सोमवार, 10 अप्रैल 2017

पारसी धर्म ....


           (अवेस्ता का एक परिचय )

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जिस भाषा के माध्यम का आश्रय लेकर जरथुस्त्र धर्म (पारस इरान) का मूल धर्म) का विशाल साहित्य निर्मित हुआ है उसे अवेस्ता कहते हैं। अवेस्ता या "ज़ेंद अवेस्ता" नाम से भी धार्मिक भाषा और धर्म ग्रंथों का बोध होता है। उपलब्ध साहित्य में इसका प्रमाण नहीं मिलता कि पैंगंबर अथवा उनके समकालीन अनुयायियों के लेखन अथवा बोलचाल की भाषा का नाम क्या था। परंतु परंपरा से यह सिद्ध है कि उस भाषा और साहित्य का भी नाम "अविस्तक" था। अनुमान है कि इस शब्द के मूल में "विद्" (जानना) धातु है जिसका अभिप्राय ज्ञान अथवा बुद्धि है। इतिहास संपादित करें बहुत प्राचीन काल में आर्य जाति अपने प्राचीन आवास "आर्य वजेह" (आर्यों की आदिभूमि) में रहा करती थी जो सुदूर उत्तरी प्रदेश में अवस्थित था "जहाँ का वर्ष एक दिन के बराबर" होता था। उस स्थान को निश्चयात्मक रूप से बतला पाना कठिन है। बाल गंगाधर तिलक ने अपने ग्रंथ "दि आर्कटिक होम" में इस भूमि को उत्तरी ध्रुव प्रदेश में बतलाया है जहाँ से आर्यों ने पामीर की श्रृखंला में प्रवास किया। बहुत समय पर्यंत एक सुगठित जन के रूप में वे एक स्थान में रहे, एक ही भाषा बोलते, विश्वासों, रीतियों और परंपराओं का समान रूप से पालन करते रहे। जनसंख्या में वृद्धि तथा उत्तरी प्रदेश के शीत तथा अन्य कारणों ने उनकी श्रृंखला छिन्न-भिन्न कर दी। आर्यजन के विविध कुलों में दो कुलों के लोग, जो आगे चलकर भारतीय (इंडियन) और ईरानी शाखाओं के नाम से विख्यात हुए, पूर्वी ईरान में दीर्घ काल तक और निकटतम संपर्क में रहे। आगे चलकर एक जत्थे ने हिंदूकुश की पर्वमाला पार कर पंजाब के लगभग 2000 ई.पू. प्रवेश किया। शेष जन आर्यों की आदिभूमि की परंपरा का निर्वाह करते हुए ईरान में ही रह गए। अवेस्तास, विशेषत:अवेस्ता के गाथासाहित्य और वैदिक संस्कृत में निकटतम समानता वर्तमान है। भेद केवल ध्वन्यात्मक (फ़ोनेटिक) और निरुक्तगत (लेक्सिकोग्राफ़िकल) हैं। दो बहन भाषाओं के व्याकरण और रचनाक्रम (सिंटैक्स) में भी निकट साम्य है। ईरान और भारत दोनों ही देशों में लेखन के आविष्कार के पूर्व मौखिक परंपरा विद्यमान थी। अवेस्ता ग्रंथों में मौखिक शब्दों, छंदों, स्वरों, भाष्यों एवं प्रश्नों और उत्तरों का उल्लेख हुआ है। एक ग्रंथ (यस्न, 29.8) में अहुरमज्द अपने संदेशवाहक ज़रथुस्त्र को वाणी की संपत्ति प्रदान करते हैं क्योंकि "मानव जाति में केवल उन्होंने ही दैवी संदेश प्राप्त किया था जिन्हें मानवों के बीच ले जाना था।" ज्ञान के देवता ने उन्हें सच्चा "अथ्रवन" (पुरोहित) कहा है जो सारी