अपने-अपने कर्मों में निरत द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) वेदों को पढ़ें।
सर्वेषां ब्राह्मणो विद्याद् वृत्त्युपायान् यथाविधि।
प्रब्रूयादितरेभ्यश्च स्वयं चैव तथा भवेत्॥10.2॥
वैशेष्यात्प्रकृतिश्रैष्ठ्यान्नियमस्य च धारणात्।
संस्कारस्य विशेषाच्च वर्णानां ब्राह्मणः प्रभुः॥10.3॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन्हीं तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, चौथा एक जाति वर्ण शूद्र है। पाँचवाँ कोई नहीं है।
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सभी वर्णों में सजातीय अक्षतयोनि वाली स्त्रियों से अनुलोम विधि से जो सन्तान होगी, वह उसी वर्ण की होगी जैसे ब्राह्मण से ब्राह्मण में उत्पन्न पुत्र ब्राह्मण ही होगा।
व्यवधान रहित अपने से निम्न वर्ण की स्त्रियों में द्विजातियों से उत्पन्न हुए पुत्र माता के हीन जातीय होने से निन्दित और पिता के सदृश होते हैं।
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"हिन्दी अनुवाद★–"यह व्यवधान रहित अपने से हीन जाति की स्त्रियों से उत्पन्न पुत्रों की यह सनातन विधि कही। अब दो अथवा एक वर्ण के अन्तर वाली स्त्रियों उत्पन्न यह नियम है।
ब्राह्मण से वैश्य कन्या से उत्पन्न पुत्र को अम्बष्ठ कहते हैं और शूद्र कन्या से उत्पन्न पुत्र को निषाद या पार्शव कहते हैं।
क्षत्रिय से शूद्र कन्या में उत्पन्न पुत्र क्रूर आचार और विहार करने वाला होता है। उसकी प्रकृति क्षत्रिय और शूद्र दोनों के जैसी होती है और उसे उग्र कहते हैं।
ब्राह्मण से अन्य तीन वर्णवाली (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) स्त्रियों से उत्पन्न पुत्र और वैश्य से केवल शूद्र वर्ण की स्त्री से उत्पन्न पुत्र, ये छः प्रकार के पुत्र अपसद कहलाते हैं।
ब्राह्मण की कन्या से क्षत्रिय द्वारा उत्पन्न हुए पुत्र की जाति सूत होती है। क्षत्रिय और ब्राह्मण की कन्या से वैश्य द्वारा उत्पन्न हुए पुत्र क्रमशः मागध और वैदेह जाति के होते हैं।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की कन्या से शूद्र द्वारा उत्पन्न हुए सन्तान क्रम से अयोगव, क्षत्ता और अधम चाण्डाल, वर्णसंकर होते हैं।
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अनुलोम से एकान्तर में जैसे अम्बष्ठ और उग्र हैं वैसे ही प्रतिलोम रीति से एकान्तर वर्ण में उत्पन्न क्षत्ता और वैदेह हैं।
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द्विजातियों के अनन्तर स्त्रियों से जो सन्तानें पैदा होती हैं, वे माता के दोष से (अर्थात माता से भिन्न जाति होने से) उसी जाति के पुकारे जाते हैं।
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उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) में ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण कहते हैं।
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प्रतिलोम रीति से उत्पन्न आयोगव, क्षत्ता और मनुष्यों में अधम चाण्डाल, ये तीनों सर्वदा शूद्र से भी नीच होते हैं।
वैश्य द्वारा प्रतिलोम रीति से उत्पन्न (अर्थात क्षत्रिय और ब्राह्मण की कन्या से) पुत्र क्रम से मागध और वैदेह तथा क्षत्रिय से उत्पन्न (ब्राह्मण की कन्या से) सूत पुत्र रूप; ये तीनों सर्वदा भ्रष्ट होते हैं।
शूद्र की कन्या से निषाद द्वारा उत्पन्न पुत्र पुक्कस और निषाद की कन्या से शूद्र द्वारा उत्पन्न पुत्र कुक्कुटक कहा जाता है।
उग्र कन्या से क्षत्ता द्वारा उत्पन्न पुत्र को श्र्वपाक कहते हैं, अम्बष्ठ कन्या से वैदेह द्वारा उत्पन्न पुत्र को वेण कहते हैं।
द्विजातियों से सवर्ण स्त्रियों में जो पुत्र होते हैं, यदि उनका यज्ञोपवीत संस्कार न किया गया हो तो सावित्री से भ्रष्ट होने के कारण ब्रात्य कहे जाते हैं।
ब्रात्य विप्र से पापात्मा, भूर्जकण्टक पुत्र उत्पन्न होता है, उसी को आवन्त्य, पुष्पध और शैख भी कहते हैं।
