शनिवार, 13 नवंबर 2021

"नाथ सम्प्रदाय का का उदय शैव मत -



नाथ शब्द  की व्युत्पति नह् धातु से हुई है ।

उदात्तौ स्वरितेतौ- अनुदात्ताः स्वरितेतः-

णह्( नह्) =बधने - नह्यते नह्यति नद्धा, नहो धः। "यो नह्यति चित्तस्यवृत्तिं योगेनबलेन इति नाथ:" नाथ का  अर्थ होता है नाथने वाला। जो अपनी इन्द्रियों को नाथ ले वह नाथ है । 

भारत में नाथ योगियों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है। 

नाथ समाज शैव धर्म का एक अभिन्न अंग है। नौ नाथों की परंपरा से 84 नाथ हुए।

नौ नाथों के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं।भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है। 

इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और नौ नाथ से 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई। 

आपने अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि कई तीर्थस्थलों के नाम सुने होंगे जो नाथ शब्द की प्राचीनता को भी सिद्ध करता है  । 

आपने भोलेनाथ, भैरवनाथ, गोरखनाथ आदि नाम भी सुने ही होंगे। 

तिब्बत के सिद्ध भी नाथ पम्परा से ही थे।

सभी नाथ साधुओं का मुख्‍य स्थान हिमालय की गुफाओं में है। 

नागा बाबा, नाथ बाबा और सभी कमंडल, चिमटा धारण किए हुए जटाधारी बाबा शैव और शाक्त संप्रदाय के अनुयायी हैं, लेकिन गुरु दत्तात्रेय के काल में वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाओं का समन्वय किया गया था। 

नाथ संप्रदाय की एक शाखा जैन धर्म में है तो दूसरी शाखा बौद्ध धर्म में भी मिल जाएगी। यदि गौर से देखा जाए तो इन्हीं के कारण इस्लाम में सूफीवाद की शुरुआत हुई।

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मत्स्येन्द्र नाथ : नाथ संप्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य मत्स्येंद्र नाथ का है, जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुए।

कौल ज्ञान निर्णय के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ही कौलमार्ग के प्रथम प्रवर्तक थे। कौल शक्ति के उपासक होते थे ।

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प्राचीनकाल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मत्स्येंद्रनाथ और उनके शिष्य गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) ने पहली वार व्यवस्था दी। 

गोरखनाथ ने इस संप्रदाय के बिखराव और इस संप्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। 

मत्स्येन्द्रनाथ हठयोग के परम गुरु माने गए हैं जिन्हें मच्छरनाथ भी कहते हैं। 

इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है।

 हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि मछिंद्रनाथ की समाधि मछीन्द्रगढ़ में है, जो महाराष्ट्र के जिला सावरगाँव के  मायंबागांव के निकट है।

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इतिहासवेत्ता मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं तथा गोरक्षनाथ दसवीं शताब्दी के पूर्व उत्पन्न कहे जाते हैं। 

गोरक्षनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की स्थिति आठवीं शताब्दी (विक्रम) का अंत या नौवीं शताब्दी का प्रारंभ माना जा सकता है।

 सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित (‘कौल ज्ञान निर्णय’) ग्रंथ का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम ‘मीननाथ’ है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा(मीनपाद) हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताए गए हैं। 

मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है।

 इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। तिब्बती परंपरा के अनुसार कानपा राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे।

 इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन् के नौवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए।

 शंकर दिग्विजय नामक ग्रंथ के अनुसार 200 ईसा पूर्व मत्स्येन्द्रनाथ हुए थे।

गोरखनाथ- 

गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। 

नाथ परंपरा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परंपरा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। 

दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इस बात का ऐतिहासिक प्रमाण है कि ईस्वी की 13 वीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ मुस्लिमों ने ढहा दिया गया था, इसीलिए इसके बहुत से पूर्व गोरखनाथ का समय होना चाहिए।

गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरंभ-कर्ता माने जाते हैं।

 गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। 

शिव की परंपरा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। गोरखनाथ से पहले अनेक संप्रदाय थे, जिनका नाथ संप्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके संप्रदाय में आ मिले थे।

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काबुल, गांधार, सिंध, बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में यहां तक कि मक्का-मदीना तक श्रीगोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और नाथ परंपरा को विस्तार दिया।

गोरक्षनाथ जन्म -

जनश्रुति अनुसार एक बार श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी भ्रमण करते हुए गोदावरी नदी के किनारे चन्द्रगिरि नामक स्थान पर पहुंचे और सरस्वती नाम की स्त्री के द्वार पर भिक्षा मांगने लगे। नि:संतान स्त्री भिक्षा लेकर बाहर आई, लेकिन वह उदास थी। श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी ने उसे विभूति देकर कहा कि इसे खा लेना, पुत्र प्राप्ति होगी। लेकिन अनजान भय के कारण उस महिला ने सिद्ध विभूति को एक झोपड़ी के पास गोबर की ढेरी पर रख दिया।

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12 साल बाद श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी फिर वहीं पहुंचे और सरस्वती से उस बालक के बारे में पूछा। सरस्वती ने विभूति को गोबर की ढेरी पर रखने की बात बता दी। इस पर मत्स्येन्द्रनाथ ने कहा, ‘अरे माई, वह विभूति तो अभिमंत्रित थी- निष्फल हो ही नहीं सकती। तुम चलो, वह स्थान तो दिखाओ।’ उन्होंने अलख निरंजन की आवाज लगाई और गोबर की ढेरी से निकलकर 12 साल का एक बालक सामने आ गया।

 गोबर में रक्षित होने के कारण मत्स्येन्द्रनाथजी ने बालक का नाम गोरक्ष रखा और अपना शिष्य बनाकर अपने साथ ले गए। गोरखनाथ के जन्म के बारे में कई अन्य जनश्रुतियां भी हैं।