रात ध्यानावस्थित रहकर और अध्ययन में समय बिताकर सीखे गए पाठ को जनता के बीच ले जाते हैं। प्राचीन भारत के ब्राह्मणों की तरह अथ्रवन ही प्राचीन ईरान में शिक्षा तथा धर्मोपदेश के एकामत्र अधिकारी समझे जाते थे। इन पुराहितों में वंशानुगत रूप में धर्मग्रंथों की मौखिक परंपरा चली आया करती थी। पैगंबर के स्तवन गाथाएँ गाथा में, जो बोलचाल की भाषा थी, पाए जाते हैं और जनश्रुति तथा शास्त्रीय साहित्य के अनुसार ज़रथुस्त्र को अनेक ग्रंथों का रचयिता बतलाया जाता है। अरब इतिहासकारों का कथन है कि ये ग्रथ 12,000 गाय के चर्मों पर अंकित थे। प्राचीन ईरानी तथा आधुनिक पारसी लेखकों के अनुसार पैंगंबर ने 21 "नस्क" अथवा ग्रंथ लिखे थे। ऐसा कहा जाता है कि सम्राट् विश्तास्प ने दो यथातथ्य अनुलेख इन ग्रंथों का कराकर दो पुस्तकालयों में संगृहीत किया था। एक अनुलेखवाली सामग्री अग्नि में भस्म हो गई जब पर्सापालिस का राजप्रासाद सिकंदर ने जला दिया और दूसरी अनुलेख की समग्री साहित्यिक विवरणों के आधार पर विजेता सैनिक अपने देश को लेते गए जहाँ उसका अनुवाद यूनानी भाषा में हुआ। प्रारंभिक ससानी काल में संग्रहीत ये बिखरे हुए ग्रंथ फिर सातवीं शती में ईरानी साम्राज्य के ह्रास के कारण विलुप्त होकर कुल साहित्य वर्तमान समय में लगभग 83,000 पद्यों में उपलब्ध रह गया है जब कि मौलिक पद्यों की संख्या 20,00,000 थीं, जिसके बारे में प्लिनी का कथन है कि महान दार्शनिक हर्मिप्पस ने ईसा की शताब्दी के प्रारंभ से तीन शती पूर्व अध्ययन कर डाला था। अवेस्ता भाषा का धीरे-धीरे अखामनी साम्राज्य के ह्रास के कारण उत्पन्न हुए ईरान में उथल-पुथल के कारण ह्रास प्रारंभ हो गया। जब उसका प्रचार बिलकुल लुप्त हो गया, अवेस्ता ग्रंथों के अनुवाद और भाष्य "पहलवी" भाषा में प्रस्तुत किए जाने लगे। इस भाषा की उत्पत्ति इसी काल में हुई जो ससानियों की राजभाषा बन गई। उन भाष्यों को पहलवी में ज़ेंद कहा जाता है और व्याख्याएँ अब "अवेस्तक-उ-ज़ेंद अथवा अवेस्ता तथा उसके भाष्य के नाम से विख्यात हैं। विपर्यय से इसी को "ज़ेंद-अवेस्ता" कहा गया। अनुमान किया गया है कि धार्मिक विषयों पर रचित पहलवी ग्रंथ, जो विनाश से बचे रहे उनकी शब्दसंख्या 4,46,000 के लगभग होगी। पहलवी का प्रचार आधुनिक पारसी वर्णमाला के प्रारंभ से बिलकुल कम हो गया। उसका लिखित स्वरूप आर्य एवं सामी बनावट का मिश्रण था। सामी शब्दों को हटाकर उनके स्थानों में उनका ईरानी पर्यायवाची शब्द रखकर उसका साधरणीकण किया गया था। कालांतर में पहलवी ग्रंथों को जब समझाने की आवश्यकता का अनुभव किया गया, हुज़वर शब्दों को हटाकर उनके स्थान पर ईरानी पर्यायवाची रखकर दुरूह पहलवी भाषा भी सीधी बनाई गई। अपेक्षाकृत