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क्षत्रिय वर्ण के ब्रात्य से उत्पन्न पुत्र को झल्ल, मल्ल, लिच्छिवि, नट, करण, खस और द्रविड कहते हैं।
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वैश्य वर्ण के ब्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और सात्वत कहते हैं।
विप्रादि वर्गों का परस्पर व्यभिचार करने से, स्वगोत्र में विवाह करने से और अपने-अपने कर्मों को छोड़ देने से वर्ण संकर उत्पन्न होते हैं।
प्रतिलोम और अनुलोम से जो संकीर्ण जातियाँ उत्पन्न होती हैं तथा परस्पर व्यभिचार से जो जातियाँ उत्पन्न होती हैं, उनको अशेषत: कहता हूँ।
सूत, वैदेहक, नराधम, चाण्डाल, मागध, क्षत्ता और आयोगव ये भी वर्ण संकर हैं।
ये छः अपने सजातीय माता की जाति तथा श्रेष्ठ जाति की कन्याएँ अपने ही अनुरूप सन्तान को उत्पन्न करती हैं।
जैसे (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) तीन वर्णों के बीच दो वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य) की विवाहिता कन्याओं से ब्राह्मण द्वारा अनुलोम क्रम से उत्पन्न पुत्र श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार वैश्य और क्षत्रिय से क्षत्रिय स्त्री और ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न पुत्र शूद्र के प्रतिलोमज पुत्र से श्रेष्ठ होता है।
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ये पूर्वोक्त वर्णसंकर परस्पर स्त्रियों में उभयक्रम से अत्यन्त निन्दित सन्तान उत्पन्न करते हैं।
जिस प्रकार शूद्र ब्राह्मणी से निन्दित चाण्डाल पैदा करता है, उसी प्रकार चारों चाण्डाल जातियाँ अपने से निन्दित सन्तानों को उत्पन्न करती हैं।
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प्रतिकूल वर्तमान बाह्य हीन पुत्रों से चारों वर्णों की स्त्रियों से उत्पन्न और स्वजातीय स्त्रियों में पन्द्रह-पन्द्रह प्रकार बाह्यतर हीन जाति उत्पन्न होती हैं।
आयागव स्त्री से दस्यु द्वारा उत्पन्न हुए पुत्र को सैरिन्ध्र कहते हैं। वह प्रसाधनोपचार (केश रचनादि) में कुशल और जूठा न खाकर दासवृत्ति और व्याध (बहेलिये) की वृत्ति से अपना निर्वाह करता है।
(वर्तमान में चार वर्णों में से प्रत्येक की महिलाओं द्वारा उत्पन्न प्रतिकूल और बहिष्कृत पुत्र और एक ही जाति की महिलाएं 15-15 निम्नतम सबसे नीच जातियों का उत्पादन करती हैं)
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वैदेह से पूर्वोक्त स्त्री में उत्पन्न पुत्र को मैत्रेय कहते हैं। वह मधुर बोलने वाला और सूर्योदय में घंटा बजाकर अपनी जीविका के लिए मनुष्यों की प्रशंसा करता-फिरता है।
निषाद से पूर्वोक्त स्त्री में उत्पन्न पुत्र को मार्गव या दास कहते हैं, जो कि नौका के द्वारा जीवन निर्वाह करता है, जिसे आर्यावर्त में रहने वाले कैवर्त-केवट कहते हैं।
पूर्वोक्त तीनों (सैरिन्ध्र, मैत्रेय, मार्गव) हीन जातियाँ मुर्दे का वस्त्र पहनने वाली और गर्हित-झूठा खाने वाली आयोगवी स्त्रियों से उत्पन्न होकर भिन्न-भिन्न होती हैं।
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निषाद जाति से वैदेह पत्नी में उत्पन्न पुत्र करावर नाम की चमार जाति उत्पन्न होती है ;और वैदेहिक जाति से पूर्वोक्त पत्नियों में अन्ध्र और मेद क्रम से उत्पन्न होते हैं; जो ग्राम से बाहर घर बनाकर रहते हैं।
चाण्डाल से वैदेहिक स्त्री द्वारा पाण्डु सोपाक नामक जाति का पुत्र उत्पन्न होता है, जो कि बाँस से जीविका चलाने वाला( त्वकसार) होता है। निषाद से वैदेहिक पत्नी में अहिन्डक जाति का पुत्र उत्पन्न होता है।
चाण्डाल से पुक्कसी स्त्री से सोपाक जाति के पुत्र उत्पन्न होते हैं, जो अपने मूल व्यवसाय बधिक वृत्ति, को करने वाले होते हैं। हमेशा पाप करने वाले ये लोग सज्जनों से निन्दित होते हैं।
निषाद जाति की स्त्री चांडाल से अन्त्यावसायी पुत्र को उत्पन्न करती है, जो कि श्मशान का काम करने वाला और चाण्डाल से भी हीन होता है।
वर्ण संकरों की इतनी जातियाँ पिता-माता के भेद से दिखाई गईं और जो गुप्त और प्रकाश में अन्य जातियाँ हैं, उन्हें उनके कर्म के अनुसार समझना चाहिये।