गोरखनाथ के ग्रंथ-

नाथ योगी गोरखनाथजी ने संस्कृत और लोकभाषा में योग संबंधी साहित्य की रचना की है-( गोरक्ष-कल्प, गोरक्ष-संहिता, गोरक्ष-शतक, गोरक्ष-गीता, गोरक्ष-शास्त्र, ज्ञान-प्रकाश शतक, ज्ञानामृतयोग, महार्थ मंजरी, योग चिन्तामणि, योग मार्तण्ड, योग-सिद्धांत-पद्धति, हठयोग संहिता आदि।

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गोरखनाथ की तपोभूमि और धाम : गोरखनाथजी ने नेपाल और भारत की सीमा पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपातन में तपस्या की थी, उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई।

भारत के गोरखपुर में गोरखनाथ का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है।

 इस मंदिर को यवनों और मुगलों ने कई बार ध्वस्त किया लेकिन इसका हर बार पु‍नर्निर्माण कराया गया। 9 वीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार किया गया।

नेपाल के परम सिद्ध योगी :- नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्रीगोरक्ष का नाम है और वहां के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। गोरखा नाम की सेना गुरु गोरक्षनाथ की रक्षा के लिए ही थी। दरअसल, नेपाल के शाह राजवंश के संस्थापक महाराज पृथ्वीनारायण शाह को गोरक्षनाथ से ऐसी शक्ति मिली थी जिसके बल पर उन्हें खंड-खंड में विभाजित नेपाल को एकजुट करने में सफलता मिली, तभी से नेपाल की राजमुद्रा पर श्रीगोरक्षनाथ नाम और राजमुकुटों में उनकी चरणपादुका का चिह्न अंकित है।

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गुरु गोरखनाथजी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल का गोरखा जिले का नाम भी भी गुरु गोरखनाथ के नाम पर ही पड़ा।

 गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। यहां एक गुफा है, जहां गोरखनाथ का पग चिह्न है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहां हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते हैं और यहां मेला भी लगता है।


गोरखधंधा -

जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’ 

गोरखपंथी- 

गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित ‘योगिसंप्रदाय’ मुख्य रूप से बारह शाखाओं में विभक्त है। इसीलिए इसे ‘बारहपंथी’ कहते हैं।

 (1) भुज के कंठरनाथ, (2) पागलनाथ, (3) रावल, (4) पंख या पंक, (5) वन, (6) गोपाल या राम, (7) चांदनाथ कपिलानी, (8) हेठनाथ, (9) आई पंथ, (10) वेराग पंथ, (11) जैपुर के पावनाथ और (12) घजनाथ।

उक्त सारे संप्रदाय में शैव, शाक्त और नाथ के सभी संप्रदाय सम्मिलित हो गए थे।

गहिनीनाथ : गहिनीनाथ के ‍गुरु गोरखनाथ थे। मान्यता है कि एक दिन गुरु गोरखनाथ अपने गुरु मछिन्दर नाथ के साथ तालाब के किनारे एक एकांत जगह प्रवास कर रहे थे, जहां पास ही में एक गांव था। मछिंदरनाथ ने कहा कि मैं तनिक भिक्षा लेकर आता हूं तब तक तुम संजीवनी विद्या के बारे में तुमने आज तक जो सुना है ना उसकी सिद्धि का मंत्र जपो। यह एकांत में ही सिद्ध होती है। संजीवनी विद्या को सिद्ध करने को चार बातें चाहिए (श्रद्धा, तत्परता, ब्रह्मचर्य और संयम)।

 ये चारों बातें तुम में हैं। खाली एकांत में रहो, ध्यान से जप करो और संजीवनी सिद्ध कर लो। ऐसा कहकर मछिंदरनाथ तो चले गए और गोरखनाथ जप करने लगे।

वे जप और ध्यान कर ही रहे थे वहीं तालाब के किनारे बच्चे खेलने आ गए। तालाब की गीली-गीली मिट्टी को लेकर वे बैलगाड़ी बनाने लगे। बैलगाड़ी बनाने तक वो सफल हो गए, लेकिन बैलगाड़ी चलाने वाला मनुष्य का पुतला वे नहीं बना पा रहे थे। किसी लड़के ने सोचा कि ये जो आंख बंद किए बाबा हैं इन्हीं से कहें- बाबा-बाबा हमको गाड़ी वाला बनाके दीजिए। गुरु गोरखनाथ ने आंखें खोलीं और कहा कि अभी हमारा ध्यान भंग न करो फिर कभी देखेंगे। लेकिन वे बच्चे नहीं माने और फिर कहने लगे। 

बच्चों के आग्रह के चलते गोरखनाथ ने कहा- लाओ बेटे बना देता हूं। उन्होंने जप संजीवनी जप करते हुए ही मिट्टी उठाई और पुतला बनाने लगे। संजीवनी मंत्र चल रहा है तो जो पुतला बनाना था बैलगाड़ी वाला वो पुतला बनाते गए। बनाते-बनाते नन्हा-सा उसके अंग-प्रत्यंग बनते गए और मंत्र प्रभाव से वो पुतला सजीव होने लगा उसमें जान आ गई। जब पूरा हुआ तो वो पुतला बोला प्रणाम। गुरु गोरखनाथजी चकित रह गए। बच्चे घबराए कि ये पुतला कैसे जी उठा? 

