसका नाम लिट्लए स्वेथुथ है, जो शायद स्टॉकहोम के निकट द्वीप स्वेर्गेज (स्वीडन) है।
जॉर्डस के गेटिका (6 वीं शताब्दी) में स्यूतिडी होना।
एक ही जर्मन राष्ट्र के समान नामकरण वाले गॉथ थे, जिनके नाम * गूटों (सीएफ सुएहंस) ने फार्म गट-þudauda बनाया था।

संस्कृत भाषा में  स्वर् स्वर्ग का वाचक है ।
स्वृ--विच् । १ स्वर्गे अमरः “यन्न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् ।
अभिलाषोपनीतञ्च तत्सुखं स्वः- पदास्पदम्” इत्युक्ते दुःखासंभिन्ने २ सुखसन्ताने ३ परलोके ४ आकाशे ५ शोभने च शब्दच० ।
दुःखासंभिन्नत्वं च स्वावच्छेदकशरीरानवच्छिन्नत्वं तेन दुःखासमान- कालीने सुखे नातिव्याप्तिः ।

स्वर्गः, पुं, (स्वरिति गीयते इति । मै + कः । यद्वा, सुष्टु अर्ज्यते इति । अर्ज अर्जने + घञ् । शङ्कादित्वात् कुत्वम् ।) देवतानामालयः । तत्- पर्य्यायः । स्वः २ नाकः ३ त्रिदिवः ४ त्रिदशा- अयः ५ सुरलोकः ६ द्योः ७ द्यौ ८ त्रिपि- ष्टपम् ९ । इत्यमरः । १ । १ । ६ ॥ मन्दरः १० अवरीहः ११ गौः १२ रमतिः १३ फलो- दयः १४ । इति जटाधरः ॥ देवलोकः १५ स्वर्लोकः १६ ऊर्द्ध्वलोकः १७ सुखाधारः १८ सौरिकः १९ शक्रभुवनम् २० दिवानम् २१ । इति शब्दरत्नावली ॥ * ॥ तस्य गुणदोषा यथा, -- सुबाहरुवाच । “स्वर्गस्य मे गुणान् ब्रूहि साम्प्रतं द्विजमत्तम । एतत् सर्व्वं द्विजश्रेष्ठ करिष्यामि न संशयः ॥ जैमिनिरुवाच ॥ नन्दनादीनि दिव्यानि रम्याणि विविधानि च । तत्रोद्यानानि पुण्यानि सर्व्वकामशुभानि च ॥
सर्व्वकामफलैर्वृक्षैः शोभितानि ममन्ततः । विमानानि सुदिव्यानि परितान्यप्सरोगणैः ॥ सर्व्वत्रैष विघित्राणि कामगानि रसानि च । तरुणादित्यवर्णानि मुक्ताजालान्तराणि च ॥ चन्द्रमण्डलशुभ्राणि हेमशय्यासनानि च । सर्व्वकामसमृद्धाश्च सुखदुःखविवर्जिताः ॥ नराः सुकृतिनस्ते तु विचरन्ति यथासुखम् । न तत्र नास्तिका यान्ति न स्तेया नाजितेन्द्रियाः ॥ न नृशंसा न पिशुनाः कतघ्ना न च मानिन । मत्यास्तपःस्थिताः शूरा दयावन्तः क्षमापराः ॥ यन्वानो दानशीलाश्च तत्र गच्छन्ति ते नराः । न रोगो न जरा मृत्युर्न शोको न हिमादयः ॥ न तत्र क्षुत्पिपासा च कस्य ग्लानिर्न दृश्यते । एते चान्ये च वहवो गुणाः सन्ति च भूपते ॥ दोषास्तत्रैव ये सन्ति तान् शृणुष्व च साम्प्रतम् । शुभस्य कर्म्मणः कृतुस्नं फलं तत्रैव भुज्यते । ततो योजनमानेन द्विगुणो मण्डलेन तु ॥ जनलोकस्थितो विप्र पञ्चमो मुनिसेवितः । तस्योपरि तपोलोकश्चतुर्भिः कोटिभिः स्मृतः ॥ सत्यलोकोऽष्टकोटीभिः सर्व्वेषामुपरिस्थितः । सर्व्वे छत्राकृतिर्ज्ञेया भुवना भुवनोपरि ॥ ब्रह्मलोकाद्विष्णुलोको द्विगुणेन व्यवस्थितः । वाराहे तस्य माहात्म्यं कथितं लोकचिन्तकैः ॥ ततः परं द्विजश्रेष्ठ ततो ह्यण्डकपालकम् । ब्रह्माण्डात् परतः साक्षात् निर्लेपः पुरुषः स्थितः ॥ यमुपास्य विमुच्येत तपोज्ञानसमन्विताः । इति ते संस्थितिः प्रोक्ता भूगोलस्य मयानघ ॥ यस्तु सम्यगिमां वेत्ति स याति परमां गतिम् ।” इति नृसिंहपुराणे ३० अध्यायः ॥ पारिभाषिकस्वर्गो यथा, -- “मनोऽनुकूलाः प्रमदा रूपवत्यः स्वलङ्कृताः । वासः प्रासादषष्ठेषु स्वर्गः स्याच्छुभकर्म्मणः ॥” इति गारुडे । १०९ । ४४ ॥ न्यायमते स्वर्गलक्षणं यथा । दुःखासम्भिन्न- त्वादिविशिष्टसुखत्वं स्वर्गत्वं तदेव स्वर्गपदशक्य- तावच्छेदकमिति सिद्धान्तः । आदिपदेन अन- न्तरदुःखग्रस्तभिन्नत्वाभिलाषोपनीतत्वयोःपरि- ग्रहः । अतएव । “यन्न दुःखेन संभिन्नं न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं यत् तत् सुखं स्वःपदास्पदम् ॥” इति स्वरादिपदशक्तिग्राहकार्थवादोऽपि संग- च्छते । इति गदाधरभट्टाचार्य्यकृतवादार्थः ॥ * ॥ किञ्च । “मनःप्रीतिकरः स्वर्गो नरकस्तद्विपर्य्ययः । नरकस्वर्गसंज्ञेवै पापपुण्ये द्विजोत्तमाः ॥” इति ब्रह्मपुराणे १९ अध्यायः ॥