द्विजातियों के सजातीय स्त्रियों में अनन्तर जातियों (अनुलोम क्रम) द्वारा अर्थात ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय और वैश्य से तथा क्षत्रिय द्वारा वेश से, ये छः द्विजत्व के अधिकारी होते हैं और प्रतिलोम क्रम से उत्पन्न जातियाँ शूद्र के सह धर्मी हैं; इसलिए वे द्विजत्व के योग्य नहीं हैं।
वे (पूर्वोक्त सजातीय और अनुलोमज) युग-युग में तपस्या और बीज के प्रभाव से जन्म से ही मनुष्यों के बीच उच्चता और नीचता को प्राप्त होते हैं।दो विभिन्न प्रजातियों से उत्पन्न, दोग़ला;
ये क्षत्रिय जातियाँ क्रिया के (उपनयनादि) लोप होने से ब्राह्मण का दर्शन न होने के कारण (अनध्ययनादि) इस लोक में शूद्रता को प्राप्त होती हैं।
पौंड्रक, औड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पहलव, चीन, किरात, दरद और खश।
मुख-ब्राह्मण, बाहु-क्षत्रिय, उरू-वैश्य और पद-शूद्र की बाह्य जातियाँ हो गई हैं; वे चाहे मल्लेच्छ अथवा आर्य दोनों में चाहे जिस भाषा को बोलें, वे संसार में दस्यु-डाकू कही जाती हैं।
द्विजों से उत्पन्न अपसद और प्रतिलोमज जातियाँ द्विजों के लिये आगे कहे हुए निन्दित कर्मों द्वारा अपना जीवन निर्वाह करें।
सूत का कार्य घोड़ों का सारथ्य (साईसी) करना और रथ हाँकना (कोचवानी) है। अम्बष्ठों का चिकित्सा (दवा-दारू), वैदेहकों का काम जनान खाने में स्त्रियों की सेवा-सहायता करना और मागधों का कार्य स्थल मार्ग रोजगार करना है।
निषादों का कार्य मछली मारना, अयोगवों का कार्य लकड़ी का है। मेध, आंध्र, चुञ्चुओं और मद्गुओं का कार्य जंगली पशुओं का वध करना है।
क्षत्रुप्रपुक्कसानां तु बिलौकोवधबन्धनम्।धिग्वणानां चर्मकार्यं वेणानां भाण्डवादनम्॥10.49॥
क्षत्ता, उग्र और पुक्क्सों का कार्य बिल में रहने वाले जीवों को बाँधना और मारना है। धिग्वणों का कार्य चमड़ा बेचना और वेणों का कार्य बजाने वाले बर्तनों-संगीत यंत्रों को बजाना है।
ये पूर्वोक्त जातियाँ ग्राम के निकट किसी विशिष्ट वृक्ष के नीचे अथवा श्मशान, पहाड़ अथवा उपवन में अपने कर्म के अनुरूप जीविका अर्जित करते हुए वास करें।
वासांसि मृतचैलानि भिन्नभाण्डेषु भोजनम्।
कार्ष्णायसमलङ्कारः परिव्रज्या च नित्यशः॥10.52॥
चाण्डाल और श्वपचों( कुत्ते का माँस खाने वाले का) के रहने का स्थान गाँव के बाहर रहना चाहिये। इनके पात्र (बर्तन) मिट्टी के होने चाहिये और कुत्ता और गधा ही इनका धन है, मुर्दों के उतारे वस्त्र ही इनके वस्त्र हैं।
इन्हें टूटे-फूटे बर्तनों में भोजन करना चाहिये, लौह के आभूषण पहनने चाहिये और नित्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमना चाहिये।
धर्म कार्य में संलग्न मनुष्य, इनके साथ भाषण आदि व्यवहार न करे। इनका विवाह और परस्पर व्यवहार (लेन-देन) आपस में ही होता है।
इनको अपने नौकरों से टूटे-फूटे बर्तनों से अन्न दिलवावे। ये रात में गाँव या नगर में न घूमें।
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ये राज चिन्हों-अनुमति पत्र को धारण कर दिन में काम के लिये घूमें। जिनके कोई बन्धु-बान्धव नहीं हैं, उन लोगों के शव को ऐसे व्यक्ति ढोवें यहीं निर्णय है।
शास्त्र के अनुसार राजा की आज्ञा से दिये हुये दण्डित का वध करें, फाँसी दें और उसके कपड़े, चारपाई, आभूषण ले लें।
जो मनुष्य वर्ण से रहित अज्ञात और कलुषित योनि (वर्णसंकर से उत्पन्न) के रूप में अनार्य हों, उन्हें उनके कर्म से जानना चाहिये।
अनार्यता (असाधुता-दुष्टता,अशिष्टता,असभ्यता), निष्ठुरता, क्रूरता, अकर्मण्यता, ये लक्षण इस संसार में कलुषित योनि में उत्पन्न पुरुषों के होते हैं।
दुष्टता,अशिष्टता,असभ्यता, निष्ठुरता, क्रूरता,
पूर्वोक्त पुरुष पिता या माता के अथवा दोनों के शील स्वभाव के अनुसार ही होते हैं। किसी भी प्रकार यह दुष्ट कुल में उत्पन्न पुरुष अपने असली रूप को छिपा नहीं सकते।