वह पुतला सजीव होकर आसन लगाके बैठ गया। बच्चे तो चिल्लाते हुए भागे। भूत-भूत मिट्टी में से भूत बन गया। जाकर उन बच्चो ने गांव वालों से कहा और गांव वाले भी उस घटना को देखने जुट गए। सभी ने देखा बच्चा बैठा है।

गांव वालों ने गोरखनाथ को प्रणाम किया। इतने में गुरु मछिंद्रनाथ भिक्षा लेकर आ गए। उन्होंने भी देखा और फिर अपने कमंडल से दूध निकालकर उस बालक को दूध पिलाया। उन्होंने सभी दूसरे बच्चों को भी दूध पिलाया।

 फिर दोनों ने सोचा अब एकांत, जप, साधना के समय वहां से विदा होना ही अच्छा। दोनों नाथ बच्चे को लेकर जाने लगे।

इतने में गांव के ब्राह्मण और ब्राह्मणी जिनको संतान नहीं थी उन्होंने आग्रह किया कि आप इतने बड़े योगी हैं तो हमारा भी कुछ भला करिए नाथ।

 ब्राह्मण का नाम था मधुमय और उनकी पत्नी का नाम था गंगा। 

गांव वालों ने कहा कि आपकी कृपा से इन्हें संतान मिल सकती है। गोरखनाथ और मछिन्द्रनाथ भी समझ गए। उन्होंने कहा तुम इस बालक को क्यों नहीं गोद ले लेते। कुछ सोच-विचार के बाद दोनों ने उक्त बालक को गोद लेना स्वीकार कर लिया।

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यही बालक गहिनीनाथ योगी के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ। यह कथा है कनक गांव की जहां आज भी इस कथा को याद किया जाता है। गहिनीनाथ की समाधि महाराष्ट्र के चिंचोली गांव में है, ‍जो तहसील पटोदा और जिला बीड़ के अंतर्गत आता है। मुसलमान इसे गैबीपीर कहते हैं।

जालंधर (जालिंदरनाथ) नाथ : इनके गुरु दत्तात्रेय थे। एक समय की बात है हस्तिनापुर में ब्रिहद्रव नाम के राजा सोमयज्ञ कर रहे थे। अंतरिक्षनारायण ने यज्ञ के भीतर प्रवेश किया। यज्ञ की समाप्ति के बाद एक तेजस्वी बालक की प्राप्ति हुई। यही बालक जालंधर कहलाया।

राजस्थान के जालौर के पास आथूणी दिस में उसका तपस्या स्थल है। यहां पर मारवाड़ के महाराजा मानसिंह ने एक मंदिर बनवाया है। जोधपुर में महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश संग्रहालय में अनेक हस्तलिखित ग्रंथ हैं जिसमें जालंधर का जीवन और उनके कनकाचल में पधारने का जिक्र है। चचंद्रकूप सूरजकुंड कपाली नामक यह स्थान प्रसिद्ध है। जालंधर के तीन तपस्या स्थल हैं- गिरनार पर्वत, कनकाचल और रक्ताचल।

उनके होने संबंधी दस्तावेजों के मुताबिक वे विक्रम संवत 1451 में राजस्थान में पधारे थे।

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कृष्णपाद : मत्स्येन्द्र नाथ के समान ही जालंधर नाथ और कृष्णपाद की महिमा मानी गई। 

इनके गुरु जालंदरनाथ थे। जालंधरनाथ मत्स्येंद्र नाथ के गुरु भाई माने जाते हैं। कृष्णपाद को कनीफ नाथ भी कहा जाता है।

कृष्णपाद जालंधर नाथ के शिष्य थे और इनका नाम कण्हपा, कान्हूपा, कानपा आदि प्रसिद्ध है। कोई तो उन्हें कर्णाटक का मानता है और कोई उड़ीसा का। जालंधर और कृष्णपाद कापालिक मत के प्रवर्तक थे।

 कापालिकों की साधना स्त्रियों के योग से होती है। भारतवर्ष में सर्वत्र ही सिद्धों का उदय 6ठी से 11वीं सदी तक रहा। 

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महाराष्ट्र की सह्याद्री पर्वत श्रृंखला में गर्भगिरि पर्वत से बहने वाली पौनागि‍रि नदी के पास ऊंचे किले पर मढ़ी नामक गांव बसा हुआ है और यहीं है इस महान संत की समाधि। इस किले पर श्री कनीफ नाथ महाराज ने 1710 में फाल्गुन मास की वैद्य पंचमी पर समाधि ली थी, जहां लाखों श्रद्धालुओं की आस्था बसी हुई है।

कहा जाता है कि कनीफनाथ महाराज हिमालय में हथिनी के कान से प्रकट हुए थे। माना जाता है कि ब्रह्मदेव एक दिन सरस्वती के प्रति आकर्षित हुए तो उनका वीर्य नीचे गिर गया, जो हवा में घूमता हुआ हिमाचल प्रदेश में विचरण कर रही एक हथिनी के कान में समा गया।

 कुछ समय बाद प्रबुद्धनाराण ने उन्हें जालंधरनाथ के आदेश से कान से निकलने का निर्देश दिया और इस तरह उनका नाम कनीफ नाथ पड़ा।

कनीफ नाथ महाराज ने बद्रीनाथ में भागीरथी नदी के तट पर 12 वर्ष तपस्या की और कई वर्ष जंगलों में गुजार कर योग साधना की। तत्पश्चात उन्होंने दीन-दलितों को अपने उपदेशों के माध्यम से भक्तिमार्ग पर प्रशस्त होने की भावना जागृत की।

उन्होंने दलितों की पीड़ा दूर करने के विषय पर साबरी भाषा में कई रचनाएं की। कहते हैं इन रचनाओं के गायन से रोगियों के रोग दूर होने लगे। आज भी लोग अपने कष्ट निवारण के लिए महाराज के द्वार पर चले आते हैं।

ऐसा माना जाता है कि डालीबाई नामक एक महिला ने नाथ संप्रदाय में शामिल होने के लिए कनीफनाथ महाराज की कठोर तपस्या की थी। फाल्गुन अमावस्या के दिन डालीबाई ने समाधि ली थी। समाधि लेते समय कनीफनाथ ने अपनी शिष्या को स्वयं प्रकट होकर दर्शन दिए थे। इसी समाधि पर कालांतर में एक अनार का वृक्ष उग आया। कहते हैं कि इस पेड़ पर रंगीन धागा बाँधने से भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।

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भर्तृहरि नाथ : भर्तृहरि राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। राजा गंधर्वसेन ने राजपाट भर्तृहरि को सौंप दिया। अपनी रानी, जिससे भर्तृहरि अपार प्रेम करते थे, से मिले धोखे और फिर पश्चाताप के रूप में रानी द्वारा आत्मदाह की घटना ने भर्तृहरि को वैराग्य जीवन की राह दिखा दी। वे वैरागी हो गए। इसके बाद विक्रमादित्य को राज्यभार संभालना पड़ा।

एक सिद्ध योगी ने राजा भर्तृहरि को एक फल दिया और कहा कि इसको खाने के बाद आप चिरकाल तक युवा बने रहेंगे। भर्तृहरि ने फल ले लिया पर उनकी आसक्ति अपनी छोटी रानी में थी। वह फल उन्होंने हिदायत के साथ उन्होंने अपनी छोटी रानी को दे दिया। छोटी रानी को एक युवक से प्रेम था, तो उसने वह फल युवक को दे दिया। युवक को एक वैश्या से प्रेम था, तो उसन उसे वह फल दे दिया वैश्या को लगा कि वह तो पतिता है; फल के लिए सुपात्र तो राजा भर्तृहरी हैं जो दीर्घायु होंगे तो राज्य का कल्याण होगा। ऐसा सोचकर उस वैश्या ने वह फल वेश बदल कर राजा को दिया। 

फल को देख राजा के मन से आसक्ति जाती रही और उन्होंने नाथ संप्रदाय के गुरु गोरक्षनाथ का शिष्यत्व ले लिया।

मध्यप्रदेश के उज्जैन में आज भी भर्तृहरि की गुफा है जहां वे तपस्या किया करते थे।

रेवणनाथ : महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में करमाला तहसील के वीट गांव में इनकी समाधि है। रेवणनाथ के पिता थे ब्रह्मदेव। रेवणनाथ के जन्म की कथा भी अजीब है। वैसे सभी नाथों के जन्म की कथाएं आश्चर्य में डालने वाली ही हैं जिन पर आसानी से विश्वास करना मुश्किल होगा, लेकिन यह सच है।

नागनाथ : बहुत पहले ब्रह्मा का वीर्य एक नागिन के गर्भ में चला गया था जिससे बाद में नागनाथ की उत्पत्ति हुई।

चर्पट नाथ : नाथ सिद्धियों की बानियों का संपादन करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ये चर्पट नाथ गोरखनाथ के परवर्ती जान पड़ते हैं। इसका संबंध व्रजयानी संप्रदाय से हो सकता है। तिब्बती परंपरा में उन्हें मीनपा का गुरु माना गया है। नाथ परंपरा में इन्हें गोरखनाथ का शिष्य माना जाता है। इनके नाम से प्रसिद्ध बानियों (भजन) में इनके नाम का पता चलता है। ऐसा माना जाता है कि पहले ये रसेश्वर संप्रदाय के थे लेकिन गोरखनाथ के प्रभाव में वे गोरख संप्रदाय के हो गए।

चर्पटनाथ सिद्ध योगी थे। इस संबंध में लेखक नागेंद्रनाथ उपाध्याय ने लिखा है कि सिद्धि प्राप्त करने के बाद अनेक योगी अपने योग बल पर 300-400 से 700-800 वर्षों तक जीवित रह सकते हैं। नागार्जुन, आर्यदेव, गोरखनाथ, भर्तृहरी आदि के विषय में इसी प्रकार का विश्वास किया जाता है। परिणामत: इन सिद्धों के कालनिर्णय में बहुत सी कठिनाइयां उत्पन्न हो जाती हैं।

चर्पटनाथ ने कहा भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। एक समय की बात है सभी देवी-देवता शिव-पार्वती के विवाह अवसर पर एकत्रित हुए तब ब्रह्मदेव का वीर्य पार्वती की सुंदरता देखकर गिर गया। उस समय वह वीर्य उनकी एड़ी से कुचला गया। इस तरह यह दो भागों में विभक्त हो गया। एक भाग से 60 हजार संतों का जन्म हुआ और दूसरा भाग और नीचे गिरा और नदी के ईख में अटक गया।

मच्छिंद्र गोरक्ष जालीन्दराच्छ।। कनीफ श्री चर्पट नागनाथ:।।

श्री भर्तरी रेवण गैनिनामान।। नमामि सर्वात नवनाथ सिद्धान।।

नाथ सम्प्रदाय नवनाथ, चौरासी, सिद्धबारह पंथ

नाथ सम्प्रदाय 

सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। 

सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है। 

गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। 

गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। 

गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे। 

गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। गोरखनाथ द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या ४० बताई जाती है किन्तु डा. बड़्थ्याल ने केवल १४ रचनाएं ही उनके द्वारा रचित मानी है जिसका संकलन ‘गोरखबानी’ मे किया गया है। 

जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’ 

गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। 

सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। 

नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया। 

यह सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे एंव अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है।

इसका आरम्भ आदिनाथ शंकर से हुआ है और इसका वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ भगवान शंकर के अवतार हुए है। इनके प्रादुर्भाव और अवसान का कोई लेख अब तक प्राप्त नही हुआ।


पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है।

श्री गोरक्षनाथ वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत हुए है जिन्होने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महा शक्तियों का विकास करने के अर्थ संसार को उपदेश दिया और हठ योग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने के अर्थ जन समाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया।

श्री गोरक्षनाथ ने योग सम्बन्धी अनेकों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं।

श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द प्राप्त किया तथा जन-कल्याण में अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए।

श्री गोरक्षनाथ ने संसारिक मर्यादा की रक्षा के अर्थ श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और चिरकाल तक इन दोनों में शका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। श्री मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं।

यों तो यह योगी सम्प्रदाय अनादि काल से चला आ रहा किन्तु इसकी वर्तमान परिपाटियों के नियत होने के काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व है। ऐस शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ से सिद्ध होता है।

बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुअ जिसके सिद्धान्त बहुत ऊँचे थे, किन्तु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर भ्रष्टाचारी होने लगे थे।

इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ सम्प्रदाय क निर्माण किया और तत्कालिक 84 सिद्धों में सुधार का प्रचार किया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे।

