शुक्रवार, 25 मई 2018

सत्य तो यही है कि कृष्ण को ऋग्वेद में असुर अर्थात् अदेव कहा है । --- जो यमुना की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करते हैं । मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई खोज के अनुसार पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है। जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था । जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे। पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। पुराणों का सृजन बुद्ध के परवर्ती काल में हुआ ।

सत्य तो यही है कि कृष्ण को ऋग्वेद
में असुर अर्थात् अदेव कहा है ।
--- जो यमुना की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करते हैं ।
मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई खोज के अनुसार पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है।
जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था ।
जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। पुराणों का सृजन बुद्ध के परवर्ती काल में हुआ । और कृष्ण की कथाऐं इससे भी ---पुरानी हैं ।
इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं
वैसे भी अहीरों (गोपों )में कृष्ण का जन्म हुआ ;
और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) दौनो का समन्वय स्थापित करना -युक्ति युक्त हैं।
इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है।
द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू०  समय तक निर्धारित हैं।
इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है।
ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं ।
(ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के  तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है ।
परन्तु इन्द्र उपासक देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने   इन्द्र को पराजयी कभी नहीं दिखाया है ।
विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है  देखें---
अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् = सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० ।
अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है।
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-आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त । द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। 

ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गायें चराते है ।
संस्कृत भाषा में वाक्यांश का अर्थ है यमुनानदी की तलहटी में गायें चराते हुअ को -( चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:) चर धातु का मूल अर्थ  वैदिक काल में गो गौ-चारण से ही है ।
कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त  वरुण , अग्नि आदि का वाचक है-'
असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग 105 बार हुआ है।
उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'श्रेष्ठ' अर्थ में किया गया है और केवल 15 स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
---जो परवर्ती रूप ही है ।
'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है-
प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
असुरों को विश्व-इतिहास कारों ने असीरियन जन-जाति के रूप में वर्णित किया है। -
इरानी संस्कृति में असुर शब्द अहुर के रूप में श्रेष्ठ अर्थों को ध्वनित करता है । अहु का अर्थ ईरानी भाषाओं में प्राण है । और अहुर का अर्थ प्राणवान । असीरियन सेमेटिक होने से यहूदीयों के बान्धव भी हैं ।
सोम शब्द वस्तुत भारतीय पुराणों में साम वंश से विकसित हुआ ।
--- जो  सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित साम - हाम  दो पूर्व पुरुष हुए हैं ।
उन्हीं के आधार पर भारतीय पुराणों में चन्द्र वंशी और सूर्य वंशी की कल्पनाऐं की गयी है।
विशेषत:  वेदों में असुर शब्द इन्द्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इन्द्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है,
परन्तु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।

असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे ।
वस्तुत आर्य शब्द जन-जाति सूचक कभी नहीं रहा है
आर्य शब्द का मौलिक अर्थ - यौद्धा अथवा वीर का विशेषण। सत्य तो ये है कि असीरियन (असुर जन-जाति) का मिलन सुमेरियन संस्कृति के केन्द्र मैसॉपोटामिया की सरजमीं पर हुआ ।
  यद्यपि ईरानी तथा देव संस्कृति के अनुयायी दौनों वीर जन-जातियाँ का मिलन अजरवेज़ान की  समीप वर्ती क्षेत्रों में हुआ । ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता ए जैन्द में अजरवेज़ान का वर्णन आर्यन-आवास अथवा वीरों का निवास के रूप में है । यह स्थान वर्तमान में सॉवियत रूस का सदस्य देश है ।
जिसकी सीमाऐं दाहिस्तान Dagestan तथा तुर्की को स्पर्श करती हैं ।
ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी द्रविड संस्कृति से अधिक प्रभावित हैं ।
ईरानी संस्कृति में द्रुज़ Druze जन-जाति दॉरेजी अथवा दरज़ी कहलायी है ।
सुर जन जाति स्वीडन के अधिवासी स्वीअर( Sviar) जर्मनिक जन-जातियाें का उत्तरीय कबीला है ।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का
('दएव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया।

फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ ;
जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।
(ऋक्. १०।१३८।३-४)  शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।

(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)
ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।

पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है।
पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे ।
नना असीरियन राजधानी थी । और असुर लोग स्वभाव से ही शक्ति (असु) से युक्त ।
वीर यौद्धा तथा कला प्रेमी तो थे ही परन्तु शत्रुओं के साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार करने में  नहीं चूकते थे । यहूदीयों और असुरों तथा फॉनिशियन लोगे के देवता समान थे ।
जैसे- बल , मृडीक अथवा मृड मृलीक , त्वष्टा ,दनु  यम आदि ... असीरियन यहू के बान्धव होने से सेमेटिक अथवा साम के कबीले के है ।
इसी लिए भारतीय पुराणों में यादवों को असुर , (असीरियन) दस्यु अथवा दास कहकर मधु असुर का वंशज भी वर्णित किया है;
और सोम का अर्थ चन्द्रमा करके उन्हें चन्द्र वंशी बना दिया ।
जबकि चन्द्रमा पृथ्वी का 1/4 भाग जल तथा वायुसे विहीन उप ग्रह मात्र निर्जीव पिण्ड है ।
जिस पर जीवन भी असम्भव है ; फिर यह कहना कि यादव चन्द्र वंशी हैं हास्यास्पद बातों के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।
यादव की परम्पराओं में मधु को पुराण यदु का पुत्र रूप में वर्णन करते हैं ।
जिसने मधुरा (मथुरा) नगर बसाया ।
परन्तु मधु एक असीरियन यौद्धा अथवा वीर था ।
यद्यपि बाद में काल्पनिक रूप से यदु के पुत्र को मधु वर्णित किया परन्तु समाधान संदिग्ध रहा ।
क्योंकि (मधुपर) अथवा मथुरा मधु दैत्य के आधार पर नामित है।
और यह यादवों की प्राचीनत्तम राजधानी है; इसी लिए इन्हें सेमेटिक सोम वंश का कहा जाता है पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को वेदों में असुर कहा जाना आश्चर्य की  बात नहीं है ।
क्योंकि उनके पूर्वज यदु को सम्पूर्ण वैदिक सन्दर्भों में 
हेय रूप में वर्णित किया है ।
यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें-
जो यदु को दास अथवा असुर कहती है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(१०/६२/१०ऋग्वेद ) 😎

इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं
जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
जब यदु को ही वेदों में दास अथवा शूद्र कहा है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
  वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है। वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है ।
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी  यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तमभी ह!
देखें---अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों  (यहूदीयों ) को  शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं 
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है।
  देखें-सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि ।
(ऋग्वेद ८/४६/२७
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७  अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है
किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां  श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में  दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे;जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें-ऋग्वेद में शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा यादवं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
इन वर्णों मे यदु को क्षत्रिय नहीं कहा गया
तो फिर यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ।
और -जो खुद को क्षत्रिय अथवा राजपूत अथवा ठाकुर  कहता है वह विदेशी अवश्य है ।
  यदुवंशी कभी नहीं  वेदों मे कभी यदु वंशीयों के आदि पुरुष यदु को दास अथवा असुर कहकर वर्णित किया है

इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं
जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
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  यादव योगेश कुमार  'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय-पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़---उ०प्र०

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5 टिप्‍पणियां:

  1. अहीर/गोप /यादव प्रत्येक काल खण्ड में शासक जाति रही है । अतः इनका स्वाभिमान पूर्ण इतिहास सत्य के आधार पर अपने विवेक से लिखने की कृपा करें । जिससे आने वाली पीढ़ियां भविष्य में शिक्षा ग्रहण कर आगे बढ़ सकें । वेदों में श्री कृष्ण को इन्द्र द्वारा हनन करने का झूठा उल्लेख किया गया है । श्रीकृष्ण मथुरा से द्वारका तथा महाभारत के काल खण्ड के बाद तक रहे । इस काल खण्ड में इन्द्र क्या करता रहा और कहां रहा ? कृपया लिखें ।

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    1. कुछ नही भाई ये बकबास कर रहा है ।
      ऋग्वेद 1500BC में लिखा गया और OLD NCERT के अनुसार इसकी रचना अफगानिस्तान और पंच नदियों के क्षेत्र(पंजाब) में हुआ ।

      जबकि महाभारत के युद्ध OLD NCERT (रामवतार शर्मा द्वारा लिखित) के अनुसार 950 BC में हुआ जो हस्तिनापुर(मेरठ) में कुरुकुल के पांडवो & कौरवो के बीच हुआ । भगवान श्री कृष्ण का सम्बंध महाभारत काल से है।

      इसप्रकार ऋग्वेद की रचना काल और रचनास्थल एवम महाभारत युद्ध के समय और युद्ध भूमि दोनों ही भिन्न है

      ऋग्वेद की रचना तो महाभारत यूद्ध से 350 से 400 वर्ष पहले हो गई ।
      फिर महाभारत के श्री कृष्ण ऋग्वेद में किधर से आ गए ?