श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर भी जो वर्णसंकर हो जाता है, वह अपने जन्म देने वाले के स्वभाव से वंचित नहीं रहता। थोड़ा या अधिक अपने पूर्वज का स्वभाव उसमें रहता है।
जहाँ पर, जिस देश में, ये वर्ण को दुखित करने वाले, वर्ण संकर उत्पन्न होते हैं, वह देश प्रजा के साथ शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
ब्राह्मण, गौ, स्त्रियों और बालकों की आपत्ति काल में रक्षा के लिये निरपेक्ष बुद्धि से प्रतिलोम जातियों का प्राण देना, उनको (रक्षा के लिये प्राण देने वालों के लिये) ब्रह्म सिद्धि का स्वर्ण अवसर होता है।
अहिंसा (किसी को भी मन, वाणी और शरीर से दुःख न देना) सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्रता और इन्द्रियों का निग्रह करना; यह संक्षेप में चारों वर्णों का धर्म है।
ब्राह्मण से यदि शूद्रा (शूद्र जाति से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न कन्या, ब्याही जाये और आगे भी यही क्रम जारी रहे तो वह अपनी सातवीं पीढ़ी में नीच योनि से उद्धार पाकर ब्राह्मण हो जाती है।
जैसे शूद्र ब्राह्मणत्व को और ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न शूद्र भी क्षत्रियत्व और वैश्यत्व प्राप्त होते हैं।
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ब्राह्मण से अपनी इच्छा से कुँवारी अनार्य कन्या में और अनार्य से ब्राह्मण कन्या से उत्पन्न पुत्रों में कौन श्रेष्ठ है; ऐसी शंका होने पर ब्राह्मण से अनार्य कन्या से उत्पन्न पुत्र श्रेष्ठ है, यह समझना चाहिये, क्योंकि वह पाकादि गुणों से युक्त होता है।
अनार्य से ब्राह्मण कन्या में उत्पन्न पुत्र हीन-अप्रशस्त है, उसके प्रतिलोमज होने के कारण यही निश्चय समझना चाहिये।
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ये दोनों (पूर्वोक्त उत्पन्न पुत्र) उपनयनादि संस्कारों के अधिकारी नहीं होते, यह शास्त्र की व्यवस्था है। मंत्र से ही वैगुण्य होने के कारण और दूसरा प्रतिलोमज होने के कारण यज्ञोपवीतादि सस्कारों के योग्य नहीं हैं।
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जैसे अच्छे खेत में अच्छा बीज बोने से अच्छी उपज होती है, उसी प्रकार आर्य पुरुष से आर्य स्त्री में उत्पन्न पुत्र संस्कारों का अधिकारी होता है।
ब्राह्मण या क्षत्रिय, जिन्होंने अपने वर्ण धर्म को जारी रखने के लिए इसे जारी रखना असंभव पाकर छोड़ दिया है, उन्हें अपनी आय बढ़ाने के लिए व्यापार-व्यवसाय का सहारा लेना चाहिए, लेकिन केवल उन वस्तुओं में जिनमें वैश्य व्यवहार नहीं कर रहे हैं।
टिप्पणी-
वर्तमान कलियुग के दौरान जीवन के सभी क्षेत्रों, जाति-वर्ण के लोग उन नौकरियों का सहारा ले रहे हैं जो उनके लिए नहीं थे, जिससे अराजकता पैदा हो रही थी। ब्राह्मणों को हेयर ड्रेसर, ब्यूटीशियन, ड्राई क्लीनर, सेनेटरी इंस्पेक्टर के रूप में काम करते देखा जाता है। सबसे बुरा हुआ है, कुलीन परिवारों के ब्राह्मण जीवित रहने के लिए सड़कों की सफाई का सहारा लेते हैं।
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कोई बीज की प्रशंसा करता है, कोई क्षेत्र की, कोई दोनों की प्रशंसा करता है, इसलिए इस विषय में यह व्यवस्था है।
This is the ruling-doctrine since some learned-specialist sages praise the seed-sperms, some praise the Kshetr (field-ovum) & some praise both the sperm & ovum i.e., male & female.
यह शासक-सिद्धांत है क्योंकि कुछ विद्वान-विशेषज्ञ ऋषि बीज-शुक्राणु की प्रशंसा करते हैं, कुछ क्षेत्र (क्षेत्र-अंडाणु) की प्रशंसा करते हैं और कुछ शुक्राणु और डिंब यानी नर और मादा दोनों की प्रशंसा करते हैं।
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खराब खेत में (ऊसर-बंजर भूमि) में बोया हुआ बीज उगने से पहले ही नष्ट हो जाता है और जिस खेत में बीज ही न पड़े वह केवल संथडिल ही रहता है।
Seed sown in barren field do not germinate and rot before germination; while the field in which no seed is sown will not yield crops.