अमरकोशः

स्वर्ग पुं। 

स्वर्गः 

समानार्थक:स्वर्,स्वर्ग,नाक,त्रिदिव,त्रिदशालय,सुरलोक,द्यो,दिव्,त्रिविष्टप,गो 

1।1।6।1।2 

स्वरव्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयः। सुरलोको द्योदिवौ द्वे स्त्रियां क्लीबे त्रिविष्टपम्.। 

अवयव : देवसभा 

सम्बन्धि 2 : देवः 

पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, अचलनिर्जीवः, स्थानम्, अलौकिकस्थानम्

वाचस्पत्यम्

'''स्वर्ग'''¦ पु॰ स्वरिति गीयते गै--क सु + ऋज--घञ् वा। 

१ दुःखा-सम्भिन्ने सुखे 

२ देवानाभावासस्थाने च अमरः। स्वर्गकारणस्वरूपादिकं भा॰ व॰ 

२६ 

० अ॰ उक्तं यथा 
“उपरिष्टाच्च स्वर्लोको योऽयं स्वरिति संज्ञितः। ऊर्द्ध्वगःसत्पथः शश्वद्देवयानचरो मुने!। नातप्नतपसः पुंसोनामहायज्ञयाजिनः। नानृता नास्तिकाश्चैव तत्र गच्छन्तिमुद्गल!। धर्मात्मानो जितात्मानः शान्ता दान्ता विमत्-सराः। दानधर्मरताः लोका शूराश्चाहवलक्षणाः। तत्रगच्छन्ति धर्माग्र्यं कृत्वा शमदमात्मकम्। लोकान्पुण्यकृतान् ब्रह्मन्! सद्भिराचरितान्नृमिः। देवाः सा-ध्यास्तथा विश्वे तथैव च महर्पयः। यामा धामाश्च मौ-द्गल्य! गन्धर्वाप्सरसस्तथां। एषां देवनिकायानां पृथक्पृथगनेकशः। भास्वन्तः कामसम्पन्ना लोकास्तेजोमयाःशुभाः। त्रयस्त्रिंशतसहस्राणि योजनानि हिरण्मयः। मेरुः पर्वतराड् यत्र दिव्योद्यानानि सौद्गज!। नन्दाना-दोनि पुण्यानि विहाराः पुण्यकर्मणाम्। न क्षुत्पिपामेन ग्लानिर्न शीतोष्णे भयं तथा। बीभत्समशुभं वा-ऽपि तत्र किञ्चिन्न विद्यते। मनोज्ञाः सर्वतो गन्धाःमुखस्पर्शाश्च सर्वशः। शब्दाः श्रुतिमनोग्राह्याः सर्वतस्तत्रवै मुने!। न शोको न जरा तत्र नायासपरिदेवने। ईदृशः स मुने! लीकः स्वकर्मफलहेतुकः। सुकृतैस्तत्रपुरुषाः सम्भवन्त्यात्मकर्मभिः। तैजसानि शरीराणिभवन्त्यत्रोपपद्यताम्। कर्मज न्येव मौद्गल्यो!। न मातृ-पितृजान्युत। न संस्वेदो न दौगन्ध्यं पुरीषं मूत्रमेव[Page5384-a+ 38] च। तेषां न च रजो वस्त्रं बाधते तत्र वै मुने!। नम्लावत्वि स्रजस्तेषां दव्यगन्धा सनोरमाः। संयुज्यन्तेविमानैश्च ब्रह्मन्नेवंविधैश्च ते। ईर्षाशोकक्लमापेता मोह-मात्शर्य्यवजिताः। सुखं स्वर्गजितस्तत्र वर्त्तयन्ते महा-मुने!। तेषां तथाविधानान्तु लोकानां मुनिपुङ्गव!। उपर्य्यपरि लोकस्य लोका दिव्या गुणान्विताः। पुरस्ताद्ब्रह्मणास्तत्र लोकास्तेजीमयाः शुभाः। यत्र यान्त्यृ-षथो ब्रह्मन्! पूताः स्वैः कर्मभिः शुभैः। ऋभवो नामतत्र न्ये देवानासपि देवताः। तेषां लोकाः परतरे यान्यजन्तीह देवताः। स्वयस्प्रभास्ते भाम्वन्तो लोकाः काभदुचाः परे। न तेषां स्त्रीकृतस्तापी न लोकैश्वर्य्यमत्-सरः। च वर्त्तयन्त्याहुतिभिस्तेनाप्यभृतभोजनाः। तथा दिव्यशरीरास्ते न च विग्रहमूर्त्तयः। न सुखेसुखकामास्ते देवदेवाः सनातनाः। न कल्पपरिवर्त्तेषुपरिवर्त्तन्ति ते तथा। जरा मृत्युः कुतस्तेषां हर्षःपीतिसुखं न च। न दुःखं न सुखञ्चापि रागद्वेषौकुतो मुने!। देवानामपि मौद्गल्य! काङ्क्षिता सागतिः परा। दुष्प्रापा परमा सिद्धिरगम्या कामगोचरैः। त्रयस्त्रि शदिमे देवा येषां लोका मनीषिभिः। गम्यन्ते नियसैः श्रेष्ठैर्दानैर्वा विधिपूर्वकैः। सेयं दान-कृता व्युष्टिरनुप्राप्त्वा सुखं त्वया। तां भुङ्क्ष्व सुकृतै-ल{??} तपस्याद्योतितप्रभः। एतत् स्वर्गसुखं विप्र! लोकानानाविधास्तथा। गुणाः स्वर्गस्य प्रोक्तास्ते दीषानपिनिबोध मे। कृतस्य कर्मणस्तत्र भुज्यते यत् फलं दिवि। न चान्यत् क्रियते कर्म मूलच्छेदेन भुज्यते। सोऽत्रदोषो मम मतस्तस्यान्ते षतनञ्च यत्। सुखव्याप्तमत्स्कानां पतनं यच्च मुद्गल!। असन्तोषः परीतापोदृष्ट्वा दोप्ततराः श्रियः। यद्भवत्यवरे स्थाने स्थितानां तत्सुदुष्करम्। संज्ञा मोहश्च पततां रजसा च प्रधर्षणम्। प्रम्लानेषु च माल्येषु ततः पिपतिषोर्भयम्। आब्रह्मभव-नादेते दोषा मौद्गल्य! दारुणाः। ताकलोके सुकृतिनांगुणास्त्वयुतशो नृणाम्। अय त्वन्यो गुणः श्रेष्ठश्च्युतानांस्वर्गतो मुने!। शुभानुशययोगेन मनुष्येषूपजायते। तत्रापि स महाभागः सुखभागभिजायते। न चेत्सम्बुध्यते तत्र गच्छत्यधमतां ततः। इह यत् क्रियतेकर्म तन् परत्रोपभुज्यते। कर्मभूमिरिवं व्रह्मत्! फलभूमिरमो मतः”। स च लोकी भूरादिषु ऊर्द्ध्वस्थस्तृतीयः।