इस सम्बन्ध में एक दूसरा लेख भी मिलता है जो कि निम्न प्रकार हैः-

  • ओंकार नाथ,
  • उदय नाथ, 
  • सन्तोष नाथ, 
  • अचल नाथ, 
  • गजबेली नाथ, 
  • ज्ञान नाथ, 
  • चौरंगी नाथ, 
  • मत्स्येन्द्र नाथ, 
  • गुरु गोरक्षनाथ।

सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है।

यह योगी सम्प्रदाय बारह पन्थ में विभक्त है –

  •  सत्यनाथ
  •  धर्मनाथ
  •  दरियानाथ
  •  आई पन्थी
  •  रास के
  •  वैराग्य के
  •  कपिलानी
  •  गंगानाथी
  •  मन्नाथी
  •  रावल के
  •  पाव पन्थी
  •  पागल

इन बारह पन्थ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में योगी सम्प्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं।

श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। 

काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था।

इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं यथाः- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि।

श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है।

श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को ‘ओघड़’ कहते है और इसका आधा मान होता है।

भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाये जाते हैं।

यह सम्प्रदाय अवधूत सम्प्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है ” स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित” जैसा कि ” सिद्ध सिद्धान्त पद्धति” में लिखा हैः-

“सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।”

अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है वह अवधूत है। पुनश्चः-

” वचने वचने वेदास्तीर्थानि च पदे पदे।

इष्टे इष्टे च कैवल्यं सोऽवधूतः श्रिये स्तुनः।”

“एक हस्ते धृतस्त्यागो भोगश्चैक करे स्वयम्

अलिप्तस्त्याग भोगाभ्यां सोऽवधूतः श्रियस्तुनः॥”

उपर्युक्त लेखानुसार इस सम्प्रदाय में नव नाथ पूर्ण अवधूत हुए थे और अब भी अनेक अवधूत विद्यमान है।

नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।

योगी लोग अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे ‘सिले’ कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है यह लोग शैव हैं अर्थात शिव की उपासना करते है। षट् दर्शनों में योग का स्थान अत्युच्च है और योगी लोग योग मार्ग पर चलते हैं अर्थात योग क्रिया करते है जो कि आत्म दर्शन का प्रधान साधन है। जीव ब्रह्म की एकता का नाम योग है। चित्त वृत्ति के पूर्ण निरोध का योग कहते है। 

वर्तमान काल में इस सम्प्रदाय के आश्रम अव्यवस्थित होने लगे हैं। इसी हेतु “अवधूत योगी महासभा” का संगठन हुआ है और यत्र तत्र सुधार और विद्या प्रचार करने में इसके संचालक लगे हुए है।

प्राचीन काल में स्याल कोट नामक राज्य में शंखभाटी नाम के एक राजा थे। उनके पूर्णमल और रिसालु नाम के पुत्र हुए। यह श्री गोरक्षनाथ के शिष्य बनने के पश्चात क्रमशः चोरंगी नाथ और मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध होकर उग्र भ्रमण शील रहें। “योगश्चित वृत्ति निरोधः” सूत्र की अन्तिमावस्था को प्राप्त किया और इसी का प्रचार एंव प्रसार करते हुए जन कल्याण किया और भारतीय या माननीय संस्कृति को अक्षूण्ण बने रहने का बल प्रदान किया। उर्पयुक्त 12 पंथो में जो “मन्नाथी” पंथ है वह इन्ही का श्री मन्नाथ पंथ है। श्री मन्नाथ ने भ्रमण करते हुए वर्तमान जयपुर राज्यान्तर्गत शेखावाटी प्रान्त के बिसाऊ नगर के समीप आकर अपना आश्रम निर्माण किया। यह ग्राम अब ‘टाँई’ के नाम से प्रसिद्ध है। श्री मन्नाथ ने यहीं पर अपना शरीर त्याग किया था, यही पर इनका समाधि मन्दिर है और मन्नाथी योगियों का गुरु द्वार हैं। ‘टाँई’ के आश्रम के अधीन प्राचीन काल से 2000 बीघा जमीन है, अच्छा बड़ा मकान है और इसमे कई समाधियाँ बनी हुई है। इससे ज्ञात होता है कि श्री मन्नाथ के पश्चात् यहाँ पर दीर्घकाल तक अच्छे सन्त रहते रहे है। इस स्थान में बाबा श्री ज्योतिनाथ जी के शिष्य श्री केशरनाथ रहते थे। अब श्री ज्ञाननाथ रहते हैं। इन दिनों इस आश्रम का जीर्णोद्वार भी हुआ हैं। श्री मन्नाथ के परम्परा में आगे चल कर श्री चंचलनाथ अच्छे संत हुए और इन्होने कदाचित सं. 1700 वि. के आस पास झुंझुनु(जयपुर) में अपना आश्रम बनाया यही इनका समाधि मन्दिर हैं।

इससे आगे का इतिहास इस पुस्तक के परिशिष्ट सं. 2 में लिखा गया है। यदि सम्भव हुआ तो श्री गोरक्षनाथ की शिक्षाएँ एकत्र करके प्रकाशित करने की चेष्टा की जायगी।

नाथ लक्षणः-

“नाकरोऽनादि रुपंच’थकारः’ स्थापयते सदा”

भुवनत्रय में वैकः श्री गोरक्ष नमोल्तुते।

“शक्ति संगम तंत्र॥

अवधूत लोग अद्वैत वादी योगी होते है जो कि बिना किसी भौतिक साधन के यौगग्नि प्रज्वलित करके कर्म विपाक को भस्म कर निजानन्द में रमण करते है और अपनी सहज शिक्षा के द्वारा जन कलयाण करते रहते है। तभी उपयुक्त नाथ शब्द सार्थक होता है।

इनका सिद्धान्तः-

न ब्रह्म विष्णु रुद्रौ, न सुरपति सुरा,

नैव पृथ्वी न चापौ।

नैवाग्निनर्पि वायुः न च गगन तलं,

नो दिशों नैव कालः।

नो वेदा नैव यज्ञा न च रवि शशिनौ,

नो विधि नैव कल्पाः।

स्व ज्योतिः सत्य मेकं जयति तव पदं,

सच्चिदानन्दमूर्ते,

ऊँ शान्ति ! प्रेम!! आनन्द!!!

