गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

भड़ुआ...

हिन्दी में अशोभनीय माना जाता है। ऐसे कई शब्द गाली समझे जाते हैं। हालाँकि इन शब्दों के मूल में किसी तरह का अशोभनीय संकेत नहीं होता है। ऐसा ही एक शब्द है भाड़ू। परिनिष्ठित हिन्दी में यह शब्द निषिद्ध है किन्दु आंचलिक बोलियों में इसका खूब प्रयोग होता है साथ ही बोलचाल की ज़बान में भी यह ज़िन्दा है। गली मोहल्लों में आज भी ठसके से लोग इसका प्रयोग करते हैं। हालाँकि भाड़ू शब्द की अर्थवत्ता विशाल है मगर इसका इस्तेमाल बहुत सीमित अर्थ में किया जाता है। भाड़ू का आज सीधा सा अर्थ है वेश्या की कमाई खानेवाला यानी दलाल या दल्ला। भाड़ू वह भी है जो रूपजीवाओं का सौदा कराता है और उसके बदले में पैसे लेता है। इसी तरह भाड़ू उसे भी कहते हैं जो अपने घर की स्त्रियाँ किसी ओर को उपभोग के लिए सौंपता है और बदले में कोई राशि प्राप्त करता । दलाली या कमीशन पर पलते व्यक्ति को समाज में हमेशा ही नीची निगाह से देखा जाता है। इस नज़रिये से देखें तो भाड़ू का रिश्ता स्त्री, वेश्या अथवा देहव्यापार से बाद में जुड़ता है, सबसे पहले आता है कमीशन, दलाली या किराया। भाड़ू शब्द बना है भाड़ा शब्द से जिसका अर्थ है किराया। भाड़ा शब्द बना है संस्कृत के भाटकः से जिसका रूपान्तर भाटक > भाड़अ > भाड़ा हुआ। भाड़े पर काम करनेवाले के अर्थ में हिन्दी में एक अन्य शब्द भी प्रचलित है-भाड़ैती या भाड़ौती मगर इसकी अर्थवत्ता में नकारात्मक कुछ नहीं है। मराठी में तो किराएदार के लिए भाड़ैती शब्द प्रचलित है। दरअसल दलाली या कमीशनखोर के अर्थ में ही भाड़ा से बने भाड़ शब्द में जब खाऊ प्रत्यय लगा तब इसकी अर्थवत्ता बदली। भाड़खाऊ > भाड़ऊ > भाड़ऊ > भाड़ू कुछ इस क्रम में भाड़खाऊ से भाड़ू का विकास हुआ है। मराठी और हिन्दी दोनों में ही भाड़खाऊ शब्द चलता था, अब सिर्फ़ भाड़ू रह गया है। इसी शृंखला का शब्द है भड़वा या भड़ुआ जो भाड़ू या भाड़खाऊ से हटकर घोषित गाली है और इसका अर्थ रण्डी का दलाल ही होता है। दलाली या कमीशनखोरी के दायरे में देखें तो कोई नेता, कमीशनएजेंट, आयकर-विक्रयकर सलाहकार, हथियारों का दलाल, किसी चेन से जुड़े सभी डॉक्टर, अध्यापक, पत्रकार, वकील सब भाड़ू हैं क्योंकि किसी न किसी स्तर पर ये सब दलाली कर रहे हैं, दलाली कमा रहे हैं और दलाली खा रहे हैं। मगर इन्हें भाड़ू कहा नहीं जा सकता। भाटक शब्द से और भी कई शब्द बने हैं जैसे भू-भाटक अर्थात ज़मीन का किराया अथवा ज़मीन का सालाना लगान। भाटक से बना है मराठी का भाटि शब्द जिसका अर्थ स्पष्टतः व्यभिचार का पैसा है। ये सफर आपको कैसा लगा ? पसंद आया हो तो यहां क्लिक करें अजित वडनेरकर पर 8:43 PM Share 11 comments: प्रवीण पाण्डेयMarch 9, 2011 at 9:04 PM शब्दों का अर्थपतन होता है। Reply स्वप्नदर्शीMarch 10, 2011 at 6:19 AM अजित जी, उम्मीद है की शब्दों का सफ़र को पुष्तक रूप में देखना ज़ल्दी होगा. इंडो यूरोपियन भाषा परिवार जिसकी संस्कृत और हिंदी, फारसी, अरबी, उर्दू, एइरेमक, हिब्रू , भी मेंबर है उसको जोड़ने का आपका प्रयास निसंदेह हिन्दी में बहुत अच्छा है. अचानक एक मित्र से बातचीत के बीच ख्याल आया की हिंदी का द्रविण भाषाओँ, और आदिवासी बोलियों से किस तरह का सम्बन्ध है. उन सब बोलियों से जो हिंदी और संस्कृत से ज्यादा पुरानी है. और जिनकी उत्पत्ति भारत की है, उन्होंने स्वतंत्र रूप से हिंदी (संस्कृत) में क्या जोड़ा है? निश्चित रूप से संस्कृत के बहुत से शब्द तमिल, तेलगू, मलयाली, कन्नड़ में बहुतायत में है. अगर संस्कृत द्रविण भाषा में समाहित हुयी तो ये यात्रा कुछ उल्टी दिशा में भी हुयी होगी. कुछ नए शब्द भी बने होंगे. आपसे गुजारिश है अपनी इस यात्रा की समान्तर पर दूसरी दिशा से आने वाली सड़क पर भी नज़र रखे, जहां तक संभव हो. दुसरे मित्र जिनकी कुछ गति द्रविण भाषाओँ में है, अजित जी की मदद करे. एक बहुत समृद्ध रिसोर्स की ज़मीन बन सकती है. हज़ार और सपने क्यूँ न देखे जाय? Reply संतोष त्रिवेदीMarch 10, 2011 at 8:44 AM शब्दों के रचयिता हमीं हैं और उनके अर्थ-अनर्थ की जिम्मेदारी भी हमारी है ! *केवल आपके लिए- बहुत दिन से आपकी तलाश में था ,आखिर पा ही लिया ! Reply Mansoor AliMarch 10, 2011 at 9:08 AM अपने चारो तरफ ही 