बुधवार, 30 मई 2018

👍सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करने वाले ऋग्वेद के पुरूष सूक्त की वास्तविकता । वैदिकभाषा (छान्दस्) और लौकिक भाषा (संस्कृत) आमने-सामने।

👍सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करने वाले ऋग्वेद के पुरूष सूक्त की वास्तविकता ।
वैदिकभाषा (छान्दस्) और लौकिक भाषा (संस्कृत) आमने-सामने।
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ऋग्वेद हो चाहे अन्य कोई आप्तग्रन्थ सभी में जनमानस को दिग्भ्रमित करने वाली प्रमाण रूप बातों को बहुत ही सफाई से समाज के सम्मुख ब्राह्मणों ने पेश किया है! लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन करने वाले ग्रन्थ हों सम्भव नहीं ! सब के सब जनता को गुमराह करने के लिए एक अतिशयोक्ति और चाटूकारिता भरी कल्पना मात्र हैं,जो लोगों को मानवता के पथ से विचलित कर रूढ़िगत मार्ग पर ले जाती हैं।

जैसे आपका ऋग्वेद जो अपौरुषेय वाणी बना हुआ भारतीय जनमानस  के मस्तिष्क पटल पर दौड़ लगा रहा है ! वह भी पारसीयों ( ईरानीयों) के सर्वमान्य ग्रन्थ जींद ए अवेस्ता का  परिष्कृत संस्कृत रूपान्तरण है।दोनों में काफी साम्य देखने को मिलता है,
-जैसे यम विवस्वत् का पुत्र है । वृत्रघ्न , त्रित त्रितान अहिदास सोम वशिष्ठ अथर्वा, मित्र आदि को क्रमश यिम विबनघत वेरेतघन सित, सिहतान अजिदाह हॉम वहिश्त अथरवा मिथ्र आदि 
दौनों की घटनाओं का भी समायोजन है ।
ऋग्वेद की प्रारम्भिक ऋचाओं का प्रणयन अजरवेज़ान ( आर्यन-आवास ) रूस तथा तुर्की के समीर वर्ती क्षेत्रों में हुआ ।
और दौनों -ग्रन्थों में जो विषमताएं देखने को मिलती हैं जाहिर सी बात है कि जब ग्रन्थ की रचना यहाँ के लोगों द्वारा परिष्कृत रूप व भाषा में हुई तो वैषम्य भी रहेगा ही।

और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करता है उसके 12 वें मंत्र (ऋचा) जो  चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है कि-
यही ऋचा यजुर्वेद सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
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ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)

इसमें प्रयुक्त क्रिया (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचनम् द्विवचनम् बहुवचनम् प्रथमपुरुषःअजायत अजायेताम् अजायन्त मध्यमपुरुषःअजायथाः अजायेथाम् अजायध्वम् 

उत्तमपुरुषः अजाये अजायावहि अजायामहि



अजायावहि    लकार का प्रयोग हुआ है और इसका प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरे मंत्रों में है,तो इससे यह बात खुद ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है जो कालांतर में ब्राह्मणों के द्वारा वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है और वेद में सिर्फ और सिर्फ लेट लकार का प्रयोग होता है जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है।वह बात अलग है कि कोई रचनाकार ग्रन्थ लिखते समय वैदिक वर्णन स्थलों में लेट लकार का प्रयोग कर दिए हों या आगे करें।

   

प्रथमपुरुषःजज्ञेजज्ञातेजज्ञिरे
मध्यमपुरुषःजज्ञिषेजज्ञाथेजज्ञिध्वे
उत्तमपुरुषःजज्ञेजज्ञिवहेजज्ञिमहे 


वैदिक शब्दों के प्रयोग जैसे-
जनासः,इन्द्रास् ,देवास्,ऋतावा, ईयते,ओजसा,जायेम,जीवसे,विधेम आदि आदि जिसमें पाणिनि व्याकरण की दूर दूर तक कोई सुनवाई नहीं है।

इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व में चतुराई से चली गई गहरी साजिश है । जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया।
@रामजीत यादव एवं योगेश कुमार 'रोहि'

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