नवनाथ 

नवनाथ नाथ सम्प्रदाय के सबसे आदि में नौ मूल नाथ हुए हैं । वैसे नवनाथों के सम्बन्ध में काफी मतभेद है, किन्तु वर्तमान नाथ सम्प्रदाय के १८-२० पंथों में प्रसिद्ध नवनाथ क्रमशः इस प्रकार हैं –

१॰ आदिनाथ – ॐ-कार शिव, ज्योति-रुप

२॰ उदयनाथ – पार्वती, पृथ्वी रुप

३॰ सत्यनाथ – ब्रह्मा, जल रुप

४॰ संतोषनाथ – विष्णु, तेज रुप

५॰ अचलनाथ (अचम्भेनाथ) – शेषनाग, पृथ्वी भार-धारी

६॰ कंथडीनाथ – गणपति, आकाश रुप

७॰ चौरंगीनाथ – चन्द्रमा, वनस्पति रुप

८॰ मत्स्येन्द्रनाथ – माया रुप, करुणामय

९॰ गोरक्षनाथ – अयोनिशंकर त्रिनेत्र, अलक्ष्य रुप

चौरासी सिद्ध

जोधपुर, चीन इत्यादि के चौरासी सिद्धों में भिन्नता है । अस्तु, यहाँ यौगिक साहित्य में प्रसिद्ध नवनाथ के अतिरिक्त ८४ सिद्ध नाथ इस प्रकार हैं –

१॰ सिद्ध चर्पतनाथ, 

२॰ कपिलनाथ, 

३॰ गंगानाथ, 

४॰ विचारनाथ, 

५॰ जालंधरनाथ, 

६॰ श्रंगारिपाद, 

७॰ लोहिपाद, 

८॰ पुण्यपाद, 

९॰ कनकाई, 

१०॰ तुषकाई, 

११॰ कृष्णपाद, 

१२॰ गोविन्द नाथ, 

१३॰ बालगुंदाई, 

१४॰ वीरवंकनाथ, 

१५॰ सारंगनाथ, 

१६॰ बुद्धनाथ, 

१७॰ विभाण्डनाथ, 

१८॰ वनखंडिनाथ, 

१९॰ मण्डपनाथ, 

२०॰ भग्नभांडनाथ, 

२१॰ धूर्मनाथ ।

२२॰ गिरिवरनाथ, 

२३॰ सरस्वतीनाथ, 

२४॰ प्रभुनाथ, 

२५॰ पिप्पलनाथ, 

२६॰ रत्ननाथ, 

२७॰ संसारनाथ, 

२८॰ भगवन्त नाथ, 

२९॰ उपन्तनाथ, 

३०॰ चन्दननाथ, 

३१॰ तारानाथ, 

३२॰ खार्पूनाथ, 

३३॰ खोचरनाथ, 

३४॰ छायानाथ, 

३५॰ शरभनाथ, 

३६॰ नागार्जुननाथ, 

३७॰ सिद्ध गोरिया, 

३८॰ मनोमहेशनाथ, 

३९॰ श्रवणनाथ, 

४०॰ बालकनाथ, 

४१॰ शुद्धनाथ, 

४२॰ कायानाथ ।

४३॰ भावनाथ, 

४४॰ पाणिनाथ, 

४५॰ वीरनाथ, 

४६॰ सवाइनाथ, 

४७॰ तुक नाथ, 

४८॰ ब्रह्मनाथ, 

४९॰ शील नाथ, 

५०॰ शिव नाथ, 

५१॰ ज्वालानाथ, 

५२॰ नागनाथ, 

५३॰ गम्भीरनाथ, 

५४॰ सुन्दरनाथ, 

५५॰ अमृतनाथ, 

५६॰ चिड़ियानाथ, 

५७॰ गेलारावल, 

५८॰ जोगरावल, 

५९॰ जगमरावल, 

६०॰ पूर्णमल्लनाथ, 

६१॰ विमलनाथ, 

६२॰ मल्लिकानाथ, 

६३॰ मल्लिनाथ ।

६४॰ रामनाथ, 

६५॰ आम्रनाथ, 

६६॰ गहिनीनाथ, 

६७॰ ज्ञाननाथ, 

६८॰ मुक्तानाथ, 

६९॰ विरुपाक्षनाथ, 

७०॰ रेवणनाथ, 

७१॰ अडबंगनाथ, 

७२॰ धीरजनाथ, 

७३॰ घोड़ीचोली, 

७४॰ पृथ्वीनाथ, 

७५॰ हंसनाथ, 

७६॰ गैबीनाथ, 

७७॰ मंजुनाथ, 

७८॰ सनकनाथ, 

७९॰ सनन्दननाथ, 

८०॰ सनातननाथ, 

८१॰ सनत्कुमारनाथ, 

८२॰ नारदनाथ, 

८३॰ नचिकेता, 

८४॰ कूर्मनाथ ।

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बारह पंथ

नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी मुख्यतः बारह शाखाओं में विभक्त हैं, जिसे बारह पंथ कहते हैं । इन बारह पंथों के कारण नाथ सम्प्रदाय को ‘बारह-पंथी’ योगी भी कहा जाता है । प्रत्येक पंथ का एक-एक विशेष स्थान है, जिसे नाथ लोग अपना पुण्य क्षेत्र मानते हैं । प्रत्येक पंथ एक पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है । नाथ सम्प्रदाय के बारह पंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है…

१॰ सत्यनाथ पंथ – इनकी संख्या 31 बतलायी गयी है । इसके मूल प्रवर्तक सत्यनाथ (भगवान् ब्रह्माजी) थे । इसीलिये सत्यनाथी पंथ के अनुयाययियों को “ब्रह्मा के योगी” भी कहते हैं । इस पंथ का प्रधान पीठ उड़ीसा प्रदेश का पाताल भुवनेश्वर स्थान है ।

२॰ धर्मनाथ पंथ – इनकी संख्या २५ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक धर्मराज युधिष्ठिर माने जाते हैं । धर्मनाथ पंथ का मुख्य पीठ नेपाल राष्ट्र का दुल्लुदेलक स्थान है । भारत में इसका पीठ कच्छ प्रदेश धिनोधर स्थान पर हैं ।

३॰ राम पंथ – इनकी संख्या ६१ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भगवान् श्रीरामचन्द्र माने गये हैं । इनका प्रधान पीठ उत्तर-प्रदेश का गोरखपुर स्थान है ।

४॰ नाटेश्वरी पंथ अथवा लक्ष्मणनाथ पंथ – इनकी संख्या ४३ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक लक्ष्मणजी माने जाते हैं । इस पंथ का मुख्य पीठ पंजाब प्रांत का गोरखटिल्ला (झेलम) स्थान है । इस पंथ का सम्बन्ध दरियानाथ व तुलनाथ पंथ से भी बताया जाता है ।

५॰ कंथड़ पंथ – इनकी संख्या १० है । कंथड़ पंथ के मूल प्रवर्तक गणेशजी कहे गये हैं । इसका प्रधान पीठ कच्छ प्रदेश का मानफरा स्थान है ।

६॰ कपिलानी पंथ – इनकी संख्या २६ है । इस पंथ को गढ़वाल के राजा अजयपाल ने चलाया । इस पंथ के प्रधान प्रवर्तक कपिल मुनिजी बताये गये हैं । कपिलानी पंथ का प्रधान पीठ बंगाल प्रदेश का गंगासागर स्थान है । कलकत्ते (कोलकाता) के पास दमदम गोरखवंशी भी इनका एक मुख्य पीठ है ।

७॰ वैराग्य पंथ – इनकी संख्या १२४ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक भर्तृहरिजी हैं । वैराग्य पंथ का प्रधान पीठ राजस्थान प्रदेश के नागौर में राताढुंढा स्थान है ।इस पंथ का सम्बन्ध भोतंगनाथी पंथ से बताया जाता है ।

८॰ माननाथ पंथ – इनकी संख्या १० है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक राजा गोपीचन्द्रजी माने गये हैं । इस समय माननाथ पंथ का पीठ राजस्थान प्रदेश का जोधपुर महा-मन्दिर नामक स्थान बताया गया है ।

९॰ आई पंथ – इनकी संख्या १० है । इस पंथ की मूल प्रवर्तिका गुरु गोरखनाथ की शिष्या भगवती विमला देवी हैं । आई पंथ का मुख्य पीठ बंगाल प्रदेश के दिनाजपुर जिले में जोगी गुफा या गोरखकुई नामक स्थान हैं । इनका एक पीठ हरिद्वार में भी बताया जाता है । इस पंथ का सम्बन्ध घोड़ा चौली से भी समझा जाता है ।

१०॰ पागल पंथ – इनकी संख्या ४ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री चौरंगीनाथ थे । जो पूरन भगत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब-हरियाणा का अबोहर स्थान है ।

११॰ ध्वजनाथ पंथ – इनकी संख्या ३ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक हनुमानजी माने जाते हैं । वर्तमान में इसका मुख्य पीठ सम्भवतः अम्बाला में है ।

१२॰ गंगानाथ पंथ – इनकी संख्या ६ है । इस पंथ के मूल प्रवर्तक श्री भीष्म पितामह माने जाते हैं । इसका मुख्य पीठ पंजाब में गुरुदासपुर जिले का जखबार स्थान है ।

कालान्तर में नाथ सम्प्रदाय के इन बारह पंथों में छह पंथ और जुड़े – १॰ रावल (संख्या-७१), २॰ पंक (पंख), ३॰ वन, ४॰ कंठर पंथी, ५॰ गोपाल पंथ तथा ६॰ हेठ नाथी ।

इस प्रकार कुल बारह-अठारह पंथ कहलाते हैं । बाद में अनेक पंथ जुड़ते गये, ये सभी बारह-अठारह पंथों की उपशाखायें अथवा उप-पंथ है । कुछ के नाम इस प्रकार हैं – अर्द्धनारी, अमरनाथ, अमापंथी। उदयनाथी, कायिकनाथी, काममज, काषाय, गैनीनाथ, चर्पटनाथी, तारकनाथी, निरंजन नाथी, नायरी, पायलनाथी, पाव पंथ, फिल नाथी, भृंगनाथ आदि

नाथ संप्रदाय के 12 पंथ

नाथ सम्प्रदाय 

सम्प्रदाय-‘सम्प्रदाय से तात्पर्य एक ऐसी परम्परागत धार्मिक संस्था से है जिसमेंं धार्मिक षिक्षाएं एक आचार्य से दूसरे आचार्य को षिष्य परम्परा की एक निषिचत प्रक्रिया से हस्तान्तरित होती है। भारतीय दर्षन मेंं इस प्रकार की परम्परा विषेषत: नाथ सम्प्रदाय के सन्दर्भ मेंं काफी पुरानी है, जबकि शेष सम्प्रदायों मेंं इसकी उपसिथति 11वीं शताबिद से पायी जाती है। जिस प्रकार नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख और प्रसिद्ध पद ‘नवनाथाें की सूची के संबन्ध मेंं बहस की सम्भावनाएं विधमान हैं उसी प्रकार इस सम्प्रदाय के मूल 12 पंथों को सूचीबद्ध करना भी एक दुष्कर कार्य है। इन 12 पंथों के ऐतिहासिक विकासक्रम को औपचारिक दृषिटकोण से देखें तो हम पाते हैं कि, इस भू-मण्डल पर षिव की पूजा की एक लम्बी परम्परा रही है, जो भूतकाल मेंं ऋग्वेद के रूद्र मंत्रों, वाजसनेयी संहिता मेंं षिव-रूæ, अथर्ववेद और ब्राह्राण ग्रन्थों तक जाती है। उस समय तक षिव की पूजा के लियेे कोर्इ संस्थागत तरीका होगा यह स्पष्ट नहींं है। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया और षिव तत्त्व के संबद्ध मेंं मानव समाज की जानकारी बढ़ती गयी तो अपने-अपने मतों के अनुसार समूह बनते चले गये। निष्चय ही इन समूहों का नेतृत्व करने वाले आचायोर्ं ने षिव के प्रति अपनी समझ के अनुरूप इन समूहों को एक नाम दिया जिसे सामाजिक विज्ञान के अध्ययनकर्ताओं ने श्रेणीबद्ध किया और सम्प्रदाय की संज्ञा दी।