सरल की गई भाषा और आगे रचित भाष्य एवं व्याख्याएँ "पज़ंद" (अवेस्ता की पैंती-ज़ैंती) के नाम से विख्यात हुई। पज़ंद के ग्रंथ अवेस्ता वर्णमालाओं में अंकित हुए जिस प्रकार ईरान में अरबी वर्णमाला के साथ पहलवी लिपि का ह्रास हुआ। पज़ंद भाषा ही आगे चलकर पहलवी तथा आधुनिक फारसी के बीच की कड़ी बनी। अंतिम ज़रथुस्त्र साम्राज्य के ह्रास के अनंतर विजेताओं की अरबी लिपि ने अवेस्ता की पहलवी लिपि को उत्क्षिप्त कर दिया। अरबी अक्षर आधुनिक फारसी वर्णमाला के अक्षर मान लिए गए जिसका प्रचार हुआ। ग्रंथरचना जब अवेस्ता में होती थी तो उसे "पज़ंद" कहते थे और जब पुस्तक अरबी अक्षरों में लिपिबद्ध होने लगी, उसे "पारसी" कहने लग गए। अवेस्ता के जो ग्रंथ पैगंबर के अनुयायियों के पास अवशिष्ट हैं अपने सामी रूप में पाए जाते हैं। वे ऐसे अक्षरों में मिलते हैं जो ससानी पहलवी से लिए गए हैं, जिनका मूल आधार संभवत: प्राचीन अरमेक वर्णमाला का कोई न कोई प्रकार है। यह लिपि दाहिनी ओर से बाई ओर को लिखी जाती है और इसमें प्राय: 50 भिन्न चिह्नों (साइन्स) का समावेश पाया जाता है। ज़रथुस्त्र मतावलंबी ईरान लगभग पाँच शती पर्यंत सिल्यूसिड और पार्थियन शासनों के अन्तर्गत रहा। धार्मिक ग्रंथों की मौखिक वंशक्रमानुगत परंपरा ने लुप्तप्राय ग्रंथों के पुररुद्धार के कार्य को सरल कर दिया। ससानी साम्राज्य के संस्थापक अर्दशिर ने विद्वान् पुरोहित तनसर के बिखरे हुए सूत्रों को, जो मौखिक रूप से प्रचलित थे, एक प्रामाणिक संग्रह में निबद्ध करने का आदेश किया था। ग्रंथों की खोज शापुर द्वितीय (309-379 ई.) के राजत्वकाल पर्यंत होती रही जिसमें प्रसिद्ध दस्तूर अदरबाद महरस्पंद की सहायता सराहनीय है। अवेस्ता साहित्य संपादित करें अवेस्ता युग की रचनाओं में प्रारंभ से लेकर 200 ई. तक तिथिक्रम से आनेवाली सर्वप्रथम रचनाएँ "गाथाएँ" हैं जिनकी संख्या पाँच है। अवेस्ता साहित्य के वे ही मूल ग्रंथ हैं जो पैगंबर के भक्तिसूत्र हैं और जिनमें उनका मानव का तथा ऐतिहासिक रूप प्रतिबिंबित है, न कि काल्पनिक व्यक्ति का, जैसा कि बाद में कुछ लेखकों ने अपने अज्ञान के कारण उन्हें अभिव्यक्त करने की चेष्टा की है। उनकी भाषा बाद के साहित्य की अपेक्षा अधिक आर्ष है और वाक्यविन्यास (सिंटैक्स), शैली एवं छंद में भी भिन्न है क्योंकि उनकी रचना का काल विद्वानों ने प्राचीनतम वैदिक मंत्रों की रचना का समय निर्धारित किया है। नपे तुले स्वरों में रचे होने के कारण वे सस्वर पाठ के लिए ही हैं। उनमें न केवल गूढ़ आध्यात्मिक रहस्यानुभूतियाँ वर्तमान हैं, वे विषयप्रधान ही न होकर व्यक्तिप्रधान भी हैं जिनमें पैगंबर के व्यक्तित्व की विशेष रूप से चर्चा की गई है, उनके ईश्वर