संथडिल : भूमि-जमीन, यज्ञ के लिए साफ की हुई भूमि, सीमा-हद, मिट्टी का ढेर, एक ऋषि। शय्या, स्त्री, व्रत के कारण भूमि-जमीन पर सोना, भूमि-शयन।
जिस कारण से बीज के प्रभाव से तिर्यक जाति उत्पन्न होने पर भी ऋषि होकर पूजित हुए, इसलिए बीज ही प्रधान है।
The root cause is seed, since its the seed due to which person (born in inferior clan-Varn, caste), turn into to a sage even after taking birth in a cross breed-contaminated family, hybrid woman.
It shows the dominance of the sperm, genes, chromosomes drived out of the father and transmuted to the mother in determining the caste of the off spring.
Bhagwan Ved Vyas born out of Saty Wati who took birth from a fish and nourished by a boats man-Mallah, was the son of Rishi Parashar. He retained the qualities of his father. Ravan born out of Kekasi-a demoness, was the son of Rishi Vishrava (grandson of Bhagwan Brahma Ji) who retained the qualities of his father and became a noted scholar, great astrologer and a great warrior along with being a author in diplomacy.
Thus, the supremacy of genes received from father is established, concluded, ruled.
आर्य और अनार्य का कार्य करने वाले इन दोनों के विषय में विधाता ने कहा कि वे न तो समान हैं न असमान ही हैं।
The creator considered the duties performed by both the Ary and Anary and said that they are neither equal nor unequal.
Sonia-Rahul are Mallechchh, & mixed breed from Muslim & Christian families. Both of them proved to be worst as a human being and politician. They are grossly corrupt.
जो ब्राह्मण अपने कर्म में संलग्न और ब्रह्मनिष्ठ हैं, वे आगे कहे हुए छः कर्मों का भली भाँति अनुष्ठान करें।
अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह; ये छः कार्य ब्राह्मणों के हैं।
इन छः कर्मों में तीन काम याजन (यज्ञ कराना), अध्यापन और विशुद्ध दान लेना ब्राह्मणों की जीविका है।
ब्राह्मण से क्षत्रिय तीन धर्मों अध्ययन, याजन और तीसरा प्रतिग्रह (दान लेना से रहित है।
उसी प्रकार वैश्य भी इन तीन धर्मों से निवृत्त है, यही तथ्य है, क्योंकि प्रजापति मनु ने इन लोगों के प्रति ये धर्म नहीं कहे हैं।
क्षत्रिय को हथियार धारण करना और वैश्य को पशु-पालन, खेती और जीविका के लिये व्यापार करना चाहिये। इनका दान-धर्म देना, अध्ययन और यज्ञ करना है।
ब्राह्मण को वेदाभ्यास, क्षत्रिय को प्रजा की रक्षा और वैश्य को व्यापार करना, ये ही उनके विशेष कर्म हैं।
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यदि ब्राह्मण अपने यथोक्त कर्म से जीविका न करे तो क्षत्रिय धर्म से जीविका चलावे, क्योंकि क्षात्र धर्म ही उसके निकट धर्म है।
If the Brahmn is unable to maintain his family through teaching, performing Yagy for others, he may adopt Kshatriy Dharm of saving-protecting others, i.e., he may join army or forces.
Dronachary, Krapachary and Ashwatthama were great warriors unmatched. Parshu Ram made the earth free from the atrocities of Kshatriy 21 times. Dronachary sacrificed his life in Maha Bhart war but remaining three are still alive.
The Brahmns provided training in warfare to the Kshatriy which necessitated expertise in warfare on their part. They had expertise in arms and ammunition as well. The scriptures describe use of fire arms-weapons at length which needed expertise on the part of the teacher.
यदि दोनों प्रकार की जीविका से ब्राह्मण अपनी जीविका न चला सके तो उसकी जीविका कैसे हो!? ऐसी स्थिति में खेती और गौ रक्षा को करके वैश्य वृत्ति से अपनी जीविका चलाये।
After the onset of Buddhism, the Brahmns suffered a lot and engaged themselves in agriculture and rearing of cattle. Even after independence under successive regimes, their position has not changed. They are facing insult at the hands of scheduled castes who reach high positions in society without any talent, calibre, quality, just because they are scheduled castes. The irony is that most of these people do not deserve even low positions-cadre jobs like peon!
वैश्य की वृत्ति से जीवन यापन करता हुआ ब्राह्मण या क्षत्रिय हिंसा वाली पराधीन कृषि को यत्न पूर्वक त्याग दे।
The Brahmns and Kshatriy should reject the services meant for the Vaeshy involving violence adopted by them for survival.
The Brahmn should continue with regular prayers, worship, Yagy in spite of all odds.