'भाड़ू' है, कोई साली न कोई साढ़ू है, फुल है पॉकेट 'सफ़ेद पोशो'* के, *[Agents] और 'भड़ुए' के हाथ झाड़ू है ===================== [दिन हुए है करीब होली के, आलू आते नज़र गड़ाढ़ू* है!!!] * {भंगेरियो को } -मंसूर ali हाश्मी http://aatm-manthan.com Reply अजित वडनेरकरMarch 10, 2011 at 3:23 PM स्वप्नदर्शीजी, आपका सुझाव बहुत अच्छा है। गौर करें कि मैं अक्सर शब्द व्युत्पत्ति के संदर्भ में सफ़र को विभिन्न भाषा परिवारों के नज़दीक ले जाता हूँ। द्रविड़ परिवार से भी अगर किसी शब्द के संदर्भसूत्र जुड़ते हैं तो उसका हवाला यहाँ होता है। अपने काम का दायरा अब मैं मराठी के जरिये बढ़ा रहा हूँ। मराठी ही वह कड़ी है जिसके जरिये दक्षिणी भाषाओं के शब्दो का आगमन उत्तर की ज़बानों में हुआ। Reply dhiru singh {धीरू सिंह}March 10, 2011 at 5:01 PM सब नेता भाडू नही होते . ....... Reply महफूज़ अलीMarch 10, 2011 at 6:18 PM आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला है.... Reply Bhoopendra a media manMarch 12, 2011 at 9:32 PM घोटाला शब्द के विषय में जानने की तीब्र इच्छा है. आप से बड़ी उम्मीद है Reply रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा"March 15, 2011 at 1:54 PM शकुन्तला प्रेस कार्यालय के बाहर लगा एक फ्लेक्स बोर्ड देखे.......http://shakuntalapress.blogspot.com/2011/03/blog-post_14.html क्यों मैं "सिरफिरा" था, "सिरफिरा" हूँ और "सिरफिरा" रहूँगा! देखे.......... http://sach-ka-saamana.blogspot.com/2011/03/blog-post_14.html आप सभी पाठकों और दोस्तों से हमारी विनम्र अनुरोध के साथ ही इच्छा हैं कि-अगर आपको समय मिले तो कृपया करके मेरे (http://sirfiraa.blogspot.com , http://rksirfiraa.blogspot.com , http://shakuntalapress.blogspot.com , http://mubarakbad.blogspot.com , http://aapkomubarakho.blogspot.com , http://aap-ki-shayari.blogspot.com , http://sachchadost.blogspot.com, http://sach-ka-saamana.blogspot.com , http://corruption-fighters.blogspot.com ) ब्लोगों का भी अवलोकन करें और अपने बहूमूल्य सुझाव व शिकायतें अवश्य भेजकर मेरा मार्गदर्शन करें. आप हमारी या हमारे ब्लोगों की आलोचनात्मक टिप्पणी करके हमारा मार्गदर्शन करें और अपने दोस्तों को भी करने के लिए कहे.हम आपकी आलोचनात्मक टिप्पणी का दिल की गहराईयों से स्वागत करने के साथ ही प्रकाशित करने का आपसे वादा करते हैं # निष्पक्ष, निडर, अपराध विरोधी व आजाद विचारधारा वाला प्रकाशक, मुद्रक, संपादक, स्वतंत्र पत्रकार, कवि व लेखक रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" फ़ोन:9868262751, 9910350461 Reply रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा"March 18, 2011 at 1:36 PM दोस्तों! अच्छा मत मानो कल होली है.आप सभी पाठकों/ब्लागरों को रंगों की फुहार, रंगों का त्यौहार ! भाईचारे का प्रतीक होली की शकुन्तला प्रेस ऑफ़ इंडिया प्रकाशन परिवार की ओर से हार्दिक शुभमानाओं के साथ ही बहुत-बहुत बधाई! Reply Dr. S S JaiswalMarch 19, 2011 at 4:45 PM अजित वडनेरकर में प्रतिभा के स्फुलिंग मुझे वर्षों पूर्व तब दिखे थे जब उन्हें गीत-ग़ज़ल गाते हुए सुना. कुछ गज़लें तो मैं उनसे जब भी मिलते, फरमाइश करके सुनता था. उनकी अपनी कविताओं में भी होनहार होने के ढेर सारे सबूत मैंने देखे थे. इधर वर्षों से उनसे संपर्क कम हो गया है. 'शब्दों का सफ़र' देखकर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. उनके मामा जी (डाक्टर कमलकांत बुधकर) से मैंने अपनी भावना साझा की. विद्यार्थी जीवन में डॉ. विद्या निवास मिश्र का 'दिनमान' में एक स्तम्भ हम पढ़ा करते थे. उसमें वे विभिन्न अवसरों पर या क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले भोजपुरी के शब्दों की जड़ें संस्कृत से ढूंढ कर लाते थे. अजित वडनेरकर कुछ और, कुछ अधिक कर रहे हैं. हमारे जैसे उनके शुभेच्छुओं के गदगद होने की बारी है. बधाई, शुभकामनाएं और ढेर सारा आशीष. उनके ब्लाग्स, उनकी पुस्तक को थोड़ा और पढ़ने के बाद कुछ विशेष रूप से और शायद ज़्यादा अच्छा कहना हो पायेगा. शिव शंकर जायसवाल Reply

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें