सोमवार, 7 मार्च 2022

याकुलम्-

         

       (अध्याय -प्रथम)


अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
१-कृष्ण के पितामह —पर्जन्य।
२-पितामही–वरीयसी। 
कृष्ण की पालिका माता यशोदा के पिता- माता जिनके साथ कृष्ण के नाना नानी का सम्बन्ध होने पर -
३-मातामह—-सुमुख-। 
४-मातामही –-पाटला-। 
(सुमुख और पाटला यशोदा के माता-पिता)
५-तातगु-ताऊ — उपनन्द एवं अभिनन्द।
६-ताई— क्रमश: तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
७-पीवरी (अभिनन्द की पत्नी)।
८-चाचा — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन । 
९-चाची — क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), 
१०-अतुल्या (नन्दन की पत्नी) ।
११-फूफा (वपस्वसापति)-महानील एवं सुनील ।
१२-बुआ क्रमश:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), 
१३-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी)।
१४-कृष्ण के पिता—महाराज नन्द।
१५-बड़ी माता—महारानी रोहिणी-(वसुदेव की पत्नी एवं बलरामजी की जननी)। 
१५-माता—महारानी यशोदा । 
१७-मौसा — मल्ल ( जिनकी पत्नी—यशस्विनी जो कृष्ण की मौसी ( मातृस्वसा थीं) (एक मत से मौसा का  दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
१८-मौसी—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा)। 
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१९-पितामह के समान पूज्य गोप —गोष्ठ, कल्लोल, करुण्ड, तुण्ड, कुटेर, पुरट आदि।
पितामही के समान पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — शिलाभेरी, शिखाम्बरा, भारुणी, भंगुरा,भंगी, भारशाखा, शिखा आदि।
२०-पिता के समकक्ष पूज्य गोप–कपिल, मंगल, पिंगल, पिंग, माठर, पीठ, पट्टिश, शंकर, संगर, भृंग, घृणि, घाटिक, सारघ, पटीर, दण्डी, केदार, सौरभेय, कलांकुर, धुरीण, धुर्व, चक्रांग, मस्कर, उत्पल, कम्बल, सुपक्ष, सौधहारीत, हरिकेश, हर, उपनन्द आदि। 
२‍१-माता के समान पूजनीया गोपांगनागण — वत्सला, कुशला, ताली, मेदुरा, मसृणा, कृपा, शंकिनी, बिम्बिनी, मित्रा, सुभगा, भोगिनी, प्रभा, शारिका, हिंगुला, नीति, कपिला, धमनीधरा, पक्षति, पाटका, पुण्डी, सुतुण्डा, तुष्टि, अंजना, तरंगाक्षी, तरलिका, शुभदा, मालिका, अंगदा, विशाला, शल्लकी, वेणा, वर्तिका आदि। 
इनके घर प्रायः आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — सुलता, गौतमी, यामी, चण्डिका आदि थीं। 

३२-मातामह के तुल्य पूज्य गोप — किल, अन्तकेल, तीलाट, कृपीट, पुरट, गोण्ड, कल्लोट्ट, कारण्ड, तरीषण, वरीषण, वीरारोह, वरारोह आदि। 
३३-मातामही के तुल्य पूजनीया वृद्धा गोपियाँ — भारुण्डा, जटिला, भेला, कराला, करवालिका, घर्घरा, मुखरा, घोरा, घण्टा, घोणी, सुघण्टिका, ध्वांक्षरुण्टी हण्डि, तुण्डि, डिण्डिमा, मंजुवाणिका, चक्कि, चोण्डिका, चुण्डी, पुण्डवाणिका, डामणी, डामरी, डुम्बी, डंका आदि। 
३३-स्तन्यपान करानेवाली धात्रियाँ—अम्बिका तथा किलिम्बा (अम्बा), धनिष्ठा आदि। 

३४-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणीजी के पुत्र) ।
३५-ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
 नित्य-सखा — 
श्रीकृष्ण के चार प्रकारके सखा हैं—(१) सुहृद्, (२) सखा, (३) प्रियसखा, (४) प्रिय नर्मसखा।

(१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
 इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।

(२)सखावर्ग के सखा—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। 

ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे। 
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि। 

(३)प्रियसखावर्ग के सखा—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।

ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
 
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
 इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।

इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।

स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं। 
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।

(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,
(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
विदूषक सखा – मधुमंगल, पुष्पांक, हासांक, हंस आदि श्रीकृष्णके विदूषक सखा हैं। 

विट—कडार, भारतीबन्धु, गन्ध, वेद, वेध आदि श्रीकृष्ण के विट (प्रणय में सहायक सेवक) हैं। आयुध धारण करानेवाले सेवक—रक्तक, पत्रक, पत्री, मधुकण्ठ, मधुव्रत, शालिक, तालिक, माली, मान, मालाधर आदि श्रीकृष्ण के वेणु, श्रृंग, मुरली, यष्टि, पाश आदि की रचना करनेवाले एवं इन्हें धारण करानेवाले तथा श्रृंगारोचित विविध वनधातु जुटानेवाले दास हैं।

वेश-विन्यास की सेवा —प्रेमकन्द, महागन्ध, दय,मकरन्द प्रभृति श्रीकृष्ण को नाना वेशों में सजाने की अन्तरंग सेवामें नियुक्त हैं। ये पुष्परससार (इत्र)—से श्रीकृष्ण के वस्त्रों को सुरभित रखते हैं। इनकी सैरन्ध्री (केश सँवारनेवाली का)-का नाम है।
—मधुकन्दला। वस्त्र-संस्कारसेवा — सारंग, बकुल आदि श्रीकृष्ण के वस्त्र-संस्कार की सेवा में नियुक्त रजक हैं। अंगराग तथा पुष्पालंकरण की सेवा —सुमना, कुसुमोल्लास, पुष्पहास, हर आदि तथा सुबन्ध, सुगन्ध आदि श्रीकृष्णचन्द्र की गन्ध, अंगराग, पुष्पाभरण आदि की सेवा करते रहते हैं।
भोजन-पात्र, आसनादि की सेवा —विमल, कमल आदि श्रीकृष्ण के भोजनपात्र, आसन (पीढ़ा) आदि की सँभाल रखनेवाले परिचारक हैं।

जल की सेवा – पयोद तथा वारिद आदि श्रीकृष्णचन्द्र के यहाँ जल छानने की सेवामें निरत रहते हैं।

ताम्बूल की सेवा — श्रीकृष्णचन्द्र लिये सुरभित ताम्बूल का बीड़ा सजानेवाले हैं —सुविलास, विशालाक्ष, रसाल, जम्बुल, रसशाली, पल्लव, मंगल, फुल्ल, कोमल, कपिल आदि।
ये ताम्बूल का बीड़ा बाँधने में अत्यन्त निपुण हैं। ये सब श्रीकृष्ण के पास रहनेवाले, विविध विचित्र चेष्टा करके, नाच—कूदकर, मीठी चर्चा सुनाकर मनोरंजन करनेवाले सखा हैं।

चेट—भंगुर, भृंगार, सान्धिक, ग्रहिल आदि श्रीकृष्ण के चेट (नियत काम करनेवाले सेवक) हैं। चेटी—कुरंगी, भृंगारी, सुलम्बा, लम्बिका आदि श्रीकृष्ण की चेटियाँ हैं। 
प्रमुख परिचारिकाएँ – नन्द—भवन की प्रमुख परिचारिकाएँ हैं—धनिष्ठा, चन्दनकला, गुणमाला, रतिप्रभा, तड़ित्प्रभा, तरुणी, इन्दुप्रभा, शोभा, रम्भा आदि। 
धनिष्ठा तो श्रीकृष्णचन्द की धात्री तथा व्रजरानी की अत्यन्त विश्वासपात्री भी हैं।
उपर्युक्त सभी पानी छिड़कने, गोबर से आँगन आदि लीपने, दूध औटाने आदि अन्तःपुर के कार्यों में अत्यन्त कुशला हैं।
गुप्तचर और भीड़
खराग -चर—चतुर, चारण, धीमान्, पेशल आदि इनके उत्तम चर हैं। 
ये नानावेश बनाकर गोप—गोपियों में विचरण करते रहते हैं। 
दूत—केलि तथा विवाद में कुशल विशारद, तुंग, वावदूक, मनोरम, नीतिसार आदि इनके कुंज–सम्मेलन के उपयोगी दूत हैं। 

दूतिकाएँ — पौर्णमासी, वीरा, वृन्दा, वंशी, नान्दीमुखी, वृन्दारिका, मेना, सुबला तथा मुरली प्रभृति इनकी दूतिकाएँ हैं। 
ये सब—की—सब कुशला, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन कराने में दक्षा तथा कुंजादि को स्वच्छ रखने आदि में निपुणा हैं। ये वृक्षायुर्वेद का ज्ञान रखती हैं तथा प्रिया—प्रियतम के स्नेहसे पूर्ण हैं। इनमें वृन्दा सर्वश्रेष्ठ हैं।
वृन्दा तपाये हुए सोने की कान्ति के समान परम मनोहरा हैं। नील वस्त्र का परिधान धारण करती हैं तथा मुक्ताहार एवं पुष्पों से सुसज्जित रहती हैं। 
ये सदा वृन्दावन में निवास करती हैं, प्रिया—प्रियतम का सम्मिलन चाहनेवाली हैं तथा उनके प्रेम से परिप्लुता हैं।

 वंदीगण — नन्द-दरबार के वन्दीगणों में सुविचित्र — रव और मधुररव श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं। नर्तक — (नन्द-सभा के) इनके प्रिय नर्तक हैं — चन्द्रहास, इन्दुहास, चन्द्रमुख आदि। नट — (अभिनय करनेवाले) — इनके प्रिय नट हैं — सारंग, रसद, विलास आदि। गायक — इनके प्रिय गायक हैं — सुकण्ठ, सुधाकण्ठ आदि।
रसज्ञ तालधारी — भारत, सारद, विद्याविलास सरस आदि सर्व प्रकार की व्यवस्था में निपुण इनके तालधारी समाजीगण हैं। 
मृदंग-वादक — सुधाकर, सुधानाद एवं सानन्द — ये इनके गुणी मृदंग—वादक हैं। 
गृहनापित — क्षौरकर्म, तैल-मर्दन, पाद-संवाहन, दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित।
सौचिक (दर्जी) — इनके कुल के निपुण दर्जी का नाम है — रौचिक। 
रजक (धोबी) — सुमुख, दुर्लभ, रंजन आदि इनके परिवार के धोबी हैं। हड्डिप ( मेहतर) — पुण्यपुंज तथा भाग्यराशि इनके परिवार के भंगी हैं। स्वर्णकार ( सुनार) — इनके तथा इनके परिवार के लिये विविध अलंकार-आभूषण आदि बनानेवाले रंगण तथा रंकण नामक दो सुनार हैं।
कुम्भकार (कुम्हार) — पवन तथा कर्मठ नाम से इनके दो कुम्हार हैं, जो इनके परिवार के लिये प्रयुक्त होनेवाले कलश, गागर, दधिभाण्डादि बनाते हैं। 
काष्ठशिल्पी ( बढ़ई) — वर्द्धक तथा वर्द्धमान नाम के इनके दो कुल—बढ़ई हैं, जो इनके लिये शकट, खाट आदि लकड़ी की चीजों का निर्माण करते हैं। अन्य निजी शिल्पी एवं कारुगण — कारव, कुण्ड, कण्ठोल, करण्ड, कटुल आदि ऐसे घरेलू शिल्पी कारुगण हैं, जो इनके गृह में काम आनेवाला — जेवड़ी, मथनिया, कुठार, पेटी आदि सामान बनाते रहते हैं। 
चित्रकार — सुचित्र एवं विचित्र नाम के दो पटु चित्र—शिल्पी इनके प्रिय पात्र हैं।
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गायें — इनकी प्रिय गायों के नाम हैं-मंगला, पिंगेक्षणा, गंगा, पिशंगी, प्रपातशृंगी, मृदंगमुखी, धूमला, शबला, मणिकस्तनी, हंसी, वंशी—प्रिया आदि। 

बलीवर्द — पद्यगन्ध तथा पिशंगाक्ष आदि इनके प्रिय बैल हैं।
हरिण ( मृग)-इनके प्रिय मृग का नाम है सुरंग । मर्कट — इनका एक प्रिय बन्दर भी है, उसका नाम है — दधिलोभ। श्वान — व्याघ्र और भ्रमरक नाम के दो कुत्ते भी श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं।

हंस — इनके पास एक अत्यन्त सुमनोहर हंस भी है, जिसका नाम है — कलस्वन।

मयूर — इनके प्रिय मयूरों के नाम हैं शिखी और ताण्डविक।

तोते — इनके दक्ष और विचक्षण नाम के दो प्रिय तोते हैं। 
महोद्यान — साक्षात् कल्याणरूप श्रीवृन्दावन ही इनका परम मांगलिक महोद्यान है। 
क्रीड़ापर्वत — श्रीगोवर्धनपर्वत इनकी रमणीय क्रीड़ास्थली है।

घाट — इनका प्रिय घाट नीलमण्डपिका नाम से विख्यात है। मानसगंगा का पारंगघाट भी इन्हें अतिशय प्रिय है।
इस घाट पर सुविलसतरा नाम की एक नौका श्रीकृष्णचन्द्र के लिये सदा प्रस्तुत रहती है। निभृत गुहा — ‘मणिकन्दली’ नामक कन्दरा इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
मण्डप — शुभ्र, उज्ज्वल शिलाखण्डों से जटित एवं विविध सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित ‘आमोदवर्धन’ नाम का इनका निज-मण्डप है। सरोवर – इनके निज—सरोवर का नाम ‘पावन सरोवर’ है, जिसके किनारे इनके अनेक क्रीड़ाकुंज शोभायमान हैं। कुंज — इनके प्रिय कुंज का नाम ‘काममहातीर्थ’ है।
लीलापुलिन — इनके लीलापुलिन का नाम ‘अनंग-रंगभूमि’ है।
निज-मन्दिर — नन्दीश्वरपर्वत पर ‘स्फुरदिन्दिर’ नामक इनका निज-मन्दिर है।
 दर्पण — इनके दर्पण का नाम ‘शरदिन्दु’ है।
 पंखा (व्यञ्जन) — इनके पंखे को ‘मधुमारुत’ कहा जाता है। 
लीला — कमल तथा गेंद — इनके पवित्र लीला—कमल का नाम ‘सदास्मेर’ है एवं गेंद का नाम ‘चित्र—कोरक’ है।
धनुष—बाण — ‘विलासकार्म्मण’ नामक स्वर्ण से मण्डित इनका धनुष है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है। 
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वंशी — इनकी वंशी का नाम ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।
*वेणु — छः रन्ध्रोंवाले इनके सुन्दर वेणु का नाम ‘मदन-झंकार’ है। 
मुरली — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरलिका का नाम ‘सरला’ है।
वीणा — इनकी वीणा ‘तरंगिणी’ नाम से विख्यात है।
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राग — गौड़ी तथा गुर्जरी नामकी रागिनियाँ श्रीकृष्णको अतिशय प्रिय हैं।
दण्ड ( वेत्र या यष्टिक) — इनके अंत (वेत्र या लड़ी) का नाम ‘मण्डन’ है।
दोहनी — इनकी दोहनी का नाम ‘ अमृत दोहनी’ है। 
आभूषण — श्रीकृष्णचन्द्र के नित्य प्रयोग में आनेवाले आभूषणों में से कुछ नाम निम्नोक्त हैं — (१) नौ रत्नों से जटित ‘महारक्षा’ नामक रक्षायन्त्र इनकी भुजा में बँधा रहता है। (२) कंकण — चंकन। (३) मुद्रिका – रत्नमुखी। (४) पीताम्बर — निगमशोभन। (५) किंकिणी — कलझंकारा। (६) मंजीर — हंसगंजन। (७) हार — तारावली। (८) मणिमाला — तड़ित्प्रभा। (९) पदक — हृदयमोहन (इसपर श्रीराधा की छवि अंकित है)। (१०) मणि — कौस्तुभ। (११) कुण्डल – रत्यधिदेव और रागाधिदेव (मकराकृत)। (१२) किरीट – रत्नपार। (१३) चूड़ा — चामरडामरी। (१४) मयूरमुकुट — नवरत्न-विडम्ब। (१५) गुंजाली – रागवल्ली। (१६) माला — दृष्टिमोहिनी। (१७) तिलक — दृष्टिमोहन। चरणों में चिह्न दाहिना चरण — अँगूठे के बीच में जौ, उसके बगल में ऊध्वरेखा, मध्यमा उँगली के नीचे कमल, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, जौ के नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, कमल के नीचे ध्वजा, अंकुश के नीचे वज्र, एड़ी के मध्यभाग में अष्टकोण, उसकी चारों दिशाओं में चार सथिये (स्वस्तिक) और उनके बीच में चारों कोनों में चार जामुन के फल — इस प्रकार कुल ग्यारह चिह्न हैं। बायाँ चरण — अँगूठे के नीचे शंख, उसके बगल में मध्यमा उँगली के नीचे दो घेरों का दूसरा शंख, उन दोनों के नीचे चरण के दोनों पार्श्व को छूता हुआ बिना डोरी का धनुष, धनुष के नीचे तलवे के ठीक मध्यम गाय का खुर, खुर के नीचे त्रिकोण, त्रिकोण के नीचे अर्धचन्द्र (जिसका मुख ऊपरकी ओर है), एड़ी में मत्स्य तथा खुर एवं मत्स्य के बीच चार कलश (जिनमें से दो त्रिकोण के आसपास और दो चन्द्रमा के नीचे अगल—बगल में स्थित हैं) —
इस प्रकार कुल ८ चिह्न हैं।
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पिता — वृषभानु ।
माता — कीर्तिदा। 
पितृव्य (चाचा) — भानु, रत्नभानु एवं सुभानु ।
फूफा — काश।
बुआ — भानुमुद्रा। 
भ्राता — श्रीदामा।
कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी। 
मातामह — इन्दु।
मातामही — मुखरा।
मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
मौसा — कुश।
मौसी — कीर्तिमती।
धात्री — धातकी।

सखियाँ — श्रीराधाजी की पाँच प्रकार की सखियाँ हैं — (१) सखी, (२) नित्यसखी, (३) प्राणसखी, (४) प्रियसखी, (५) परम प्रेष्ठसखी।
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 (१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं। 
(२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं। 
(३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
 ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं। 
(४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं। 
(५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं। 
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी। 

वनवासिनी सखियाँ — मल्ली, भृंगी तथा मतल्ली नामकी पुलिन्द—कन्यकाएँ श्रीराधारानी की वनवासिनी सखियाँ हैं। चित्र बनानेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी के लिये भाँति-भाँति के चित्र बनाकर प्रस्तुत करनेवाली सखी का नाम चित्रिणी है।
कलाकार सखियाँ — रसोल्लासा, गुणतुंगा, स्मरोद्धरा आदि श्रीराधारानी की कला—मर्मज्ञ सखियाँ हैं।

वनादिकों में साथ जानेवाली सखियाँ — वृन्दा,कुन्दलता आदि सहचरियाँ श्रीराधा के साथ वनादिकों में आती—जाती हैं।
व्रजराज के घर पर रहनेवाली सखियाँ — श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रियपात्री धनिष्ठा, गुणमाला आदि सखियाँ हैं, जो व्रजराज के घर पर ही रहती हैं।
मंजरियाँ — अनंगमंजरी, रूपमंजरी, रतिमंजरी, लवंगमंजरी, रागमंजरी, रसमंजरी, विलासमंजरी, प्रेममंजरी, मणिमंजरी, सुवर्णमंजरी, काममंजरी, रत्नमंजरी, कस्तूरीमंजरी, गन्धमंजरी, नेत्रमंजरी, पद्ममंजरी, लीलामंजरी, हेममंजरी आदि श्रीराधारानी की मंजरियाँ हैं।
इनमें रतिमंजरी श्रीराधाजी को अत्यन्त प्रिय हैं तथा वे रूप में भी इनके ही समान हैं।
धात्रीपुत्री — कामदा है। 
यह श्रीराधारानी के प्रति सखीभाव से युक्त है। सदा साथ रहनेवाली बालिकाएँ — तुंगी, पिशंगी, कलकन्दला, मंजुला, बिन्दुला, सन्धा, मृदुला आदि बालिकाएँ सदा सर्वदा इनके साथ रहती हैं।
मन्त्र—तन्त्र—परामर्शदात्री सखियाँ — श्रीराधारानी को यन्त्र—मन्त्र—तन्त्र क्रिया के सम्बन्ध में परामर्श देनेवाली सखियों का नाम है — दैवज्ञा एवं दैवतारिणी।
राधा के घर आने-जानेवाली ब्राह्मण-स्त्रियाँ — गार्गी आदि। 
वृद्धादूती — कात्यायनी आदि।
मुख्यदूती — महीसूर्या।

चेटीगण — (बँधा काम करनेवाली दासिकाएँ)—शृंगारिका आदि। 
मालाकार-कन्याएँ — माणिकी, नर्मदा एवं प्रेमवती, नामकी मालाकार कन्याएँ श्रीराधारानी की सेवामें नियुक्त रहती हैं।
ये सुन्दर, सुरभित कुसुमों एवं पद्मों का संचयन करके प्रतिदिन प्रात:काल श्रीराधारानी को भेंट करती हैं। 
श्रीराधारानी प्रायः इन्हें हृदयसे लगाकर इनकी भेंट स्वीकार करती हैं। 
सैरन्ध्री — पालिन्द्री। दासीगण—रागलेखा, कलाकेलि, मंजुला, भूरिदा आदि इनकी दासियाँ हैं।

गृह-स्नापित-कन्याएँ — श्रीराधारानी के उबटन (अंगराग), अलक्तकदान एवं केश—विन्यास की सेवा सुगन्धा एवं नलिनी नाम की दो स्नापित—कन्याएँ करती हैं।
यही इनको स्नान कराती हैं। अत: इस कारण से  स्नापिता संज्ञा इनकी सार्थक है।
ये दोनों ही श्रीराधारानी को अतिशय प्यारी हैं।

गृह-रजक-कन्याएँ — मंजिष्ठा एवं रंगरागा श्रीराधारानी के वस्त्रों का प्रक्षालन करती हैं।
इन्हें श्रीराधारानी अत्यधिक प्यार करती हैं। 
हड्डिप-कन्याएँ — भाग्यवती एवं पुण्यपुंजा श्रीराधारानी के घर की मेहतर—कन्याएँ हैं।
 विटगण — सुबल, उज्ज्वल, गन्धर्व, मधुमंगल, रक्तक, विजय, रसाल, पयोद आदि इनके विट (श्रीकृष्ण से मिलन कराने में सहायक) हैं।
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                –कुल-उपास्यदेव —
भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं।
गायें — सुनन्दा, यमुना, बहुला आदि इनकी प्रिय गायें हैं। 
गोवत्सा — तुंगी नाम की गोवत्सा इन्हें अत्यन् प्रिय है। 
हरिणी — रंगिणी। चकोरी — चारुचन्द्रिका। हंसिनी — तुण्डीकेरी (यह श्रीराधाकुण्ड में सदा विचरण करती रहती है)।
सारिकाएँ – सूक्ष्मधी और शुभा — ये इनकी प्रिय सारिकाएँ हैं। 
मयूरी — तुण्डिका। वृद्धा मर्कटी — कक्खटी। आभूषण — श्रीराधारानी के निम्नोक्त आभूषणों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त भी भाँति—भाँति के अनेक आभूषण उनके प्रयोग में आते हैं — तिलक — स्मरयन्त्र।

हार — हरिमनोहर। रत्नताटंक जोड़ी — रोचन। घ्राणमुक्ता (बुलाक) — प्रभाकरी । पदक — मदन (इसके भीतर वे श्रीकृष्ण की प्रतिच्छवि छिपाये रहती हैं)। कटक (कडूला)-जोड़ा — चटकाराव। केयूर (बाजूबन्द)-जोड़ा — मणिकर्बुर।
मुद्रिका — विपक्षमर्दिनी (इस पर श्रीराधा का नाम उत्कीर्ण है)। करधनी (कांची) — कांचनचित्रांगी। नूपुर-जोड़ी — रत्नगोपुर — इनकी शब्द—मंजरी से श्रीकृष्ण व्यामोहित—से हो जाते हैं। 

मणि — सौभाग्यमणि — यह मणि शंखचूड के मस्तक से छीनी गयी थी । 
यह एक साथ ही सूर्य एवं चन्द्रमा के समान कान्तियुक्त है।

वस्त्र — मेघाम्बर तथा कुरुविन्दनिभ नाम के दो वस्त्र इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं।
मेघाम्बर मेघकान्ति के सदृश है, वह श्रीराधारानी को अत्यन्त प्रिय है।
कुरुविन्दनिभ रक्तवर्ण है तथा श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय है।
दर्पण — मणिबान्धव (इसकी शोभा चन्द्रमा को भी लजाती है)। रत्नकंकती (कंघी) — स्वस्तिदा। सुवर्णशलाका — नर्मदा।

 श्रीराधा की प्रिय सुवर्णयूथी (सोनजुही का पेड़) — तडिद्वल्ली।
 वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है। 
चरणों में चिह्न — बायाँ पैर — अंगुष्ठ—मूल में जौ, उसके नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, छत्र के नीचे कंकण, अंगुष्ठ के बगल में ऊर्ध्वरेखा, मध्यमा के नीचे कमल का फूल, कमल के फूल के नीचे फहराती हुई ध्वजा, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, एड़ी में अर्धचन्द्र–मुँह उँगलियों की ओर। अर्धचन्द्राकार चन्द्रमा के ऊपर दायीं ओर पुष्प एवं बायीं ओर लता — इस प्रकार कुल ११ चिह्न हैं।
दाहिना पैर — अँगूठे के नीचे शंख, अँगूठे के पार्श्व की दो उँगलियों के नीचे पर्वत, अन्तिम दो उँगलियों के नीचे यज्ञवेदी, शंख के नीचे गदा, यज्ञवेदी के नीचे कुण्डल, कुण्डल के नीचे शक्ति, एड़ी में मत्स्य और मत्स्य के ऊपर मध्यभाग में रथ — इस प्रकार कुल आठ चिह्न हैं। 
हाथों के चिह्न बायाँ हाथ — तीन रेखाएँ हैं।
पाँचों अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच नद्यावर्त, अनामिका के नीचे हाथी, ऊपर की दो रेखाओं के बीच में अनामिका के नीचे सीध में घोड़ा, जिसके पैर अँगुलियों की ओर हैं, उसके नीचे दूसरी और तीसरी रेखाओं के बीच में वृषभ, दूसरी रेखा के बगल में कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, अँगूठे के नीचे ताड़ का पंखा, हाथी और अंकुश के बीच में बेल का पेड़, अँगूठे के सामने पंखे के बगल में बाण, अंकुश के नीचे तोमर, वृषभ के नीचे माला। दाहिना हाथ — तीन रेखा वैसी ही।
अँगुलियों के अग्रभाग में पाँच शंख, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, तर्जनी के नीचे चँवर, हथेली के मध्य में महल, उसके नीचे नगाड़ा, अंकुश के नीचे वज्र, महल के आसपास दो छकड़े, नगाड़े के नीचे धनुष, धनुष के नीचे तलवार, अँगूठे के नीचे झारी है ।।  
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"राधा परिवार परिचय प्रकरण समाप्त "

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।।अहीर जाति का वैदिक तथा वैदिकेतर साहित्य से 

लेकर पुराणों तक में विस्तृत रूप से  वर्णन हुआ है।______________________________

यह दीगर बात है कि कहीं प्रशंसात्मक रूप में  तो कहीं निन्दा और घृणात्मक रूप में आलोचना करके आभीर जाति  का वर्णन हुआ है ।।अहीरों में दुर्गुण जितने कटु रूप में दिखाए गये हैं 

सद्गुण भी उतने ही माधुर्य पूर्ण और और महिमामण्डित रूप नें दृष्टिगोचर हुए हैं।

प्रारम्भ सद्गुणों से हुआ है। और यह सर्व विदित ही है कि गुणों सर्वोत्कर्ष से ही दुर्गुणों का प्रादुर्भाव होता है।एक और स्मृतियों तथा कहीं कहीं पुराणों रामायण तथा महाभारत मूसलपर्व आदि में अहीर जाति को  शूद्र " महाशूद्र ,अशुभदर्शी वर्णसङ्कर और विदेशी आदि तो दूसरी तरफ़ ही स्वयं  महाभारत के द्रोणपर्व और सभापर्व आदि में  अहीरों को ,आर्य ,शूराभीर, ईश्वरीय सत्ताओं को अंश रूप में वर्णित किया है।तथा जिसके चरणों की धूल लेने के लिए देवत्रयी के तीनों देवता ब्रह्मा " विष्णु और महेश चरण धूलि लेने के लिए व्याकुल रहते हैं। विदित हो कि पद्म पुराण " स्कन्द पुराण और नान्दी पुराण आदि में  अहीरों की जाति में ही यदुवंश का प्रादुर्भाव होने कि वर्णन है और उसी यदुवंश के वृष्णि कुल( खानदान) में कृष्ण के अवतरण का वर्णन हैं। यह सत्य है कि पुराणों में  परस्पर विराधाभासी वर्णन ही है ।
वस्तुत: ये वैदिक साहित्य के इतर प्राचीन से लेकर आजतक  जिस किसी ने अहिरो पर लिख दिया-वह कृति अमर और कालजयी बन गई।संस्कृत के महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग के ४५वें श्लोक में अहीरों को  घोष  कह उन्हें घी-दूध से सम्पन्न बताया है ।

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 हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानांमार्गशाखिनाम् ॥ १-४५॥

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मार्ग में चलते गाँवों के अहीर गायों का तुरन्त निकाला हुआ मक्खन( हैयंगवीन)लेकर राजा को भैंट करने को लिए आगे आते थे।

उनसे बाते करते हुए राजा 

और रानी मार्ग के आसपास के वनों और उनमें उत्पन्न वृक्षों के नाम आदि उनसे 

पूछते जाते थे।१/४५कालिदास ने अहीरों को घोष रूप में वर्णन करते हुए

 उन्हें पशुधन से सम्पन्न  तथा हैयंग (नवनीत)राजा के लिए उपहार रूप में 

देने वाला बताया।

हिन्दी पद्य सहित्य के भक्ति काल में  तुलसीदास,सूरदास,मीराबाई सहित अष्टछाप के 

अन्य  भक्त-कवियों ने तथा राजस्थान के लोक कवि "ईसरदास" ने भी अहीर जाति में भगवान के 

अवतरण कि बात कही है। भारतीय हिंदी साहित्याकाश के सूर्य सूरदास का 

सम्पूर्ण साहित्य ही अहीर जाति के रंग में सराबोर है। वे अहीर कृष्ण का परिचय इस प्रकार देते है-

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हम तौ नंद-घोष के बासी।नाम गुपाल जाति कुल गोपक, गोप गुपाल उपासी॥

गिरवर धारी गोधन चारी, बृंदावन अभिलाषी।   राजा नंद जसोदा रानी, सजल नदी जमुना सी॥

मीत हमारे परम मनोहर, कमलनैन सुख रासी।सूरदास-प्रभु कहौं कहाँ लौं, अष्ट महा-सिधि दासी॥11॥

ऊधौ कोउ नाहिं न अधिकारी।लै न जाहु यह जोग आपनौ, कत तुम होत दुखारी॥

यह तौ बेद उपनिषद मत है, महा पुरुष ब्रतधारी।कम अबला अहीरि ब्रज-बासिनि, नाहीं परत सँभारी॥

को है सुनत कहत हौ कासौं, कौन कथा बिस्तारी।सूर स्याम कैं संग गयौ मन, अहि काँचुली उतारी॥6॥

वै बातैं जमुना-तीर की।कबहुँक सुरति करत हैं मधुकर, हरन हमारे चीर की॥

लीन्हे बसन देखि ऊँचे द्रुम, रबकि चढँन बलबीर की।देखि-देखि सब सखी पुकारतिं, अधिक जुड़ाई नीर की॥

दोउ हाथ जोरि करि माँगैं, ध्वाई नंद अहीर की।सूरदास प्रभु सब सुखदाता, जानत हैं पर पीर की॥7॥

 (सूरसागर उद्धव-गोपी संवाद भाग-५ )जिसकी प्रशंसा मुनि ,देवता करते है उन अहिरो को

 सूरदास धन्य कहते है,-सूर सुर-मुनि मुखनि अस्तुति ,धन्य गोपी कान्ह।

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कबहुँ सुधि करत गुपाल हमारी-सूरदास

सूरसागरदशम स्कन्ध

(राग मलार)नंद-बचन

कबहुँ सुधि करत गुपाल हमारी।पूछत पिता नंद ऊधौ सौ, अरु जसुदा महतारी।।

बहुतै चूक परी जनजानत, कहा अबकै पछिताने।वासुदेव घर भीतर आए, मैं अहीर करि जाने।।

पहिलै गर्ग कह्यौ हुतौ हमसौ, संग दुःख गयौ भूल।'सूरदास'स्वामी के बिछुरै,राति दिवस भयौ सूल।।3472।।

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दूसरी महती साधिका मीराबाई का जन्म सन 1498 ईस्वी में पाली के कुड़की गांव में में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ।

 ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं मीराका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। 

उदयपुर के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो में वाड़के महाराणा सांगा के पुत्र थे। मीराबाई ने अपनी पदावली में कहा है कृष्ण के विषय में 

कृष्ण की अनन्य साधिका राजस्थान को राजपूत घराने की कृष्ण-भक्ति साधिका "मीराबाई

लिखती है-

(मीराँ प्रकाशन समिति भीलबाड़़ा राजस्थान)

"मीरा सुधा सिन्धु" पृष्ठ संख्या- (९५८)

(मुरली के पद १५-)

व्रजभाव-प्रभाव-

मुरलिया कैसे धरे जिया धीर।०।

मधुवन बाज वृन्दावन वाजी तट जमुना के तीर।

बैठ कदंब पर वंशी बजाई , फिर भयो जमुना नीर।१।

'मीराँ के प्रभू गिरिधर-नागर आखिर जात अहीर।

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राजस्थान के लोक कवि-

भक्तकविमहात्मा- ईसरदास प्रणीत)

महात्मा" इसरदास" १६वीं सदी के हिंदू संत-कवि थे, जिनकी पूजा पूरे गुजरात और भारत के राजस्थान राज्यों में की जाती है। 

वह चमत्कारी कार्य करने से जुड़े हैं, इसलिए इसे 'इसारा सो परमेसर' कहा जाता है।

 देवियां और हरिरास और हला-झालारा कुंडलिया जैसी लोकप्रिय कृतियों का श्रेय इसरदास को दिया जाता है।

ईसरदास ने कृष्ण को अहीर कहते हुए वर्णन किया 

"नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।

हूँ चारण हरिगुण चवां , सागर भरियो क्षीर।।

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गोस्वामी  तुलसी दास भी अहिरो के निर्मल मन ,स्वतंत्र व्यक्तित्व,मनमौजी प्रवृति का बताया ।

जो तुलसीदास उत्तर काण्ड में एक स्थान पर अहीरों को पाप रूप कहते हैं।

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 129से आगे .....

छंद चोपाई:

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आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते।।

भावार्थ: अरे मूर्ख मन ! सुन, पतितोंको भी पावन करनेवाले श्रीरामजीको भजकर किसने परमगति नहीं पायी ? गणिका, अजामिल, व्याध, गीध, गज आदि बहुत-से दुष्टों को उन्होंने तार दिया। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वरच (चाण्डाल) आदि जो अत्यन्त पापरूप ही हैं, वे भी केवल एक बार जिनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं,!

 उन श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ।।

वही तुलसीदास उत्तर काण्ड में अन्यत्र अहीरों के विषय में कहते हैं।

तेइ तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥

नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा। निर्मल मन अहीर निज दासा॥6॥

भावार्थ

उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे। निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6॥

  (राम चरित मानस-उत्तर काण्ड

उन्हें अहीरों की सरलता,सहजता ने इस कदर आकर्षित किया कि उन्हें निर्मल मन का प्रतीक बनाना पड़ा।___________________________________

"प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार"रोहि" 8077160219

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"गोपाभीरयादवा एकैव वंशजातीनाम् त्रतये ।विशेषणा:वृत्तिभिश्च प्रवृत्तिभिर्वंशानां प्रकारा:सन्ति। च प्रवृतय: जातीनाम् मूले सन्ति !

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याभिर्वृंदावनमनुगतो नंदसूनुः क्षपासु रेमे चंद्रांशुकलितसमुद्योतभद्रे निकुञ्जे।

तासां दिष्टं किमहमधुना वर्णये बल्लवीनां यासां साक्षाच्चरणजरजः श्रीशविध्याद्यलभ्यम् ।८०-१०९।

यत्र प्राप्तास्तृणमृगखगा ये कृमिप्राणिवृन्दा वृन्दारण्ये विधिहररमाभ्यर्हणीया भवन्ति।

वृन्दावन के कुँज में चन्द्रमा की किरणों से प्लावित रात्रि में नन्दपुत्र श्रीकृष्ण ने गोपीगण के साथ रास-नृत्य मूलक आनन्दक्रीड़ा की थी

वृन्दावन के तृण ,मृग पक्षी और कृमि पर्यन्त प्राणीगण भी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के पूज्यत्तम हैं ।
वृन्दावन में जो कोई भी प्राणी भक्तिभाव से  इन अद्वैत ब्रह्म की उपासना करेगा वह आनन्द-सिन्धु में प्लावित हो जायेगा ।
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यहाँ एक बात विचारणीय है कि , साधारण देव इन्द्र आदि की तो बात ही छोड़ो बल्कि सृष्टि के तीन काल और तीन गुणों ( सत,रज और तम के प्रतिनिथि ईश्वर के प्रतिरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी गोप- गोपिकाओं के पैरों की धूल लेने के आकाँक्षी हैं। 
गोप गोपिकाओं की महानाता का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है ?

सन्दर्भ:बृहद् नारद पुराण बृहद उपाख्यान में उत्तर-भागका वसु महिनी

संवाद के अन्तर्गत वृन्दावन महात्म्य नामक अस्सीवाँ अध्याय

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इति श्रीबृन्नारदीयपुराणे बृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे श्रीवृन्दावनमाहात्म्यं नामाशीतितमोऽध्यायः ।।८०।।           ________________________

           "प्रस्तावना" 👇 "अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत जब ग़ुम थी।      उजाले इल्म के भी होंगे !      ना हमारे विरोधियों को मालुम थी ।।  

धड़कने थम जाने पर श्वाँसें कब चलती हैं ?–बहारे गुजर जाती  जहाँ 'रोहि' बहार खामोशियाँ ही मचलती हैं ! 

-संवाद शैली से तेरी भावनाऐं प्रतिबिम्बित हो गयी हैं ;शब्दों से न हमको भरमा मेरी वारगाह से अब तेरी बेवफाऐं निलम्बित हो गयी हैं ! वाकई जो लोग अपने फरेब और ऐब छुपा कर ऐसे सादिकों को छला करते हैं  ! 

वे औरों का तो क्या ? अपना भी कभी नहीं भला करते हैं। और वे कभी हमारे निष्कर्षों पर पहुँचना ही नहीं चाहते हैं ।  

प्रचीन ऋषियों के ग्रन्थों में पूर्व काल में  जो सत्य प्रतिष्ठित था ; जिससे समाज चारित्रिक रूप से सकारात्मक था ; तब सत्य का युग था ! क्यों कि लोग आध्यात्मिक भावों से ओत-प्रोत और संयमी प्रवृत्तियों से समन्वित थे ; जीवन में आध्यात्मिक मूल्यों को आत्मसात् करना ही परम ध्येय था ।         

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                    -(प्रथम चरण)-

परन्तु काल के प्रवाह में आध्यात्मिक गंगाजल की स्वच्छ धाराओं के साथ धार्मिक कर्मकाण्ड जनित गन्दगी भी प्रवाहित हो चली, और वही गन्दिगी मिलाबट के जोड़-तोड़ के रूप में तब्दील होकर ; मिथकों की मिथ्या गाथा बनकर शास्त्रों में विरोधाभास और कल्पनाओं का आभास कराने लगी। 

ऐसा इसलिये भी हुआ क्यों कि संयम और आध्यात्मिक भावों के लोप होने से पुरोहितों में भौतिकतापूर्ण भोग -लिप्सा, स्वार्थ, झूँठी शान -शौकत और समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की मंशा लम्बे समय तक विद्यमान रही !

जिसकी आपूर्ति के लिए आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों की भेंट भी देदी गयी !!  परिणाम स्वरूप पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा

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       (द्वित्तीय-चरण)👇

यह वह दौर था ; जब धर्म के नाम पर देश में जुल्म घनघोर था । गिरने वाले उठ रहे थे; और उठने वाले गिर रहे थे । ऊँच-नीच और मानवीय भेद भाव अपनी पराकाष्ठाओं पर हर ओर था ।

और जो कालान्तरण में धर्मशास्त्रों स्मृति आदि ग्रन्थों में इतिहास की गाथाऐं थीं ; कल्पनाओं की परतें उन पर  भी निरन्तर चढ़ती गयी और सत्य परतों कि सघनता में विलुप्त ही हो गया। _________________________________________

-भारतीय पौराणिक इतिहास ईसापूर्व-पञ्चम् सदी से ही स्पष्ट प्रकाशित होता है ।

यह  महावीर और बुद्ध के जन्म का समय था । बुद्ध महावीर से प्रभावित हुए और यही बुद्ध भारतीय इतिहास के एक उत्स- बिन्दु के रूप में प्रतिष्ठित हुए । 

बुद्ध तथा बुद्ध के समकालीन राजाओं का वर्णन प्राय: पुराणों, महाभारत और रामायण आदि ग्रन्थों में भी मिलता है ।

चन्द्र गुप्त मौर्य के समय सिकन्दर ईसा पूर्व (३२३) के समकक्ष भारत में सिन्धु क्षेत्र से प्रवेश करता है ।

परन्तु भारत को फ़तह नही कर पाता है। कुछ काल पश्चात्  शतधन्वन का पुत्र बृहद्रथ मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक हुआ। उसका शासन १८७ ईसापूर्व से १८० ईसापूर्व तक था। 

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वह  बौद्ध धर्म का अनुयायी था। पुष्य मित्र द्वारा बृहद्रथ की मौत के बाद ! पुन: पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में बौद्धों, जैनों और अन्य भागवत आदि धर्मों के विरोध स्वरूप ब्राह्मणीय वर्चस्व के पुनरोत्थान के लिए पतञ्जलि आदि पुरोहितों के साथ वैदिक कर्म काण्डों की पुनः प्रतिष्ठा हुई ।

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      (तृत्तीय-चरण)👇

★-महात्मा बुद्ध शाक्यमुनि के नाम से प्रसिद्ध हुए ; और वे (563) ईसा पूर्व से (483) ईसा पूर्व तक  लगभग 80 वर्ष तक जीवित रहे ।

सभी पुराणों, महाभारत , वाल्मीकि रामायण आदि में भी तथागत बुद्ध का वर्णन कहीं विष्णु अवतारों के रूप में है तो कहीं रामायण में वेद मार्ग के विध्वंसक के रूप में हुआ है ।

परन्तु वाल्मीकि रामायण और भविष्य पुराण में  तथा कुछ अन्य पुराणों में प्राय: बुद्ध की निन्दा ही की गयी है ।

यद्यपि ब्राह्मणों का एक धड़ा जो आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों का स्थापन अपने तप और साधना की परिणति के रूप में कर रहा था ; 

आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होते हुए वे ही उपनिषदों के रूप में ईश्वरीय सत्ताओं का सैद्धांतिक विवेचन कर रहे थे ।

उन्हें वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवाद या 'कर्म'काण्ड मूलक याज्ञिक -विधियों से कोई अधिक प्रयोजन नहीं था ! 

इनके लिए सदाचरण ,तप और मन की शुद्धता के प्रतिमान के रूप में ही प्रतिष्ठित है ।

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      (चतुर्थ-चरण)👇

परन्तु कुछ पुरोहित ऐसे भी थे जिन्होंने बौद्ध , जैैैन और भागवत आदि धर्म के अनुयायीयों से अपने अपने स्तर से मुकाबला करने के लिए द्वेषवाद को आत्मसात् कर अनेेक  ग्रन्थों का लेखन  पूूूूर्व्व -दुुराग्रह से युुुक्त  होकर भी किया, और सत्य में असत्य की मिलाबट हुई और  प्राय: ग्रन्थों की रचना काव्यशैली में अलंकारों की सजाबटों से समन्वित होकर सत्य का आभास मात्र ही रह गयी परिणाम स्वरूप अर्थ दुर्बोध्य और भ्रान्तिमूलक ही हो गये और अन्य कारण ये भी थे कि जो

तथ्य पूर्व कल में सत्य थे; उनमें पूर्वाग्रह एक निष्कर्ष के तौर पर समाविष्ट होकर विपरीतार्थक हो गया , सत्य की धारा विपरीत गामी हुई  वे तथ्य यथावत ही नहीं बने रहे अपितु उनमें कितनी जोड़-तोड़ हुई और कितनी आलंकारिता प्रधान भी हुई ये सब वक्त के खण्डरों में दफन है ।      

    (पञ्चम्-चरण)👇

जैसे कोई नवीन वस्त्र अपनी प्रारम्भिक क्रियाओं की अवस्थाओं में नवीन और अन्तिम क्रिया- अवस्था में जीर्ण और शीर्ण हो जाता है । ठीक इसी प्रकार का उपक्रम भारतीय पुराण ग्रन्थों में हुआ 'परन्तु मिलाबट के बावजूद  भी बहुत सी बाते सत्य ही बनी रहीं ; जो केवल आध्यात्मिक मूल्यों पर प्रतिष्ठित थीं  छल कपट का समावेश उनमें नहीं हुआ।

और हमने उनको ही स्वीकार किया है ! क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपनी कुत्सित निशानियाँ छोड़ने के उपरान्त भी कुछ तथ्य तो छोड़ती ही है ।

" मधुमक्खीयाँ पुष्पों से सहजता से ही मधु (रस) निकाल कर पराग और मधु (रस)से उत्शिष्ट(उच्छिष्ट) मधूच्छिष्ट (मोम) को पृथक कर देती हैं ठीक उसी प्रवृत्ति का आश्रय लेकर हमने भी पुराणों वेदों और अन्य स्मृति ग्रन्थों से सत्य अनकूल तथ्य नि: सात किए हैं । 

"जैसे किसी वस्तु की अच्छाइयों और बुराईयों को प्रस्तुत करना समीक्षात्मक शैली है । परन्तु केवल बुराई या माहिमा  बखान करना क्रमश: खण्डन-मण्डन प्रवृत्ति हैं । उसके मध्यम मार्ग को ग्रहण करते हुए ।___________

यद्यपि हमने समीक्षात्मक शैली को प्रस्तुत किया परन्तु हमने कभी कोई भी निर्णय या निष्कर्ष स्थापित नहीं किया क्योंकि निर्णय की मौलिकताओं मेंं केवल...  

पूर्वाग्रह का समायोजन होता है । अधिकतर हमारे लेख इसी प्रकार विना-पूर्वाग्रह  के होते हैं । कारण यह है कि हम निर्णय पाठकों से आमन्त्रित करते हैं ।

इसी लिए कुछ पाठक- वृन्द प्राय: हमसे शिकायत करते हैं कि आपकी  पोष्टों के कोई निष्कर्ष नहीं होते हैं।

और वे पाठक हमारी पोष्ट( सन्देश) पढ़कर कन्फ्यूज होते हैं और कोई कोई तो बैचारा फ्यूज ही हो जाता है क्योंकि पोष्ट दीर्घ-काय और पूर्णत्व से युक्त होती हैं।

और इतना परिश्रम कोई करना नहीं चाहता , वास्तव में हमारी पोष्ट सब के लिए नहीं होती क्योंकि जिसका जैसा बौद्धिक स्तर है वह वहीं तक उसको ग्राह्य है और वह वहीं तक पहँच भी पाता है।                    

      (षष्ठम्-चरण)👇

क्योंकि ज्ञान एक तप साधना से प्रादुर्भूत अनुभवपुञ्ज है ! नकि विलासिता के उद्यान का वासन्तिक निकुञ्ज ।।

क्योंकि जिसने बड़े सिद्दत से जज्वातों  को संजोया है। जो रातों में भी जागा है; ना कभी गफलत में सोया है ! और केवल अपने ग़म से नहीं बल्कि दु:खियों के ग़म से रोया है । उसी के लिए हमने भी अपना बहुत कुछ खोया है ।

हम भी इसी प्रकार के महानुभावों से अनुप्रेरित हैं 

यादवों के  इस ऐतिहासिक विवेचनात्मक सन्दर्भों के प्रस्तुतिकरण के शुभ अवसर  पर  आज के समय में यादवों के इतिहास के प्राचीन गूढ़ तथ्यों का अनावरण करने में हमारे सम्बल और उनके स्वाभिमान के भविष्य का उज्ज्वल कल  अर्थात्" हमारे ऐतिहासिक अन्वेषण में सम्बल तो वे सभी लोग हैं जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप जो यादव इतिहास की ज्ञीप्सा और जिज्ञासाओं को समन्वित किए हुए हैं ।

आज हम पुन: यादव इतिहास के उन बिखरे हुए पन्नों को समेटने का और समाज में व्याप्त भ्रान्तियों को मेटने का यह उपक्रम एक अल्प प्रयास के रूप में ही क्रियान्वयन कर रहे हैं ;  

हमारी इस प्रारम्भिक श्रृंखला में तीन युगों के दीर्घ -काय यादव वंश के प्राचीनत्तम इतिहास को अथवा कहें तीन हजार वर्षों के अतीत वृत्त को यदि प्रदर्शित करने की योजना नहीं तो एक उद्यम अवश्य ही है ; परन्तु हमारा यह प्रयास जिज्ञासुओं के समक्ष भले ही गागर में सागर भरने के समान न हो " फिर भी हम आशान्वित हैं।         

   -(सप्तम्-चरण)👇

परन्तु  फिर भी हम मान सकते हैं कि यह उपक्रम यादवों के इतिहास की प्राचीन शास्त्रीय विवेचनाओं का सूत्रात्मक शैली में सम्पूर्ण सार गर्भित तथ्यों का अब तक का सबसे पृथक और  प्रथम प्रस्तुति करण है ।

यादव इतिहास के पृष्ठ जो वर्तमान इतिहास कारों से भी छूट गये हैं । उन्हीं बिखरे हुए पृष्ठों को पुन: संकलित कर  प्रस्तुत करने का उपक्रम है। और फिर आप किसी सागर को लोटे में तो भर नहीं सकते हो ?

मैं "यादव योगेश कुमार "रोहि " अपनी इन भावनाओं से समन्वित होकर और यादव -स्वाभिमान से प्रेरित होकर जीने की दवा - जज्वा लेकर इस पथ पर  निरन्तर अग्रसर हूँ ।_______________________________________

"क्योंकि महान होने वाले ही सभी ख़य्याम नहीं होते उनकी महानता के भी 'रोहि' कोई  इनाम नहीं होते।

फर्क नहीं पढ़ता उनकी शख्सियत में कुछ भी ,ग़मों में सम्हल जाते हैं वो; जो कभी नाकाम नहीं होते।।

बड़ी सिद्दत से संजोया है, ठोकरों के अनुभवों को अनुभवों से प्रमाणित ज्ञान के कभी कोई दाम नहीं होते ।।              

   -(अष्ठम्-चरण)👇

आने वाली अगली पीढी़याँ उन्हें ज़ेहन में संजोती हैं, याद करती हैं उन्हें मुशीबतों में ,और तब उनके के लिए ही रोती हैं।।

जो समाज की हीनता मिटाकर उनके स्वाभिमान के लिए कुछ खा़स और नया उपक्रम करते हैं । 

सारी दुनियाँ जब सोती हैं ; परन्तु वे रात तक श्रम करते हैं । 

उनको मैं नमन करता हूँ ! "यदुवंश के बिखरे हुए अंश" नामक  शीर्षक से हम  आज इस अभियान का आगाज कर रहे हैं । इस अभियान को हमने  लगभग  (दो सौ ) चरणों में पूर्ण किया है; जो एक अपवाद ही है ।

क्योंकि सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं । नियमों में भी अक्सर  'रोहि' यहाँ अपवाद होते हैं ।।

कार्य कारण की बन्दिशें,उसके भी निश्चित दायरे। नियम भी सिद्धान्तों का तभी, जाके अनुवाद होते हैं ।

 महानताऐं घूमती हैं "रोहि"गुमनाम अँधेरों में। चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं।

 "यदुवंश के बिखरे हुए           अंश ★–"👇

 "भारतीय समाज की यह सदीयों पुरानी विडम्बना ही रही कि धर्म के कुछ तथाकथित ठेकेदार , कुछ रूढ़िवादी पुरोहितों ने धर्म के नाम भारतीय समाज पर कुछ प्रवञ्चनाऐं  कालांतर में आरोपित कीं ...

जिसके दुष्परिणाम स्वरूप विभाजित मानवता परस्पर विरोधी संस्कृतियों और मानवीय द्वेषों के रूप में दृष्टि-गोचर हुई !

यदुवंश के इतिहास के सन्दर्भ में हम इन्हीं तथ्यों का व्याख्यान कर रहे हैं;  जिसकी समाज के बहुसंख्यक लोगों को जानकारी नहीं है । पिष्टपेषण करना हम्हे ं अपेक्षित नहीं है।

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        "उपोदघात"

-(प्राचीन -काल में विश्व सभ्यताओं में राजतन्त्र की लोक-परम्परा के अनुसार किसी राजा का बड़ा पुत्र ही उसके राज्य अथवा रियासत की-विरासत का वैध उत्तराधिकारी होता था

परन्तु ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र "यदु" को इस विरासत का उत्तराधिकारी न बनाकर इस परम्परा को खण्डित ही किया था भले ही  जिसके कुछ कारण थे ! 

एक बार  शुक्राचार्य के शाप से ययाति पर युवा अवस्था में आयी हुई वृद्धावस्था के निवारण के लिए जब ययाति ने  अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से उसका यौवन माँगा तो ;                     

"यदुवंश के बिखरे हुए            अंश ★–"👇

यदु ने पिता ययाति का यह प्रस्ताव पापपूर्ण और अनैतिक मानकर अस्वीकार कर दिया था।

क्योंकि यदु का का मानना था , कि मेरे द्वारा प्रदत्त यौवन से पिता जी आप मेरी माताओं से ही साहचर्य-सम्बन्ध स्थापित करोगे और यह मेरे यौवन का कारण स्वरूप होने से पाप ही है ; अत: मैं स्वयं यह पाप-कृत्य नहीं कर सकता ;

परन्तु ययाति को वासनाओं के आवेग में पुत्र का यह धर्ममूलक प्रस्ताव रास नहीं आया;

जैसा कि कामी की दशा का वर्णन करते हुऐ कालिदास ने भी कहा -

"सर्वं तत्किल मत्परायणमहो कामी स्वतां पश्यति॥(अभिज्ञान शाकुन्तलम् २/२)

अर्थात् कामी स्वय को ही दृष्टि गत करता है अथवा कहें कामी स्व-केन्द्रित ही होता है।                     

वासनाओं के वशीभूत होने के कारण कामान्ध होकर कुपित ययाति ने यदु को राज-पद के उत्तराधिकार से वञ्चित कर दिया था । अर्थात् ययाति अपने जिस जिस पुत्र पर यौवन न देने के कारण क्रुद्ध हुए उसी उसी पुत्र के ये विरुद्ध भी हुए । 

परन्तु शर्मिष्ठा के कनिष्ठ (छोटे ) पुत्र 'पुरु' द्वारा ययाति को यौवन देने के कारण ही उसे ही राज पद का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया ।

यद्यपि महाभारत के आदिपर्व के अन्तर्गत एक आख्यान का वर्णन है ।

महाभारत के "अंशावतरण नामक उपपर्व में उपरिचर वसु जो चेदि-देश के राजा थे। जिनके पाँच पुत्र थे। 

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१-बृहद्रथ जिसे मगध का राजा नियुक्त किया और दूसरे पुत्र कि नाम प्रत्यग्रह तीसरा कुशाम्ब जिसे (मणिवाहन) भी कहा गया , चतुर्थ पुत्र मावेल्स और पञ्चम पुत्र का नाम यदु था ।

देखें निम्नलिखित श्लोक -

 "यदुवंश के बिखरे हुए           अंश ★–👇

अर्थ •-इन्द्र के द्वारा सम्मानित चेदिराज उपरिचरवसु ने चेदिदेश में रहकर इस पृथ्वी का धर्म पूर्वक पालन किया।२८।       _________    

इन्द्रपीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः।पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौज:।२९।

अर्थ •-इन्द्र की प्रसन्नता के लिए उपरिचर वसु इन्द्र महोत्सव मनाया करते थे उनकेअनन्त बलशाली पाँच पुत्र हुए।२९।

"नानाराज्येषु च सुतान्स सम्राडभ्यषेचयत्।महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः।३०।।

अर्थ •-सम्राट उपरिचर वसु ने विभिन्न राज्यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का राजा हुआ।३०।

"प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम्। मावेल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः।।३१।

अर्थ •-द्वितीय पुत्र (प्रत्यग्रह) तृतीय (कुशाम्ब) जिसे (मणिवाहन) भी कहते थे चतुर्थ पुत्र (मावेल्ल) और पञ्चम पुत्र का नाम (यदु) था ।३१।

"महाभारत आदिपर्व अँशावतरण नामक उपपर्व का तिरेसठवाँ अध्याय के श्लोक २९-३०-३१ -________________________ 

हरिवंशपुराण के अनुसार यादवों के पूर्वपुरुष  यदु के पाँच पुत्र थे यह वर्णन अधिकांश भारतीय पुराणों में वर्णित है । 

परन्तु हरिवंश पुराण और पद्म पुराण में संख्या क्रम और नाम में भी भेद है।

 "पद्मपुराण में वर्णन है कि (अस्सी हजार) वर्षो तक ययाति ने शासन किया और उनके चार पुत्र थे। जिनमें ज्येष्ठ पुत्र (तुरूरु:) और पुरु: उससे छोटा  कुरु: तीसरे क्रम का और चतुर्थ क्रम में यदु था। नीचे श्लोक संख्या ११-१२-१३ पर देखें-

 👇•

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"श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थमाहात्म्ये चतुःषष्टितमोऽध्यायः( ६४) में यदुवंश के पूर्व और परवर्ती पुरुषों का निम्न वर्णन है।  👇

★–ययातिं सत्य सम्पन्न धर्म वीर्य ओं महामतिम्। एन्द्रपदं गति राजा तस्य पुत्र: पदे सवके।।७।'

"ययातिः सत्यसंपन्नः प्रजा धर्मेण पालयेत्।                स्वयमेव प्रपश्येत्स प्रजाकर्माणि तान्यपि।८।याजयामास धर्मज्ञः श्रुत्वा धर्ममनुत्तमम्।            यज्ञतीर्थादिकं सर्वं दानपुण्यं चकार सः ।९।

राज्यं चकार मेधावी सत्यधर्मेण वै तदा।
(यावदशीतिसहस्राणि) वर्षाणां नृपनंदनः ।१०।             
____________

"तावत्कालं गतं तस्य ययातेस्तु महात्मनः। तस्य पुत्राश्च चत्वारस्तद्वीर्यबलविक्रमाः ।११। तेषां नामानि वक्ष्यामि शृणुष्वैकाग्रमानसः।तस्यासीज्ज्येष्ठपुत्रस्तु (रुरुर्नाम) महाबलः।१२।पुरुर्नामद्वितीयोऽभूत्कुरुश्चान्यस्तृतीयकः। यदुर्नाम स धर्मात्मा चतुर्थो नृपतेः सुतः।१३

एवं चत्वारः पुत्राश्च ययातेस्तु महात्मनः। तेजसा पौरुषेणापि पितृतुल्यपराक्रमाः।१४। 

एवं राज्यं कृतं तेन धर्मेणापि ययातिना।तस्य कीर्तिर्यशो भावस्त्रैलोक्ये प्रचुरोभवत्।१५।

परन्तु महाभारत भागवत पुराण और और देवी भागवत पुराण आदि में यदु ही ययाति के ज्येष्ठ पुत्र हैं। पद्म पुराण के उपरोक्त श्लोक प्रक्षिप्त ही हैं ।

"क्योंकि वर्तमान पुराण आदि ग्रन्थों का लेखन किंवदन्तीयों पर ही हुआ है। जिन्हें विभिन्न ऋषियों के नाम पर सम्पादित किया गया।

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अब विष्णु पुराण में देखें यदुवंश का वर्णन (विष्णुपुराण चतुर्थांश अध्याय दश) 👇

"पूरोःसकाशादादाय जरां दत्त्वा च यौवनम् ।

राज्येऽभिषिच्य पूरुञ्च प्रययौ तपसे वनम् ।४-१०-१६।

अर्थ-अपने छोटे पुत्र जो शर्मिष्ठा से उत्पन्न था उस पुरु को पुन: वृद्धावस्था लेकर और यौवन देकर राज्य पद पर अभिषिक्त कर ययाति वन को तप करे चले गये ।४-१०-१६।

"दिशि दक्षिणपूर्व्वंस्यां तुर्व्वसुं प्रत्यथादिशत् । प्रतीच्याञ्च तथा द्रुह्यु दक्षिणापथतो यदुम् ।४-१०-१७।

अर्थ •- दक्षिणीपूर्व दिशा में तुर्वसु को पश्चिमदिशा में द्रुह्यु को और दक्षिणदिशा में यदु को जाने का आदेश दिया।४-१०-१७।

"उदीच्याञ्च तथैवानुं कृत्वा मण्डलिनो नृपान् ।सर्व्वपृथ्वीपतिं पूरु सोऽभिषिच्य वनं ययौ ।४-१०-१८।

अर्थ •- और उत्तर दिशा में अनु को माण्डलिक राजा बना कर सम्पूर्ण पृथ्वी को पुरु को राज्य अभिषिक्त कर ययाति वन को चले गये।४-१०-१८।__________________________________

भागवत पुराण में कुछ भिन्न वर्णन है कि 

"दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम् ।प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम् ॥२२॥

अर्थ •- दक्षिणपूर्व दिशा में द्रुह्यु दक्षिण दिशा में यदु को पश्चिम दिशा में तुर्वसु को और उत्तर दिशा में अनु को राजा किया किया ।२२।-

(भागवत पुराण 9/19/12)

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परन्तु ब्रह्मपुराण के बारहवें अध्याय में यदु और तुर्वसु की निर्वसित दिशाओं का वर्णन भिन्न है।  

कि ययाति ने पूर्व दिशा में ज्येष्ठ पुत्र यदु को निर्वासित होने का शाप दिया और दक्षिणपूर्व में तुर्वसु को -👇 _______________

ब्रह्मपुराण द्वादश अध्याय में यदु-आख्यान  से सम्बंधित श्लोक निम्नलिखित हैं।

"ययातिर्दिशि पूर्व्वस्यां यदुं ज्येष्ठं न्ययोजयत्। मध्ये पुरुं च राजानमभ्यषिञ्चत् स नाहुषः॥१२.१९॥

दिशि दक्षिणपूर्व्वस्यां तुर्व्वसुं मतिमान्नृपः। तैरियं पृथिवी सर्व्वा सप्तद्वीपा सपत्तना॥१२.२०॥

यथाप्रदेशमद्यापि धर्म्मेण प्रतिपाल्यते। प्रजास्तेषां पुरस्तात्तु वक्ष्यामि मुनिसत्तमाः॥१२.२१॥

धनुर्न्यस्य पृषत्कांश्च पञ्चभिः पुरुषर्षभैः। जरावानभवद्राजा भारमावेश्य बन्धुषु॥१२.२२ ॥

विक्षिप्तशस्त्रः पृथिवीं चचार पृथिवीपतिः।प्रीतिमानभवद्राजा ययातिरपराजितः॥ १२.२३ ॥

एवं विभज्य पृथिवीं ययातिर्यदुमब्रवीत्। जरां मे प्रतिगृह्णीष्व पुत्र कृत्यान्तरेण वै॥ १२.२४ ॥

तरुणस्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम।जरां त्वयि समाधाय तं यदुः प्रत्युवाच ह॥ १२.२५ ॥

        "यदुरुवाच"

"अनिर्दिष्टा मया भिक्षा ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुता।अनपाकृत्य तां ग्रहीष्यमि ते जराम् ॥१२.२६ ॥

जरायां बहवो दोषाः पानभोजनकारिताः।तस्माज्जरां न ते राजन् ग्रहीतुमहमुत्सहे॥१२.२७।

सन्ति ते बहवः पुत्रा मत्तः प्रियतरा नृप।प्रतिग्रहीतुं धर्म्मज्ञ पुत्रमन्यं वृणीष्व वै॥१२.२८॥

स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वितः।उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्॥ १२.२९ ॥        

        "यदुरुवाच"

"क आश्रयस्तवान्योऽस्ति को वा धर्म्मो विधीयत्।मामनादृत्य दुर्व्बुद्धे यदहं तव देशिकः॥१२.३०॥

एवमुक्त्वा यदुं विप्राः शशापैनं स मन्युमान।अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति न संशयः॥ १२.३१ ॥

द्रुहयुं च तुर्व्वसुं चैवाप्यनुं च द्विजसत्तमाः।एवमेवाब्रवीद्राजा प्रत्याख्यातश्च तैरपि॥१२.३२॥

शशेप तानतिक्रुद्धो ययातिरपराजितः। यथावत् कथितं सर्व्वं मयास्य द्विजसत्तममाः॥१२.३३ ॥

एवं शप्त्वा सुतान् सर्व्वाश्चतुरः पुरुपुर्व्वजान्।तदेव वचनं राजा पुरुमप्याह भो द्विजाः॥१२.३४॥

तरुणास्तव रूपेण चरेयं पृथिवीमिमाम्।जरां त्वयि समाधाय त्वं पुरो यदि मन्यसे॥१२.३५॥

स जरां प्रतिजग्राह पितुः पुरुः प्रतापवान्। ययातिरपि रूपेम पुरोःपर्य्यचरन् महीम्॥१२.३६॥

स मार्गमाणः कामानामन्तं नृपतिसत्तमः। विश्वाच्या सहितो रेमे वने चैत्ररथे प्रभुः॥१२.३७॥

यदा स तृप्तः कामेषु भोगेषु च नराधिपः। तदा पुरोः सकाशाद्वै स्वां जरां प्रत्यपद्यत॥१२.३८॥

यत्र गाथा मुनिश्रेष्ठा गीताः किल ययातिना। याभिः प्रत्याहरेत्कामान् सर्वशोऽङ्गानि कूर्म्मवत्।१२.३९।

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥१२.४०॥

यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पश्वः स्त्रियःनालं एकस्य तत्सर्वमिति कृत्वा नमुह्यति।।१२.४१ ॥

यदा भावं न कुरुते सर्व्वभूतेषु पापकम्। कर्म्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥ १२.४२ ॥

यदा तेभ्यो न बिभेति यदा चास्मान्न बिब्यति। यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥१२.४३॥

या दुस्त्यजा दुर्म्मतिभिर्या न जीर्य्यति जीर्य्यतः। योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्।१२.४४।

जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः केशा दन्ता जीर्य्यन्ति जीर्य्यतः।धनाशा जीविताशा चजीर्य्यतोऽपि न जीर्य्यति॥१२.४५॥

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्। तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हन्ति षोडशीं कलाम्॥ १२.४६ ॥

एवमुक्त्वा स राजर्षिः सदारः प्राविशद्वनम्।कालेन महता नार्हन्ति षोडशीं कलाम्॥१२.४७॥

भृगुतुङ्गे गतिं प्राप तपसोऽन्ते महायशाः।अनश्नन् देहमुत्सृज्य सदारः स्वर्गमाप्तवान्॥१२.४८॥

तस्य वंशे मुनिश्रेष्ठाः पञ्च राजर्षिसत्तमाः।यैर्व्याप्ता पृतिवी सर्व्वा सूर्य्यस्येव गभस्तिभिः॥१२.४९॥

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"यदोस्तु वंशं वक्ष्यामि श्रुणुध्वं राजसत्कृतम् । यत्र नारायणो जज्ञे हरिर्वृष्णिकुलोद्वहः॥ १२.५० ॥

सुस्तःप्रजावानायुष्मान् कीर्त्तिमांश्च भवेन्नरः। ययातिचरितं नित्यमिदं श्रुण्वन् द्विजोत्तमाः॥ १२.५१ ॥

इति श्रीब्राह्मेमहापुराणे सोमवंशे ययातिचरितनिरूपणं नाम द्वादशोऽध्यायः॥ १२ ॥

ब्रह्मपुराणकार ने महाभारत से निम्न श्लोक लिया है । अन्तर केवल इतना है की क्रिया पद नार्हन्ति के स्थान पर ब्रह्म पुराण में नार्हतः क्रिया पद है ।
अर्हत: ( लट्लकार का परस्मैपदीय द्विवचन रूप है जबकि अर्हन्ति बहुवचन रूप है । अत: महाभारत का श्लोक सही है ।
"यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम्।।६।12-282-6 (महाभारत शान्ति पर्व)( मुम्बई संस्करण)

"अर्थ"-सांसारिक काम अर्थात् वासना की तृप्ति होने से जो सुख होता है और जो सुख स्वर्ग में मिलता है, उन दोनों सुखों की योग्यता, तृष्णा के क्षय से होने वाले सुख के सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है’’

(गीताप्रेस संस्करण शान्ति पर्व.174.48
/177.49)

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इसी ब्रह्म पुराण में आगे वर्णन है कि यदु के पाँच पुत्र हुए 1-सहस्राद 2-पयोद 3- क्रोष्टा 4-नील और 5-अञ्जिक सहस्राद के तीन पुत्र हुए 'हैहय' 'हय' और वेणुहय और इसी हैहय वंश में कृतवीर्य का पुत्र सहस्रार्जुन हुआ •👇

"प्रचेतसः सुचेतास्तु कीर्त्तितास्तुर्वसोर्मया।

बभूवुस्ते यदोः पुत्राः पञ्च देवसुतोपमाः॥ १३.१५३ ॥

सहस्रादः पयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा।

सहस्रादस्य दायादास्त्रयःपरमधार्म्मिकाः।१३.१५४ ॥

हैहयस्च हयश्चैव राजा वेणुहयस्तथा।

हैहयस्याभवत् पुत्रो धर्म्मनेत्र इति श्रुतः॥ १३.१५५ ॥

धर्म्मनेत्रस्य कार्त्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः।

साहञ्जनी नाम पुरी तेन राज्ञा निवेशिताः॥ १३.१५६ ॥

आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।

भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम विश्रुतः॥१३.१५७॥

दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम नामतः। 

"कनकस्य तु  दायादाश्चतवारोलोकविश्रुता:।।१३/१५८।।

कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः॥१३.१५८॥

कृतवीर्य्यः कृतौजाश्च कृतधन्वा तथैव च।

कृताग्निस्तु चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यादथार्ज्जुनः।१३.१५९॥

योऽसौ बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेस्वरोऽभवत्।

जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्च्चसा।१३.१६०।

स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः पमदुश्चरम्।

दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।१३.१६१॥

तस्मै दत्तो वरन् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः।

पूर्व्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सु महद्वरम्॥१३.१६२॥अधर्म्मोऽधीयमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम्।

उग्रेण पृथिवीं जित्वा धर्म्मेणैवानुरञ्जनम्।१३/१६३।

संग्रामात् सुबहून् जित्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः।

संग्रामे वर्त्तमानस्य वधं चाभ्यधिकाद्रणे॥१३.१६४॥

तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भो द्विजाः।

योगाद्योगीश्वरस्येव प्रादुर्भवति मायया॥१३.१६५॥

तनेयं पृथिवी सर्र्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।

ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता॥१३.१६६॥

ययाति द्वारा यदु को दिये गये शाप का वर्णन  महाभारत के (आदिपर्व) के अन्तर्गत (सम्भवपर्व) के (82) बयासीवें अध्याय में भी एक आख्यान रूप में है ।

 👇और समता परक यह आख्यान मत्स्य पुराण में भी दृष्टव्य है।

ययाति प्रकरण से सम्बंधित ये निम्न श्लोक दोनों ग्रन्थों में समान हैं। देखें

प्रथमत: महाभारत के अनुसार- 👇       

 "वैशंपायन उवाच"

"जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि। पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः।।१/७८/१।________________________

और मत्स्य पुराण में तैतीसवें अध्याय में प्रथम श्लोक 👇शौनक उवाच।

"जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव हि। पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः।।३३/१।।


और बुढ़ापा पाकर ययाति अपने नगर को पहुँचकरअपने बड़े पुत्र यदु से अवस्था विनिमय के यह वचन बोले ।।         

परन्तु यदु ने राजा के प्रस्ताव को अनुचित मानकर  अस्वीकार कर दिया

हरिवंश पुराण में भी यह वर्णन इस प्रकार से है !

"स एवम् उक्तो यदुना राजा कोप समन्वित:उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर् गर्हयन् सुतम्।27।

•-यदु के ऐसा कहने पर (अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले !

"क आश्रय: तव अन्योऽस्ति को वा धर्मो विधीयते।माम् अनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक:।।28।

•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। 

मैं तो तेरा (देशिक)गुरु हूँ (फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।28।

किंतु महाराज ययाति ने भी परंपरा के विरुद्ध जाकर अपने बड़े पुत्र यदु को राजा न बनाकर अपने सबसे छोटे पुरु को राजा बना दिया।

और अन्त नें ज्येष्ठ पुत्र यदु को दक्षिण दिशा में जाकर रहने और  राज्य हीन होने का ययाति द्वारा शाप दे दिया गया जैसा कि आगामी श्लोक वर्णन करता है।

लगभग सभी पुराणों में कुछ अन्तर से यह प्रचीन आख्यान समान ही है ।

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निम्नलिखित रूप में देखें भागवत पुराण से ययाति प्रसंग में यदुवंश वर्णन-

   श्रीमद्भागवतपुराणम् -स्कन्धः (९)-अध्यायः (१८)

          "ययाति-चरितम्" 

        (श्रीशुक उवाच ) 

"यतिर्ययातिःसंयातिःआयतिर्वियतिः कृतिः। षडिमे नहुषस्यासन् इन्द्रियाणीव देहिनः ॥१॥

राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् ।यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥२॥

पितरि भ्रंशिते स्थानाद् इन्द्राण्या धर्षणाद्‌ द्विजैः। प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ॥३॥

चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः। कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः॥४॥                  

          "श्रीराजोवाच" 

ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः । राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः ॥५॥          

           "श्रीशुकोवाच" 

"एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका।सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी ॥६॥

देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसंकुले। व्यचरत् कलगीतालि नलिनीपुलिनेऽबला।७।

ता जलाशयम आसाद्य कन्याः कमललोचनाः।तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुःसिञ्चतीर्मिथः ॥८॥

वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम्।सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताःस्त्रियः ॥९॥

शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत्।स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानी इदमब्रवीत् ॥१०॥

अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याःकर्म ह्यसाम्प्रतम्।अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे ॥११॥

यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये।धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाः प्रदर्शितः॥१२॥

यान् वन्दन्ति उपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः।भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः ॥१३॥

वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरःअस्मद्धार्यं धृतवतीशूद्रो वेदमिवासती।१४।

एवं क्षिपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीं अभाषत। रुषा श्वसन्ति उरंगीघ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा ॥१५॥

आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि। किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा ॥१६॥

एवंविधैःसुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम्।शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वासे आदाय मन्युना ॥१७॥

तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन्।        प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह॥१८॥

दत्त्वा स्वमुत्तरं वासः तस्यै राजा विवाससे।गृहीत्वा पाणिना पाणिं उज्जहार दयापरः॥१९॥

तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा । राजन् त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय॥२०॥

हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे। एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः। यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम्।२१।

न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज । कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा ॥२२॥

ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः मनस्तु तद्‍गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः।२३।

गते राजनि सा धीरे तत्र स्म रुदती पितुः। न्यवेदयत् ततः सर्वं उक्तं शर्मिष्ठया कृतम्।२४॥

दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन् । स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात् ॥२५॥

वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीक विवक्षितम् । गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि॥ २६॥

क्षणार्ध मन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः। कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥२७॥

तथेति अवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम्। पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु॥२८।

"स्वानां तत् संकटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम् । देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत्॥२९॥

नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना। तमाह राजन् शर्मिष्ठां आधास्तल्पे न कर्हिचित्।३०।

विलोक्यौशनसीं राजन् शर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित्। तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती॥ ३१॥

राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित् । स्मरन् शुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत ॥३२॥

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत, द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥३३॥

गर्भसंभवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी । देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता॥३४॥

प्रियां अनुगतः कामी वचोभिः उपमन्त्रयन्। न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः॥३५॥

शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष। त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम् ॥३६॥          

        "श्रीययातिरुवाच"

अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते। व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति।३७।।

इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत। यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥३८॥

मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम् । वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः ॥३९॥       

           "यदुरुवाच" 

नोत्सहे जरसा स्थातुं अन्तरा प्राप्तया तव । अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः।४०।

तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत । प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः॥४१॥

अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम् ।                       न त्वं अग्रजवद् वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि॥४२॥    

          "श्रीपूरुवाच"

"को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान्। प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम् ॥४३॥

उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः । अधमोऽश्रद्धया कुर्याद् अकर्तोच्चरितं पितुः॥४४॥

इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः।      सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप॥ ४५॥

सप्तद्वीपपतिःसम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः।        यथोपजोषं विषयान् जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः।४६।

देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग् देहवस्तुभिः। प्रेयसः परमां प्रीतिं उवाह प्रेयसी रहः॥४७॥

अयजद् यज्ञपुरुषं  क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः। सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ।४८॥

यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः।                  नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः॥४९॥ 

तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम् । नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम् ॥५०॥

एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम्। विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमःकदिन्द्रियैः।५१।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥

    हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
_______________________________ 
श्रीमद्भागवतपुराणम् - स्कन्धः (९)-अध्यायः (२४)

                 (श्रीशुक उवाच)
तस्यां विदर्भोऽजनयत्पुत्रौ नाम्ना कुशक्रथौ
तृतीयं रोमपादं च विदर्भकुलनन्दनम् ।१।

रोमपादसुतो बभ्रुर्बभ्रोः कृतिरजायत
उशिकस्तत्सुतस्तस्माच्चेदिश्चैद्यादयो नृपाः ।२।

क्रथस्य कुन्तिः पुत्रोऽभूद्वृष्णिस्तस्याथ निर्वृतिः
ततो दशार्हो नाम्नाभूत्तस्य व्योमः सुतस्ततः ।३।

जीमूतो विकृतिस्तस्य यस्य भीमरथः सुतः
ततो नवरथः पुत्रो जातो दशरथस्ततः ।४।

करम्भिः शकुनेः पुत्रो देवरातस्तदात्मजः
देवक्षत्रस्ततस्तस्य मधुः कुरुवशादनुः ।५।

पुरुहोत्रस्त्वनोः पुत्रस्तस्यायुः सात्वतस्ततः
भजमानो भजिर्दिव्यो वृष्णिर्देवावृधोऽन्धकः ।६।

सात्वतस्य सुताः सप्त महाभोजश्च मारिष
भजमानस्य निम्लोचिः किङ्कणो धृष्टिरेव च ।७।

एकस्यामात्मजाः पत्न्यामन्यस्यां च त्रयः सुताः
शताजिच्च सहस्राजिदयुताजिदिति प्रभो ।८।

बभ्रुर्देवावृधसुतस्तयोः श्लोकौ पठन्त्यमू
यथैव शृणुमो दूरात्सम्पश्यामस्तथान्तिकात् ।९।

बभ्रुः श्रेष्ठो मनुष्याणां देवैर्देवावृधः समः
पुरुषाः पञ्चषष्टिश्च षट्सहस्राणि चाष्ट च ।१०।

येऽमृतत्वमनुप्राप्ता बभ्रोर्देवावृधादपि
महाभोजोऽतिधर्मात्मा भोजा आसंस्तदन्वये ।११।

वृष्णेः सुमित्रः पुत्रोऽभूद्युधाजिच्च परन्तप
शिनिस्तस्यानमित्रश्च निघ्नोऽभूदनमित्रतः।१२।

सत्राजितः प्रसेनश्च निघ्नस्याथासतुः सुतौ
अनमित्रसुतो योऽन्यः शिनिस्तस्य च सत्यकः।१३।

युयुधानः सात्यकिर्वै जयस्तस्य कुणिस्ततः
युगन्धरोऽनमित्रस्य वृष्णिः पुत्रोऽपरस्ततः ।१४।

श्वफल्कश्चित्ररथश्च गान्दिन्यां च श्वफल्कतः
अक्रूरप्रमुखा आसन्पुत्रा द्वादश विश्रुताः।१५।

आसङ्गः सारमेयश्च मृदुरो मृदुविद्गिरिः
धर्मवृद्धः सुकर्मा च क्षेत्रोपेक्षोऽरिमर्दनः।१६।

शत्रुघ्नो गन्धमादश्च प्रतिबाहुश्च द्वादश
तेषां स्वसा सुचाराख्या द्वावक्रूरसुतावपि ।१७।

देववानुपदेवश्च तथा चित्ररथात्मजाः
पृथुर्विदूरथाद्याश्च बहवो वृष्णिनन्दनाः ।१८।

कुकुरो भजमानश्च शुचिः कम्बलबर्हिषः
कुकुरस्य सुतो वह्निर्विलोमा तनयस्ततः ।१९।

कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः
अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ।२०।

              (अरिद्योतः पाठभेदः)
तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ
देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ।२१।

देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः
तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप ।२२।

शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता
सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ।२३।

कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा।
राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः ।२४।

कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका
उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ।२५।

शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः
शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः।२६।

देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः
देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ।२७।

तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्
वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ।२८।

सृञ्जयं श्यामकं कङ्कं शमीकं वत्सकं वृकम्
देवदुन्दुभयो नेदुरानका यस्य जन्मनि ।२९।

वसुदेवं हरेः स्थानं वदन्त्यानकदुन्दुभिम्
पृथा च श्रुतदेवा च श्रुतकीर्तिः श्रुतश्रवाः ।३०।

राजाधिदेवी चैतेषां भगिन्यः पञ्च कन्यकाः
कुन्तेः सख्युः पिता शूरो ह्यपुत्रस्य पृथामदात् ।३१।

शाप दुर्वाससो विद्यां देवहूतीं प्रतोषितात्
तस्या वीर्यपरीक्षार्थमाजुहाव रविं शुचिः।३२।

तदैवोपागतं देवं वीक्ष्य विस्मितमानसा
प्रत्ययार्थं प्रयुक्ता मे याहि देव क्षमस्व मे।३३।

अमोघं देवसन्दर्शमादधे त्वयि चात्मजम्
योनिर्यथा न दुष्येत कर्ताहं ते सुमध्यमे ।३४।

इति तस्यां स आधाय गर्भं सूर्यो दिवं गतः
सद्यः कुमारः सञ्जज्ञे द्वितीय इव भास्करः।३५।

तं सात्यजन्नदीतोये कृच्छ्राल्लोकस्य बिभ्यती
प्रपितामहस्तामुवाह पाण्डुर्वै सत्यविक्रमः।३६।

श्रुतदेवां तु कारूषो वृद्धशर्मा समग्रहीत्
यस्यामभूद्दन्तवक्र ऋषिशप्तो दितेः सुतः।३७।

कैकेयो धृष्टकेतुश्च श्रुतकीर्तिमविन्दत
सन्तर्दनादयस्तस्यां पञ्चासन्कैकयाः सुताः।३८।

राजाधिदेव्यामावन्त्यौ जयसेनोऽजनिष्ट ह
दमघोषश्चेदिराजः श्रुतश्रवसमग्रहीत् ।३९।

शिशुपालः सुतस्तस्याः कथितस्तस्य सम्भवः
देवभागस्य कंसायां चित्रकेतुबृहद्बलौ ।४०।

कंसवत्यां देवश्रवसः सुवीर इषुमांस्तथा
बकः कङ्कात्तु कङ्कायां सत्यजित्पुरुजित्तथा ।४१।

सृञ्जयो राष्ट्रपाल्यां च वृषदुर्मर्षणादिकान्
हरिकेशहिरण्याक्षौ शूरभूम्यां च श्यामकः ।४२।

मिश्रकेश्यामप्सरसि वृकादीन्वत्सकस्तथा
तक्षपुष्करशालादीन्दुर्वाक्ष्यां वृक आदधे ।४३।

सुमित्रार्जुनपालादीन्समीकात्तु सुदामनी
आनकः कर्णिकायां वै ऋतधामाजयावपि ।४४।

पौरवी रोहिणी भद्रा मदिरा रोचना इला
देवकीप्रमुखाश्चासन्पत्न्य आनकदुन्दुभेः।४५।

बलं गदं सारणं च दुर्मदं विपुलं ध्रुवम्
वसुदेवस्तु रोहिण्यां कृतादीनुदपादयत् ।४६।

सुभद्रो भद्र बाहुश्च दुर्मदो भद्र एव च
पौरव्यास्तनया ह्येते भूताद्या द्वादशाभवन् ।४७।

नन्दोपनन्दकृतक शूराद्या मदिरात्मजाः
कौशल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।४८।

रोचनायामतो जाता हस्तहेमाङ्गदादयः
इलायामुरुवल्कादीन्यदुमुख्यानजीजनत्।४९।

विपृष्ठो धृतदेवायामेक आनकदुन्दुभेः
शान्तिदेवात्मजा राजन्प्रशमप्रसितादयः।५०।

राजन्यकल्पवर्षाद्या उपदेवासुता दश
वसुहंससुवंशाद्याः श्रीदेवायास्तु षट्सुताः।५१।

देवरक्षितया लब्धा नव चात्र गदादयः
वसुदेवः सुतानष्टावादधे सहदेवया।५२।

प्रवरश्रतमुख्यांश्च साक्षाद्धर्मो वसूनिव
वसुदेवस्तु देवक्यामष्ट पुत्रानजीजनत्।५३।

कीर्तिमन्तं सुषेणं च भद्र सेनमुदारधीः
ऋजुं सम्मर्दनं भद्रं सङ्कर्षणमहीश्वरम्।५४।

अष्टमस्तु तयोरासीत्स्वयमेव हरिः किल
सुभद्रा च महाभागा तव राजन्पितामही।५५।

यदा यदा हि धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः
तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः।५६।

न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते
आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्र ष्टुरात्मनः।५७।

यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि
अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते।५८।

अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः
भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः।५९।

कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरेश्वरैः
सहसङ्कर्षणश्चक्रे भगवान्मधुसूदनः।६०।

कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्
अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद्यशः।६१।

यस्मिन्सत्कर्णपीयुषे यशस्तीर्थवरे सकृत्
श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम् ।६२।

भोजवृष्ण्यन्धकमधु शूरसेनदशार्हकैः
श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः ।६३।

स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया ।६४।

यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ।६५।

जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थो हत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदारः
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे आत्मानमात्मनिगमं प्रथयन्जनेषु ।६६।

पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणामन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ।६७।____________________________________

हिन्दी अर्थ-•नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद:-

            -:विदर्भ के वंश का वर्णन:-      श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का पुत्र  चेदि हुआ ।                        

राजन ! इस चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए।                                      क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम। व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ।                                                दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए।                                                                                        अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ।  परीक्षित ! सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, ( सात्वत-पुत्र वृष्णि प्रथम), देवावृध, अन्धक और महाभोज।                                  भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।

सात्वत पाँचवें पुत्र देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं। बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। 

इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।’

सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए। परीक्षित !   

वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के ( युधाजित् पुत्र शिनि प्रथम)  और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ । सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी "निम्न" के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था ( अनमित्र पुत्र शिनि द्वितीय) शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम ( अनमित्र-पुत्र वृष्णि द्वितीय ) था। इन्हीं वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र और उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु।                          इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा।                                              

अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव।श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।                                              सात्वत के पुत्र (अन्धक प्रथम)  के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि।          उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का ( कपोतरोमा पुत्र अनु द्वितीय) हुआ।            तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र (अन्धक द्वितीय), अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई।        आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन।       देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन।                                         इन चारों की सात बहिनें भी थीं- धृतदेवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव  ने इन सबके साथ विवाह किया था।  

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १३ में वसुदेव की देवक द्वारा प्रदत्ता कन्याओं का पत्नियों के रूप में वर्णन भिन्न है। देखें निम्न श्लोकों को-

देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा।              श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी।५७।।

   _____________________________      

नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-
उग्रसेन के नौ पुुत्र  थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान और उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं
-कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था। 
चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से  (भजमान पुत्र शिनि तृतीय), शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए। हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।                                              देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।                                      ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और (नौबत) मंगलसूचक वाद्य जो पहर पहर भर पर देवमंदिरों, राजप्रसादों था बड़े आदमियों के द्वार पर बजता है। स्वयं ही बजने लगे थे।                            अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए।
वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।                                      
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी।                        पृथा ने दुर्वासा ऋषि को प्रसन्न करके उनसे देवताओं को बुलाने की विद्या सीख ली।                                  
एक दिन उस विद्या के प्रभाव की परीक्षा लेने के लिये पृथा ने परम पवित्र भगवान् सूर्य का आवाहन किया।
 उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्ती का हृदय विस्मय से भर गया। 
उसने कहा- ‘भगवन! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करने के लिये ही इस विद्या का प्रयोग किया था। 
अब आप पधार सकते हैं’। सूर्यदेव ने कहा- ‘देवि! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिय हे सुन्दरी! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ।
 हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा।' यह कहकर भगवान सूर्य ने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। 
उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। 
वह देखने में दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था। पृथा लोकनिन्दा से डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःख से उस बालक को नदी के जल में छोड़ दिया। 
परीक्षित! उसी पृथा का विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डु से हुआ था, जो वास्तव में बड़े सच्चे वीर थे। 
परीक्षित! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ। 
यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। 
कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था।
 उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए।
राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। 
चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ। 
वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल।
देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए। 
आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित। 
नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध:  
चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद)

सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से       वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये।    

 इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू)              नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष          नामक दो पुत्र उत्पन्न किये।                        मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के              भी वृक आदि कई पुत्र हुए।                                वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर

और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये।                शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र 

और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये।        कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।

आनकदुन्दुभि वसुदेव  की पौरवी, रोहिणी,    भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं।                              रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम

गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि      पुत्र हुए थे। 

पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत,      सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि। 

नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के        गर्भ से उत्पन्न हुए वसुदेव के पुत्र थे।           कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न       किया था।                                                     व  उसका नाम था केशी; उसने रोचना                से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से            उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को              जन्म दिया।

परीक्षित ! वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से          विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और            शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि                  कई पुत्र हुए।

 उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए       और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र     हुए।  

देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए.          तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को                          उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा       के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न        किये।                                          _______________________________________ 

परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से

भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के

नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी

उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा

 भी देवकी जी की ही कन्या थीं।                           (परन्तु हरिवंश और महाभारत के अनुसार.          सुभद्रा रोहिणी की पुत्री है।                                                                                                           जब संसार में धर्म का ह्रास और  

पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान 

भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं।

 परीक्षित! भगवान् सब के द्रष्टा और वास्तव में   असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के                           अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का            और कोई भी कारण नहीं है।

 (उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है)। 

और उनका अनुग्रह ही माया को अलग

करकेआत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाला है।    जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया    और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके 

वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधु सूदन बलराम  के                   साथ अवतीर्ण हुए। 

उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध

 में  बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी                 नहीं कर सकते-शरीर से करने की बात तो 

अलग रही। पृथ्वी का भार तो उतरा ही,                  साथ ही कलियुग में पैदा होने वाले 

भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान्

ने ऐसे परम पवित्र  यश का विस्तार किया,      जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके 

दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब.                  नष्ट हो जायेंगे।

नवम स्कन्ध: चतुर्विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 62-67 का हिन्दी अनुवाद.                                                 उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है।

एक बार भी यदि कान की अंजलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं।

परीक्षित! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे। 

उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोहर विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था। भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे।

उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था। 

जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहने वाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिराने वाले निमि पर खीझते भी। 

लीला पुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेव जी के घर, परन्तु वहाँ वे रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था-पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। 

साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया। कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हलका कर दिया और युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया।                        फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायःइति नवमः स्कन्धः समाप्तः

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भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ।६।

गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कृतम्रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुलेअन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।७।

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाममामकम्तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ।८।

अथाहमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभे प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।९।

अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम्धूप:उपहार बलिभिः सर्वकामवरप्रदाम् ।१०।

नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुविदुर्गेति भद्र कालीति विजया वैष्णवीति च ।११।

कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च माया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ।१२।

गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि रामेति लोकरमणाद्बलभद्रं बलोच्छ्रयात् ।१३।

सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत् ।१४।

गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्र या अहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः ।१५।

अर्थ •-दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय (पूर्वार्ध) श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय: 

श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद भगवान का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति 

विश्वात्मा भगवान ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाले यदुवंशी कंस के द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को यह आदेश दिया - 'देवि ! कल्याणी ! तुम ब्रज में जाओ ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओं से सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करती है। 

उसकी और भी पत्नियाँ कंस से डरकर गुप्त स्थानों में रह रहीं हैं। 

इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकी के उदर में गर्भ रूप से स्थित है। 

उसे वहाँ से निकालकर तुम रोहिणी के पेट में रख दो, कल्याणी ! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। 

तुम लोगों को मुँह माँगे वरदान देने में समर्थ होओगी।                                                                                               

मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे। पृथ्वी में लोग तुम्हारे लिए बहुत से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत से नामों से पुकारेंगे। 

देवकी के गर्भ से खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में ‘संकर्षण’ कहेंगे, लोकरंजन करने के कारण ‘राम’ कहेंगे और बलवानों में श्रेष्ठ होने कारण ‘बलभद्र’ भी कहेंगे।' जब भगवान ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमाया ने ‘जो आज्ञा’, ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोक में चली आयीं तथा भगवान ने जैसा कहा था वैसे ही किया। जब योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःख के साथ आपस में कहने लगे - 'हाय ! बेचारी देवकी का यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया।' भगवान भक्तों को अभय करने वाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वसुदेव जी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गय।

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इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे गर्भगतिविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः

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   👇- भागवत पुराण के प्रक्षिप्त श्लोक -👇

 " दशम स्कन्ध के पैंतालीसवें अध्याय में एक स्थान पर भागवत पुराणकार ने ययाति के यदु को दिए गये शाप का वर्णन तो किया परन्तु भागवतपुराणकार की बातों का समन्वयपरक प्रस्तुतिकरण संगत नहीं किया है। जो श्लोकों के प्रक्षिप्त होने का प्रमाण है । 

कदाचित् ये मिलाबटें कालान्तरण में हुईं क्यों कि यदुवंशी उग्रसेन भी थे और कृष्ण भी; परन्तु कृष्ण यदुवंशी होने से राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं परन्तु उग्रसेन यदुवंश के होने पर क्यों बैठते हैं जैसा कि भागवत के इन श्लोकों में दर्शाया है। देखिए निम्न श्लोकों को 

                      

(यदु वंश के बिखरे हुए अंश)   

"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:। मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।

आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।

ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने।१३।

(श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय)

अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।

और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज ! हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए !

"क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।१३।

अब ---मैं पूँछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह शाप उन पर क्यों लागू नहीं हुआ ?

यद्यपि यह श्लोक गर्ग संहिता विश्वजित ् खण्ड अध्याय षष्ठम् में  वर्णन है कि ।👇-

उग्रसेनो यादवेन्द्रो राजराजेश्वरो महान् ॥जंबूद्वीपनृपाञ्जित्वा राजसूयं करिष्यति ॥४॥

•-यादवेन्द्र उग्रसेन ने जम्बूदीप के अनेक राजाओं को जीत कर राजसूय यज्ञ करेंगे ।

फिर तो यह तथ्य असंगत ही है ;कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।

यही बात भागवत पुराण के समान ब्रह्म पुराण अध्याय १९४ में भी है 👇-

उग्रसेनं ततो बन्धान्मुमोच मधुसूदनः। अभ्यषिञ्चत्तथैवैनं निजराज्ये हतात्मजम्।। १९४.९ ।।

राज्येऽभिषिक्तः कृष्णेन यदुसिंहः सुतस्य हरिः।
चकार प्रेतकार्याणि ये चान्ये तत्र घातिताः।।१९४.१०।।

कृतौर्ध्वदैहिकं चैनं सिंहासनगतं हरिः।
उवाचाऽऽज्ञापय विभो यत्कार्यमविशङ्कया।१९४.११।
__________________👇-
ययातिशापाद्वंशोऽयमराज्यार्होऽपि सांप्रतम्।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नृपैः।१९४.१२ ।

इत्युक्त्वा चोग्रसेनं तु वायुं प्रति जगाद ह।
नृवाचा चैव भगवान्केशवः कार्यमानुषः।। १९४.१३ ।।

अर्थात् ययाति का शाप होने से हम राज्य पद के योग्य नहीं हैं ।
(ब्रह्म पुराण अध्याय १९४)
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"अत्रावतीर्णयोःकृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।।१८५.३२।।

दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्। तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।१८५.३३

यद्यपि कालान्तरण में ग्रन्थों के प्रकाशन काल में भी अनेक मिलाबटों के रूप में जोड़ -तोड़ हो जाने पर भी अनेक प्रक्षेप व विरोधाभासी श्लोक देखने को मिलते हैं । जैसे भागवत पुराण में देखें ये कुछ विरोधाभासी श्लोक •👇

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रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना।८।(भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम)

भगवन् आपने बताया कि बलराम रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है ? ।।८।।

तब द्वित्तीय अध्याय के श्लोक संख्या (८) में शुकदेव परिक्षित् को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।👇-

भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम्यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ।६।

गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कृतम्रोहिणी वसुदेवस्य भार्यास्ते नन्दगोकुलेअन्याश्च कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।७।

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम्तत्सन्निकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ।८।

अथाहमंशभागेन देवक्याः पुत्रतां शुभेप्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।९।

अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम्धूपोपहारबलिभिः  सर्वकामवरप्रदाम्।१०।

नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भुविदुर्गेति भद्र कालीति विजया वैष्णवीति च ।।११।

कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति      चमाया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ।१२।

गर्भसङ्कर्षणात्तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुविरामेति लोकरमणाद्बलभद्रं बलोच्छ्रयात् ।१३।

सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचःप्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गता तत्तथाकरोत् ।१४।

गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणीं योगनिद्र याअहो विस्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः ।१५।

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इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे गर्भगतिविष्णोर्ब्रह्मादिकृतस्तुतिर्नाम द्वितीयोऽध्यायः।

भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत् ।6।

गच्छ देवि व्रजंभद्रे गोप गोभिरलंकृतम्। रोहिणी वसुदेवस्य भार्याऽऽस्ते नन्द गोकुले ।अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।7।

देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ।।8।

अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि।9।

अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सबकुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया।6।  

"कि देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ  वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है ।        वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं ।उनकी और भी अन्य पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7।

इस समय मेरा अंश जिसे 'शेष' कहते हैं  देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है ! उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8।

कल्याणि ! अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ  देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से पुत्री बन कर जन्म लेना ।9।

अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं  देखिए -👇

"गर्भ संकर्षणात् तं  वै प्राहु: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13।

अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच जाने के कारण से (संकर्षणात्)  शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे । चलो ! ये संकर्षण की व्युत्पत्ति तो कुछ सही है ।👇-

(जैसा कि धातुपाठ क्षीरतरंगिणी आदि में 'कृष्' धातु का अर्थ है- खुरचना खींचना तथा हल-चलाना है और जो कृषि करता है वह कृष्ण या संकर्षण है - (कृष्- विलेखने हलोत्किरणम् कर्षति इति कृष्ण संकर्षण वा )

कृष्ण और संकर्षण दोनों शब्द कृषक और कृषि मूलक हैं। 

देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में संकृष्ट करने का आख्यान अनेक पुराणों में है परन्तु जो शब्द व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि से तो सही है परन्तु एक गर्भ से खींचकर दूसरे के गर्भ में स्थापित करना अतिरञ्जना पूर्ण है जो पूर्णत: प्रकृति के नियमों के विरुद्ध ही है ।।

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अब भागवत पुराण के दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में ही गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण (Etymological Analization) दूूूसरी प्रकार से ही करते हैं; जो वस्तुत: व्याकरण सम्मत नहीं है 👇

यह श्लोक परवर्ती काल में कुछ द्वेष वादीयों ने भागवत में जोड़ दिया है जो तथ्यों के विपरीत ही है ।

देखें वह श्लोक -१-अयं हि रोहिणी पुत्रो           २-रमयन् सुहृदो गुणै:आख्यास्यते राम इति !    ३बलाधिक्याद् बलं विदु: ४-("यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत")।12)

गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा। यह अपने सगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा ! इसलिए इसका नाम राम भी होगा । 

इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होगा। 

यहाँ तक तो रौहिणेय , राम  और बल शब्दों की व्युत्पत्ति सही हैं ।

परन्तु संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है। -जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।👇

संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराणकार ने दूसरी बार कहा कि इसका नाम संकर्षण इस लिए होगा कि 

"यह यादवों और गोपों में कोई भेदभाव नहीं करेगा ! और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा इसीलिए इसका नाम संकर्षण भी होगा (👈)यहाँ संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरण सम्मत नहीं है ।

यद्यपि इस श्लोक का सही अर्थ भी इस प्रकार है।

कि'यादवानाम ्(यादवों में ही )अपृथग्भावात्-अपृथक केभाव सेअर्थात एकीकरण करनेसे-यह संकर्षण कह लाएगा) परन्तु गीताप्रेस केअनुवादक ने गोप शब्द कहाँ से उत्पन्न किया है यह पता नहीं।

जबकि पूर्व में देवकी के गर्भ से संकृष्ट (खीचें जाने होने से )संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति सही की गयी है ।

और दूसरा इस श्लोक के प्रक्षिप्त(नकली) होने का कारण गोप शब्द का अर्थ है ।

(यद्यपि यहाँ गोप शब्द वाच्य नही है फिर भी गीता प्रेस के अनुवादकों ने यह अर्थ अपने और से अर्थ में समाहित कर लिया है ।

अत: यह श्लोक भी प्रक्षिप्त ही है। जबकि गोप भी गोपालक यादव ही थे जैसा कि गोपाल चम्पू में वर्णित है ।

गोपाल चम्पू भागवत पुराण का ही प्राचीन भाष्य है। 

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"गर्गउवाच":-भवन्तो (यदुवीजत्वेऽपि वैश्यततीज्य मातृवंशान्वयिता तद्गुरुपद व्यागतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया )।।६०।।

"व्रजराजनन्द उवाच:- भवेदेवं किन्तु क्वचिदुत्सर्गेऽपि अपवादवर्ग वाधतेऽपि अधिकारीविशेषश्लेषमासाद्य यथैवहिंसाकर्मनिवृत्ति वद्धश्रृद्ध प्रति यज्ञेपि पशुहिंसा तस्माद् भवतां ब्राह्मणभावादुत्सर्ग सिद्धद्धा गुरुता श्रद्धाविशेषवतामस्माकं किले कथं लघुतामाप्रोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता: तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:।एतदुपरि निजपुरोहितानामपि हितमपि हितमहसा करिष्याम: ।।६१।।

हे नन्द ! आप यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गण के पूज्य हैं। और मातृवंश का सम्बन्ध रहने के कारण  जो समस्त ब्राह्मण वैश्य गण के गुरु हैं ; वे ही आपके इस संस्कार कर्म को सम्पादित करेंगे न कि मैं गर्गाचार्य ! ।।६०।।

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"गर्गसंहिता-गोलोकखण्ड" में वर्णन है कि एक बार जब मथुरा नगरी में शूरसेन के राजभवन में अचानक गर्गाचार्य पधारे तो लोगों द्वारा जब उनके विषय में ज्ञात हुआ कि गर्गाचार्य ज्योतिष शास्त्र के प्रमाणित विद्वान हैं उसी समय शूरसेन सभा के सभी यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें उसी समय अपने पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित किया। गर्ग संहिता गोलोकखण्ड अध्याय (नवम)

"गर्गसंहिता‎ | खण्डः (१) (गोलोकखण्डः)(तत्रैकदाश्रीमथुरापुरे वरेपुरोहित: सर्वयदूत्तमै:कृत: शूरेच्छया गर्ग इति प्रमाणिक:समाययौ सुन्दरराजमन्दिरम्-(१)

श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! एक समय की बात है, श्रेष्ठ मथुरा पुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्गजी पधारे।

वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान थे ; सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें उसी समय अपने पुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित किया था। गर्ग संहिता गोलोकखण्ड अध्याय (नवम)  गर्ग -आचार्य  का शूरसैन के पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित होना विदित हो की ये गर्गाचार्य शूरसेन के पिता  देवमीढ के पुरोहित नहीं थे 

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"यस्मात् कंसात् सर्वे देवा  जुघुरुः। स: कंस एकेन गोपेन बालकेन अल्पायासेव ह जघान ।।५२।

जिस कंस से देव  भी डरते थे उस कंस को एक गोप बालक ने मार डाला ।५२।

ततः सुरास्तेन निहन्यमाना
     विदुद्रुवुर्लीनधियो दिशान्ते ।
केचिद्‌रणे मुक्तशिखा बभूवु-
     र्भीताः स्म इत्थं युधि वादिनस्ते ॥५३॥

•-कंस की मार पड़ने से देवताओं के होश उड़ गये और वे चारों दिशाओं में भागने लगे।

कुछ देवताओं ने रणभूमि में अपनी शिखाएँ खोल दीं और ‘हम डरे हुए हैं (हमें न मारो)’- इस प्रकार कहने लगे। ५३।

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केचित्तथा प्रांजलयोऽतिदीनव-
     त्संन्यस्तशस्त्रा युधि मुक्तकच्छाः ।
स्थातुं रणे कंसनृदेवसंमुखे
     गतेप्सिताः केचिदतीव विह्वलाः ॥ ५४ ॥

•-कुछ देवगण हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की (लाँग) भी खोल डाली। कुछ लोग अत्यंत व्याकुल हो युद्धस्थल में राजा कंस के सम्मुख खड़े होने तक का साहस न कर सके।५४।

उसी महान योद्धा को गोपाल कृष्ण ने कम प्रयास में ही मार डला-

"गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च                  गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च       जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः।२२।

अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।

इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं।  इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।

श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः॥ १८॥

बलराम के गुणों का वर्णन करते हुए विष्णु पुराण हरिवंश पुराण और ब्रह्मपुराण में समान श्लोकों के द्वारा गोपालों के द्वारा ही डूबे हुए यदुवंश के जहाज का उद्धार करने का वर्णन बलराम को लक्ष्य करके हुआ है ।

देखें क्रमश: निम्न श्लोकों में यही तथ्य -

               (विष्णु पुराण)

अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजःप्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैःगोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।

श्रीविष्णुमहापुराणे पंचमांशो!  विंशोध्यायः ।२०।

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                 (हरिवंश पुराण)

अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनंचिन्तनं च। पञ्चविंशोऽध्यायः(२५)

अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः। गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति ॥२८॥

श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

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                      ( ब्रह्म पुराण )

अयं चास्य महाबाहुर्बलदेवोऽग्रजोऽग्रतः।प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननन्दनः ॥३६॥

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थावलोकिभिः।गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्युद्धरिष्यति ॥३७॥

श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरितेकंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥

गोपाल शब्द "यादवों" का गोपालन वृत्ति ( व्यवसाय) मूलक विशेषण है ।

यह वंश मूलक विशेषण नहीं है; वंश मूलक विशेषण तो केवल यादव ही है 

ये गोपाल अथवा गोप प्राचीन एशिया में वीर और निर्भीक होने से आभीर अथवा अभीर या अभीरु:

भी कहे गये परन्तु इस आभीर का उद्भव वीर अथवा आर्य शब्द से हुआ जो कृषक और यौद्धा का वाचक है ।                                          और यौद्धा युद्ध करने वाला क्षत्रिय ही होता है ।                                                                      यादवों के पूर्वज यदु को ऋग्वेद १०/६२/१० में गायों से घिरा हुआ गोप रूप में उनके भाई तुरुवसु के साथ वर्णन किया है ।                                                                                परन्तु इन दोनों के साथ "दासा" शब्द का प्रयोग होने से कुछ विद्वान जो पाश्चात्य आर्यन-थ्योरी से प्रभावित हैं यदु और तुरवसु  को अनार्य कह सकते हैं परन्तु आर्य शब्द मूलत: कृषि करने वाले कृषक को कहा गया है। और दास शब्द वैदिक सन्दर्भों में त्राता और  दाता का अर्थक है ; अत: सायण का भाष्य भी इस ऋचा पर असंगत है ।

महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी 
यदि दास शब्द का अर्थ भक्त या सेवक करते हैं
तो शम्बर और वृत्र के लिए दास शब्द का प्रयोग वेदों में भक्त और सेवक क्यों नहीं हुआ ? 
क्योंकि शब्द का अर्थ भेद समय-अन्तराल में ही सम्भव है। 
एक  समय में एक स्थान पर एक शब्द के दो भिन्न अर्थ नहीं हो सकते हैं । 
और लौकिक ग्रन्थों में दास का अर्थ शूद्र है । परन्तु वेदों में दास का अर्थ शूद्र नहीं है ।अपितु दास का अर्थ- दाता अथवा दानशील है।
क्योंकि वर्ण- व्यवस्था वैदिक विधान नहीं था ।
दास शब्द का अर्थ भक्त तो आज कई उतार-चढ़ावों के बाद हुआ है वह भी भक्ति काल की बारहवीं तेरहवीं सदी से मात्र ...
यदि सायण के अनुसार वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ भक्त ही है 
तो वेदों की इन ऋचाओं में भी शम्बर और वृत्र के लिए भी दास शब्द का अर्थ भक्त ही होना चाहिए 
जिनका देवों के नेता इन्द्र से युद्ध हुआ था ।
परन्तु  वहाँ दास का अर्थ विनाशक कैसे हुआ?
महर्षि दयान्द और उनके अनुयायी वेदो को ईश्वरीय रचना मानते हैं ऋषियों के द्वारा प्रकट 
और ये वेदों में इतिहास नहीं मानते हैं ।
'परन्तु ये सब अनर्थ ही है । 
क्योंकि प्रत्येक प्राचीन तथ्य स्वयं में इतिहास का मानक ही है ।

सबसे नीचे महर्षि दयान्द की -विचार धारा के अनुयायी पं० हरिश्चन्द्र सिद्धान्तालंकार दास  का अर्थ:-
ऋग्वेद के दशम मण्डल की बासठवें सूक्त की दशवीं ऋचा में "भक्त" बता रहे हैं ।
जो कि पूर्ण रूप से असंगत अप्रासंगिक है ।
यह सब भाषा विज्ञान की जानकारी न होना ही है।
उनका अनुवाद भी सायण के भाष्य-पर आधरित है।
👇
 उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
"गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) 
सायण ने इस ऋचा का अर्थ किया " कल्याण कारी बात करने वाले गायें से युक्त यदु और तुर्वसु नामक राजा मनु के भोजन के लिए पशु देतें हैं (सायण अर्थ१०/६२)१०) 

"उत अपि च "स्मद्दिष्टी- कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा -गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ “दासा दासवत् प्रेष्यवत् स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् 

विशेष:- 
लौकिक ग्रन्थों में दास शब्द का अर्थ 
प्रैष्यवत् ( नौकर) है 

प्रैष्यः, पुं, (प्र + इष् + कर्म्मणि ण्यत् । “प्रादू- होढोढ्येषैष्येषु ।” ६ । १ । ८९ । इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या वृद्धिः ।) प्रेष्यः । इत्यमरटीकायां भरतः ॥ (यथा, कुमारे । ६ । ५८ । “जङ्गमं प्रैष्यभावे वः स्थावरं चरणाङ्कितम् । विभक्तानुग्रहं मन्ये द्विरूपमपि मे वपुः ॥” क्ली, प्रेष्यस्य भावः । दासकर्म्म । यथा, कथा- सरित्सागरे । ३० । ९५ । “गवादिरक्षकान् पुत्त्रान् भार्य्यां कर्म्मकरीं निजाम् । तस्य कृत्वा गृहाभ्यर्णे प्रैष्यं कुर्व्वन्नुवास सः ॥”)

अमरकोशः

प्रैष्य पुं। दासः 
समानार्थक:भृत्य,दासेर,दासेय,दास,गोप्यक,चेटक,नियोज्य,किङ्कर,प्रैष्य,भुजिष्य,परिचारक 
2।10।17।2।3 
भृत्ये दासेरदासेयदासगोप्यकचेटकाः। नियोज्यकिङ्करप्रैष्यभुजिष्यपरिचारकाः॥ 
परन्तु अब विचारणीय यह है ;वेदों  मेें दास का अर्थ देवविरोधी और दानी  होकर भी गुुुुलाम और विनाशक क्यों हुआ ?

वास्तव में उपर्युक्त ऋचा का अर्थ सायण द्वारा असंगत ही है क्यों की वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ सेवा करने वाला गुलाम या भृत्य नहीं है👇
और भक्त भी नहीं जैसे आज कल तुलसीदास ,या कबीरदास जैसे शब्दों में है ।
क्योंकि ये दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम और आधुनिक अर्थ से विपरीत ही हैं ।
अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇
 
उत दासस्य वर्चिनः सहस्राणि शतावधीः ।
अधि पञ्च प्रधीँरिव ॥१५॥
सायण-भाष्य :-उत अपि च हे इन्द्र त्वं “प्रधीनिव चक्रस्य परितः स्थितान् शङ्कूनिव हिंसकान् "पञ्च “शता पञ्चशतानि पञ्चशतसंख्याकान् "सहस्राणि सहस्रसंख्याकान् "दासस्य लोकानामुपक्षपयितुः "वर्चिनः वर्चिनामकस्यासुरस्य संबन्धिनोऽनुचरान् पुरुषान् "अधि अधिकम् "अवधीः हतवानसि ॥ ॥ २१ ॥

 शतमश्मन्मयीनां पुरामिन्द्रो व्यास्यत् ।
 दिवोदासाय दाशुषे ॥२०॥

 अस्वापयद्दभीतये सहस्रा त्रिंशतं हथैः ।
 दासानामिन्द्रो मायया ॥२१॥
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उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-४ /३० /१४.   
सायण ने इस १४वीं ऋचा में दास का अर्थ ही बदल दिया- 
 उत । दासम् । कौलिऽतरम् । बृहतः । पर्वतात् । अधि ।अव । अहन् । इन्द्र । शम्बरम् ॥१४ 
सायण-भाष्य“ उत अपि च हे "इन्द्र त्वं "दासम् 
(-उपक्षपयितारं -"कौलितरं कुलितरनाम्नोऽपत्यं “शम्बरम् असुरं "बृहतः महतः पर्वतात् अद्रेः "अधि उपरि "अव अवाचीनं कृत्वा "अहन् हतवानसि ॥
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उपर्युक्त ऋचा में  दास असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ____________________________________
कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे 
अर्थात् कुलितर यो कोलों की सन्तान होने से कौलितर 
“उत दासं कौलितरं वृहतः पर्व्वतादधि । 
अवाहान्निन्द्र” शम्बरम्” ऋ० ४ । ३०। १४ 
कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्” 

अर्थात्‌ इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया ।
विदित हो कि असुर संस्कृति में दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा कुशल होता है । 
ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण "दाहे" के रूप में किया है ।
जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे 

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117. वही (सहस्रबाहू) पशुओ का पालक (रक्षक) और भूमि में बीज वपन करने वाला हुआ; वही निश्चित रूप ही खेतों का रक्षक और कृषक था; वह अकेले ही अपने योगबल के माध्यम से वर्षा के लिए बादल बन गया सब कुछ अर्जन करने से अर्जुन बन गया।
(पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १२)-
इस प्रकार आर्य शब्द भी कृषि से सम्बन्धित था। जैसा कि वैदिक सन्दर्भों में अब भी है।
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आधुनिक राजपूत शब्द एक जाति से अब संघ या वाचक बन गया है।
जबकि क्षत्रिय आज भी एक वर्णव्यवस्था का अंग है।  

आभीर शब्द वीरता प्रवृत्ति का सूचक है।जो कि अपने पूर्व रूप में "वीर" रूप में प्रतिष्ठित है। और जातियों का निर्धारण भी प्रवृत्तियों से ही होता है।

अत: आभीर एक जातिगत विशेषण है और जाति में वंश हुआ जैसा कि यदुवंश और वंश में कुल (खानदान) होते हैं। आभीर मूलक वीर शब्द आर्य शब्द का ही सम्प्रसारित रूप है।

वेदों में आर्य शब्द भी मूलत: कृषक का वाचक है ।

आर्य शब्द संस्कृत की अर् (ऋ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन  सर्वमान्य अर्थ संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं ।

 १–गमन करना Togo  २– मारना tokill  ३– हल (अरम्  Harrow ) चलाना 

मध्य इंग्लिश में—रूप Harwe कृषि कार्य करना ।_____________________________________

प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य चरावाहे ही थे ।इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं।पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व  काशकृत्स्न धातुपाठ में

ऋृ (अर्) धातु  तीन अर्थ "कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ ३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) के रूप में उद्धृत है।वास्तव में संस्कृत की "अर्" धातु का तादात्म्य (मेल) 

identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर "Errare =to go से प्रस्तावित है ।

जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः( Araval )तथा (Aravalis) हैं । 

यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं ।_____________________________________

अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है =आर्य एक  पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने "वैैश्यों का समूह " किया है 

संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य  है।

संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है 

समानार्थक:ऊरव्य,ऊरुज,अर्य,वैश्य,भूमिस्पृश्-विश्

2।9।1।1।3

ऊरव्या ऊरुजा अर्या वैश्या भूमिस्पृशो विशः।आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने॥अर्य पुल्लिंग स्वामिःसमानार्थक:अर्य 3।3।147।1।2

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ऋग्वेद का वह ऋचा जिसमें कृषक पुत्री का मनोहारी स्वाभाविक वर्णन है ।

पृ॒थुः। रथः॑। दक्षि॑णायाः। अ॒यो॒जि॒। आ। एन॑म्। दे॒वासः॑। अ॒मृता॑सः। अ॒स्थुः॒। कृ॒ष्णात्। उत्। अ॒स्था॒त्। अ॒र्या॑। विऽहा॑याः। चिकि॑त्सन्ती। मानु॑षाय। क्षया॑य ॥  ऋग्वेद-१/१२३/१

अर्थ-  (मानुषाय)- मनुष्यों के (क्षयाय) रोग के लिए (चिकित्सन्ती) -उपचार करती हुई (विहायः) -आकाश में  उषा उसी प्रकार व्यवहार करती है जैसे (अर्या) - कृषक की कन्या  (कृष्णात्)- कृषि कार्य करने के उद्देश्य से  (उदस्थात्)- सुबह ही उठती है । (अयोजि)- अकेली  (दक्षिणायाः)- कुशलता से  (एनम्)- इसको  (पृथुः) -विशाल (रथः)- रथ (अमृतास:) -अमरता के साथ (देवासः) -देवगण (आ, अस्थुः)- उपस्थित होते हैं ॥१॥

देवों के विशाल रथ पर उपस्थित होकर मनुष्यों की रोगों का उपचार करती हुई उषा आकाश में जिस प्रकार का स्वाभाविक व्यवहार करती है जिस प्रकार कोई कृषक ललना ( पुत्री)  कृषि कार्य के उद्देश्य से अकेली सुबह  उठ जाती है ।१।

मन्त्र -भागवत के लेखक नीलकण्ठ सूरि ऋग्वेद में कृष्ण विषयक घटनाओं के सन्दर्भ में वर्णन करते हैं ।


आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर ही थे ! उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था ।

जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।

संस्कृत भाषा मे "आरा" और "आरि" शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है। 

सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो । 

अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो।

यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो  

"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य  और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में  " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।

विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।

इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।

आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है।

पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है। 

फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है । 

फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।

प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य)ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है ।अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।

कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं !

गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम)

दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे  इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (अग्निपुराण 151/9)

कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।

मनुस्मृति में वर्णन है कि "वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83

अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह हिंसा के अन्तर्गत है ।

अर्थात कृषि कार्य वैश्य  ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।

इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा जाता है।   

 क : पुनर् आर्य निवास: ?

आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ? ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति ।

ग्राम ( ग्रास क्षेत्र) घोष नगर  आदि -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)

निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।                                         

जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन  करते विधान निश्चित किया है। 

दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।

दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे  विना कुछ माँगे हुए और अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे ।।११। 

(नृसिंह पुराण अध्याय 58 का 11वाँ श्लोक)

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परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। 

इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।

इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।

परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के  

फिर भी व्यास स्मृति में वणिक  और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है।  को शूद्र धर्मी न कहते !

सायद यही कारण है । किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ;वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।

दृढ़ता और धैर्य पूर्वक  वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है ।  

किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला  सायद दूसरा कोई नहीं  इस संसार में !

परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !और कोई मूल्य नहीं !

फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को  वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने  किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाले और  अन्तत: वणिक को शूद्र  वर्ण में समायोजित कर दिया है ।

पणि: अथवा फनीशी जिसके पूर्वज थे यह आश्चर्य ही है।

किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं  ।

परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में यह वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।

किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।

किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।

"रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।

वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।

१-व्यवहर्त्ता २- वार्त्तिकः ३- वणिकः ४- पणिकः  । इति राजनिर्घण्टः में ये वैश्य के पर्याय हैं ।

     (आर्य' और 'वीर' शब्दों का विकास) 

परस्पर सम्मूलक है । दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -

कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम् ॥शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा द्विजो यज्ञान्न हापयेत् ।96.28॥

(गरुड़ पुराण)

श्रीगारुणे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥_______________________

व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि कोण से आर्य शब्द हिब्रू बाइबिल में वर्णित "एबर से भी सम्बद्ध है ।

और जिसका मूल है 'बर / बीर 

आर्य तथा वीर दौनों शब्द भारत, ईरान तथा समस्त जर्मन वर्ग की भाषाओं में और सेमैेटिक और हेमेटिक वर्ग की भाषाओं में भी कुछ अल्प भिन्न रूपों में विद्यमान है ।___________________________________

ऐसी इतिहास कारों की धारणा रही परन्तु ग्राम संस्कृतियों का प्रादुर्भाव चरावाहों (गोपों) की संस्कृति का व्यवस्थित रूप है ।

तथा नगर संस्कृति के जनक द्रविड अथवा ड्रयूड (Druids) लोग थे ।

तो द्रविडों की भी वन्य संस्कृति रही है ।        नगर संस्कृतियों का विकास द्रविडों ने ही किया 

उस के विषय में हम कुछ तथ्यों को उद्धृत करते हैं । विदित हो कि यह समग्र तथ्य 

भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ(primordial

 Meaning) आरम् धारण करने वाला वीर या यौद्धा 

(आरं धारयते येन सो८८र्य -) संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् (Arrown = अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः | 

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology)पुरानी अंग्रेजी से (arwan)पहले (earh) "तीर," संभवतः पुराने नॉर्स से उधार लिया गया था ।____________________________________

आर्य शब्द संस्कृत की अर् (ऋ ) धातु मूलक है— अर् धातु के तीन  सर्वमान्य अर्थ संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं ।

१–गमन करना Togo  २– मारना tokill  ३– हल (अरम्  Harrow ) चलाना 

मध्य इंग्लिश में—रूप Harwe कृषि कार्य करना ।_______________________________

प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य  चरावाहे ही थे ।

इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व  कार्त्स्न्यायन धातुपाठ में

ऋृ (अर्) धातु  तीन अर्थ  कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) उद्धृत है।

वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य (मेल) identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । 

जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है तो पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है ! इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis हैं । 

यूरोपीय भाषाओं में एक अन्य क्रिया (ire)- मारना 'क्रोध करना आदि हैं । ___________________________________

'अर् धातु मूलक अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्) तत् पश्चात +अण् प्रत्यय करने पर होती है = आर्य एक  पुल्लिंग शब्द रूप है जिसका अर्थ पाणिनि आचार्य ने  "वैैश्यों का समूह " किया है 

संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य  है।

संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है। संस्कृत भाषा मे आरा और आरि शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है। 

सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो । 

अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, " अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो।

यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।

"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य  और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में  " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।

विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।

इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।

आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है।

पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है। 

फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है । 

फिर, वाजसनेय (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मन्, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।

प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण ही था ।इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही।कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं ।

गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ । आर्य चरावाहे ही थे ।

अर्थात् कृषि कार्य.भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है । 

'अरि' के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि मूलक थी इस विद्या के जनक आर्य थे । परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था।

यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इस देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने यह प्रेरणा ग्रहण की।

सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य-एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था।

देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे ।

घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे ।                  परन्तु इनका मुकाविला सेमैेटिक असीरियन जन जाति से मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में परिलक्षित है 

असीरियन जन-जाति के बान्धव यहूदीयों का जीवन चरावाहों का जीवन था ।

ये कुशल चरावाहों के रूप में  सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ।

यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .

जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे ।

उसी प्रक्रिया के तहत बाद में ग्राम शब्द (पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक  हो गया ।_____________________________________

ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् )प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है । 

इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है ।___________________________________

यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता  ब्राह्मण की  दृष्टि में निम्न ही है ।

हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ?  विचार कर ले !

श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥

कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।

वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।

पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।

Pracheen Bharat Ka Rajneetik Aur Sanskritik Itihas - Page 23 पर वर्णन है
'ऋ' धातु में ण्यत' प्रत्यय जोडने से 'आर्य' शब्द की उत्पत्ति होती है  ऋ="जोतना', अत: आर्यों को कृषक ही माना जाता है । '

पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं

"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है ।

वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में  गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया परन्तु फिर भी आर्य का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि रूपों में परिभाषित हुआ दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही आज भी मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।

श्रेष्ठ पुरुष  तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न  विशेषत:—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं । 
नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है । पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में हीरो (Hero) आर्य का ही रूपान्तरण है । आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है। पूर्व वैदिक काल का अरि का एक रूपान्तरण हरि भी हुआ। 

(harry-भारोपीय शब्द है)

in Old English hergian "make war, lay waste, ravage, " 

the word used in the Anglo-Saxon Chronicle for what the Vikings did to England, 

It word comes from Proto-Germanic *harjon (source also of Old Frisian urheria "lay waste, ravage,,"

________

Old Norse herja "to make a raid, to plunder,"

__________

Old Saxon and Old High German herion, 

_______

German verheeren "to destroy, lay waste, devastate").

This is literally "to overrun with an army," from Proto-Germanic *harjan "an armed force" 

(source also of Old English here, ______

Old Norse herr ", great number; army, troop," 

__________

Old Saxon and Old Frisian heri, ________

Dutch heir, 

_______________

Old High German har

,________________

 German Heer

,__________________

 Gothic harjis "a host, army").

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The Germanic words come from PIE root *korio- "war" also "war-band, host, army" 

It word too comes From(source also of Lithuanian -(karas) "war, quarrel,"( karias) "host, army;" 

__________

Old Church 

______________ 

Slavonic kara "strife;"

_____________

 Middle Irish cuire "troop;"

______________

 Old Persian kara "host, people, army;" 

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Greek koiranos "ruler, leader, commander"). Weakened sense of "worry, goad, harass" is from c. 1400. Related: Harried; harrying.

पुरानी अंग्रेजी में "युद्ध बनाओ, बर्बादी करो, तबाह करो,"

वाइकिंग्स ने इंग्लैंड को क्या किया, इसके लिए एंग्लो-सैक्सन क्रॉनिकल में प्रयुक्त शब्द

यह शब्द प्रोटो-जर्मेनिक * हर्जोन से आया है (स्रोत भी ओल्डन वेस्टर्न उहेरिया "ले वेस्ट, रैवेट 

________

ओल्ड नॉर्स हर्जा "छापा मारने के लिए, लूटने के लिए,"

पुराने सैक्सन और पुराने उच्च जर्मन हेरियन,

_______

जर्मन verheeren "को नष्ट करने, बर्बाद करना, विनाशकारी")।

यह वस्तुतः "एक सेना के साथ आगे बढ़ना है," प्रोटो-जर्मनिक * हरजन से "एक सशस्त्र बल"

(पुरानी अंग्रेज़ी का स्रोत भी यहाँ,

______

ओल्ड नॉर्स हेर ", बड़ी संख्या; सेना, टुकड़ी,"

ओल्ड सैक्सन और ओल्डन हेरी,

________

डच वारिस,

_______________

पुराने उच्च जर्मन हान,

________

जर्मन हीर,

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 गॉथिक हर्जिस "एक मेजबान, सेना")।

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जर्मन के शब्द पाई रूट * कोरियो- "युद्ध" से भी आते हैं, "युद्ध-बैंड, मेजबान, सेना"

यह शब्द बहुत से आता है (लिथुआनियाई का स्रोत भी - (करस) "युद्ध, झगड़ा," (करियास) "मेजबान, सेना;"

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पुराना चर्च

______________

स्लावोनिक करा "संघर्ष;"

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 मध्य आयरिश क्यूयर "टुकड़ी;"

______________

 पुरानी फ़ारसी करा "मेजबान, लोग, सेना;"

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ग्रीक कोरोरानोस "शासक, नेता, कमांडर")। "चिंता, बकरी, उत्पीड़न" की कमजोर भावना सी से है। 1400. संबंधित: कठोर; कष्ट देना।  संस्कृत कृष्- क्लष् देखें

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निम्नलिखित श्लोक गोपालों की इसी वीरता मूलक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करता है ।  

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः भवद्भिर्गोपजातीयैर्वीरवीर्यं विलोप्यते ।५।।

•- गोविन्द बोले ! हे गोपालों तुम्हारा भयभीत होने का कोई प्रयोजन नहीं है;  केशी से भयभीत होकर तुम लोग गोप जाति के बल-पराक्रम को क्यों विलुप्त करते हो।५।

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इति श्रीविष्णुाहापुराणे पंचमांशो! षोडशोऽध्यायः ।१६।

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                  (गोविन्द उवाच)

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः ।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यं विलोप्यते ॥२६॥

अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजः प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैःगोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।श्रीविष्णुमहापुराणे पंचमांशो! विंशोध्यायः ।२०।

_________________________ 

अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनं चिन्तनं च।पञ्चविंशोऽध्यायः(२५) 

अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः।गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति ॥२८॥___________________________

श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमन नामक २५वाँ अध्याय-

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे कृष्णबालचरिते केशिवधनिरूपणं नाम नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥१९०॥

                 (गोविन्द उवाच)

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यं विलोप्यते।१९०/२६।

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वसुदेवसुतो वैश्यः क्षत्रियश्चाप्यहंकृतः।आत्मानं भक्तविष्णुश्च मायावी च प्रतारकः।६।

(ब्रह्म वैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय)

श्रृँगाल ने कहा :- मैं ही वैकुण्ठ धाम में वासुदेव देवेश्वर चतुर्भुज जगत का विधाता लक्ष्मीपति ब्रह्मा का भी पालन करता प्रभु हूँ । 
पूर्वकाल में मुझसे ब्रह्मा ने ही पृथ्वी का भार उतारने के लिए प्रार्थना की थी । तभी में भारत वर्ष में आया हूँ ।

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नीचे उपरोक्त श्लोक का सही अर्थ है।            

वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है । 

वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इस लिए वह मायावी और ठग है ।१६।।

 {ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय}

हरिवंश  ,पद्मपुराण,  देवीभागवत  आदि पुराणों  और गर्गसंहिता आदि में  वसुदेव को गोपों के घर में  गोप रूप में जन्म लेना वर्णन किया है;।👇

और देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में वसुदेव को गोपालन और कृषि करने वाला अर्थात्  वैश्य वृत्ति को धारण करने वाला बताया देखें निम्न श्लोकों को ।👇

सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ॥५८॥

शूरसेनाभिधःशूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥

वैश्यवृत्तिरतःसोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।

सूर्य वंश का क्षय हो जाने पर यादवों का वहाँ अधिकरण हुआ।

•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा  शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! 

तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।

उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  ये (शूरसेन और अग्रसेन दौंनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए ) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।

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अथाष्टादशोऽध्यायः 10./18/11
गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ
ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप ।११।

गोप जाति में छुपे हुए कृष्ण और बलराम की देवगण गोपालों के रूप में उसी प्रकार स्तुति करते हैं जैसे नट लोग अपने नायक की स्तुति करते हैं । ११।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः

भागवत पुराण के उपर्युक्त श्लोक में गोपों को देव रूप कहा है ।

परन्तु भागवत पुराण के प्रकाशन काल में द्वेषवश कुछ धूर्तों ने यादवों और गोपों को अलग दिखाने के लिए भी इन प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना की इसका प्रमाण दशम स्कन्ध के आठवें अध्याय का उपरोक्त बारहवाँ श्लोक तथा इसके अतिरिक्त और भी अन्य श्लोक  हैं ।

कुछ राजपूत समाज के लोग इन्हीं प्रक्षिप्त श्लोकों से भ्रान्त होकर  गोपों(अहीरों) को यादवों से अलग करने की कोशिश करते हैं ।

भागवतपुराण में इसी प्रकार एक स्थान पर पूर्व में ही (पहले ही ) गोविन्द शब्द का प्रयोग है । दशम् स्कन्ध अध्याय( 6 ) के श्लोक 25 में  👇

पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द:शयानं पातु माधव 25।

पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की,परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार (मान) की रक्षा करे । खेलते समय गोविन्द रक्षा करे  ! लेटते समय माधव रक्षा करे !

परन्तु गोवर्धन पर्वत के प्रकरण में इन्द्र द्वारा गोविन्द शब्द का प्रथम सम्बोधन कृष्ण को देना बताया है ।

अब प्रश्न यह भी उठता है कि 
कृष्ण को गोविन्द नाम का प्रथम सम्बोधन किस  प्रकार  इन्द्र ने  दिया ? 
जबकि ऋग्वेद में भी गोविन्द शब्द आया है । क्योंकि दशम् स्कन्ध के अध्याय (28) में  वर्णन है कि• 👇

                  -(शुकोवाच)-
एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि:पयसात्मन:।जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: 22।

इन्द्र: सुरषिर्भि: साकं नोदितो देवमातृभि:।
अभ्यषिञ्चित दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात् ।23।

अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको (गोविन्द) नाम प्रदान किया !

भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर
वर्णन है कि 👇
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे।22।
•-दैत्य और दानवों को  मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।22||

और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ ।22।

बुद्ध का वर्णन तो सभी पुराणों ,गर्ग संहिता , रामायण तथा महाभारत आदि  में भी है ।

कालान्तरण में मिलाबट हो जाने से भागवतपुराण में अनेक प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक समायोजित हो गये हैं यह हम स्पष्ट कर ही चुके हैं 

जैसे देखें अन्य  ये श्लोक- 👇___________________________________

सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसम्बन्धान् दिग्भ्य: कंसभयाकुलान् (पाठान्तरण-भयार्दितान्)।यदुवृष्णयन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान् ।15।सभाजितान् समाश्वास विदेशावासकर्शितान् न्यवायत् स्वगेगेषु वित्तै:संतर्प्य विश्वकृत् ।16।

•-अर्थात् श्रीकृष्ण ने ---जो कंस के भय से  व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे; उन यदुवंशी, वृष्णिवंशी, अन्धकवंशी, मधुवंशी, दाशार्हंवंशी और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़  ढूँढ़  कर बुलाया ! अब यहाँ भी विचारणीय तथ्य यह है कि क्या , वृष्णि, अन्धक ,मधु, दाशार्हं ,और कुकुर वंशी क्या  यादव नहीं थे ___________________________________अधिकतर परवर्ती पुराणों में कृष्ण को द्वेष वश ही मर्यादा विध्वंसक के रूप में भी वर्णित किया गया है ।

अन्यथा श्रीमद् भगवद् गीता तो उन्हें आध्यात्मिक पुरुष के रूप में सिद्ध करती है ।

एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराणकार ने वर्णित किया है ; कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति ---जो वास्तव में केकय देश में ब्याही थी ; उनकी पुत्री 'भद्रा' थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने  स्वयं ही कृष्ण के साथ भद्रा का विवाह कर दिया। जबकि यादवों में यह परम्परा नहीं है ।- 👇

श्रुतकीर्ति: सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसु: ।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्ण:सन्तर्दनादिभि:।56।____________________________________

भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के (31)वें अध्याय के (24) वें श्लोक में वर्णन है कि 
स्त्री बाल वृद्धानाय हतशेषान् धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आया।

वहाँ सबको  यथास्थान बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की ओर यात्रा की !
कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है कदाचित् इसका वर्णन प्रथम स्कन्ध के पन्द्रह वें अध्याय  के बीसवें श्लोक मेंं हो ही गया है । जिस पर विस्तृत विवेचन यथाक्रम किया जाएगाा ।              

           (यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

वास्तव में भागवत पुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है; अथवा ये श्लोक प्रक्षिप्त ही हैं। वह कहता है कि" ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। तो फिर उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं ! 

हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं  दोेैंनों ही क्रोष्टावंश के यादव थे। परन्तु भागवत पुराण के प्रक्षेपों की कोई सीमा नहीं है।

भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें और भी हैं ।

भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में कहा गया है कि👇___________________________________ 

" मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरञ्जय।करष्यति अपरो वर्णान् पुलिन्द यदु मद्रकान् ।। १२/१/३६

•-मगध ( आधुनिक विहार) का राजा विश्वस्फूर्ति पुरुञ्जय होगा ; यह द्वित्तीय पुरञ्जय होगा ---जो ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों को पुलिन्द ,यदु (यादव) और मद्र आदि म्लेच्छप्राय: जातियों में बदल देगा ।३६।

क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ या शूद्र थे ? बताऐं विचार करें !

____________________________________

देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में वर्णित है ही और ये निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में 

____________________________________ 👇
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।

अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७। यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है ।

परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।

अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं । और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________

परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में  इस प्रकार का वर्णन है ।

गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९ ।।

वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा

परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान करते थे  निम्न श्लोकों में यही तथ्य है 

गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -

श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षाच्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।

सुविस्मिताः पूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥ १ ॥

नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।

यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थंसमुत्सको गर्गयुतःप्रसन्नः  ।२।

श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्‍दनन्‍दन की यह बात सुनकर श्रीनन्‍द और सन्नन्‍द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्‍होनें पहले का निश्‍चय त्‍यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया। 
मिथिलेश्‍वर ! नन्‍दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्‍ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्‍कण्ठित हो प्रसन्‍नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
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         (भागवत पुराण में वर्णन है कि )

गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत।नन्द:कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।१९।

वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।

अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।

और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे ,तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।

देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण आदि में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है ।

हरिवंश पुराण के सन्दर्भ से पहले हम इस बात को बता चुके हैं उसे यहाँ पुन: प्रस्तुत करना अपेक्षित है।  👇

प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है। यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है।

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हरिवंशपुराणम्-पर्व (१) (हरिवंशपर्व)/अध्यायः (५५)

भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम् :-

            (पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय)

              (वैशम्पायन उवाच)
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः ।
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः ।।१।।

त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद ।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः ।।२।।

विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः ।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम् ।।३।।

जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि ।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम् ।।४।।

नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।।

विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः ।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिता बलेः ।।६।।

कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत् ।।७।।

विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम् ।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये ।।८।।

मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।।

दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।।

सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः ।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया ।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम् ।११ ।।

सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च ।
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः ।।१२।।

कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान् ।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति ।।१३।।

अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया ।
अमीषां हि सुरेन्द्राणां हन्तव्या रिपवो युधि।।१४।।

जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः ।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम ।।१५।।

विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया ।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।।१६।।

यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन् ।
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह ।। १७ ।।
                  (ब्रह्मोवाच)
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।।

यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।। १९।

तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।।  

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पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।

अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।। २३ ।।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।। २४ ।।

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।। २६ ।।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः ।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः।२७।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम् ।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।। २८ ।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः ।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।

या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।।

त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।

इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।

येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।

या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः ।।३४।।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते ।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः ।। ३६।।

तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः ।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।।३७।।

देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।।

तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।। ३९ ।।

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया ।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन ।1.55.४०।।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।। ४१ ।।

देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।। ४२ ।।

गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः ।
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः ।४३ ।।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते ।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४ ।।

त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।।४५।

वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।४६।

जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।।४७।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वांविष्णोअदितिं विना।४८।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।।

              (वैशम्पायन उवाच)
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा ।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।५१।।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः ।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः ।५२।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंंश सम्पूर्ण

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गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में 
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर विशेषत:  देखें---
अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।

उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है 
:-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१। 

कि हे कश्यप आपने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीर (गोप) का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता 'अदिति' और 'सुरभि' तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।

इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं। 

मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।              (उद्धृत सन्दर्भ --)

पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)

विदित हो कि गायत्री परिवार के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में  गोरखपुर गीता प्रेस के पुराणों के अध्याय और श्लोक संख्या में भेद है ।
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की 
रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? 
अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक (१९)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४४) (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) 

सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य | तथा
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी 'वराहोत्पत्ति' वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है;  
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।

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"गर्गसंहिता  के गोलोकखण्ड अध्याय तृृृृृृृृत्तीय में नन्द और वसुदेव आदि रूपों में यदुकुल में देवताओं को अपने साथ अवतार लेने के लिए विष्णु का आदेश एवं निर्देश" 

गर्ग सहिता गोलोकखण्ड में  नन्द और वसुदेव रूप में देवों को अवतरित होने का विष्णु भगवान् आदेश देते हैं ।

                 ।।श्रीनारद उवाच ।।
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः ।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा ॥ २३ ॥

अर्थ-नारदजी कहते है- इस प्रकार स्तुति करने पर गोकुलेश्वर भगवान श्रीकृष्ण प्रणाम करते हुए देवताओं को सम्बोधित करके मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले-।

              ।।श्रीभगवानुवाच।। 

"हे  सुरज्येष्ठ हे शम्भो देवा: श्रृणुतु मदवच: यादवेषु जनध्वम् अंशै: स्त्रीभिर्मदाज्ञया।।२४।।

अर्थ :- श्री भगवान ने कहा- ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओं ! तुम सब मेरी बात सुनो
मेरे आदेशानुसार तुम लोग अपने अंशों से देवियों के साथ यदुकुल में जन्म धारण करो। 

अहं च अवतरिष्यामि हरिष्यामि भुवो भरम् ।करिष्यामि च वः कार्यं भविष्यामि यदोः कुले ॥२५॥

मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुवंश के एक कुल वृष्णिकुल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। 

        ।।श्रीब्रह्मोवाच।। -

अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि । एते कुत्र भविष्यन्ति कैर्गृहैः कैश्च नामभिः ॥ ३५ ॥

श्रीब्रह्माजी ने कहा- भगवन ! मेरे लिये कौन स्थान होगा ? आप कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी ?

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                   ।।श्रीभगवानुवाच ।।-
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यामि परः स्वयम् ।
रोहिण्यां मत्कला शेषो भविष्यति न संशयः ॥ ३६ ॥

श्रीभगवान ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकी के यहाँ प्रकट होऊँगा।
मेरे कला स्वरूप ये ‘शेष’ रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे- इसमें संशय नहीं है।

श्री साक्षाद्‌रुक्मिणी भैष्मी शिवा जांबवती तथा ।
सत्या च तुलसी भूमौ सत्यभामा वसुंधरा ॥३७॥

साक्षात ‘लक्ष्मी’ राजा भीष्म के घर पुत्री रूप से उत्पन्न होंगी। इनका नाम ‘रुक्मणी’ होगा और ‘पार्वती’ ‘जाम्बवती’ के नाम से प्रकट होंगी। 

दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा ।
भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवी पापनाशिनी ॥३८॥

यज्ञ पुरुष की पत्नि ‘दक्षिणा देवी’ वहाँ ‘लक्ष्मणा’ नाम धारण करेंगी। 
यहाँ जो ‘विरजा’ नाम की नदी है, वही ‘कालिन्दी’ नाम से विख्यात होगी।
भगवती ‘लज्जा’ का नाम ‘भद्रा’ होगा। समस्त पापों का प्रशमन करने वाली ‘गंगा’ ‘मित्रविन्दा’ नाम धारण करेगी।

रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः ।
भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि।३९।

जो इस समय ‘कामदेव’ हैं, वे ही रुक्मणी के गर्भ से ‘प्रद्युम्न’ रूप में उत्पन्न होंगे।
प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा।
उस समय तुम्हें ‘अनिरूद्ध’ कहा जायेगा, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। 

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नन्दगोपकुलमपि यदुकुलमेव तथाहि – सर्वश्रुतिपुराणादि कृतप्रशंसस्य यदुकुलस्यावतंस: श्रीदेवमीढ़नामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास । तस्यभार्याद्वयमासीत्।         "अर्थ- नन्दगोपकुल भी यदुकुल ही है वैसे ही सभी वेदों पुराणों आदि में यदुकुल की प्रशंसा है यदुकुल शिरोमणि (अवतंस)श्रीदेवमीढ जो मधुरा नगरी के मध्य प्रतिष्ठित थे ।उनकी दो पत्नीयाँ  थीं।

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"प्रथमा द्वितीयावर्णा द्वितीया तृतीयावर्णेति तयोश्च पुत्रद्वयं प्रथमम् बभूव शूर: पर्जन्य इति च। तत्र शूरस्य वसुदेवादय: अत एवोक्तं श्रीमुनिना " वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" इति श्री पर्जन्यस्तु मातृवद्वर्णसंकर"– इति न्यायेन प्रायेण हि जना: सर्वे यान्ति मातामहीम् तनुम्"इति न्यायेन वैश्यतामेवाविश्य गोवृत्तिपूर्वकं वृहद्वनं एवासांचकार ।"
अर्थ –
पहली पत्नी दूसरे वर्ण की, और दूसरी पत्नी तीसरे वर्ण की थी। देवमीढ के दो पुत्र थे; पहली पत्नी से शूर और दूसरी से पर्जन्य । वहाँ शूर के वसुदेव आदि हुए । इसी लिए मुनि द्वारा कहा गया- (वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं)"  " वसुदेव यह सुनकर की भाई नन्द आये हुए हैं"। इस प्रकार पर्जन्य के पुत्र  नन्द आदि  मातामही (दादी) के वर्ण को  प्राप्त हैं। और ब्राह्मण न्याय के द्वारा वे वर्णसंकर हुए । और सभी भाई को मातामही के शरीर का प्राप्त होने से इस ब्राह्मण न्याय से भी वे वैश्यता को प्राप्त होकर गोवृत्ति पालन से "वृहदवनं" में रहने लगे।
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 "स च बाल्यादेव ब्राह्मणदर्शै पूजयति। मनोरथ पूरं देयानि वर्षति । वैष्णववेदं स्नह्यति । यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वैशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशामवतंसतया परमशंसनीय एवमेव च गोपवशोपीति पाद्येसृष्टिखण्डे स्पष्टीकृत:। स च श्रीमान्पर्जन्यो वैश्यांतर साधारण्यं निजैश्वर्येणातीयाय । यस्य भार्या नाम्ना वरीयस्यासीत् यस्य च श्री उपनन्दादय: पञ्चात्मजा जगदेवनन्ददयामासु: तथा च वन्दिन उपमान्ति स्म" उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:। इति तस्य पुत्र सम्पत्तिस्तु परमरमणीयतामवाप मध्यमसुत सम्पत्तिस्तु सुतराम्। तदेव (सुमुखनाम्ना)   केनचिद् गोपमुख्येन श्रीपर्जन्यमध्यंसुताय श्रीनन्दाय परमधन्या कन्या दत्ता। "
अर्थ- 
और वह बालकपन से ही ब्राह्मणों का दर्शन के द्वारा सम्मान करते थे । और सभी याचको का मनोरथ पूरा करते थे। वैष्णव जनों और वेदों को स्नेह करते थे । और जीवन पर्यन्त हरि की अर्चना करते थे। और माता के पक्ष का व्यवसाय करने से उनकी ख्याति  सभी दिशाओं हो गयी । ( गोप वेष में वे प्रसिद्ध हो गये पद्मपुराण सृष्टि खण्ड भी उनके इस व्यवसाय की पुष्टि का स्पष्टी करण करता है ।
 कि इनकी पत्नी भी वैश्य वर्ण की थी। जिनका नाम "वरीयसी" था और उससे उत्पन्न इनके नन्द आदि पाँच पुत्र थे। मध्यम पुत्र इनको अधिक प्रिय था और सभी की सहमति से उनका विवाह "सुमुख नामके किसी मुख्य गोप की पुत्री यशोदा से कर दिया। जो परम धन्या और सुन्दर कन्या थी।
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ततश्च तयोर्दोपत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत् किमुत् पित्रादीनाम् तदेवमानन्दितसर्वजन: पर्जन्यस्वमपि
किमुत"(
सुखमनुभूय श्रीगोविन्दपदारविन्दभजनमात्रान्वितां देहयात्रामभीष्टां मन्यमान: सर्वज्यायसे सुताय स्वकुलतिलकतां दातुं ।श्रीवसुदेवादिनरदेव गर्गादिभूदेवकृत प्रभायां सभायां स्वजनाहूतवान्।
 स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया  सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश
अर्थ –
( जो निश्चय ही अपने गुणों  से स्वजनों को वश में करने वाली और यश देने वाली थीं। सुनने वालों के द्वारा देखने वालों के द्वारा और भक्ति करने वालों द्वारा उसकी क्या कहने ! आदि शब्दों से प्रशंसा सी जाती थी)( तब पर्जन्य की सभी सन्तानों( अपत्यों) में ही सुख सम्पदा उत्पन्न हुई थी और पिता के लिए क्या चाहिए! तब सब लोग आनन्दित थे और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके  प्रभु के चरण-कमलों ध्यान लगाने वाले थे और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को  सभा में आमन्त्रित किया )(और वहाँ सभा में बड़ों के द्वारा मझले अपने से छोटे भाई जिनका नन्द नाम था उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति  सभा में नियुक्त कर दिया संकुचित नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये । स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की और तत्पश्चात पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए सभा को सम्पन्न कर वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
 अध्याय एक दशम स्कन्ध पूर्वार्द्धे " श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४)
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"यादवेषु जनध्वम् अंशै: रूपैभिस्स्त्रीभिर्मदाज्ञया "नन्दो द्रोणो वसु: साक्षाद् यशोदा सा धरास्मृता।                                  वृषभानु: सुचन्द्रश्च तस्य भार्या कलावती।।४०।।

यादवों में  अंश रूप में उत्पन्न  अपनी पत्नीयों  के साथ  प्रभु आज्ञा से ‘वसु’ जो ‘द्रोण’ के नाम से प्रसिद्ध हैं,  वे व्रज में ‘नन्द’ होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया ‘धरा देवी’ ‘यशोदा’ नाम धारण करेंगी। सुचन्द्र’ ‘वृषभानु’ बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी ‘कलावती’ धराधाम पर ‘कीर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध होंगी। 

"विशेष-- यदि नन्द बाबा वृषभानु और यशोदा एवं राधा की माता कीर्ति और स्वयं राधा को यदुवंश के अन्तर्गत अवतरित होने का निर्देश श्री भगवान के द्वारा नहीं मिलता ! तो गर्गसंहिता/खण्डः १ (गोलोकखण्डः)-अध्यायः ०३ मेें यह वर्णन नही होता ।

"भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति।सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥४१॥

अर्थ:-फिर उन्हीं वृषभानु और कीर्ति के यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं व्रजमण्डल में गोपियों के साथ सदा रासविहार करूँगा।

इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘भूतल पर अवतीर्ण होने  अथवा आगमन-उदयोग वर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ।

"इति गर्गसंहितायां गोलोक खण्डे  "नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनंनामतृत्तीयोऽध्यायः।।३।।_______________________

भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं,
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गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। 
श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं।
आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें॥

सभी देवता मेरे अंग हैं। साधुपुरुष तो हृदय में वास करने वाले मेरे प्राण ही हैं। अत: प्रत्येक युग में जब दम्भपूर्ण दुष्टों द्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दया पर भी भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ।

श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण ‘अब प्राणनाथ से मेरा वियोग हो जायेगा’ यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानल से दग्ध लता की भाँति मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीर में अश्रु, कम्प, रोमांच आदि सात्त्विक भावों का उदय हो गया।
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गर्ग संहिता गोलोक खण्ड : अध्याय 3 
श्रीराधिका जी ने कहा- आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये भूमण्डल पर अवश्य पधारें; परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन लें- प्राणनाथ ! 

आपके चले जाने पर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी।
यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञा पर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ। 

अब मेरे प्राण अधर तक पहुँचने को अत्यंत विह्वल हैं। ये इस शरीर से वैसे ही उड़ जायँगे, जैसे कपूर के धूलिकण।

श्रीभगवान बोले- राधिके ! 
तुम विषाद मत करो। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और पृथ्वी का भार दूर करूँगा। 

मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी। श्रीराधिकाजी ने कहा- (परंतु) प्रभो ! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिलता। 

नारदजी कहते हैं- (श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर) भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने धाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा। उस समय सम्पूर्ण देवताओं के साथ ब्रह्माजी ने परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण को बार-बार प्रणाम करके कहा।
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वसु देवताओं का ही एक गण है जिसके अंतगँत आठ देवता हैं। विशेष—वेदों में वसु शब्द का प्रयोग अग्नि, मरुद् गण, इंद्र, उषा, अश्वी, रुद्र और वायु के लिये मिलता है। 

वसु को आदित्य भी कहा है। बृहदारणयक में इस गण में पृथिवी, वायु, अंतरिक्ष, आदित्य, द्यौ, अग्नि, चंद्रमा और नक्षत्र माने गए हैं।
महाभारत के अनुसार आठ वसु ये हैं—घर, ध्रुव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास।
श्रीमद् भागवत में ये नाम हैं—द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष वास्तु और विभावसु। 
अग्नि- पुराण में आप, घ्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास वसु कहे गए हैं।
भागवत के असुसार दक्ष प्रजापति की कन्या 'वसु' ने, जो धर्म को ब्याही थी, वसुओं को उत्पन्न किया।
देवीभागवत में कथा है कि एक बार वसुओं ने वसिष्ठ की नंदिनी गाय चुरा ली थी; जिससे वसिष्ठ जी ने शाप दिया था कि तुम लोग मनुष्य योनि में जन्म लोगे। 

उसी शाप के अनुसार वसुओं का जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ, जिनमें सात को तो गंगा जनमते ही गंगा में फेंक आई, पर अंतिम भीष्म बचा लिए गए। 

इसी से भीष्म वसु के अवतार माने जाते हैं।
वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरा ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की - 'देव! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें तो भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अविचल भक्ति हो।' 
ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहकर उन्हें वर दिया। इसी वर के प्रभाव से ब्रजमंडल में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से धरा का जन्म यशोदा के रूप में हुआ।
और उनका विवाह नन्द से हुआ। नन्द पूर्व जन्म के द्रोण नामक वसु थे।
भगवान श्री कृष्ण इन्हीं नन्द-यशोदा के पुत्र बने।

गर्गसंहिता -खण्डः प्रथम-(गोलोकखण्डः) अध्यायः तृतीय 

            "आगमनोद्योग वर्णनम्

मुने देवा महात्मानं कृष्णं दृष्ट्वा परात्परम् ।
अग्रे किं चक्रिरे तत्र तन्मे ब्रूहि कृपां कुरु ॥ १॥

                    नारद उवाच -
सर्वेषां पश्यतां तेषां वैकुंठोऽपि हरिस्ततः ।
उत्थायाष्टभुजः साक्षाल्लीनोऽभूत्कृष्णविग्रहे ॥२॥

तदैव चागतः पूर्णो नृसिंहश्चण्डविक्रमः ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशो लीनोऽभूत्कृष्णतेजसि ॥३॥

रथे लक्षहये शुभ्रे स्थितश्चागतवांस्ततः ।
श्वेतद्वीपाधिपो भूमा सहस्रभुजमंडितः ॥४॥

श्रिया युक्तः स्वायुधाढ्यः पार्षदैः परिसेवितः ।
संप्रलीनो बभूवाशु सोऽपि श्रीकृष्णविग्रहे ॥५॥

तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः ।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥६॥

दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥७॥

लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः संप्रलीनो बभूव ह ॥८॥

तदैव चागतः साक्षाद्‌यज्ञो नारायणो हरिः ।
प्रस्फुरत्प्रलयाटोपज्वलदग्निशिखोपमः ॥९॥

रथे ज्योतिर्मये दृश्यो दक्षिणाढ्यः सुरेश्वरः ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामविग्रहे॥१०॥

तदा चागतवान् साक्षान्नरनारायणः प्रभुः ।
चतुर्भुजो विशालाक्षो मुनिवेषो घनद्युतिः ॥११॥

तडित्कोटिजटाजूटः प्रस्फुरद्दीप्तिमंडलः।
मुनीन्द्रमण्डलैर्दिव्यैर्मण्डितोऽखण्डितव्रतः ॥१२॥

सर्वेषां पश्यतां तेषामाश्चर्य मनसा नृप ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामसुंदरे ॥१३॥

परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं च स्वयं प्रभुम् ।
ज्ञात्वा देवाः स्तुतिं चक्रुः परं विस्मयमागताः ॥१४॥

                  ।।देवा ऊचुः।।
कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय
     यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय ।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षा-
     द्‌गोलोकधाम धिषणाय नमः परस्मै ॥१५॥

योगेश्वराः किल वदन्ति महः परं त्वां
     तत्रैव सात्वतमनाः कृतविग्रहं च ।
अस्माभिरद्य विदितं यददोऽद्वयं ते
     तस्मै नमोऽस्तु महसां पतये परस्मै ॥१६॥

व्यङ्गेन वा न न हि लक्षणया कदापि
    स्फोटेन यच्च कवयो न विशंति मुख्याः।
निर्देश्यभावरहितः प्रकृतेः परं च
     त्वां ब्रह्म निर्गुणमलं शरणं व्रजामः ॥१७॥

त्वां ब्रह्म केचिदवयंति परे च कालं
     केचित्प्रशांतमपरे भुवि कर्मरूपम् ।
पूर्वे च योगमपरे किल कर्तृभाव-
     मन्योक्तिभिर्न विदितं शरणं गताः स्मः ॥१८॥

श्रेयस्करीं भगवतस्तवपादसेवां
     हित्वाथ तीर्थयजनादि तपश्चरन्ति।
ज्ञानेन ये च विदिता बहुविघ्नसङ्घैः
     सन्ताडिताः किमु भवन्ति न ते कृतार्थाः॥१९॥

विज्ञाप्यमद्य किमु देव अशेषसाक्षी
     यः सर्वभूतहृदयेषु विराजमानः ।
देवैर्नमद्‌भिरमलाशयमुक्त देहै-
     स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥२०॥

यो राधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहारः
     श्रीगोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेवः
     स त्वं विपत्सु विबुधान् परिपाहि पाहि ॥२१॥

वृन्दावनेश गिरिराजपते व्रजेश
     गोपालवेषकृतनित्यविहारलील ।
राधापते श्रुतिधराधिपते धरां त्वं
     गोवर्द्धनोद्धरण उद्धर धर्मधाराम् ॥२२॥

"हिन्दी अनुवाद सहित "

गर्ग संहिता गोलोक खण्ड : अध्याय 3 

भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान श्री जनकजी ने पूछा-

मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें। 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। 

उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। 

इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे।वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।

फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। 

उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।

उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी। उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था।

उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये। फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे।

देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। 

उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।

 गोलोक खण्ड : अध्याय 3

उनका दीप्तिमण्डल सब ओर उद्भासित हो रहा था। दिव्य मुनीन्द्रमण्डलों से मण्डित वे भगवान नारायण अपने अखण्डित ब्रह्मचर्य से शोभा पाते थे। 

राजन ! सभी देवता आश्चर्ययुक्त मन से उनकी ओर देख रहे थे। किंतु वे भी श्याम सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण में तत्काल लीन हो गये।

इस प्रकार के विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं को महान आश्चर्य हुआ।

उन सबको यह भली-भाँति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्ण चन्द्र स्वयं परिपूर्णतम भगवान हैं। तब वे उन परमप्रभु की स्तुति करने लगे। 

देवता बोले- जो भगवान श्रीकृष्णचन्द्र पूर्ण पुरुष, परसे भी पर, यज्ञों के स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात गोलोकधाम के अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं।

योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेज:पुंज हैं; शुद्ध अंत:करण वाले भक्तजन ऐसा मानते हैं कि आप लीला विग्रह धारण करने वाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु हम लोगों ने आज आपके जिस स्वरूप को जाना है, वह अद्वैत सबसे अभिन्न एक अद्वितीय है; अत: आप महत्तम तत्त्वों एवं महात्माओं के भी अधिपति हैं;

आप परब्रह्म परमेश्वर को हमारा नमस्कार है। कितने विद्वानों ने व्यंजना, लक्षणा और स्फोटद्वारा आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भाव से रहित हैं।

अत: माया से निर्लेप आप निर्गुण ब्रह्म की हम शरण ग्रहण करते हैं। किन्हीं ने आपको ‘ब्रह्म’ माना है, कुछ दूसरे लोग आपके लिये ‘काल’ शब्द का व्यवहार करते हैं।

कितनों की ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध ‘प्रशांत’ स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगों ने तो यह मान रखा है कि पृथ्वी पर आप ‘कर्म’ रूप से विराजमान हैं। कुछ प्राचीनों ने ‘योग’ नाम से तथा कुछ ने ‘कर्ता’ के रूप में आपको स्वीकार किया है।

इस प्रकार सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुत: नहीं जान सका। (कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, ‘ऐसे ही’ हैं।) अत: आप (अनिर्देश्य, अचिंत्य, अनिर्वचनीय) भगवान की हमने शरण ग्रहण की है।

भगवन ! आपके चरणों की सेवा अनेक कल्याणों के देने वाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ, यज्ञ और तप का आचरण करते हैं, अथवा ज्ञान के द्वारा जो प्रसिद्ध हो गये हैं; उन्हें बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते।

"गोलोक खण्ड : अध्याय 3

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भगवन ! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान हैं। 

जो शुद्ध अंत:करण वाले एवं देह बन्धन से मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। 

ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को हमारा प्रणाम है। जो श्रीराधिकाजी के हृदय को सुशोभित करने वाले चन्द्रहार हैं, गोपियों के नेत्र और जीवन के मूल आधार हैं तथा ध्वजा की भाँति गोलोकधाम को अलंकृत कर रहे हैं, आदिदेव भगवान आप संकट में पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं, गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं। आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें।

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देवीभागवत पुराण में वर्णन है कि

"देवीभागवत पुराण में वर्णन है। कश्यप और उनकी पत्नी अदिति ' सुरभि आदि का वसुदेव 'देवकी और रोहिणी आदि का गोप -गोपिका रूप में अंश-अवतरण ।

"अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६ ॥

(देवी भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध तृतीय अध्याय श्लोक संख्या १६)

•-अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।

कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है । 
और भागवतपुराण में अभिवादन रीति से भी यही संकेत मिलता भी है। 

देखें निम्न भागवत पुराण के श्लोक-गोपान् गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः।नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह ॥ १९ ॥

वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम्। ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तद् अवमोचनम् ॥ २०॥

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम्।प्रीतः प्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः॥२१॥ 

पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वा अनामयमादृतः ।प्रसक्तधीः स्वात्मज योः इदमाह विशाम्पते ॥ २२ ॥ -परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप कर , वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।  जब वसुदेवजी को यह सुनकर मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये।२०। वसुदेवजी को देखकर ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा कर प्रेम से विह्वल होगये।२१। 

राजन् परीक्षित! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत से -सत्कृत होकर अनामय शब्द से कुशल क्षेम पूछ कर वे आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था।२२।

भागवत पुराण दशम स्कन्ध  १०/५/१९-२०-२१-२२  

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निम्न श्लोक में विचारणीय है कि अनामय शब्द का प्रयोग  क्षत्रिय की (कुशलता) पूछने में प्रयोग होता था ।

पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वा अनामयमादृतः।
 प्रसक्तधीः स्वात्मजयोः इदमाह विशांपते॥ २२॥

यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार (अनामयं) शब्द से कुशल-क्षेम 'क्षत्रिय' जाति से ही पूछी जाती है ।
और नन्द से वसुदेव 'अनामय' शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं ।

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63।
                          अथवा
ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।
 

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(कूर्म पुराण अध्याय १२का २५वाँ श्लोक नीचे देखें)-

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षत्रबन्धुमनामयम्। वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव तु ।।१२.२५।

देखें निम्न भागवत पुराण के श्लोक

गोपान् गोकुलरक्षायां निरूप्य मथुरां गतः। नंदः कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरूद्वह।१९॥

वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नंदमागतम्। ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तद् अवमोचनम् ॥ २० ॥

तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय देहः प्राणमिवागतम्। प्रीतः प्रियतमं दोर्भ्यां सस्वजे प्रेमविह्वलः।२१।

पूजितः सुखमासीनः पृष्ट्वा अनामयमादृतः।प्रसक्तधीः स्वात्मज योः इदमाह विशाम्पते।२२॥

परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप कर , वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।

जब वसुदेवजी को यह सुनकर मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये।२०।

वसुदेवजी को देखकर ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा कर प्रेम से विह्वल होगये।२१। 

राजन् परीक्षित ! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत से -सत्कृत होकर अनामय शब्द से कुशल क्षेम पूछ कर वे आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था।२२।

भागवत पुराण दशम स्कन्ध  १०/५/१९-२०-२१-२२

अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका में वर्णन किया भागवत के इस- (६२)वें श्लोक "भारत ! (हे भरत वंशज जनमेजय -) कंसव्रजे ( कंस के अधीन इस व्रज क्षेत्र में ) याश्च आमीषां  गोपानां योषित: यशोदाद्या:) नन्द आदि गोप और उनकी गोपीका रूप में जो स्त्रियाँ  यशोदा आदि हैं ) (ये च वसुदेवाद्या: वृष्णय: देवक्याद्या यदुस्त्रिय: सन्ति )-और ये वसुदेव आदि की स्त्रीयाँ हैं ये सभी यदुवंश के हैं  

(सर्व इति ये च उभयोर् नन्दवसुदेवकुलयो: ज्ञातय: सकुल्या: बन्धव: सुहृदश्च )- ये सभी दोनों कुल यदुवंश के होने से जाति कुल से परस्पर बान्धव और सुहृद हैं।

 (ये च कसंम् अनुव्रता:  ते निश्चितिम् देवताप्राय: प्रायेण देवताँशा: )- ये सब कंस की आज्ञा के अधीन रहने वाले निश्चित ही देवताओं के अँश हैं ! (प्रायग्रहणात् कंसादीनाम् दैत्याँशत्वम् ।-और कंस आदि दैत्यों के अँश हैं  (६३)  

अम्--घञ् आमं तापं यात्यनेन इति आमय  आमयो रोगः   रोगाभावे आरोग्ये । “ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् क्षात्रबन्धुमनामयमिति” 

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुं अनामयम् । वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रं आरोग्यं एव च । 

वर्णानुसार कुशल प्रश्नविधि-मिलने पर अभिवादन अथवा, नमस्कार के बाद ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् अर्थात ब्राह्मण से कुशलता – प्रसन्नता एवं वेदाध्ययन आदि की निर्विघ्नता क्षत्रबन्धुम् (अनामयम्) से क्षत्रिय से बल आदि की दृष्टि से स्वास्थ के विषय में वैश्यं से (क्षेमम् )शब्द  से क्षेम –धन आदि की सुरक्षा और आनन्द के विषय में (च) और शूद्रम् आरोग्यम् एव शूद्र के स्वस्थता के विषय में (पृच्छेत्) -पूछे । अभिप्राय यह है कि वर्णानुसार उनके मुख्य उद्देश्यसाधक व्यवहारों की निर्विघ्नता के विषय में प्रधानता से पूछे ।

ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुं अनामयम्। वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रं आरोग्यं एव च।(२/१२७ । मनुस्मृति)

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(ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्मखण्ड अध्याय )

                  ।।श्रीगर्ग उवाच ।। 

"सुधामयं ते वचनं लौकिकं च कुलोचितम् ।। यस्य यत्र कुले जन्म स एव तादृशो भवेत् ।। ३७ ।।

सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः। पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती।३८।

तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी। बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नंदश्च वल्लभः ।।३९।।

नंदो यस्त्वं च या भद्रे बालो यो येन वा गतः।। जानामि निर्जने सर्वं वक्ष्यामि नंदसन्निधिम् ।

अनुवाद -

        (ब्रह्म वैवर्त पुराण 4.13.४०)

•-जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; 

तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है।
और माता का नाम पद्मावती सती हैैं तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो !

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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 2 श्लोक 31-35

("सप्‍तमो देवकीगर्भो यांऽश: सौम्‍यो ममाग्रज:।स संक्रामयितव्‍यस्‍ते सप्‍तमे मासि रोहिणीम् ।31।।

संकर्षणात्‍तु गर्भस्‍य स तु संकर्षणो युवा ।भविष्‍यत्‍यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शन: ।32।।

पतितो देवकीगर्भ: सप्‍तमोऽयं भयादिति।अष्‍टमे मयि गर्भस्‍थे कंसो यत्‍नं करिष्‍यति ।33।।

या तु सा नन्‍दगोपस्‍य दयिता भुवि विश्रुता।यशोदा नाम भद्रं ते भार्यां गोपकुलोद्वहा ।34।।

तस्‍यास्‍त्‍वं नवमो गर्भ: कुलेऽस्‍माकं भविष्‍यसि।नवम्‍यामेव संजाता कृष्‍णपक्षस्‍य वै तिथौ।35। 35

देवि ! तुम्हारा भला हो, इस समय भूतल पर ‘यशोदा’ नाम से विख्यात जो नन्द गोप की प्यारी पत्नी हैं, वे गोकुल की स्वामिनी हैं।

तुम उन्हीं के नवम गर्भ के रूप में हमारे कुल में उत्पन्न होगी।

अर्थात नन्द और कृष्ण के पिता वसुदेव का (एक ही कुल वृष्णि कुल था इसीलिए कृष्ण ने हमारे कुल में उत्पन्न होगी। ऐसा कहा)

कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को ही तुम्हारा जन्म होगा। 

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परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेषभाव को ही इंगित करता है ।              परन्तु स्वयं वही संस्कृत -ग्रन्थों में गोपों को परम यौद्धा अथवावीर के रूप में वर्णन किया है ।

हरिवंश पुराण में भी ययाति द्वारा यदु को दिये गये शाप का वर्णन इस प्रकार से है !

स एवम् उक्तो यदुना राजा कोप समन्वित: उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर् गर्हयन् सुतम्।27।

•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।27।।

ययाति का शाप उन पर लागू क्यों नहीं हुआ ?देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं!इसका प्रमाण भी प्रस्तुत है ।

👇हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व अध्याय सैंतीसवाँ  पर है कि 

सत्त्ववतात् सत्त्व सम्पन्नान् कौशल्या सुषुवे सुतान् ।भजिनं भजमानं च देवावृधं नृपम् ।१।

                            -(८)-

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

(अन्धकं च महाबाहु वृष्णिं च यदु नन्दनम् ,तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह ताञ्छृणु ।।२। वैशम्पायन जी कहते हैं ---जनमेजय ! सत्वान् उपनाम वाले  सत्तवत से कौशल्या ने १-भजिन , २-भजमान, ३-(दिव्य राजा देवावृध) ४-महाबाहु अन्धक  और ५- यदुनन्दन वृष्णि  नामक  पाँच सत्व-संपन्न पुत्रों को उत्पन्न किया उनके चार के वंश चले उनको आप विस्तार पूर्वक सुनिए !१-२ यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च । 

अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरो८लभतात्मजान्।कुकुरं भजमानं च शमिं कम्बलबर्हिषम्।।१७।

अन्धक से काशिराज (दृढाश्वव) की  पुत्री द्वारा कुकुर ,भजमान,शमि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्र उत्पन्‍न हुए ।।।१७।

द्वितीय श्लोक 

कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोस्तु तनयस्तथा।कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत् ।१८।।

कुकुर के पुत्र धृष्णु और धृष्णु के पुत्र कपोतरोमा हुए ।१८।

                              -९- 
          ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश) 

जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः। तस्य वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल ।।१९।

तैत्तिरीय के पुत्र पुनर्वसु हुए पुनर्वसु के अभिजित् हुए और अभिजित के एक पुत्र और एक पुत्री ये दो सन्तानें जुड़वाँ रूप में हुईं ऐसी बात सुनी जाती है ।१९।

आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ”।इमां च उदाहरन्ति अत्र गाथां प्रति तमाहुकम्।।२०।

ख्याति प्राप्त लोगों में वे  दोनों आहुक और आहुकी नाम से प्रसिद्ध हुए , इन आहुक के सम्बन्ध में मनुष्य इस गाथा को गाया करते हैं ।

आहुकीं चाप्यवन्तिभ्य: स्वसारं ददुर् अन्धका:।आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ सम्बभूवतु:।।२६।

अन्धक वंशीयों ने आहुक की बहिन आहुकी को अवन्ति के राजवंश में व्याह दिया और आहुक के काशिराज की पुत्री से  दो पुत्र उत्पन्न हुए ।२६।___________________________________

                           -१०-       

          ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।देवकस्याभवन्पुत्राश्चत्वारस्त्रिदशोपमा:।२७।

देव कुमारों  के समान सुन्दर देवक और उग्रसेन नाम के पुत्रों के दौरान  उत्पन्न हुए देवक के देव- कुमारों जैसे

 १-देववान , २-उपदेव ३-वसुदेव, और ४-देवरक्षित नामक के चार पुत्र उत्पन्न हुए ।।२७। 

नवोग्रसेनस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजःन्यग्रोधश्च सुनामा च कंक: शंकु:सुभूमिप।।३०।

उग्रसेन के नौ पुत्र थे उनमें कंस सबसे बड़ा (पूर्वज) पूर्व में जन्म लेने वाला था 

शेष के नाम इस प्रकार हैं १-न्यग्रोध , २-सुनामा, ३-कंक, ४-शंकु ,५-सुभूमिप ,६-राष्ट्रपाल, ७-सुतनु,, ८अनाधृष्टि,और ९-पुष्टिमान 

(हरिवंश  हरिवंश पर्व ३८ अध्याय) (पृष्ठ संख्या १७३ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)

विदित हो कि जहाँ शूरसेन के पुरोहित गर्गाचार्य थे तो उग्रसेन के पुरोहित काश्यं ऋषि थे।

उग्रसेनं नरपतिं काश्यं चापि पुरोहितम् ।सेनापतिमनाधृष्टिं विकद्रुं मन्त्रिपुङ्गवम् ।2.58.८०।( हरिवंश पुराण विष्णुपर्व)

यादवानां कुलकरान् स्थविरान् दश तत्र वै ।मतिमान् स्थापयामास सर्वकार्येष्वनन्तरान् ।८१।

रथेष्वतिरथो यन्ता दारुकः केशवस्य वै ।योधमुख्यश्च योधानां प्रवरः सात्यकिः कृतः ।८२।

विधानमेवं कृत्वाथ कृष्णः पुर्यामनिन्दितः ।    मुमुदे यदुभिः सार्द्धं लोकस्रष्टा महीतले ।८३।

रेवतस्याथ कन्यां च रेवतीं शीलसम्मताम् ।प्राप्तवान् बलदेवस्तु कृष्णस्यानुमते तदा ।८४।______________

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि द्वारावतीनिर्माणेऽष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।५८।______________________________

ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा के पिता वृषभानु को गोपालक होने के कारण पुराणकार ने वैश्य वर्ण में समाहित किया है ।👇

राधा जगाम वाराहे गोकुलं भारतं सती ।।वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह।।३६।

अयोनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती ।।      सुषुवे मायया वायुं सा तत्राविर्बभूव ह ।। ३७ ।।

अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ।।    सार्धं रायाणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः।३८।

छायां संस्थाप्य तद्गेहे साऽन्तर्द्धानमवाप ह ।। बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह ।। ३९ ।।

गते चतुर्दशाब्दे तु कंसभीतेश्छलेन च ।।      जगाम गोकुलं कृष्णः शिशुरूपी जगत्पतिः ।। 2.49.४० ।।

कृष्णमाता यशोदा या रायाणस्तत्सहोदरः ।।गोलोके गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः।।४१।।

कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने ।।  विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः।।४२।।

स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः।।  स्वयं राधा हरेः क्रोडे छाया रायाणमन्दिरे।।४३।।

षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तेपे पुरा विधिः।।राधिकाचरणाम्भोजदर्शनार्थी च पुष्करे ।।४४।।

भारावतरणे भूमेर्भारते नन्दगोकुले ।।              ददर्श तत्पदाम्भोजं तपसस्तत्फलेन च।४५।।

किञ्चित्कालं स वै कृष्णः पुण्ये वृन्दावने वने ।।रेमे गोलोकनाथश्च राधया सह भारते।। ४६ ।।

ततः सुदामशापेन विच्छेदश्च बभूव ह ।            तत्र भारावतरणं भूमेः कृष्णश्चकार सः । ४७।।

शताब्दे समतीते तु तीर्थयात्राप्रसंगतः ।          ददर्श कृष्णं सा राधा स च तां च परस्परम् ।४८।

ततो जगाम गोलोकं राधया सह तत्त्ववित् ।।कलावती यशोदा च पर्यगाद्राधया सह ।। ४९ ।।

वृषभानुश्च नन्दश्च ययौ गोलोकमुत्तमम् ।।            सर्वे गोपाश्च गोप्यश्च ययुस्ता याः समागताः ।। 2.49.५० ।।

छाया गोपाश्च गोप्यश्च प्रापुर्मुक्तिं च सन्निधौ ।।    रेमिरे ताश्च तत्रैव सार्द्धं कृष्णेन पार्वति ।। ५१ ।।

षट्त्रिंशल्लक्षकोट्यश्च गोप्यो गोपाश्च तत्समाः ।।गोलोकं प्रययुर्मुक्ताः सार्धं कृष्णेन राधया ।। ५२ ।।

द्रोणः प्रजापतिर्नन्दो यशोदा तत्प्रिया धरा ।। संप्राप पूर्वतपसा परमात्मानमीश्वरम् ।। ५३ ।।

वसुदेवः कश्यपश्च देवकी चादितिः सती ।।देवमाता देवपिता प्रतिकल्पे स्वभावतः ।। ५४ ।।

पितॄणां मानसी कन्या राधामाता कलावती ।।वसुदामापि गोलोकाद् वृषभानुः समाययौ ।५५ ।

इत्येवं कथितं दुर्गे राधिकाख्यानमुत्तमम् ।।सम्पत्करं पापहरं पुत्रपौत्रविवर्धनम् ।। ५६ ।।

श्रीकृष्णश्च द्विधारूपो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।।चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।५७।

चतुर्भुजस्य पत्नी च महालक्ष्मीः सरस्वती ।।    गंगा च तुलसी चैव देव्यो नारायणप्रियाः ।।५८।।

श्रीकृष्णपत्नी सा राधा तदर्द्धाङ्गसमुद्भवा ।। तेजसा वयसा साध्वी रूपेण च गुणेन च ।। ५९ ।।

आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः ।।व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः ।। 2.49.६० ।।

कार्त्तिकीपूर्णिमायां च गोलोके रासमण्डले ।।चकार पूजां राधायास्तत्सम्बन्धिमहोत्सवम् ।६१ 

सद्रत्नघुटिकायाश्च कृत्वा तत्कवचं हरिः ।।      दधार कण्ठे बाहौ च दक्षिणे सह गोपकैः ।। ६२ ।।

कृत्वा ध्यानं च भक्त्या च स्तोत्रमेतच्चकार सः ।।राधाचर्वितताम्बूलं चखाद मधुसूदनः ।। ६३ ।।

राधा पूज्या च कृष्णस्य तत्पूज्यो भगवान्प्रभुः ।।परस्पराभीष्टदेवे भेदकृन्नरकं व्रजेत् ।। ६४ ।।

द्वितीये पूजिता सा च धर्मेण ब्रह्मणा मया ।।अनन्तवासुकिभ्यां च रविणा शशिना पुरा ।। ६५।

महेन्द्रेण च रुद्रैश्च मनुना मानवेन च ।।          सुरेन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च सर्वविश्वैश्च पूजिता ।। ६६ ।।

तृतीये पूजिता सा च सप्तद्वीपेश्वरेण च ।।      भारते च सुयज्ञेन पुत्रैर्मित्रैर्मुदाऽन्वितैः ।। ६७ ।।

ब्राह्मणेनाभिशप्तेन देवदोषेण भूभृता ।।व्याधिग्रस्तेन हस्तेन दुःखिना च विदूयता ।। ६८ ।।

संप्राप राज्यं भ्रष्टश्रीः स च राधावरेण च ।। स्तोत्रेण ब्रह्मदत्तेन स्तुत्वा च परमेश्वरीम् ।। ६९ ।।

अभेद्यं कवचं तस्याः कण्ठे बाहौ दधार सः ।।ध्यात्वा चकार पूजां च पुष्करे शतवत्सरान् ।। 2.49.७० ।।

अन्ते जगाम गोलोकं रत्नयानेन भूमिपः ।।        इति ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।७१।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गत हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने राधायाः सुदामशापादिकथनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।। ४९ ।।

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पद्मपुराण पालाल खण्ड में अहीरों को शूद्रों  के साथ वर्णित किया गया है । भ्रान्तिवश कुछ लोग अहीरों को शूद्र मान लेते हैं 

सुराष्ट्राश्च सबाह्लीकाश्शूद्राभीरास्तथैव च भोजाः पांड्याश्च वंगाश्च कलिंगास्ताम्रलिप्तकाः१६३।

तथैव पौंड्राः शुभ्राश्च वामचूडास्सकेरलाःक्षोभितास्तेन दैत्येन देवाश्चाप्सरसां गणाः१६४ ।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे नरसिंहप्रादुर्भावो नाम पंचचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः४५।

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गायत्री वैष्णवी शक्ती का नाम है जो कभी दुर्गा कभी राधा तो कभी ब्रह्मा की सहचरी बनकर सृष्टि का नियमन करती हैं ।

निम्न श्लोक में यह कृष्ण और बलराम की बहिन और नन्द की पुत्री  हैं।

भगिनी बलदेवस्य रजनी कलहप्रिया ।          आवासः सर्वभूतानां निष्ठा च परमा गतिः। 2.3.१०।।

नन्दगोपसुता चैव देवानां विजयावहा।      चीरवासाः सुवासाश्च रौद्री संध्याचरी निशा।११।

प्रकीर्णकेशी मृत्युश्च सुरामांसबलिप्रिया ।लक्ष्मीरलक्ष्मीरूपेण दानवानां वधाय च।१२। 

सावित्री चापि देवानां माता भूतगणस्य च ।कन्यानां ब्रह्मचर्यं त्वं सौभाग्यं प्रमदासु च ।१३ 

अन्तर्वेदी च यज्ञानामृत्विजां चैव दक्षिणा ।कर्षकाणां च सीतेति भूतानां धरणीति च ।१   

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि स्वप्नगर्भविधाने आर्यास्तुतौ तृतीयोऽध्यायः ।। ३ ।

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                         -११-        

         ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि 
(उग्रा सेना यस्य स उग्रसेन) मथुरादेशस्य राजविशेषः 

स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च  इति श्रीभागवतम पुराणम् --इस प्रकार यदु के पुत्र क्रोष्टा के वंश में कृष्ण और उग्रसेन का भी जन्म होने से दोनों यादव ही थे ।

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                          -१२-

         - (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)-

हरिवंश पुराण में वर्णन है कि -एवमुक्त्वा यदुं तात शशाप ऐनं स मन्युमान्।अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९

•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया– मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।

अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।

वस्तुत:ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था 

जहाँ कामना होगी वहाँ काम का आवेग भी होगा कामनाऐं साँसारिक उपभोग की पिपासा या प्यास ही हैं कामनाओं के आवेग ही संसार रूपी सिन्धु की उद्वेलित लहरें हैं ;इनके आवेगों  से उत्पन्न मोह के भँवर और लोभ के गोते भी मनुष्य को अपने आगोश में समेटते  और अन्त में मेटते ही हैं ! कामनाओं की वशीभूत ययाति अपने साथ यही किया ।

अन्त: करण चतुष्टय में अहंकार का शुद्धिकरण होने का अर्थ है उसका स्व के रूप में परिवर्तन स्व ही आत्मसत्ता की विश्व व्यापी अनुभूति है । और जब यही सीमित और एकाकी हो जाती है तो इसे ही अहंकार कहा जाता है। 

और यही अहंकार क्रोधभाव से समन्वित होकर संकल्प को उत्पन्न करता है और संकल्प से इच्छा का जन्म होता है ।

                            -१३-    

          ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

यही इच्छा अज्ञानता से प्रेरित संसार का उपभोग करने के लिए उतावली होकर जीव को अनेक अच्छे बुरे कर्म करने को वाध्य करती है !

यही प्रवृत्तियों के साँचे में इच्छाऐं अपने को ढाल लेती हैं अहंकार से संकल्प की उत्पत्ति और यही संकल्प संवेगित होकर इच्छा का रूप धारण करता है। और इच्छाऐं अनन्त होकर कभी तृप्त न होने वाली हैं ।

आध्यात्मिक वैचारिकों ने धर्म का व्याख्या संसार रूपी दरिया में  पतवार या तैरने की क्रिया के रूप में स्वीकार किया ।

क्यों कि स्वाभाविता के वेग में मानवीय प्रवृत्ततियाँ जल हैं । अपराध के बुलबले तो उठते ही हैं । तैरने के मानिंद है धर्म और स्वाभाविकता का दमन करना ही तो संयम है । और संयम करना तो अल्पज्ञानीयों की सामर्थ्य नहीं ।सुमेरियन माइथॉलॉजी में भी धर्म के लिए तरमा शब्द है जिसका अर्थ है । दृढ़ता एकाग्रता स्थिरता आदि शील धर्म का वाचक इसलिए है कि उसमे जमाव या संयमन का भाव है । हिम जिस प्रकार स्थिरता अथवा एकाग्रता को अभिव्यक्त करता है ।

                            -१४-      

           ( यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

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शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार शाप भी  वही दे सकता है; जो पीड़ित है और उसकेे द्वारा शाप उसी को दिया जा सकता है जो वस्तुत: पीड़क है !

परन्तु अनुचित कर्म करने वाला राजा ययाति ही जो वास्तव दोषी ही था ; जो अपने पुत्र के यौवन से ही पुत्र की माता का उपभोग करना चाहता है ।

और बात करता था धर्म कि अत: राजा ययाति का यौवन प्रस्ताव पुत्र की दृष्टि में धर्म विरुद्ध ही था ।अतः वह पिता के लिए अदेय ही था ।

                           -१५-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

परन्तु मिथकों में ययाति की बात नैतिक बताकर  शाप देने और पाने के पात्र होने के सिद्धान्त की भी हवा निकाल दी गयी ..

यदु का इस अन्याय पूर्ण राजतन्त्र व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह होने से ही कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को ही बदलकर लोक तन्त्र की व्यवस्था की  अपने समाज में स्थापना की 

ये ही यदुवंशी  कालान्तर में आभीर रूप में इतिहास में उदय हुए ________________________________________

वेदों के पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करना ही इस बात का प्रमाण अथवा साक्ष्य है कि  

यादवों देव संस्कृति और ययाति समर्थक पुरोहितों की समाज शोषक व्यवस्थाओं के खिलाफ थे ।

                           -१६-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

वैदिक ऋचाओं में पुरोहितों का यदु और तुरवसु को अपने अधीन करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना ...

प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः।नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् l8l

अन्वय:- प्रि॒यासः॑। इत्। ते॒। म॒घ॒ऽव॒न्। अ॒भिष्टौ॑। नरः॑। म॒दे॒म॒। श॒र॒णे। सखा॑यः। नि। तु॒र्वश॑म्। नि। यादवम्। शि॒शी॒हि॒। अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑। शंस्य॑म्। क॒रि॒ष्यन् ॥८॥

  ( ऋग्वेद -मण्डल:-सूक्त: ऋचा  : 7/19/8)

पदों का हिन्दी अन्वयार्थ -बहुत सा धन देनेवाले इन्द्र  मित्र होते हुए  प्रसन्न हुए हम लोग आपके लिए सब ओर से प्रिय आपकी सङ्गति में व शरणागत  में आनन्दित हों। 

 हे इन्द्र ! आप (तुर्वशम्). तुरवसु को (नि, शिशीहि) निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (याद्वम्) यादवों को भी (नि) (शिशीहि )निरन्तर तीक्ष्ण कीजिये और (अतिथिग्वाय) अतिथिगु के लिए(शंस्यम्) प्रशंसनीय को (इत्) ही (करिष्यन्)  कार्य करते हुए बनिए  ॥८॥

                         -१७-  

        ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश )

यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७ पर है 

हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमानअपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।

और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !

पण्डित श्रीरामशर्मा आचार्य ने इसका अर्थ सायण सम्मत इस प्रकार किया है ।

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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना आज की ही नहीं अपितु वैदिक काल में भी थी इसी प्रकार की यह ऋचा भी है ।

  देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अवत्सारः छन्द: निचृद्गायत्री स्वर: षड्जः

अ॒या वी॒ती परि॑ स्रव॒ यस्त॑ इन्दो॒ मदे॒ष्वा।अ॒वाह॑न्नव॒तीर्नव॑ (9/61/1)

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                           -१८- 

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अ॒या । वी॒ती । परि॑ । स्र॒व॒ । यः । ते॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । मदे॑षु । आ । अ॒व॒ऽअह॑न् । न॒व॒तीः । नव॑ ॥ (ऋग्वेद 9/61/1)अन्वायार्थ  -(इन्दो) हे सेनापते ! (यः) जो शत्रु (ते) तुम्हारे (मदेषु) सर्वसुखकारक प्रजापालन में (आ) विघ्न करे, उसको (अया वीती परिस्रव) अपनी क्रियाओं से अभिभूत करो और (अवाहन् नवतीः नव) निन्यानवे प्रकार के दुर्गों का भी ध्वंसन करो ॥१॥

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। 

उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।

पुर॑: स॒द्य इ॒त्थाधि॑ये॒ दिवो॑दासाय॒ शम्ब॑रम् । अध॒ त्यं तु॒र्वशं॒ यदु॑म्है

पुरः॑ । स॒द्यः । इ॒थाऽधि॑ये । दिवः॑ऽदासाय । शम्ब॑रम् । अध॑ । त्यम् । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् ॥ (ऋग्वेद  9/61/2)

हे इन्द्र तुमने (इत्थाधिये दिवोदासाय) सत्य बुद्धिवाले दि वो दास के लिए (शम्बर को  और तुर्वशम् यदुम्) के  पुरों को ध्वंसन करो ॥२॥

अर्थात्  शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु   तथा यदु क  शासन (वश) में किया ।२।

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                            -१९-

           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में कुछ  ऋचाऐं हैं ..सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्। व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४५/२७

हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।

सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्”

 (ऋ० ८, ४५, २७ )

यदु को दास अथवा असुर कहना भी  सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सैमेटिक यहूदीयों के पूर्वज यहुदह् ही थे । क्योंकि असुर और दास जैसे शब्द देवों से भिन्न संस्कृतियों के उपासकों के वाहक थे । यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।

यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।ईरानी असुर संस्कृति में  दाहे शब्द दाहिस्तान के सैमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।

अब इसी लिए देव उपासक पुरोहितों ने यदु और तुरवसु के विरोध में और इनके वंश को विश्रृंखल करने के लिए  अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ दिये जैसे 

तुम्हारे शत्रु और विद्रोही तुम्हारे लिए कभी अच्छी कामनाऐं नहीं करेंगे ।भारतीय पुराणों में वर्णित यदु को भी वेदों में गोप और गोपालक के रूप में वर्णन किया है 

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                            - २०-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

कालान्तरण में यदु के वंशज ही इतिहास में आभीर गोप अथवा गोपालकों के रूप में दृष्टिगोचर हुए ।

गायों  का चारण और वन-विहारण और दुर्व्यवस्थाओं के पोषकों से निर्भीकता से रण ही

इन आभीर वीरों  के संकल्प में समाहित थे ..

जिन लोगों ने इन पुरोहितों के समाजविरोधी कार्यों का विरोध किया वे ही विद्रोही कहलाए और जिन्होंने अनुरोध किया वे इनकी वर्ण व्यवस्था के निर्धारण में उच्च पायदान पर रखा गये । 

जब यदु को ही वेदों में दास कहा है ।सायद तब तक दास का अर्थ पतित हो रहा था ।

और फिर कालान्तरण में  जब दास शब्द का दाता और दानी से पतित होते हुए गुलाम अर्थ हुआ तो शूद्रों को दास विशेषण का अधिकारी बना दिया ।

और इसी लिए रूढ़िवादी पुरोहित यादवों असली रूप अहीर अथवा गोपों को शूद्र या दास के रूप में मान्य करते हैं ।

परन्तु यह दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाह" शब्द के रूप में उच्च अर्थों का ही द्योतक है !

'परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।कि अर्थ का अनर्थ कर कर दिया जाय ऋग्वेद में यदु के गोप होने के  विषय में लिखा है कि

                             -२१-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी।गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(ऋग्वेद १०/६२/१०)

अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं । हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;गो-पालक ही गोप होते हैं

उपरोक्त ऋचा में यदु और तुरवसु के लिए (मह्- पूजायाम् ) धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।

वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।

प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।क्योंकि कि देव- संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;

परन्तु सम्भवतः दास का एक अर्थ दाता भी था वैदिक निघण्टु में यह निर्देश है ।                       सायण का भाष्य भी इस ऋचा पर पूर्णत: संगत नहीं है  -उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा ।यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०।

“उत अपि च "स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ “दासा दासवत् प्रेष्यवत् स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् ॥         वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ सेवक( प्रेष्यवत्) नहीं है । 

असुर शब्द का अर्थ भी दास शब्द की  शैली में किया गया।

ऋग्वेद में प्राचीनतम ऋचाओं में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान भी है ऋग्वेद में ही वरुण को महद् असुर कहा ।

 इन्द्र को भी असुर कहा है इन्द्र सूर्य और अग्नि भी असुर है और कृष्ण को भी असुर कहा गया है।

यह विशेषण उनके असु( प्राण) सम्पन्न होने से ही हुआ।

ऋग्वेद में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान भी है।

ऋग्वेद में ही वरुण को महद् असुर कहा इन्द्र को भी असुर कहा है।

मह् पूजायाम् धातु से महत् शब्द विकसित हुआ

वह जो पूजा के योग्य है।

फारसी जो वैदिक भाषा की सहोदरा है वहाँ महत् का रूप मज्दा हो गया है।

सूर्य को उसके प्रकाश और ऊर्जा के लिए वेदों में असुर कहा गया।

कृष्ण भी प्रज्ञावान थे और बलवान भी और फिर इन्द्र और कृष्ण का पौराणिक सन्दर्भ भी है तो वैदिक सन्दर्भ भी है।

वेदों की रचना ईसा पूर्व बारहवीं सदी से लेकर ईसा पूर्व सप्तम सदी तक होती रही है

ऋग्वेद के कुछ मण्डल प्राचीन तो कुछ अर्वाचीन भी हैं

असुर शब्द एक रूप में न होकर दो रूपों में व्युपन्न है

प्रथम व्युत्पत्ति

"असुरास्तद्विपरीताः स्वेष्वेवासुषु विष्वग्विषयासु प्राणनक्रियासु रमणात् स्वाभाविक्यस्तम आत्मिका इन्द्रियवृत्तय एव” -जो स्वयं के प्राणों में ही रमण करता है वह असुर है

दूसरा परवर्ती अर्थ

यद्वा न सुरः विरोधे नञ्तत्- पुरुषः  यद्वा नास्ति सुरा यस्य सः अर्थात् जो सुर के विरोध में है अथवा जिसकी सुरा नहीं है वह असुर है 

(वाल्मीकि रामायण बाल काण्ड )में देवों (सुरों) को सुरापायी बताया गया है देखें निम्न सन्दर्भों को-

सुराप्रतिग्रहाद्देवाःसुरा इत्यभिश्रुताः ।अप्रतिग्रहणाच्चास्या दैतेयाश्चासुराः स्मृताः

कृष्ण का समय पुरातत्व -वेत्ता और संस्कृतियों के विशेषज्ञ (अरनेस्त मैके) ने ईसा पूर्व नवम सदी निश्चित की महाभारत भी तभी हुआ महाभारत में शक हूण और यवन आदि ईरानी यूनानी जातियों का वर्णन हुआ है

वेदों के पूर्ववर्ती सन्दर्भों में असुर और देव गुण वाची शब्द थे जाति वाची कदापि नहीं इसी लिए वृत्र को ऋग्वेद में एक स्थान पर देव कहा गया है ..

परन्तु असुर संज्ञा के धारक असुर फरात नदी के दुआब में भी रहते थे जिसे प्रचीन ईराक और ईरान में मैसोपाटामिया के नाम से जाना जाता है ..

भारतीय पुराणों में इन्हें असुर कहा गया देव उत्तरी ध्रुव के समीपवर्ती स्वीडन के हेमरपास्त में रहते थे

समय अन्तराल से तथ्यों के अवबोधन में भेद होना स्वाभाविक है

अब ऋग्वेद में के चतुर्थ मण्डल में वरुण को महद् असुर कहा है जो ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ में अहुर मज्दा हो गया है ..

असुर का प्रारम्भिक वैदिक अर्थ प्रज्ञावान् और बलवान ही है परन्तु कालान्तरण में सुर के विपरीत व्यक्तियों के लिए भी असुर का प्रचलन हुआ अत: असुर नाम से दो शब्द थे निम्न ऋचा में असुर शब्द प्राचेतस् वरुण के अर्थ में है।

तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस: ।

ऋग्वेद - ४/५३/१

हम उस प्रचेतस् असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है ; उसका ही वरण करते हैं ।

निम्न ऋचा में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान् है।

अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।

हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने ! तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञानवान -बलवान तथा ऐश्वर्य वान हो ।

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अब देखें महाभारत में असुरों का गुण भी प्रतिभा और बलशाली होना दर्शाया है ..👇

तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।

महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।

महाभारत आदिपर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय

इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे ।

उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर देवों को पीड़ित करने लगे ।

असुर शब्द बलशाली के अर्थ में महाभारत में भी है यह आपने आदि पर्व के उप पर्व  आस्तीक के इस श्लोक में देखा।

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ऋग्वेद में असुर के अर्थ ..

देवता: सविता ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः

तत्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। वार्य॑म्। म॒हत्। वृ॒णी॒महे॑।असु॑रस्य। प्रऽचे॑तसः। छ॒र्दिः। येन॑। दा॒शुषे॑। यच्छ॑ति। त्मना॑। तत्। नः॒। म॒हान्। उत्। अ॒या॒न्। दे॒वः।अ॒क्तुऽभिः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:53» ऋचा :1 |

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पद का अर्थान्वय - हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (सवितुः) वृष्टि आदि की उत्पत्ति करने वाले सूर्य का (देवस्य) निरन्तर प्रकाशमान देव का (प्रचेतसः) जनानेवाले (असुरस्य) बलवान के (महत्) बड़े (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों वा जलों में उत्पन्न (छर्दिः) गृह का (वृणीमहे) वरण करते हैं

(तत्) उसका (येन) जिस कारण से विद्वान् जन (त्मना) आत्मा से (दाशुषे) दाता जन के लिये स्वीकार करने योग्यों वा जलों में उत्पन्न हुए बड़े गृह को (यच्छति) देता है (तत्) उसको (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (अक्तुभिः) रात्रियों से (नः) हम लोगों के लिये (उत्, अयान्) उत्कृष्टता प्रदान करे ॥१॥

असुर महद् यहाँ वरुण का विशेषण है

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देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः

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अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥

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1-अर्च॑। दि॒वे। बृ॒ह॒ते- बड़े देव लोक में प्रतिष्ठित स्तुति करने वालों को

2- शू॒ष्य॑म्। वचः॑। वाणी उत्पन्न करता है |

3- स्वऽक्ष॑त्रम्। यस्य॑। धृ॒ष॒तः। जो क्षत्र रूप मे स्वयं ही सबको आच्छादन अथवा वरण किये हुए है

4-धृ॒षत्। मनः॑। जिसका मन सहन करने वाला है सबकुछ

5- बृ॒हत्ऽश्र॑वाः। वह वरुण बहुत सुनने वाला है

6-असु॑रः। ब॒र्हणा॑। कृ॒तः। उस प्रज्ञा और बल प्रदान करने वाले वरुण की इसी कारण असुर संज्ञा भी है उसी ने विशालता को उत्पन्न किया है

7-पु॒रः। हरि॑ऽभ्याम्। वृ॒ष॒भः। रथः॑। हि। सः -

पहले समय में घोडे़ और बैलों ने वरुण के रथ को खींचा था ॥

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ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» ऋचा :3 |

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इन्द्र के लिए भी असुर शब्द का प्रयोग हुआ है

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देवता: इन्द्र: ऋषि: अगस्त्यो मैत्रावरुणिः छन्द: निचृत्पङ्क्ति स्वर: पञ्चमः

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त्वम्। राजा॑। इ॒न्द्र॒। ये। च॒। दे॒वाः। रक्ष॑। नॄन्। पा॒हि। अ॒सु॒र॒। त्वम्। अ॒स्मान्। त्वम्। सत्ऽप॑तिः। म॒घऽवा॑। नः॒। तरु॑त्रः। त्वम्। स॒त्यः। वस॑वानः। स॒हः॒ऽदाः ॥ १.१७४.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:174» ऋचा :1 |

पदार्थान्वय- -हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त !

(त्वम्) आप (सत्पतिः) वेद वा सज्जनों को पालनेवाले (मघवा) परमप्रशंसित धनवान् (नः) हम लोगों को (तरुत्रः) दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले हैं (त्वम्) आप (सत्यः) सज्जनों में उत्तम (वसवानः)

धन प्राप्ति कराने और (सहोदाः) बल के देनेवाले हैं तथा (त्वम्) आप (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा हैं इससे हे (असुर) मेघ के समान (त्वम्) आप (अस्मान्) हम (नॄन्) मनुष्यों को (पाहि) पालो 

(ये, च) और जो (देवाः) श्रेष्ठा गुणोंवाले धर्मात्मा विद्वान् हैं उनकी (रक्ष) रक्षा करो॥१॥

इस उपर्युक्त ऋचा में इन्द्र को असुर कहा गया है ...

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देवता: इन्द्र: ऋषि: प्रजापतिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

आ॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वऽरो॑चिः। म॒हत्। तत्। वृष्णः॑ (कृष्ण:)।

असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:38» मन्त्र:4 |

पदार्थान्वयभाषाः-                                     हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः)

ग्रहण करता हुआ या वसता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह (कृष्णः)

(असुरस्य) असुर का

(अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा) नाम वाला (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण (परि) सब प्रकार (अभूषन्) शोभित करैं ॥४॥

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ऋग्वेद की प्रचीन पाण्डु लिपियों में कृष्ण पद ही है परन्तु वर्तमान में वृष्ण पद कर दिया है !

उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण या वृष्ण को असुर कहा गया है।

क्यों कि वे सुरा पान भी नहीं करते और प्रज्ञा वान् भी हैं।

अत: कृष्ण के असुरत्व को समझो

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देवता: इन्द्र: ऋषि: गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

इ॒मे। भो॒जाः। अङ्गि॑रसः। विऽरू॑पाः। दि॒वः। पु॒त्रासः॑। असु॑रस्य। वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय। दद॑तः। म॒घानि॑। स॒ह॒स्र॒ऽसा॒वे। प्र। ति॒र॒न्ते॒। आयुः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» ऋचा :7 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो (इमे) ये (अङ्गिरसः) अंगिरा (भोजाः) भोग करने तथा प्रजा के पालन करनेवाले (विरूपाः) अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त रूपवाले और (दिवः) प्रकाशस्वरूप (असुरस्य) वरुण के (पुत्रासः) पुत्र के समान बलिष्ठ (वीराः) युद्धविद्या में परिपूर्ण (सहस्रसावे) संख्यारहित धन की उत्पत्ति जिसमें उस संग्राम में (विश्वामित्राय) संपूर्ण संसार मित्र है जिसका उन विश्वामित्र के लिये (मघानि) अतिश्रेष्ठ धनों को (ददतः) देते हुए जन (आयुः) जीवन का (प्र, तिरन्ते) उल्लङ्घन करते हैं वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं ॥७|

अर्थात्

हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।

देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।

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देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः

प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा :1 |

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देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

अ॒यम् । वा॒म् । कृष्णः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हव॑ते । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :3 |

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देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा:4 |

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देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :4 |

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देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा:4 |

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देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः

प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा:1 |

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देवता: विश्वेदेवा, उषा ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

उ॒षसः॑। पूर्वाः॑। अध॑। यत्। वि॒ऽऊ॒षुः। म॒हत्। वि। ज॒ज्ञे॒। अ॒क्षर॑म्। प॒दे। गोः। व्र॒ता। दे॒वाना॑म्। उप॑। नु। प्र॒ऽभूष॑न्। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» ऋचा:1 |

पदार्थान्वय -(यत्) जो (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वाः) प्रथम हुए (व्यूषुः) विशेष करके वसते हैं वह (महत्) बड़ा (अक्षरम्) नहीं नाश होनेवाला (महत्) बड़ा तत्त्वनामक (गोः) पृथिवी के (पदे) स्थान में (वि, जज्ञे) उत्पन्न हुआ जो (एकम्) अद्वितीय और सहायरहित (देवानाम्) पृथिवी आदिकों में बड़े (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाले को (प्र, भूषन्) शोभित करता हुआ (अध) उसके अनन्तर (देवानाम्) देवों को (व्रता) नियम में (उप) समीप में (नु) शीघ्र उत्पन्न हुए, उसको आप लोग जानिये ॥१॥

देवता: विश्वेदेवा, दिशः ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

आ। धे॒नवः॑। धु॒न॒य॒न्ता॒म्। अशि॑श्वीः। स॒बः॒ऽदुघाः॑। श॒श॒याः। अप्र॑ऽदुग्धाः। नव्याः॑ऽनव्याः। यु॒व॒तयः॑। भव॑न्तीः। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55»  ऋचा:16 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! आप लोगों के (सबदुर्घाः) सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली (शशयाः) शयन करती सी हुई (अप्रदुग्धाः) नहीं किसी करके भी बहुत दुही गई (धेनवः) गायें (अशिश्वीः) बालाओं से भिन्न (नव्यानव्याः) नवीन -नवीन (भवन्तीः) होती हुईं (युवतयः) यौवनावस्था को प्राप्त (देवानाम्) में महद् बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) असुरता को (आ, धुनयन्ताम्) अच्छे प्रकार अनुभव किया रोमांचित किया ॥१६॥

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उपर्युक्त ऋचा में असुरत्व भाव वाचक शब्द है

संस्कृत कोशों में असुर के अनेक अर्थ और सन्दर्भ उपलब्ध हैं 👇

असुरः, पुल्लिंग (अस्यति देवान् क्षिपति इति ।

असं उरन् । यद्वा न सुरः विरोधे नञ्तत्- पुरुषः । यद्वा नास्ति सुरा यस्य सः ।

सूर्य्यपक्षे असति दीप्यते इति उरन् ।) सुर विरोधी । स तु कश्यपात् दितिगर्भजातः । तत्पर्य्यायः । दैत्यः २ दैत्येयः ३ दनुजः ४ इन्द्रारिः ५ दानवः ६ शुक्रशिष्यः ७ दितिसुतः ८ पूर्ब्बदेवः ९ सुरद्विट् १० देवरिपुः ११ देवारिः १२ इत्यमरः ॥

 (“सुराः प्रतिग्रहाद्देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः । अप्रतिग्रहणात्तस्य दैतेयाश्चासुराः स्मृताः” ॥ इति रामायणे ।) सूर्य्यः । इति मेदिनी । राहुः इति ज्योतिःशास्त्रम् ॥

अमरकोशःअसुर पुं।असुरः

समानार्थक:असुर,दैत्य,दैतेय,दनुज,इन्द्रारि,दानव, शुक्रशिष्य,दितिसुत,पूर्वदेव,सुरद्विष

1।1।12।1।1

                            -२२-

           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश )

परन्तु ऋग्वेद की प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है

समय के अन्तराल में अनुचित व्यवहार का विरोध करने वाले अथवा अपने मान्य अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वालों को समाज के रूढ़िवादी लोगों ने कहीं विद्रोही तो ; कहीं क्रान्तिकारी,  तो कहीं आन्दोलन -कारी तो कहीं कहीं आतंकवादी या दस्यु ,डकैत भी कहा है । 

                            -२३-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

क्योंकि जिन्होंने रूढ़िवादी लोगों की दासता को स्वीकार नहीं किया वही विद्रोही ही दस्यु कहलाए थे ।

वैदिक काल में दास और दस्यु शब्द समानार्थी ही थे और इनके अर्थ आज के गुलाम के अर्थो में नहीं थे 👇

यादवों से घृणा  रूढ़ि वादी ब्राह्मण समाज की अर्वाचीन (आजकल की ही सोच या दृष्टिकोण ही नहीं अपितु चिर-प्रचीन है।वैदिक ऋचाओं में इसके साक्ष्य विद्यमान  हैं ही 

ययाति पुत्र यदु को ही सूर्यवंशी इक्ष्वाकु पुत्र राजा हर्यश्व की पत्नी मधुमती में योग बल से पुन:जन्म  देने कि प्रकरण भी पुरोहित वर्ग ने निर्मित किया  ..

परन्तु लिंग पुराण के पूर्व भाग में शिव भक्त पुरुरवा को यमुना के तटवर्ती प्रयाग के समीप प्रतिष्ठान पुर(झूँसी )

का राजा बताया है ;जिसके सात पुत्र थे आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य:ये सात पुत्र थे ।आयुष् के पाँच पुत्र थे नहुष  इनका ज्येष्ठ पुत्र था ।

नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति (विजाति)और कृति (अन्धक) नामक छः महाबली-विक्रमशाली पुत्र उत्पन्न हुए ।

                             -२४

           ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

(लिंग पुराण के अनुसार यदुवंश के पूर्वजों से लेकर यदु तक का वर्णन है इस प्रकार है ) 👇

पुराणों में नहुषः पुरुरवा के पुत्र आयुष् का पुत्र होने से सोमवंशी ( चन्द्र वंशी) हैं )।

तो वाल्मीकि-रामायण में नहुषः सूर्यवंशी अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा थे 

जैसे (प्रशुश्रक के पुत्र अंबरीष का पुत्र का नाम नहुष और नहुष का पुत्र ययाति था) ।

वाल्मीकि रामायण में बाल काण्ड के सत्तर वें सर्ग के तीन श्लोकों में वर्णन है कि  👇

शीघ्रगस्त्वग्रिवर्णस्य शीघ्रगस्य मरु: सुत: ।मरो:प्रशुश्रुकस्त्वासीद् अम्बरीष: प्रशुश्रुकात्।।४१।।अम्बरीषस्य  पुत्रोऽभूत् नहुषश्च महीपति:

नहुषस्य ययातिस्तु नाभागस्तु ययाति:।।४२।नाभागस्य बभूव अज अजाद् दशरथोऽभवत् ।अस्माद् दशरथाज्जातौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ।।४३।

(वाल्मकि  रामायण बाल-काण्ड के सत्तर वें सर्ग में श्लोक संख्या ४१-४२-४३ पर देखें )

                      -२५-

       (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

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अनुवाद :-- अग्निवर्ण ये शीघ्रग हुए ,शीघ्रग को मरु हुए और मरु को प्रशुश्रक से अम्बरीष उत्पन्न हुए ।और अम्बरीष के पुत्र का नाम ही नहुष था।नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग हुये। नाभाग के पुत्र का नाम अज था।

अज के पुत्र दशरथ हुये और दशरथ के ये राम और लक्ष्मण पुत्र हैं। यदु नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को भी दो अवतरणों में स्थापित करने की चेष्टा की ।उपरोक्त श्लोकों में नभग पुत्र ना भाग का वर्णन है ।

नाभागो नभगापत्यं यं ततं भ्रातर: कविम्। यविष्ठं व्यभजन् दायं ब्रह्मचारिणमागतम्।।१।

मनु पुत्र नाग के पुत्र नाभाग का वर्णन है । जब वह दीर्घ काल तक ब्रह्म चर्च का पालन करके लोटे थे ।(भागवतपुराण ९/४/१)

( परन्तु पुराणों में एक दिष्ट के पुत्र नाभाग भी हुए थे )

क्यों कि यदुवंश उस समय विश्व में बहुत प्रभाव शाली था यदुवंश में ईश्वरीय सत्ता के अवतरण से ही तत्कालीन पुरोहित वर्ग की प्रतिष्ठा और वर्चस्व धूमिल होने लगा था 

कृष्ण से लेकर  जीजस कृीष्ट तक के लोग धर्म के नवीन संशोधित रूपों की व्याख्या करने के लिए प्रमाण पुरुष के रूप में आप्त पुरुष की भूमिका में प्रतिष्ठित हो गये थे।

                         -२६-

           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

इसी लिए पुरोहितों ने इनके इतिहास के सम्पादन में घाल- मेल कर डाला ।

यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ इस लिए उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है 

दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी  निरन्तर  सक्रिय रहे  ।

                            -२७-

            (यदुवंश के बिखरे हुए)

विश्व- इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित होकर समाजवाद पर आधारित ही थी ।

द्वापर युग में कृष्ण ने कभी सूत बनकर शूद्र की भूमिका का निर्वहन किया जैसा कि शास्त्रों में सूत को शूद्र धर्मी बताया गया है ।

तो गोपाल रूप में वैश्य तथा क्षत्रिय वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया और श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ।

शास्त्रों में सूत को वर्णसंकर के रूप मे शूद्र-वर्ण कहा है जैसे कि मनुस्मृति में वर्णन है ।

क्षत्रियाद्विप्रकन्यायां सूतो भवति जातितः” । “सूतानामश्वसारथ्यमम्यष्ठानां चिकित्सितम्” ।

(क्षत्रिय से विप्र कन्या में सूत उत्पन्न होता है जो सारथि का कार्य करता है )

सूतानां अश्वसारथ्यं अम्बष्ठानां चिकित्सनम् ।वैदेहकानां स्त्रीकार्यं मागधानां वणिक्पथः। 

(मनु स्मृति 10/47 )

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 48 में वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन हुआ है।जो पुष्यमित्र सुँग के समय सम्पादित हुआ ।

                       -२८-

          (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अर्थात्  सूत  सारथि का कर्म करें अम्बष्ठ चिकित्सा का कार्य करें और वैदहक स्त्रियों के श्रृंगार (प्रसाधन का कार्य करें और मागध वाणिज्य का कार्य करें )

परन्तु मनुस्मृति में अन्यत्र यह एक प्राचीन जाति वैश्य के वीर्य से क्षत्रिय कन्या के गर्भ से उत्पन्न है।

इस जाति के लोग वंशक्रम से विरुदावली का वर्णन करते हैं और प्रायः 'भाट' कहलाते हैं । 

युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कृष्ण ने लोगों की उच्छिष्ठ पत्तल उठा कर भी एक सफाई कर्मचारी का कार्य किया 

यह भी शूद्र की भूमिका थी ;यह सब उपक्रम कृष्ण का वर्ण व्यवस्था को न मानने का ही कारण था ।

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जिसके वंशजों ने कभी भी वर्ण व्यवस्था का पालन नहीं किया जैसे कि

कृष्ण ने भी स्वयं  सारथी (सूत )की भूमिका से शूद्र वर्ण की भूमिका कि पालन किया तो  गोपालन से वैश्य वर्ण का था

परन्तु नारायणी सेना में भी गोप रूप में क्षत्रिय वर्ण का पालन किया ।

और श्रीमद् भगवद् गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ।

                          -२९-  

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

क्योंकि वर्ण- व्यवस्था का पालन तो जीवन पर्यन्त एक ही वर्ण में रहकर उसके अन्तर्गत विधान किये हुए कर्मों को ही करना सम्भव होता है ।

परन्तु कृष्ण ने इस वर्ण-व्यवस्था परक विधान का पालन कभी नहीं किया।

परन्तु श्रीमद भगवद् गीता के चतुर्थ अध्याय का यह तैरहवाँ श्लोक प्रक्षेप ही है ।

'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः,तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।

चारों वर्ण मेरे द्वारा गुण कर्म के विभाग से सृजित किए हुए हैं;उसमें मैं अकर्ता के रूप में अव्यय हूं ऐसा मुझको जान (4/13)

वस्तुत: यहाँ इस श्लोक का मन्तव्य वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था से ही है नकि जन्मजात मूलक वर्ण व्यवस्था से

अन्यथा गोप यदि वैश्य होते तो नारायणी सेना के योद्धा क्यों हुए ? क्योंकि वैश्य का युद्ध करना तथा शस्त्र लेना भी शास्त्र- विरुद्ध ही है ।

ब्रह्म वैवर्त पुराण में गोपों की उत्पत्ति कृष्ण के रोम कूपों से है ।

तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः ।    आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।1.5.४०।।

लक्षकोटीपरिमितःशश्वत्सुस्थिरयौवनः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागणः।४१।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने ।।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः ।४२।

त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।। ४४ ।।

बलीवर्दाः सुरभ्यश्च वत्सा नानाविधाः शुभाः ।।
अतीव ललिताः श्यामा बह्व्यो वै कामधेनवः।४५।

तेषामेकं बलीवर्दं कोटिसिंहसमं बले ।।
शिवाय प्रददौ कृष्णो वाहनाय मनोहरम् ।। ४६ ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।। ५ ।

                         -३०-

           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

जैसा कि पुराणों में वर्णन है:-राजा नाभाग के वैश्य होने के विषय में (विशेष नाभाग सूर्यवंशी राजा दिष्ट के पुत्र थे)

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"मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए । वर्णित है अर्थात् ( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि  ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।

"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।तवापि वैश्येनसह न युद्धं धर्मवन्नृप ||30||

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उपर्युक्त श्लोक जो  मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता ।अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है ।

तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे  वे वैश्य कहाँ हुए ?

और इसके अतिरिक्त भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना पुरुषार्थ परिचय देते हुए कहा था जब

एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;

तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
परन्तु आज कृष्ण से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया । ये भूत या पिशाच जनजाति के लोग थे 
यही आज भूटानी कहे जाते हैं ।
वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?
'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय देते हुए कहा कि शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय होने से मैं  क्षत्रिय हूँ । 
तब पिशाच और जिज्ञासा पूर्वक पूँछता है ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।3/80/ 9।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।।3/80/10 ।।
•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।10।।

लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।3/80/11।
•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11

इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं राजाओं के समक्ष उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
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अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
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"अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।

दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।। १८५.३३
(ब्रह्मपुराण अध्याय १८५)

                            -३१-

यदि कृष्ण शास्त्रों को आधार मानकर चलते तो गोपों की 'नारायणीसेना' का निर्माण क्यों करते ?____________________________________

महाभारत के द्रोण पर्व के उन्नीसवें अध्याय में वर्णन है नारायणी सेना के( शूरसेन वंशी आभीर ) और शूरसेन राज्य के अन्य  योद्धा अर्जुन के विरुद्ध लड़ रहे  थे ।

महाभारत के द्रोण पर्व के संशप्तक वध नामक उपपर्व के उन्नीस वें अध्याय तथा बीसवे अध्याय में यह वर्णन है ।

और इस अध्याय के श्लोक ‌सात में गोपों की नारायणी सेना के योद्धा गोपों को अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए वर्णन किया है ।

अथ नारायणा: क्रुद्धा: विविधा आयुध पाणय:क्षोदयन्त: शरव्रातेै: परिवव्रुर्धनञ्जयम् ।।७।।

अर्थ:-तब क्रोध में भरे हुए नारायणी सेना के योद्धा गोपों ने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर अर्जुन को अपने वाण समूहों से आच्छादित करते हुए चारों ओर से घेर लिया ।।७।।

                          -३२-

          ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

और आगे के श्लोक में वर्णन है कि 

अदृश्यं च मुहूर्तेन चक्रुस्ते भरतर्षभ।कृष्णेन सहितं युद्धे कुन्ती पुत्रं धनञ्जय ।।८।।

अर्थ:-भरत श्रेष्ठ! उन्होंने दो ही घड़ी में कृष्ण सहित कुन्ती पुत्र अर्जुन को अपने वाण समूहों से अदृश्य ही कर दिया ।८।। 

और बीसवें अध्याय में श्लोक संख्या छै: और सात पर भी नारायणी सेना के अन्य शूर के वंशज आभीरों का वर्णन अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित गरुड़ व्यूह के ग्रीवा (गर्दन) पर स्थित होते हुए किया है ;जिसका प्रमाण महाभारत के ये श्लोक हैं

भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाशश्च वीर्यवान् ।कलिङ्गाः सिंहलाः पराच्याः शूर आभीरा दशेरकाः।६।।शका यवनकाम्बोजास्तथा हंसपथाश्च ये।

ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरदा मद्रकेकयाः।७।।गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिता:।।

(द्रोण पर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व २०वाँ अध्याय)




अर्थ:- भूतशर्मा , क्षेमशर्मा पराक्रमी कारकाश , कलिंग सिंहल  पराच्य  (शूर के वंशज आभीर) और दशेरक।६।।शक यवन ,काम्बोज,  हंस -पथ  नाम वाले देशों के निवासी शूरसेन प्रदेश के यादव. दरद, मद्र, केकय ,तथा  एवं हाथी सवार घुड़सवार रथी और पैदल सैनिकों के समूह उत्तम कवच धारण करने उस व्यूह के गरुड़ ग्रीवा भाग में खड़े थे ।।६-७ ।

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                             -३३-

              ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

(महाभारत द्रोण पर्व संशप्तक वध नामक उपपर्व के बीसवाँ अध्याय)

महाभारत के उद्योग पर्व के सेनोद्योग नामक उपपर्व के सप्तम अध्याय में श्लोक संख्या १८ और १९ पर गोपों के अजेय योद्धा रूपों का वर्णन है।

मत्सहननं तुल्यानां ,गोपानाम् अर्बुदं महत् । नारायणा इति ख्याता: सर्वे संग्रामयोधिन: ।१८।

मेरे पास दस करोड़ गोपों की विशाल सेना है, जो सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं।

उन सबकी 'नारायण' संज्ञा है। वे सभी युद्ध में डटकर मुकाबला करने वाले हैं। ।।१८।।

ये सभी शास्त्रीय बातें गोपों के क्षत्रियत्व को प्रमाणित भी करती हैं ।

विदित हो कि नरायणी सेना और बलराम दुर्योधन के पक्ष में थे और तो क्या बलराम स्वयं दुर्योधन के गुरु ही थे 

जैसा कि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड में वर्णन है

अथ कदाचित्प्राड्‌विपाको नाम मुनींद्रो।
योगीन्द्रो दुर्योधनगुरुर्गजाह्वयं नाम पुरमाजगाम ॥६॥

सुयोधनेन संपूजितः परमादरेण।
सोपचारेण महार्हसिंहासने स्थितोऽभूत् ॥७॥____________

इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे दुर्योधनप्राड्‌विपाकसंवादे
बलदेवावतारकारणं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥

प्राय:  कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा  भ्रान्त-मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए !

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गोप सम्राट भी बनते थे।

गोपः कश्चिदमावास्यां दीपं प्रज्वाल्य शार्ङ्गिणः।
मुहुर्जयजयेत्युक्त्वा स च राजेश्वरोऽभवत्।। १३४।।

किसी  गोप ने  कार्तिक अमावस्या में  दीप जलाकर  शारङ्गिण भगवान विष्णु की बार-बार जय जय बोलने के द्वारा  राजेश्वर ( सम्राट) पद को प्राप्त किया था।
___________
 राजेश्वर=राजाओं का राजा। राजेंद्र। महाराज। सम्राट ।
____________________________
इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे कार्तिकमासमाहात्म्ये दीपदानमाहात्म्यवर्णनंनाम सप्तमोऽध्यायः । ७ ।

                            -३४-

महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से यह श्लोक उद्धृत करते हैं ।____________________________________

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस:।आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना:।४७।

अर्थात्  वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को  बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय  में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द  सम्बोधन द्वारा कहा गया है इसे भी देखें---____________________________________

"सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०।

क्षत्रबन्धुं सदानार्यं रामः परमादुर्मतिः ।          भक्तं भ्रातरमद्यैव त्वां द्रक्ष्यति मया हतम् ।। ६.८८.२४ ।। 

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(युद्ध काण्ड - अध्याय 88 का श्लोक 24) में जब रावण जब लक्ष्मण को अनार्य और अधम क्षत्रिय कहता है तब क्या लक्ष्मण वास्तव में अनार्य थे ? 

वास्तव में इस प्रकार के अपशब्द अथवा गालि क्रोध में युद्ध की भाषा है गोपों अथवा अहीरों को अर्जुन के द्वारा दुष्ट और पापी कहना भी इसी प्रकार क्रोध और विरोध की भाषा थी यथार्थ परक नहीं 

                           -३५-

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । 

कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 

परन्तु मार्ग में  अर्थात् पञ्चनद या पंजाब प्रदेश में  दुष्ट नारायणी सेना के  गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।

और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! 

(श्रीमद्भगवद् पुराण प्रथम स्कन्द  अध्याय पन्द्रह वाँ श्लोक संख्या (२० १/१५/२० )

(पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---

विदित हो कि महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।

और फिर यादव जो वृष्णिवंशी थे उन्हें यादवों के अतिरिक्त कौन वश में कर सकता है।

संहर्ता वृष्णिचक्रस्य नान्यो मद्विद्यते शुभे।अवध्यास्ते नरैरन्यैरपि वा देवदानवैः (11-25-49)परस्परकृतं नाशं यतः प्राप्स्यन्ति यादवाः।। 49 1/2।।

                               -३६-

गान्धारी जब कृष्ण को शाप देती हैं तब कृष्ण उनके शाप को स्वीकार करते हम हुए कहते हैं 

शुभे ! वृष्णि कुल का संहार करने वाला मेरे सिवा दूसरा दुनियाँ में नहीं है ! ये यादव दूसरे मनुष्यों तथा देवताओं के लिए भी और दानवों के लिए भी अबध्य है ; इसी लिए ये आपस में ही लड़़कर नष्ट होंगे ।।49 1/2।।

।। इति श्रीमन्महाभारते स्त्रीपर्वणिस्त्रीविलापपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः।। 25 ।।

अर्जुन भी महान योद्धा था उन्हें नारायण सेना के यादव गोपों के अतिरिक्त कौन परास्त कर सकता था ?

और जब वृष्णि कुल की कन्या सुभद्रा का अर्जुन ने काम पीडित होकर अपहरण किया था तब कृष्ण नें भी अर्जुन को इन शब्दों में धिकारा था 

जब अर्जुन और कृष्ण रैवतक पर्वत पर वहाँ समायोजित उत्सव की शोभा के अवसर पर टहल रहे थे।तभी वहाँ  अपनी सहेलीयों के साथ आयी हुई।

                            -३७-

सुभद्रा को देखकर अर्जुन में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी

 दृष्टिवा एव तामर्जुनस्य कन्दर्प: समजायत। तं तदैकाग्रमनसं कृष्ण: पार्थमलक्षयत्।।१५।

उसे देखते ही अर्जुन के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी उनका चित्त उसी के चिन्तन में एकाग्र हो गया कृष्ण ने अर्जुन की कामुकता को भाँप लिया।।१५।

अब्रवीत् पुरुष व्याघ्र: प्रहसन्निव भारत।वनेचरस्य किमिदं कामेनालोड्यते मन:।।१६।।

फिर वे पुरुषों में बाघ के समान कृष्ण हंसते हुए से बोले -अर्जुन यह क्या ? तुम जैसे वन वासी के मन भी काम से उन्मथित हो रहा है ? ।।१६।

(महाभारत आदिपर्वसुभद्राहरणपर्व दो सौअठारहवाँ अध्याय)

तब अर्जुन सुभद्रा का अपहरण करके ले जाता है तब वृष्णि कुल योद्धा उसको धिक्कारते हुए कहते हैं ।

                            -३८-

           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

को हि तत्रैव भुक्त्वान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति।मन्यमान: कुले जातमात्मानं पुरुष: क्वचित्।।२७।

अपने को कुलीन मानने वाला कौन ऐसा मनुष्य है जो जिस बर्तन में खाये ,उसी में छेद करे ।।२७।

(महाभारत आदि पर्व हरण पर्व दो सो उन्सीवाँ अध्याय)

सुभद्रा के अपहरण की खबर सुनते ही युद्धोन्माद से लाल नेत्रों वाले वृष्णिवंशी वीर अर्जुन के प्रति क्रोध से भर गये और गर्व से उछल पड़े ।।१६।

वृष्णि सत्वत वंश के थे ।

तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरा: ते मदसंरक्तलोचना:।अमृष्यमाणा: पार्थस्य  समुत्पेतुरहंकृता:।।१६।

__________________________________

विदित  हो कि सुभद्रा वृष्णि कुल की कन्या थी और वसुदेव की बड़ी पत्नी रोहिणी की पुत्री थी और स्वयं रोहिणी पुरुवंशी भीष्म के पिता शन्तुनु के बड़े भाई बह्लीक की पुत्री थीं । और अर्जुन भी स्वयं पुरुवंशी था ।                              -३९-

          (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

इस लिए भी सुभद्रा अर्जुन के लिए मान पक्ष की थी परन्तु कामुकता वश वह उसे अपहरण कर के लेगया ।

इसी लिए वृष्णि वंशी गोप योद्धाओं ने (पंचनद) प्रदेश में वृष्णि वंश की अन्य हजारों स्त्रियों को द्वारका से इन्द्र प्रस्थान ले जाते हुए अपने कुल की स्त्रियों को अपने साथ लेने के लिए परास्त किया था।

यह बात भागवत पुराण के सन्दर्भ से उपरोक्त रूप में कह चुके हैं । सुभद्रा गोप कन्या के रूप में थी जैसा की अन्य गोप कन्याऐं उस काल में रहती थीं ।

महाभारत के इस श्लोक नें यही भाव -बोध है।

सुभद्रां त्वरमणाश्च  रक्तकौशेयवासिनीम्।पार्थ: प्रस्थापयामास कृत्वा गोपालिका वपु:।।१९।

(महाभारत आदिपर्व हरणाहरण पर्व दोसौ बीसवाँ अध्याय)

यह सुभद्रा रोहिणी की पुत्री और हद व सारण की सगी बहिन थी।(हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के श्रीकृष्ण जन्म विषयक पैंतीसवाँ अध्याय )के चतुर्थ श्लोक में 

रोहिणी के पिता और वंश का वर्णन करते हुए लिखा हुआ है कि 

रोहिणी के ज्येष्ठ पुत्र बलराम और (उनसे छोटे) सारण, शठ दुर्दम ,दमन श्वभ्र, पिण्डारक,और उशीनर हुए और चित्रा नाम की पुत्री हुई ( यह चित्रा एक अप्सरा थी जो रोहिणी के गर्भ में उत्पन्न होते ही मर गयी ।

                           -४०-

          (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

मरते समय उसने धिक्कारा था स्वयं को कि मैं यादव कुल में जन्म धारण करके भी यदुवंश में उत्पन्न होने वाले भगवान की लीला न देख सकी इसी इच्छा के कारण  ) यह चित्रा ही दूसरी वार सुभद्रा बनकर उत्पन्न हुई ।इस प्रकार रोहिणी की दश सन्तानें उत्पन्न हुईं ।

वसुदेव की चौदह तो कहीं अठारह रानी यहाँ थीं जिनमें रोहिणी उनसे छोटी इन्दिरा वैशाखी भद्रा और पाँचवीं सुनामि

 ये पाँचों पुरुवंश की थीं रोहिणी महाराज शान्तनु के बड़े भाई बाह्लीक की बड़ी पुत्री थी ये दोनों भाई प्रतीप के पुत्र थे ;वे वसुदेव की बड़ी पत्नी थीं

पौरवी रोहिणी नाम बाह्लीकस्यात्मजाभवत्। ज्येष्ठा पत्नी महाराज दयिता८८नकदुन्दुभे:।।४।

लेभे ज्येष्ठं सुतं रामं सारणी शठमेव च।दुर्दमं दमनं श्वभ्रं पिण्डारकम् उशीनरम् ।।५।

चित्रां नाम कुमारीं च रोहिणीतनया दश।      चित्रा सुभद्रा इति पुनर्विख्याता कुरु नन्दन।६।

हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व का पैंतीस वे ं अध्याय के चतुर्थ पञ्चम और षष्ठ श्लोक उपरोक्त रूप में वर्णित हैं ।

____________________________________

                        -४१-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

परन्तु भागवत पुराण के अनुसार सुभद्रा देवकी की पुत्री है।भागवत पुराण नवम स्कन्ध के (२४)वें अध्याय के ५५वें श्लोक में वर्णन है कि >•

अष्टमस्तु तयोरासीत् स्वयमेव हरि: किल।सुभद्रा च महाभागा तव राजन् पितामही।।५५।

अर्थ:-दौंनों के आठवें पुत्र स्वयं  हरि ही थे परीक्षित् ! तुम्हारी सौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी  जी की कन्या थीं ।५५।

वस्तुत भागवत पुराण में वर्णित श्लोक हरिवंश पुराण के विरोधी है ।हरिवंश पुराण का कथन ही सही है कि सुभद्रा रोहिणी की पुत्री है ।

विशेष:- टिप्पणी:-हरिवंश पुराण में वर्णन है कि कृष्ण और उनकी पत्नी सत्यभामा  क्रोष्टा के वंश में उत्पन्न थे परन्तु पुराण की इस पहेली का हल करते हुए कहा कि क्षत्रियों के एक कुल होने पर भी सात पीढ़ीयाँ बीत जाने के बाद पुरोहित के गोत्र से यजमान क्षत्रिय का भी गोत्र बदल जाता है ;

और इस प्रकार गोत्र भेद से उनमें विवाह हो जाता है ;इसी क्रोष्टा के वंश में रुक्मिणी जी का जन्म हुआ । 

_____________________________________

आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।

आवर्ततां कार्मुकवेगवाता।हलायुधप्रग्रणा (मधूनाम्)। सेना तवार्थेषु नरेन्द्र यत्ता।ससादिपत्त्यश्वरथा सनागा।33।

अर्थ:- राजन् ! जिसके धनुष का वेग वायु-वेग के समान है वह सवारों सहित हाथी ,घोड़े रथ और पैदल सैनिकों से भरी हुई मथुरा-प्रान्त वासी नारायणी यादव गोपों की सेना सदा युद्ध के लिए तैयार हो आपकी अभीष्ट सिद्धि के लिए निरन्तर तत्पर रहती है !

 ( वनपर्व-3-185-33)(मुम्बई निर्णय सागर प्रेस में १८५वाँ अध्याय है )

गीताप्रेस की महाभारत प्रति में वनपर्व का मार्कण्डेय समस्या नामक उपपर्व का यह (१८३)वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (१४६३)-

                        -४२-

         ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान था।इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग पर्व में वर्णित है अर्जुन और यादव गोपों की शत्रुता  अर्जुन द्वारा सुभद्रा के अपहरण करने के कारण ही थी ।👇.

यादवों को गो पालक होंने से ही उनको गोप कहा गया है यही संसार मेें कृषि संस्कृति के जनक हुए गर्ग संहिता में वर्णन है कि

गर्गसंहिता-खण्डः(३) (गिरिराजखण्डः) अध्यायः (१)

 श्रीगर्गसंहितायां श्रीगिरिराजखण्डे श्रीनारद बहुलाश्व संवादे प्रथमोऽध्यायः

श्रीगिरिराजपूजाविधिवर्णनम्  नामक अध्याय में नारद बहुलाश्व से गोपों को ही कृषि उत्पादन करने वाला कहते हैं ।

                   श्रीनारद उवाच -
वार्षिकं हि करं राज्ञे यथा शक्राय वै तथा । बलिं ददुः प्रावृडन्ते गोपाः सर्वे कृषीवलाः।३॥

; भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर  स्पष्ट वर्णित है|ये आभीर या गोप यादवों की शाखा नन्द बाबा आदि के भी वृष्णि कुल से सम्बंधित कहा है 

👇 ______ 

नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः।वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः।६२।

●☆• नन्द आदि यदुवंशीयों की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ |62|

सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत|ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्रता:।63|| 

हे भरत के वंशज जनमेजय ! ये सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63||

 ( गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109).. ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है ।

भ्रातृपुत्रस्य पुत्राद्यास्ते पुनर्ज्ञातय: स्मृता । गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्य: परम बान्धव:।१५८।          

अर्थ •-भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८।                                                                                             (ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड)

अमरकोशः  ज्ञाति पुल्लिंग। सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3

समानोदर्यसोदर्यसगर्भ्यसहजाः समाः। सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः॥

(भागवत पुराण दशम स्कन्ध ४५वाँ अध्याय में वर्णन भी है ।)

यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्। ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम् ॥ २३ ॥

 ___________________       

                            -४३-

ये श्लोक माधवाचार्य की भागवत टीका पर आधारित हैं 👇शास्त्रों के मर्मज्ञ इतर विद्वानों ने जिसका भाष्य किया है " देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवु: महामता: ।अश्मिकासतप्रभाश्च गुणवत्य:राज्ञ्यो रूपाभि:।१।

अर्थ:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं । अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१।

अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।

अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२।

गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य:यशस्विना।३।

अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३

पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।           ये गोपालनं कर्तृभ्यः लोके गोपा उच्यन्ते ।४।

अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।                 

                        -४४-

          ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

गौपालनैर्गोपा: निर्भीकेभ्यश्च आभीरा। यादवा लोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्च ब्रुवन्ति ।५।।

•-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही लोगों में गोप और आभीर कहलाते हैं ५

आ समन्तात् भियं राति ददाति ।शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति ।६।

•-शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६

अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर: बभूव ।७।

अर्थ:- (वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है )उससे आर्य्य शब्द हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर से आवीर और उससे ही आभीर शब्द हुआ।।७।

ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति ।भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत ।

अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है।

देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।

                            -४५-

             ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇

अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम  पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८। 

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 

तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।चत्वारो जज्ञिरे पुत्र लोकपालोपमा: शुभा: ।४९

देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।

देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे।जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के ।

वसु वभ्रु: सुषेणश्च , सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।यदु प्रवीण: प्रख्याता  लोकपाला इवापरे ।।५०।

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सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए ।

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                            -४६-

            ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘

और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।

'देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।

नाभागो दिष्ट पुत्रोन्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।

भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ  इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल का था । 

उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇

श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:। वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।  

अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है।
परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है।  स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को
और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी              गोपालक ही था ।
निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
__________
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०।  में प्रस्तुत है वह वर्णन -

एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः। करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनः सदैव हि ।५२ ॥

अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये 
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं 
।।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥ ५३ ॥
अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।

कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥ अर्थ 
•-प्राचीन  समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।

द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै॥५५।

शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।        वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।अर्थ•(उसके पिता का नाम मधु  था ) वह वरदान पाकर   पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।

स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।        निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः५७।

सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥
अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।

कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।।    ____________________________________

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥
_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________                                                    वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥             

अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।      अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                        अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।

अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।

अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।

दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥

अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥

अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

_____________    

यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।

गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।

क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है।  पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं 

कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है;  ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के  रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।

परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में  प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये  ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया ! 

गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है।

जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।

भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे;  इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकरही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।

देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।

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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥

अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।

पुराणों का लेखन कार्य काव्यात्मक शैली में पद्य के रूप में हुआ एक स्थान पर श्लेष अलंकार के माध्यम से लेखक ने पर्जन्य ' देवमीढ और वर्षीयसी जैसे द्वि -अर्थक शब्दों को वर्षा कालिक अवयवों सूर्य ,मेघ ,और घनघोर वर्षा के साथ साथ यदुवंश के वृष्णि कुल के पात्र जो कृष्ण के पूर्वज भी हैं उनका भी वर्णन कर दिया है ...

यद्यपि महिला पात्र वर्षीयसी का वाचक शब्द का वर्षा से कोई अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध नहीं होता है ...

फिर भी यह वर्षा का ही वाचक है यहाँ पर्जन्य की पत्नी वरीयसी थीं ..

_________

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं(म्या उदमयं)वसु स्व गोभिर् मोक्तुम् आरेभे पर्जन्य: काल आगते |5||

तडीत्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिता:|प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचु: करुणा इव ||6||

तप:कृशा देवमीढा आसीद् बर्षीयसी मही |यथैव काम्यतपसस्तनु: सम्प्राप्य तत्फलम् ||7||

भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के बीसवें अध्याय के ये  क्रमश: 5 ,6,7, वें श्लोक द्वयर्थक  अर्थों से समन्वित हैं अर्थात् ये दोहरे अर्थों को समेटे हुए हैं 

पर्जन्य, देवमीढ के पुत्र और वर्षीयसी ( वरीयसी) उनकी पत्नी हैं पर्जन्य शब पृज् सम्पर्के धातु से पर्जन्य शब्द बना है 

मिलनसार और सहयोग की भावना रखने के कारण देवमीढ के पुत्र पर्जन्य नाम भी हुआ 

वरीयसी इनकी पत्नी का नाम था परन्तु ये परिवार और  प्रतिष्ठा में बड़ी तो थी हीं नामान्तरण से वर्षीयसी भी नाम है !

__________

अतिशयेन वृद्धः वृद्ध + इयसुन् वर्षादेशः । 

अतिवृद्धे अमरः स्त्रियां ङीप् ।वस्तुत: वर्षीयसी शब्द का वर्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है 

यह वृद्धतरा का वाचक है मह् पूजायाम् या महति प्रतिष्ठायाम् इति मही वा महिला !

श्लोकों का व्यक्ति मूलक अर्थ राजा पर्जन्य  भूमि वासी प्रजा से आठ महीने तक ही कर लेते हैं 

वसु  भी अपनी गायों को मुक्त कर देते हैं प्रजा के हित में समय आने पर प्रजा से कर भी बसूलते हैं।

और प्रजा को गलत दिशा में जाने पर ताडित भी करते हैं |5||

जैसे दयालु राजा जब देखते हैं कि भूमि की प्रजा बहुत पीडित हो रही है तो राजा अपने प्राणों को भी प्रजाहित में निसर्ग कर देता है 

जैसे बिजली गड़गड़ाहत और चमक से शोभित महामेघ प्रचण्ड हवाओं से प्रेरित स्वयं को तृषित प्राणीयों के लिए समर्पित कर देते हैं ||6||

तप से कृश शरीर वाले राजा देवमीढ के पुत्र पर्जन्य की वर्षीयसी नाम की पूजनीया रानी थीं उसी प्रकार जो कामना और तपस्या के शरीर से युक्त होकर तत्काल फल को पाप्त कर लेती थीं 

जैसे देव =बादल   मीढ= जल  देवमीढ -बादलों का जल 

ज्येष्ठ -आषाढ  में ताप षे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी कृश हो गये 

अब देवमीढ के द्वारा वह फिर से हरी फरी होगयी है ।

जैसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है 

परन्तु जब इच्छित फल मिल जाता है ; तो वह हृष्ट-पुष्ट हो जाता है |

और सत्य भी है कि  "सुन्दरता से काव्य का जन्म हुआ 

वस्तुत यह एक आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है जिसकी भी हम्हें जितनी जरूरत है ; 'वह वस्तु हमारे लिए उसी अनुपात में ख़ूबसूरत है।

परन्तु ये जरूरतें कभी भी पूर्णत: समाप्त नहीं होती हैं ।

जो भाव हमारे व्यक्तित्व में नहीं होता हम उसकी ही तो इच्छा करते हैं ; वही तो हमारे लिए ख़ूबसूरत है ।

इसी सौन्दर्य प्रेरणा ने ही काव्य की सृष्टि की । जैसे कि अपना  उद्गार प्रकट हुआ

श्लिष्ट अर्थ में  👇_______

अर्थ-
(नन्दगोपकुल भी यदुकुल ही है वैसे ही सभी वेदों पुराणों आदि में यदुकुल की प्रशंसा है।
यदुकुल शिरोमणि (अवतंस) श्रीदेवमीढ जो मधुरा नगरी के मध्य  रहते थे  । उनकी दो पत्नीयाँ थीं।
 _____________________________
"प्रथमा द्वितीयावर्णा द्वितीया तृतीयावर्णेति तयोश्च पुत्रद्वयं प्रथमम् बभूव शूर: पर्जन्य इति च। तत्र शूरस्य वसुदेवादय: अत एवोक्तं श्रीमुनिना " वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" इति श्री पर्जन्यस्तु मातृवद्वर्णसंकर"– इति न्यायेन प्रायेण हि जना: सर्वे यान्ति मातामहीम् तनुम्" इति न्यायेन वैश्यतामेवाविश्य गोवृत्तिपूर्वकं वृहद्वनं एवासांचकार ।"

अर्थ –
वृष्णि कुलशिरोमणि देवमीढ की पहली पत्नी दूसरे वर्ण की अर्थात क्षत्रियवर्णा , और दूसरी पत्नी तीसरे वर्ण की अर्थात्‌ वैश्यवर्णा थीं। देवमीढ के दो पुत्र थे; पहली पत्नी से शूर और दूसरी से पर्जन्य । वहाँ शूर के वसुदेव आदि पुत्र हुए । इसी लिए मुनि(गर्गाचार्य) द्वारा भागवत में कहा गया  " वसुदेव यह सुनकर की भाई नन्द आये हुए हैं"।
:– (अत एवोक्तं श्रीमुनिना " वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" )
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इस प्रकार पर्जन्य मातामही (दादी) के वर्ण को  प्राप्त हैं ; और ब्राह्मण स्मृति ग्रन्थों के– न्याय के द्वारा वे वर्णसंकर हुए। और सभी भाई  इस प्रकार  मातामही( दादी) के शरीर को प्राप्त होने से इस  न्याय से गोवृत्ति पालन से भी वे वैश्यवर्ण के को प्राप्त होकर  "वृहदवनं"(महावनम्/ गोकुलम्) में  ही स्थापित हुए ।
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(स च बाल्यादेव ब्राह्मणदर्शै पूजयति। मनोरथ पूरं देयानि वर्षति । वैष्णववेदं स्नह्यति । यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वैशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशामवतंसतया परमशंसनीय एवमेव च गोपवशोपीति पाद्येसृष्टिखण्डे स्पष्टीकृत:। स च श्रीमान्पर्जन्यो वैश्यांतर साधारण्यं निजैश्वर्येणातीयाय । यस्य भार्या नाम्ना वरीयस्यासीत् यस्य च श्री उपनन्दादय: पञ्चात्मजा जगदेवनन्ददयामासु: तथा च वन्दिन उपमान्ति स्म" उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:। इति तस्य पुत्र सम्पत्तिस्तु परमरमणीयतामवाप मध्यमसुत सम्पत्तिस्तु सुतराम्। तदेव (सुमुखनाम्ना)  केनचिद् गोपमुख्येन श्रीपर्जन्यमध्यंसुताय श्रीनन्दाय परमधन्या कन्या दत्ता।  )
 
"अर्थ"-
और वह बालकपन से ही ब्राह्मणों का दर्शन और  सम्मान करते थे । और सभी याचकों का मनोरथ भी पूरा करते थे। 
ये वैष्णव जनों और वेदों का भी सम्मान करते थे। और जीवन पर्यन्त हरि की अर्चना करते थे। और माता के पक्ष का व्यवसाय ( गोपालन )करने से उनकी ख्याति सभी दिशाओं में हो गयी । 

गोप वेश( व्यवसाय) में वे प्रसिद्ध हो गये ।
पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में भी उनके इस व्यवसाय की पुष्टि की गयी है। 

कि इनकी पत्नी भी वैश्य वर्ण की थी; जिनका नाम "वरीयसी" था।

और वरीयसी में उत्पन्न इनके नन्द आदि पाँच पुत्र थे। 
मध्यम पुत्र इनको अधिक प्रिय था ; और सभी की सहमति से उनका विवाह "सुमुख नामके किसी मुख्य गोप की पुत्री यशोदा से हुआ था; जो परम धन्या और सुन्दर कन्या थी।
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"या खलु स्वगुणवशीकृत स्वजना यशांसि ददाति श्रण्वद्भय:  पश्यद्भय: किमुततराम् भक्तिमद्भय:
।ततश्च तयोर्दोपत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत् किमुत् पित्रादीनाम् तदेवमानन्दितसर्वजन: पर्जन्यस्वमपि सुखमनुभूय श्रीगोविन्दपदारविन्दभजनमात्रान्वितां देहयात्रामभीष्टां मन्यमान: सर्वज्यायसे सुताय स्वकुलतिलकतां दातुं ।श्रीवसुदेवादिनरदेव गर्गादिभूदेवकृत प्रभायां सभायां स्वजनाहूतवान्।

स च ज्यायांस्तत्र सदसि मध्यं निजानुजं नन्दनामानं पितुराज्ञया कृतकृत्य: सन् गोकुलराजतया  सभाजयामास अत्र संकुचिते तत्रानुजे सविस्मये सर्वजने पितरिक्षेत्रमानलोचने स च चोवास स्नेहसद्गुणपराधीनेनाचरितमिति राजायमास्माकम्। ततो देवेैस्तदोपरि पुष्पवृष्टिकारि सदस्यैश्च ततोऽसौ पर्जन्य: श्रीगोविन्दमाराधियतुं सभार्यो वृन्दावनं प्रविवेश ।

"अर्थ"-
" जो निश्चय ही अपने गुणों  से स्वजनों को वश में करने वाली, और यश देने वाली थीं। 
सुनने वालों के द्वारा और देखने वालों के द्वारा और भक्ति करने वालों के द्वारा उसके क्या कहने ! दूसरे शब्दों देखने सुनने वालों के द्वारा  यशोदा की नाम और गुण के आधार सार्थकता सिद्ध हेतु इन लोगों द्वारा प्रशंसा की गयी ।

जब यशोदा का आगमन पर्जन्य के घर पुत्रवधू के रूप में हुआ; तो पर्जन्य की सभी सन्तानों (अपत्यों) में ही सुख सम्पदा वृद्धि हुई थी। (और एक पिता के लिए इससे बढ़़कर  उपलब्धि थी अर्थात् यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

यशोदा नन्द के घर आने पर सब लोग आनन्दित थे।
और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके  प्रभु के चरण-कमलों में ध्यान लगाने वाले हो गये 

और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढ़ाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को सभा में आमन्त्रित किया ।
उस  सभा में उपनन्द के द्वारा मझले  अर्थात अपने से छोटे भाई जिनका नन्द नाम था ; उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति  सभा में ही नियुक्त कर दिया। 

तब संकोच करते हुए नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये। अर्थात राज पद करते समय नन्द थोड़ा संकोच करने लगे )

स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं ; यह कहते हुए तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की ।
और उसके बाद  पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए उस सभा को सम्पन्न कर; वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
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(अध्याय एक दशम स्कन्ध पूर्वार्द्धे " श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४)
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"
तत्काले शास्त्रसारं पृच्छत: पुत्रानुपदिदेश ।तथाहि–किं भयमूलमदृष्टं किं शरणं श्रीहरेर्भक्त: किं प्रार्थे तद्भक्ति: किं सौख्यं तत्परप्रेम। इति " श्रीमानुपनन्द: श्रीनन्दमहेन्द्रसदसि मन्त्रितया तस्थिवान् । तस्य च नन्दराजस्य श्रीगोलोकेशश्श्रीकृष्णो द्वादशीव्रतचर्यातुष्ट: पुत्रतामत्रापेति । इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति।)
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"अर्थ"- उस काल में ही  शास्त्रों के सार का    पर्जन्य ने अपने सभी  पुत्रों को उपदेश दिया ।
जीवन में भय का मूल  कौनसा अदृश्य तत्व है;  हरि के भक्त किसकी प्रार्थना अथवा भक्ति करे  कि उनका संसार भय से निवारण हो- है । और सुखी होने के लिए किस प्रकार प्रेम भाव की तत्परता है हो । आदि आध्यात्मिक और भक्ति मूलक सिद्धान्तों की पर्जन्य जी द्वारा व्याख्या  की गयी।

इस प्रकार का पर्जन्य के द्वारा उपदेश - काल में श्रीमान उपनन्द और "श्रीमान नन्द आदि सभी व्रज मण्डल की सभा में मन्त्रियों के साथ खड़े हुए थे । 
और उस नन्द के राज्य में गोलोक के स्वामी अर्थात श्रीकृष्ण के मूलरूप विष्णु ने पर्जन्य के द्वादशी व्रत की चर्या (साधना) से प्रसन्न होकर पर्जन्य को पुत्ररत्न के रूप में इन उपनन्द' नन्द आदि पुत्रों को प्राप्त कराया। 
इस प्रकार यह नन्द का सम्पूर्ण परिवार ( समुदाय/ कुल ) वास्तव में यदुवंश का ही रूप है।
दूसरे शब्दों नन्द का कुल यदुवश से सम्बन्धित  था ।
इत्थं नन्दगोपकुलं यदुकुलमिति।)।
संक्षेप में नन्द गोप कृष्ण को रक्तसम्बन्धी थे। अथवा सनाभि थे -एक ही पूर्वज से उत्पन्न पुरुष। सपिंड पुरुष
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(श्रीमद्भागवत पर आधारित वंशीधरी टीका दशम् स्कन्द पूर्वार्द्ध प्रथम अध्याय- पृष्ठ  संख्या -१६२५)
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अग्रलिखित सन्दर्भों में हम  चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य " श्री गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन  प्रस्तुत करेंगे ।

यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-_________________________________________

                     (अथ कथारम्भ:) 

" यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य  वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ।

 तस्य चार्याणां  शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति ।

तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं  पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । 

तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । 

स चार्य  बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं 

व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।

अर्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; 

उन्हीं  क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो पत्नीयाँ  थीं , पहली  (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की,  दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ;

उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो  (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे ।

और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; 

जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था।  

विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।

तथा च मनुस्मृति:-(१०/१५)-ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतोनाम जायते।आभीरोऽ म्बष्ठकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण:।। इति।। अम्बष्ठस्तु विश: पुत्र्यां ब्राह्ममणाज्जात उच्यते। इति चान्यत्र । अत: पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश:श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-आभीर द्विज वंश: इति।।२४।।

अर्थ•-इस विषय में मनुस्मृति  भी कहती है। यथा (10/15) कि क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न  कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अम्बष्ठा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं ।

उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ  होता है ।

 अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। 

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ में स्वयं हरि भगवान विष्णु ने अहीरों के कुल में अवतरण होने का वरदान दिया जिसका ब्रह्मा जी ने भी समर्थन किया।


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गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्  दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

अनुवाद-

आये हुए सभी गोपों ने ब्रह्मा के समीप गायत्री को देखकर उस मेखलाबँधी हुई यज्ञ के समीप में 

"हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

अनुवाद-

हाय पुत्री इस प्रकार तब माता- पिता बहिन- बन्धु और उसकी सभी सखीयों ने कहा हाय सखी 

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

अनुवाद-

हे सखी तुम यहाँ किस के द्वारा लायी गयी हो और महावर ( लाक्षा) के द्वारा अंकित सुन्दर साड़ी से सजा दी गयी हो और तुम्हारी कम्बली को किसके द्वारा हटा दिया गया है ।

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केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

अनुवाद-

किस के द्वारा तुम्हारी यह चोटी लाल धागे में बाँधी गयी है; इस प्रकार के उन आये हुए अहीरों के  विधान वाक्यों को सुनकर स्वयं हरि भगवान विष्णु बोले-


              (स्वयं हरिर् उवाच)

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।

अनुवाद-

स्वयं भगवान विष्णु ने कहा ! यहाँ यह कन्या हमारे द्वारा लायी गयी है  ! ब्रह्मा की पत्नी बनाने के लिए , यह बाला अब ब्रह्मा पर आश्रिता है इसलिए यहाँ अब तुम सब कोई प्रलाप ( दुःखपूर्ण रुदन) मत करो ।११।

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पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनन्दिनी पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

अनुवाद-

यह कन्या पुण्यों वाली ,सौभाग्य वती और सब प्रकार से कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुणे वाली न होती तो यह कैसे इस ब्रह्मा की सभा में आती ।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

अनुवाद-

इस प्रकार जानकर महाभाग ! तुम सब शोक करने के योग्य नहीं हो  यह कन्या महाभाग्यवती है इसने देव ब्रह्मा को पति रूप में प्राप्त किया है ।१३।

"योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।

अनुवाद-

हे आभीरों ! इस कन्या ने वह गति प्राप्त की है ; जिसे ,योग में लगे हुए योगी, वेदों के पारंगत ब्राह्मण भी प्रार्थना करते हुए प्राप्त नहीं करते हैं ।

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धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम् मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चयेे।१५।

अनुवाद-

धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल इस कन्या और आप सबको  जानकर ही मैने  ब्रह्मा को पत्नी रूप में  इस कन्या का दान किया है ।१५।

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इसी क्रम में विष्णु का गोपों को'  उनके यदु के वृष्णि कुल में अवतार लेने  का वचन देना-

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अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अनुवाद –

इस कन्या के द्वारा स्वर्ग को गये हुए महोदयगण तार दिए गये हैं ‌। (युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये)= और तुम्हारे कुल में भी देव कार्य की सिद्धि के लिए (अवतारं करिष्येहं)=मैं अवतरण करुँगा। 

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-अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद –

मैं अवतरण करुँगा वह लीला भविष्य में होगी जब नन्द आदि भी पृथ्वी पर अवतरण करेंगे।१७।

-करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।

अनुवाद-

आप लोगों के मध्य में रहकर मैं अनेक लीला करूँगा  और तुम्हारी कन्याऐं सभी मेरे साथ निवास करेंगीं ।१८।



_

"सात्वतीयटीका-

तेन-=उस कृष्ण रूप के द्वारा अकृत्येऽपि- =( विना कुछ करते हुए भी) अर्थात न करने पर भी  रक्तास्ते-=तेरे रक्त( जाति)वाले गोपा=-  गोपगण.यास्यंति श्लाघ्यताम् =-प्रशंसा को प्राप्त करेंगे  सर्वेषामेव लोकानां =-समस्त लोकों में, देवानां च विशेषतः- = विशेषकर देवताओं में भी  ।।१४।


यत्रयत्र च वत्स्यंति मद्वंशप्रभवा नराः ॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति।१५॥
और जहाँ जहाँ भी मेरे गोप वंश में मनुष्य निवास करेंगे वहाँ वहाँ लक्ष्मी का निवास होगा भले ही वह  स्ज गल क्यों ही नहों।१५। 

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-तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

अनुवाद-

वहाँ कोई दोष  नहीं होगा और ना ही द्वेष और ईर्ष्या कोई करेगें  वहाँ गोप मनुष्य भी कोई भय नहीं करेंगे-।१९।




-न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित् श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।

अनुवाद-

और न इसमें कर्म के द्वारा  कोई दोष होगा !  तब विष्णु का वचन सुनकर और  विष्णु भगवान को प्रणाम करके सभी आभीर( गोप) चले गये।२०।

-एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे      अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।

अनुवाद-

इस प्रकार यह वरदान जो दिया है वह निश्चय ही मेरा वरदान होगा। हे प्रभु ! आप  हमारे कुल में धर्म को साधने के लिए अवतरण करने योग्य ही है ।२१।

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-भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः  शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

अनुवाद-

हे प्रभु ! आपके दर्शन से ही  हम सब लोग । स्वर्ग केेेे निवासी हुए हैं ; और शुभ ही शुुभ देेेेने वाली ये कन्या , साथ ही हम अहीरों के कुल (वंश) का भी तारण करने वाली हुई।२२।

-एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव    अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

अनुवाद- देवों के ईश्वर विभो ! तुम्हारा वरदान ऐसा ही हो ! (अनुनीता:- कृतानुनये यस्य सान्त्वनार्थं विनयादिकं क्रियते तस्मिन् अनुनीता:) अर्थात् गोपों को सान्त्वना देते हुए विनययुक्त स्वयं देव विष्णु के द्वारा इसका अनुमोदन किया गया।२३।

अनुनीत-विनयपूर्वक सत्कार जिनका किया गया वे गोप।

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-ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्।त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

अनुवाद-

ब्रह्मा जी के द्वारा भी ऐसा ऐसा ही हो ! अपने बायें हाथ के द्वारा सूचित करते हुए कहा ; वह उत्तम कन्या अपने बान्धवों को देखने पर लज्जा युक्त होगयी।२४।

इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा-आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।

यद्यपि न तो अम्बष्ठ ही वैश्य होते हैं और न ही अभी रोम की उत्पत्ति ब्राह्मण और अम्बष्ठा पुरुष और स्त्री से ही हुई है । ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ जो वेदों की अधिष्ठात्री देवता है । जिसे पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में गोप आभीर और और यदुवंश समुद्भवा कहा गया है । फिर तो यहाँ गोपालचम्पू की बातें अधूरी और असंगत ही हैं।

अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते ( १०/८/१०) कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भा०१०/२४/२०-२१)वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते। वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।। इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति  ।२५।।

अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य !  का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी  द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि ,वाणिज्य ,गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री शुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है !

इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।  

संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।

अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।।               अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई !  मधुकण्ठ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।

मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च  श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।। 

अर्थ• मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।

अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी  अधिक नाना(मातामह)  के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी  उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे।

उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से  हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या  स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।

अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)

अन्यस्तु  जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु।सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।

पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत: ।।२८।।

अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि  पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर  भूतल पर देखा जाता है ।

किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।

(उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: ।यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।।

अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि  पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। 

उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३० ।।

अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।

मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।

अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ?  तदनंतर  उन दोनों के सुयोग्य  दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की  सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णन कर सकता है ? ।।३६ ।

तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।

अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए  सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ

उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 

" स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।

अर्थ•-पश्चात  उन श्री उप नन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक 

अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।

(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 

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तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।

अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 

तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 

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योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।  

अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है । दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।

तात्पर्य- ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।

गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।

अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।

व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा 

गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।।

अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे  अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है।         

अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७।

(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय)   

अम् +क्विप् =अम्रोग:- ब=वरुणनाम्नाचिकिसतसया देव:+ स्थ = तिष्ठन्ति । अम: निदानानय बं वरुणं ध्याने तिष्ठन्ति योऽम्बष्ठ: कथ्यते।

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अम्बष्ठ] [स्त्री० अम्बष्ठा] १. एक देश का नाम पंजाब के मध्य भाग का पुराना नाम था अंबष्ठ देश में बसनेवाला मनुष्य। ३. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न एक जाति। इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे। ४. महावत। हाथीवान। फीलवान। हस्तिपक। ५. कायस्थों का एक भेद।

अम्बष्ठ गण (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व) चिनाब और सिन्धु नदी के आस-पास रहते थे। इनका निवास विशेष रूप से भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र था। सिकंदर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया, तब अम्बष्ठ गण अपना क़बाइली जीवन सुचारु रूप से जी रहे थे। इनका, चिनाब और सिन्धु के उत्तरी हिस्से में रहने का उल्लेख सिकंदर के आक्रमण के समय का ही मिलता है। यह वह स्थान था, जो इन नदियों के संगम स्थल से उत्तर में पड़ता था।

इनका उल्लेख 'अम्बष्ठनोई' भी मिलता है किन्तु यह नाम यूनानी इतिहासकारों का दिया हुआ है। यूनानियों द्वारा संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ को ज्यों का त्यों लिख-बोल न पाने के कारण यह नाम बदल गया। संस्कृत भाषा के जिन ग्रंथों में इनका उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुख हैं-"ऐतरेय ब्राह्मण"महाभारत"बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र आदि ।

'बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र' (टॉमस, पृ. २१) में अंबष्ठों के राष्ट्र का वर्णन कश्मीर, हूण देश और सिन्ध के साथ है।

अलक्षेन्द्र के आक्रमण के समय अंबष्ठनिवासियों के पास शक्तिशाली सेना थी। टॉलमी ने इनको अंबुटाई कहा है।

सिकन्दर के इतिहास से सम्बन्धित कतिपय ग्रीक और रोमन लेखकों की रचनाओं में भी अंबष्ठ जाति का वर्णन हुआ है। दिओदोरस, कुर्तियस, जुस्तिन तथा तालेमी ने विभिन्न उच्चारणों के साथ इस शब्द का प्रयोग किया है। प्रारम्भ में अंबष्ठ जाति युद्धोपजीवी थी। सिकन्दर के समय (३२७ ई. पू.) उसका एक गणतन्त्र था और वह चिनाब के दक्षिणी तट पर निवास करती थी। आगे चलकर अंबष्ठों ने सम्भवत चिकित्साशास्त्र को अपना लिया, जिसका परिज्ञान हमें 'मनुस्मृति' से होता है।

महाभारत में अम्बष्ठों का वर्णन-

पृष्ठे कलिङ्गा:साम्बष्ठा मागधा: पौण्ड्रमद्रास: ।             गान्धारा:शकुना:प्राच्या: पर्वतीयावसातय:।         

   अर्थ •-पृष्ठभाग में कलिंग ,अम्बष्ठ ,मगध, पौण्ड्र, मद्रास गन्धारा: शकुन वीर तथा पूर्वदेश के और वसाति  आदि देशों के वीर थे।।१०-१/२।।

                 (द्रोण पर्व बीसवाँ अध्याय)

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वशातय: शाल्वका: केकयाश्च.                       तथाम्बष्ठा ये त्रिगर्ताश्च मुख्या:।।२३।। 

प्राच्योदीच्या दाक्षिणात्याश्च शूरास्तथा             प्रतीच्या:  पर्वतीयाश्च  सर्वे।                     अनुशंसा: शीलवृत्तोपपन्नास्तेषां                     सर्वेषां कुशलं सूत पृच्छे:।।२४।      

 (महाभारत उद्योगपर्व तीसवाँ अध्याय-३०).  

 अर्थ•- दुर्योधन ने हम पाण्डवों के साथ युद्ध करने के लिए  जिन जिन राजाओं को बुलाया है वे ,वशाति, शाल्व ,केकय ,अम्बष्ठ, यौद्धा  तथा त्रिगर्तदेश के ये प्रधान वीर ही हैं पूर्व,  उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशा के शौर्य सम्पन्न योद्धा तथा समस्त पर्वतीय राजा वहाँ उपस्थित हैं वे लोग दयालु और शील तथा सदाचार से सम्पन्न हैं। संजय ! तुम मेरी ओर से उन सबका कुशल-मंगल पूछना।।२३-२४।      

विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराटं मत्स्यमार्च्छताम्।
सहसैन्यौ सहानीकं यथेन्द्राग्नी पुरा बलिम।5-25-20।
  
अर्थ•- अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द ने अपनी सेनाओं को साथलेकर विशाल वाहिनी सहितमत्स्यराज विराटपर उसी प्रकार आक्रमण किया।जैसे पूूूूव काल में अग्नि और इन्द्र ने बलि पर किया था 

तदुत्पिञ्जलकं युद्धमासीद्देवासुरोपमम्।
मत्स्यानां केकयैः सार्धमभीताश्वरथद्विपम्।।5-25-21।
  
अर्थ •-उस समय मत्स्यदेशीय सैनिकोंं य कैकयीदेशीय यौद्धाओं के साथ देवासुर संग्राम के समान अत्यन्त घमासान युद्ध हुआ उसमें सभी निर्भीक होकर हाथी ,घोड़े रथसे युक्त एक दूसरे से लड़रहे थे।
श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि
द्वादशदिवसयुद्धे पञ्चविंशोऽध्यायः||25||
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आगे द्रोण पर्व में आभीर शूरमाओं का वर्णन है जो शूरसेन देश से सम्बंधित थे ।   

भूतशर्मा क्षेमशर्मा करकाक्षश्च वीर्यवान्। कलिङ्गाः  सिंहलाः प्राच्याः शूराभीरा दशेरकाः।।६।   

शका यवनकाम्भोजास्तथा हंसपथाश्च ये।         ग्रीवायां शूरसेनाश्च दरन्दा मद्रकेकयाः।७।गजाश्वरथपत्त्योघास्तस्थुः परमदंशिताः।।                    (द्रोणपर्व बीसंवाँ अध्याय)

विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६-१७ पर  भी शूर आभीरों का वर्णन है यहाँ शूराभीरों तथा अम्बष्ठों का साथ साथ वर्णन है । यहाँ पारिपात्र निवासी वीरों का भी वर्णन है।

तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्ब्बुदाः ।
कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः।16।
सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः ।
मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।। 17 ।।
आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा हृष्टपुष्टजनाकुलाः ।18।

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महाभारत के सभापर्व के (३१)वें अध्याय में मत्स्य ( मीना) क्षत्रियों का वर्णन भी हुआ है ।

सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम् ।          तथैवापर मत्स्यांश्च व्यजयत् स पटच्चरान् ।४।  अर्थ•- इसके बाद राजा सुकुमार और सुमित्र को (सहदेव) ने वश में किया। इसी प्रकार मत्स्य हों और पटच्चरों पर भी विजय प्राप्त की।४।

दशार्णान्स जित्वा च प्रतस्थे पाण्डुनन्दनः।शिबींस्त्रिगर्तानम्बष्ठान्मालवान्पञ्च कर्पटान्।2-35-7। 

अर्थ •- तत्पश्चात दशार्ण देशों पर विजय प्राप्त करके पाण्डुनन्दन नकुल ने शिबि ,त्रिगर्त, अम्बष्ठ मालव,पञ्चकर्पट ,एवं माध्यमिक देशों को प्रस्थान किया और उन सबको जीतकर वाटधानदेशके क्षत्रियों को भी हराया ।७-१/२(महाभारत सभापर्व)

गीताप्रेस के संस्करण में( ३२)वाँ अध्याय का सप्तम श्लोक 

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शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम्।    वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः। 2-35-10

अर्थ•-समुद्र के किनारे पर रहने वाले महाबली ग्रामीण  सरस्वती नदी के तट पर रहने वाले शूर -आभीर गण मत्यस्यगण (मीणा) के पास रहने वाले और पर्वतवासी इन सबको नकुल ने वश में कर लिया ।९-१०।                  ____________________________________

त्रीणि सादिसहस्राणि दुर्योधनपुरोगमाः।
शककाम्भोजबालह्लीका यवनाःपारदास्तथा।।१३।

कुलिन्दास्तङ्कण अम्बष्ठाः पैशाचाश्च सबर्बराः।
पार्वतीयाश्च राजेन्द्र क्रुद्धाः पाषाणपाणयः।१४।
अभ्यद्रवन्त शैनेयं शलभाः पावकं यथा।।

(द्रोणपर्व का  १२१वाँ अध्याय)

अम्बष्ठ गण (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व) चिनाब और सिन्धु नदी के आस-पास रहते थे।

इनका निवास विशेष रूप से भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र था। सिकन्दर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया, तब अम्बष्ठ गण अपना क़बाइली जीवन सुचारु रूप से जी रहे थे। इनका, चिनाब और सिन्धु के उत्तरी हिस्से में रहने का उल्लेख सिकन्दर के आक्रमण के समय का ही मिलता है। यह वह स्थान था, जो इन नदियों के संगम स्थल से उत्तर में पड़ता था।

इनका उल्लेख 'अम्बष्ठनोई' भी मिलता है किन्तु यह नाम यूनानी इतिहासकारों का दिया हुआ है।

यूनानियों द्वारा संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ को ज्यों का त्यों लिख-बोल न पाने के कारण यह नाम बदल गया। संस्कृत भाषा के जिन ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुख हैं-                                                 ______________________________

ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत और बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र।

अम्बष्ठ गण प्रारम्भिक समय में अपनी जीविका के लिए युद्धों पर निर्भर थे। इसलिए इन्हें एक युद्ध-प्रिय जाति माना गया है । कालान्तर में इन्होंने धार्मिक अनुष्ठानों को अपनाया। धीरे-धीरे खेती को अपना कर इन्होंने स्वयम् को कृषक जाति के रूप में भी पारंगत कर लिया। वैद्यों के उल्लेख भी अम्बष्ठों के पाए जाते हैं। अम्बष्ठों ने जिस प्रकार समय-समय पर अपनी जीवन शैली को बदला वह बहुत विचित्र लगता है।

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अंबष्ठ- संज्ञा पुं॰ [सं॰ अम्बष्ठ] [स्त्री॰ अम्बष्ठा] 

१. एक देश का नाम। पंजाब के मध्य भाग का पुराना नाम। २. अंबष्ठ देश में बसनेवाला मनुष्य।  ३. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न एक जाति। इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे।४. महावत। हाथीवान। पीलवान। हस्तिपक। ५. कायस्थों का एक भेद।

                             -४७-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

लेखक का मत है कि देवमीढ़ की दो पत्नियाँ विशेष थीं एक चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती और दूसरी अशमक की पुत्री अश्मिका और गुणवती के पर्जन्य आदि तीन पुत्र हुए ।

महाभारत अनुशासन पर्व में वर्णन है कि।👇

तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते।हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति: ।।७।।

अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का ही होता है ।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।

(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या( ५६२४) गीता प्रेस का संस्करण)

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अब प्रश्न यह भी उठता है  !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं ।

कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --

कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह  वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -

भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते ।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।।
(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)

कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल  ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान  होंगी  वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि 
"तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद्  द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति: ।।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है ।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले  शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण) ____________________________________

प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये । द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा 

तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।

देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।

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देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम्  तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो:।।तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।।

नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।

उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं । उपनन्द बडे़ थे ।

                             -४८-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

__________________________________     माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमोथ गोप इति प्राहु:।५७।

एवमन्येपि गोपा यादवविशेष: एव वैश्योद् भवत्वात् अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)

अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वंशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।

_________________

 वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।

हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है ।पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-

भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१।

शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं).    _______________

(विष्णु पुराण पञ्चमाँश २४वाँ अध्याय)

आनीय चोग्रसेनाय द्रारवत्यां न्यवेदयत् ।
पराभिभवनिः शङ्क बभूव च यदोः कुलम् ।।५-२४-७ ।।

बलदेवोऽपि मैत्रेय! प्रशान्ताखिलविग्रह- ।
ज्ञातिसन्दर्शनोतूकण्ठः प्रययौ नन्दगौकुलम् । ५-२४-८ ।।

ततो गोपीश्व गोपांश्व यथापूर्व्वममित्रजित् ।
तथैवाभ्यवदत् प्रेमूणा बहुमानपुरःसरम् ।। ५-२४-९ ।।

                             -४९-

            ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇

यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । इति मेदिनी कोष:)

परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।

और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।

जैसे - अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।

आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 

आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍

महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 



   < 



                     सूत उवाच
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥१॥

सूत जी बोले – हे मुनियों  पुराणवेत्ता वाणीविशारद सत्यवतीपुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित्- पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन बोले ।।१=१/२।।

उवाच संशयच्छेत्तृ वाक्यं वाक्यविशारदः ।
                     व्यास उवाच !
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः ॥२॥

दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा।
यदा समुत्थितं चैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम् ॥३॥

कर्मणैव समुत्पत्तिः सर्वेषां नात्र संशयः ।
अनादिनिधना जीवाः कर्मबीजसमुद्‌भवाः ॥ ४॥

नानायोनिषु जायन्ते म्रियन्ते च पुनः पुनः ।
कर्मणा रहितो देहसंयोगो न कदाचन ॥ ५ ॥

व्यास जी बोले- हे राजन इस विषय में क्या कहा जाय ! कर्मों की बड़ी गहन गति होती है। कर्मों की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं । तो मानवों की तो बात ही क्या! जब इस त्रि गुणात्मक ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती चली आ रही है ।।
विशेष-★
( एक बार सबको एक  समान स्थिति बिन्दु से गुजरना होता है - इस के पश्चात जो अपनी स्वाभिकता रूपी प्रवृत्तियों दमन कर संयम से आचरण करता उसको सद्गति और दुराचरण करता है उसको दुर्गति मिलती है।)  इस विषय में कोई सन्देह नहीं है।  आदि-(प्रारम्भ) और अन्त से रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्म रूपी बीज से संसार में जनमते- मरते हैं । वे प्राणी अनेक प्रकार की योनियों( शरीरों) में बार+बार पैंदा होते  और मरते हैं । कर्म से रहित जीव या देह संयोग कभी भी सम्भव नहीं है।।२-५।।


शुभाशुभैस्तथा मिश्रैः कर्मभिर्वेष्टितं त्विदम् ।
त्रिविधानि हि तान्याहुर्बुधास्तत्त्वविदश्च ये ॥ ६ ॥

सञ्चितानि भविष्यन्ति प्रारब्धानि तथा पुनः।
वर्तमानानि देहेऽस्मिंस्त्रैविध्यं कर्मणां किल ॥ ७॥

शुभ अशुभ और मिश्र - इन  कर्मों से यह संसार सदैव व्याप्त रहता है। तत्वों के ज्ञाता जो विद्वान हैं उन्होंने संचित प्रारब्ध और क्रियमाण( वर्तमान में किए गये कर्म) ये तीन प्रकार के कर्म हैं। इन कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है।६-७।।


ब्रह्मादीनां च सर्वेषां तद्वशत्वं नराधिप ।
सुखं दुःखं जरामृत्युहर्षशोकादयस्तथा ॥ ८ ॥

कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥

हे राजन् ! –ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशवती होते हैं । सुख-दु:ख और वृद्धावस्था मृत्यु हर्ष शोक काम( स्त्री मिलन की कामना) क्रोध लोभ आदि ये सभी शारीरिक गुण हैं। हे राजन् ! ये भाग्य के अधीन होकर सभी प्राणीयों को प्राप्त होते हैं ।८-९।।

रागद्वेषादयो भावाः स्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्च तिरश्चां च तथा पुनः ॥१०॥

विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः ॥ ११॥

उत्पत्तिः सर्वजन्तूनां विना कर्म न विद्यते।
कर्मणा भ्रमते सूर्यः शशाङ्कः क्षयरोगवान्॥१२॥

राग-द्वेष भाव स्वर्ग में भी होते हैं । 
और इस प्रकार के भाव देवों मनुष्यों और पशु- पक्षीयों में भी विद्यमान रहते हैं ।१०।


पूर्वजन्म में किए गये वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार सदा ही शरीर के साथ लगे रहते हैं ।११।

सभी जीवों की उत्पत्ति कर्म के विना तो हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है।( विदित हो कि सूर्य भी आकाश गंगा का परिक्रमण करता है) चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है। १२।।

कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः ।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥१३॥

तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयः सदा ॥१४॥

न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च ।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते ॥१५॥

कार्याभावः कथं वाच्यः कारणे सति सर्वथा।
माया नित्या कारणञ्च सर्वेषां सर्वदा किल ॥१६॥

कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम् ॥१७॥

एकोहं बहुस्याम: तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत । तस्माद्यत्र क्वच शोचति स्वेदते वा पुरुषस्तेजस एव तदध्यापो जायन्ते ॥
( ६.२.३ ॥छान्दोग्योपनिषद्-)

मैं एक अनेक रूप में हो जाऊँ  उस एक परब्रह्म ने यह संकल्प किया-। 
इस पृथक करण काल अपने अस्तित्व का बोध अहंकार के रूप में उसे हुआ -( अहंकार से संकल्प उत्पन्न हुआ और  इस संकल्प से इच्छा उत्पन्न हुई और यह इच्छा ही कर्म की जननी है।) संसार में सकाम( इच्छा समन्वित कर्म ही ) फल दायक होता है। 
अपने कर्मो के प्रभाव से ही रूद्र को नरमुण्डों की माला धारण करनी पड़ती है। इसमें कोई सन्देह नहीं !! आदि अन्त रहित वह कर्म ही जगत की उत्पत्ति का कारण है।१३।।

स्थावर( अचल) और जंगम( चलायवान्) यह सम्पूर्ण शाश्वत जगत् उसी कर्म के प्रभाव में नियन्त्रित है। सभी मुनिगण इस कर्म मय जगत कि नित्यता और अनित्यता के विचार में सदैव डूबे रहते हैं ।।
फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत नित्य है अथवा अनित्य। जब तक माया ( अज्ञान) विद्यमान रहती है तब तक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है।१४-१५।।

"कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर  "कार्य या अभाव कैसे कहा जा सकता है।
यह माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है।१६।।

इसलिए ही कर्म-बीज की अनित्यता पर विद्वान पुरुषों को सदैव विचार करना चाहिए!
हे राजन्! सम्पूर्ण जगत कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर परिवर्तित होता रहता है।१७।।


नानायोनिषु राजेन्द्र नानाधर्ममयेषु च।
इच्छया च भवेञ्चन्म विष्णोरमिततेजसः ॥१८॥

युगे युगेष्वनेकासु नीचयोनिषु तत्कथम् ।
त्यक्त्वा वैकुण्ठसंवासं सुखभोगाननेकशः ॥१९॥

विण्मूत्रमन्दिरे वासं संत्रस्तः कोऽभिवाञ्छति ।
पुष्पावचयलीलां च जलकेलिं सुखासनम् ॥ २०॥

त्यक्त्वा गर्भगृहे वासं कोऽभिवाच्छति बुद्धिमान्।
तूलिकांमृदुसंयुक्तां दिव्यां शय्यां विनिर्मिताम्।२१॥

त्यक्त्वाधोमुखवासं च कोऽभिवाञ्छति पण्डितः।
गीतं नृत्यञ्च वाद्यञ्च नानाभावसमन्वितम् ॥२२॥

मुक्त्वा को नरके वासं मनसापि विचिन्तयेत्।
सिन्धुजाद्‌भुतभावानांरसंत्यक्त्वासुदुस्त्वजम्।२३।

विण्मूत्ररसपानञ्ज क इच्छेन्मतिमान्नरः ।
गर्भवासात्परो नास्ति नरको भुवनत्रये ॥ २४ ॥

तद्‌भीताश्च प्रकुर्वन्ति मुनयो दुस्तरं तपः ।
हित्वा भोगञ्च राज्यञ्चवने यान्ति मनस्विनः।२५।

विशेष-★
विदित हो कि समय परिवर्तन का कारण  है और परिवर्तन का घनीभूत व स्थूल रूप कर्म है।)
____________________
हे राजन् असीमित तेज वाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से पृथ्वी पर जन्म लेने में स्वतन्त्र होते तो वे अनेक प्रकार सी योनियों मेंअनेक प्रकार धर्म कर्म के अनुसार युगों में तथा अनेक प्रकार की। निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ? अनेक प्रकार के सुखभोगों तथा वैकुण्ठपुरी का  निवास त्याग कर मल मूत्र वाले स्थान ( उदर ) में भला कौन रहना चाहेगा? फूल चुनने की। क्रीडा जल विहार और सुख -दायक आसन का त्याग कर कौन बुद्धिमान गर्भगृह में वास करना चाहेगा ? कोमल रुई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या को छोड़कर गर्भ में औंधे-(ऊर्ध्व-मुख) पड़ा रहना भला कौन विद्वान पुरुष पसन्द कर सकता है ? अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत वाद्य तथा नृत्य या परित्याग करके गर्भ रूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ? ऐसा कौन बुद्धिमान व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के " अत्यंत कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मलमूत्र का कीचड़ ( दूषित रस) पीने की। इच्छा करेगा। इसलिए तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरक रूप अन्य कोई स्थल नहीं है। गर्भ वास ( जन्ममरण) से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी जिस गर्भवास से डरकर राज्य और सुख कि परित्याग करके वन को चले जाते थे। ऐसा कौन मूर्ख होगा ? जो इसके सेवन की। इच्छा करेगा।।१८–२५=१/२।।

यद्‌भीतास्तु विमूढात्मा कस्तं सेवितुमिच्छति ।
गर्भे तुदन्ति कृमयो जठराग्निस्तपत्यधः।२६ ॥

वपासंवेष्टनं कूरं किं सुखं तत्र भूपते ।
वरं कारागृहे वासो बन्धनं निगडैर्वरम् ॥ २७ ॥

अल्पमात्रं क्षणं नैव गर्भवासः क्वचिच्छुभः ।
गर्भवासे महद्दुःखं दशमासनिवासनम् ॥ २८ ॥

तथा निःसरणे दुःखं योनियन्त्रेऽतिदारुणे ।
बालभावे तदा दुःखं मूकाज्ञभावसंयुतम् ॥ २९ ॥

क्षुतृष्णावेदनाशक्तः परतन्त्रोऽतिकातरः ।
क्षुधिते रुदिते बाले माता चिन्तातुरा तदा ॥ ३० ॥

भेषजं पातुमिच्छन्ती ज्ञात्वा व्याधिव्यथां दृढाम् ।
नानाविधानि दुःखानि बालभावे भवन्ति वै ॥३१॥

किं सुखं विबुधा दृष्ट्वा जन्म वाञ्छन्ति चेच्छया ।
संग्रामममरैः सार्धं सुखं त्यक्त्वा निरन्तरम् ॥३२॥

कर्तुमिच्छेच्च को मूढः श्रमदं सुखनाशनम् ।
सर्वथैव नृपश्रेष्ठ सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ॥३३॥

कृतकर्मविपाकेन प्राप्नुवन्ति सुखासुखे ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देहवद्‌भिर्नृभिर्देवैस्तिर्यग्भिश्च नृपोत्तम ॥३४॥

तपसा दानयज्ञैश्च मानवश्चेन्द्रतां व्रजेत् ।
क्षीणे पुण्येऽथ शक्रोऽपि पतत्येव न संशयः॥३५॥

गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि कराती है। हे राजन् ! उस समय शरीर में अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मज्जा( Marrow) लगा रहता है तो फिर वह कौनसा सुख है? कारागार में रहना और बेड़ीयों में बँधे रहना अच्छा है किन्तु एक क्षण के अल्पकाल तक गर्भ में रहना कभी भी शुभ नहीं होता गर्भ वास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है।‌वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है‌। इसके अतिरिक्त अत्यंत दारुण( भयंकर) योनियन्त्र से बाहर आने पर  महान यातना प्राप्त होती है। तत्पश्चात्  बाल्यावस्था में अज्ञान का तथा बोल न पाने के कारण बहुत कष्ट प्राप्त होता है । दूसरे के  अधीन अत्यंत भयभीत बालक  भूख-और प्यास की। पीड़ा के कारण बालक कमजोर रहता है। भूखे बालकों को रोता हुआ देखकर माता ( रोने काम कारण जानने के लिए) चिन्ता ग्रस्त हो उठती है।और पुन: किसी बड़े रोगजनित कष्ट कि अनुभव करके उसे औषधि पिलाने की। इच्छा करती है। इस प्रकार बाल्यकाल में अनेक प्रकार के कष्ट प्राप्त होते हैं ।तब विवेकी पुरुष किस दु:ख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा करते हैं।२६-३१=१/२।।
कौन ऐसा मूर्ख होगा जो देवताओं के साथ रहते हुए सुख भोग का त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करने कि इच्छा करेगा। हे श्रेष्ठ राजन्! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी अपने किए हुए कर्मों के परिणाम स्वरूप दु:ख-सुख प्राप्त करते हैं। हे श्रेष्ठ राजन्! सभी देहधारी जीव चाहें वे मनुष्य देवता अथवा पशु पक्षी अपने अपने कर्मों का शुभ-अशुभ पाते हैं।।३२-३४।।
मनुष्य तप यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्र पद को प्राप्त हो जाता है। और पुण्य क्षीण हो जाने पर इन्द्र कि भी स्वर्ग से पतन हो जाता है । इसमें कोई सन्देह नहीं!३५।।

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पुनः पुनर्हरेरेवं नानायोनिषु पार्थिव ।
अवतारा भवन्त्यन्ये रथचक्रवदद्‌भुताः ॥३८॥

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।
अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥३९॥


तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम्।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥४०॥

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२॥

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ।४३॥ "

                       राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥४४।

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥४५॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६॥

स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥४७॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि॥४८।

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥४९॥

दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम्।५०॥

लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१॥

स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥५२॥

किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्‌गर्भवासं करोति वै ॥५३॥

गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ।

दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः।५५।

प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥

सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना।५७।

तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥

कंसस्य हननं कष्टाद्‌ द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥५९॥

स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान्।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६०

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥

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रामावतार के समय देवता कर्म बन्धन के कारण  वानर. बन्दर/ वन के नर बने और कृष्णावतार में कृष्ण की सहायता के लिए देवता यादव बने थे।★३६।।
इस प्रकार प्रत्येक युग में धर्म सी रक्षा के लिए भगवान् विष्णु ब्रह्मा जी अत्यंत प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं।।३७।।

हे राजन् ! इस प्रकार रथ चक्र की भाँति विविध प्रकार की योनियों में भगवान् विष्णु के अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं।३८।।
महात्मा भगवान विष्णु अपने अंशांश से पृथ्वी पक अवतार ग्रहण करके दैत्यों या वध रूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिए अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म कि पवित्र कथा मैं कह रहा हूँ; वे साक्षात् विष्णु ही यदुवंश में अवतरित हुए थे।३९-४०।।

हे राजन् ! कश्यप जी के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने  पूर्वजन्म के शापवश इस जन्म में गोप बनकर गोपालन का कार्य किया।४१।।★-
हे राजन् हे पृथ्वीपति ! उन्हीं कश्यप मुनि की दो पत्नियाँ  अदित और सुरसा ने भी शाप वश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया । हे भरत श्रेष्ठ! उन दौनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहिनों के रूप में जन्म लिया। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने ही उन्हें यह शाप दिया था।।४२-४३।।

राजा बोला! हे महामते! महर्षि कश्यप ने ऐसा कौनसा अपराध किया था। जिस कारण उन्हें स्त्रीयों सहित शाप मिला था।मुझे यह बताइए!४४।।

वैकुण्ठवासी अविनाशी रमापति भगवान् विष्णु को गोपकुल ( गोकुल) में क्यों अवतार लेना पड़ा?।। ४५।।

भगवान विष्णु मानव शरीर धारण करके इस हीन मनुष्य शरीर में अनेक प्रकार की। लीलाऐं दिखाते हुए। और अनेक प्रपञ्च क्यों करते हैं?

काम- क्रोध अमर्ष शोक वैर प्रेम दु:ख-सुख भय दीनता सरलता पाप पुण्य वचन मारण पोषण चलन ताप विमर्श ताप आत्मश्लाघा लोभ दम्भ मोह कपट चिन्ता– ये तथा अन्य नाना प्रकार के भाव मनुष्य -जन्म में विद्यमान रहते हैं।४९-५१।।

वे  भगवान विष्णु शाश्वत सुख या त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मनुष्य जन्म धारण किस लिए करते हैं।
हे मुनीश्वर इस पृथ्वी पर मानव जन्म पाकर कौन सा अक्षय सुख प्राप्त होता है। वे साक्षात् - विष्णु किस कारण गर्भवास करते हैं ?।५२-५३।।

गर्भवास में दु:ख जन्म ग्रहण में दुःख  बाल्यावस्था में दुःख यौवनावस्था में कामवासना जनित दुःख और गृहस्थ जीवन में तो बहुत बड़ा दुःख होता है।५४।।
हे विप्र अनेक कष्ट मानव जीवन में प्राप्त होते हैं। तो वे भगवान विष्णु अवतार क्यों लेते हैं पृथ्वी पर।५५।।

ब्रह्म योनि भगवान विष्णु को रामावतार ग्रहण करते हुए अत्यंत दारुण वनवास काल में घोर कष्ट प्राप्त हुआ था। उन्हें माता सीता वियोग से उत्पन्न महान कष्ट हुआ था। तथा अनेक बार राक्षसों से युद्ध करना पड़ा अन्त में महान आभा वाले उन श्री राम को पत्नी आ त्याग कि असीम वेदना भी साहनी पड़ी।।५६-५७।।

उसी प्रकार कृष्णावतार में भी बन्धीग्रह में जन्म गोकुल गमन गोचारण कंस वध और पुन: कष्ट पूर्वक द्वारिका के लिए प्रस्थान -इन अनेक विधि सांसारिक कष्टों को भगवान कृष्ण ने क्यों भोगा ?।।५८-५९।।

ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छा से इन दु:खों की प्रतीक्षा करेगा? हे सर्वज्ञ मेरे मन की। शान्ति के लिए  इस सन्देह का निवारण कीजिए!!।।६०।।
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इस प्रकार देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के द्वितीय अध्याय या समापन।।

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और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था;  ऐसा वर्णन है । 
अब देखें देवी भागवत पुराण चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है।
परन्तु कृषि और गोपालन तो क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप 
स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक था 
निम्न रूप में -

श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ 
में प्रस्तुत है वह वर्णन -

कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥

•-प्राचीन  समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।

द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै॥५५।

शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६॥

•(उसके पिता का नाम मधु ) वरदान पाकर वह  पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।

स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः।निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः।५७॥

सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा।५८॥

•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु  और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।____________________________________

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥५९॥
_____________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥

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वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥

•तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ  ! 

•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेैश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से गोप (आभीर रूप में ) अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।

•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था। उग्रसेन के पुरोहित काशी में रहने वाले काश्य नाम से थे। और शूरसेन के पुरोहित उसी काल में एक बार सभी शूर के सभासदों द्वारा ज्योतिष् के जानकार गर्गाचार्य नियुक्त किए गये।

अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥

•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।

दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥

•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥

•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश कहकर वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।

गोप कृषि, गो पालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।

क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है नकि वैश्य वृत्ति ; वैश्य वृत्ति तो केवल व्यापार तथा वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं 

कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपित विपरीत ही हैं ।

फिर सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है ये गोपालक के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।

परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में में प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प लाने का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया 

गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ 

जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।

भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे ; जो दोनों के गोप और यादवों के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे 

देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें 

अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।

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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्। ६१॥

अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।

चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।

 जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।

निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-  _________________________________________

                   (अथ कथारम्भ:) 

"यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य  वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास ।

तस्य चार्याणां  शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति ।

तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं  पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । 

तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । 

स चार्य  बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं 

व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।।

अर्थ-• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; उन्हीं  क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो पत्नीयाँ  थीं , पहली क्षत्रिय वर्ण की,  दूसरी वैश्य वर्ण की  थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ; उन दौनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो  (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; 

जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था। विज्ञपंडित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।

तथा च मनुस्मृति:-(१०/१५)-ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतोनाम जायते।आभीरोऽ म्बष्ठकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण:।। इति।।                                      अम्बष्ठस्तु विश: पुत्र्यां ब्राह्ममणाज्जात उच्यते। इति चान्यत्र । अत: पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश:श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-आभीर द्विज वंश: इति।।२४।।

इस विषय में मनु जी भी कहते हैं यथा 10/15 क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न  कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अवस्था के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में 

उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ  होता है अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा -आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।

अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते                ( १०/८/१०)                                              कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भा०१०/२४/२०-२१) वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते । वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।। इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति  ।२५।।

अर्थ-• तदनंतर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य !  का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी  द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि वाणिज्य गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री सुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं।

संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।

अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।। 

अर्थ•- पुन: स्पष्ट बोला भाई !  मधुकण्ठ ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।

मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च  श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।। 

मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे ।अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी  अधिक नाना (मातामह)  के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी  उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे। उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से  हैंं निश्चय ही जिनको 

श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या  स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं ।

अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने  जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)

अन्यस्तु  जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु।सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।।

पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत: ।।२८।।

अर्थ- देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि  पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी दरिद्रियों के दृष्टिगोचर होकर  भूतल पर देखा जाता है ।

किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।।

उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: ।यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।।

अर्थ-• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं ।  उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि  पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। 

उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३० ।।

अर्थ- इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।

मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।।

अर्थ• मधुकण्ठ बोला ! उसके अनंतर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ?  तदनंतर  उन दोनों के सुयोग्य  दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की  सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णन कर सकता है ? ।।३६ ।

तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।।

अर्थ•- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए  सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ

उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि  ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। 

" स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।

अर्थ•-पश्चात  उन श्री उप नन्द जी ने भी  पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक 

अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।

(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 

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तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे  इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।

अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक  पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। 

तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) 

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योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५।  

अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है  ।दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो । 

तात्पर्य-ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली  पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।

गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६।

अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।

व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा 

गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७।।

अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन  आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे  अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है। 

अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७।

(श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय)

वंशीधरीटीका----- में वादारभ्य नन्दस्य व्रजो धनपुत्रपश्वादि सर्वसमृद्धिमान् जात:।  यत: हरेर्निवासेन हेतुना ये आत्मनो व्रजस्य गुणा: सर्वप्रियत्वादयस्तै: रमाया: आक्रीडं विहारस्थानमभूत् ।।१८।

गोपान् इति । हे कुरुद्वह ! नन्द: एवं  श्रीकृष्णमहोत्सवं कृत्वा गोकुलरक्षायां गोपान् निरुप्य आदिश्य कंसस्य वार्षिक्यं प्रतिवर्षं देयं करं स्वामिग्राह्यं भागं वार्षिकं तत्र साधुरत्नाद्युपायनयुक्त दातुं मथुरां गत: ।।१९।।  

वसुदेव: इति वसुदेव: भ्रातरं  सन्मित्रं नन्दं आगतमुपश्रुत्य "राज्ञे करो दत्त येन " तथाभूतं ज्ञात्वा च तस्य नन्दस्यावमोचनं  अवमुच्यते शकटादि यत्र तत् स्थान ययौ ।

भ्रातरमित्यत्र वैश्यकन्यायां शूरपत्नीभ्रातृजातत्वेन मातुलपुत्रत्वात् । अतएवाग्रे भ्रातरिति मुहुरुक्ति: । मध्वाचार्यश्च वैश्यकन्यायां शूरवैमात्रेय भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च । तस्मै मया स वर: सन्निसृष्ट: स चास नन्दाख्य उतास्य भार्या ।। नाम्ना यशोदा स च शूरतातसुतस्य  वैश्यप्रभवोऽथ गोप:  ।। इति प्राहु: एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेषा एव वैश्यकन्या उद्भवत्वाद् परं वैश्यत्वं । अतएव स्कान्दे मथुराखण्डे ।" रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणार्थ " इति । यादवानां  हितार्थाय धृतो गोवर्द्धनो  मया " इति च हरिवंशेऽपि " । " यादवेष्वपि सर्वेषु भवन्तो मम बान्धवा: " इति रामवाक्यम् ।२०।।

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अर्थ-

नन्द का इस प्रकार कहना प्रारम्भ करके ब्रज ,धन ,पुत्र और पशु आदि सभी समृद्धिमान् जो कुछ हुआ था जहाँ  हरि निवास के कारण जो अपने ब्रज के गुण  और सब की प्रियता के पात्र रूप में   हरि का रमा ( लक्ष्मी) के साथ  लीला करने का वह ब्रज स्थान हुआ ।१८। 

गोपों को इस प्रकार यथाकार्य करते हुए कहकर नन्द इस प्रकार श्रीकृष्ण के महोत्सव को सम्पादन करके  गोकुल की रक्षा में गोपों को नियुक्त कर  और उन्हें आदेश देकर कंस का प्रतिवर्ष दिया जाने वाले वार्षिक कर के रूप में अच्छे अच्छे रत्न आदि उपहार देने के लिए  मथुरा गये ।।।१९। 

वसुदेव ने इस प्रकार भाई और सन्मित्र (अच्छे मित्र) का आगमन  सुनकर और " राजा कंस  को जिन्होंने कर दे दिया हो"  उन नन्द  के  आगमन-विषय में जानकर  वसुदेव नन्द  के पढ़ाव अर्थात् शिविर की ओर चले जहाँ नन्द जी ने अपने शकट ( बैलगाड़ी) आदि ढ़ील दिये थे ।

नन्द वसुदेव के भाई इस प्रकार थे कि "शूरसेन की पत्नी के भाई के पुत्र होने से तथा वैश्यकन्या से उत्पन्न होने से भी"  इसीलिए अग्र भ्रातृ इस प्रकार से उन्हें  पुन: कहा गया  और मध्याचार्य ने नन्द को वैश्यकन्या गुणवती से उत्पन्न (पर्जन्य) का भाई कहा गुणवती जो शूरसैन की सौतेली माता थीं उन गुणवती में उत्पन्न नन्द को पर्जन्य का पुत्र होने से  भाई कहा  यह ब्रह्मवाक्य है । 

और शूरसेन के पिता के पुत्र का वैश्य वर्ण की स्त्री में उत्पन्न होने  से भी गोप इस प्रकार से कहा गया इस प्रकार अन्य मत से गोप यादव विशेष थे जो जो वैश्य कन्या में उत्पन्न होने से वेैश्यता (  ) को प्राप्त हुए ।इसीलिए भी स्कन्द पुराण के मथुरा खण्ड में कहा गोपों के विषय में " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्र वृष्टि निवारणात्  इति = सभी यादवों की रक्षा की इन्द्र का वर्षा के निवारण करने से और हरिवंश पुराण में लिखा है कि यादवों के हित के लिए मेरे द्वारा गोवर्धन पर्वत श्रेष्ठ धारण किया गया यह हरिवंश पुराण में है । गोपों के लिए बलराम का यह कहना भी प्रसिद्ध है कि यादवों में आप (गोप ) मेरे लिए सबसे प्रिय हो "

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अम्बष्ठ= अम् +क्विप् =अम् रोग: - ब =वरुणनाम्नाचिकिसतसया देव:+ स्थ = तिष्ठन्ति अम: निदानानय बं वरुणं ध्याने तिष्ठन्ति योऽम्बष्ठ: कथ्यते।

किंवा अम्बाय चिकित्सकबब्दाय तत्प्रख्यापनार्थं तिष्ठते- ऽभिप्रैति स्था--क पत्वम् । चिकित्सके “विप्रात् वैश्य- कन्यायां जाते १ सङ्कीर्णवर्णे, “ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्ब- ष्ठोनाम जायते मनुः “सजातिजानन्तरजाः षट्सुता द्विजधर्मिण” इति मनूक्तेः “द्विजातीनां समानजाती- यासु जाताः तथानुलोम्येनोत्पन्नाः ब्राह्मणेन क्षत्रियावैश्ययोः, क्षत्रियेण वैश्यायामेवं षट् पुत्रा द्विज धर्म्मिणः उपनेयाः ताननन्तरजनाम्न इति यदुक्तं तत् तज्जातिव्यपदेशार्थं न संस्कारार्थमिति कस्यचिद्भ्रमः स्यात् अत एषां द्विजातिसंस्कारार्थवचनमिति” कुल्लू० उक्तेश्च अम्बष्ठादीनामुपनयनसंस्कारसत्त्वेऽपि इदानीन्तनानां संस्कारलोपेन शूद्रत्वम् अतएव इदानीं क्षत्रियादीनां शुद्रत्वमेवमम्बष्ठादीनामपि” इति रघु० ये तु व्रात्य- दोषप्रायश्चित्तमाचरन्ति तेषामुपनयनयोग्यता भवत्येव “येषां पित्रादयोप्यनुपनीतास्तेषामापस्तम्बोक्तम् “यस्य पिता पितामहावनुपनीतौ स्यातान्तस्य संवत्सरं त्रैविद्य- कम्ब्रह्मचर्य्यं यस्य प्रपितामहादीनां नानुस्मर्य्यते उपनयनन्तस्य द्वादशवार्षिकं त्रैविद्यकम्ब्रह्मचर्य्यमिति” मिता० उक्तेः । “सूतानामश्वसारथ्यमम्बष्ठानां चिकित्सितम्” मनूक्ता तेषां वृत्तिः । २ देशभेदे, ३ हस्तिपके च । ४ यूथि- कायां स्त्री । स्वार्थे कनि ह्रस्वे अत इत्त्वे । अम्बष्ठिका- प्यत्रैव (वामनहाटीति) प्रसिद्धायां ५ ब्राह्मीलतायाञ्च 

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अम्बष्ठ] [स्त्री० अम्बष्ठा] १. एक देश का नाम पंजाब के मध्य भाग का पुराना नाम। २. अंबष्ठ देश में बसनेवाला मनुष्य। ३. ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न एक जाति। इस जाति के लोग चिकित्सक होते थे। ४. महावत। हाथीवान। फीलवान। हस्तिपक। ५. कायस्थों का एक भेद।

अम्बष्ठ गण (तृतीय-चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व) चिनाब और सिन्धु नदी के आस-पास रहते थे। इनका निवास विशेष रूप से भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र था। सिकंदर ने जब पंजाब पर आक्रमण किया, तब अम्बष्ठ गण अपना क़बाइली जीवन सुचारु रूप से जी रहे थे। इनका, चिनाब और सिन्धु के उत्तरी हिस्से में रहने का उल्लेख सिकंदर के आक्रमण के समय का ही मिलता है। यह वह स्थान था, जो इन नदियों के संगम स्थल से उत्तर में पड़ता था।

इनका उल्लेख 'अम्बप्टनोई' भी मिलता है किन्तु यह नाम यूनानी इतिहासकारों का दिया हुआ है। यूनानियों द्वारा संस्कृत भाषा के अम्बष्ठ को ज्यों का त्यों लिख-बोल न पाने के कारण यह नाम बदल गया। संस्कृत भाषा के जिन ग्रंथों में इनका उल्लेख मिलता है, उनमें प्रमुख हैं-

ऐतरेय ब्राह्मण,महाभारत,बार्हस्पत्य और अर्थशास्त्र -विजयेन्द्र कुमार माथुर ने लेख किया है ...अंबष्ठ नाम के एक प्राचीन जनपद तथा जाति का उल्लेख संस्कृत और पालि साहित्य में अनेक स्थलों पर 

 है। यह पंजाब का प्राचीन जनपद था। 'महाभारत' में इसका उल्लेख इस प्रकार है- 

'वशातय: शाल्वका: केकयाश्च तथा अंबष्ठा ये त्रिगर्ताश्च मुख्या: (महाभारत उद्योग पर्व २३, ३०)

'विष्णुपुराण' (२,३,१७) में भी अंबष्ठों का मद्र और आराम जनपद के वासियों के साथ वर्णन है-

 'माद्रारामास्तथाम्बष्ठा पारसीकादयस्तथा'

'बार्हस्पत्य अर्थशास्त्र' (टॉमस, पृ. २१) में अंबष्ठों के राष्ट्र का वर्णन कश्मीर, हूण देश और सिन्ध के साथ है।

अलक्षेन्द्र के आक्रमण के समय अंबष्ठनिवासियों के पास शक्तिशाली सेना थी। टॉलमी ने इनको अंबुटाई कहा है।

सिकन्दर के इतिहास से सम्बन्धित कतिपय ग्रीक और रोमन लेखकों की रचनाओं में भी अंबष्ठ जाति का वर्णन हुआ है। दिओदोरस, कुर्तियस, जुस्तिन तथा तालेमी ने विभिन्न उच्चारणों के साथ इस शब्द का प्रयोग किया है। प्रारम्भ में अंबष्ठ जाति युद्धोपजीवी थी।

सिकन्दर के समय (३२७ ई. पू.) उसका एक गणतन्त्र था और वह चिनाब के दक्षिणी तट पर निवास करती थी। आगे चलकर अंबष्ठों ने सम्भवत चिकित्साशास्त्र को अपना लिया, जिसका परिज्ञान हमें 'मनुस्मृति' से होता है।

सन्दर्भ:-हरिवंशपुराणम्/पर्व २ (विष्णुपर्व)/अध्यायः ०३८।

विकद्रुणा यदोः संततिवर्णनम्, जरासंधस्य आक्रमणानि सोढुं मथुरापुरी न समर्था इति कथनम्
अष्टात्रिंशोऽध्यायः।

ब्रह्मवैवर्तपुराणम्• खण्डः (१)- (ब्रह्मखण्डः)•अध्यायः (१०)-

                  ।।सौतिरुवाच।।

भृगोः पुत्रश्च च्यवनः शुक्रश्च ज्ञानिनां वर ।।
क्रतोरपि क्रिया भार्य्या वालखिल्यानसूयत ।। १ ।।

त्रयः पुत्राश्चाङ्गिरसो बभूवुर्मुनिसत्तमाः ।।
बृहस्पतिरुतथ्यश्च शम्बरश्चापि शौनक ।। २ ।।

वसिष्ठस्य सुतः शक्तिः शक्तेः पुत्रः पराशरः ।।
पराशरसुतः श्रीमान्कृष्णद्वैपायनो हरिः ।। ३ ।।

व्यासपुत्रः शिवांशश्च शुकश्च ज्ञानिनां वरः ।।
विश्वश्रवाः पुलस्त्यस्य यस्य पुत्रो धनेश्वरः ।। ४ ।।
               ।।शौनक उवाच ।।
अहो पुराण वदुषामत्यन्तं दुर्गमं वचः ।।
न बुद्धं वचनं किंचिद्धनेशोत्पत्तिपूर्वकम् ।। ५ ।।

अधुना कथितं जन्म धनेशस्येश्वरादिदम् ।।
पुनर्भिंन्नक्रमं जन्म ब्रवीषि कथमेव माम् ।। ६ ।।
                ।।सौतिरुवाच ।।
बभूवुरेते दिक्पालाः पुरा च परमेश्वरात् ।।
पुनश्च ब्रह्मशापेन स च विश्वश्रवस्सुतः ।। ७ ।।

गुरवे दक्षिणां दातुमुतथ्यश्च धनेश्वरम् ।।
ययाचे कोटिसौवर्णं यत्नतश्च प्रचेतसे ।। ८ ।।

धनेशो विरसो भूत्वा तस्मै तद्दातुमुद्यतः ।।
चकार भस्मसाद्विप्र पुनर्जन्म ललाभ सः ।। ९ ।।

तेन विश्रवसः पुत्रः कुबेरश्च धनाधिपः ।।
रावणः कुम्भकर्णश्च धार्मिकश्च विभीषणः ।। 1.10.१० ।।

पुलहस्य सुतो वात्स्यः शाण्डिल्यश्च रुचेः सुतः ।।
सावर्णिर्गौतमाज्जज्ञे मुनिप्रवर एव सः ।। ११ ।।

काश्यपः कश्यपाज्जातो भरद्वाजो बृहस्पतेः ।।
( स्वयं वात्स्यश्च पुलहात्सावर्णिर्गौतमात्तथा।१२ ।।

शाण्डिल्यश्च रुचेः पुत्रो मुनिस्तेजस्विनां वरः ।।)
बभूवुः पञ्चगोत्राश्च एतेषां प्रवरा भवे ।। १३ ।।

बभूवुर्ब्रह्मणो वक्त्रादन्या ब्राह्मणजातयः।।
ताः स्थिता देशभेदेषु गोत्रशून्याश्च शौनक ।१४ ।।

चन्द्रादित्यमनूनां च प्रवराः क्षत्रियाः स्मृताः ।।
ब्रह्मणो बाहुदेशाच्चैवान्याः क्षत्रियजातयः ।१५ ।।

ऊरुदेशाच्च वैश्याश्च पादतः शूद्रजातयः ।।
तासां सङ्करजातेन बभूवुर्वर्णसङ्कराः। १६

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गोपनापितभिल्लाश्च तथा मोदककूबरौ ।।
ताम्बूलिस्वर्णकारौ च वणिग्जातय एव च ।। १७ ।।

इत्येवमाद्या विप्रेन्द्र सच्छूद्राः परिकीर्त्तिताः ।।
शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्यद्विजन्मनोः ।। 
१८ ।।

विश्वकर्मा च शूद्रायां वीर्य्याधानं चकार सः ।।
ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः ।। १९ ।।

मालाकारः शङ्खकारः कर्मकारः कुविन्दकः ।।
कुम्भकारः कांस्यकारः षडेते शिल्पिनां वराः।1.10.२० ।।

सूत्रकारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च ।।
पतितास्ते ब्रह्मशापादयाज्या वर्णसङ्कराः ।।२१।।
              ।।शौनक उवाच ।।
कथं देवो विश्वकर्मा वीर्य्याधानं चकार सः ।।
शूद्रायामधमायां च कथं ते पतितास्त्रयः ।। २२ ।।

कथं तेषु ब्रह्मशापो ह्यभवत्केन हेतुना ।।
हे पुराणविदां श्रेष्ठ तन्नः शंसितुमर्हसि ।। २३ ।।

               ।।सौतिरुवाच ।।
घृताची कामतः कामं वेषं चक्रे मनोहरम् ।।
तामपश्यद्विश्वकर्मा गच्छन्तीं पुष्करे पथि ।२४ ।।

आगच्छत्तद्विलोकाच्च प्रसादोत्फुल्लमानमः ।।
तां ययाचे स शृङ्गारं कामेन हृतचेतनः ।। २५ ।।

रत्नालङ्कारभूषाढ्यां सर्वावयवकोमलाम् ।।
यथा षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।।२६।।

बृहन्नितम्ब भारार्तां मुनिमानसमोहिनीम् ।।
अतिवेगकटाक्षेण लोलां कामातिपीडिताम् ।।२७।।

तच्छ्रोणीं कठिनां दृष्ट्वा वायुनाऽपहृतांशुकाम् ।।
अतीवोच्चैः स्तनयुगं कठिनं वर्तुलं परम् ।। २८ ।।

सुस्मितं चारु वक्त्रं च शरच्चन्द्रविनिन्दकम् ।।
पक्वबिम्बफलारक्तस्वोष्ठाधरमनोहरम् ।। २९ ।।

सिन्दूरबिन्दुसंयुक्तं कस्तूरीबिन्दुसंयुतम् ।।
कपोलमुज्ज्वलं शश्वन्महार्हमणिकुण्डलम् ।1.10.३० ।।

तामुवाच प्रियां शान्तां कामशास्त्रविशारदः ।।
कामाग्निवर्द्धनोद्योगि वचनं श्रुतिसुन्दरम् ।। ३१ ।।

               ।।विश्वकर्मोवाच।।
अयि क्व यासि ललिते मम प्राणाधिके प्रिये ।।
मम प्राणांश्चापहत्य तिष्ठ कान्ते क्षणं शुभे ।। ३२।

तवैवान्वेषणं कृत्वा भ्रमामि जगतीतलम् ।।
स्वप्राणांस्त्यक्तुमिष्टोऽहं त्वां न दृष्ट्वा हुताशने।३३।

त्वं कामलोकं यासीति श्रुत्वा रम्भामुखोदितम् ।।
आगच्छमहमेवाद्य चास्मिन्वर्त्मन्यवस्थितः ।३४ ।।

अहो सरस्वतीतीरे पुष्पोद्याने मनोहरे ।।
सुगन्धिमन्दशीतेन वायुना सुरभीकृते ।। ३५ ।।

यभ कान्ते मया सार्द्धं यूना कान्तेन शोभने।।
विदग्धाया विदग्धेन सङ्गमो गुणवान्भवेत् ।।३६।।

स्थिरयौवनसंयुक्ता त्वमेव चिरजीविनी।।
कामुकी कोमलाङ्गी च सुन्दरीषु च सुन्दरी।।३७।।

मृत्युंजयवरेणैव मृत्युकन्या जिता मया ।।
कुबेरभवनं गत्वा धनं लब्धं कुबेरतः।।३८।।

रत्नमाला च वरुणाद्वायोः स्त्रीरत्नभूषणम् ।।
वह्निशुद्धं वस्त्रयुगं वह्नेः प्राप्तं महौजस.।।३९।।

कामशास्त्रं कामदेवाद्योषिद्रञ्जनकारम्।।
शृङ्गारशिल्पं यत्किञ्चिल्लब्धं चन्द्राच्च दुर्लभम् ।। 1.10.४० ।।
रत्नमालां वस्त्रयुग्मं सर्वाण्याभरणानि च ।।
तुभ्यं दातुं हृदि कृतं प्राप्तं तत्क्षणमेव च ।। ४१ ।।

गृहे तानि च संस्थाप्य चागतोऽन्वेषणे भवे ।।
विरामे सुखसम्भोगे तुभ्यं दास्यामि साम्प्रतम् ।। ४२ ।।

कामुकस्य वचः श्रुत्वा घृताची सस्मिता मुने ।।
ददौ प्रत्युत्तरं शीघ्रं नीतियुक्तं मनोहरम् ।। ४३ ।।


               ।।घृताच्युवाच ।।
त्वया यदुक्तं भद्रं तत्स्वीकरोम्यधुना परम् ।। ।
किन्तु सामयिकं वाक्यं ब्रवीष्यामि स्मरातुर ।४४ ।

कामदेवालयं यामि कृतवेषा च तत्कृते ।।
यद्दिने यत्कृते यामो वयं तेषां च योषितः ।।४५।।

अद्याहं कामपत्नी च गुरुपत्नी तवाधुना ।।
त्वयोक्तमधुनेदं च पठितं कामदेवतः ।। ४६ ।।

विद्यादाता मन्त्रदाता गुरुर्लक्षगुणैः पितुः ।।
मातुः सहस्रगुणवान्नास्त्यन्यस्तत्समो गुरुः ।।४७।।

गुरोः शतगुणैः पूज्या गुरुपत्नी श्रुतौ श्रुता।।
पितुः शतगुणं पूज्या यथा माता विचक्षण ।।४८।।

मात्रा समागमे सूनोर्यावान्दोषः श्रुतौ श्रुतः ।।
ततो लक्षगुणो दोषो गुरुपत्नीसमागमे ।। ४९ ।।

मातरित्येव शब्देन यां च सम्भाषते नरः ।।
स मातृतुल्या सत्येन धर्मः साक्षी सतामपि ।।1.10.५० ।।

तया हि संगतो यस्स्यात्कालसूत्रं प्रयाति सः ।।
तत्र घोरे वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।। ५१ ।।

मात्रा सह समायोगे ततो दोषश्चतुर्गुणः ।।
सार्द्धं च गुरुपत्न्या च तल्लक्षगुण एव च।।५२।।

कुम्भीपाके पतत्येव यावद्वै ब्रह्मणो वयः ।।
प्रायश्चित्तं पापिनश्च तस्य नैव श्रुतौ श्रुतम् ।।५३।।

चक्राकारं कुलालस्य तीक्ष्णधारं च खङ्गवत् ।।
वसामूत्रपुरीषैश्च परिपूर्णं सुदुस्तरम् ।। ५४ ।।

शूलवत्कृमिसंयुक्तं तप्तमग्निसमं द्रवत् ।।
पापिनां तद्विहारं च कुम्भीपाकप्रकीर्तितम् ।५५।।

यावान्दोषो हि पुंसां च गुरुपत्नीसमागमे ।।
तावांश्च गुरुपत्न्यां वै तत्र चेत्कामुकी यदि ।५६ ।।

अद्य यास्यामि कामस्य मन्दिरं तस्य कामिनी ।।
वेषं कृत्वा गमिष्यामि त्वत्कृतेऽहं दिनान्तरे ।५७।।

घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्मा रुरोष ताम् ।।
शशाप शूद्रयोनिं च व्रजेति जगतीतले ।।५८।।

घृताची तद्वचः श्रुत्वा तं शशाप सुदारुणम् ।।
लभ जन्म भवे त्वं च स्वर्गभ्रष्टो भवेति च । ५९ ।।

घृताची कारुमुक्त्वा च साऽगच्छत्काममन्दिरम् ।।
कामेन सुरतं कृत्वा कथयामास तां कथाम्।।1.10.६०।।

सा भारते च कामोक्त्या गोपस्य मदनस्य च ।।
पत्न्यां प्रयागे नगरे लेभे जन्म च शौनक ।। ६१ ।।

जातिस्मरा तत्प्रसूता बभूव च तपस्विनी ।।
वरं न वव्रे धर्मिष्ठा तपस्यायां मनो दधौ ।। ६२ ।।

तपश्चकार तपसा तप्तकाञ्चनसन्निभा ।।
दिव्यं च शतवर्षं सा गङ्गातीरे मनोरमे ।। ६३ ।।

वीर्येण सुरकारोश्च नव पुत्रान्प्रसूय सा ।।
पुनः स्वलोकं गत्वा च सा घृताची बभूव ह ।। ६४।।

                  ।।शौनक उवाच ।।
कथं वीर्य्यं सा दधार सुरकारोस्तपस्विनी ।।
पुत्रान्नव प्रसूता च कुत्र वा कति वासरान्।। ६५ ।
                  ।।सौतिरुवाच ।।
विश्वकर्मा तु तच्छापं समाकर्ण्य रुषाऽन्वितः ।।
जगाम ब्रह्मणः स्थानं शोकेन हृतचेतनः ।। ६६ ।।

नत्वा स्तुत्वा च ब्रह्माणं कथयामास तां कथाम् ।।
ललाभ जन्म ब्राह्मण्यां पृथिव्यामाज्ञया विधेः ।। ६७ ।।

स एव ब्राह्मणो भूत्वा भुवि कारुर्बभूव ह ।।
नृपाणां च गृहस्थानां नानाशिल्पं चकार ह ।।६८।।

शिल्पं च कारयामास सर्वेभ्यः सर्वतः सदा ।
विचित्रं विविधं शिल्पमाश्चर्य्यं सुमनोहरम् ।६९ ।।

एकदा तु प्रयागे च शिल्पं कृत्वा नृपस्य च ।।
स्नातुं जगाम गङ्गां स चापश्यत्तत्र कामिनीम्।1.10.७०।।

घृताचीं नवरूपां च युवतिं तां तपस्विनीम् ।।
जातिस्मरां तां बुबुधे स च जातिस्मरो द्विज।७१ ।।

दृष्ट्वा सकामः सहसा बभूव हृतचेतनः ।।
उवाच मधुरं शान्तः शान्तां तां च तपस्विनीम्।।७२।।
                ।।ब्राह्मण उवाच ।।
अहोऽधुना त्वमत्रैव घृताचि सुमनोहरे ।।
मा मां स्मरसि रम्भोरु विश्वकर्माऽहमेव च।।७३।।

शापमोक्षं करिष्यामि भज मां तव सुन्दरि।।
त्वत्कृतेऽतिदहत्येव मनो मे स च मन्मथः।७४ ।।

द्विजस्य वचनं श्रुत्वा घृताची नवरूपिणी।।
उवाच मधुरं शान्ता नीतियुक्तं परं वचः ।।७५।।

                 ।।गोपिकोवाच।।
तद्दिने कामकान्ताऽहमधुना च तपस्विनी ।।
कथं त्वया संगता स्यां गंगातीरे च भारते ।। ७६ ।।

विश्वकर्मन्निदं पुण्यं कर्मक्षेत्रं च भारतम् ।।
अत्र यत्क्रियते कर्म भोगोऽन्यत्र शुभाशुभम् ।७७ ।

धर्मी मोक्षकृते जन्म प्रलभ्य तपसः फलात् ।।
निबद्धः कुरुते कर्म मोहितो विष्णुमायया ।७८ ।

माया नारायणीशाना परितुष्टा च यं भवेत् ।।
तस्मै ददाति श्रीकृष्णो भक्तिं तन्मन्त्रमीप्सितम्। ७९।।

यो मूढो विषयासक्तो लब्धजन्मा च भारते ।।
विहाय कृष्णं सर्वेशं स मुग्धो विष्णुमायया ।1.10.८०।      __________  

सर्वं स्मरामि देवाहमहो जातिस्मरा पुरा ।।
घृताची सुरवेश्याऽहमधुना गोपकन्यका ।८१।।

तपः करोमि मोक्षार्थं गङ्गातीरे सुपुण्यदे ।।
नात्र स्थलं च क्रीडायाः स्थिरस्त्वं भव कामुक ।। ८२ ।।

अन्यत्र यत्कृतं पापं गंगायां तद्विनश्यति ।।
गंगातीरे कृतं पापं सद्यो लक्षगुणं भवेत् ।। ८३ ।।

तत्तु नारायणक्षेत्रे तपसा च विनश्यति ।।
यद्येव कामतः कृत्वा निवृत्तश्च भवेत्पुनः ।। ८४ ।।

घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्माऽनिलाकृतिः ।।
जगाम तां गृहीत्वा च मलयं चन्दनालयम् ।८५ ।।

रम्यायां मलयद्रोण्यां पुष्पतल्पे मनोरमे ।। ।
पुष्पचन्दनवातेन संततं सुरभीकृते।।८६।।

चकार सुखसम्भोगं तया स विजने वने ।।
पूर्णं द्वादशवर्षं च बुबुधे न दिवानिशम्।।८७।।

बभूव गर्भः कामिन्याः परिपूर्णः सुदुर्वहः।।
सा सुषाव च तत्रैव पुत्रान्नव मनोहरान्।।८८।।

कृतशिक्षितशिल्पांश्व ज्ञानयुक्तांश्च शौनक।।
पूर्णप्राक्तनतो युग्यान्बलयुक्तान्विचक्षणान् । ८९ ।।

मालाकारान्कर्मकाराञ्छङ्खकारान्कुविन्दकान् ।।
कुम्भकारान्सूत्रकारान्स्वर्णचित्रकरांस्तथा ।। 1.10.९० ।।

तौ च तेभ्यो वरं दत्त्वा तान्संस्थाप्य महीतले ।।
मानवीं तनुमुत्सृज्य जग्मतुर्निजमन्दिरम् ।। ९१ ।।

स्वर्णकारः स्वर्णचौर्याद्ब्राह्मणानां द्विजोत्तम ।।
बभूव पतितः सद्यो ब्रह्मशापेन कर्मणा ।। ९२ ।।

सूत्रकारो द्विजानां तु शापेन पतितो भुवि ।।
शीघ्रं च यज्ञकाष्ठानि न ददौ तेन हेतुना।।९३।।

व्यतिक्रमेण चित्राणां सद्यश्चित्रकरस्तथा ।।
पतितो ब्रह्मशापेन ब्राह्मणानां च कोपतः।।९४।

कश्चिद्वणिग्विशेषश्च संसर्गात्स्वर्णकारिणः ।।
स्वर्णचौर्य्यादिदोषेण पतितो ब्रह्मशापतः ।।९५।।

कुलटायां च शूद्रायां चित्रकारस्य वीर्य्यतः ।।
बभूवाट्टालिकाकारः पतितो जारदोषतः ।। ९६ ।।

अट्टालिकाकारबीजात्कुम्भकारस्य योषिति ।।
बभूव कोटकः सद्यः पतितो गृहकारकः ।। ९७ ।।

कुम्भकारस्य बीजेन सद्यः कोटकयोषिति ।।
बभूव तैलकारश्च कुटिलः पतितो भुवि।। ।। ९८ ।।

____________________________________

सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति ।।
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः ।। ९९ ।।

तीवरस्य तु बीजेन तैलकारस्य योषिति।।
बभूव पतितो दस्युर्लेटश्च परिकीर्तितः ।। 1.10.१०० ।।

लेटस्तीवरकन्यायां जनयामास षट् सुतान् ।।
माल्लं मन्त्रं मातरं च भण्डं कोलं कलन्दरम् ।।१०१
 ।।

ब्राह्मण्यां शूद्रवीर्य्येण पतितो जारदोषतः ।।
सद्यो बभूव चण्डालः सर्वस्मादधमोऽशुचिः ।। ।। १०२ ।।

तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह ।।
चर्मकार्य्यां च चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह ।। १०३ ।।

मांसच्छेद्यां तीवरेण कोञ्चश्च परिकीर्तितः ।।
कोञ्चस्त्रियां तु कैवर्त्तात्कर्त्तारः परिकीर्तितः ।। १०४ ।।

सद्यश्चण्डालकन्यायां लेटवीर्य्येण शौनक ।।
बभूवतुस्तौ द्वौ पुत्रौ दुष्टौ हड्डिडमौ तथा ।।१०५।।

क्रमेण हड्डिकन्यायां सद्यश्चण्डालवीर्य्यतः ।।
बभूवुः पञ्च पुत्राश्च दुष्टा वनचराश्च ते ।। १०६ ।।

लेटात्तीवरकन्यायां गङ्गातीरे च शौनक ।।
बभूव सद्यो यो बालो गङ्गापुत्रः प्रकीर्तितः।१०७।।

गङ्गापुत्रस्य कन्यायां वीर्य्याद्वै वेषधारिणः ।।
बभूव वेषधारी च पुत्रो युङ्गी प्रकीर्तितः ।।१०८ ।।

वैश्यात्तीवरकन्यायां सद्यः शुण्डी बभूव ह ।
शुण्डीयोषिति वैश्यानु पौण्ड्रकश्च बभूव ह ।१०९।

________

क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।1.10.११०।

क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायां कैवर्त्तः परिकीर्तितः।
कलौ तीवरसंसर्गाद्धीवरः पतितो भुवि ।१११।

___________________

तीवर्यां धीवरात्पुत्रो बभूव रजकः स्मृतः ।।
रजक्यां तीवराच्चैव कोयालीति बभूव ह ।। ११२ ।।

नापिताद्गोपकन्यायां सर्वस्वी तस्य योषिति ।।
क्षत्राद्बभूव व्याधश्च बलवान्मृगहिंसकः ।। ११३ ।।

तीवराच्छुण्डिकन्यायां बभूवुः सप्त पुत्रकाः।
ते कलौ हड्डिसंसर्गाद्बभूवुर्दस्यवः सदा ।। ११४ ।।

ब्राह्मण्यामृषिवीर्य्येण ऋतोः प्रथमवासरे ।
कुत्सितश्चोदरे जातः कूदरस्तेन कीर्तितः ।११५ ।।

तदशौचं विप्रतुल्यं पतितश्चर्तुदोषतः ।।
सद्यः कोटकसंसर्गादधमो जगतीतले ।। ११६ ।।

क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायामृतोः प्रथमवासरे ।।
जातः पुत्रो महादस्युर्बलवांश्च धनुर्द्धरः ।। ११७ ।।

चकार वागतीतं च क्षत्रियेणापि वारितः।
तेन जात्याः स पुत्रश्च वागतीतः प्रकीर्तितः।११८ ।।

क्षत्त्रवीर्य्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापतः।।
बलवन्तो दुरन्ताश्च बभूवुर्म्लेच्छजातयः।११९ ।।

अविद्धकर्णाः क्रूराश्च निर्भया रणदुर्जयाः।
शौचाचारविहीनाश्च दुर्द्धर्षा धर्मवर्जिताः ।1.10.१२०।

म्लेच्छात्कुविन्दकन्यायां जोला जातिर्बभूव ह।। ।
जोलात्कुविन्दकन्यायां शराङ्कः परिकीर्तितः।।१२१।

वर्णसङ्करदोषेण बह्व्यश्चाश्रुतजातय ।।
तासां नामानि संख्याश्च को वा वक्तुं क्षमो द्विज ।।१२२ ।।

वैद्योऽश्विनीकुमारेण जातो विप्रस्य योषिति ।।
वैद्यवीर्य्येण शूद्रायां बभूवुर्बहवो जनाः ।। १२३ ।।

ते च ग्राम्यगुणज्ञाश्च मन्त्रौषधिपरायणाः ।।
तेभ्यश्च जाताः शूद्रायां ये व्यालग्राहिणो भुवि ।।१२४ ।।
                  ।।शौनक उवाच ।।
कथं ब्राह्मणपत्न्यां तु सूर्य्यपुत्रोऽश्विनीसुतः ।।
अहो केनाविवेकेन वीर्य्याधानं चकार ह ।।१२९।।
                   ।।सौतिरुवाच।।
गच्छन्तीं तीर्थयात्रायां ब्राह्मणीं रविनन्दनः ।।
ददर्श कामुकः शान्तः पुष्पोद्याने च निर्जने ।१२६।

तया निवारितो यत्नाद्बलेन बलवान्सुरः ।।
अतीव सुन्दरीं दृष्ट्वा वीर्य्याधानं चकार सः ।। १२७ ।।

द्रुतं तत्याज गर्भं सा पुष्पोद्याने मनोहरे ।।
सद्यो बभूव पुत्रश्च तप्तकाञ्चनस न्निभः।१२८ ।।

सपुत्रा स्वामिनो गेहं जगाम व्रीडिता सदा ।।
स्वामिनं कथयामास यन्मार्गे दैवसङ्कटम् ।१२९।

विप्रो रोषेण तत्याज तं च पुत्रं स्वकामिनीम् ।।
सरिद्बभूव योगेन सा च गोदावरी स्मृता ।। 1.10.१३०।।

पुत्रं चिकित्साशास्त्रं च पाठयामास यत्नतः ।।
नानाशिल्पं च मंत्रं च स्वयं स रविनन्दनः ।१३१ ।।

विप्रश्च वेतनाज्योतिर्गणनाच्च निरन्तरम् ।।
वेदधर्मपरित्यक्तो बभूव गणको भुवि ।। १३२ ।।

लोभी विप्रश्च शूद्राणामग्रे दानं गृहीतवान् ।।
ग्रहणे मृतदानानामग्रादानो बभूव सः ।। १३३ ।।

कश्चित्पुमान्ब्रह्मयज्ञे यज्ञकुण्डात्समुत्थितः ।।
स सूतो धर्मवक्ता च मत्पूर्वपुरुषः स्मृतः।१३४ ।।

पुराणं पाठयामास तं च ब्रह्मा कृपानिधिः ।।
पुराणवक्ता सूतश्च यज्ञकुण्डसमुद्भवः ।। १३९ ।।

वैश्यायां सूतवीर्य्येण पुमानेको बभूव ह ।।
स भट्टो वावदूकश्च सर्वेषां स्तुतिपाठकः ।१३६ ।।

एवं ते कथितः किंचित्पृथिव्यां जातिनिर्णय ।।
वर्णसङ्करदोषेण बह्व्योऽन्याः सन्ति जातयः। १ ३७।।

सबन्धो येषु येषां यः सर्वजातिषु सर्वतः ।।
तत्त्वं ब्रवीमि वेदोक्तं ब्रह्मणा कथितं पुरा ।१३८ ।।

पिता तातस्तु जनको जन्मदाता प्रकीर्तितः ।।
अम्बा माता च जननी जनयित्री प्रसूरपि ।१३९ ।।

पितामहः पितृपिता तत्पिता प्रपितापहः ।।
अत ऊर्ध्वं ज्ञातयश्च सगोत्राः परिकीर्तितः ।1.10.१४० ।।

मातामहः पिता मातुः प्रमातामह एव च ।।
मातामहस्य जनकस्तत्पिता वृद्धपूर्वकः ।१४१ ।।

पितामही पितुर्माता तच्छ्वश्रूः प्रपितामही ।।
तच्छ्वश्रूश्च परिज्ञेया सा वृद्धप्रपितामही ।१४२ ।।

मातामही मातृमाता मातृतुल्या च पूजिता ।।
प्रमातामहीति ज्ञेया प्रमातामहकामिनी ।१४३ ।।

वृद्धमातामही ज्ञेया पत्पितुः कामिनी तथा ।।
पितृभ्राता पितृ व्यश्च मातृभ्राता च मातुलः ।१४४।

पितृष्वसा पितुर्मातृष्वसा मातुस्स्वसा स्मृता ।।
सूनुश्च तनयः पुत्रो दायादश्चात्मजस्तथा।। १४५ ।।

धनभाग्वीर्य्यजश्चैव पुंसि जन्ये च वर्त्तते ।।
जन्यायां दुहिता कन्या चात्मजा परिकीर्तिता । १४६ ।।

पुत्रपत्नी वधू ज्ञेया जामाता दुहितुः पतिः ।।
पतिः प्रियश्च भर्ता च स्वामीकान्ते च वर्तते ।। १४७ ।।

देवरः स्वामिनो भ्राता ननांदा स्वामिनः स्वसा ।।
श्वशुरः स्वामिनस्तातः श्वश्रूश्च स्वामिनः प्रसूः ।। १४८ ।।

भार्य्या जाया प्रिया कान्ता स्त्री व पत्नी प्रकीर्तिता।
पत्नीभ्राता श्यालकश्च स्वसा पत्न्याश्च श्यालिका ।१४९ ।।

पत्नीमाता तथा श्वश्रूस्तत्पिता श्वशुरः स्मृतः ।।
सगर्भः सोदरो भ्राता सगर्भा भगिनी स्मृता ।।1.10.१५०।

भगिनीजो भागिनेयो भ्रातृजो भ्रातृपुत्रकः ।।
आवुत्तो भगिनीकान्तो भगिनीपतिरेव च ।१९१ ।।

श्यालीपतिस्तु भ्राता च श्वशुरैकत्वहेतुना ।।
श्वशुरस्तु पिता ज्ञेयो जन्मदातुः समो मुने ।।१९२।।

अन्नदाता भयत्राता पत्नीतातस्तथैव च ।।
विद्यादाता जन्मदाता पंचैते पितरो नृणाम् ।। १५३।।

अन्नदातुश्च या पत्नी भगिनी गुरुकामिनी
माता च तत्सपत्नी च कन्या पुत्रप्रिया तथा ।।१५४।।

मातुर्माता पितुर्माता श्वश्रूपित्रोः स्वसा तथा।।
पितृव्यस्त्री मातुलानी मातरश्च चर्तुदश।।१५५।।

पौत्रस्तु पुत्रपुत्रे च प्रपौत्रस्तत्सुतेऽपि च ।।
तत्पुत्राद्याश्च ये वंश्याः कुलजाश्च प्रकीर्तिताः।।१५६।।

कन्यापुत्रश्च दौहित्रस्तत्पुत्राद्याश्च बांधवाः।।
भागिनेयसुताद्याश्च पुरुषा बांधवाः स्मृताः।।१५७।।

भ्रातृपुत्रस्य पुत्राद्यास्ते पुनर्ज्ञातयः स्मृताः ।।
गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्यः परमबान्धवः।।१५८।।

गुरुकन्या च भगिनी पोष्या मातृसमा मुने।।
पुत्रस्य च गुरुर्भ्राता पोष्यः सुस्निग्धबान्धवः ।।१५९।।

पुत्रस्य श्वशुरो भ्राता बन्धुर्वैवाहिकः स्मृतः।।
कन्यायाः श्वशुरे चैव तत्सम्बन्धः प्रकीर्तितः।।1.10.१६०।

गुरुश्च कन्यकायाश्च भ्राता सुस्निग्धबान्धवः ।।
गुरुश्वशुरभ्रातॄणां गुरुतुल्यः प्रकीर्तितः ।। १६१।।

बन्धुता येन सार्द्ध च तन्मित्रं परिकीर्तितम् ।।
मित्रं सुखप्रदं ज्ञेयं दुःखदो रिपुरुच्यते ।। १६२ ।।

बान्धवो दुःखदो दैवान्निस्सम्बन्धोऽसुखप्रदः ।।
सम्बन्धास्त्रिविधाः पुंसां विप्रेन्द्र जगतीतले ।१६३।

विद्याजो योनिजश्चैव प्रीतिजश्च प्रकीर्तितः ।।
मित्रं तु प्रीतिजं ज्ञेयं स सम्बधः सुदुर्लभः।१६४ ।।

मित्रमाता मित्रभार्य्या मातृतुल्या न संशयः।।
मित्रभ्राता मित्रपिता भ्रातृतातसमौ नृणाम् ।।१६५।।

चतुर्थं नामसम्बन्धमित्याह कमलोद्भवः।।
जारश्चोपपर्तिर्बन्धुर्दुष्टा सम्भोगकर्त्तरि ।। १६६ ।।

उपपत्न्यां नवज्ञा च प्रेयसी चित्तहारिणी ।।
स्वामितुल्यश्च जारश्च नवज्ञा गृहिणी समान।१६७।

सम्बन्धो देशभेदे च सर्वदेशे विगर्हितः ।।
अवैदिको निन्दितस्तु विश्वामित्रेण निर्मितः।१६८।

दुस्त्यजश्च महद्भिस्तु देशभेदे विधीयते ।।
अकीर्तिजनकः पुंसां योषितां च विशेषतः।१६९ ।।

तेजीयसां न दोषाय विद्यमाने युगे युगे ।। 1.10.१७० ।।

इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे जातिसम्बन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ।। १० ।।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के उपर्युक्त जातिसबन्ध निर्णय अध्याय में आभीर जाति का वर्णन नहीं है जो मनुस्मृति के (१०-१५ )में वर्णित है ।।

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केवल कुछ शातिर व धूर्त पुरोहितों 'ने द्वेष वश आभीर के स्थान पर गोप लिखा और फिर गोप को केवल यादव लिखा ऐसा ग्रन्थों के प्रकाशन काल में हुआ ।

स्मृतियों में द्वेष वश तत्कालीन पुरोहितों'ने गोपों या कीं अहीरों को वर्ण संकर (Hybrid) या शूद्र कहकर भी वर्णित किया है । जो पुराणों तथा महाभारत आदि में शूर थे  उन्हें शूद्र कर दिया । 👇

देखें निम्नलिखित श्लोकों में -

वर्द्धकी नापितो गोप:आशाप: कुम्भकारक: ।  वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नटो वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।

एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।   (  देखें व्यास स्मृति)

वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , (गोप) , आशाप , कुम्हार ,(वणिक्) ,किरात , (कायस्थ), माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं।

चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश, श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।

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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।

शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।      धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।    ( देखें व्यास-स्मृति)

नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।

तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।जिनके वंश का ज्ञान है ;ऐसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________

 सन्दर्भ-(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२).                                                   ----------------------------------------------------------

स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी।

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तात्पर्यं दो स्त्रीयों में एक ही ब्राह्मण के द्वारा जो एक सन्तान हुई वह आभीर है ।

'परन्तु ये असम्भव है आज तक एक स्त्री में अनेक पुरुषों द्वारा सन्तानें उत्पन्न सुनी थी और सम्भवत भी थीं 'परन्तु यहाँ तोअम्बष्ठ कन्या और माहिष्य कन्या में एक ही सन्तान आभीर उत्पन्न हो गये ।

विदित हो की अम्बष्ठ और माहिष्य दौनों ही अलग अलग जनजातियाँ हैं ।                         माहिष्यजनजाति स्मृतियों के अनुसार एक संकर जाति है विशेष—याज्ञवल्क्य स्‍मृति इसे क्षत्रिय पिता और वैश्या माता की औरस संतान मानती है

तो आश्वलायन इसे सुवर्ण नामक जाति से करण जाति की माता में उत्पन्न सन्तान मानती है ।

सह्याद्रि खण्ड में इसको यज्ञोपवीत आदि संस्कारों का वैश्यों के समान ही अधिकारी कहा हैं; । पर आश्वलायन इसे यज्ञ करने का निषेध करते हैं ।

इस जाति के लोग अब तक बालि द्वीप में मिलते हैं और अपने को माहिष्य क्षत्रिय कहते हैं ।

संभवत: ये लोग किसी समय महिष- मंडल (मैसूर) देश के रहनेवाले होंगे ।                        अब यही गड़बड़ है कि सभी स्मृतियों के विधान भी परस्पर विरोधाभासी व भिन्न-भिन्न हैं ।

यद्यपि संस्कृत भाषा में आभीरः, पुल्लिंग विशेषण शब्द है ---

जैसे कि वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में उद्धृत किसानों है। वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में इसकी व्युत्पत्ति- अमर कोश से  उद्धृत की गयी है ।

(आ समन्तात् भियं राति रा दाने आत् इति कः आभीर:।

अर्थात् चारो दिशाओं में भय प्रदान करने वाला है  वह आभीर है  परन्तु अभीर अथवा आभीर शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ है  " जो भीरु अथवा कायर न हो वह अभीर है वही वीर अहीर (अभीर ) है ; अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता

आभीरस्य पर्याय: गोपो गौश्चरश्च इत्यमरः कोश: ॥ आहिर इति भाषा तथा प्राकृत भाषा में अहीर --वस्तुतः अभीरस्य समूह इति आभीर: प्रकीर्तता

अर्थात् अभीर: शब्द में अण् प्रत्यय समूह अथवा बाहुल्य प्रकट करने के लिए प्रयुक्त होता है ।

और पाणिनीय तद्धिदान्त शब्दों में अण् प्रत्यय सन्तति वाचक भी है ।

अतः आभीर और अभीर शब्द मूलत: समूह और व्यक्ति (इकाई) रूप को प्रकट करते हैं ।

आभीर जन-जाति का सनातन व्यवसाय गौ - चारण रहा और चरावाहे ही कालान्तरण में कृषि - वृत्ति के सूत्रधार रहे ।

अतएव  अभीर और आभीर मूलत: एकवचन और बहुवचन  होते हुए भी संस्कृत के परवर्ती विद्वानों ने दो भिन्न  रूपों में यादवों की गोपानल वृत्ति ( व्यवसाय) और वीरता प्रवृत्ति (  मूलस्वभाव) को दृष्टि गत करते हुए की है ।

दोैनों व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत हैं । 

वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश ते अनुसार--(अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरःअच्  गोप: का समानार्थक शब्द । अर्थ•-सामने मुख करके घेरता है गायें वह अभीर है । वस्तुत: यह व्युत्पत्ति केवल आनुमानिक गोपों की गोपालन वृत्ति को आधार पर की गयी है ।

यद्यपि अभीर शब्द की अपेक्षा आभीर शब्द ही संस्कृत ग्रन्थों में बहुतायत रूप में मिलता है ।   न कि अभीर: 

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अभीर शब्द की व्युत्पत्ति:- तारानाथ वाचस्पत्यम् निम्न रूप में करते हैं -अभीर: - (अभि + ईर् +अच् )

और अमरकोश कार अमरसिंह:- ने आभीरः की व्युत्पत्ति:- पुल्लिंग रूप  (आ -समन्तात् भियं -भयं राति ददाति शत्रुणाम् हृत्सु  । रा दाने = देने में आत इति कः ।)अर्थ -  गोपः । इत्यमरःकोश ॥ प्राकृत भाषा में आहिर रूप  ।

यदि अभीर की इस प्रकार भी व्युत्पत्ति मानी जाये तो भी आभीर: अभीर: का  बहुवचन रूप है ।

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१-• अभीर: - अभि + ईर् +अच् (अभि उपसर्ग +ईर् धातु+ तथा अच् कृदन्त प्रत्यय  = दीर्घ स्वर सन्धि से  अभीर:  रूप और इसी अभीर: में तद्धित. अण् प्रत्यय - सन्तान तथा (समूहवाची)  परक होकर  (अभीर+ अण् ) = आभीर: (बहुवचन अथा समूह 

वाची रूप बनता )  अर्थात् अभीर: एकवचन तो आभीर: बहुवचन रूप  -

अहीरों को संस्कृत भाषा में अभीरः अथवा आभीरः  संज्ञा से इसलिए भी अभिहित किया गया ..

संस्कृत भाषा में इस  शब्द  की व्युपत्ति "

अभित: ईरयति इति अभीरः" अर्थात् चारो तरफ घूमने वाली निर्भीक जनजाति "

अभि एक धातु ( क्रियामूल ) से पूर्व लगने वाला उपसर्ग (Prifix)..तथा ईर् एक धातु है ।

जिसका अर्थ :- गमन करना (जाना) है इसमें कर्तरिसंज्ञा भावे में अच् प्रत्यय के द्वारा निर्मित विशेषण -शब्द अभीरः विकसित होता है  | 

और इस अभीरः शब्द में श्लिष्ट अर्थ है... (जो पूर्णतः भाव सम्पूर्क है ...("अ" निषेधात्मक उपसर्ग तथा भीरः/ भीरु कृदन्त शब्द जिसका अर्थ है कायर ..अर्थात् जो भीरः अथवा कायर न हो वीर पुरुष ।

ईज़राएल के यहूदीयो की भाषा हिब्रू में भी अबीर (Abeer)  शब्द का अर्थ वीर तथा सामन्त है । के अतिरिक्त ईश्वर का एक नाम भी है ।

तात्पर्य यह कि इजराईल के यहूदी वस्तुतः यदु की सन्तानें थीं जिनमें अबीर भी एक प्रधान युद्ध कौशल में पारंगत शाखा थी ।

यद्यपि आभीरः शब्द अभीरः शब्द का ही बहुवचन समूह वाचक रूप है | 

अभीरः+ अण् अथवा अञ् प्रत्यय = आभीरः ।


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हरिवंशपुराण में श्री कृष्ण की 14 माताओं (यशोदा इसके अन्यथा ही है) बताई गई है जिसमे से रोहिणी समेत पांच सगी बहने कौरववंशी बाह्लीक की पुत्रियाँ थी.। 
बाह्लीक हस्तिनापुर के राजा शांतनु के बड़े भाई थे जिन्होंने की सन्यास ले लिया था और इस लिहाज से वासुदेव जी भीष्म पितामह के बहनौई थे.

देवकी समेत ( 7 )बहने सगी थी जो की वासुदेव जी को ब्याही गई थी, हालाँकि आकाशवाणी से अपनी मौत की बात को सुनकर बाकी बहनों को तो छोड़ दिया था।
कंस ने लेकिन देवकी और वासुदेव को कैद कर लिया था. श्री कृष्ण के जन्म के बाद कंस ने मुक्त तो कर दिया था दोनों को लेकिन श्री कृष्ण के उनके ही पुत्र होने की बात पता चलने पर पुनः कारागार में डाल दिया था.
यद्यपि पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय तेरह में वसुदेव की एक पत्नी का नाम यशोदा भी दिया है जो देवक की ही पुत्री थी । 

आहुकश्चाप्यवन्तीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ
आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत।५४।
अर्थ-• आहुक ने भी अपनी बहिन आहुकी को अवन्ति के राजा से विवाह  कर दिया और आ हुक के एक पुत्री और दो पुत्र हुए ।।५४।
देवकं चोग्रसेनं च देवगर्भसमावुभौ
देवकस्य सुताश्चैव जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।५५।                    
देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः
तेषां स्वसारः सप्तैव वसुदेवाय ता ददौ।५६।

देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा
श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी।५७।

   (पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय-( १३ )

वीर से आवीर: तथा फिर तृतीय चरण में आभीर: हुआ जो अपनी मूल वीरता प्रवृत्ति को ध्वनित करता रहा- वीर का सम्प्रसारण (Propagation) होता है जिसमें  (व) का रूप (इ)  हो जाता है ।  वीर का आर्य हो जाता है।

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आभीर एक शूर वीर जनजाति थी यही प्रचीन ग्रन्थों में वर्णन है । गोपालन करने से ये ही गोपाल और गोप भी कहे गये - महाभारत में यही वर्णन है-

ततस्ते सन्यवर्तन्त संशप्तकगणा: पुन: ।        नारायणाश्च गोपाला मृत्युं कृत्वा निवर्तनम्।।३१।                 

 (द्रोणपर्व उन्नीसवाँ अध्याय )                      अर्थ •-तब वे समस्त संशप्तकगण और नारायणी सेना के गोपाल(अहीर) मृत्यु को ही युद्ध से निवृत्ति का अवसर मानकर पुन: युद्ध के लिए लौट आये ।।३१।

अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप भी है। गोपो की उत्पत्ति के विषय में ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है।👇

कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:       आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:। ४१।         (ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41).        

अर्थात् कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं की उत्पत्ति हुई है ,जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण के समान थे।

और जब भगवान की नंद राय से बात हुई है तब उन्होनें नन्द से कहा !"     

हे वैश्येन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुंधरा ।
पुनः सृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम् ।। ३६ ।।  
 (श्रीकृष्णजन्मखण्ड ब्रह्मवैवर्तपुराण )।     हे वैश्यों के मुखिया ! कलि का आरम्भ होने से कलि धर्म प्रचलित होंगेे । पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी । इसमें नन्द जी का वैश्य होना पाया जाता है । परन्तु हरिवंश पुराण में तो 👇

और यह  वैश्य श्रेणि पुरोहितों ने गो-पालन वृत्ति के कारण दी थी तो ध्यान रखना चाहिए कि चरावाहे ही किसान हुए। तो क्या किसान क्षत्रिय न होकर वैश्य हुए।क्यों कि गाय-भैंस सभी किसान पालते हैं ।              

क्या वे वैश्य हो गये ? परन्तु पालन रक्षण तो क्षत्रियों की प्रवृत्ति है ।

इति उक्तः तु तया राम वसिष्ठः सुमहायशाः ।सृजस्व इति तदा उवाच बलम् पर बल अर्दनम् ॥१-५४-१७॥

तस्य तत् वचनम् श्रुत्वा सुरभिः सा असृजत् तदा ।
तस्या हुंभा रव उत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप ॥१-५४-१८॥        

नाशयन्ति बलम् सर्वम् विश्वामित्रस्य पश्यतः ।
स राजा परम क्रुद्धः क्रोध विस्फारित ईक्षणः ॥१-५४-१९॥

पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैः उच्चावचैः अपि ।
विश्वामित्र अर्दितान् दृष्ट्वा पह्लवान् शतशः तदा ॥१-५४-२०॥

भूय एव असृजत् घोरान् शकान् यवन मिश्रितान् ।
तैः आसीत् संवृता भूमिः शकैः यवन मिश्रितैः ॥१-५४-२१॥

प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिंजल्कसन्निभैः ।यद्वा -
प्रभावद्भिः महावीर्यैः हेम किंजल्क संनिभैः ।

दीर्घासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बराअवृतैः ।यद्वा -
दीर्घ असि पट्टिश धरैः हेम वर्ण अंबर आवृतैः॥१-५४-२२॥

निर्दग्धम् तत् बलम् सर्वम् प्रदीप्तैः इव पावकैः ।
ततो अस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।

तैः तैः यवन कांभोजा बर्बराः च अकुली कृताः ॥१-५४-२३॥

इति वाल्मीकि रामायणे आदि काव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥१-५४॥

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धूर्त पुरोहितों ने द्वेष वश यादवों का इतिहास विकृत किया अन्यथा विरोधाभास और भिन्नता का सत्य के रूप निर्धारण में स्थान हि कहाँ था ?

क्यों की झूँठ बहुरूपिया तो सत्य हमेशा एक रूप ही होता है।

परन्तु कृष्ण जी जब नंद राय के घर थे तब उनके संस्कार को नंद जी के पुरोहित ना आए गर्ग जी को वसु देव जी ने भेजा यह बड़े आश्चर्य की बात है ! नन्द के पुरोहित शाण्डिल्य भी गर्ग के शिष्य थे। और गर्ग को शूरसेन ने अपने समय में पुरोहित नियुक्त किया था 

शाण्डिल्य कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ के पुरोहित भी थे।

तो इसमें भेद निरूपण नहीं होता कि यादवों के पुरोहित गर्गाचाय थे और अहीरों के शाण्डिल्य ! जैसा कि कुछ धूर्त अल्पज्ञानी भौंका करते हैं ।

परन्तु उसी ब्रह्म वैवर्त पुराण में लिखा है कि जब श्रीकृष्ण गोलोक को गए तब सब गोपोंं को साथ लेते गए और अमृत दृष्टि से दूसरे गोपो से गोकुल को पूर्ण किया जाता है।

वस्तुत यहाँं सब विकृत पूर्ण कल्पना मात्र है ।👇

 योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।       गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णं चकार स:।।

ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः) अध्यायः (१२९)

      अथैकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
                (नारायण उवाच)
श्रीकृष्णो भगवांस्तत्र परिपूर्णतमः प्रभुः ।
दृष्ट्वा सारोक्यमोक्षं च सद्यो गोकुलवासिनाम् ।। १ ।।

उवास पञ्चभिर्गोपैर्भाण्डीरे वटमूलके ।
ददर्श गोकुलं सर्व गोकुलं व्याकुलं तथा ।।२ ।।

अरक्षकं च व्यस्तं च शून्यं वृन्दावनं वनम् ।
योगेनामृतवृष्ट्या च कृपया च कृपानिधिः ।।३ ।।

गोपीभिश्च तथा गोपैः परिपूर्णं चकार सः ।
तथा वृन्दावनं चैव सुरम्यं च मनोहरम् ।। ४ ।।

गोकुलस्थाश्च गोपाश्च समाश्वासं चकार सः ।
उवाच मधुरं वाक्यं हितं नीतं च दुर्लभम् ।। ५ ।।

  (ब्रह्म-वैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड                             चतुर्थ - १२९वाँ अध्याय)

क्यों कि यदि गोप वैश्य ही होते तो कृष्ण की नारायणी सेना के यौद्धा कैसे बन गये। जिन्होनें अर्जुन-जैसे यौद्धा को परास्त कर दिया।

अब सत्य तो यह है कि जब धूर्त पुरोहितों ने किसी जन-जाति से द्वेष किया तो उनके इतिहास को निम्न व विकृत करने के लिए

कुछ काल्पनिक उनकी वंशमूलक उत्पत्ति कथाऐं ग्रन्थों में लिखा दीं ।

क्यों कि जिनका वंश व उत्पत्ति का न ज्ञान होने पर ब्राह्मणों से उनकी गुप्त या अवैध उत्पत्ति कर डाली ।

ताकि वे हमेशा हीन बने रहें !

-जैसे यूनानीयों की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष और शूद्रा स्त्री   ( गौतम-स्मृति)

पोलेण्ड वासी (पुलिन्द) वैश्य पुरुष क्षत्रिय कन्या।(वृहत्पाराशर -स्मृति)

आभीर:- ब्राह्मण पुरुष-अम्बष्ठ कन्या।आभीरोम्बष्ठकन्यायाम्( मनुस्मृति)।- 10/15

अब दूसरी ग्रन्थों में आभीरों की उत्पत्ति का भिन्न जन-जाति की कन्या से है कि

"महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् आभीर ! तथैव च आभीर पत्न्यामाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् (128-130) ( पं० ज्वाला प्रसाद मिश्र - (जातिभास्कर)

•-माहिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो पैदा हो वह आभीर है। तथा ब्राह्मण द्वारा आभीर पत्नी में भी आभीर ही उत्पन्न होता है । अब कल्पना भी मिथकों का आधार है

सत्य सदैव सम और स्थिर होता है जबकि असत्य बहुरूपिया और विषम होता है ।

यह तो सभी बुद्धिजीवियों को विदित ही है । ।

अत: पं० ज्वाला प्रसाद के जाति भास्कर  नें वर्णन  एक -स्मृति से है जो कहती है की ब्राह्मण द्वारा माहिष्य स्त्री में आभीर उत्पन्न होता है।

और दूसरी -स्मृति कहती है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न आभीर होता है ।

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अब देखिए माहिष्य और अम्बष्ठ अलग अलग जातियाँ हैं स्मृतियों और पुराणों में भी 👇

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ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठोनाम जायते मनुःस्मृति “-(ब्राह्मण द्वारा वैश्य कन्या में उत्पन्न अम्बष्ठ है ।

क्षत्रेण वैश्यायामुत्पादितेमाहिष्य:-( क्षत्रिय पुरुष और वैश्य कन्या में उत्पन्न माहिष्य है ।वैश्यात्ब्राह्मणीभ्यामुत्पन्नःमाहिष कथ्यते।

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ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15

अमर कोश में आभीर के अन्य पर्याय वाची रूपों में १-गोप२-गोपाल ३-गोसंख्य४-गोदुह ५-आभीर और ६- वल्लव ।५७।

बोपालित कोश कार ने अमर कोश की उपर्युक्त श्लोक की व्याख्या में स्पष्ट किया 

एवं गोमहिष्यादिकस्य गोमाहिष्यादिकं पादबन्धनम् ..................।

गोमेति।गौश्च महिषी च गोमहिष्यौ आदि यस्य।तत् ।।*।। पादे बन्धनमस्य।।*।। यादवं धनम् इति पाने तु गोमहिष्यादिकं धनम् ।यदूनामिदम् । तस्येदम् ( ४/३/१२०/)  यदु इति अण् - यादव  गवादि यादवं  वित्तम् इति बोपालित: कोश।

(१)में गोप को ही आभीर और यादव कहा और स्पष्ट किया कि गाय आदि यादवों की सम्पत्ति है. जैसा कि बोपालित कोश में वर्णन है ।

" गवादि यादवं वित्तम्" इति बोपालित: कोश। अर्थात् गो आदि यादवों की सम्पत्ति या वित्त है ।

क्योंकि प्राचीन काल से ही यादव जाति गोसेवक और गोपालक रही है ।

विष्णुपुराण द्वित्तीयाँश तृतीय अध्याय का श्लोक संख्या १६-१७ पर  भी शूर आभीरों का वर्णन है यहाँ शूराभीरों तथा अम्बष्ठों का साथ साथ वर्णन है । यहाँ पारिपात्र निवासी वीरों का भी वर्णन है।

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पतञ्जलि महाभाष्य में आभीरों को शूद्रों से विशेष बताया गया है "

सामान्यविशेषवाचिनोश्च द्वन्द्वाऽभावात्सिद्धम् -

सामान्य और विशेष वाची में दो शब्द होने पर भी द्वन्द्व समास का अभाव होता है ।

सामान्यविशेषवाचिनोश्च द्वन्द्वो न भवतीति वक्तव्यम्।

यदि सामान्यविशेषवाचिनोर्द्वन्द्वो न भवतीत्युच्यते,

यदि समान्य और विशेष वाचि हो तो उनमें द्वन्द्व समान की अवधारणा नहीं करनी चाहिए 

जैसे -

शूद्राभीरम् गोबलीवर्दम् तृणोलपम् इति न सिध्यति। शूद्राभीर' गोबलीवर्द' औरतृणोलप में द्वन्द्व समास सिद्ध नहीं होता 

है । क्योंकि शूद्र  सामान्य है और आभीर विशेष उसी प्रकार 'गो सामान्य पशु हैं और बलीवर्द. वृष बलवान होने से एक विशेष पशु है ।

इसी प्रकार तृण ( तिनका जैसे दूर्वा-दूब सामान्य और उलप एक  विस्तीर्ण लता होने से विशेष है ।

नैष दोषःइह = यहाँ यह दोष नहीं है ।

तावच्छूद्राभीरमिति,- आभीरा जात्यन्तराणि। तबतक शूद्र आभीर को जाति के अन्तर से समझे

"गोबलीवर्दम् इति,- गाव उत्कालितपुंस्का वाहाय च विक्रयाय च, स्त्रिय  एवावशिष्यन्ते।

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अर्थ- वृष (साँड) एक सामान्य गो( बैल) की अपेक्षा विशेष  पशु ही है जो उत्कलित( छुट्टा या मुक्त होकर वृद्धि को प्राप्त होता है ।

 जबकि  बैल अण्डकोश रहित बैल या और कोई पशु जो अडकोश कुचल या लिकालकर' षंड' कर दिया गया हो। नपुसक किया हुआ चोपाया। खस्सी। आख्ता। चौपाया जो आँडू न हो।

विशेष 'गो' शब्द संस्कृत भाषा बहुतायत से पुल्लिंग है। और गौ शब्द स्त्री लिंग में परन्तु अपद रूप रूप में गो - गाय बैल दौंनों का वाचक है ।

अत: यहाँ द्वन्द्व समास का अभाव होता ये द्वन्द्व का अपवाद हैं क्योंकि इसमें समभाव नहीं होते हैं ।

विशेष - यहाँ अहीरों को शूद्रों से विशेष बताया गया है ।

आभीरों को शूद्र  नहीं बताया गया है । क्योंकि यहाँ शूद्र और आभीर में विशेषण और विशेष्य भाव का सम्बन्ध नहीं है । 

<महाभाष्य तृतीय आह्निक  द्वितीय पाद का प्रथम अध्याय -.2.109>

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विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन शूराभीर वर्णन

पूर्व्वदेशादिकाश्चैव कालरूपनिवासिनः ।
पुण्ड्राः कलिङ्गा मगधा दीक्षिणात्याश्च सर्व्वशः ।। 15 ।।

तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभोरास्तथार्ब्बुदाः ।
कारूषा माल्यवांश्चैव पारिपात्रनिवासिनः ।। 16 ।।

सौवीरा-सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकलवासिनः ।
मद्रारामास्तथाम्बष्ठाः पारसीकादयस्तथा ।। 17 ।।

आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सरितां सदा ।
समीपतो महाभागा ह्टष्टपुष्टजनाकुलाः ।। 18 ।।
(विष्णु पुराण द्वितीयाँश अध्याय तीन शूराभीर वर्णन)

विदित हो कि विष्णुपुराण पाराशर की रचना है । जबकि अन्य पुराण कृष्ण द्वैपायन  की रचना हैं मनुस्मृति का १०/१५ पर वर्णित श्लोक जिसमें अभीर जाति को ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न बताया है जबकि विष्णु पुराण में आभीर और अम्बष्ठ का वर्णन यौद्धा वर्ग में  सामानान्तर  रूप में किया है । फिर ब्राह्मण से अम्बष्ठ कन्या में आभीर कब उत्पन्न हुए ? 

कोई पण्डित बता दे

आर्य्य समाजी विद्वान मनुःस्मृति के इस श्लोक को प्रक्षिप्ति मानते हैं ।

जबकि हम तो सम्पूर्ण मनुःस्मृति को ही प्रक्षिप्त मानते हैं 

क्यों बहुतायत से मनुःस्मृति में प्रक्षिप्त रूप ही है । तो शुद्ध रूप कितना है ?

क्यों कि मनुःस्मृति पुष्य-मित्र सुंग के परवर्ती काल खण्ड में जन्मे सुमित भार्गव की रचना है ।

यदि मनुःस्मृति मनु की रचना होती तो इसकी भाषा शैली केवल उपदेश मूलक विधानात्मक होती ;

परन्तु इसमें ऐैतिहासिक शैली का प्रयोग सिद्ध करता है कि यह तत्कालीन उच्च और वीर यौद्धा जन-जातियों को निम्न व हीन या वर्ण संकर बनाने के लिए 'मनु के नाम पर लिखी गयी।

परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है ।'वह भी कल्पना प्रसूत जैसा कि आर्य्य समाज के कुछ बुद्धिजीवी इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देते रहते हैं 👇—

कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।।(10/34) मनुःस्मृति

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः । वृषलत्वं गता लोके ।।(10/43)

पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)मनुःस्मृति

द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10

पुष्यमित्र सुंग कालीन पुरोहितों को जब किसी जन जाति की वंशमूलक उत्पत्ति का ज्ञान 'न होता था तो वे उसे अजीब तरीके से उत्पन्न होने की कथा लिखते हैं।

जैसा यह विवरण प्रस्तुत है ।

इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों हूणों,पारसीयों ,पह्लवों ,शकों ,द्रविडो ,सिंहलों तथा पुण्डीरों (पौंड्रों) की उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि, मूत्र ,गोबर आदि से बता डाली है।👇

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असृजत् पह्लवान् पुच्छात्प्र. स्रवाद् द्रविडाञ्छकान् (द्रविडान् शकान्)।योनिदेशाच्च यवनान्शकृत: शबरान् बहून् ।३६।

मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।पौण्ड्रान् किरातान् यवनान् सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७

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•यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व हेयतापूर्ण व्युत्पत्तियाँ अविश्वसनीय हैं ।

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•नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।

•तथा धनों से द्रविड और शकों को।

•यौनि से यूनानीयों को और गोबर से शबर उत्पन्न हुए।

कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की सृष्टि ।३७।

ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनको विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते ।

अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇

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चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।

•-इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक ,पुलिन्द, चीन ,हूण केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।

(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय)

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भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।          दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।।

•-तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है ।

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(महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय )

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इसी प्रकार का वर्णन वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड के चौवनवे (54 वाँ) सर्ग में वर्णन है कि 👇

इति उक्तः तु तया राम वसिष्ठः सुमहायशाः ।
सृजस्व इति तदा उवाच बलम् पर बल अर्दनम् ॥१-५४-१७॥

तस्य तत् वचनम् श्रुत्वा सुरभिः सा असृजत् तदा ।
तस्या हुंभा रव उत्सृष्टाः पह्लवाः शतशो नृप ॥१-५४-१८॥
नाशयन्ति बलम् सर्वम् विश्वामित्रस्य पश्यतः ।

स राजा परम क्रुद्धः क्रोध विस्फारित ईक्षणः ॥१-५४-१९॥
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैः उच्चावचैः अपि ।

विश्वामित्र अर्दितान् दृष्ट्वा पह्लवान् शतशः तदा ॥१-५४-२०॥
भूय एव असृजत् घोरान् शकान् यवन मिश्रितान् ।

तैः आसीत् संवृता भूमिः शकैः यवन मिश्रितैः ॥१-५४-२१॥
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हेमकिंजल्कसन्निभैः ।
यद्वा -
प्रभावद्भिः महावीर्यैः हेम किंजल्क संनिभैः ।

दीर्घासिपट्टिशधरैर्हेमवर्णाम्बराअवृतैः ॥
यद्वा -
दीर्घ असि पट्टिश धरैः हेम वर्ण अंबर आवृतैः ॥१-५४-२२॥
निर्दग्धम् तत् बलम् सर्वम् प्रदीप्तैः इव पावकैः ।

ततो अस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैः तैः यवन कांभोजा बर्बराः च अकुली कृताः ॥१-५४-२३॥

इति वाल्मीकि रामायणे आदि काव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥१-५४॥

•-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गोै को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक और यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होती हैं ।

अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।

👴...

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभि: सासृजत् तदा ।           तस्या हंभारवोत्सृष्टा: पह्लवा: शतशो नृप।।18।

•-राजकुमार उनका 'वह आदेश सुनकर उस गाय ने उस समय वैसा ही किया उसकी हुँकार करते ही सैकड़ो पह्लव जाति के वीर (पहलवान)उत्पन्न हो गये।18।

पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।  विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।20।

भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रतान् ।। तैरासीत् संवृता भूमि: शकैर्यवनमिश्रतै:।21।।

•-उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई ।।20 -21।।

ततोऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह।             तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृता ।23।

तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन ,कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे ।23।।

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अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में भी देखें---

कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं और गोबर से शक उत्पन्न हुए थे ।

योनिदेशाच्च यवना: शकृतदेशाच्छका: स्मृता। रोमकूपेषु म्लेच्‍छाश्च हरीता सकिरातका:।3।

यौनि देश से यवन शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए रोम कूपों म्लेच्‍छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।।

यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ

बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है।

कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया.

माना जाता है कि चीन के "वी बोयांग" ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली.

बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया.

300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए किया.

इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया ।

बारूद का वर्णन होने से ये मिथक अर्वाचीन हैं ।

अब ये काल्पनिक मनगड़न्त कथाऐं किसी का वंश इतिहास हो सकती हैं ।

हम एसी नकली ,बेबुनियाद आधार हीन मान्यताओं का शिरे से खण्डन करते हैं ।

पश्चिमीय राजस्थान की भाषा की शैली (डिंगल' भाषा-शैली) का सम्बन्ध चारण बंजारों से था।

जो अब स्वयं को राजपूत कहते हैं।

जैसे जादौन ,भाटी आदि छोटा राठौर और बड़ा राठौर के अन्तर्गत समायोजित बंजारे समुदाय हैं 

राजपूतों का जन्म करण कन्या और क्षत्रिय पुरुष के द्वारा हुआ यह ब्रह्मवैवर्त पुराण के दशम् अध्याय में वर्णित है ।

परन्तु ये मात्र मिथकीय मान्यताऐं हैं जो अतिरञ्जना पूर्ण हैं ।👇

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे -

ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

"ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)

←अध्यायः ०९ ) अध्यायः १०

क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।       राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।(1/10।।)

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है

ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।

लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।

पर चारणों का वृषलत्व कम है ।

इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।

चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।

करणी चारणों की कुल देवी है । 

                   ( देव्युवाच)
स तासु नागकन्यासु कालेन महता नृपः ।
जनयामास विक्रान्तान् पञ्च पुत्रान् कुलोद्वहान्।।१।।

मुचुकुन्दं महाबाहुं पद्मवर्णं तथैव च ।
माधवं सारसं चैव हरितं चैव पार्थिवम् ।। २ ।।

एतान् पञ्चसुतान्राजा पञ्चभूतोपमान् भुवि ।
ईक्षमाणो नृपः प्रीतिं जगामातुलविक्रमः।३ ।।

ते प्राप्तवयसः सर्वे स्थिताः पञ्च यथाद्रयः ।
तेजिता बलदर्पाभ्यामूचुः पितरमग्रतः ।। ४ ।।

तात युक्ताः स्म वयसा बले महति संस्थिताः ।
क्षिप्रमाज्ञप्तुमिच्छामः किं कुर्मस्तव शासनात् । ५।।

स तान् नृपतिशार्दूलः शार्दूलानिव वैगितान् ।
प्रीत्या परमया प्राह सुतान् वीर्यकुतूहलात् ।६।

विन्ध्यर्क्षवन्तावभितो द्वे पुर्यौ पर्वताश्रये ।
निवेशयतु यत्नेन मुचुकुन्दः सुतो मम ।। ७ ।।

सह्यस्य चोपरिष्टात्तु दक्षिणां दिशमाश्रितः ।
पद्मवर्णोऽपि मे पुत्रो निवेशयतु मा चिरम् ।८।

तत्रैव परतः कान्ते देशे चम्पकभूषिते ।
सारसो मे पुरं रम्यं निवेशयतु पुत्रकः ।। ९ ।।

हरितोऽयं महाबाहुः सागरे हरितोदके ।
दीपं पन्नगराजस्य सुतो मे पालयिष्यति ।2.38.१०।

माधवो मे महाबाहुर्ज्येष्ठपुत्रश्च धर्मवित् ।
यौवराज्येन संयुक्तः स्वपुरं पालयिष्यति ।११ ।

सर्वे नृपश्रियं प्राप्ता अभिषिक्ताः सचामराः ।
पित्रानुशिष्टाश्चत्वारो लोकपालोपमा नृपाः ।। १२ ।।

स्वं स्वं निवेशनं सर्वे भेजिरे नृपसत्तमाः ।
पुरस्थानानि रम्याणि मृगयन्तो यथाक्रमम् ।। १३ ।।

मुचुकुन्दश्च राजर्षिर्विन्ध्यमध्यमरोचयत् ।
स्वस्थानं नर्मदातीरे दारुणोपलसंकटे ।। १४ ।।

स च तं शोधयामास विविक्तं च चकार ह ।
सेतुं चैव समं चक्रे परिखाश्चामितोदकाः।१५ ।।

स्थापयामास भागेषु देवतायतनान्यपि ।
रथ्या वीथीर्नृणां मार्गाश्चत्वराणि वनानि च ।। १६ ।।

स तां पुरीं धनवतीं पुरुहूतपुरीप्रभाम् ।
नातिदीर्घेण कालेन चकार नृपसत्तमः ।१७ ।।

नाम चास्याः शुभं चक्रे निर्मितं स्वेन तेजसा ।
तस्याः पुर्या नृपश्रेष्ठो देवश्रेष्ठपराक्रमः ।। १८।

महाश्मसंघातवती यथेयं विन्ध्यसानुगा ।
माहिष्मती नाम पुरी प्रकाशमुपयास्यति ।१९ ।

उभयोर्विन्ध्ययोः पादे नगयोस्तां महापुरीम् ।
मध्ये निवेशयामास श्रिया परमया वृताम् ।।2.38.२०।।

पुरिकां नाम धर्मात्मा पुरीं देवपुरीप्रभाम् ।
उद्यानशतसम्बाधां समृद्धापणचत्वराम् ।।२१।।

ऋक्षवन्तं समभितस्तीरे तत्र निरामये ।
निर्मिता सा पुरी राज्ञा पुरिका नाम नामतः ।।२२।।

स ते द्वे विपुले पुर्यौ देवभोग्योपमे शुभे ।
पालयामास धर्मात्मा राजा धर्मे व्यवस्थितः ।। २३ ।।

पद्मवर्णोऽपि राजर्षिः सह्यपृष्ठे पुरोत्तमम् ।
चकार नद्या वेणायास्तीरे तरुलताकुले।
२४।

विषयस्याल्पतां ज्ञात्वा सम्पूर्णं राष्ट्रमेव च ।
निवेशयामास नृपः स वप्रप्रायमुत्तमम् ।२५ ।।

पद्मावतं जनपदं करवीरं च तत्पुरम् ।
निर्मितं पद्मवर्णेन प्राजापत्येन कर्मणा ।२६ ।।

सारसेनापि विहितं रम्यं क्रौञ्चपुरं महत् ।
चम्पकाशोकबहुलं विपुलं ताम्रमृत्तिकम् ।२७ ।

वनवासीति विख्यातः स्फीतो जनपदो महान् ।
पुरस्य तस्य तु श्रीमान् द्रुमैः सार्वर्तुकैर्वृतः ।। २८ ।।

हरितोऽपि समुद्रस्य द्वीपं समभिपालयत् ।
रत्नसंचयसम्पूर्णं नारीजनमनोहरम् ।। २९ ।।

तस्य दाशा जले मग्ना मद्गुरा नाम विश्रुताः ।
ये हरन्ति सदा शङ्खान् समुद्रोदरचारिणः ।2.38.३०।

तस्यापरे दाशजनाः प्रवालाञ्जलसम्भवान् ।
संचिन्वन्ति सदा युक्ता जातरूपं च मौक्तिकम्।।३१।।

जलजानि च रत्नानि निषादास्तस्य मानवाः ।
प्रचिन्वन्तोऽर्णवे युक्ता नौभिः संयानगामिनः।।३२।।

मत्स्यमांसेन तै सर्वे वर्तन्ते स्म सदा नराः ।
गृहणन्तः सर्वरत्नानि रत्नद्वीपनिवासिनः ।।३३।।

तैः संयानगतैर्द्रव्यैर्वणिजो दूरगामिनः ।
हरितं तर्पयन्त्येकं यथैव धनदं तथा ।। ३४ ।।

एवमिक्ष्वाकुवंशात् तु यदुवंशो विनिःसृतः ।
चतुर्धा यदुपुत्रैस्तु चतुर्भिभिद्यते पुनः ।। ३५ ।।

स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुङ्गवे ।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले । ३६ ।।

बभूव माधवसुतः सत्त्वतो नाम वीर्यवान् ।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थितः ।३७ ।।

सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत् ।
येन भैमाः सुसंवृत्ताः सत्त्वतात् सात्त्वताः स्मृताः।।३८।।

राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति ।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा चिच्छेद स मधोर्वनम् ।३९ ।।

तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम् ।
निवेशयामास विभुः सुमित्रानन्दवर्धनः ।। 2.38.४० ।।

पर्यये चैव रामस्य भरतस्य तथैव च ।
सुमित्रासुतयोश्चैव स्थानं प्राप्तं च वैष्णवम् ।४१ ।।

भीमेनेयं पुरी तेन राज्यसम्बन्धकारणात् ।
स्ववशे स्थापिता पूर्वं स्वयमध्यासिता तथा।४२।_______

ततः कुशे स्थिते राज्ये लवे तु युवराजनि ।
अन्धको नाम भीमस्य सुतो राज्यमकारयत् ।। ४३ ।।

अन्धकस्य सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिवः ।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जज्ञे रम्ये पर्वतमूर्धनि ।४४ ।

ततो रैवत उत्पन्नः पर्वतः सागरान्तिके ।
नाम्ना रैवतको नाम भूमौ भूमिधरः स्मृतः।४५।

(हृदीकस्य) रैवतस्यात्मजो राजा विश्वगर्भो (देवमीढो) महायशाः ।
बभूव पृथिवीपालः पृथिव्यां प्रथितः प्रभुः।। ४६ ।।

तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यरूपासु केशव ।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालोपमाः शुभाः।४७।।

(तस्य तिस्र: भार्या - सत्यप्रभा, अष्मिका और गुणवती)

वसुर्बभ्रुः सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान् ।
यदुप्रवीराः प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।।४८।

( वसु-शूरसेन) (वभ्रुू-पर्जन्य) (सुषेण-अर्जन्य) (सभाक्ष-राजन्य)

तैरयं यादवो वंशः पार्थिवैर्बहुलीकृतः ।
यैः साकं कृष्णलोकेऽस्मिन् प्रजावन्तः प्रजेश्वराः।४९।

वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेवः सुतो विभुः ।
ततः स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके ।। 2.38.५० ।।

कुन्तीं च पाण्डोर्महिषीं देवतामिव भूचरीम् ।
भार्यां च दमघोषस्य चेदिराजस्य सुप्रभाम् ।। ५१ ।।

एष ते स्वस्य वंशस्य प्रभवः सम्प्रकीर्तितः ।
श्रुतो मया पुरा कृष्ण कृष्णद्वैपायनान्तिकात् ।। ५२ ।।

त्वं त्विदानीं प्रणष्टेऽस्मिन् वंशे वंशभृतां वर ।
स्वयम्भूरिव सम्प्राप्तो भवायास्मज्जयाय च।५३ ।।

न तु त्वां पौरमात्रेण शक्ता गूहयितुं वयम् ।
देवगुह्येष्वपि भवान् सर्वज्ञः सर्वभावनः ।। ५४ ।।

शक्तश्चापि जरासंधं नृपं योधयितुं विभो ।
त्वद्बुद्धिवशगाः सर्वे वयं योधव्रते स्थिताः ।। ५५ ।।

जरासंधस्तु बलवान् नृपाणां मूर्ध्नि तिष्ठति ।
अप्रमेयबलश्चैव वयं च कृशसाधनाः ।। ५६ ।

न चेयमेकाहमपि पुरी रोधं सहिष्यति ।
कृशभक्तेन्धनक्षामा दुर्गैरपरिवेष्टिता ।। ५७ ।।

असंस्कृताम्बुपरिखा द्वारयन्त्रविवर्जिता ।
वप्रप्राकारनिचया कर्तव्या बहुविस्तरा ।। ५८ ।।

संस्कर्तव्यायुधागारा योक्तव्या चेष्टिकाचयैः ।
कंसस्य बलभोग्यत्वान्नातिगुप्ता पुरा जनैः ।। ५९ ।।

सद्यो निपतिते कंसे राज्येऽस्माकं नवोदये ।
पुरी प्रत्यग्ररोधेव न रोधं विसहिष्यति ।2.38.६०।

बलं सम्मर्दभग्नं च कृष्यमाणं परेण ह ।
असंशयमिदं राष्ट्रं जनैः सह विनङ्क्ष्यति ।। ६१ ।।

यादवानां विरोधेन ये जिता राज्यकामुकैः ।
ते सर्वे द्वैधमिच्छन्ति यत्क्षमं तद्विधीयताम्।६२ ।।

वञ्चनीया भविष्यामो नृपाणां नृपकारणात्।
जरासंधभयार्तानां द्रवतां राज्यसम्भ्रमे ।। ६३ ।।

आर्ता वक्ष्यन्ति नः सर्वे रुध्यमानाः पुरे जनाः ।
यादवानां विरोधेन विनष्टाः स्मेति केशव ।। ६४ ।।

एतन्मम मतं कृष्ण विस्रम्भात्समुदाहृतम्।
त्वं तु विज्ञापितः पूर्वं न पुनः सम्प्रबोधितः ।६५ ।।

यदत्र वः क्षमं कृष्ण तच्च वै संविधीयताम् ।
त्वमस्य नेता सैन्यस्य वयं त्वच्छासने स्थिताः ।
त्वन्मूलश्च विरोधोऽयं रक्षास्मानात्मना सह ।६६ ।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि विकद्रुवाक्यं नामाष्टात्रिंशोऽध्यायः ।।३८ ।।

                          -५०-

            (यदुवंश के बिखरे हुए)

गर्गसंहिता में भी अहीरों या गोपों को यादव ही कहा है । जैसे 

तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे । सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40|| 

 अन्वयार्थ ● हे राजन्- (नृपेश्वर)जो -(ये) मनुष्य- (मनुजा) कलियुग में -(कलौयुगे ) वहाँ जाकर- ( गत्वा) उन द्वारकेश को- (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं- (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं- (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।

हे राजन्- जो  मनुष्य-कलियुग में वहाँ जाकर- उन द्वारकेश को कृष्ण को देखते हैं- वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं-।40।।

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे:।मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41|| 

अन्वयार्थ ● जो कृष्ण और उनके साथ यादव गोपों के-गोलोक गमन - चरित्र को-  निश्चय ही- सुनता है-  वह मुक्ति को पाकर- सभी पापों से- मुक्त होता है-।41

( इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय )

इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे अवतारव्यवस्था नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ 

कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥ २३ ॥

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                            -५१-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇

 ने भी अहीरों को यादव और गोप कहा जैसा कि राधा जी के सन्दर्भ में वर्णन है ⬇ 

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आभीरसुतां (सुभ्रुवां ) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:|83  

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अर्थ:- अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ; जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83|| 

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गर्ग संहिता का रचना  पुष्यमित्र सुँग के समकालीन है क्योंकि गर्ग संहिता के बलभद्र खण्ड के त्रयोदश अध्याय में पतञ्जलि का वर्णन है

संहारकद्रुर्द्रवयुः कालाग्निः प्रलयो लयः महाहिः पाणिनिः शास्त्रभाष्यकारः पतञ्जलिः ॥२२॥

 कात्यायनः पक्विमाभः स्फोटायन उरङ्गमः ॥
 वैकुंठो याज्ञिको यज्ञो वामनो हरिणो हरिः ॥२३॥
इति श्रीगर्गसंहितायां बलभद्रखण्डे प्राड्‌विपाकदुर्योधनसंवादे
बलभद्रसहस्रनामवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
__________
मरीची क्रतुश्चौर्वको लोमशश्च
     पुलस्त्यो भृगुर्ब्रह्मरातो वसिष्ठः ।
 नरश्चापि नारायणो दत्त एव
     तथा पाणिनिः पिङ्‌गलो भाष्यकारः ॥ ९१ ॥
 सकात्यायनो विप्रपातञ्जलिश्चा-
     थ गर्गो गुरुर्गीष्पतिर्गौतमीशः ।
 मुनिर्जाजलिः कश्यपो गालवश्च
     द्विजः सौभरिश्चर्ष्यशृङ्‌गश्च कण्वः ॥ ९२ ॥
(गर्ग संहिता अश्वमेध खण्ड उनसठवाँ अध्याय)
___________________________________

और  (गर्ग संहिता उद्धव -शिशुपालसंवाद विश्वजित खण्ड सप्तम अध्याय )  👇 

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:। वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४। ____________________________

शिशुपाल उद्धव से कहता है कि कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ;उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।

___________________________________

गर्गसंहिता में द्वारिका खण्ड के बारहवें अध्याय में सोलहवें श्लोक में वर्णन है कि  इन्द्र के कोप से यादव अहीरों की रक्षा करने वालो में और गुरु माता' द्विजों को उनके पुत्रों को खोजकर लाकर देने वालों में कृष्ण आपको बारम्बार नमस्कार है ! ऐसा वर्णन है

यादवत्राणकर्त्रे च शक्राद् आभीर रक्षिणे।गुरु मातृ द्विजानां च पुत्रदात्रे नमोनमः ।।१६।।

जरासंधनिरोधार्त नृपाणां मोक्षकारिणे ।।
नृगस्योद्धारिणे साक्षात्सुदाम्नोदैन्यहारिणे ।। १७।।

वासुदेवाय कृष्णाय नमः संकर्षणाय च ।।
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय चतुर्व्यूहाय ते नमः ।।१८।।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च 
सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।१९।।

इति श्रीमद्गर्गसंहितायां श्रीद्वारकाखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे शंखोद्धारमाहात्म्यं नाम द्वादशोऽध्यायः ।। १२ ।।  
                            -५२-

               (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

रूप गोस्वामी ने अपने मित्र "श्री सनातन गोस्वामी" के आग्रह पर ही कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का पुराणों से संग्रह किया था 

"श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका" के नाम से ... परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा जिसमें परवर्ती

रूढ़िवादी यदु  दोषक पुरोहितों के मान्यता का भी सन्दर्भित करते हुए इस पुरोहित वर्ग के गोपालन वृत्ति 

के विषय में परवर्ती दृष्टिकोण को भी वर्णन किया है जो स्मृतियों की मान्यता को पोषक थे ।

यद्यपि यह रूप स्वामी का अपना  कोई मौलिक मत नहीं था परन्तु देव संस्कृति के इन्द्र उपासक पुरोहतों का ही मत था 

जिसमें गोपों को पूर्व दुराग्रह वश वैश्य और शूद्र वर्ण में घसीटने की निरर्थक चेष्टा की है; परन्तु माना यादव ही है जैसे 👇________________________________

"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: । पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।। 

भाषानुवाद–वे सब  व्रजवासी जन ही जो कृष्ण के परिवारी जन  हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल (गोपाल), विप्र, तथा बहिष्ठ (बाहर रहने वाले शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।    

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                             - ५३-

                (यदुवंश के बिखरे हुए)

विप्र का अर्थ गोंडा आभीर ब्राह्मण ही समझना चाहिए।

ज्वाला प्रसाद मिश्र ने जाति भास्कर ग्रन्थ में अहीरों को गोड ब्राह्मण ही लिखा है।श्री श्री राधाकृष्णगणोद्देश्यदीपिका" में 

आगे सातवें श्लोक में रूप स्वामी जी लिखते हैं ।

पशुपाल: त्रिधा वैश्य आभीर गुर्जरा: तथा।गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

भाषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से ही हुई है ।

( इसी वणिकों में समाहित बरसाने के  बारहसैनी बनिया भी अक्रूर यादव के वंशज हैं) ।

तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।। 

सैंतालीवें परिच्छेद में २०१ पृष्ठ पर  अलबरूनी तहकीक ए हिन्द पुस्तक में लिखता है ।

कृष्ण के विषय में " तब उस समय के राजा  कंस की बहिन के गर्भ से वसुदेव के यहाँ एक पुत्र उत्पन्न हुआ  वह वसुदेव एक पशुपालने वाला नीच शूद्र जट्ट परिवार था । 

कंस ने अपनी बहिन के विवाह के समय एक आकाशवाणी को सुना था । 

कि मेरी मृत्यु इसके पुत्र के हाथ से होगी इसलिए उसने आदमी तैनात कर दिये थे ताकि जिस समय उसके कोई सन्तान हो वे उसी समय उसको उठाकर कंस के पास ले आबें और वह उसके सभी बच्चों को -क्या लड़के और क्या लड़की - मार डालता था ।अन्त में वसुदेव के घर एक बलभद्र उत्पन्न हुआ और नन्द ग्वाले की स्त्री यशोदा उठाकर बालक को अपने घर ले गयी वहाँ उसने उस बालक को कंस के गुप्तचरों से छुपा लिया उसके बाद वसुदेव की पत्नी आठवीं बार गर्भवती हुई और भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के आठवें दिन बरसाती रात को  जब चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में चढ़ रहा था । 

 वसुदेव के पुत्र वासुदेव को जन्म दिया ।" (उद्धृत अंश अलबरूनी "तहकीके-हिन्द" २७वाँ परिच्छेद पृष्ठ २०१). यहाँ यह बात स्पष्ट हुई कि वसुदेव और नन्द दोनों पशुपालक गोप थे ।  दूसरी बात यह भी स्पष्ट हुई कि जाटों और जट्टों का सम्बन्ध गोप आभीर समाज से भी है । क्योंकि पुराणों में गोप आभीर के समानार्थक है । 


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                           -५४-

           ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

आगे रूप गोस्वामी जी ने वर्णन किया है

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समीरिता: । अन्येऽनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

भाषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । और ये आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।

अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।। 

 विदित हो की पर्जन्य की माता गुणवती वैश्य वर्ण से सम्बद्ध थी जैसा कि (भागवतपुराण के दशम स्कन्द में वर्णन है 

जिसका भाष्य श्रीधर ने अपनी श्रीधरीटीका में किया है 

 वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " श्लोकांश की व्याख्या पर  श्रीधरीटीका का भाष्य पृष्ठ संख्या 910) पर स्पष्ट किया गया है । 👇

भ्रातरं वैश्य कन्यां शूरवैमात्रेय भ्रातुर् जात्वात् अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति : 

गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं परं च ते यादवा एव " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति स्कान्दे इति ।

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 ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबंधुमनामयम्वैश्यं क्षेमं  समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च ।२९।

(पद्म पुराण स्वर्ग खण्ड अध्याय 51)

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                             -५५-

             (भागवत पुराण में पर्जन्य)

पुराणों का लेखन कार्य काव्यात्मक शैली में पद्य के रूप में हुआ,  एक स्थान पर श्लेष अलंकार के माध्यम से लेखक ने पर्जन्य ' देवमीढ और वर्षीयसी जैसे द्वि-अर्थक शब्दों को वर्षा कालिक अवयवों सूर्य ,मेघ ,और घनघोर वर्षा के साथ साथ यदुवंश के वृष्णि कुल के पात्रों  जो कृष्ण के पूर्वज भी थे ! उनका भी वर्णन कर दिया है ...

यद्यपि यदुवशीयों की  महिला पात्र  (वरीयसी ) के वाचक शब्द है

वर्षीयसी का वर्षा से सम्बन्धित कोई अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध नहीं होता है। भागवत कार ने वर्षीयसी का समृद्ध ही किया है। ...

फिर भी यह  शब्द यहाँ  वर्षा का ही वाचक है यहाँ देवमीढ की पत्नी गुणवती थीं और पर्जन्य की पत्नी वरियसी जो वर्षीयसी का ही रूपान्तरण है ..देखें 

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं ( म्या उदमयं) वसु  स्व गोभिर् मोक्तुम् आरेभे पर्जन्य: काल आगते |5||

तडीत्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिता: |प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचु: करुणा इव ||6||

तप:कृशा देवमीढा आसीद् बर्षीयसी मही |यथैव काम्यतपसस्तनु: सम्प्राप्य तत्फलम् ||7||

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भागवत पुराण स्कन्ध/अध्याय /श्लोक १०/५३/५७

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तं मानिन: स्वाभिभवं यश:क्षयं
परे जरासन्धमुखा न सेहिरे ।
अहो धिगस्मान् यश आत्तधन्वनां
गोपैर्हृतं केशरिणां मृगैरिव ॥५७॥

अनुवाद~

उस समय जरासन्ध के वशवर्ती अभिमानी राजाओं को अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्ति का नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढ़कर कहने लगे- ‘अहो, हमें धिक्कार है। आज हम लोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये  गोप, जैसे सिंह के भाग को हरिण ले जाये, उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये।'

अर्थात् राजकुमारी रुक्मिणी जी रथ पर चढ़ना ही चाहती थीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते उनकी भीड़ में से रुक्मिणी को उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओं के सिर पर पाँव रखकर उन्हें अपने रथ पर बैठा लिया, जिसकी ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न लगा हुआ था। 

इसके बाद जैसे सिंह सियारों के बीच में से अपना भाग ले जाये, वैसे ही रुक्मिणी जी को लेकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने (नारायणी सेना के गोपों) के साथ वहाँ से प्रस्थान किया।

_____


                             -५६-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के बीसवें अध्याय के ये  क्रमश: 5 ,6,7, वें श्लोक द्वयर्थक अर्थों से समन्वित हैं अर्थात् ये दोहरे अर्थों को समेटे हुए हैं 

पर्जन्य देवमीढ के पुत्र और गुणवती के पुत्र और वर्षीयसी ( वरीयसी) उनकी पत्नी हैं ; 

पर्जन्य शब्द पृज् सम्पर्के धातु से बना है जिसका अर्थ या भाव -मिलनसार और सहयोग की भावना रखने के कारण  देवमीढ के पुत्र का पर्जन्य नाम भी हुआ ।

गुणवती देवमीढ की पत्नी का नाम था पर्जन्य की पत्नी वरीयसी थीं ।परन्तु ये परिवार और  प्रतिष्ठा में बड़ी तो थी हीं नामान्तरण से वर्षीयसी भी नाम है !

__________

 अतिशयेन वृद्धः वृद्ध + इयसुन् वर्षादेशः । अतिवृद्धे अमरः स्त्रियां ङीप् ।

वस्तुत: वर्षीयसी शब्द का वर्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है यह वृद्धतरा का वाचक है;( मह् ) पूजायाम् या महति प्रतिष्ठायाम् इति मही वा महिला !

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                           -५७-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

श्लोकों का व्यक्ति मूलक अर्थ राजा पर्जन्य  भूमि वासी प्रजा से आठ महीने तक ही कर लेते हैं 

 वसु  (शूरसेन) भी अपनी गायों को मुक्त कर देते हैं प्रजा के हित में समय आने पर प्रजा से कर भी बसूलते हैं और प्रजा को गलत दिशा में जाने पर ताडित भी करते हैं |5||

जैसे दयालु राजा जब देखते हैं कि भूमि की प्रजा बहुत पीडित हो रही है तो राजा अपने प्राणों को भी प्रजाहित में निसर्ग कर देता है |

जैसे बिजली गड़गड़ाहत और चमक से शोभित महामेघ प्रचण्ड हवाओं  से प्रेरित स्वयं को तृषित प्राणीयों के लिए समर्पित कर देते हैं ||6||

तप से कृश शरीर वाले राजा देवमीढ के पुत्र पर्जन्य की वर्षीयसी नाम की पत्नी और देवमीढ़ की पूजनीया गुण वती रानी थीं उसी प्रकार जो कामना और तपस्या के शरीर से युक्त होकर तत्काल फल को प्राप्त कर लेती थीं 

जैसे देव =बादल   मीढ= जल  देवमीढ -बादलों का जल ज्येष्ठ -आषाढ  में ताप षे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी कृश हो गये ।

                             -५८-

               (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अब देवमीढ के द्वारा वह फिर से हरी फरी होगयी है; जैसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है ।  परन्तु जब इच्छित फल मिल जाता है ; तो वह हृष्ट-पुष्ट हो जाता है |और सत्य भी है कि  "सुन्दरता से काव्य का जन्म हुआ वस्तुत यह एक आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है ।

जिसकी भी हम्हें जितनी जरूरत है ; 'वह वस्तु हमारे लिए उसी अनुपात में ख़ूबसूरत है।
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                             -५९-

            ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

भगवत पुराण के "वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " वसुदेव यह सुनकर कि भाई नन्द आये हुए हैं" श्लोकांश की  श्ररीधरी टीका का अन्वयार्थ :~ यम् भ्रातरं÷ जिस भाई  को | 

वैश्य कन्यायां÷ चन्द्रगुप्त आभीर की गुणवती पुत्री में। शूरवैमात्रेय ÷सूरसैन की विमाता ( सौतेली माँ) की सन्तान विमात्रेय ( विमाता की सन्तान )यहाँ विमाता में "ढक्" प्रत्यय सन्तान बोधक है ।

जैसे :-कुन्त्या:अपत्यम् ढक् । - “कौन्तेय! विनतायाः अपत्यं ढक् "-वैनतेय।

विमातृ मातृसपत्न्याम् ( माता की सौत) ढक् -वैमात्रेय (सौतेला भाई) |

भ्रातुर्जात्वात्÷ सूर के भाई पर्जन्य  के द्वारा उत्पन्न होने से - अर्थात्‌ नन्द से |

अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति : ÷ इसीलिए ज्येष्ठ भाई इस प्रकार दुबारा कहा गया |

गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं÷ (गोपाों की वैश्य कन्या से उत्पन्न होने के कारण वैश्य होना )रूढ़वादी पुरोहितों के द्वारा मान्य है |

                           -६०-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

परं च ते यादवा एव "÷  परन्तु  ये सभी गोप  यादव ही हैं ! ऐसा भी इस श्रीधरी टीका में स्पष्ट ही है ।

वासुदेवेति मां ब्रूत न तु गोपं यदूत्तमम् ।

एकोऽहं वासुदेवो हि हत्वा तं गोपदारकम् ।। १४ ।।

इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे भविष्यपर्वणि पौण्ड्रकोक्तौ एकनवतितमोऽध्यायः ।। ९१ ।।

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पर्जन्य की पत्नी वरियसी और देवमीढ की पत्नी (रानी) का नाम" गुणवती " था | हिन्दी अनुवाद :● शूर की विमाता (सौतेली माँ)गुणवती के पुत्र पर्जन्य शूर के पिता की सन्तान होने से भाई ही हैं;  जो गोपालन के कारण वैश्य वृत्ति वाहक हुए अथवा वैश्य कन्या से उत्पन्न होने के कारण 

यद्यपि दौनों तर्क पूर्वदुराग्रह पूर्ण ही हैं ।क्यों कि माता में भी पितृ बीज की ही प्रथानता होती है जैसे खेत में बीज के आधार पर फसल के स्वरूप का निर्धारण होता है। --दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु विचारणीय है कि गाय विश्व की माता है 

"गावो विश्वस्य मातर: " महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !

और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है ...

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शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥

तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा  शूरसेन नाम से हुए । और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ  !

 तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने (वेैश्य-वृति- कृषि गोपान आदि) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।

_____  

त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
 कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥ ७ ॥

गिरि राज खण्ड अध्याय (६)

तुम्हारे सामान वैभव नन्द राज के घर में कहीं नहीं है  नन्द राज तो किसान गोष्ठों के अधि पति और दीन हृदय वाले हैं ।७।

                  श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
 क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥ २६ ॥

गर्गसंहिता गिरिराज खण्ड अध्याय( ६)

__________

संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के तीन अर्थ सर्व मान्य संस्कृत धातु पाठ में उल्लिखित हैं ।
 १–गमन करना To go  २– मारना to kill  ३– हल (अरम्) चलाना …. Harrow मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना ।
_______________________________
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य  या आयर चरावाहे ही थे । 
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! 
पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व  कार्त्स्न्यायन धातुपाठ में
…ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -(जाता है) उद्धृत है।

वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. 
identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है । 
जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है …….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis हैं । 
ire- मारना क्रोध करना आदि हैं ।
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अर्य शब्द की व्युत्पत्ति ( ऋ+यत्)-आर्य+अण्=आर्य   पुल्लिंग रूप- ( वैैश्यों का समूह )

संस्कृत कोशों में अर्य का अर्थ -१. स्वामी । २. ईश्वर और ३. वैश्य  है।

 संस्कृत धातु कोश में ऋ का सम्प्रसारण अर होता है अर्- धातु ( क्रिया मूल) का अर्थ 'हल चलाना' है 

समानार्थक:ऊरव्य,ऊरुज,अर्य,वैश्य,भूमिस्पृश्,विश्
2।9।1।1।3

ऊरव्या ऊरुजा अर्या वैश्या भूमिस्पृशो विशः।

आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने॥

पत्नी : वैश्यपत्नी

पदार्थ-विभागः : समूहः, द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः

अर्य पुं।

स्वामिः

समानार्थक:अर्य

3।3।147।1।2

पर्जन्यौ रसदब्देन्द्रौ स्यादर्यः स्वामिवैश्ययोः। तिष्यः पुष्ये कलियुगे पर्यायोऽवसरे क्रमे॥

पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः

संस्कृत भाषा मे आरा और आरि शब्द हैं परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु नहीं है। 
सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो । 

अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, " अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो।
 यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो । 

"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य  और तत्पश्चात " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है।

विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।

इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है।

पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है। 
आर्य का अर्थ स्वामि , और वैश्य ही है ।

फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है । 

फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मन्, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।

प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण ही था ।
 इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही।

ऋग्वेद के प्रारम्भिक सन्दर्भों में आर्य शब्द कृषक का ही वाचक है । जब अन्न उत्पादन करने के लिए भूमि को प्राप्त करना  कृषि के लिए बड़ी उपलब्धि माना जाता था 

अ॒हं भूमि॑मददा॒मार्या॑या॒हं वृ॒ष्टिं दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ।     अ॒हम॒पोअ॑नयं वावशा॒ना मम॑ दे॒वासो॒ अनु॒ केत॑मायन् ।२। ऋग्वेद 4/26/2

पद पाठ:- अ॒हम् । भूमि॑म् । अ॒द॒दा॒म् । आर्या॑य । अ॒हम् । वृ॒ष्टिम् । दा॒शुषे॑ । मर्त्या॑य ।

अ॒हम् । अ॒पः । अ॒न॒य॒म् । वा॒व॒शा॒नाः । मम॑ । दे॒वासः॑ । अनु॑ । केत॑म् । आ॒य॒न् ॥२।

अर्थ- मैंने कृषि करने वाले (आर्य) के लिए भूमि को दिया मैने ही मनुष्यों के लिए फसल (फलस्) की वृद्धि के लिए वर्षा मैंने ही शब्द करते हुए जल को सभी प्रदेशों में प्रवाहित किया सभी देवता अग्नि जल वायु आदि मेरे संकल्प से ही अपने कार्यों का निर्वहन करते हैं।

"अहं वामदेव इन्द्रो वा आर्याय मनवे "भूमिं पृथ्वीम् अददां दत्तवानस्मि । दाशुषे हविर्दत्तवते मर्त्याय मनुष्याय यजमानाय "वृष्टिं सस्याद्यभिवृद्धयर्थं वृष्टिलक्षणमुदकम् अहम् एव अददाम् । किच "अहं वावशानाः शब्दायमानाः "अपः उदकानि "अनयं सर्वमपि प्रदेशम् अगमयम् । देवासः वह्न्यादयो देवाः "मम "केतं मदीयं संकल्पम् अनु आयन् अनुयन्ति ।।

इंद्रं॒ वर्धं॑तो अ॒प्तुरः॑ कृ॒ण्वंतो॒ विश्व॒मार्यं॑ ।अ॒प॒घ्नंतो॒ अरा॑व्णः ॥५।। ऋगवेद 9/63/5

इन्द्र जल की वृद्धि करते हुए इस संसार को कृषक बनाओ और जो जल को रोकने  वाले कारक हैं उनको नाश करो

“इन्द्रं “वर्धन्तः वर्धयन्तः “अप्तुरः उदकस्य प्रेरकाः “विश्वं सोममस्मदीयकर्मार्थम् “आर्यं भद्रं “कृण्वन्तः कुर्वन्तः "अराव्णः अदातॄन "अपघ्नन्तः विनाशयन्तः । अभ्यर्षन्तीत्युत्तरया संबन्धः ॥ ॥ ३० ॥



उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! (शूरसेन और अग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ में वर्णन है कि

कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥

•-प्राचीन  समय की बात है यमुना नदी के सुंदर तट पर मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।

द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै ॥ ५५ ॥

शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्।वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना ।५६॥

(उसके पिता का नाम मधु )  वरदान पाकर वह  पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ;  हे  महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहां मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई ।।

स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः॥ ५७॥

सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ॥५८॥

उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु  और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥

_____________________________________
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥

_________
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥

तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ  ! 

तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।

उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे !  वास्तव में (शूरसेन और अग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल॥६२॥

अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।

दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥

वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥

कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।

तच्छ्रुत्वा वचनं कंसो विस्मितोऽभून्महाबलः ।
देववाचं तु तां मत्वा सत्यां चिन्तामवाप सः ॥ ६५ ॥

किं करोमीति सञ्चिन्त्य विमर्शमकरोत्तदा ।
निहत्यैनां न मे मृत्युर्भवेदद्यैव सत्वरम् ॥ ६६ ॥

उपायो नान्यथा चास्मिन्कार्ये मृत्युभयावहे ।
इयं पितृष्वसा पूज्या कथं हन्मीत्यचिन्तयत् ॥ ६७ ॥

पुनर्विचारयामास मरणं मेऽस्त्यहो स्वसा ।
पापेनापि प्रकर्तव्या देहरक्षा विपश्चिता ॥६८ ॥

प्रायश्चित्तेन पापस्य शुद्धिर्भवति सर्वदा ।
प्राणरक्षा प्रकर्तव्या बुधैरप्येनसा तथा ॥ ६९ ॥

विचिन्त्य मनसा कंसः खड्गमादाय सत्वरः ।
जग्राह तां वरारोहां केशेष्वाकृष्य पापकृत् ॥ ७० ॥

कोशात्खड्गमुपाकृष्य हन्तुकामो दुराशयः ।
पश्यतां सर्वलोकानां नवोढां तां चकर्ष ह॥७१

हन्यमानाञ्च तां दृष्ट्वा हाहाकारो महानभूत् ।
वसुदेवानुगा वीरा युद्धायोद्यतकार्मुकाः ॥७२ ॥

मुञ्च मुञ्चेति प्रोचुस्तं ते तदाद्‌भुतसाहसाः ।
कृपया मोचयामासुर्देवकीं देवमातरम् ॥ ७३ ॥

तद्युद्धमभवद्‌ घोरं वीराणाञ्च परस्परम् ।
वसुदेवसहायानां कंसेन च महात्मना ॥ ७४ ॥

वर्तमाने तथा युद्धे दारुणे लोमहर्षणे ।
कंसं निवारयामासुर्वृद्धा ये यदुसत्तमाः ॥ ७५॥

पितृष्वसेयं ते वीर पूजनीया च बालिशा ।
न हन्तव्या त्वया वीर विवाहोत्सवसङ्गमे।७६ ॥

स्त्रीहत्या दुःसहा वीर कीर्तिघ्नी पापकृत्तमा ।
भूतभाषितमात्रेण न कर्तव्या विजानता।७७॥

अन्तर्हितेन केनापि शत्रुणा तव चास्य वा ।
उदितेति कुतो न स्याद्वागनर्थकरी विभो ।७८ 

यशसस्ते विघाताय वसुदेवगृहस्य च ।
अरिणा रचिता वाणी गुणमायाविदा नृप।७९ ॥

बिभेषि वीरस्त्वं भूत्वा भूतभाषितभाषया ।
यशोमूलविघातार्थमुपायस्त्वरिणा कृतः ।८०॥

पितृष्वसा न हन्तव्या विवाहसमये पुनः ।
भवितव्यं महाराज भवेच्च कथमन्यथा।८१ ॥

एवं तैर्बोध्यमानोऽसौ निवृत्तो नाभवद्यदा ।
तदा तं वसुदेवोऽपि नीतिज्ञः प्रत्यभाषत ।८२॥

कंस सत्यं ब्रवीम्यद्य सत्याधारं जगत्त्रयम् ।
दास्यामि देवकीपुत्रानुत्पन्नांस्तव सर्वशः ॥८३॥

जातं जातं सुतं तुभ्यं न दास्यामि यदि प्रभो ।
कुम्भीपाके तदा घोरे पतन्तु मम पूर्वजाः।८४॥

श्रुत्वाथ वचनं सत्यं पौरवा ये पुरःस्थिताः ।
ऊचुस्ते त्वरिताः कंसं साधु साधु पुनःपुनः।८५।

न मिथ्या भाषते क्वापि वसुदेवो महामनाः ।
केशं मुञ्च महाभाग स्त्रीहत्या पातकं तथा ॥ ८६ ॥

                    (व्यास उवाच)

एवं प्रबोधितः कंसो यदुवृद्धैर्महात्मभिः ।
क्रोधं त्यक्त्वा स्थितस्तत्र सत्यवाक्यानुमोदितः ॥ ८७ ॥

ततो दुन्दुभयो नेदुर्वादित्राणि च सस्वनुः ।
जयशब्दस्तु सर्वेषामुत्पन्नस्तत्र संसदि ॥ ८८ ॥

प्रसाद्य कंसं प्रतिमोच्य देवकीं
     महायशाः शूरसुतस्तदानीम् ।
जगाम गेहं स्वजनानुवृत्तो
     नवोढया वीतभयस्तरस्वी ॥ ८९ ॥
______________________________________

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥, ,

जघान शक्रो वज्रेण सर्वान्धर्मबहिष्कृतान्
नहुषस्य प्रवक्ष्यामि पुत्रान्सप्तैव धार्मिकान्९१।

। पर एव च
अयातिर्वियातिश्चैव सप्तैते वंशवर्द्धनाः।९२।

यतिः कुमारभावेपि योगी वैखानसोभवत्
ययातिरकरोद्राज्यं धर्मैकशरणः सदा।९३।

________________________________
शर्मिष्ठा तस्य भार्याभूद्दुहिता वृषपर्वणः
भार्गवस्यात्मजा चैव देवयानी च सुव्रता।९४।

ययातेः पंचदायादास्तान्प्रवक्ष्यामि नामतः
देवयानी यदुं पुत्रं तुर्वसुं चाप्यजीजनत् ।।९५।
__________________

तथा द्रुह्यमणं पूरुं शर्मिष्ठाजनयत्सुतान्
यदुः पूरूश्च भरतस्ते वै वंशविवर्द्धनाः।।९६।

पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोसि पार्थिव
यदोस्तु यादवा जाता यत्र तौ बलकेशवौ९७।

भारावतारणार्थाय पांडवानां हिताय च
यदोः पुत्रा बभूवुश्च पंच देवसुतोपमाः९८।
_______________________________

सहस्रजित्तथा ज्येष्ठः क्रोष्टा नीलोञ्जिको रघुः
सहस्रजितो दायादः शतजिन्नाम पार्थिवः९९।

शतजितश्च दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः
हैहयश्च हयश्चैव तथा तालहयश्च यः१०० 1.12.100

हैहयस्य तु दायादो धर्मनेत्रः प्रतिश्रुतः
धर्मनेत्रस्य कुंतिस्तु संहतस्तस्य चात्मजः१०१।

संहतस्य तु दायादो महिष्मान्नाम पार्थिवः
आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रसेनः प्रतापवान्।।१०२।

वाराणस्यामभूद्राजा कथितः पूर्वमेव हि
भद्रसेनस्य पुत्रस्तु दुर्दमो नाम धार्मिकः।।१०३।

दुर्दमस्य सुतो भीमो धनको नाम वीर्यवान्
धनकस्य सुता ह्यासन्चत्वारो लोकविश्रुताः।१०४।

कृताग्निः कृतवीर्यश्च कृतधर्मा तथैव च
कृतौजाश्च चतुर्थोभूत्कृतवीर्याच्च सोर्जुनः।।१०५।

_________

पंचाशीतिसहस्राणि वर्षाणां च नराधिपः
सप्तद्वीपपृथिव्याश्च चक्रवर्ती बभूव ह११६।

स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव हि
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोभवत् ।।११७।

इति श्रीपाद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखंडे यदुवंशकीर्तनं नाम द्वादशोऽध्यायः१२।

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                            -६१-

          ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

राजा लोग गो की रक्षा और पालन का पुनीत उत्तर दायित्व सदीयों से निर्वहन करते रहे हैं ।

राजा दिलीप भी नन्दनी गाय की सेवा करते हैं परन्तु वे क्षत्रिय ही हैं गो सेवा करने से वैश्य नहीं हुए ..

परन्तु ये तर्क कोई दे कि दुग्ध विक्रय करने से यादव या गोप वैश्य हैं तो सभी किसान दुग्ध विक्रय के द्वारा अपनी आर्धिक आवश्यकताओं का निर्वहन करते ही हैं !और सबसे बड़े क्षत्रिय किसान ही हैं ।

अहीर अथवा गोप शूद्र हैं तो वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री शूद्रा क्यों नहीं है ?

गायत्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी ।
न गायत्र्याः परं जप्यमेतद् विज्ञाय मुच्यते ।। १४.५९

(कूर्म पुराण उत्तर भाग अध्याय १४का ५९वाँ श्लोक)

देखें पद्म पुराण के प्रथम सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ के श्लोक संख्या  में गायत्री माता को  नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है ।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १७ में वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री माता  का आख्यान वर्णित है ।

जिसे गोप आभीर और यादवी सम्बोधन से वर्णन किया है-

"एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः           सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः।११८।

सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति।११९।

त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।

पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।
___________
वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।

मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।
______________
शक्रेणान्याहृता आभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा।१२४।।

कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया ।१२५।।

वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।
____________________________________
पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।।

पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।।

द्योतयंती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।।१२९।।

पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।।१३०।।

कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।।१३१।
_______________
प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।।१३२।

उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।।१३३।।
________
उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।।१३४।।

मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।।१३५।।

यद्वदंति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।।१३६।।

भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।।

कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।।

कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।।

यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।।१४०।।

भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
                  (ब्रह्मोवाच)
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।।१४१।।
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पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना ।१४२।।

गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।।१४३।।

पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
                    (पुलस्त्य उवाच)
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।।

यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।।१४५।।
________________________________
नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।।१४६।।

करिष्यंति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।।१४७।।
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भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम्
यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।।१४८।।

यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।।

अकिंचनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः
पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।।१५०।।
           (पद्म पुराण 1.17.150)

         सावित्री द्वारा विष्णु को शाप-
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शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत्
भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।।१५१।।

भार्यावियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे
हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२।।

न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः
भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।।१५३।
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यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं भ्रमिष्यसि।।१५४।

तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः
तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।।१५५।।

भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि
तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।।१५६।।

(पद्म पुराण 1/17/156)

घोरचारा क्रियासक्ता दारिद्र्यच्छेद कारिणी।       यादवेन्द्र- कुलोद्भूता तुरीय- पदगामिनी ।।६।।

गायत्री गोमती गङ्गा गौतमी गरुडासना।        गेयगानप्रिया गौरी गोविन्द पदपूजिता।७।।

(श्रीगायत्री अष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्-)

★-वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं गोपी तो कहीं अभीरू /आभीरी तथा कहीं यादवी भी कहा है ।

★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड  में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है।  क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे  । यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।

प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया - परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी  अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा ! 

तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !

यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों  ,विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर    उनके प्रति क्रुद्ध होकर  इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्द में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी  

तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक  गोप- आभीर कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी तोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।

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विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्र नाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा  कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है ।

यादव गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है ।

                              -६२-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सौलह के श्लोक

एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं।
स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१।।

आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।।

न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना
ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।।

संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसंपदा
यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।१३४।।

तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम्
तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५।।

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                            -६३-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा 

तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके 

परन्तु एक (नरेन्द्र सैन) आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर  दंग रह गये ।।

उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी ।।।

इन्द्र ने तब  ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।

उस के शरीर सौन्दर्य से चकित इन्द्र  देखा कि यही कन्या ब्रह्मा जी की यज्ञ सहचारिणी होनी चाहिए ।

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                             -६४-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है ।

 👇

गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमंडकम्।।१५६।।

गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ यह नवनीत है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है ।१५६।।निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री है ।

आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि
गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम् ।१६५।निम्न श्लोक में भी देखें ।

एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।उस गोप कन्या को देख कर जो गौर वर्ण और महान तेज वाली थी वह गोप कन्या अपने पिता की आज्ञा के पराधीन होने से भी चिन्तित थी जब तक वह गोप कन्याअपने पिता से आज्ञा नही लेती है किसी की सहचारिणी नहीं बन सकती है।

                              -६५-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

तब ब्रह्मा ने हरि ( इन्द्र) को कहा की यज्ञ के लिए शीघ्र कहो ।।१८४।

तब इन्द्र नरेन्द्र सेन अहीर के पास उनकी पुत्री को ब्रह्मा के लिए माँगने जाता है।

गायत्री जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं । परन्तु पुराणों गायत्री को आभीर कन्या ही लिखा है । 

गूजर और अहीर दोनों ही गोप हैं यदुवंश से भी उत्पन्न हैं 

परन्तु आज गूजर एक संघ ही है जिसमें अनेक जातियों का समावेश है ।

गोपों के विषय में जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या  368 पर वर्णित है।👇

अस्त्र हस्ता: च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

मत्संहनन तुल्यानां  गोपानामर्बुदं महत्।नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।।

(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम- अथवा पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं। आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः का समानार्थक: जैसे १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ -( गौश्चर: )गोचर ।

(2।9।57।2।5)(अमरकोशः) 

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                          -६६-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

हरिवंश पुराण में यदुवंश के विषय में यदु को अपनी पुत्रीयाँ को पत्नी रूप में देने वाले नागराज धूम्रवर्ण 'ने भविष्य वाणी करते हुए कहा कि यदु तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇

भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।

(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )

जैसे १-कुक्कुर, २-भोज, ३-अन्धक, ४-यादव ,५-दाशार्ह ,६-भैम  और ७-वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे । अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि  कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे क्या यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।

क्योंकि ये भी यदु के वंश में जन्में थे ।

फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से यहाँ आ गया ।सरे आम बकवास है ये तो !

आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।

१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।

राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।

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                              -६७-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

परन्तु भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय तैईस के श्लोक संख्या १९ से  ३१ तक यदु के पुत्रों का वर्णन भिन्न नामों से और संख्या में भी भिन्न है ।

जिसमें यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित थे ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु थे

सहस्रजित केे पुुुुुत्र शतजित थे जिनके तीन पुत्र महाहय, वेणुहय और हैहय हुए ।

दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वंवंशं राज्यकामुक: ।ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ १९ 
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।

यदो: सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता: ॥ २० ॥

चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ॥ २१ ॥

धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्ते: पिता तत: ।सोहञ्जिरभवत् कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनक: ॥ २२ ॥

                            -६८-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

दुर्मदो भद्रसेनस्य धनक: कृतवीर्यसू: ।          कृताग्नि: कृतवर्मा च कृतौजा धनकात्मजा: ॥ २३ ॥

अर्जुन: कृतवीर्यस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत् ।दत्तात्रेयाद्धरेरंशात् प्राप्तयोगमहागुण: ॥ २४ ॥

न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवा: ।यज्ञदानतपोयोगै: श्रुतवीर्यदयादिभि: ॥ २५ ॥

पञ्चाशीतिसहस्राणि ह्यव्याहतबल: समा: ।अनष्टवित्तस्मरणो बुभुजेऽक्षय्यषड्‍वसु ॥२६॥

तस्य पुत्रसहस्रेषु पञ्चैवोर्वरिता मृधे ।जयध्वज: शूरसेनो वृषभो मधुरूर्जित: ॥ २७॥

जयध्वजात् तालजङ्घस्तस्य पुत्रशतं त्वभूत् ।क्षत्रं यत् तालजङ्घाख्यमौर्वतेजोपसंहृतम् ॥ २८ ॥

तेषां ज्येष्ठो वीतिहोत्रो वृष्णि: पुत्रो मधो: स्मृत:।

                              -६९-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश) 

तस्य पुत्रशतं त्वासीद् वृष्णिज्येष्ठं यत: कुलम् ॥ २९ ॥माधवा वृष्णयो राजन् यादवाश्चेति संज्ञिता: ।

यदुपुत्रस्य च क्रोष्टो: पुत्रो वृजिनवांस्तत: ।३०।।

स्वाहितोऽतो विषद्गुर्वै तस्य चित्ररथस्तत: ॥ 
शशबिन्दुर्महायोगी महाभागो महानभूत् ।३१।।

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                            -७०-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

हरिवंश पुराण में आगे वर्णन है कि  सत्वत्त के पुत्र भीम हुए । 

इनके वंशज भैम कहलाये जब राजा भीम आनर्त देश (गुजरात) पर राज्य करते थे और तब उस समय 

अयोध्या में राम का शासन था ।अब प्रश्न यह भी उदित होता है कि यदु के पुत्र 

अत: आभीर ही ययाति पुत्र यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित  ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु की सन्तानें कहाँ गये ?

वास्तव में वे आभीर नाम से ही इतिहास में वर्णन किए गये।ये ही यदु की शुद्धत्तम सन्तानें हैं ।

आभीर आज तक गोपालन वृत्ति और कृषि वृत्ति से जीवन यापन कर रहे हैं ।

कृष्ण और बलराम कृषि संस्कृति के सूत्रधार और प्रवर्तक थे । चरावाहों से ही कृषि संस्कृति का विकास हुआ ये ही गोप  गोपालन वृत्ति से और आभीर वीरता अथवा निर्भीकता प्रवृत्ति से और यादव  वंश मूलक रूप से हुए (यदोर्गोत्रो८पत्यम् ) से यदु में सन्तान वाचक 'अण्' प्रत्यय करने पर यादव बना  ,ये मानव जाति यादव कहलायी ...

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                            - ७१-

                  (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

वादारभ्य नन्दस्य व्रजो धनपुत्रपश्वादि सर्वसमृद्धिमान् जात:।  यत: हरेर्निवासेन हेतुना ये आत्मनो व्रजस्य गुणा: सर्वप्रियत्वादयस्तै: रमाया: आक्रीडं विहारस्थानमभूत् ।।१८।

गोपान् इति । हे कुरुद्वह ! नन्द: एवं  श्रीकृष्णमहोत्सवं कृत्वा गोकुलरक्षायां गोपान् निरुप्य आदिश्य कंसस्य वार्षिक्यं प्रतिवर्षं देयं करं स्वामिग्राह्यं भागं वार्षिकं तत्र साधुरत्नाद्युपायनयुक्त दातुं मथुरां गत: ।।१९।।  

वसुदेव: इति वसुदेव: भ्रातरं  सन्मित्रं नन्दं आगतमुपश्रुत्य "राज्ञे करो दत्त येन " तथाभूतं ज्ञात्वा च तस्य नन्दस्यावमोचनं  अवमुच्यते शकटादि यत्र तत् स्थान ययौ ।

भ्रातरमित्यत्र वैश्यकन्यायां शूरपत्नीभ्रातृजातत्वेन मातुलपुत्रत्वात् । अतएवाग्रे भ्रातरिति मुहुरुक्ति: । मध्वाचार्यश्च वैश्यकन्यायां शूरवैमात्रेय भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च । तस्मै मया स वर: सन्निसृष्ट: स चास नन्दाख्य उतास्य भार्या ।। नाम्ना यशोदा स च शूरतातसुतस्य  वैश्यप्रभवोऽथ गोप:  ।। इति प्राहु: एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेषा एव वैश्यकन्या उद्भवत्वाद् परं वैश्यत्वं । अतएव स्कान्दे मथुराखण्डे ।" रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणार्थ " इति । यादवानां  हितार्थाय धृतो गोवर्द्धनो  मया " इति च हरिवंशेऽपि " । " यादवेष्वपि सर्वेषु भवन्तो मम बान्धवा: " इति रामवाक्यम् ।२०।।      

भावार्थ-

नन्द की इस प्रकार बात प्रारम्भ कर कथाकार कहता है कि  "ब्रज में ,धन ,पुत्र और पशु आदि सभी समृद्धि से युक्त जो कुछ हुआ था।

उन सबका कारण श्रीहरि (भगवान कृष्ण) निवास करना ही था ।

ब्रज के गुणों में वृद्धि और उसकी सर्व-प्रियता के पात्र रूप में  हरि का रमा (लक्ष्मी) के साथ लीला करना ही था  ।१८। 

गोपों को इस प्रकार यथाकार्य करने का निर्देश देकर नन्द जी श्रीकृष्ण के महोत्सव को सम्पादन करके  गोकुल की रक्षा में उन गोपों को नियुक्त कर इस प्रकार कंस का प्रतिवर्ष दिया जाने वाले वार्षिक कर( टैक्स) रूप में अच्छे- अच्छे रत्न आदि उपहार में देने के लिए  मथुरा गये ।।।१९। 

वसुदेव ने इस प्रकार अपने भाई और सन्मित्र (अच्छे मित्र) नन्द का आगमन सुनकर और " राजा कंस  को जिन्होंने कर दे दिया हो" उन्हीं नन्द जी के आगमन-विषय में जानकर हर्षयुक्त हो वसुदेव जी नन्दजी के पढ़ाव अर्थात् शिविर की ओर चल पड़े ।

जहाँ नन्द जी ने अपने शकट अर्थात् (छकड़े या बैलगाड़ी ) आदि ढ़ील दिये थे।

कुछ टीकाकारों के अनुसार भी 

ये नन्दजी वसुदेव के भाई इस प्रकार थे कि "शूरसेन की पत्नी के भाई के पुत्र होने से भी तथा वणिक-कन्या वरीयसी से उत्पन्न होने से भी " इसीलिए प्रस्तुत टीका में नन्द को अग्रभ्रातृ (अग्रज) अथवा बड़ा भाई कहकर इस प्रकार से उन्हें पुन: पुन: कहा गया ( परन्तु वाद ( मत) यह प्रस्तुत किया है कि इनकी जाति मातृवत् - माता के समान होने से वैश्य हुई  । इस विषय में मध्याचार्य ने भी यह मत अथवा (वाद) प्रस्तुत किया कि "देवमीढ़ के द्वारा  वैश्यकन्या गुणवती में उत्पन्न (पर्जन्य) के पुत्र नन्द थे । 

अत: वसुदेव और नन्द दौनों के पितामह ( बाबा) एक ही देवमीढ थे इस लिए भी नन्द को वसुदेव ने बड़ा भाई कहा ।

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विशेष- कुछ पुराण वसुदेव को उम्र में बड़ा वर्णन करते हैं।

क्यों कि वसुदेव के पिता सूरसेन की सौतेली माता  गुणवती जिनसे देवमीढ़ के द्वारा पर्जन्य का जन्म हुआ और पर्जन्य के पुत्र नन्द जी थे।

अत: एक पितामह के पौत्र ( नाती) होने से नन्द और वसुदेव परस्पर भाई ही थे  जो क्रमश: देवमीढ़ के पुत्र पर्जन्य और सूरसेन के पुत्र थे ।  

कुछ टीकाकार नन्द के गोप होने का एक तर्क यह भी प्रस्तुत करते हैं!

जो पूर्णत: असंगत और सिद्धान्त(वाद )विरुद्ध ही है कि  शूरसेन के पिता देवमीढ़ के पुत्र पर्जन्य का वैश्य वर्ण की स्त्री में उत्पन्न होने  से भी पर्जन्य की गोप संज्ञा गोपालन की वैश्य वृत्ति के कारण हुई थी।

इस प्रकार अन्य मत से ये गोप देवमीढ़ की सन्तति  होने से यादव विशेष ही थे जो वैश्य कन्या में उत्पन्न होने से तथा वैश्य वृत्ति ( गोपालन आदि ) के कारण वेैश्यता ( वैश्य वर्ण ) को प्राप्त हुए । 

परन्तु वंशगत रूप से ये गोप यादव ही थे।

इसीलिए भी स्कन्द पुराण के मथुरा खण्ड में गोपों के विषय वर्णन करते हुए उन्हें यादव सम्बोधित किया गया है।

"रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति = इन्द्र का वर्षा के निवारण करने से श्रीहरि ने

सभी यादवों की रक्षा की  और हरिवंश पुराण में लिखा है कि यादवों के हित के लिए मेरे ( कृष्ण के)  द्वारा श्रेष्ठ गोवर्द्धन पर्वत धारण किया गया था।

 यह तथ्य  हरिवंश पुराण में भी वर्णित है।

गोपों के लिए बलराम का यह कहना भी प्रसिद्ध है कि यादवों में आप (गोप ) मेरे लिए सबसे प्रिय हो "

ये बाते तो भागवत पर टीकाकारों की थीं परन्तु देवीभागवत में वसुदेव को गोप रूप में गोपालन वृत्ति को धारण कर जीवन निर्वाह करते हुए वर्णन किया गया है । इसमें तो टीकाकारों की टीकाऐं भी धूमिल पड़ जाती हैं।

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प्रस्तुत हैं अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा !

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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौकिकम् ।स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। 

 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 

अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।

वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।_________________________________________

गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२ हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०।

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स मानुष्ये कथं बुद्धिं चक्रे चक्रगदाधरः।
गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वभौतिकम्।। १४ ।।

स कथं गां गतो विष्णुर्गोपत्वमकरोत्प्रभुः।
महाभूतानि भूतात्मा यो दधार चकार च।। १५ ।।
ब्रह्म पुराण अध्याय (१७९)

अत्रावतीर्णयोः कुष्ण गोपा एव हि बान्धवाः।
गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।

दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।। १८५.३३

(ब्रह्मपुराण १८५ वाँ अध्याय)

बलदेवोऽपि विप्रेन्द्राः प्रशान्ताखिलविग्रहः।ज्ञातिदर्शनसोत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम्।। (ब्रह्म)  

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                             -७२-

            ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

< हरिवंशपुराणम्‎ | पर्व १ (हरिवंशपर्व)

हरिवंशपुराणम्अध्यायः ४०

जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा

चत्वारिंशोऽध्यायः

स्कन्दपुराणम्/खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)/प्रभापुराण१९७.८सक्षेत्र माहात्म्यम्/अध्यायः ००९ में भी यही श्लोक कुछ पदों के अन्तर से है।

गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ॥ स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः ॥२६ । 

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तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।

देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण

                         "ब्रह्मोवाच"

नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।

•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 

भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।

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                             -७३-

           ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।     यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।

•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।

तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।२०।।

•–तथा उन समस्त असुरों का  संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !

–२०।

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।

•– विष्णो ! पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 

जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।

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                             -७४-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।

•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ नीयत खराब हो गयी।।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

•–तब वरुण मेरे पास आये  और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।

•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था ; वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।

                             -७५-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५।

•-  मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं।

तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।

•– देव जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।

•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं

क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।

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                           -७६-

             ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।

•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।मम गाव:  प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।

•–इस कार्यका जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं ।

मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए  तभी में समुद्र के जाऊँगा ।।२९।

या आत्मदेवता गावो या: गाव: सत्त्वमव्ययम् ।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।।३०।

•–इन गोऔं के देवता साक्षात् पर ब्रह्म परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं 

आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।  

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                              -७७-

               (यदु वंश के बिखरे हुए अंश)

त्रातव्या: प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।

•–पहले गोओं की रक्षा करनी चाहिए  फिर सुरक्षित हुईं गोऐं ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं 

गोऔं औ ब्राह्मणों की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।

⬇" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३२।।

•–विष्णु ! जल के स्वामी  वरुण के ऐसा कहने पर  गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३३।

•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से  वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।

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                             -७८-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ।तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।३४।।

•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ; तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक में जाऐंगी ।।३४।

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।

•–गोप के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ  रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।

वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।गिरि गोवर्धनो नाम मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।

•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात होगोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेगा जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।

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                           -७९-

            (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य  कर दायक:।तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्च ते।३७।

•-जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।

अदिति और सुरभि नाम की उनकी दौनों पत्नीयाँ  होंगी ।३७।

देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।

•–बुद्धिमान वसुदेव की  देवकी  और रोहिणी दो भार्याऐं होंगी ।

उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।

तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।

•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप  बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये ।

ठीक वाले जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बड़ कर विराट् हो गये थे ।३९।

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                          -८०-

           (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनां मायया योगरूपया ।तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।।४०।

•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।

जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।

•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।

आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।

देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।             गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।

•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।

साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।

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                         -८१-

             (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत:। वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।

•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।

विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते ।बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति ।।४४।

•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्व व्यापी परमेश्वर गोप बालक  के रूप में व्रज में निवास करेंगे ।

उस समय सब लोगो आपके हाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे ( बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे)।४४।

त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया: सततं तव।।४५

•–कमल नयन !आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ  गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।

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                          - ८२-

            ( यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावत:।मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति के त्वयि ।। ४६।

•–जब  आप वन गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे  ,तथा यमुना जी के जल में होते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।**************************************

                               -८३-

                 (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

 जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।।यस्त्वया तात इत्युक्त: स पुत्र इति वक्ष्यति।४७।।

•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा तात कहकर पुकारे जाने परआप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।

अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथा: कश्यपादृते।का चधारयितुंशक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना।।४८।

•–विष्णो ! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ?देवी अदिति अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।

योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।वयमप्यालयान् स्वान् स्वान् गच्छामो मधुसूदन।।४९।

•-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए ,

हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।

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                             -८४-

               (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

                    "वैश्म्पायन उवाच"

स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।जगाम विष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।५०।

•-वैशम्पायन बोले – जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो: सुदुर्गमा।त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।

•– वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधी:।आत्मानं योजयामास वसुदेव गृहे प्रभु : ।५२।

•– उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।

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                            -८५-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।

(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।

इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇

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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।

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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।

सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 

(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)     

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                           -८६-

              (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।

और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में 

पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !

देखें उस सन्दर्भ को ⬇

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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।

अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक  श्री कृष्ण से कहता है 

अलं ( बस कर  ठहरो!)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26। 

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)

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गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।

और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।

यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है ।

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                           -८७-

          (यदुवंश के बिखरे हुए अंश)

अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 

निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥

(ब्रह्म पुराण अध्याय १८५वाँ )

अत्रावतीर्णयोः कुष्ण गोपा एव हि बान्धवाः।
गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।।

दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मा दशनायुधः।। १८५.३३

उग्रसेनं ततो बन्धान्मुमोच मधुसूदनः।
अभ्यषिञ्चत्तथैवैनं निजराज्ये हतात्मजम्।१९४.९
।।
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 गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम्। स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ?  अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९। 

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य 

तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में  यह श्लोक वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवें अध्याय पर है।

तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ।४० ॥

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते।४२ ॥

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥

                     (राजोवाच)

किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते।४४ ॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले 
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः।४५ ॥

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निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥४६॥

स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे ।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥

दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥

लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ।५१॥

स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥ ५२ ॥

किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्‌गर्भवासं करोति वै ।५३॥

गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ॥

दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः ॥ ५५ ॥

प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥

सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना ॥ ५७ ॥

तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥

कंसस्य हननं कष्टाद्‌ द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ।५९।

स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान् 
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६०।

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२।

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देवी भागवत पुराण में भी कश्यप का वसुदेव गोप के रूप में अपनी पत्नीयों के साथ गोकुल में अवतरित होना
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इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे अवतारव्यवस्था नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ का २३वाँ श्लोक देखें निम्न

कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥ २३ ॥

                (व्यास उवाच)
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥ १ ॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ।२।

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥३ ॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥

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किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे ॥ ५ ॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥

                 (व्यास उवाच ! )
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया ।१२ ॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ।१५॥

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अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥ १६ ॥

                    (व्यास उवाच)
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ 

रथारुढस्ततोऽक्रूरः क्षणान्नन्दपुरं गतः ।
घोषेषु सबलं कृष्णमागच्छंतं ददर्श ह ॥१०॥

(गर्ग संहिता  मथुरा खण्ड तृतीय अध्याय)

रथ पर  सबार अक्रूर  उसके नन्द गाँव गये घोषों में बलवान कृष्ण को आते हुए  देखा !

घोषयोषिदनुगीतवैभवं कोमलस्वरितवेणुनिःस्वनम् ॥
सारभूतमभिरामसंपदां धाम तामरसलोचनं भजे ॥११
॥ उपरोक्त श्लोक में घोष युवतियों का वर्णन किया है|

इति श्रीगर्गसंहितायां (हय )अश्वमेधखण्डे
रासक्रीडायां पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४५॥

शैलानां भूषणं घोषो घोषाणां भूषणं वनम् ।
वनानां भूषणं गावस्ताश्चास्माकं परा गतिः ।१७ ।

श्लेष युक्त - शैलों का भूषण घोष(गायों का गोष्ठ और गोप है ) और घोषों का श्रृंगार वन हैं ।और वन की भूषण गायें वे गायें ही हम लोगों की परम गति हैं ।१७। 

हरिवंश पुराण  विष्णु पर्व के अष्टम अध्याय का 17वाँ श्लोक-

यस्मात् कंसात् सर्वे देवा  जुघुरुः। स: कंस एकेन गोपेन बालकेन अल्पायासेव ह जघान ।।५२।

जिस कंस से देव  भी डरते थे उस कंस को एक गोप बालक ने मार डाला ।५२।

ततः सुरास्तेन निहन्यमाना 

           विदुद्रुवुर्लीनधियो दिशान्ते ।

केचिद्‌रणे मुक्तशिखा बभूवु-

     र्भीताः स्म इत्थं युधि वादिनस्ते ॥ ५३ ॥


•-कंस की मार पड़ने से देवताओं के होश उड़ गये और वे चारों दिशाओं में भागने लगे।

 कुछ देवताओं ने रणभूमि में अपनी शिखाएँ खोल दीं और ‘हम डरे हुए हैं (हमें न मारो)’- इस प्रकार कहने लगे। ५३।

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केचित्तथा प्रांजलयोऽतिदीनव-

      युधि मुक्तकच्छाः ।

स्थातुं रणे कंसनृदेवसंमुखे

     गतेप्सिताः केचिदतीव विह्वलाः ॥ ५४ ॥

•-कुछ देवगण हाथ जोड़कर अत्यन्त दीन की भाँति खड़े हो गये और अस्त्र-शस्त्र नीचे डालकर उन्होंने अपने अधोवस्त्र की (लाँग) भी खोल डाली। 

कुछ लोग अत्यंत व्याकुल हो युद्धस्थल में राजा कंस के सम्मुख खड़े होने तक का साहस न कर सके।५४।

उसी महान योद्धा को गोपाल कृष्ण ने कम प्रयास में ही मार डला-

गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां च                    गंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।

प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च                     जातिः परा न विदिता भुवि गोपजातेः ॥२२॥

 अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं, और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं ।

 इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर मुख को देखते हैं।  इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।

श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

बलराम के गुणों का वर्णन करते हुए 

विष्णु पुराण ,हरिवंश पुराण और ब्रह्मपुराण में समान श्लोकों के द्वारा गोपालों के द्वारा ही डूबे हुए यदुवंश के जहाज का उद्धार करने का वर्णन बलराम को लक्ष्य करके हुआ है ।

देखें क्रमश: निम्न श्लोकों में यही तथ्य -

                  (विष्णु पुराण)

अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजःप्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैःगोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।

श्रीविष्णुमहापुराणे पंचमांशो! विंशोध्यायः ।२०।

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                 ( हरिवंश पुराण)

अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनं चिन्तनं च।

पञ्चविंशोऽध्यायः(२५)

अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः।गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति ॥२८॥

श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

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                      ( ब्रह्म पुराण )

अयं चास्य महाबाहुर्बलदेवोऽग्रजोऽग्रतः ।प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननन्दनः ॥३६॥

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थावलोकिभिः ।गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्युद्धरिष्यति ॥३७॥

श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरितेकंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥

गोपाल शब्द  "यादवों" का गोपालन वृत्ति ( व्यवसाय) मूलक विशेषण है ।

यह वंश मूलक विशेषण नहीं है वंश मूलक विशेषण तो केवल यादव ही है 

ये गोपाल अथवा गोप प्राचीन एशिया में वीर और निर्भीक होने से आभीर अथवा अभीर या अभीरु:

भी कहे गये परन्तु इस आभीर का उद्भव वीर अथवा आर्य शब्द से हुआ जो कृषक और यौद्धा का वाचक है ।

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निम्नलिखित श्लोक गोपालों इसी वीरता मूलक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करता है ।  

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैःभवद्भिर्गोपजातीयैर्वीरवीर्यं विलोप्यते ।५।।

•- गोविन्द बोले ! हे गोपालों तुम्हारा भयभीत होने का कोई प्रयोजन नहीं है;  केशी से भयभीत होकर तुम लोग गोप जाति के बल-पराक्रम को क्यों विलुप्त करते हो।५।

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इति श्रीविष्णुाहापुराणे पंचमांशो! षोडशोऽध्यायः ।१६।

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                   (गोविन्द उवाच)

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः ।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यं विलोप्यते ॥२६॥

अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रो ऽग्रतोऽग्रजःप्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननंदनः ।४८।

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैःगोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ।४९।

श्रीविष्णुमहापुराणे पंचमांशो! विंशोध्यायः ।२०।

________________________ 

अक्रूरस्य व्रजे आगमनं, कृष्णस्य दर्शनं चिन्तनं च।

पञ्चविंशोऽध्यायः(२५)

अयं भविष्ये कथितो भविष्यकुशलैर्नरैः।गोपालो यादवं वंशं क्षीणं विस्तारयिष्यति ॥२८॥

___________________________

श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि अक्रूरागमने पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥

_________________________

अयं चास्य महाबाहुर्बलदेवोऽग्रजोऽग्रतः ।प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननन्दनः ॥३६॥

अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थावलोकिभिः । गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्युद्धरिष्यति ॥३७॥

श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे बालचरितेकंसवधकथनं नाम त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥

______________________________________ 

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे कृष्णबालचरिते केशिवधनिरूपणं नाम नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥१९०॥

गोविन्द उवाच

अलं त्रासेन गोपालाः केशिनः किं भयातुरैः।भवद्‌भिर्गोपजातीयैर्वोरवीर्यं विलोप्यते।। १९०.२६ ।।

"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: आख्यास्यते राम इति।।                                      बलाधिक्याद् बलं विदु:।  यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२।।

विशेष :- वश् =

( कान्तौ चमकने में) धातु

लट्लकार के रूप निम्नलिखित हैं 

 (प्रथमपुरुषः वष्टि उष्टः उशन्ति)

(मध्यमपुरुषः वक्षि उष्टः उष्ट)

(उत्तमपुरुषः वश्मि उश्वः उश्मः)

और कृष् =विलेखने ( खींचने में )

अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। 

इस लिए इसका नाम रौहिणेय होगा  यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा। 

इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है।।

'परन्तु  यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।

( यह सम्पूर्ण उपर्युक्त संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अंश प्रक्षिप्त है ।

क्यों  सङ्कर्षण शब्द की व्युत्पत्ति :-

सम् उपसर्ग में कृष् धातु में ल्युट्(अन) तद्धित करने पर होता है ।

जिसका अर्थ है सम्यक् रूप से कर्षण ( जुताई करने वाला ) 

आपको पता ही है कि बलराम का  शस्त्र  जुताई का यन्त्र हल ही था । वस्तुतः कृष्ण और संकृष्ण ( संकर्षण) दौनों ही गोप या चरावाहे थे 

और कृषि का विकास भी चरावाहों ने किया ।

हरिवंशपुराण में सम्यग् रूपेण संकृष्यते गर्भात् गर्भान्तरं नीयतेऽसौ इति. सङ्कर्षण ।

 (सम् + कृष्ल्युट् )= सङ्कर्षण

२ आकर्षणे ३ स्थानान्तरनयने च न० ।

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तत्कथा हरिवश पुराण०  विष्णुपर्व  अध्याय 58 पर देखें👇

 “सप्तमो देवकीगर्भो योऽंशः सौम्यो  ।            स संक्रामयितव्यस्ते सप्तमे मासि रोहिणीम् ।३१।

 सङ्कर्षणात्तु गर्भस्य स तु सङ्कर्षणो युवा ।भविष्यत्यग्रजो भ्राता मम शीतांशुदर्शनः।३२।

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भागवत पुराण में संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति काल्पनिक व मनगड़न्त रूप से जोड़ी गयी कि यादव और गोपों को अलग दर्शाया जा सके ....

दूसरा प्रक्षेपों नीचें देखें 👇

भागवतपुराणकार की बातें इस आधार पर भी संगत नहीं हैं ।

यहाँ देखिए -- 💥

"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।    मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।

आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि । ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।

श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय

अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।

और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; 

आप हम लोगो पर शासन कीजिए ! "क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।

अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?

यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। 

कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। 

भागवतपुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है वह कहता है कि " ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।

तो फिर उग्र सेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?

---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं 

हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं ।

ययाति का शाप उन पर लागू क्यों नहीं हुआ ?

देखें-- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं!👇

यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च । “अन्धकञ्च महाबाहुं वृष्णिञ्च यदुनन्दनम्” इत्युपक्रम्य “अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभ- तात्मजान् । 

कुकुरं भजमानञ्च शमं । कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोसु तनयस्तथा । कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत् ।

जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः ।        तथा वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल । 

आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ” इत्याहुकोत्- पत्तिमभिधाय “आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबमूवतुः

___________________________

देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।               नवोग्रसे- नस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजः” 

(हरिवंश ३८ अध्याय)

और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि 

मथुरादेशस्य राजविशेषः  स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च (उग्रा सेना यस्य ) इति श्रीभागवतम पुराणम् --





"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥ (ऋग्वेद १०/६२/१०
)

अनुवाद-

और दान करने वाले वे दोनों, कल्याण दृष्टि वाले ,गायों से घिरे हुए, गायों की परिचर्या करने करने वाले यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।

पदपाठ-

उत ।दासा। परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा। यदुः । तुर्वः । च ।मामहे ॥१०।।                            __________

"भाष्य"

(स्मद्दिष्टीप्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ स्मद्दिष्टीन् प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसागवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  परीणसा बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासादातारौ दासृ दाने” [भ्वादि०] “दासं दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ 

(उतअपि तस्य ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे) स्तुमहे। ॥१०॥_________________________________

( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।

२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।

३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 

४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 

पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों ते सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।

५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।

६- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ ।

७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।

आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं। आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे") है।

आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःमहतेमहेतेमहन्ते
मध्यमपुरुषःमहसेमहेथेमहध्वे
उत्तमपुरुषःमहेमहावहेमहामहे

____________________________

को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। (ऋग्वेद-१.१६५.१३)


दास्(भ्वादिः)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःदासतिदासतःदासन्ति
मध्यमपुरुषःदाससिदासथःदासथ
उत्तमपुरुषःदासामिदासावःदासामः

       

____________________________________(आ यदश्वान्वनन्वतः श्रद्धयाहं रथे रुहम् ।  उत वामस्य वसुनश्चिकेतति यो अस्ति याद्वः पशुः ॥३१॥ ( ऋग्वेद ८/१/३१)

(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः॥३२॥

"अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥

"अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः 
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं       बिभर्षि ॥३४॥

         "सायणभाष्यम्"

             ॥अथाष्टमं मण्डलम्॥

अष्टमे मण्डले दशानुवाकाः । तत्र प्रथमेऽनुवाके पञ्च सूक्तानि । तेषु ‘मा चिदन्यत्' इति चतुस्त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अत्रानुक्रम्यते–' मा चिच्चतुस्त्रिंशन्मेधातिथिमेध्यातिथी ऐन्द्रं बार्हतं द्विप्रगाथादि द्वित्रिष्टुबन्तमाद्यं द्वृचं प्रगाथोऽपश्यत्स घौरः सन्भ्रातुः कण्वस्य पुत्रतामगात्(बृहद्देवता ६.३५ ) प्लायोगिश्चासङ्गो यः स्त्री भूत्वा पुमानभूत्स मेध्यातिथये दानं दत्त्वा स्तुहि स्तुहीति चतसृभिरात्मानं तुष्टाव पत्नी चास्याङ्गिरसी शश्वती पुंस्त्वमुपलभ्यैनं प्रीतान्त्यया तुष्टाव ' इति । 

अस्यायमर्थः । अस्य सूक्तस्य मेधातिथिमेध्यातिथिनामानौ द्वावृषी तौ च कण्वगोत्रौ ।

ऋषिश्चानुक्तगोत्रः प्राङ्मत्स्यात् काण्वः' इति परिभाषितत्वात् ।

आद्यस्य द्वृचस्य तु घोरस्य पुत्रः स्वकीयभ्रातुः कण्वस्य पुत्रतां प्राप्तत्वात् काण्वः प्रगाथाख्य ऋषिः । 

प्लयोगनाम्नो राज्ञः पुत्र आसङ्गाभिधानो राजा देवशापात् स्त्रीत्वमनुभूय पश्चात्तपोबलेन मेधातिथेः प्रसादात् पुमान् भूत्वा तस्मै बहु धनं दत्त्वा स्वकीयमन्तरात्मानं दत्तदानं स्तुहि स्तुहीत्यादिभिश्चतसृभिर्ऋग्भिरस्तौत् । अतस्तासामासङ्गाख्यो राजा ऋषिः । 

अस्यासङ्गस्य भार्याङ्गिरसः सुता शश्वत्याख्या भर्तुः पुंस्त्वमुपलभ्य प्रीता सती स्वभर्तारम् ‘अन्वस्य स्थूरम् ' इत्यनया स्तुतवती । 

अतस्तस्या ऋचः शश्वत्यृषिका । अन्त्ये द्वे त्रिष्टुभौ द्वितीयाचतुर्थ्यौ सतोबृहत्यौ शिष्टा बृहत्यः । कृत्स्नस्य सूक्तस्येन्द्रो देवता । 

‘ स्तुहि स्तुहि' इत्याद्याश्चतस्र आत्मकृतस्य दानस्य स्तूयमानत्वात्तद्देवताकाः । ‘ अन्वस्य ' इत्यस्या आसङ्गाख्यो राजा देवता ।

 ' या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायात् । महाव्रते निष्केवल्ये बार्हततृचाशीतावादित एकोनत्रिंशद्विनियुक्ताः।

 तथैव पञ्चमारण्यके सूत्रितं--- ‘मा चिदन्यद्वि शंसतेत्येकया न त्रिंशत् ' (ऐ. आ. ५. २. ४) इति । चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने मैत्रावरुणस्य ‘मा चिदन्यत्' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियः प्रगाथः । सूत्रितं च---' मा चिदन्यद्वि शंसत यच्चिद्धि त्वा जना इम इति स्तोत्रियानुरूपौ ' ( आश्व. श्रौ. ७.४ ) इति । ग्रावस्तोत्रेऽप्याद्या विनियुक्ता । सूत्रितं च- आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं मा चिदन्यद्वि शंसत' (आश्व. श्रौ. ५.१२ ) इति । 

उपकरणोत्सर्जनयोः' मण्डलादिहोमेऽप्येषा। सूत्र्यते हि-' मा चिदन्यदाग्ने याहि स्वादिष्ठया ' इति 

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मम । त्वा । सूरे । उत्ऽइते । मम । मध्यन्दिने । दिवः ।मम । प्रऽपित्वे । अपिऽशर्वरे । वसो इति । आ । स्तोमासः । अवृत्सत ॥२९।।

“सूरे= सूर्ये "उदिते =उदयं प्राप्ते पूर्वाह्णसमये “मम “स्तोमासः स्तोत्राणि हे “(वसो= वासकेन्द्र) त्वाम् “आ “अवृत्सत =आवर्तयन्तु । अस्मदभिमुखं गमयन्तु । तथा “दिवः =दिवसस्य  “मध्यंदिने= मध्याह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु। तथा “प्रपित्वे= प्राप्ते दिवसस्यावसाने सायाह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ।“अपिशर्वरे । शर्वरीं रात्रिमपिगतः कालः अपिशर्वरः । शार्वरे कालेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ॥

अर्थ-

सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी ! तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान  सायंकाल में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।

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स्तुहि । स्तुहि । इत् । एते । घ । ते । मंहिष्ठासः । मघोनाम् ।निन्दितऽअश्वः । प्रऽपथी । परमऽज्याः । मघस्य । मेध्यऽअतिथे ॥३०

आसङ्गो राजर्षिर्मेध्यातिथये बहु धनं दत्त्वा तमृषिं दत्तदानस्य स्वस्य स्तुतौ प्रेरयति । हे “मेध्यातिथे यज्ञार्हातिथ एतत्संज्ञर्षे "स्तुहि "स्तुहीत् । पुनःपुनरस्मान् प्रशंसैव। मोदास्व औदासीन्यं मा कार्षीः । “एते “घ एते खलु वयं “मघोनां धनवतां मध्ये “ते तुभ्यं “मघस्य धनस्य “मंहिष्ठासः दातृतमाः । अतोऽस्मान् स्तुहीत्यर्थः । कासौ स्तुतिस्तामाह। “निन्दिताश्वः । यस्य वीर्येण परेषामश्वा निन्दिताः कुत्सिता भवन्ति तादृशः । “प्रपथी । प्रकृष्टः पन्थाः प्रपथः । तद्वान् । सन्मार्गवर्तीत्यर्थः । “परमज्याः उत्कृष्टज्यः । अनेन धनुरादिकं लक्ष्यते । उत्कृष्टायुध इत्यर्थः । यद्वा । परमानुत्कृष्टाञ्छत्रून् जिनाति हिनस्तीति परमज्याः । ज्या वयोहानौ' । अस्मात् ‘आतो मनिन्' इति विच् । एवंभूतोऽहमासङ्ग इति स्तुहीत्यर्थः ॥३०। 

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(आ यदश्वा॒न्वन॑न्वतः श्र॒द्धया॒हं रथे॑ रु॒हम् ।      उ॒त वा॒मस्य॒ वसु॑नश्चिकेतति॒ यो अस्ति॒ याद्व॑: प॒शुः ॥३१। 

ऋग्वेद (८/१/३०)
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(१-“वनन्वतः= वननवतः संभक्तवतः

२-“अश्वान्=तुरगान् "अहं प्रायोगिः 

३-“श्रद्धया आदरातिशयेन युक्तः सन् “यत् यदा हे मेध्यातिथे त्वदीये “रथे

४- “आ “रुहं आरोहयम्।रुहेरन्तर्भावितण्यर्थाल्लुङि ‘ कृमृदृरुहिभ्यः' इति च्लेरङादेशः । तदानीं मामेवं स्तुहि । 

५-“उत अपि च । प्रकृतस्तुत्यपेक्ष एव समुच्चयः ।

 ६-“वामस्य वननीयस्य 

७-“वसुनः धनस्य । पूर्ववत् कर्मणि षष्ठी । ईदृशं धनं “चिकेतति । एष आसङ्गो दातुं जानाति ।

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८- "याद्वः यदुवंशोद्भवः। यद्वा । यदवो मनुष्याः। तेषु प्रसिद्धः।

९- “पशुः । लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा । 

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१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥

अनुवाद-

हे मेधातिथि ! प्रयोग( प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । 
यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है । वह  तुमको दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
_________

"उपर्युक्त ऋचा में सङ्ग एक यदुवंशी राजा है जो पशुओं से समन्वित हैं अर्थात यादव सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति हुआ करती थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार में  प्राचीनत्तम. péḱu (पेकु) शब्द है ।

 पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का  विकास हुआ। ऋग्वेद को दशम मण्डल के (62) वें सूक्त में दसवीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को गायों सी परिचर्या करते हुए और गायों से घिरा हुआ " वर्णन किया गया है ।

दाता अथवा दानी होने से ही उन्हें "दासा" विशेषण से सम्बोधित किया गया है।  प्राचीनतम वैदिक सन्दर्भों  में दास: या अर्थ दाता अथवा दानी ही हेै। 

उत्तर वैदिक काल और  लौकिक संस्कृत में आते आते इसका अर्थ दाता से पतित होकर देव संस्कृतियों को विद्रोही अर्थ में सम्पन्न शाली दैत्यों को होने लगा जैसे कि वृत्र नम्बर और नमुचि आदि ते लिए  

वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ सेवा करने वाला गुलाम या भृत्य नहीं है।👇
और भक्त भी नहीं जैसे आज कल तुलसी दास ,या कबीरदास शब्दों में है। यह तो इसका  विकसित अर्थ है। 
क्योंकि ये दास के वैदिक कालीन सन्दर्भ प्राचीनत्तम और आधुनिक अर्थ से विपरीत ही हैं ।

अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में प्रयुक्त हुआ जो इन्द्र से युद्ध करता है।👇

 उत दासं कौलितरं बृहतः पर्वतादधि ।
 अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥ ऋ० ४/३०/१४।
और वर्जिन दैत्य को लिए भी।👇
 
 उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-४ /३० /१४
 ________________________________________ 

उपर्युक्त ऋचा में  दास असुर का पर्याय वाची है । क्योंकि ऋग्वेद के मण्डल 4/30/14/ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर ही वर्णित किया गया है । ______________________________________

कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे 
अर्थात् कुलितर यो कोलों की सन्तान होने से कौलितर 


अर्थात्‌ इन्द्र 'ने युद्ध करते हुए  दानी धन सम्पन्न कौलितर शम्बर को ऊँचे पर्वत से नीचे गिरी दिया 

 विदित हो कि  ईरानी असुर(अहुर) संस्कृति में दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ" कुशल और दाता" होता है । 
ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण "दाहे के रूप में किया है।

जोकि असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे 
जिनका उपास्य अहुर-मज्दा ( असुर महत्) था ।
फारसी में "स"वर्ण का उच्चारण "ह" वर्ण के रूप में होता है ।


'परन्तु भारतीय पुराणों या वेदों में ईरानी मिथकों के समान अर्थ नहीं है ।
अपितु इसके विपरीत ही है क्योंकि शत्रुओं कभी भी शत्रुओं की प्रसंशा नहीं करता है ।

इसी प्रकार असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है । ____________________________________________

 पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व) से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है ।
पशु ही मनुष्यों कि धन ( पैसा) था अत: पशु शब्द से ही "पैसा" शब्द कि विकास हुआ।

 ( Etymology of pashu-

From Proto-Indo-Iranian *páćufrom 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).

2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎‎ (pasu, “livestock”),

3-Latin pecū (“cattle”), 

4-Old English feoh (“livestock, cattle”),

5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).

पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-

१-प्रोटो-इंडो-ईरानी *पाकु(páću) से, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेकु péḱu ("मवेशी, पशुधन") से।

 अवेस्तान (पसु, "पशुधन"-pasu, “livestock”),), 

लैटिन पेकु-pecū (“cattle ("मवेशी"),

 पुरानी अंग्रेज़ी फीह ("पशुधन, मवेशी"-feoh (“livestock, cattle”)

(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).

_______________________________

(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥

पदपाठ-

यः । ऋज्रा । मह्यम् । मामहे । सह । त्वचा । हिरण्यया ।एषः । विश्वानि । अभि । अस्तु । सौभगा । आसङ्गस्य । स्वनत्ऽरथः ॥३२।

एवमेवं मां स्तुहीत्यासङ्गो मेध्यातिथिं ब्रूते । “यः आसङ्गस्यात्मा “ऋज्रा= गमनशीलानि धनानि। “हिरण्यया =हिरण्मय्या “त्वचा =चर्मणास्तरणेन “सह सहितानि “मह्यं= मेध्यातिथये अभि =सर्वत: अस्तु=भवतु। {“मामहे = स्तुमहे} । मंह्= पूजायाम् । “एषः आसङ्गस्यात्मा “स्वनद्रथः= शब्दायमानरथः सन्  “विश्वानि= व्याप्तानि सौभगानि धनानि शत्रूणां स्वभूतानि “॥

इस प्रकार मेरी स्तुति करो । आसङ्ग मेथातिथि से कहता है। "उस आसङ्ग का चलायवान धन  स्वर्ण-चर्म के विस्तर सहित मुझ मेधातिथि  लिए हो ।  वही आसङ्ग शब्दायवान रथ से युक्त होकर शत्रुओं से सम्पूर्ण सौभाग्य- पूर्ण धनों को विजित करे। इस प्रकार हम स्तुति करते हैं ।३२।

____________

"अध॒ प्लायो॑गि॒रति॑ दासद॒न्याना॑स॒ङ्गो अ॑ग्ने द॒शभि॑: स॒हस्रै: । अधो॒क्षणो॒ दश॒ मह्यं॒ रुश॑न्तो न॒ळा इ॑व॒ सर॑सो॒ निर॑तिष्ठन् ॥३३।

पदपाठ-

अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३।

(१-“अध =अपि च 

२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 

३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 

४“अन्यान् =दातॄन् “

५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 

६-“अध= अनन्तरम् 

७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 

८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

अनुवाद-

आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।

निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 

सेचन करने में समर्थ वे ओजस्वी दश हजार बैल उक्षण:-(Oxen) आसङ्ग राजा से निकलकर  मुझ मेधातिथि में उसी प्रकार समाहित होगये।

जिस प्रकार तालाब में उत्पन्न तृणविशेष तालाब से निकल कर तालाब से समूह बद्ध होकर  बाहर निकल आते हैं; इन्हीं शब्दों के द्वारा तुम मेरी स्तुति करो ! ऐसा मेधातिथि से कहने वाले राजा आसङ्ग हैं।
 इन ३०-से३३ ऋचाओं में इन चार ऋचाओं के वक्ता आसङ्ग हैं और वही देवता हैं यहाँ  यही भाव उत्पन्न होता है ।३०। 
{प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

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अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः।
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि।३४।।

पदपाठ-

अनु । अस्य । स्थूरम् । ददृशे । पुरस्तात् । अनस्थः । ऊरुः । अवऽरम्बमाणः ।

अन्वय-

"शश्वती । नारी । अभिऽचक्ष्य । आह । सुऽभद्रम् । अर्य । भोजनम् । बिभर्षि ॥३४

सायणभाष्य-

अयमासङ्गो राजा कदाचिद्देवशापेन नपुंसको बभूव । तस्य पत्नी शश्वती भर्तुर्नपुंसकत्वेन खिन्ना सती महत्तपस्तेपे । तेन च तपसा स च पुंस्त्वं प्राप । प्राप्तपुंव्यञ्जनं ते रात्रावुपलभ्य प्रीता शश्वत्व मया तमस्तौत् । “अस्य आसङ्गस्य “पुरस्तात् पूर्वभागे गुह्यदेशे “स्थूरं =स्थूलं वृद्धं सत् पुंव्यञ्जनम् “अनु “ददृशे अनुदृश्यते । “अनस्थः अस्थिरहितः स चावयवः “ऊरुः =उरु=र्विस्तीर्णः “अवरम्बमाणः अतिदीर्घत्वेनावाङ्मुखं लम्बमानः । यद्वा । ऊरुः । सुपां सुलुक्' इति द्विवचनस्य सुः । ऊरू प्रत्यवलंबमानो भवति । { “शश्वती नामाङ्गिरसः सुता “नारी तस्यासङ्गस्य भार्या “अभिचक्ष्य एवंभूतमवयवं निशि दृष्ट्वा हे “अर्य स्वामिन् भर्तः} “सुभद्रम्= अतिशयेन कल्याणं “भोजनं =भोगसाधनं “बिभर्षि= धारयसीति “आह= ब्रूते ॥ ३४ ॥

अनुवाद-व अर्थ-★

ये आसङ्ग नामक राजा कभी देव- शाप से नपुंसकता को प्राप्त हो गये थे। तब उनकी पत्नी शाश्वती ने पति के नपुंसक होने से दु:खी होकर महान तप किया। उसी तप से उसके पति आ संग ने  पुरुषत्व को प्राप्त किया। 
पुरुषत्व प्राप्त कर रात्रि काल में पति के सानिध्य में इस ऋचा से उसकी स्तुति की  तब आसंग के पूर्व भाग ( जननेन्द्रिय) में पुरुषत्व की वृद्धि हुई।अस्थि रहित यह अंग अत्यंत दीर्घ होकर वृद्धि से नीचे की ओर लटक गया (लम्बवान होगया)
यह शाश्वती आंगिरस की सुता थी। और आसंग की भार्या। रात्रि काल में जब जनन अंग को देखकर कहा –हे ! आर्य ! स्वामी ! बहुत ही कल्याण कारी जननेन्द्रय को आप धारण करते हो।३४।









"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥ (ऋग्वेद १०/६२/१०
)

अनुवाद-

और दान और रक्षा करने वाले वे दोनों , कल्याण दृष्टि वाले ,गायों से घिरे हुए,  हर प्रकार से गायों की परिचर्या करने  के लिए  यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।

उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । मामहे ॥१०।।

ऋग्वेद ऋचाओं  का वेद है जिसमें ईश्वरीय सत्ताओं का विभिन्न प्राकृतिक और दैवीय रूपों में स्तवन किया गया है। यह एक प्रकार से मुक्तक काव्य की शैली है । 

इसमें ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन भी कहीं भी प्रबन्धात्मक शैली में नहीं है । 

इस लिए उपर्युक्त सूक्त में सायण द्वारा जो नौवीं (ninth ) ऋचा के सावर्णि मनु का अन्वय( सम्बन्ध) दसवीं ऋचा से को यदु और तुर्वसु सम्बन्धित करके  किया गया है; वह भी अर्थ की खींच-तान ही करना है।

देखें नवम् ऋचा-

न तम॑श्नोति॒ कश्च॒न दि॒व इ॑व॒ सान्वा॒रभ॑म् ।सा॒व॒र्ण्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ वि सिन्धु॑रिव पप्रथे ॥९।।

मूलार्थ- नहीं उनको व्याप्त करता है कोई " स्वर्ग के समान सूर्य से आरम्भ होकर सावर्णि की दक्षिणा सिन्धु के समान विस्तारित होती है।९।

पदपाठ-

न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।

“तं =सावर्णिं मनुं 

“कश्चन =कश्चिदपि 

“आरभम्= आरब्धुं स्वकर्मणा 

“न “अश्नोति =न व्याप्नोति ।

। यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् ।

 “दिव इव= द्युलोकस्य 

“सानु =समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य 

“सावर्ण्यस्य =मनोरियं गवादिदक्षिणा 

“सिन्धुरिव =स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां 

“पप्रथे= विप्रथते । विस्तीर्णा भवति ॥

 सायण का अर्थ-

कोई भी (व्यक्ति ) अपने कर्म के द्वारा आरम्भ करने के लिए उन सावर्णि मनु को व्याप्त नहीं करता है। अर्थात् जिस प्रकार मनु धन प्रदान करते हैं उस प्रकार धन देने में कोई अन्य समर्थ नहीं होता  वह किस प्रकार स्थित है ? वह द्युलोक को ऊँचे भाग में किसी को भी द्वारा पराजित न होने वाले सूर्य के समान स्थित हैं उन सावर्णि मनु की वह गायों आदि की दक्षिणा वहती हुई नदी के समान पृथ्वी पर फैली है ।

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उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०।

और दानी और त्राता वे दोनों चारो और से व्याप्त सौभाग्य शाली  स्मयन दृष्टि से देखने वाले सौभाग्य शाली । गायों से घिरे हुए जो यदु और तुर्वसु हैं-(वैदिक 'मामहे' का लौकिक रूप 'महामहे') -हम उनकी स्तुति अथवा पूजा करते हैं ।१०।

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:

Sanskrit dic-दिश्- "point out, show;-इंगित करना, दिखाना;

" Greek  deiknynai (डिक्निनै)   "to show, to prove," dike "custom, usage;

" Latin dicere डाइसेरे  "speak, tell, say," digitus "finger," 

Old High German zeigon, 

German zeigen "to show,"

 Old English teon "to accuse," tæcan उपदेश- "to teach."

यह इसके अस्तित्व के लिए/साक्ष्य का काल्पनिक स्रोत है:

संस्कृत दिक- "पॉइंट आउट, शो;

" ग्रीक deiknynai "दिखाने के लिए, साबित करने के लिए," डाइक "कस्टम, उपयोग;

"लैटिन डाइसेरे" बोलो, बताओ, कहो," डिजिटस "उंगली,"

ओल्ड हाई जर्मन ज़ीगॉन,

जर्मन ज़ीजेन "दिखाने के लिए,"

पुरानी अंग्रेज़ी तेन "आरोप लगाने के लिए," tæcan "सिखाने के लिए।"

सायण का अन्तर्विरोधी भाष्य-

१-“उत= अपि च 

२"स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ 

३“गोपरीणसा =गोपरीणसौ -गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 

४{“दासा =दासवत् प्रेष्यवत् }स्थितौ तेनाधिष्ठितौ 

५-“यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी  

६-“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय ( परिविष-का अर्थ सायण ने भोजन किया है जबकि विष्- धातु के अन्य प्रसिद्ध अर्थ भी धातु पाठ मैं हैं-


७-"ममहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् जबकि 'मामहे' क्रिया पद मूल ऋचा नें है जो लौकिक संस्कृत को मह-पूजायाम्-धातु से निष्पन्न आत्मनेपदी उत्तम परुष बहुवचन के 'महामहे'' का वैदिक रूप ''मामहे ही है। अत: कहीं कहीं ऋग्वेद या भाष्य सायण द्वारा सम्यक् और अपेक्षित नहीं हुआ है।

__________

" अपना-भाष्य"

(स्मद्दिष्टीप्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ स्मद्दिष्टीन् प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसागवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  परीणसा बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासादातारौ दासृ दाने” [भ्वादि०] “दासं दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ 

(उतअपि तस्य ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे) स्तुमहे। ॥१०॥

 सायण का अर्थ-

और भी कल्याण कारी कार्यों का आदेश देने वाले बहुत सी गायों से युक्त दास के समान (राजर्षि मनु के) द्वारा अधिकृत (अधीन) यदु और तुर्वसु नामक दोनों इन सावर्णि मनु के लिए भोजन देते हैं।ऋग्वेद १०/६२/१०

उपर्युक्त ऋचा में सायण का भाष्य अन्तर्विरोध प्रकट करता है । दासा शब्द "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास या अर्थ दानी और रक्षक ( त्राता) है ।


सायण ने अन्यत्र इसी दास का अर्थ उसीकाल क्रम में दास कि अर्थ उपक्षयितुर– विनाशक किया है -

 "य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात्सप्त सिन्धुषु ।वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनमः ॥२७॥ ऋग्वेद ८/२४/२७ दास कि अर्थ "दासस्य= उपक्षपयितुरसुरस्य “ के रूप में उपक्षय= (नाश ) करने वाले असुर से किया है ।

यह भी सत्य नहीं कि असुर कि वैदिक अर्थ विनाशक अथवा नकारात्मक हो ।

(वैदिक निघण्टु में असुर:= १-सोम।२-वरुण।३-मेघ।४-दात्रारिव्याप्त्यम्।५प्रज्ञावान्।६-बलवान्-प्राणवान्। ७-ऋत्विज। अर्थ हैं ।)



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य ऋक्षा॒दंह॑सो मु॒चद्यो वार्या॑त्स॒प्त सिन्धु॑षु।

वध॑र्दा॒सस्य॑ तुविनृम्ण नीनमः॥२७।।

ऋग्वेद ८/२४/२७/

पदपाठ-

यः।ऋक्षात् ।अंहसः।मुचत्।यः।वा।आर्यात्।सप्त। सिन्धुषु।वधः। दासस्य।तुविऽनृम्ण।नीनमः॥२७।।

पूर्वोऽर्धर्चः= परोक्षकृतः।

“यः= इन्द्रः “ऋक्षात् । ऋन् =मनुष्यान् क्षणोति । क्षणोतेरौणादिको डप्रत्ययः । तस्मात् रक्षसो जातात् 

“अंहसः= पापरूपादुपद्रवात् 

"मुचत्= मुञ्चति । राक्षस एनं न बाधते किं पुनस्तं हन्तीत्यर्थः । अपि च

 “यः= इन्द्रः “सप्त “सिन्धुषु गङ्गाद्यासु नदीषु । यद्वा । सप्त सर्पणशीलासु सिन्धुषु । तत्कूलेष्वित्यर्थः ।

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  गङ्गायां घोष इतिवत् । 

तेषु वर्तमानानां  आभीराणां  ( गंगा के किनारे अहीरों की वस्ती)“ (परन्तु सायण ने घोष या नया अर्थ स्त्रोता कर दिया है)  – स्तोतॄणाम् आर्यात् धनादिकं प्रेरयेत् ।' ऋ गतिप्रापणयोः '। आशीर्लिङि ‘गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' (पा. सू. ७. ४. २९) इति गुणः । ‘बहुलं छन्दसि' इति लिङयप्याडागमः । अथ प्रत्यक्षः। हे "तुविनृम्ण बहुधनेन्द्र ("दासस्य उपक्षपयितुरसुरस्य )

 “वधः हननसाधनमायुधं “नीनमः नमय ॥


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सम्यग्भाष्य-

( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।

२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।

३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 

४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 

पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों ते सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।

५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।

६- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।

७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।

आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)

आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःमहतेमहेतेमहन्ते
मध्यमपुरुषःमहसेमहेथेमहध्वे
उत्तमपुरुषःमहेमहावहेमहामहे

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को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म्॥(ऋग्वेद-१.१६५.१३)

पदपाठ-

कः। नु। अत्र॑। म॒रु॒तः॒। म॒म॒हे॒। वः॒। प्र। या॒त॒न॒। सखी॒न्। अच्छ॑। स॒खा॒यः॒। मन्मा॑नि। चि॒त्राः॒। अ॒पि॒ऽवा॒तय॑न्तः। ए॒षाम्। भू॒त॒। नवे॑दाः। मे॒। ऋ॒ताना॑म् ॥ १.१६५.१३

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हे मरुतः युष्मान् अत्र लोके “को "नु खलु मर्त्यः

(मामहे -पूजयामि)" । हे "सखायः सर्वस्य सखिवत्प्रियकारिणः सन्तः "सखीन् हविष्प्रदानेन सखिभूतान् यजमानान् "अच्छ आभिमुख्येन प्राप्तुं “प्र “यातन गच्छत । हे "चित्राः चायनीयाः यूयं "मन्मानि मननीयानि धनानि "अपिवातयन्तः संपूर्णं प्रापयन्तः "भूत भवत । किंच "मे मदीयानाम् "एषाम् “ऋतानाम् अवितथानां “नवेदाः भूत ज्ञातारो भवत ।।

हे (मरुतः)  ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) वयं स्तुमहे  हम स्तुति करते हैं। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः)  चेतनावानों (मन्मानि) मानों में (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) हूआ ॥ १३ ॥

दास्(भ्वादिः)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःदासतिदासतःदासन्ति
मध्यमपुरुषःदाससिदासथःदासथ
उत्तमपुरुषःदासामिदासावःदासामः

_________________  


       

मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत ।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥१॥

अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम् ।
विद्वेषणं संवननोभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥२॥

यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये ।
अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम्।३॥

वि तर्तूर्यन्ते मघवन्विपश्चितोऽर्यो विपो जनानाम् ।
उप क्रमस्व पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥४॥

महे चन त्वामद्रिवः परा शुल्काय देयाम् ।
न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥५॥

वस्याँ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातुरभुञ्जतः ।
माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे ॥६॥

क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः ।
अलर्षि युध्म खजकृत्पुरंदर प्र गायत्रा अगासिषुः ॥७॥

प्रास्मै गायत्रमर्चत वावातुर्यः पुरंदरः ।
याभिः काण्वस्योप बर्हिरासदं यासद्वज्री भिनत्पुरः ॥८॥

ये ते सन्ति दशग्विनः शतिनो ये सहस्रिणः ।
अश्वासो ये ते वृषणो रघुद्रुवस्तेभिर्नस्तूयमा गहि ॥९॥

आ त्वद्य सबर्दुघां हुवे गायत्रवेपसम् ।
इन्द्रं धेनुं सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरंकृतम् ॥१०॥

यत्तुदत्सूर एतशं वङ्कू वातस्य पर्णिना ।
वहत्कुत्समार्जुनेयं शतक्रतुः त्सरद्गन्धर्वमस्तृतम् ॥११॥

य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः ।
संधाता संधिं मघवा पुरूवसुरिष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥१२॥

मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव ।
वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥१३॥

अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन् ।
सकृत्सु ते महता शूर राधसा अनु स्तोमं मुदीमहि ॥१४॥

यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।
तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥१५॥

आ त्वद्य सधस्तुतिं वावातुः सख्युरा गहि ।
उपस्तुतिर्मघोनां प्र त्वावत्वधा ते वश्मि सुष्टुतिम् ॥१६॥

सोता हि सोममद्रिभिरेमेनमप्सु धावत ।
गव्या वस्त्रेव वासयन्त इन्नरो निर्धुक्षन्वक्षणाभ्यः ॥१७॥

अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि ।
अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥१८॥

इन्द्राय सु मदिन्तमं सोमं सोता वरेण्यम् ।
शक्र एणं पीपयद्विश्वया धिया हिन्वानं न वाजयुम् ॥१९॥

मा त्वा सोमस्य गल्दया सदा याचन्नहं गिरा ।
भूर्णिं मृगं न सवनेषु चुक्रुधं क ईशानं न याचिषत् ॥२०॥

मदेनेषितं मदमुग्रमुग्रेण शवसा ।
विश्वेषां तरुतारं मदच्युतं मदे हि ष्मा ददाति नः ॥२१॥

शेवारे वार्या पुरु देवो मर्ताय दाशुषे ।
स सुन्वते च स्तुवते च रासते विश्वगूर्तो अरिष्टुतः ॥२२॥

एन्द्र याहि मत्स्व चित्रेण देव राधसा ।
सरो न प्रास्युदरं सपीतिभिरा सोमेभिरुरु स्फिरम् ॥२३॥


आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये ।
ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥२४॥

आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या ।
शितिपृष्ठा वहतां मध्वो अन्धसो विवक्षणस्य पीतये ॥२५॥

पिबा त्वस्य गिर्वणः सुतस्य पूर्वपा इव ।
परिष्कृतस्य रसिन इयमासुतिश्चारुर्मदाय पत्यते ॥२६॥

य एको अस्ति दंसना महाँ उग्रो अभि व्रतैः ।
गमत्स शिप्री न स योषदा गमद्धवं न परि वर्जति ॥२७॥

त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुवः ॥२८॥

मम त्वा सूर उदिते मम मध्यंदिने दिवः ।
मम प्रपित्वे अपिशर्वरे वसवा स्तोमासो अवृत्सत ॥२९॥

स्तुहि स्तुहीदेते घा ते मंहिष्ठासो मघोनाम् ।
निन्दिताश्वः प्रपथी परमज्या मघस्य मेध्यातिथे ॥३०॥


____________________________________(आ यदश्वान्वनन्वतः श्रद्धयाहं रथे रुहम् ।  उत वामस्य वसुनश्चिकेतति यो अस्ति याद्वः पशुः ॥३१॥

(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥

"अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥

"अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः 
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि ॥३४॥


 "सायणभाष्यम्"

          ॥अथाष्टमं मण्डलम्॥

अष्टमे मण्डले दशानुवाकाः । तत्र प्रथमेऽनुवाके पञ्च सूक्तानि । तेषु ‘मा चिदन्यत्' इति चतुस्त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अत्रानुक्रम्यते–' मा चिच्चतुस्त्रिंशन्मेधातिथिमेध्यातिथी ऐन्द्रं बार्हतं द्विप्रगाथादि द्वित्रिष्टुबन्तमाद्यं द्वृचं प्रगाथोऽपश्यत्स घौरः सन्भ्रातुः कण्वस्य पुत्रतामगात्(बृहद्देवता ६.३५ ) प्लायोगिश्चासङ्गो यः स्त्री भूत्वा पुमानभूत्स मेध्यातिथये दानं दत्त्वा स्तुहि स्तुहीति चतसृभिरात्मानं तुष्टाव पत्नी चास्याङ्गिरसी शश्वती पुंस्त्वमुपलभ्यैनं प्रीतान्त्यया तुष्टाव ' इति । 

अस्यायमर्थः । अस्य सूक्तस्य मेधातिथिमेध्यातिथिनामानौ द्वावृषी तौ च कण्वगोत्रौ ।

 ऋषिश्चानुक्तगोत्रः प्राङ्मत्स्यात् काण्वः' इति परिभाषितत्वात् ।

 आद्यस्य द्वृचस्य तु घोरस्य पुत्रः स्वकीयभ्रातुः कण्वस्य पुत्रतां प्राप्तत्वात् काण्वः प्रगाथाख्य ऋषिः । 

प्लयोगनाम्नो राज्ञः पुत्र आसङ्गाभिधानो राजा देवशापात् स्त्रीत्वमनुभूय पश्चात्तपोबलेन मेधातिथेः प्रसादात् पुमान् भूत्वा तस्मै बहु धनं दत्त्वा स्वकीयमन्तरात्मानं दत्तदानं स्तुहि स्तुहीत्यादिभिश्चतसृभिर्ऋग्भिरस्तौत् । अतस्तासामासङ्गाख्यो राजा ऋषिः । 

अस्यासङ्गस्य भार्याङ्गिरसः सुता शश्वत्याख्या भर्तुः पुंस्त्वमुपलभ्य प्रीता सती स्वभर्तारम् ‘अन्वस्य स्थूरम् ' इत्यनया स्तुतवती । 

अतस्तस्या ऋचः शश्वत्यृषिका । अन्त्ये द्वे त्रिष्टुभौ द्वितीयाचतुर्थ्यौ सतोबृहत्यौ शिष्टा बृहत्यः । कृत्स्नस्य सूक्तस्येन्द्रो देवता । 

‘ स्तुहि स्तुहि' इत्याद्याश्चतस्र आत्मकृतस्य दानस्य स्तूयमानत्वात्तद्देवताकाः । ‘ अन्वस्य ' इत्यस्या आसङ्गाख्यो राजा देवता ।

 'या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायात् । महाव्रते निष्केवल्ये बार्हततृचाशीतावादित एकोनत्रिंशद्विनियुक्ताः।

 तथैव पञ्चमारण्यके सूत्रितं--- ‘मा चिदन्यद्वि शंसतेत्येकया न त्रिंशत् ' (ऐ. आ. ५. २. ४) इति । चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने मैत्रावरुणस्य ‘मा चिदन्यत्' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियः प्रगाथः । सूत्रितं च---' मा चिदन्यद्वि शंसत यच्चिद्धि त्वा जना इम इति स्तोत्रियानुरूपौ ' ( आश्व. श्रौ. ७.४ ) इति । ग्रावस्तोत्रेऽप्याद्या विनियुक्ता । सूत्रितं च- आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं मा चिदन्यद्वि शंसत' (आश्व. श्रौ. ५.१२ ) इति । 

उपकरणोत्सर्जनयोः' मण्डलादिहोमेऽप्येषा। सूत्र्यते हि-' मा चिदन्यदाग्ने याहि स्वादिष्ठया ' इति 

______

मा । चित् । अन्यत् । वि । शंसत । सखायः । मा । रिषण्यत ।इन्द्रम् । इत् । स्तोत । वृषणम् । सचा । सुते । मुहुः । उक्था । च । शंसत ॥१

हे “सखायः समानख्यानाः स्तोतारः इन्द्रस्तोत्रात् “अन्यत् स्तोत्रं “मा “चित् "वि “शंसत मैवोच्चारयत । “मा “रिषण्यत मा हिंसितारो भवत । अन्यदीयस्तोत्रोच्चारणेन वृथोपक्षीणा मा भवत । "सुते अभिषुते सोमे “वृषणं कामानां वर्षितारम् “इन्द्रमित् इन्द्रमेव हे प्रस्तोत्रादयः “सचा सह संघीभूय “स्तोत स्तुत । हे प्रशास्त्रादयः “उक्था “च उक्थानि शस्त्राणि चेन्द्रविषयाणि यूयं “मुहुः पुनःपुनः “शंसत ॥

पदपाठ-

अवऽक्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । अजुरम् । गाम् । न । चर्षणिऽसहम् ।विऽद्वेषणम् । सम्ऽवनना । उभयम्ऽकरम् । मंहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥२

“वृषभं “यथा वृषभमिव “अवक्रक्षिणम् अवकर्षणशीलं शत्रूणां हिंसितारम् “अजुरं जरारहितमहिंसितं वा “गां “न गामिव वृषमिव “चर्षणीसहं चर्षणीनां मनुष्याणां शत्रुभूतानामभिभवितारं “विद्वेषणं विद्वेष्टारं शत्रूणां “संवनना संवननं सम्यक्संभजनीयं स्तोतृभिः “उभयंकरं निग्रहानुग्रहयोरुभयोः कर्तारं “मंहिष्ठं दातृतमम् “उभयाविनं दिव्यपार्थिवलक्षणेनोभयविधधनेनोपेतम् । यद्वा । स्थावरजङ्गमरूपेण द्विप्रकारेण रक्षितव्येनोपेतम् । अथवोभयविधैः स्तोतृभिर्यष्टृभिश्चोपेतम् । एवंविधमिन्द्रमित् स्तोतेत्यन्वयः ॥


चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने ‘ यच्चिद्धि त्वा ' इति प्रशास्तुर्वैकल्पिकोऽनुरूपः प्रगाथः । सूत्रं तूदाहृतम् ।।

पदपाठ-

यत् । चित् । हि । त्वा । जनाः । इमे । नाना । हवन्ते । ऊतये ।अस्माकम् । ब्रह्म । इदम् । इन्द्र । भूतु । ते । ।अहा। विश्वा । च । वर्धनम् ॥३।

“इमे दृश्यमानाः सर्वे “जनाः हे इन्द्र त्वाम् “ऊतये रक्षणाय तर्पणाय वा “नाना पृथक्पृथक् “यच्चित् यद्यपि “हवन्ते स्तुवन्ति । “हि इति पूरणः । तथापि “अस्माकम् “इदं “ब्रह्म स्तोत्रमेव हे “इन्द्र “ते तव “वर्धनं वर्धकं “भूतु भवतु । न केवलमिदानीमेव अपि तु “विश्वा “अहा सर्वाण्यहानि सर्वेष्वहःसु “च इदमेव स्तोत्रं त्वां वर्धयत्वित्यर्थः ॥

वि । तर्तूर्यन्ते । मघऽवन् । विपःऽचितः । अर्यः । विपः । जनानाम् ।उप । क्रमस्व । पुरुऽरूपम् । आ । भर । वाजम् । नेदिष्ठम् । ऊतये ॥४

हे “मघवन् धनवन्निन्द्र “विपश्चितः विद्वांसस्त्वदीयाः स्तोतारः   “अर्यः अभिगन्तारः “जनानां शत्रूणां “विपः वेपयितारः सन्तः “वि “तर्तूर्यन्ते भृशमापदो वितरन्ति अतिक्रामन्ति । तादृशस्त्वम् “उप “क्रमस्व उपगच्छास्मान् । “पुरुरूपं बहुरूपम् नेदिष्ठम् अन्तिकतमं “वाजम् अन्नम् “ऊतये तर्पणाय “आ “भर अस्मभ्यम् ॥

महे । चन । त्वाम् । अद्रिऽवः । परा । शुल्काय । देयाम् ।न । सहस्राय । न । अयुताय । वज्रिऽवः । न । शताय । शतऽमघ ॥५

हे “अद्रिवः वज्रवन्निन्द्र “त्वाम् । “चन इति निपातद्वयसमुदायो विभज्य योजनीयः । “महे च महतेऽपि “शुल्काय मूल्याय न “परा “देयां न विक्रीणानि । हे “वज्रिवः वज्रहस्तेन्द्र “सहस्राय सहस्रसंख्याय च धनाय “न परा देयाम् । “अयुताय दशसहस्राय च शुल्काय “न परा देयाम् । हे “शतामघ बहुधनेन्द्र “शताय । बहुनामैतत् । अपरिमिताय च धनाय “न परा देयां न विक्रीणानि । उक्तसंख्याद्धनादपि त्वं मम प्रियतमोऽसीत्यर्थः ॥ ॥ १० ॥

वस्यान् । इन्द्र । असि । मे । पितुः । उत । भ्रातुः । अभुञ्जतः ।माता । च । मे । छदयथः । समा । वसो इति । वसुऽत्वनाय । राधसे ॥६

हे “इन्द्र त्वं “मे मदीयात् “पितुः जनकादपि “वस्यान् वसीयान् वसुमत्तरः “असि । "उत अपि च “अभुञ्जतः अपालयतो मम “भ्रातुः अपि वसीयस्त्वमधिकोऽसि । हे “वसो वासकेन्द्र “मे मदीया “माता “च त्वं च “समा समौ समानौ सन्तौ । “पुमान् स्त्रिया' (पा. सू. १. २. ६७ ) इति पुंसः शेषः। “छदयथः । अर्चतिकर्मायम्। मां पूजितं कुरुथः । किमर्थम् । “वसुत्वनाय व्यापनाय "राधसे धनाय च । उभयोर्लाभायेत्यर्थः ॥

क्व । इयथ । क्व । इत् । असि । पुरुऽत्रा । चित् । हि । ते । मनः ।अलर्षि । युध्म । खजऽकृत् । पुरम्ऽदर । प्र । गायत्राः । अगासिषुः ॥७

हे इन्द्र “क्व कुत्र देशे "इयथ गतवानसि पुरा । "क्वेत् कुत्र च “असि भवसि । इदानीं वर्तसे । “पुरुत्रा “चिद्धि बहुषु हि यजमानेषु “ते त्वदीयं “मनः संचरति । हे “युध्म युद्धकुशल “खजकृत् युद्धस्य कर्तर्हे “पुरंदर आसुरीणां पुरां दारयितर्हे इन्द्र “अलर्षि आगच्छ । “गायत्राः गानकुशला अस्मदीयाः स्तोतारः “प्र “अगासिषुः प्रगायन्ति स्तुवन्ति । ‘ अलर्षि' इत्येतत् दाधर्त्यादौ (पा. सू. ७. ४. ६५) इयर्तेर्निपात्यते ॥

प्र । अस्मै । गायत्रम् । अर्चत । ववातुः । यः । पुरम्ऽदरः ।याभिः । काण्वस्य । उप । बर्हिः । आऽसदम् । यासत् । वज्री । भिनत् । पुरः ॥८

“अस्मै इन्द्राय “गायत्रं गातव्यं साम गायत्रसंज्ञं वा “प्र “अर्चत प्रगायत । “पुरंदरः पुरां दारयिता "यः इन्द्रः “वावातुः वननीयः संभजनीयः । यद्वा वावातुः संभक्तुः स्तोतुः य इन्द्रः पुरंदरः शत्रुपुराणां दारयिता। “याभिः ऋग्भिः “काण्वस्य कण्वपुत्रस्य मेधातिथेर्मेध्यातिथेश्च “बर्हिः यज्ञम् “उप “आसदम् उपासत्तुमुपगन्तुं “यासत् गच्छेत् "वज्री वज्रयुक्तः सन् । याभिश्च ऋग्भिः स्तूयमानः सन् “पुरः शात्रवीः “भिनत् भिन्द्यात् । तास्वृक्षु गायत्रं साम गायतेत्यर्थः ॥

ये । ते । सन्ति । दशऽग्विनः । शतिनः । ये । सहस्रिणः ।अश्वासः । ये । ते । वृषणः । रघुऽद्रुवः । तेभिः । नः । तूयम् । आ । गहि ॥९

हे इन्द्र "दशग्विनः दशयोजनगामिनः “ये अश्वाः "ते तव “सन्ति विद्यन्ते । “ये चान्ये “शतिनः शतसंख्याकाः “सहस्रिणः सहस्रसंख्याकाः सन्ति । “ये “ते त्वदीयाः “अश्वासः अश्वाः “वृषणः सेचनसमर्था युवानः “रघुद्रुवः शीघ्रगामिनश्च । “तेभिः तैः सर्वैरश्वैः “नः अस्मान् "तूयं क्षिप्रम् “आ “गहि आगच्छ ॥

आ । तु । अद्य । सबःऽदुघाम् । हुवे । गायत्रऽवेपसम् ।इन्द्रम् । धेनुम् । सुऽदुघाम् । अन्याम् । इषम् । उरुऽधाराम् । अरम्ऽकृतम् ॥१०

अनयेन्द्रं धेनुरूपेण वृष्टिरूपेण च निरूपयन् स्तौति । “अद्य इदानीं “धेनुं धेनुरूपम् “इन्द्रं “तु क्षिप्रम् “आ “हुवे आह्वये। कीदृशीं धेनुम् । "सबर्दुघां पयसो दोग्ध्रीं “गायत्रवेपसं प्रशस्यवेगां “सुदुघां सुखेन दोग्धुं शक्याम् । “अन्याम् उक्तविलक्षणाम् “उरुधारां बहूदकधाराम् “इषम् एषणीयां वृष्टिम् । एतद्रूपेण वर्तमानम् "अरंकृतम् अलंकर्तारं पर्याप्तकारिणं वेन्द्रं चाह्वये ॥ ॥ ११ ॥

यत् । तुदत् । सूरः । एतशम् । वङ्कू इति । वातस्य । पर्णिना ।वहत् । कुत्सम् । आर्जुनेयम् । शतऽक्रतुः । त्सरत् । गन्धर्वम् । अस्तृतम् ॥११

“सूरः सूर्यः “एतशम् एतत्संज्ञं राजर्षिं “यत् यदा “तुदत् अव्यथयत् तदानीमेतशं रक्षितुं “वङ्कू वक्रगामिनौ “वातस्य वायोः सदृशौ “पर्णिना पर्णिनौ पतनवन्तावीदृशावश्वौ “शतक्रतुः बहुविधकर्मेन्द्रः "आर्जुनेयम् अर्जुन्याः पुत्रं “कुत्सम् ऋषिं “वहत् अवहत् अनयत् । कुत्सेन सार्धं समानं रथमारुह्यैतशरक्षणायागच्छदित्यर्थः। तथा च निगमान्तरं- प्रैतशं सूर्ये पस्पृधानं सौवश्व्ये सुष्विमावदिन्द्रः' (ऋ. सं. १. ६१. १५) इति । “गन्धर्वं गवां रश्मीनां धर्तारं सूर्यम् “अस्तृतं केनाप्यहिंसितं “त्सरत् अत्सरत् । छद्मगत्यागच्छत् । सूर्येण योद्धं गतवानित्यर्थः ॥

यः । ऋते । चित् । अभिऽश्रिषः । पुरा । जत्रुऽभ्यः । आऽतृदः ।सम्ऽधाता । सम्ऽधिम् । मघऽवा । पुरुऽवसुः । इष्कर्ता । विऽह्रुतम् । पुनरिति ॥१२

"यः इन्द्रः “अभिश्रिषः अभिश्लिषोऽभिश्लेषणात् संधानद्रव्यात् "ऋते “चित् विनापि “जत्रुभ्यः ग्रीवाभ्यः सकाशात् "आतृदः आतर्दनात् आ रुधिरनिःस्रवणात् "पुरा पूर्वमेव “संधिं संधातव्यं तं “संधाता संयोजयिता भवति “मघवा धनवान् “पुरूवसुः बहुधनः स इन्द्रः “विह्रुतं विच्छिन्नं तं “पुनः “इष्कर्ता संस्कर्ता भवति ।।

मा । भूम । निष्ट्याःऽइव । इन्द्र । त्वत् । अरणाःऽइव ।वनानि । न । प्रऽजहितानि । अद्रिऽवः । दुरोषासः । अमन्महि ॥१३

हे "इन्द्र “त्वत् त्वत्तः त्वत्प्रसादात् "निष्ट्याइव। नीचैर्भूता हीना निष्ट्याः । त इव वयं “मा “भूम । तथा “अरणाइव अरमणा दुःखिन इव वयं मा भूम । अपि च "प्रजहितानि प्रक्षीणानि शाखादिभिर्वियुक्तानि “वनानि “न वृक्षजातानीव वयं पुत्रादिभिर्वियुक्ता मा भूम । हे "अद्रिवः वज़वन्निन्द्र “दुरोषासः ओषितुमन्यैर्दग्धुमशक्या दुर्येषु गृहेषु निवसन्तो वा वयम् "अमन्महि त्वां स्तुमः॥

अमन्महि । इत् । अनाशवः । अनुग्रासः । च । वृत्रऽहन् ।सकृत् । सु । ते । महता । शूर । राधसा । अनु । स्तोमम् । मुदीमहि ॥१४

हे “वृत्रहन् वृत्रस्यासुरस्य हन्तरिन्द्र “अनाशवः अशीघ्रा अत्वरमाणाः “अनुग्रासः अनुग्रा अनुद्गूर्णाः “च सन्तो वयं भक्तिश्रद्धापुरःसरं शनैस्त्वाम् "अमन्महीत् स्तुम एव । हे “शूर वीर्यवन्निन्द्र “ते त्वदर्थं “सकृत् एकवारमपि “महता प्रभूतेन “राधसा धनेन हविर्लक्षणेन सह “सु शोभनं “स्तोमं स्तोत्रम् “अनु “मुदीमहि अनुमोदेमहि । अनुब्रवामेत्यर्थः ॥

यदि । स्तोमम् । मम । श्रवत् । अस्माकम् । इन्द्रम् । इन्दवः ।तिरः । पवित्रम् । ससृऽवांसः । आशवः । मन्दन्तु । तुग्र्यऽवृधः ॥१५

अयमिन्द्रः “मम मदीयं स्तोत्रं “यदि “श्रवत् शृणुयात् तदानीं तम् “इन्द्रम् “अस्माकम् अस्मदीयाः “इन्दवः सोमाः "मदन्तु मादयन्तु हर्षयन्तु । कीदृशाः सोमाः। “तिरः तिर्यगवस्थितं “पवित्रं पवनसाधनं दशापवित्रं “ससृवांसः प्राप्तवन्तः । दशापवित्रेण पूता इत्यर्थः । “आशवः शीघ्रं मदजनकाः "तुग्र्यावृधः तुग्र्याभिर्वसतीवर्येकधनाख्याभिरद्भिर्वर्धमानाः ॥ ॥ १२ ॥

आ । तु । अद्य । सधऽस्तुतिम् । ववातुः । सख्युः । आ । गहि ।उपऽस्तुतिः । मघोनाम् । प्र । त्वा । अवतु । अध । ते । वश्मि । सुऽस्तुतिम् ॥१६

हे इन्द्र “वावातुः संभक्तुस्त्वां सेवमानस्य “सख्युः स्तोतुः “सधस्तुतिम् अन्यैर्ऋत्विग्भिः सह क्रियमाणां स्तुतिम् “अद्य इदानीं “तु क्षिप्रम् “आ “गहि आगच्छ । “मघोनां हविष्मतामन्येषामपि यजमानानाम् “उपस्तुतिः स्तोत्रं “त्वा त्वां “प्र “अवतु प्रगच्छतु प्रतर्पयतु वा। “अध अधुना “सुष्टुतिं त्वद्विषयां शोभनां स्तुतिमहमपि “वश्मि कामये ।।

सोत । हि । सोमम् । अद्रिऽभिः । आ । ईम् । एनम् । अप्ऽसु । धावत ।गव्या । वस्त्राऽइव । वासयन्तः । इत् । नरः । निः । धुक्षन् । वक्षणाभ्यः ॥१७

हे अध्वर्यवः “अद्रिभिः ग्रावभिः “सोमं “सोत । हिरवधारणे । अभिषुणुतैव। “एनम् इमम् “अप्सु वसतीवरीषु “आ “धावत । अस्य सोमस्य धवनं कुरुत । अदाभ्यग्रहे हिमादासुत इत्यादिभिर्मन्त्रैर्वसतीवरीष्वाधवनं सोमस्य क्रियते । तत् कुरुतेत्यर्थः । “गव्या गवि भवानि “वस्त्रेव वस्त्राण्याच्छादकानि चर्माणीव मेघान “वासयन्त “इत् आच्छादयन्त एव “नरः नेतार इन्द्रस्यानुचरा मरुतः “वक्षणाभ्यः नदीभ्यो नदीनामर्थाय “निर्धुक्षन् उदकानि निर्दुहन्ति क्षारयन्ति । यत एवमतः कारणादिन्द्रयागाय सोममद्रिभिरभिषुणुतैव । मोदासिषतेत्यर्थः ॥

अध । ज्मः । अध । वा । दिवः । बृहतः । रोचनात् । अधि ।अया । वर्धस्व । तन्वा । गिरा । मम । आ । जाता । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । पृण ॥१८

हे इन्द्र “अध अधुना “ज्मः । जमन्ति गच्छन्त्यस्यामिति ज्मा पृथिवी । तस्याः सकाशात् “अध “वा अपि वा “दिवः अन्तरिक्षात् "बृहतः महतः “रोचनात् नक्षत्रैर्दीप्यमानात् स्वर्गाद्वा आगत्य । अधिः पञ्चम्यर्थानुवादी । “अया अनया “तन्वा ततया विस्तृतया “मम मदीयया “गिरा स्तुत्या “वर्धस्व वृद्धो भव । हे “सुक्रतो शोभनकर्मवन्निन्द्र "जाता जातानस्मदीयान् जनान् “आ “पृण अभिलषितैः फलैरापूरय ॥

इन्द्राय । सु । मदिन्ऽतमम् । सोमम् । सोत । वरेण्यम् ।शक्रः । एनम् । पीपयत् । विश्वया । धिया । हिन्वानम् । न । वाजऽयुम् ॥१९

हे अध्वर्यवः “इन्द्राय इन्द्रार्थं “मदिन्तमं मादयितृतमं “वरेण्यं वरणीयं संभजनीयं “सोमं “सु “सोत अभिषुणुत । कुत इत्यत आह । “शक्रः इन्द्रः “विश्वया “धिया सर्वया क्रिययाग्निष्टोमादिलक्षणया “हिन्वानं प्रीणयन्तं “वाजयुम् अन्नमात्मन इच्छन्तम् “एनं यजमानम् । “न इति संप्रत्यर्थीयः । संप्रति “पीपयत् वर्धयति । अतः कारणात्तस्मा इन्द्राय सोमं सुनुतेत्यर्थः ॥

मा । त्वा । सोमस्य । गल्दया । सदा । याचन् । अहम् । गिरा ।भूर्णिम् । मृगम् । न । सवनेषु । चुक्रुधम् । कः । ईशानम् । न । याचिषत् ॥२०

हे इन्द्र त्वां “सवनेषु यज्ञेषु “सोमस्य “गल्दया गालनेनास्रावणेन “गिरा स्तुत्या च युक्तः “अहं “सदा सर्वदा “याचन् याचमानः सन् “मा “चुक्रुधं मा क्रोधयानि । बहुशो याच्यमाने त्वयि क्रोधो जायते तं सोमस्य गालनेन स्तुत्या चापनयामीत्यर्थः । कीदृशं त्वाम् । “भूर्णिं भर्तारं “मृगं “न सिंहमिव भीमम् । स्वामिन इन्द्रस्य याचने लौकिकन्यायं दर्शयति । लोके “कः वा पुरुषः “ईशानम् ईश्वरं स्वामिनं “न “याचिषत् न याचेत । सर्व एव हि याचते । अतोऽहमपि त्वां स्वामिनं याच इति भावः ॥ ॥ १३ ॥

मदेन । इषितम् । मदम् । उग्रम् । उग्रेण । शवसा 

विश्वेषाम् । तरुतारम् । मदऽच्युतम् । मदे । हि । स्म । ददाति । नः ॥२१।

“मदेन मादयित्रा स्तोत्रा “इषितं प्रेषितं “मदं मदकरं सोमम् “उग्रम् उद्गूर्णं रसम् “उग्रेण उद्गूर्णेनाधिकेन “शवसा बलेन युक्त इन्द्रः पिबत्विति शेषः । पीत्वा च "विश्वेषां सर्वेषां शत्रूणां “तरुतारं तरीतारं जेतारं “मदच्युतं मदस्य शत्रूणां गर्वस्य च्यावयितारं पुत्रं “मदे सोमपानेन जनिते हर्षे सति “नः अस्मभ्यं “ददाति “हि “ष्म ददाति खलु । अतः सोमं पिबत्वित्यर्थः ॥

शेवारे । वार्या । पुरु । देवः । मर्ताय । दाशुषे ।सः । सुन्वते । च । स्तुवते । च । रासते । विश्वऽगूर्तः । अरिऽस्तुतः ॥२२

“शेवारे । शेवं सुखम् । तस्य गमके यज्ञे “दाशुषे चरुपुरोडाशादीनि दत्तवते यजमानाय “पुरु पुरूणि बहूनि वार्याणि वरणीयानि धनानि “देवः दानादिगुणयुक्त इन्द्रः “रासते ददाति । “सः एव “सुन्वते “च सोमाभिषवं कुर्वते च “स्तुवते “च स्तोत्रं कुर्वते च धनानि रासते । कीदृशः सः । “विश्वगूर्तः विश्वेषु सर्वेषु कार्येषुद्यतः स्वतः प्रवृत्तः “अरिष्टुतः अरिभिः प्रेरयितृभिः प्रशस्तः ॥

आ । इन्द्र । याहि । मत्स्व । चित्रेण । देव । राधसा सरः । न । प्रासि । उदरम् । सपीतिऽभिः । आ । सोमेभिः । उरु । स्फिरम् ॥२३

हे "इन्द्र “आ “याहि आगच्छ । हे “देव द्योतमान “चित्रेण दर्शनीयेन "राधसा धनेन सोमलक्षणेन “मत्स्व माद्य । “सपीतिभिः मरुद्भिः सह पीयमानैः “सोमेभिः सोमैः "उरु विस्तीर्णं “स्फिरं वृद्धम् “उदरम् आत्मीयं जठरं "सरो “न सर इव “आ “प्रासि आपूरय । ‘प्रा पूरणे' । आदादिकः ॥


चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिने ब्रह्मशस्त्रे ‘ आ त्वा' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियस्तृचः । सूत्र्यते हि-'आ त्वा सहस्रमा शतं मम त्वा सूर उदित इति ब्राह्मणाच्छंसिनः' (आश्व. श्रौ. ७.४) इति ॥

आ । त्वा । सहस्रम् । आ । शतम् । युक्ताः । रथे । हिरण्यये ।ब्रह्मऽयुजः । हरयः । इन्द्र । केशिनः । वहन्तु । सोमऽपीतये ॥२४

हे “इन्द्र “त्वा त्वां “सहस्रं सहस्रसंख्याकाः “हरयः त्वदीया अश्वाः “आ “वहन्तु आनयन्त्वस्मद्यज्ञम् । तथा “शतं शतसंख्याकाश्च भवदीया अश्वास्त्वाम् “आ वहन्तु । यद्यपि द्वावेवास्य हरी तथापि तद्विभूतयोऽन्येऽपि बहवोऽश्वाः सन्ति । ननु युगपदनेकैरश्वैः कथं यातुं शक्यत इति अत आह “युक्ताः इति । “हिरण्यये हिरण्मये स्वर्णविकारे । हिरण्यशब्दाद्विकारार्थे विहितस्य मयटः ‘ऋत्व्यवास्त्व इत्यादौ मलोपो निपात्यते । तादृशे “रथे "युक्ताः संबद्धाः । बहूनामश्वानां शीघ्रगमनाय रथे नियुक्तत्वाद्युगपदेव सर्वैरश्वैर्गन्तुं शक्यत इति भावः । कीदृशा हरयः । “ब्रह्मयुजः ब्रह्मणा परिवृढेनेन्द्रेण युक्ताः । यद्वा ब्रह्मणास्मदीयेन स्तोत्रेणास्माभिर्दत्तेन हविषा वा युक्ताः । “केशिनः । केशाः केसराः । तैर्युक्ताः । किमर्थमिन्द्रस्य वहनं तत्राह । “सोमपीतये सोमस्य पानाय । यथास्मदीयं सोमं पिबेत् अत आवहन्त्वित्यर्थः ॥

आ । त्वा । रथे । हिरण्यये । हरी इति । मयूरऽशेप्या ।शितिऽपृष्ठा । वहताम् । मध्वः । अन्धसः । विवक्षणस्य । पीतये ॥२५।

पूर्वं हर्योर्विभूतिरूपा अश्वा इन्द्रमावहन्त्विति प्रार्थितम् । अधुना तावेवेन्द्रमावहतामिति प्रार्थ्यते। “हिरण्यये हिरण्मये “रथे युक्तौ “मयूरशेप्या मयूरशेपौ मयूरवर्णशेपो ययोस्तौ। ‘सुपां सुलुक्' इति विभक्तेर्ड्यादेशः । “शितिपृष्ठा श्वेतपृष्ठौ एवंभूतावश्वौ” हे इन्द्र त्वाम् “आ “वहताम् । किमर्थम् । “मध्वः मधुररसस्य “विवक्षणस्य वक्तुमिष्टस्य स्तुत्यस्य यद्वा वोढव्यस्य प्राप्तव्यस्य “अन्धसः अन्नस्य सोमरूपस्य “पीतये पानार्थम् ॥ ॥ १४ ॥

पिब । तु । अस्य । गिर्वणः । सुतस्य । पूर्वपाःऽइव परिऽकृतस्य । रसिनः । इयम् । आऽसुतिः । चारुः।  मदाय । पत्यते ॥२६

हे “गिर्वणः गीर्भिवननीय स्तुतिभिः संभजनीयेन्द्र “सुतस्य अभिषुतस्य “अस्य सोमस्य । ‘ क्रियाग्रहणं कर्तव्यम्' इति कर्मणः संप्रदानत्वाच्चतुर्थ्यर्थे षष्ठी ॥ इममभिषुतं सोमं “तु क्षिप्रं “पिब । तत्र दृष्टान्तः । “पूर्वपाइव । पूर्वः सर्वेभ्यो देवेभ्यः प्रथमभावी सन् पिबतीति पूर्वपा वायुः । स इवैन्द्रवायवे मुख्ये ग्रहे सर्वेभ्यो देवेभ्यः पूर्वं पिबेत्यर्थः। कीदृशस्य सोमस्य । “परिष्कृतस्य अभिषवादिभिः संस्कृतस्य ॥ ‘ संपर्युपेभ्यः' (पा. सू. ६. १. १३७ ) इति करोतेर्भूषणे सुट् ।' परिनिविभ्यः' (पा. सू. ८. ३. ७० ) इति सुटः षत्वम् ॥ “रसिनः रसवतः । अपि च “इयमासुतिः अयमासवो मदकरः “चारुः शोभनः सोमरसः "मदाय हर्षाय हर्षजननाय “पत्यते संपद्यते । पत्लृ गतौ ' । यद्वा । पत्यतिरैश्वर्यकर्मा । मदाय मदस्य पत्यते ईष्टे । मदोत्पादने शक्त इत्यर्थः ॥

यः । एकः । अस्ति । दंसना । महाम् । उग्रः । अभि । व्रतैः ।गमत् । सः । शिप्री । न । सः । योषत् । आ । गमत् । हवम् । न । परि । वर्जति ॥२७

"यः इन्द्रः “एकः केवलोऽसहाय एव “व्रतैः आत्मीयैः कर्मभिः “अभि “अस्ति शत्रुनभिभवति । यश्च “दंसना कर्मणा “महान् अधिकः अत एव “उग्रः उद्गूर्णबलः शिप्री। शिप्रं शिरस्त्राणम् । प्रशंसायामिनिः । शोभनशिरस्त्राणः । यद्वा । शिप्रे हनू नासिके वा । तद्वान् । “सः इन्द्रः “गमत् गच्छतु प्राप्नोतु सर्वदा । “सः तादृशः “न "योषत् न पृथग्भवतु । न वियुक्तो भवतु ॥ गमेर्यौतेश्च लेट्यागमः । इतश्च लोपः' इतीकारलोपः। गमेः ' बहुलं छन्दसि ' इति शपो लुक् । यौतेः ‘सिब्बहुलम्' इति सिप् । “हवम् अस्मदीयं स्तोत्रं च “आ “गमत् अभिगच्छतु प्राप्नोतु । “न “परि “वर्जति न परिवर्जयतु न परित्यजतु । सर्वदास्मानस्मदीयं स्तोत्रं चेन्द्रः प्राप्नोत्विति यावत् 


त्वम् । पुरम् । चरिष्ण्वम् । वधैः । शुष्णस्य । सम् । पिणक् ।त्वम् । भाः । अनु । चरः । अध । द्विता । यत् । इन्द्र । हव्यः । भुवः ॥२८

हे इन्द्र “त्वं “शुष्णस्य शोषकस्यासुरस्य “चरिष्ण्वं चरणशीलम् ॥ ‘वा छन्दसि' इत्यभिपूर्वत्वस्य विकल्पितत्वाद्यणादेशः ॥ “पुरं निवासस्थानं “वधैः वज्रादिभिरायुधैः “सं “पिणक् समचूर्णयः । अभाङ्क्षीरित्यर्थः । पिनष्टेर्लङि मध्यमैकवचने रूपमेतत् । “अध अपि च “भाः= भासमानः “त्वम् “अनु “चरः तं शुष्णं हन्तुमन्वगच्छः । यद्वा । ....शुष्णस्य पुरभेदनानन्तरं भा दीप्तीस्त्वमनु चरः अन्वगच्छः । प्राप्तवानित्यर्थः । हे “इन्द्र त्वं “यत् यदा “द्विता द्विधा द्विविधैः स्तोतृभिर्यष्टृभिश्च “हव्यः ह्वातव्यः “भुवः भवेः । तदानीं त्वं शुष्णस्य पुरं सं पिणगित्यन्वयः । भवतेर्लेटि सिप्यडागमः । छान्दसः शपो लुक् । ‘भूसुवोस्तिङि' इति गुणप्रतिषेधादुवङ् ॥

चातुर्विशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने ब्रह्मशस्त्रे ‘ मम त्वा' इति वैकल्पिकोऽनुरूपस्तृचः । सूत्रं तु पूर्वमुदाहृतम् ॥


मम । त्वा । सूरे । उत्ऽइते । मम । मध्यन्दिने । दिवः ।मम । प्रऽपित्वे । अपिऽशर्वरे । वसो इति । आ । स्तोमासः । अवृत्सत ॥२९

“सूरे सूर्ये "उदिते उदयं प्राप्ते पूर्वाह्णसमये “मम “स्तोमासः स्तोत्राणि हे “(वसो= वासकेन्द्र) त्वाम् “आ “अवृत्सत =आवर्तयन्तु । अस्मदभिमुखं गमयन्तु । तथा “दिवः =दिवसस्य  “मध्यंदिने= मध्याह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु। तथा “प्रपित्वे= प्राप्ते दिवसस्यावसाने सायाह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ।“अपिशर्वरे । शर्वरीं रात्रिमपिगतः कालः अपिशर्वरः । शार्वरे कालेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ॥

सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान  सायंकाल में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।

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स्तुहि । स्तुहि । इत् । एते । घ । ते । मंहिष्ठासः । मघोनाम् ।निन्दितऽअश्वः । प्रऽपथी । परमऽज्याः । मघस्य । मेध्यऽअतिथे ॥३०

आसङ्गो राजर्षिर्मेध्यातिथये बहु धनं दत्त्वा तमृषिं दत्तदानस्य स्वस्य स्तुतौ प्रेरयति । हे “मेध्यातिथे यज्ञार्हातिथ एतत्संज्ञर्षे "स्तुहि "स्तुहीत् । पुनःपुनरस्मान् प्रशंसैव। मोदास्व औदासीन्यं मा कार्षीः । “एते “घ एते खलु वयं “मघोनां धनवतां मध्ये “ते तुभ्यं “मघस्य धनस्य “मंहिष्ठासः दातृतमाः । अतोऽस्मान् स्तुहीत्यर्थः । कासौ स्तुतिस्तामाह। “निन्दिताश्वः । यस्य वीर्येण परेषामश्वा निन्दिताः कुत्सिता भवन्ति तादृशः । “प्रपथी । प्रकृष्टः पन्थाः प्रपथः । तद्वान् । सन्मार्गवर्तीत्यर्थः । “परमज्याः उत्कृष्टज्यः । अनेन धनुरादिकं लक्ष्यते । उत्कृष्टायुध इत्यर्थः । यद्वा । परमानुत्कृष्टाञ्छत्रून् जिनाति हिनस्तीति परमज्याः । ज्या वयोहानौ' । अस्मात् ‘आतो मनिन्' इति विच् । एवंभूतोऽहमासङ्ग इति स्तुहीत्यर्थः ॥१५ 

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(आ यदश्वा॒न्वन॑न्वतः श्र॒द्धया॒हं रथे॑ रु॒हम् ।      उ॒त वा॒मस्य॒ वसु॑नश्चिकेतति॒ यो अस्ति॒ याद्व॑: प॒शुः ॥३१। 

ऋग्वेद (८/१/३०)
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(१-“वनन्वतः= वननवतः संभक्तवतः

२-“अश्वान्=तुरगान् "अहं प्रायोगिः 

३-“श्रद्धया आदरातिशयेन युक्तः सन् “यत् यदा हे मेध्यातिथे त्वदीये “रथे

४- “आ “रुहं आरोहयम्।रुहेरन्तर्भावितण्यर्थाल्लुङि ‘ कृमृदृरुहिभ्यः' इति च्लेरङादेशः । तदानीं मामेवं स्तुहि । 

५-“उत अपि च । प्रकृतस्तुत्यपेक्ष एव समुच्चयः ।

 ६-“वामस्य वननीयस्य 

७-“वसुनः धनस्य । पूर्ववत् कर्मणि षष्ठी । ईदृशं धनं “चिकेतति । एष आसङ्गो दातुं जानाति ।

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८- "याद्वः यदुवंशोद्भवः। यद्वा । यदवो मनुष्याः। तेषु प्रसिद्धः।

९- “पशुः । लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा । 

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१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥

हे मेधातिथि ! प्रयोग( प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । 
यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं ( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है वह दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।

"उपर्युक्त ऋचा में सङ्ग एक यदुवंशी राजा है जो पशुओं से समन्वित हैं अर्थात यादव सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति हुआ करती थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार में  प्राचीनत्तम शब्द है । पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का  विकास हुआ

 ( Etymology of pashu-

From Proto-Indo-Iranian *páćufrom 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).

2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎‎ (pasu, “livestock”),

3-Latin pecū (“cattle”), 

4-Old English feoh (“livestock, cattle”),

5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).

पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-

प्रोटो-इंडो-ईरानी *पाउ से, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेउ ("मवेशी, पशुधन") से।

 अवेस्तान (पसु, "पशुधन"), 

लैटिन पेसी ("मवेशी"),

 पुरानी अंग्रेज़ी फीह ("पशुधन, मवेशी"),

(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति।आ

(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥

पदपाठ-

यः । ऋज्रा । मह्यम् । मामहे । सह । त्वचा । हिरण्यया ।एषः । विश्वानि । अभि । अस्तु । सौभगा । आसङ्गस्य । स्वनत्ऽरथः ॥३२।

एवमेवं मां स्तुहीत्यासङ्गो मेध्यातिथिं ब्रूते । “यः आसङ्गस्यात्मा “ऋज्रा= गमनशीलानि धनानि। “हिरण्यया =हिरण्मय्या “त्वचा =चर्मणास्तरणेन “सह सहितानि “मह्यं= मेध्यातिथये अभि =सर्वत: अस्तु=भवतु। {“मामहे = स्तुमहे} । मंह्= पूजायाम् । “एषः आसङ्गस्यात्मा “स्वनद्रथः= शब्दायमानरथः सन्  “विश्वानि= व्याप्तानि सौभगानि धनानि शत्रूणां स्वभूतानि “॥

इस प्रकार मेरी स्तुति करो । आसङ्ग मेथातिथि से कहता है। "उस आसङ्ग का चलायवान धन  स्वर्ण-चर्म के विस्तर सहित मुझ मेधातिथि  लिए हो ।  वही आसङ्ग शब्दायवान रथ से युक्त होकर शत्रुओं से सम्पूर्ण सौभाग्य- पूर्ण धनों को विजित करे। इस प्रकार हम स्तुति करते हैं ।३२।____________

"अध॒ प्लायो॑गि॒रति॑ दासद॒न्याना॑स॒ङ्गो अ॑ग्ने द॒शभि॑: स॒हस्रै: । अधो॒क्षणो॒ दश॒ मह्यं॒ रुश॑न्तो न॒ळा इ॑व॒ सर॑सो॒ निर॑तिष्ठन् ॥३३।

पदपाठ-

अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३।

(१-“अध =अपि च 

२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 

३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 

४“अन्यान् =दातॄन् “

५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 

६-“अध= अनन्तरम् 

७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 

८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

अनुवाद-

आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 
सेचन करने में समर्थ वे ओजस्वी दश हजार बैल उक्षण:-(Oxen) आसङ्ग राजा से निकलकर  मुझ मेधातिथि में उसी प्रकार समाहित होगये ।
जिस प्रकार तालाब में उत्पन्न तृणविशेष तालाब से निकल कर तालाब से समूह बद्ध होकर  बाहर निकल आते हैं; इन्हीं शब्दों के द्वारा तुम मेरी स्तुति करो ! ऐसा मेधातिथि से कहने वाले राजा आसङ्ग हैं।
 इन ३०-से३३ ऋचाओं में इन चार ऋचाओं के वक्ता आसङ्ग हैं और वही देवता हैं यहाँ  यही भाव उत्पन्न होता है ।३०। 
{प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

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अनु । अस्य । स्थूरम् । ददृशे । पुरस्तात् । अनस्थः । ऊरुः । अवऽरम्बमाणः ।

शश्वती । नारी । अभिऽचक्ष्य । आह । सुऽभद्रम् । अर्य । भोजनम् । बिभर्षि ॥३४

अयमासङ्गो राजा कदाचिद्देवशापेन नपुंसको बभूव । तस्य पत्नी शश्वती भर्तुर्नपुंसकत्वेन खिन्ना सती महत्तपस्तेपे । तेन च तपसा स च पुंस्त्वं प्राप । प्राप्तपुंव्यञ्जनं ते रात्रावुपलभ्य प्रीता शश्वत्व मया तमस्तौत् । “अस्य आसङ्गस्य “पुरस्तात् पूर्वभागे गुह्यदेशे “स्थूरं =स्थूलं वृद्धं सत् पुंव्यञ्जनम् “अनु “ददृशे अनुदृश्यते । “अनस्थः अस्थिरहितः स चावयवः “ऊरुः =उरु=र्विस्तीर्णः “अवरम्बमाणः अतिदीर्घत्वेनावाङ्मुखं लम्बमानः । यद्वा । ऊरुः । सुपां सुलुक्' इति द्विवचनस्य सुः । ऊरू प्रत्यवलंबमानो भवति । { “शश्वती नामाङ्गिरसः सुता “नारी तस्यासङ्गस्य भार्या “अभिचक्ष्य एवंभूतमवयवं निशि दृष्ट्वा हे “अर्य स्वामिन् भर्तः} “सुभद्रम्= अतिशयेन कल्याणं “भोजनं =भोगसाधनं “बिभर्षि= धारयसीति “आह= ब्रूते ॥ ३४ ॥

अनुवाद-व अर्थ-★

ये आसङ्ग नामक राजा कभी देव- शाप से नपुंसकता को प्राप्त हो गये थे। तब उनकी पत्नी शाश्वती ने पति के नपुंसक होने से दु:खी होकर महान तप किया। उसी तप से उसके पति आ संग ने  पुरुषत्व को प्राप्त किया। 
पुरुषत्व प्राप्त कर रात्रि काल में पति के सानिध्य में इस ऋचा से उसकी स्तुति की  तब आसंग के पूर्व भाग ( जननेन्द्रिय) में पुरुषत्व की वृद्धि हुई।अस्थि रहित यह अंग अत्यंत दीर्घ होकर वृद्धि से नीचे की ओर लटक गया (लम्बवान होगया)
यह शाश्वती आंगिरस की सुता थी। और आसंग की भार्या। रात्रि काल में जब जनन अंग को देखकर कहा –हे ! आर्य ! स्वामी ! बहुत ही कल्याण कारी जननेन्द्रय को आप धारण करते हो।३४।

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हे मेधातिथि! प्रयोग( प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के  पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । 
यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं ( गाय -महिषी) आदि से युक्त अथवा सूक्ष्म का दृष्टा जो आसङ्ग है वह दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (
अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !
कृषि करना वैश्य का काम है तो 
कितने किसान अर्थ में क्षत्रिय है ?

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
अष्टादश अध्याय पर वर्णित करते हैं ।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
भाष्य -
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः च गौरक्ष्यं च वाणिज्यं च कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः भूमेः विलेखनं गौरक्ष्यं गा रक्षति इति गोरक्षः तद्भावो गौरक्ष्यं पाशुपाल्यं वाणिज्यं वणिक्कर्म क्रयविक्रयादिलक्षणं वैश्यकर्म वैश्यजातेः कर्म वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं शुश्रूषास्वभावं कर्मम शूद्रस्य अपि स्वभावजम्।।44।।
___     
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि 
यवं वृकेण कर्षथः।
ता वामद्य सुमतिभिः शुभस्पती 
अश्विना प्र स्तुवीमहि।६।

पदपाठ-
दशस्यन्ता।मनवे।पूर्व्यम्।दिवि।यवम्।वृकेण। कर्षथः।ता।वाम्।अद्य।सुमतिऽभिः।शुभः।पती इति ।अश्विना।प्र।स्तुवीमहि।६।

हे अश्विनौ 

१-"पूर्व्यं= पुरातनं

 २-“दिवि =द्युलोके स्थितमुदकं 

३-“मनवे =एतन्नामकाय राज्ञे 

४-“दशस्यन्ता दशस्यन्तौ =प्रयच्छन्तौ युवां 

५-“वृकेण= ' वृको लाङ्गलं भवति विकर्तनात्' (निरु. ६.२६) इति यास्कः। तेन लाङ्गलेन 

६-"यवं यवनामकं धान्यं

७- "कर्षथः= पुनश्च तस्मै विलेखनं कुरुथः।

८- “शुभस्पती =उदकस्य पालयितारौ 

हे "अश्विना= अश्विनौ ।

९-“ता =तौ पूर्वोक्तलक्षणयुक्तौ

 १०"वां =युवाम्

११ “अद्य =अस्मिन् यज्ञदिने 

१२“सुमतिभिः =शोभनाभिः स्तुतिभिः प्रकर्षेण

१३ "स्तुवीमहि= वयं स्तुमः ॥

अर्थानुवाद-

हे अश्विनी कुमारों ! द्युलोक (स्वर्ग) में स्थित प्राचीन जल को  मनु नामक राजा को प्रदान करते हुए  जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने लांगल (हल) से यव (जौ) नामक धान्य की खेती की थी। और फिर तुम दोनों ने उस मनु नामक राजा के लिए उस बोये हुए की गुड़ाई की (अर्थात् उन्हें खेती करना सिखाया था।  हे जल के पालक अश्विनी कुमारों ! उन्हीं पूर्वोक्त लक्षण युक्त तुम दोनों की हम इस यज्ञ दिवस पर सुन्दर स्त्रोतों से स्तुति करते हैं।६।

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उप नो वाजिनीवसू यातमृतस्य पथिभिः।
येभिस्तृक्षिं वृषणा त्रासदस्यवं महे क्षत्राय जिन्वथः।७।
  पदपाठ-

उप॑ । नः॒ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । या॒तम् । ऋ॒तस्य॑ । प॒थिऽभिः॑ । येभिः॑। तृ॒क्षिम्। वृ॒ष॒णा॒ ।त्रा॒स॒द॒स्य॒वम्।म॒हे।क्ष॒त्राय॑ । जिन्व॑थः॥७।

सायण-भाष्य-

१-हे “वाजिनीवसू =अन्नधनवन्तौ।अन्नमेव धनं यथोस्तौ।अश्विनौ

२-"ऋतस्य= सत्यभूतस्य यज्ञस्य 

३-“पथिभिः =मार्गैः 

४-“नः =अस्मान् 

५-“उप “यातम् =आगच्छतम् ।

६-“वृषणा= वृषणौ धनानां सेक्तारौ हे अश्विनौ

७-“त्रासदस्यवं= त्रसदस्योः पुत्रं

८-“तृक्षिम् =एतन्नामकं 

९-"येभिः= यैर्यज्ञमार्गैः

१०"महे =महते 

११-“क्षत्राय =धनाय

१२"जिन्वथः= प्रीणयथ।एवं तैर्मार्गैरस्मान् धनादिभिः प्रीणयितुमागच्छतमित्यर्थः

अर्थानुवाद-

अन्न ही धन है  जिनका ऐसे वह दोनों अश्वनी-कुमार सत्य मार्गों से हमको प्राप्त हों। धन का सेचन (वर्षण) करने वाले हे अश्विनी कुमारों ! त्रसदस्यु के पुत्र तृक्षि नामक राजा को जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने महान धन के लिए प्रसन्न किया था । अर्थात् उसी प्रकार उन यज्ञ मार्गों से धनादि के द्वारा हम्हें प्रसन्न करने के लिए तुम आओ।७।

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एतेषां जातिविहितानां कर्मणां सम्यगनुष्ठितानां स्वर्ग प्राप्तिः फलं स्वभावतः।

‘वर्ण आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफल मनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलधर्मायुः श्रुतवृत्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते’ [1]
इत्यादिस्मृतिभ्यः पुराणे च वर्णिनाम् आश्रमिणां च लोकफलभेद विशेषस्मरणात्।

कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- आर्यों त  कार्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
परन्तु वैदिक सन्दर्भों में प्रथम तीन आर्यो के कार्य थे ।

वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवरूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।

जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।

क्योंकि ‘अपने कर्मों में तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर, परलोक में कर्मों का फल भोगकर, बचे हुए कर्मफल के अनुसार श्रेष्ठ देश, काल, जाति, कुल, धर्म, आयु, विद्या, आचार, धन, सुख और मेधा आदि से युक्त, जन्म ग्रहण करते हैं’ इत्यादि स्मृति वचन हैं और पुराण में भी वर्णाश्रमियों के लिए अलग-अलग लोक प्राप्तिरूप फलभेद बतलाया गया है।

जब प्रश्न यह बनत है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको मुहय्या कराता है वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?
इसी लिए कोई ब्राह्मण अलावा स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में नही  क्योंकि यह अब शूद्र ही है ।
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ऋ धातु का वर्तमान कालिक अर्थ गति और प्राप्त करना धातु प्रदीप में उपलब्ध है ।
परन्तु (अर् + इण्) अरि:= (शत्रु) और आर(आरि शस्त्र)  शब्द हिंसा मूलक है । संस्कृत भाषा में "अर्" "ऋ"  काम सम्प्रसारित रूप है। परन्तु आज  अर् धातु  लौकिक संस्कृत में उपलब्ध नहीं है।  सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही वैदिक काल में रही हो  जैसा कि ऋग्वेद के ६/५३/८ में आरं  शब्द (अर्) धातु मूलक है ।

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यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे।            तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥

पदपाठ-

याम् । पूषन् । ब्रह्मऽचोदनीम् । आराम् । बिभर्षि । आघृणे ।तया । समस्य । हृदयम् । आ । रिख । किकिरा । कृणु ॥८

हे १-“आघृणे =आगतदीप्ते “पूषन्

२- “ब्रह्मचोदनीं= ब्रह्मणोऽन्नस्य प्रेरयित्रीं -“याम् 

 ३-“आरां =चर्मखण्डनशस्त्रम् ( आरा)

४- “बिभर्षि =हस्ते धारयसि “तया 

५“समस्य= सर्वस्य लुब्धजनस्य 

६“हृदयम्

७ “आ “रिख =आलिख। 

८“किकिरा= किकिराणि कीर्णानि प्रशिथिलानि च

 ९“कृणु =कुरु ॥

लौकिक संस्कृत में यह अर् धातु पीछे  से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तर, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो। 

यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो । "ऋ" धातु के उत्तर "यत्"  कृत् प्रत्यय करने से "अर्य " और उसमें तद्धित " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य" शब्द की सिद्धि होती है। 

विभिन्न भारोपीय भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है। 

"आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य भी है। पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः"  १/१/१०३ सूत्र इस बात का प्रमाण है।

इन्द्र॑म् । वर्ध॑न्तः । अ॒प्ऽतुरः॑ । कृ॒ण्वन्तः॑ । विश्व॑म् । आर्य॑म् ।अ॒प॒ऽघ्नन्तः॑ । अरा॑व्णः ॥५।

“इन्द्रं “वर्धन्तः =वर्धयन्तः “अप्तुरः =उदकस्य प्रेरकाः “विश्वं =सोममस्मदीयकर्मार्थम् “आर्यं= भद्रं कृषकं “कृण्वन्तः कुर्वन्तः "अराव्णः अदातॄन "अपघ्नन्तः विनाशयन्तः । अभ्यर्षन्तीत्युत्तरया संबन्धः ॥ ॥ ३० ॥

 फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पली लिखा है । फिर, वाजस-नेय (१४-२८) और वैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्षों के नाम-ब्रह्मान, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।

प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण (कृषि) ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। 

भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning ..

आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
 १–गमन करना Togo 
२– मारना to kill
 ३– हल (अरम्) चलाना plough…. 

 हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में  (Harwe) कृषि कार्य करना ..

प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर  और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे ।
वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं ।
इन्हीं से अन्य राजपूती जनजातियों का विकास भी हुआ।
 इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! 

पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तसन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।

 वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है ।

 जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है

 इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । 

अर्थात् कृषि कार्य भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है ! 
देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य थे ।

परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था। 
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इस देव संस्कृति के उपासकों  ने यह प्रेरणा ग्रहण की। 

सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था। 
कृषि के जनक गोपालक चरावाहे थे।
 देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे । ब्राह्मण केवल पुरोहित थे आर्य नहीं -आर्य शब्द मूलत: कृषक और पशुपालक का वाचक था।
घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे । 
'परन्तु इज़राएल और फलिस्तीन के यहूदियों के अबीर कबीलों के समानान्तरण
ये भी कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे। 
भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायीयों 'ने गो' का सम्मान करना सुमेरियन लोगों से सीखा 
सुमेरियन भाषाओं में गु (Gu) गाय को कहते हैं ।
यहूदियों के पूर्वज  जिन्हें कहीं ब्रह्मा कहीं एब्राहम भी कहा गया सुमेरियन नायक थे ।
 विष्णु  भी सुमेरियन बैबीलॉनियन देवता हैं ।
यहूदियों का तादात्म्य भारतीय पुराणों में वर्णित यदुवंशीयों से है ।
यहूदियों का वर्णन भी चरावाहों के रूप में मिलता है ।
इसमें अबीर मार्शल आर्ट के जानकार हैं ।
राम कृष्ण गोपाल भण्डारकर जिनका तादात्म्य भारतीय अहीरों से करते हैं ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था
अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे । 

संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।
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कल्पद्रुमः

आरा, स्त्री, (आङ् + ऋ + अच् + टाप् ।).      चर्म्म-भेदकास्त्रं । तत्पर्य्यायः । चर्म्मप्रभेदिका २ । इत्यमरः ॥ “उद्यम्यारामग्रकायोत्थितस्य” । इति माघः ।)

अमरकोशः

आरा स्त्री।
चर्मखण्डनशस्त्रम्
समानार्थक:आरा,चर्मप्रभेधिका
2।10।34।2।3
वृक्षादनी वृक्षभेदी टङ्कः पाषाणदारणः। क्रकचोऽस्त्री करपत्रमारा चर्मप्रभेदिका॥
पदार्थ-विभागः : उपकरणम्,आयुधम्

वाचस्पत्यम्

'''आरा'''= स्त्री आ + ऋ--अच्।
१ चर्म्मभेदकास्त्रभेदे।
२ लौहास्त्रे।

'आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टः' अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्मरूप वाला जीवात्मा देखा गया है


३ प्रतोदे च “या पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां विभर्ष्यामृणे” ऋ॰६/५३/८
“उद्यम्यारामग्रकायोत्थितस्य” माघः।
“आरां प्रतोदम्” मल्लिनाथः।

Apte-

आरा [ārā], See under आर.

Monier-Williams

आरा f. a shoemaker's (awl)आल- or knife

आरा आरा-मुख, etc. See. 2. आर.

Vedic Index of Names and Subjects

'''Ārā,''' a word later Hillebrandt, ''Vedische Mythologie,'' 3, 365. n. 1. known as an ‘awl’ or ‘gimlet,’ occurs in the Rigveda vi. 53. 8. only to designate a weapon of Pūṣan, with whose pastoral character its later use for piercing leather is consistent. ''Cf.'' '''[[वाशी|Vāśī]].'''

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awl ऑल- (n.)

"pointed instrument for piercing small holes in leather, wood, etc.

,Old English æl "awl, piercer," from Proto-Germanic *ælo (source also of Old Norse alr,  

- Dutch aal,  –

Middle Low German al, _

Old High German äla, 

German Ahle), which is of uncertain origin.

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अवल अल- (सं.)"चमड़े, लकड़ी आदि में छोटे-छोटे छेद करने का नुकीला यंत्र।

,"पुरानी अंग्रेज़ी æl" awl, पियर्सर- छेद करने या -, " प्रोटो-जर्मेनिक * ælo से (पुराने नॉर्स alr का स्रोत भी,

- डच आल, -

मध्य निम्न जर्मन अल, _

ओल्ड हाई जर्मन अला,

जर्मन अहले), जो अनिश्चित मूल का है।

सारांश यह कि -
आर्य का अर्थ कृषक और "आर्य्य" कृषक-सन्तान हैं। ऋग्वेद में ब्रह्मन् शब्द का एक अर्थ है मन्त्रकर्त्ता। इसी ब्रह्मन् ही से ब्राह्मण शब्द निकला है। ब्रह्मन् अर्थात् मन्त्रकर्त्ता के पुत्र का नाम ब्राह्मण है।  जो भ्रमर की तरह मन्त्र उचारण करे वह बाह्मण है ।

विश शब्द का एक अर्थ है मनुष्य। इसी विश से वैश्य शब्द की उत्पत्ति है, जिसका अर्थ है मनुष्य-सन्तान। इसी नियम के अनुसार "आर्य्य" शब्द का अर्थ "अर्य्य-पुत्र" अर्थात् कृषक-सन्तान होता है। "आर्य्य" शब्द का अर्थ चाहे कृषक हो, चाहे कृषक सन्तान हो, परिणाम एक ही है। अतएव आदि में "आर्य्य" शब्द कृषक-वाची था।

परन्तु इसमें लज्जा की कोई बात नहीं। कोई समाज ऐसा नहीं जिसमे जीवन धारण करने के लिए न मृगयासक्ति छोड़ कर कृषि करने की ज़रूरत न पड़ी हो और समाज के गौरवशाली महात्माओं ने कृषि न की हो। कोई भी नई बात करने के लिए समाज के मुखिया महात्माओं ही को अग्रगन्ता होना पड़ता है। 

क्योकि ऐसा किये बिना और लोग पुराने पन्थ को छोड़ कर नये पन्थ से जाते संकोच करते हैं। अतएव जिन्होंने कृषिकार्य की उद्भावना पहले पहले की उनको अपने ही हाथ से हल चलाना पड़ा। यही कारण है जो उन्होंने अर्य्य या आर्य्य नाम ग्रहण किया।

वैदिक ऋषि इन्हीं कृषकों के वंशज थे। प्राचीन आर्य्यों की तरह वैदिक मन्त्रकर्त्ता ऋषि भी अपने हाथ से हल चलाते थे।

 इसके प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में "कृष्टी" शब्द अनेक बार आया है। जो "कृष्" धातु मूलक है ____________________________

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । 

(अग्निपुराण 151/9)

कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।

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एक ओर मनु स्मृति यज्ञ के नाम पर निर्दोष पशुओं के वध का तो आदेश देती है। 

मनुस्मृति में वर्णन है कि

वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा । हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83

ब्राह्मण व क्षत्रिय भी वैश्य के धर्म से निर्वाह करते हुये जहाँ तक सम्भव हो कृषि (खेती) ही न करें  जो कि हल के आधीन है अर्थात् हल आदि के बिना कुछ फल प्राप्त नहीं होता।

अर्थात कृषि कार्य वैश्य  ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।

निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।

परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।

इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार  ने कीनाशों को शूद्र बताया है।

परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा 

सिवाय व्यापार के सायद यही कारण है । किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।

और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है 

वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी  अनाज उत्पन्न करता है ।

उस किसान की शान में भी यह  शासन की गुस्ताखी है ।

किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला  सायद दूसरा कोई नहीं  इस संसार में परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !

फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है  कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को  वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने  किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाला और  अन्तत: शूद्र  वर्ण में समायोजित कर दिया है ।

यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान कुी रोटी से पेट भरते हैं  ।

परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में  निराधार ही थे ।

किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।

किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।

रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।

वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।

यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता  ब्राह्मण की  दृष्टि में निम्न ही है ।

हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले 

कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ?  विचार कर ले !

श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥

कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।

वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवरूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।

पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।परन्तु किसान के लिए यह दुर्भाग्य ही है ।

किसान का जीवन आर्थिक रूप से सदैव से संकट में रहा उसकी फसल का मूल्य व्यापारी ही तय करता है ।

उसके पास कठिन श्रम करने के उपरान्त भी उनका अभाव ही रहा !

परन्तु खाद और बीज का मूल्य भी व्यापारी उच्च दामों पर तय करता है ; और ऊपर से प्राकृतिक आपदा और ईति, के प्रकोप का भी किसान भाजन होता रहता है ।

ईति खेती को हानि पहुँचानेवाले वे उपद्रव है ।जो किसान का दुर्भाग्य बनकर आते हैं ।इन्हें  शास्त्रों में छह प्रकार का बताया गया था :

अतिवृष्टिरनावृष्टि: शलभा मूषका: शुका:।प्रत्यासन्नाश्च राजान: षडेता ईतय: स्मृता:।।

(अर्थात् अतिवृष्टि,(अधिक वर्षा) अनावृष्टि(सूखा), टिड्डी पड़ना, चूहे लगना, पक्षियों की अधिकता तथा दूसरे राजा की चढ़ाई।)

परन्तु अब ईति का पैटर्न ही बदल गया है। गाय, नीलगाय और सूअर ।माऊँ खर पतवार ।

खेती बाड़ी के चक्कर में कृषक आज बीमार !!यद्यपि गायों के लिए कुछ मूर्ख किसान ही दोषी हैं 

जो दूध पीकर गाय दूसरों के नुकसान के लिए छोड़ देते हैं 

परन्तु सब किसान नहीं हर समाज वर्ग में कुछ अपवाद होते ही हैं ।

अब प्रश्न यह बनता है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको कहें कि   पूरे देश को मुहय्या कराता है; वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?

परन्तु वह शूद्र ही है । फिर भी उसका ही अन्न खाकर पाप नहीं लगता ,?

इसी लिए कोई ब्राह्मण अथवा जो  स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में साथ नहीं  होता है क्योंकि यह कृषक अब शूद्र ही है ।

और शूद्रों के अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता है 

धर्म शास्त्रों के अनुसार !भारतीय राजनीति विशेषत: भारतीय जानता पार्टी जो आर. एस. एस . तथा धर्मशास्त्रों की अनुक्रियायों का पालन करना अपना आदर्श मानती है ।

वही लोग किसानों के अधिकार जब्त करने के षड्यंत्र लोकतांत्रिक रूप में बना रहे हैं ।

परन्तु समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार सिद्धांत और नियम भी बदलने चाहिए जोकि बदलते भी हैं  ।

परन्तु रूढ़िवादी समाज इस विचार का विरोधी ही है ।

यह सर्व विदित है वर्तमान में इस सरकार की नीतियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों के प्रति वफादारी और शूद्रों के प्रति गद्दारी का भाव निहित है ।

सड़क ,घर और अब किसानों की जमीन भी सरकार के अधीन कुछ कूटनीतिपरक नियमों के तहत होगी ।

एसी सरकार की योजना है ।

वर्तमान केन्द्र सरकार किसानों की कृषि सम्पदा को अपने अधीन करने के लिए एक कपटमूर्त विधेयक लाई थी जिस पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद वे कानून भी बन गया है । 

लेकिन किसानों के लिए बने ये कानून है । जो उसकी अस्मिता का संवैधानिक खून ही है  ।

परोक्ष रूप से इन कानूनों से किसानों को नुकसान और निजी खरीदारों व बड़े कॉरपोरेट घरानों को फायदा होगा.

जो सरकार की नीतियों में शरीक है, सामिल है

 किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा। और मजबूर किसान मिट्टी भाव में अपनी उपज व्यापारियों को बेचने पर मजबूर होगा ।

देश के करीब 500 अलग-अलग संगठनों ने मिलकर संयुक्त किसान मोर्चे  के बैनर तले संगठित होकर सरकार के काले कानून के  विरोध में लाम बन्द  होकर आन्दोलन जारी कर दियाहैं ।

परन्तु उनके इस आन्दोलन को विरोधी आतंकवादी कारनामा करार दे रहे हैं ।ये तीन काले कानून ये हैं 

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(1). किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक 2020: इसका उद्देश्य विभिन्न राज्य विधानसभाओं द्वारा गठित कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) द्वारा विनियमित मंडियों के बाहर कृषि उपज की बिक्री की अनुमति देना है.

ताकि मजबूर किसान की फसल का मूल्य मनमाने तरीके व्यापारी तय करेंगे ।

सरकार का कहना है कि किसान इस कानून के जरिये अब (एपीएमसी) मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे. निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे.

परन्तु चालवाजी की भी सरहद पार कर दी यह तो भोले किसान को भरमाकर 

उसे ठगा जाना है क्योंकि विदेश से अनाज आयात या  मंगा कर  भारतीय किसान की  फसल को मूल्य हीन कर दिया जाएगा। लेकिन, सरकारी  दिखावा और दावा मात्र छलाबा है ।

 सरकार ने इस कानून के जरिये( एपीएमसी) मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है. एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (APMC) के स्वामित्व वाले अनाज बाजार (मंडियों) को उन बिलों में शामिल नहीं किया गया है. 

इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को समझौते के तहत खुली छूट दी गई है. ताकि बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं.।

परोक्ष रूप से सरकार का समर्थन कॉरपोरेट खरीददारों को रहेगा ।

सरकार धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म कर सकती है, जिस पर सरकार किसानों से अनाज खरीदती है. 

और किसान परेशान और बे शान होकर अपने अस्मिता को खो देगा ।

2. किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक: - इस कानून का उद्देश्य अनुबंध खेती यानी (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) की अनुुुमति देना है. आप की जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा.तब किसान के पास झुनझुना होगा 

और किसान पैसे की तंगी से मजबूर होकर यह करेगा ही और फसल की कीमत तय करने व विवाद की स्थिति का बड़ी कंपनियां लाभ उठाने का प्रयास करेंगी और छोटे किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी किसान खुद बर्बाद हो जाएगा।

तीसरा कानून. (आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक) यह कानून अनाज, दालों, आलू,लहसुन प्याज और खाद्य तिलहन जैसे खाद्य पदार्थों के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण को विनियमित (exchanged) करता है.।

 यानी इस तरह के खाद्य पदार्थ आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर करने का प्रावधान है. इसके बाद युद्ध व प्राकृतिक आपदा जैसी आपात स्थितियों को छोड़कर भंडारण की कोई सीमा नहीं रह जाएगी.

इसके चलते कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी. उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी और सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है ?  

किसान की कृषि सम्पदा का मूल्यांकन निरस्त ही हो जाएगा ।

नए कानूनों के तहत कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुकसान किसानों को ही होगा।

लेकिन केंद्र सरकार साफ कर चुकी है कि किसी भी कीमत पर कृषि कानून को न तो वापस लिया जाएगा और न ही उसमें कोई फेरबदल किया जाएगा. 

सरकार की यह दमन नीति कानून के तहत काम करेगी।

–ये सरकारी कानून किसानों के हित में नहीं है और कृषि के निजीकरण को प्रोत्साहन देने वाले हैं. 

इनसे होर्डर्स( जमाखोरी )और बड़े कॉरपोरेट.(निगमित या समष्टिगत) घरानों को ही फायदा होगा.

किसान मजदूर भी नहीं रहेगा क्योंकि कृषि कार्य नयी तकनीक की मशीनों से ही होगा । 

होर्डस :- किसी वस्तु की जमाखोरी, नाश या बेचने या बिक्री के लिए उपलब्ध करने से इनकार या किसी सेवा को प्रदान करने से इनकार, यदि ऐसी ज़माखोरी, नाश अथवा इनकार उस  जैसी वस्तुओं या सेवाओं की लागत को बढ़ाता है अथवा बढ़ाने की ओर प्रवृत्त करता है।

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               "यादव योगेश कुमार "रोहि"

                ऋग्वेदः सूक्तं ७.१९
     ऋग्वेदः - मण्डल ७
सूक्तं ७.१९
मैत्रावरुणिर्वसिष्ठः।

दे. इन्द्रः। त्रिष्टुप्।

यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम एकः                      कृष्टीश्च्यावयति प्र विश्वाः।

यः शश्वतो अदाशुषो गयस्य प्रयन्तासि   सुष्वितराय वेदः ॥१॥

त्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावःशुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये।
दासं यच्छुष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥२॥

त्वं धृष्णो धृषता वीतहव्यं प्रावो विश्वाभिरूतिभिः सुदासम् ।
प्र पौरुकुत्सिं त्रसदस्युमावः क्षेत्रसाता वृत्रहत्येषु पूरुम् ॥३॥

त्वं नृभिर्नृमणो देववीतौ भूरीणि वृत्रा हर्यश्व हंसि ।
त्वं नि दस्युं चुमुरिं धुनिं चास्वापयो दभीतये सुहन्तु ॥४॥

तव च्यौत्नानि वज्रहस्त तानि नव यत्पुरो नवतिं च सद्यः ।
निवेशने शततमाविवेषीरहञ्च वृत्रं नमुचिमुताहन् ॥५॥

सना ता त इन्द्र भोजनानि रातहव्याय दाशुषे सुदासे ।
वृष्णे ते हरी वृषणा युनज्मि व्यन्तु ब्रह्माणि पुरुशाक वाजम् ॥६॥

मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टावघाय भूम हरिवः परादै ।
त्रायस्व नोऽवृकेभिर्वरूथैस्तव प्रियासः सूरिषु स्याम ॥७॥__________________________________

प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। 
नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥८॥

सद्यश्चिन्नु ते मघवन्नभिष्टौ नरःशंसन्त्युक्थशास उक्था ।
ये ते हवेभिर्वि पणीँरदाशन्नस्मान्वृणीष्व युज्याय तस्मै ॥९॥

एते स्तोमा नरां नृतम तुभ्यमस्मद्र्यञ्चो ददतो मघानि ।
तेषामिन्द्र वृत्रहत्ये शिवो भूः सखा च शूरोऽविता च नृणाम् ॥१०॥

नू इन्द्र शूर स्तवमान ऊती ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधस्व ।
उप नो वाजान्मिमीह्युप स्तीन्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥११॥

सायणभाष्यम् ★

‘यस्तिग्मशृङ्गः' इत्येकादशर्चं द्वितीयं सूक्तं वसिष्ठस्यार्षं त्रैष्टुभमैन्द्रम् । तथा चानुक्रान्तं’ यस्तिग्मशृङ्ग एकादश' इति । आभिप्लविके पञ्चमेऽहन्येतन्निविद्धानम् । सूत्रितं च---‘कया शुभा यस्तिग्मशृङ्ग इति मध्यंदिनः ' ( आश्व. श्रौ. ७. ७ ) इति । विषुवति निष्केवल्यशस्त्रेऽप्येतत्सूक्तम् । सूत्रितं च--’ यस्तिग्मशृङ्गोऽभि त्यं मेषम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ६) इति । महाव्रते निष्केवल्येऽप्येतत् सूक्तम् । सूत्रितं च-’ यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम उग्रो जज्ञे वीर्याय स्वधावान्' (ऐ. आ. ५. २. २ ) इति । आयुष्कामेष्ट्यां ‘मा ते अस्याम्' इतीन्द्रस्य त्रातुर्याज्या । सूत्रितं च – ' मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टौ पाहि नो अग्ने पायुभिः' (आश्व. श्रौ. २. १०) इति ॥

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पदपाठ-

यः । तिग्मऽशृङ्गः । वृषभः । न । भीमः । एकः । कृष्टीः । च्यवयति । प्र । विश्वाः ।यः । शश्वतः । अदाशुषः । गयस्य । प्रऽयन्ता । असि । सुस्विऽतराय । वेदः ॥१।।

“यः= इन्द्रः

 “तिग्मशृङ्गः= तीक्ष्णशृङ्गः

 “वृषभो “ वृषभ 

“भीमः भयंकरः सन् 

“एकः =

 “विश्वाः सर्वान्

 “कृष्टीः  कृषका: 

 “प्र “च्यावयति ।

 “यः चेन्द्रः 

“अदाशुषः अयजमानस्य 

“शश्वतः बहोः 

“गयस्य गृहस्य धनस्य वा । अपहर्ता भवतीति शेष: । हे इन्द्र स त्वं "सुष्वितराय अतिशयेन सोमाभि<वं कुर्वते जनाय "वेदः धनं “प्रयन्ता प्रदाता "असि ॥ तृन्नन्तत्वादत्र षष्ठ्या अभावः । असि इत्यस्याख्यातस्यानुदात्तत्वात् यद्वृत्तयोगाच्चानुदात्तत्वासंभवात् यद्वृत्तयुक्तमाख्यातान्तरमध्याहृत्य योजना कृता ।।

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त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑माव॒ः शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा॑ सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्य॑स्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥२।।

पदपाठ-

त्वम् । ह । त्यत् । इन्द्र । कुत्सम् । आवः । शुश्रूषमाणः । तन्वा । सऽमर्ये ।दासम् । यत् । शुष्णम् । कुयवम् । नि । अस्मै । अरन्धयः । आर्जुनेयाय । शिक्षन् ॥२।।

हे “इन्द्र “त्वं “ह त्वं खलु “त्यत् तदा "तन्वा =शरीरेण “शुश्रूषमाणः उपचरन् "समर्ये मर्यैर्मर्त्यैर्योद्धभिः सहिते युद्धे “कुत्सम् "आवः अरक्षः । कदेत्यत्राह । "यत् यदा "आर्जुनेयाय अर्जुन्याः पुत्राय “अस्मै कुत्साय "शिक्षन् धनं प्रयच्छन् "दासं दासनामकमसुरं “शुष्णं च "कुयवं च “नि "अरन्धयः नितरां वशमानयः ॥

पदपाठ-

त्वम् । धृष्णो इति । धृषता । वीतऽहव्यम् । प्र । आवः । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । सुऽदासम् ।

प्र । पौरुऽकुत्सिम् । त्रसदस्युम् । आवः । क्षेत्रऽसाता । वृत्रऽहत्येषु । पूरुम् ॥३।।

हे “धृष्णो =शत्रूणां धर्षकेन्द्र

 "धृषता =धर्षकेण वज्रेण बलेन वा 

"वीतहव्यं= दत्तहविष्कं प्रजनितहविष्कं वा "सुदासं राजानं 

"विश्वाभिः= सर्वाभिः 

“ऊतिभिः= रक्षाभिः 

"प्रावः =प्रकर्षेणारक्षः । किंच 

“वृत्रहत्येषु =युद्धेषु 

"क्षेत्रसाता =क्षेत्रसातौ क्षेत्रस्य भूमेर्भजने निमित्ते पौरुकुत्सिं पुरुकुत्सस्यापत्यं 

“त्रसदस्युं “पूरुं च “प्र “आवः ॥

त्वम् । नृऽभिः । नृऽमनः । देवऽवीतौ । भूरीणि । वृत्रा । हरिऽअश्व । हंसि ।त्वम् । नि । दस्युम् । चुमुरिम् । धुनिम् । च । अस्वापयः । दभीतये । सुऽहन्तु ॥४।।

हे "नृमणः नृभिर्यज्ञानां नेतृभिः स्तोतृभिर्मननीय स्तोतव्येन्द्र । नृषु मनो यस्येति बहुव्रीहिर्वा । “देववीतौ यज्ञे क्रियमाणे सति संग्रामे वा । देवा विजिगीषवो यस्मिन् वियन्ति गच्छन्तीति संग्रामो देववीतिः। "नृभिः मरुद्भिः सह "भूरीणि बहूनि "वृत्रा वृत्राणि शत्रून् "हंसि मारितवानसि । किंच हे "हर्यश्व इन्द्र “त्वं “दभीतये दभीतिनामकाय राजर्षये । तदर्थमित्यर्थः । “दस्युं “चुमुरिं च “धुनिं च "सुहन्तु सुहन्तुना वज्रेण "नि नितराम् "अस्वापयः । मारितवानसीत्यर्थः ॥

तव । च्यौत्नानि । वज्रऽहस्त । तानि । नव । यत् । पुरः । नवतिम् । च । सद्यः ।निऽवेशने । शतऽतमा । अविवेषीः । अहन् । च । वृत्रम् । नमुचिम् । उत । अहन् ॥५।।

हे "वज्रहस्त “तव “च्यौत्नानि बलानि "तानि तादृशानि । "यत् यदा त्वं शम्बरस्य "नव “नवतिं "च “पुरः "सद्यः युगपदेव विदारितवानसीति शेषः । तदा "निवेशने निवेशनार्थं “शततमा शततमीं पुरम् "अविवेषीः व्याप्नोः । "वृत्रं "च "अहन् । "उत अपि च "नमुचिम् “अहन् ॥ ॥ २९ ॥

सना । ता । ते । इन्द्र । भोजनानि । रातऽहव्याय । दाशुषे । सुऽदासे ।वृष्णे । ते । हरी इति । वृषणा । युनज्मि । व्यन्तु । ब्रह्माणि । पुरुऽशाक । वाजम् ॥६।।

हे "इन्द्र "ते तव "रातहव्याय दत्तहव्याय "दाशुषे यजमानाय "सुदासे "ता तानि त्वया दत्तानि “भोजनानि भोग्यानि धनानि “सना सनानि सनातनानि बभूवुरिति शेषः । हे "पुरुशाक बहुकर्मन्निन्द्र "वृष्णे कामानां वर्षित्रे "ते तुभ्यम् । त्वामानेतुमित्यर्थः । "वृषणा वृषणौ “हरी अश्वौ “युनज्मि रथे योजयामि । “ब्रह्माणि अस्मदीयानि स्तोत्राणि "वाजं बलिनं त्वां “व्यन्तु गच्छन्तु ॥

मा । ते । अस्याम् । सहसाऽवन् । परिष्टौ । अघाय । भूम । हरिऽवः । पराऽदै ।त्रायस्व । नः । अवृकेभिः । वरूथैः । तव । प्रियासः । सूरिषु । स्याम ॥७।

हे "सहसावन् बलवन् "हरिवः हरिवन्निन्द्र "ते तव "अस्यां स्तोत्रेणास्माभिः क्रियमाणायां “परिष्टौ अन्वेषणायां "परादै परादानाय "अघाय अ(आ?)हन्त्रे वयं "मा "भूम । किंच "नः अस्मान् “अवृकेभिः अबाधैः "वरूथैः । वारयन्त्युपद्रवेभ्य इति वरूथानि रक्षणानि । तैः “त्रायस्व पाहि । “तव "सूरिषु स्तोतृषु मध्ये वयं "प्रियासः प्रियाः स्याम भूयास्म ॥

प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः ।नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।

हे "मघवन् धनवन्निन्द्र “ते तव "अभिष्टौ अभ्येषणे "नरः स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः प्रियाश्च सन्तः “शरणे "इत् गृह एव “मदेम मोदेम । किंच “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । तस्मै सुदासे दिवोदासाय वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं शंसनीयं सुखं "करिष्यन् कुर्वन् "तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥

सद्यः । चित् । नु । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । शंसन्ति । उक्थऽशासः । उक्था ।ये । ते । हवेभिः । वि । पणीन् । अदाशन् । अस्मान् । वृणीष्व । युज्याय । तस्मै ॥९।

हे "मघवन् धनवन्निन्द्र "ते तव “नु अद्य "अभिष्टौ अभ्येषणे "ये "नरः “उक्थशासः उक्थानां शंसितारः “उक्था उक्थानि शस्त्राणि "सद्यश्चित् सद्य एव “शंसन्ति । किंच "ते तव "हवेभिः स्तोत्रैः "पणीन् अप्रदानशीलान् वणिजोऽपि “वि “अदाशन् । धनानि विशेषेणादापयन्नित्यर्थः । तान् "अस्मान् "तस्मै "युज्याय सख्याय तत्सख्यमनुवर्तयितुं "वृणीष्व परिगृहाण ॥

एते । स्तोमाः । नराम् । नृऽतम । तुभ्यम् । अस्मद्र्यञ्चः । ददतः । मघानि ।तेषाम् । इन्द्र । वृत्रऽहत्ये । शिवः । भूः । सखा । च । शूरः । अविता । च । नृणाम् ॥१०।

हे "नृतम नेतृतम "इन्द्र "तुभ्यं "नरां नेतॄणां ये “एते "स्तोमाः संघाः "मघानि मंहनीयानि - हवींषि “ददतः ददन्तः "अस्मद्र्यञ्चः अस्मदभिमुखाः अभूवन्निति शेषः । "तेषां "नृणां "वृत्रहत्ये संग्रामे "शिवः कल्याणकृत् 'भूः भव। "सखा “च भूः । “अविता' रक्षिता “च भूः ॥

नु । इन्द्र । शूर । स्तवमानः । ऊती । ब्रह्मऽजूतः । तन्वा । ववृधस्व ।उप । नः । वाजान् । मिमीहि । उप । स्तीन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥११।

हे "शूर “इन्द्र “नु अद्य "स्तवमानः अस्माभिः स्तूयमानः “ब्रह्मजूतः ब्रह्मणा स्तोत्रेण प्रेरितः “तन्वा शरीरेण ऊत्या रक्षणेन’ “ववृधस्व । अपि च "नः अस्मभ्यं “वाजान् अन्नानि “उप “मिमीहि । प्रयच्छेत्यर्थः । "स्तीन गृहांश्च “उप मिमीहि । स्पष्टमन्यत् ॥ ॥ ३० ॥

वेदार्थस्य प्रकाशेन तमो हार्दं निवारयन् ।पुमर्थांश्चतुरो देयाद्विद्यातीर्थमहेश्वरः ॥

इति- श्रीमद्राजाधिराजपरमेश्वरवैदिकमार्गप्रवर्तकश्रीवीरबुक्कभूपालसाम्राज्यधुरंधरेण सायणाचार्येण विरचिते माधवीये वेदार्थप्रकाशे ऋक्संहिताभाष्ये

    ।।पञ्चमाष्टके द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः॥
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