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  2. उन्होंने हमे दास कह दिया,लिख दिया हम मान गए। उन्होंने हमे तीन गुण से विहीन कह दिया हम मान गए। उन्होंने हमे अहीर भोंग कह दिया हम मान गए आदि आदि। पहले उनके कहने लिखने और बताने पर भरोसा करना छोड़े,उनकी लिखी व कही बातों पर विश्वास करना छोड़े, तमाम पूर्वाग्रहों से बाहर आकर अपने गुणों, अपनी प्रकृति और अपनी संस्कृति पर पूर्ण यकीन किया जाय। और कृष्ण मेरे आदर्श, भगवत गीता मेरा दर्शन क्योंकि उस पर चल कर ही व्यक्ति मजबूत व्यक्तित्व का बनाता है और लोकतंत्र का आधार ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की मजबूती पर टिका है, फिर समाजवादी लोकतंत्र की स्थापना में विश्वास ही यादव की उन्नति का मार्ग है। यही यादवों का आधार होना चाहिए। जय कृष्ण जय समाजवाद जय लोकतंत्र।

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  3. जहां तक श्री कृष्ण के अनार्य होने का प्रश्न है तो हिन्दू धर्म के चारो वर्ण में कोई अनार्य नही है ।
    क्योंकि आर्य एक प्रजाति माना गया जिनका शक्ल सूरत आकर प्रकार एक जैसा था ।
    आज भी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य या तथाकथित शूद्र इसमें से कोई अनार्य नही है क्योंकि ये देखने मे कहि से भिन्न प्रजाति के नही लगते ।
    अनार्य संभवतः वे लोग है जो बिल्कुल ही भिन्न प्रजाति के है जिनका शक्ल सूरत नाक नक्श बहुसंख्यक से बिल्कुल ही भिन्न है
    इसमें पहाड़ी जनजाति और आदिवासी को माना जा सकता है ।
    अखिलेश यादव तो कृष्ण के वंश के है या उनके पिता मुलायम लेकिन वो किस दृष्टिकोण से ब्राह्मणों से शक्ल सूरत में भिन्न है
    या चिराग पासवान तो दलित है न । तो यह बंदा यूरोपीय नस्ल का क्यों दिखता है ?

    ये तो हुई प्रजाति की बात लेकिन वास्तव में ग्रंथो में आर्य उन्हें बताया गया है जिनका कर्म और व्यक्तित्व श्रेष्ठ हो ।
    आर्य कोई भी हो सकता है ।

    इसलिए राम कृष्ण बुद्ध महावीर के इतिहास जानने का प्रयास कर रहे हो तो इन टूटे फूटे बिना कोई सन्दर्भ वाले तथ्यों से भरे आर्टिकल पढ़ने से कुछ नही होगा ।
    पूरा जीवन निकल जायेगा 2600BC से अब तक कि संस्कृति के अध्ययन में ।
    और रही ऋग्वेद में श्री कृष्ण के वर्णन की बात तो ऋग्वेद 1500 BC के आसपास लिखा गया वही राम अवतार शर्मा की प्राचीन भारत (Old NCERT) नामक पुस्तक में कुरू कुल के पांडवो और कौरवों के बीच महाभारत युद्ध का वर्णन 950BC का बताया गया है ।
    श्री कृष्ण का सम्बन्ध भी महाभारत काल से है और कोई मानव अधिकतम 100 वर्ष से अधिक जीवित नही रह सकता है इसलिए ऋग्वेद में श्री कृष्ण का होना बस एक अतिश्योक्ति प्रतीत होता है ।

    वही वास्तव में महाभारत और रामायण का लेखन 300ईसवी के बाद गुप्तकाल में हुआ अब तक ये लोककथाओं के रूप में ही प्रचलित था ।

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