शब्दसागरः

स्वर्ग¦ m. (-र्गः) Heaven, INDRA'S

स्वथियुथ नाम और इसके विभिन्न रूपों ने स्वीडन, सियेतिया, सुएटिया और सुएशिया के साथ ही देश के लिए आधुनिक अंग्रेजी नाम के विभिन्न लैटिन नामों को जन्म दिया।
एक दूसरा यौगिक स्वेवीरिकी था, या पुरानी अंग्रेज़ी में स्वेरिस, जिसका अर्थ है "सूयनेस के दायरे" स्विडिश में स्वीडिश के लिए यह अब भी औपचारिक नाम है, स्वेवा रिक और इसके वर्तमान नाम स्वेरेगे की उत्पत्ति "के" के साथ पुराने रूप "स्वेरिके" में बदलकर "जी" में बदल गई।
गांला उप्साला जनजाति का मुख्य धार्मिक और राजनीतिक केंद्र था।
उनका प्राथमिक आवास पूर्वी स्वेव्ंड में था।
उनके प्रदेशों में बहुत जल्दी में वेस्टरमेनलैंड, सोडरमैनलैंड और नारके के प्रांतों में शामिल किया गया था, ।
जो कि मैलारेन घाटी में था, जो कि द्वीपों की एक बड़ी संख्या के साथ एक खाड़ी का गठन किया था।
यह क्षेत्र स्कैंडिनेविया के सबसे उपजाऊ और घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है।
उनके इन प्रदेशों को स्वीवेनैंड स्वर्ग Sveriki कहा जाता था - "स्वीडन-भूमि" ("द वॉयज ऑफ़ ओथरेयर" में इतिहास के सात पुस्तकों में: स्वोलैंड),
स्यूथियोड - "स्वीडन-लोग" (बियोवुल्फ़: स्वेदियोड [इसलिए स्वीडन]), एसवीइवेल्दी या स्वेराइक - "स्वीडन-क्षेत्र" (बियोवुल्फ़: स्विरोइस)। गॉटलैंड में गीता के साथ राजनीतिक एकीकरण, एक प्रक्रिया जो 13 वीं सदी तक पूरी नहीं हुई थी, कुछ समकालीन इतिहासकारों द्वारा स्वीडिश साम्राज्य के जन्म के रूप में माना जाता है ।
, हालांकि स्वीडिश साम्राज्य उनके नाम पर स्वीडिश में स्वीडिश में स्वेरिगे, सेवेआ राईक - सियोनस के राज्य अर्थात्
गम्ला उप्साला में एसिस्टर पंथ केंद्र, स्वीडन का धार्मिक केंद्र था और जहां स्वीडिश राजा ने बलिदान (ब्लाकों) के दौरान एक पुजारी के रूप में सेवा की थी। उपसला भी उप्साला öd का केंद्र था, जो शाही संपदा का नेटवर्क था जो 13 वीं शताब्दी तक स्वीडिश राजा और उनकी अदालत को वित्तपोषित करता था।
कुछ विवाद चाहे सूओनेस के मूल डोमेन वास्तव में अपसला में थे, अपप्लैंड का गढ़, या यदि शब्द सामान्यतः स्वीवलैंड में सभी जनजातियों के लिए इस्तेमाल किया गया था, उसी प्रकार पुराने नॉर्वे के अलग-अलग प्रांतों को सामूहिक रूप से नॉर्मान्नी के रूप में संदर्भित किया गया था।
इतिहास ----------
इस जनजाति का इतिहास समय की झींसी पड़ जाती है। नॉर्स पौराणिक कथाओं और जर्मनिक किंवदंती के अलावा, केवल कुछ स्रोत उनका वर्णन करते हैं और इसमें बहुत कम जानकारी है
रोमनों

हेड्रियन के तहत रोमन साम्राज्य (117-38 का शासन किया), केंद्रीय स्वीडन के रहने वाले सूओनेस जर्मनिक जनजाति का स्थान दिखा रहा है

गाइस कॉर्नेलियस टैसिटस
1 सदी के ए से दो स्रोत हैं जो सूइनेस की बात करते हुए उद्धृत करते हैं। सबसे पहले एक प्लिनी द एल्डर ने कहा था कि रोमनों ने सींबिक प्रायद्वीप (जटलैंड) को गोल कर दिया था, जहां कादेशीय खाड़ी (कैटेगाट?) था।
इस खाड़ी में कई बड़े द्वीप थे, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध स्कैतिनाविया (स्कैंडिनेविया) था।
उन्होंने कहा कि द्वीप का आकार अज्ञात था, लेकिन इसके एक भाग में 500 गांवों में हिल्लेवियनुम नम्र नामक जनजाति का नाम था, और वे अपने देश को अपनी ही दुनिया का मानते थे।
क्या इस पाठ के टिप्पणीकारों पर हमला है कि यह बड़ा जनजाति भावी पीढ़ी के लिए अज्ञात है, जब तक कि यह एक साधारण गलत वर्तनी या Illa Svionum gente के misreading नहीं था। यह समझ में आता है, क्योंकि एक बड़ी स्कैंडिनेवियाई जनजाति का नाम सूइनेस रोमनों के लिए जाना जाता था।

टैसिटस जर्मनिया 44, 45 में 98 ईस्वी में लिखा है कि Suiones जहाजों कि दोनों सिरों में एक माथा था) के साथ एक शक्तिशाली जनजाति (प्रतिष्ठित अपने हथियार और पुरुषों के लिए है, लेकिन उनके शक्तिशाली बेड़े के लिए न केवल) थे। उन्होंने आगे कहा कि सूयनेस धन से बहुत प्रभावित थे, और राजा इस प्रकार पूर्ण था। इसके अलावा, सूओनेस ने आमतौर पर हथियार नहीं उठाए थे, और एक गुलाम द्वारा हथियारों की रक्षा की गई थी।
टैटिटस के सूएनेस के बारे में उल्लेख के बाद, स्रोत 6 वीं शताब्दी तक स्कैनडिनेविया अभी भी पूर्व-ऐतिहासिक समय में थे, उनके बारे में उनके बारे में चुप हैं कुछ इतिहासकारों ने कहा है कि यह दावा करना संभव नहीं है कि एक सतत स्वीडिश जातीयता टेसिटस के सूइनेस में वापस आती है।
इस दृष्टिकोण के अनुसार इतिहास के विभिन्न चरणों के दौरान एक जातीय नाम और जातीय प्रवचन के दिग्भ्रमित रूप से काफी भिन्नता है।
जोर्डेन्स------

यन्त्रोपारोपितकोशांशःकल्पद्रुमः

स्वम्, पुं, क्ली, (स्वन शब्दे + अन्येभ्योपीति डः ।) धनम् । इत्यमरः । ३ । ३ । २१० ॥ (यथा, मनुः । ८ । ४१७ । “विस्रब्धं ब्राह्मणः शूद्रात् द्रव्योपादनमाचरेत् । नहि तस्यास्ति किञ्चित् स्वं भर्त्तृहार्य्यधनो हि सः ॥”

स्वम्, त्रि, आत्मीयम् । इत्यमरः । ३ । २१० ॥ (यथा, कथासरित्सागरे । २६ । १०५ । “मया त्वद्य प्रवेष्टव्या स्वा तनुश्च पुरी च सा ॥”)

स्वः, पुं, ज्ञातिः (यथा, मनुः । ५ । १०४ । “न विप्रं स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण नाययेत् । अस्वर्ग्या ह्याहुतिः सा स्यात् शूद्रसंस्पर्श- दूषिता ॥”) आत्मा । इत्यमरः । ३ । ३ । २१० ॥ (यथा, रघुः । २ । ५५ । “सेयं स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण न्याय्या मय मोचयितुं भवत्तः ॥” विष्णुः । इति महाभारतम् । १३ । १४९ । ११७ ॥)

अमरकोशः

स्व पुं। 

सगोत्रः 

समानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन,दायाद 

2।6।34।2।5 

समानोदर्यसोदर्यसगर्भ्यसहजाः समाः। सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः॥ 

पदार्थ-विभागः : समूहः, द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः
स्व पुं। 
आत्मा 
समानार्थक:क्षेत्रज्ञ,आत्मन्,पुरुष,भाव,स्व 
3।3।212।1।1 
स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने। स्त्रीकटीवस्त्रबन्धेऽपि नीवी परिपणेऽपि च॥ 
: परमात्मा, अन्तरात्मा 
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, आत्मा

स्व पुं-नपुं। 

धनम् 

समानार्थक:पण,स्व,वसु 

3।3।212।1।1 

स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने। स्त्रीकटीवस्त्रबन्धेऽपि नीवी परिपणेऽपि च॥ 

पदार्थ-विभागः : धनम्

स्व वि। 

आत्मीयम् 

समानार्थक:निज,अन्तर,स्व 

3।3।212।1।1 

स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने। स्त्रीकटीवस्त्रबन्धेऽपि नीवी परिपणेऽपि च॥ 

पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्

वाचस्पत्यम्

'''स्व'''¦ न॰ स्यन--ड। 

१ धने अमरः। 

२ आत्मनि 

३ ज्ञातौ च पु॰अमरः। 

४ आत्मीये त्रि॰। आत्मनि आत्मोये चार्थेऽस्यसर्वनामता।

शब्दसागरः

स्व¦ Pron. mfn. (-स्वः-स्वा-स्वं) Own. Subst. m. (-स्वः) 
1. A kinsman. 
2. The soul. 
3. Wealth. 
4. Self-identity, individuality. mn. (-स्वः-स्वं) 
1. Wealth, property. 
2. (In algebra,) Plus, or affirmative quantity. f. (-स्वा) Pron. Adj. 
1. Belonging to oneself. 
2. Of one's own tribe or family. 
3. Natural, original. E. स्वन् to sound, aff. ड; or वू to send or order, व aff.

Apte

स्व [sva], pron. a.

One's own, belonging to oneself, often serving as a reflexive pronoun; स्वनियोगमशून्यं कुरु Ś.2; प्रजाः प्रजाः स्वा इव तन्त्रयित्वा 5.5; oft. in comp. in this sense; स्वपुत्र, स्वकलत्र, स्वद्रव्य.

Innate, natural, inherent, peculiar, inborn; सूर्यापाये न खलु कमलं पुष्यति स्वामभिख्याम् Me.82; Ś.1.19; स तस्य स्वो भावः प्रकृतिनियतत्वादकृतकः U. 6.14.

Belonging to one's own caste or tribe; शूद्रैव भार्या शूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते Ms.3.13;5.14.

स्वः One's own self.

A relative, kinsman; एनं स्वा अभि- संविशन्ति भर्ता स्वानां श्रेष्ठः पुर एता भवति Bṛi. Up.1.3.18; (दौर्गत्यं) येन स्वैरपि मन्यन्ते जीवन्तो$पि मृता इव Pt.2.1; Ms. 2.19.

The soul.

N. of Viṣṇu. -स्वा A woman of one's own caste.

स्वः, स्वम् Wealth, property; as in निःस्व q. v.

(In alg.) The plus or affirmative quantity; cf. धनः; स्वशब्दो$यमात्मीयधनज्ञातीनां प्रत्येकं वाचको न समुदायस्य ŚB. on MS.6.7.2. The Ego.

Nature (स्वभावः); वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च । कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्चोदनयापि वा ॥ Bhāg.12.7.13. -Comp. -अक्षपादः a follower of the Nyāya system of philosophy.-अक्षरम् one's own hand-writing. -अधिकारः one's own duty or sway; स्वाधिकारात् प्रमत्तः Me.1; स्वाधिकारभूमौ Ś.7.-अधिपत्यम् one's own supremacy, sovereignty. -अधि- ष्ठानम् one of the six Chakras or mystical circles of the body. -अधीन a.

dependent on oneself, self-dependent.

one's own subject.

in one's own power; स्वाधीना वचनीयतापि हि वरं बद्धो न सेवाञ्जलिः Mk.3. 11. ˚कुशल a. having prosperity in one's own power; स्वाधीनकुशलाः सिद्धिमन्तः Ś.4. ˚ पतिका, ˚भर्तृका a woman who has full control over her husband, one whose husband is subject to her; अथ सा निर्गताबाधा राधा स्वाधीनभर्तृका । निजगाद रतिक्लान्तं कान्तं मण्डनवाञ्छया Gīt.12; see S. D.112.et seq.

अध्यायः self-recitation, muttering to oneself.

study of the Vedas, sacred study, perusal of sacred books; स्वाध्यायेनार्चयेदृषीन् Ms.3.81; Bg.16.1; T. Up.1.9.1.

the Veda itself.

a day on which sacred study is enjoined to be resumed after suspension. ˚अर्थिन् m. a student who tries to secure his own livelihood during his course of holy study; Ms.11.1.-अध्यायिन् m.

a student of the Vedas.

a tradesman. -अनुभवः, अनुभूतिः f.

self-experience.

self-knowledge; स्वानुभूत्येकसाराय नमः शान्ताय तेजसे Bh.2.1. अनुभावः love for property. -अनुरूप a.

natural, inborn.

worthy of oneself.

अन्तम् the mind; मम स्वान्तध्वान्तं तिरयतु नवीनो जलधरः Bv.4.5; Mv.7.17.

a cavern.

one's own death, end. -अर्जित a. self-acquired. -अर्थ a.

self-interested.

having its own or true meaning.

having one's own object or aim.

pleonastic.

(र्थः) one's own interest, self-interest; सर्वः स्वार्थं समीहते Śi.2.65; स्वार्थात्सतां गुरुतरा प्रणयिक्रियैव V. 4.15.

own or inherent meaning; स्वार्थे णिच्, स्वार्थे कप्रत्ययः &c.; परार्थव्यासङ्गादुपजहदथ स्वार्थपरताम् Bv.1.79 (where both senses are intended).