के साथ तादात्म्य स्थापित करने और उस विशेष अवस्था के परिज्ञान के लिए वांछनीय आशा, निराशा, हर्ष, विषाद, भय, उत्साह तथा अपने मतानुयायियों के प्रति स्नेह और शत्रुओं से संघर्ष आदि भावों का भी समावेश पाया जाता है। यद्यपि पृथ्वी पर क मनुष्य का जीवन वासना से घिरा हुआ है, पैगंबर ने इस प्रकार शिक्षा दी है कि यदि मनुष्य वासना का निरोध कर सात्विक जीवन व्यतीत करे तो उसका कल्याण अवश्यभावी है। गाथाओं के बाद "यस्न" आते हैं जिनमें 72 अध्याय हैं जो "कुश्ती" के 72 सूत्रों के प्रतीक हैं। कुश्ती कमरबंद के रूप में बुनी जाती है जिसे प्रत्येक ज़रथुस्त्र मतावलंबी "सूद्र" अथवा पवित्र कुर्ता के साथ धारणा करता है जो धर्म का बाह्य प्रतीक है। यस्न उत्सव के अवसर पर पूजा संबंधी "विस्पारद" नामक 23 अध्याय का ग्रंथ पढ़ा जाता है। इसके बाद संख्या में 23 "यश्तों" का संगायन किया जाता है जो स्तुति के गान हैं और जिनके विषय अहुमरज्द तथा अमेष-स्पेंत, जो दैवी ज्ञान एवं ईश्वर के विशेषण हैं और "यज़ता", पूज्य व्यक्ति जिनका स्थान अमेष स्पेंत के बाद हैं। अवेस्ता काल के धार्मिक ग्रंथों की सूची के अंत में "वेंदीडाड", "विदेवो दात" (राक्षसों के विरुद्ध कानून) का उल्लेख हुआ है। यह कानून विषयक एक धर्मपुस्तक है जिसमें 22 "फरगरद" या अध्याय हैं। इसके प्रधान वण्र्य विषय इस प्रकार हैं--अहुरमज्द की रचना तथा अंग्र मैन्यु की प्रति रचनाएँ, कृषि, समय, शपथ, युद्ध, वासना, अपवित्रता, शुद्धि एवं दाहसंस्कार। प्राचीन पारसी रचनाकाल (800 ई.पू. से लगभग 200 ई.) के बीच लिखित साहित्य का सर्वथा अभाव था। उस समय केवल कीलाक्षर (क्यूनीफ़ॉर्म) अभिलेख भर थे जिनमें हखामनी सम्राटों ने अपने आदेश अंकित कर रखे थे। उनकी भाषा अवेस्ता से मिलती है, परंतु लिपि से बाबुली और असीरियन उत्पत्ति का अनुमान हाता है। पहलवी युग (ईसा की प्रथम शीती से लेकर नवीं शती तक) में कई प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी गईं जैसे "बुंदहिश्न" जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति दी हुई है, "दिनकर्द" जिसमें बहुत से नैतिक और सामाजिक प्रश्नों की मीमांसा की गई है, "शायस्त-ल-शायस्त" जो सामाजिक और धार्मिक रीतियों एवं संस्कारों का वर्णन करता है, "श्कंद" गुमानि विजर" (संदेहनिवाणार्थक मंजूषा) जिसमें वासना की उत्पत्ति की समस्या का विवेचन किया गया है तथा "सद दर" जिसमें विविध धार्मिक और सामाजिक प्रश्नों की व्याख्या की गई है। आधुनिक पारसी वर्णमाला के आविष्कार से पहलवी का प्रचार लुप्त हो गा। ज़रथुस्त्र मत के ग्रंथ भी अब प्राय: आधुनिक फारसी में लिखे जाने लग गए।
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