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कृषि कर्म श्रेष्ठ है, ऐसा कोई-कोई मानते हैं, किन्तु सज्जनों ने कृषि की निन्दा की है, क्योंकि खेती के औजार (फरसा, फार, हल) से भूमि और भूमि और भूमि में रहने वाले जीवों का नाश होता है।
ब्राह्मण या क्षत्रिय, जिन्होंने अपने वर्ण धर्म को जारी रखने के लिए इसे जारी रखना असंभव पाकर छोड़ दिया है, उन्हें अपनी आय बढ़ाने के लिए व्यापार-व्यवसाय का सहारा लेना चाहिए, लेकिन केवल उन वस्तुओं में जिनमें वैश्य व्यवहार नहीं कर रहे हैं।
वर्तमान कलियुग के दौरान जीवन के सभी क्षेत्रों, जाति-वर्ण के लोग उन नौकरियों का सहारा ले रहे हैं जो उनके लिए नहीं थे, जिससे अराजकता पैदा हो रही थी। ब्राह्मणों को हेयर ड्रेसर, ब्यूटीशियन, ड्राई क्लीनर, सेनेटरी इंस्पेक्टर के रूप में काम करते देखा जाता है। सबसे बुरा हुआ है, कुलीन परिवारों के ब्राह्मण जीवित रहने के लिए सड़कों की सफाई का सहारा लेते हैं
Some people believe agriculture to be an excellent trade-profession but gentleman opines that its not a noble profession meant for the Brahmns, since it involves tilting-ploughing the fields and killing of insects etc. by the agricultural appliances.
A Brahmn engaged in farming should resort to regular fasts on Amavashya-no moon night. He should pledge donations-alms to the beggars-needy, as well. He should reward the low castes associated with him in farming, as well.
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जिन ब्राह्मण या क्षत्रियों ने अपनी निज वृत्ति से जीविका असंभव समझकर अपने धर्म नैपुण्य का त्याग किया हो, वे वैश्यों के व्यापार पदार्थों को छोड़कर अन्य वस्तुओं का व्यापार अपने धन को बढ़ाने के लिये करें।
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं का व्यापार न करें :- सभी प्रकार के रसों से युक्त पदार्थ, अन्न से बने पदार्थ, तिल, पत्थर, नमक, पशु और मनुष्य।
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं का व्यापार न करें :- सभी प्रकार के बने वस्त्र, लाल रंग, तीसी की छाल और ऊनी वस्त्र, यदि रंगे न हों, तब भी और फल, मूल और औषधि।
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं का व्यापार न करें :- पानी, हथियार, विष, माँस, सोम रस, सभी प्रकार के सुगन्धित पदार्थ, दूध, दही, घी, तेल, मधु, गुड़ और कुश।
अपने धर्म का त्याग करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी इन वस्तुओं का व्यापार न करें :- सभी प्रकार के जंगल में रहने वाले पशु-जानवर, दाढ़ वाले पशु, पक्षी, मदिरा, नील, लाख और जिन पशुओं का खुर जुड़ा हो उन्हें न बेचे।
अपनी किसी फसल में अन्य धानों के साथ अधिक मात्रा में तिल पैदा कर धर्माथ उसे बेचें।
जो भोजन, उबटन और दान के अलावा अन्य कार्य तिल से करता है; वह कीड़ा होकर पितरों के साथ कुत्ते की विष्ठा में गिरता है।
माँस, लाख और नमक बेचने से ब्राह्मण शीघ्र ही पतित हो जाता है और दूध बेचने से तीन ही दिन में शूद्र हो जाता है।
इतर पदार्थों (माँसादि को छोड़कर) को स्वेच्छा से बेचने पर ब्राह्मण सात रात में ही वैश्यत्व को प्राप्त करता है।
रस को रस से बदल सकते हैं, किन्तु नमक अन्य रसों से नहीं बदला जा सकता। पक्वान्न कच्चे अन्न और तिल, धान से दोनों बराबर-बराबर तौलकर बदला जा सकता है।
इस प्रकार आपत्ति में फँसा हुआ क्षत्रिय अपनी जीविका चला सकता है, परन्तु कभी भी ब्राह्मण की वृत्ति का अबलम्बन न करे।
जो अधम जाति, मोह से उत्तम वृत्ति से जीवन निर्वाह करता हो, उसको राजा निर्धन करके शीघ्र ही देश से निकाल दे।
अपना धर्म यदि किसी प्रकार खण्डित हो तो भी श्रेष्ठ है, किन्तु दूसरे का धर्म सर्वाङ्ग सम्पन्न होते हुए भी श्रेष्ठ नहीं है; क्योंकि दूसरे के बल पर जीने वाला शीघ्र ही जाति से पतित हो जाता है।
यदि वैश्य अपनी जीविका से जीवन निर्वाह न कर सके तो शूद्र वृत्ति से जीविका का निर्वाह करे और शक्तिशाली हो जाने पर उसे छोड़ दे।
यदि द्विजातियों की सेवा करने में शूद्र असमर्थ हो और उसके बीबी-बच्चे अन्नादि का कष्ट पा रहे हों तो वह कारीगरी का काम करके जीविका चला कर सबका भरण-पोषण करे।
जिन प्रचलित कार्यों द्वारा द्विजातियों की सेवा की जा सकती है, वे अनेक प्रकार के शिल्प और कारीगरी के काम हैं।
The technical-mechanical jobs which can be practices-adopted for serving the upper caste are crafts and artisans.