पुरुषार्थः q. v.; Bhāg.12.2.6. ˚अनुमानम् inference for oneself, a kind of inductive reasoning, one of the two main kinds of अनुमान, the other being परार्थानुमान. ˚पण्डित a

clever in one's own affairs.

expert in attending to one's own interests. ˚पर, ˚परायण a. intent on securing one's own interests, selfish; परार्थानुष्ठाने जडयति नृपं स्वार्थपरता Mu.3.4. ˚विघातः frustration of one's object. ˚सिद्धिः f. fulfilment of one's own object. -आनन्दः delight in one's self. -आयत्त a. subject to, or dependent upon, oneself; स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः Bh. 2.7. -आरब्ध, -आरम्भक a. self-undertaken. -आहत a. coined by one's self. -इच्छा self-will, own inclination. ˚आचारः acting as one likes; self-will. ˚मृत्युः an epithet of Bhīṣma. -उत्थ a. innate. -उदयः the rising of a sign or heavenly body at any particular place. -उपधिः a fixed star. -कम्पनः air, wind. -कर्मन् one's own duty (स्वधर्म); स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु Bg.18. 45. -कर्मस्थ a. minding one's own duty; अधीयीरंस्त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः Ms.1.1. -कर्मिन् a. selfish.-कामिन् a. selfish. -कार्यम् one's own business or interest. -कुलक्षयः a fish. -कृतम् a deed done by one's self. -कृतंभुज् a. experiencing the results of former deeds (प्रारब्धकर्म); मा शोचतं महाभागावात्मजान् स्वकृतंभुजः Bhāg.1. 4.18. -गतम् ind. to oneself, aside (in theatrical language). -गृहः a kind of bird. -गोचर a. subject to one's self; स्वगोचरे सत्यपि चित्तहारिणा Ki.8.13. -चर a. self-moving. -छन्द a.

self-willed, uncontrolled, wanton.

spontaneous.

wild. (-न्दः) one's own will or choice, own fancy or pleasure, independence. (-न्दम्)ind. at one's own will or pleasure, wantonly, voluntarily; स्वच्छन्दं दलदरविन्द ते मरन्दं विन्दन्तो विदधतु गुञ्जितं मिलिन्दाः Bv.1.15. -ज a.

self-born.

natural (स्वाभाविक); आगता त्वामियं बुद्धिः स्वजा वैनायिकी च या Rām.2.112.16.

(जः) a son or child.

sweat, perspiration.

a viper. (-जा) a daughter. (-जम्) blood.

जनः a kinsman, relative; इतःप्रत्यादेशात् स्वजनमनुगन्तुं व्यवसिता Ś. 6.8; Pt.1.5.

one's own people or kindred, one's household. ˚गन्धिन् a. distantly related to. (स्वजनायते Den. P. 'becomes or is treated as a relation'; Pt.1.5.)

जातिः one's own kind.

one's own family or caste. -ज्ञातिः a kinsman. -ता personal regard or interest; अस्यां मे महती स्वता Svapna.1.7. -तन्त्र a.

self-dependent, uncontrolled, independent, self-willed.

of age, full-grown. (-न्त्रम्) one's own (common group of) subsidiaries; जैमिनेः परतन्त्रापत्तेः स्वतन्त्रप्रतिषेधः स्यात् MS. 12.1.8. (-न्त्रः) a blind man. -दृश् a. seeing one's self; ईयते भगवानेभिः सगुणो निर्गुणः स्वदृक् Bhāg.3.32.36. -देशः one's own country, native country. ˚जः, ˚बन्धुः a fellow countryman.

धर्मः one's own religion.

one's own duty, the duties of one's own class; Ms.1.88,91; स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः Bg.3.35.

peculiarity, one's own rights. -निघ्न a. depending on or subservient to oneself; (पुराणि च) निगृह्य निग्रहाभिज्ञो निन्ये नेता स्वनिघ्नताम् Śiva B.25.9.

पक्षः one's own side or party.

a friend.

one's own opinion. -पणः one's own stake. -परमण्डलम् one's own and an enemy's country. -प्रकाश a.

self-evident.

self-luminous.-प्रतिष्ठ a. astringent. -प्रधान a. independent. -प्रयोगात्ind. by means of one's own efforts. -बीजः the soul.

भटः one's own warrior.

bodyguard.

भावः own state.

an essential or inherent property, natural constitution, innate or peculiar disposition, nature; स्वभावहेतुजा भावाः Mb.12.211.3; पौरुषं कारणं केचिदाहुः कर्मसु मानवाः । दैवमेके प्रशंसन्ति स्वभावमपरे जनाः ॥ 12.238.4; Bg.5.14; स्वभावो दुरतिक्रमः Subhāṣ.; so कुटिल˚, शुद्ध˚, मृदु˚, चपल˚, कठिन˚ &c. ˚आत्मक a. natural, inborn; स्वभावतः प्रवृत्तो यः प्राप्नोत्यर्थ न कारणात्। तत् स्वभावात्मकं विद्धि फलं पुरुष- सत्तम ॥ Mb.3.32.19. ˚उक्तिः f.

spontaneous declaration.

(in Rhet.) a figure of speech which consists in describing a thing to the life, or with exact resemblance; स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् K. P.1, or नानावस्थं पदार्थानां रूपं साक्षाद्विवृण्वती Kāv.2.8. ˚ज a. innate, natural. ˚भावः natural disposition. ˚वादः the doctrine that the universe was produced and is sustained by the natural and necessary action of substances according to their inherent properties, (and not by the agency of a Supreme Being). ˚सिद्ध a. natural, spontaneous, inborn. -भूः m.

an epithet of Brahman.

of Śiva.

of Viṣṇu. -f. one's own country, home.-मनीषा own judgement. -मनीषिका indifference.-मात्रेण ind. by one's self. -युतिः the line which joins the extremities of the perpendicular and diagonal.-यूथ्यः a relation. -योनि a. related on the mother's side. (-m., f.) own womb, one's own place of birth. (-f.) a sister or near female relative; रेतःसेकः स्वयोनीषु कुमारीष्वन्त्यजासु च (गुरुतल्पसमं विदुः) Ms.11.58.

रसः natural taste.

proper taste or sentiment in composition.

a kind of astringent juice.

the residue of oily substances (ground on a stone.) -राज् a.

self-luminons; त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधरः Bhāg.1. 87.28.

self-wise; Bhāg.1.1.1. -m.

the Supreme Being.

one of the seven rays of the sun.

N. of Brahmā; दिदृक्षुरागादृषिभिर्वृतः स्वराट् Bhāg.3.18.2.

N. of Viṣṇ&u; हस्तौ च निरभिद्येतां बलं ताभ्यां ततः स्वराट् Bhāg.3. 26.59.

a king with a revenue of 5 lacs to one crore Karṣas; ततस्तु कोटिपर्यन्तः स्वराट् सम्राट् ततः परम् Śukra.1. 185.
राज्यम् independent dominion or sovereignty.

own kingdom. -राष्ट्रम् own kingdom. -रुचिः one's own pleasure. -रूप a.

similar, like.

handsome, pleasing, lovely.

learned, wise.

(पम्) one's own form or shape, natural state or condition; तत्रान्यस्य कथं न भावि जगतो यस्मात् स्वरूपं हि तत् Pt.1.159.

natural character or form, true constitution.

nature.

peculiar aim.

kind, sort, species. ˚असिद्धि f. one of the three forms of fallacy called असिद्ध q. v. -लक्षणम् a peculiar characteristic or property.

लोकः one's own form (आत्मरूप); व्यर्थो$पि नैवोपरमेत पुंसां मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात् Bhāg.11.22.34.

self-knowledge; पुष्णन् स्वलोकाय न कल्पते वै Bhāg.7.6.16. -बत् a. possessed of property; स्ववती श्रुत्यनुरोधात् ŚB. on MS.6.1.2. -वशa.

self-controlled.

independent. -वहित a.

self-impelled.

alert, active. -वासिनी a woman whether married or unmarried who continues to live after maturity in her father's house. -विग्रहः one's own body.-विषयः one's own country, home. -वृत्तम् one's own business. -वृत्ति a. living by one's own exertions.-संविद् f. the knowledge of one's own or the true essence.-संवृत a. self-protected, self-guarded; मायां नित्यं स्वसंवृतः Ms.7.14. -संवेदनम् knowledge derived from one's self.

संस्था self-abiding.

self-possession.

absorption in one's own self; उन्मत्तमत्तजडवत्स्वसंस्थां गतस्य मे वीर चिकित्सितेन Bhāg.5.1.13. -स्थ a.

self-abiding.

self-dependent, relying on one's own exertions, confident, firm, resolute; स्वस्थं तं सूचयन्तीव वञ्चितो$सीति वीक्षितैः Bu. Ch.4.37.

doing well, well, in health, at ease, comfortable; स्वस्थ एवास्मि Māl.4; स्वस्थे को वा न पण्डितः Pt.1.127; see अखस्थ also.

contented, happy. (-स्थम्) ind. at ease, comfortably, composedly. -स्थानम् one's own place or home, one's own abode; नक्रः स्वस्थानमासाद्य गजेन्द्रमपि कर्षति Pt.3.46. ˚विवृद्धिः (Mīmāṁsā) augmentation in its own place (opp. दण्डकलितवत् आवृत्तिः); तत्र पूर्णे पुनरावृत्तिर्नास्तीति दण्डकलितवद् न स्यात् । न च वृद्ध्या विना तद न्तरं पूर्यते इति स्वस्थानविवृद्धिरागतेति ŚB. on MS.1.5.83.-स्वरूपम् one's true character. -हन्तृ m. suicide. -हरणम् confiscation of property. -हस्तः one's own hand or handwriting, an autograph; see under हस्त. -हस्तिका an axe. -हित a. beneficial to oneself (-तम्) one's own good or advantage, one's own welfare. -हेतुः one's own cause.

Monier-Williams

स्व mf( आ)n. own , one's own , my own , thy own , his own , her own , our own , their own etc. (referring to all three persons accord. to context , often ibc. , but generally declinable like the pronominal सर्वe.g. स्वस्मैdat. स्वस्मात्abl. [optionally in abl. loc. sing. nom. pl. e.g. तं स्वाद् आस्याद् असृजत्, " he created him from his own mouth " Mn. i , 94 ] ; and always like शिवwhen used substantively [see below] ; sometimes used loosely for " my " , " thy " , " his " , " our " [ e.g. राजा भ्रातरं स्व-ग्रीहम् प्रे-षयाम्-आस, " the king sent his brother to his ( i.e. the brother's) house "] ; in the oblique cases it is used as a reflexive pronoun = आत्मन्, e.g. स्वं दूषयति, " he defiles himself " ; स्वं निन्दन्ति, " they blame themselves ") RV. etc.
स्व m. one's self , the Ego , the human soul W.
स्व m. N. of विष्णु MBh.
स्व m. a man of one's own people or tribe , a kinsman , relative , relation , friend( स्वाः, " one's own relations " , " one's own people ") AV. etc.
स्व n. ( ifc. f( आ). )one's self , the Ego( e.g. स्वं च ब्रह्म च, " the Ego and ब्रह्मन्")
स्व n. one's own goods , property , wealth , riches (in this sense said to be also m.) RV. etc.
स्व n. the second astrological mansion VarBr2S.

स्व n. (in alg. ) plus or the affirmative quantity W. [ cf. Gk. ? ; Lat. se , sovos , suus ; Goth. sik ; Germ. sich etc. ](N.B. in the following comp. -o own stands for one's own).

स्व Nom. P. स्वति( pf. स्वाम्-आस)= स्व इवा-चरति, he acts like himself or his kindred Vop. xxi , 7.
Purana index
--the third loka; Sva was uttered and divaloka came of; where Gandharvas, Apsaras, यक्षस्, Guhyakas, and नागस् live; intervening between सूर्य and Dhruva. Br. II. १९. १५५; २१. २१; IV. 2. २६-7; वा. १०१. १७-41.
Vedic Rituals Hindi
स्व पु.
(यजमान का) अपना भाई, का.श्रौ.सू. 15.5.28।

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Andreas - son of the river god peneus and founder of  orchomenos in Boeotia-----
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Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in  Thessaly
from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros ....

अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था
जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ ..
_____________________________
"डायोडॉरस के अनुसार .."
ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas)
रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था ।
  रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था ।
       ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus)
के नाम से एण्ड्रीज  प्रायद्वीप का नामकरण हुआ ..जो अपॉलो का पुजारी था ।
परन्तु पूर्व कथन सत्य है ।
ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द  का अर्थ
शक्ति-शाली  पुरुष है ।
जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner)
शब्द से हुई है ।
जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है।
संस्कृत भाषा में अन् श्वसने प्राणेषु च
के रूप में धातु विद्यमान है ।जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ...
कालान्तरण में संस्कृत भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ....
वेल्स भाषा में भी नर  व्यक्ति का वाचक है ।
फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।
परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है ।
  वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है ।
जिसे केल्टिक माइथॉलॉजी मे ए-बरटा ( Abarta )
कहा है ।
जो दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है ।
  इन्द्रस् आर्यों का नायक अथवा वीर यौद्धा था ।
भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है ।

शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के
सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु
       का पुत्र कहा है ।
जिसे इन्द्र मारता है ।
ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं ।
यद्यपि कालान्तरण मे आर्यों अथवा सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ...

       अत: कालान्तरण में भी  जब आर्य भू- मध्य रेखीय भारत भूमि में आये ... जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी ...
जो भारत नाम का कारण बना ...
इन से आर्यों को युद्ध करना पड़ा ...
     भारत में भी यूरोप से आगत आर्यों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है ।
और नरक दक्षिण में है । स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ...
और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं
यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ..
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है ।
    यमीर यम ही है ।
हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है
यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim)
शब्द हिम के लिए यथावत है।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir)
Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river ......
earth  from  his flesh and  from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair  the trees  from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives"
_________________________________________
          (Norse mythology prose adda)
    अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है।

यह हिम नद से उत्पन्न ,  नदी और समुद्र का अधिपति हो गया ।
पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग  जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए ...
    ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी ।
वहाँ यम को यम रूप में ही ..नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
     जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया
उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में ...
जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है,
यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी ।
बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाएें करते रहे .पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं आर्यों  अर्थात् देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था ।
आर्यों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ..*********🐌🌠🌚🌝मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् Mannus कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे !
मेन्नुस mannus थौथा (त्वष्टा)--- (Thautha ) की प्रथम सन्तान थे !
मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस

(tacitus) के अनुसार----
Tacitus wrote that mannus was the son of  tuisto and
The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones ....

________________________________________
    in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god  brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the  source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some  people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations-
Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania
____________________________________________
                           Chapter 2
  ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है ।
जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था
जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch)
था ।
जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव पर आधारित है ।
टेकिटिस लिखता है , कि
Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples......

   ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में
   *Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto---
The Core meaning -- double
अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ
   द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया
यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था
इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में ..
मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth)  अथवा  tehoti ,Djeheuty कहा गया
जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था ।
_________________________________________
आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l
जो देवता (सुर ) जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे ।
यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए *********** इन्हीं की उपशाखाएें वेल्स wels केल्ट celt तथा ब्रिटॉन Briton के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र ** का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है जो थौथा thuatha (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !) और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र--- (shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी ।
वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित  है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।
जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं
एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों

और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।
क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है ।
यूरोपीय
लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है ।
.......

बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ ।
आर्यों के ही कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ।
भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है ।
और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।
भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के एेंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था
और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।
     इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है
  दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी
      जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे।
जिसके नाम से भारत शब्द बना।

______________________________

    प्रस्तुत शोध ---
            योगेश कुमार रोहि के द्वारा
   प्रमाणित श्रृंखलाओं पर आधारित है !
अत: इनसे सम्पर्क करने के लिए ...
   सम्पर्क - सूत्र ----8077160219 ...

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