अपने मार्ग-धर्म में स्थित ब्राह्मण यदि वृत्ति के अभाव से पीड़ित होकर यदि वैश्य वृत्ति न कर सके तो आगे कही हुई वृत्ति को करे।
आपत्ति में फंसा हुआ ब्राह्मण दान लेवे। धर्मशास्त्र में यह प्रसिद्ध है कि पवित्र वस्तु दूषित नहीं होती।
अध्यापन (अपात्र को पढ़ाने) से, याजन (यज्ञ करने से) अथवा निकृष्ट दान लेने से ब्राह्मणों को दोष नहीं लगता क्योंकि ब्राह्मण अग्नि और जल के समान है।
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जैसे आकाश कीचड़ से लिप्त नहीं होता वैसे ही प्राण जाने के भय से जो इधर-उधर अन्न खा लेता है वह प्राणी भी पाप से लिप्त नहीं होता।
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भूख से व्याकुल अजीगर्त ऋषि पुत्र को मारने-वध करने के लिये तैयार हो गये (यज्ञ में बलि देने के लिये)। किन्तु क्षुदा के मिटाने के लिये ऐसा करने पर भी वे पाप से लिप्त नहीं हुए।
जब अजीगर्त ऋषि ने भूख के कारण जान को खतरा होने पर यज्ञ में अपने पुत्र को बलिदान के लिए देने पर सहमति व्यक्त की, तो उसका पाप नहीं हुआ।
साधु-संत कई दिनों तक भूख को सहन करते हैं और मांस या दूषित भोजन खाने से बचते हैं। भूख से मर रहे हजारों निर्दोष लोगों को ईसाई मिशनरियों द्वारा परिवर्तित किया गया था। उनका सारा सामान छीन लिया गया और उन्हें अंग्रेजों ने भूखा मरने के लिए मजबूर कर दिया। आदिवासी इलाकों में अभी भी यह गंदा खेल चल रहा है। मुसलमान लड़कियों का अपहरण करते हैं, उन्हें भूखा रखते हैं और फिर उन्हें वेश्यावृत्ति में धकेल देते हैं। अपराधी हिंदू भी पीछे नहीं.
धर्म-अधर्म को जानने वाले वामदेव ऋषि ने प्राणों की रक्षा के लिये क्षुधा से आर्त होकर कुत्ते के माँस को खाने की इच्छा की और वे उस पाप से लिप्त नहीं हुए।
Rishi Vamdev who are aware-enlightened of the gist of Dharm & Adharm was not sully-slurred by sin when he desired to eat the flesh of a dog under the impact of hunger to protect his life.
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निर्जन वन में क्षुधा से पीड़ित महातपस्वी भरद्वाज ऋषि ने अपने पुत्र के साथ वृधु नामक बढ़ई से बहुत सारी गायें माँगी थीं।
Great ascetic Bhardwaj along with his son asked Vrabhu-a carpenter, many cows when he was stared by hunger in a lonely forest.
धर्म-अधर्म को जानने वाले विश्वामित्र ऋषि भूख से व्याकुल-आर्त होकर चाण्डाल के हाथ से कुत्ते के जंघे (कुल्हा, रान, नितम्ब) का माँस लेकर खाने को तैयार हो गये।
Rishi Vishwa Mitr who knew the gist of Dharm-Adharm (right-wrong), agreed to eat the dog’s haunch receiving it from a Chandal, tormented by hunger.
दान, यज्ञ और अध्यापन से जो प्रतिग्रह लिया जाता है, वह ब्राह्मण के लिये अत्यंत निकृष्ट है और वह अंतिम अवस्था में नर्क देने वाला होता है।
सभी द्विजों के जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ है, सभी समयों में याजन और अध्यापन होता है। शूद्र और अन्त्यज से भी प्रतिग्रह लिया जाता है (अर्थात पढ़ने और यज्ञ से करने से दान लेना निषिद्ध कर्म है)।
याजन और अध्यापन से किया हुआ पाप जप और होम से नष्ट होता है और प्रतिग्रह से जो पाप होता है, वह प्रतिग्रह से ली गई वस्तु के त्याग और तपस्या से नष्ट होता है।
इधर-उधर जीविका के लिये प्रतिग्रह न लेकर ब्राह्मण शिलोञ्छवृत्ति का आश्रय ले। प्रतिग्रह से शिलवृत्ति अच्छी है और शिल से उञ्छवृत्ति अच्छी है।
शिलोञ्छवृत्ति :: कटे हुए खेत की बाल का बीनकर लाना; gleaning of food grain ear from a harvested field.
उञ्छवृत्ति :: कटे हुए खेत से धन का एक-एक दाना चुनना; gleaning of food grain from a harvested field.
स्नातक ब्राह्मण द्रव्याभाव के कारण दुखी होकर यदि धन की इच्छा करे तो राजा से याचना करे, यदि राजा धन न दे तो, उसका राजा-राज्य त्याग कर दे।
दाय (पूर्वजों की सम्पत्ति), लाभ (गढ़े हुए धन की प्राप्ति), क्रय (खरीदना), जय (जीतकर लेना), प्रयोग (ब्याज पर द्रव्य-धन देने से), कर्मयोग (खेती और वाणिज्य) और दान; ये सात रास्ते धर्म मार्ग से धन प्राप्त करने के हैं।
विद्या (जीवकोपयोगी विद्या), शिल्प (कारीगरी), वेतन लेकर काम करना, सेवा, गोरक्षा, खेती, संतोष, भिक्षा और ब्याज का व्यापार ये दस जीवनोपयोगी व्यापार हैं।
ब्राह्मण या क्षत्रिय ब्याज लेने का काम न करें, किन्तु धर्म के कार्य यदि पापी भी रुपया लेना चाहे तो उसे थोड़े ब्याज पर ऋण दे देना चाहिये।
आपत्तिकाल में उपज का चौथा भाग लेकर भी राजा यथाशक्ति प्रजा की रक्षा करे, तो वह अधिल कर लगाने के पाप से मुक्त हो जाता है।
राजा को धर्म युद्ध में विजय पानी ही है। इसलिये वह युद्ध में पराङ्मुख (विमुख, विपरीत, विरुद्ध) न हो। शस्त्र से वैश्यों की रक्षा करके धर्मानुकूल बलि लेवे।
आपत्तिकाल काल में वैश्यों से धान्य-अन्न का आठवाँ भाग और कार्षापण पर्यन्त बीसवाँ भाग कर लेना श्रेष्ठ है। शूद्र, कारीगर, शिल्पी (मूर्तिकार, भवन निर्माता, चित्रकार वगैरह) आदि से काम लेना चाहिये।
ब्राह्मण सेवा करते हुए यदि शूद्र का जीवन निर्वाह न हो तो क्षत्रिय की सेवा करे, यदि उससे भी पेट न भरे तो धनिक वैश्य की सेवा कर जीवन निर्वाह करे।
वह शूद्र स्वर्ग या दोनों स्वार्थ और परमार्थ के लिये ब्राह्मणों की ही सेवा करे। इस शूद्र की सेवा ब्राह्मण स्वीकार करता है, ऐसी प्रसिद्धि होना ही उसके लिये कृत कृत्यता है।
ब्राह्मण की सेवा करना ही शूद्र का विशिष्ट कर्म कहा गया है। इस कार्य से भिन्न वह जो कुछ भी करता है, वह उसके लिये निष्फल होता है।
सेवा कर रहे शूद्र को शक्ति, कार्य कुशलता और भृत्यों का परिग्रह (उनके कुटुम्ब के भरण-पोषण का खर्च) देखकर ब्राह्मण अपने कुटुम्ब से यथार्थ प्रबन्ध करे।
उस शूद्र को जूठा अन्न, पुराना वस्त्र, सारहीन अन्न, पुराना, ओढ़ना और बिछौना देना चाहिये।
शूद्र को बचा-खुचा खाने से पातक-बीमारी नहीं होती, वह संस्कार हीन है। वह धर्म कार्य से च्युत है। उसको धर्म कार्य का न तो अधिकार न निषेध।
जो धर्म की इच्छा रखते हैं, वे धर्मज्ञ हैं और सज्जनों की वृत्ति से रहते हैं। मंत्रहीन धर्माचरणों (पञ्च महायज्ञादि) को करने से वे दोषी नहीं होते, किन्तु प्रशंसा को ही पाते हैं।
जैसे-जैसे पवित्र आचरण-धर्माचरण, अनिन्दक (दूसरों की निंदा न करने वाले) होकर सज्जन वृत्ति का निर्वाह करते हैं, वैसे-वैसे वह इस लोक में उनकी कीर्ति बढ़ती है और वे परलोक में स्वर्ग पाते हैं।
धन सञ्चय करने में समर्थ होता हुआ भी शूद्र धन का संग्रह न करे, क्योंकि धन को पाकर शूद्र ब्राह्मण को सताता है (और नर्क का भागी होता है)।
यह चारों वर्णों के आपत्काल के कर्म को कहा, जिसका सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान करके सभी वर्ण वाले परम गति को पाते हैं।
यह चारों वर्णों की सम्पूर्ण धर्म विधि कही गई है। अब इसके बाद प्रायश्चित विधि कहूँगा।
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