इस संबन्ध मेंं सर्वप्रथम ‘सर्व दर्षन संग्रह मेंं माधव ने शैव सम्प्रदाय की आरंमिभक तीन श्रेणियां क्रमष: लकुलीष-पाषुपत, शैव तथा प्रत्यभिज्ञा को सन्दर्भित किया है। पाषुपतलकुलीष विषय पर हमने ‘भारतीय दर्षन का विकास शीर्षक के अन्तर्गत भी चर्चा की है यहां विषय की आवष्यकता के दृषिटकोण से पुन: शेष व संक्षिप्त चर्चा करेंगे। पाषुपत सम्प्रदाय सम्भवत: भगवान षिव के उपासकों की सबसे पहली शाखा है, जिसकी बाद मेंं अनेक उपशाखाएं बनी। ये शाखाएं सर्वाधिक रूप से कम से कम 12वीं शताबिद तक भारत मेंं गुजरात, राजस्थान और विदेषों मेंं जावा तथा काम्बोदिया तक फैलीं। शाखा का यह नाम ‘पषुपति पद से लिया गया है, जो षिव का एक गुणवाचक नाम है जिसका अर्थ ‘पषुओं का स्वामी है और जो बाद मेंं आत्माओं का स्वामी नाम से प्रख्यापित हुआ।

पाषुपत सम्प्रदाय का उल्लेख भारतीय महाकाव्य महाभारत मेंं किया गया है। यह विष्वास किया जाता है, जो अन्यथा भी सत्य ही है कि, आदिनाथ षिव इस सम्प्रदाय के सर्वप्रथम उपदेषक थे। पष्चातवर्ती पौराणिक साहित्य यथा ‘वायु पुराण तथा ‘लिंगपुराण के अनुसार षिव ने यह उदबोधित किया है कि, वे भगवान विष्णु के वासुदेव Ñष्ण रूप अवतार के समय पृथ्वी पर उपसिथत होंगे। उन्होंंने इंगित किया है कि, वे एक मृत शरीर मेंं प्रवेष करेंगे और स्वयं लकुलिन (नकुलिन अथवा लकुलीषलकुलिनलकुला जिसका अर्थ है ‘गदा) के रूप मेंं अवतार लेंगे। 10वींं और 13वींं शताबिद के षिलालेखों से इस उपाख्यान की अभिपुषिट होती है, जैसा कि उनसे लकुलिन नामक आचार्य का सन्दर्भ मिलता है, जो उसके अनुयायियों के विष्वासानुसार षिव का अवतार था।

पाषुपत सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा अपनायी गयी संन्यासी परम्पराओं मेंं दिन मेंं तीन बार शरीर पर राख मलना, ध्यानयोग समाधि तथा दीर्घ स्वर मेंं ओम शब्द को अंषों मेंं एक निषिचत क्रम से उच्चारित करना समिलित था। इस सम्प्रदाय के कुछ सदस्यों द्वारा जब रहस्यमय क्रियाओं को अपनाया गया तो समाज मेंं इसकी ख्याति को काफी हानि हुर्इ और यह सम्प्रदाय दो शाखाओंं मेंं बंट गया जिनमेंं एक वाममार्गी कापालिककालामुख था जबकि दूसरा संयत और सामाजिक शैव सम्प्रदाय था जिसे ‘सिद्धान्त शाखा भी कहा गया। अधिक विवेकपूर्ण व तर्कसंगत शैव मत के अनुयायियों (जो आगे चलकर आधुनिक शैव सम्प्रदाय के रूप मेंं विकसित हुआ) और पाषुपत व वाममार्गी शाखाओंं मेंं अन्तर करने के लियेे इन कापालिकों को ‘अतिमार्गी अर्थात पथ से भटका हुआ कहा गया। इस प्रकार कापालिक से तात्पर्य प्राचीन भारतीय हिन्दू शैव संन्यासियों के दो प्रमुख समूहों (कापालिक व कालामुख) मेंं से किसी एक के सदस्य से है, जो 10वीं 11वीं शताबिद तक काफी प्रभावषाली थे और अपनी उपासना के वीभत्स तरीकाें, जिसमेंं मानव बलि शामिल थी, के लियेे कुख्यात थे। यह समुदाय आरंमिभक ‘पाषुपत नामक शैव समुदाय की उपशाखा था। पूजा-उपासना तथा खान-पान मेंं नर कपाल का प्रयोग करने के कारण इन्हें कापालिक कहा जाता था और परम्परागत रूप से ये अपने ललाट पर काला टीका लगाने के कारण ‘कालामुख नाम से भी पुकारे जाते थे। इन दोनों ही प्रकार के संन्यासियों को ‘महाव्रती की संज्ञा भी दी जाती थी क्योंकि ये जीवन पर्यन्त नग्न रहते थे, नरकपाल में ही खाना खाते और मदिरा (तत्समय जो भी नषीला पेय) पीते थे, मृतकों (मानव अथवा समस्त जीव – कौन जानता है?) का मांस खाते थे और शरीर पर राख मलते थे। वे श्मषानों मेंं नितान्त अकेले जाकर योनि (स्त्रीभग) पर साधना किया करते थे और अनेक अन्य विस्मयकारी क्रियाएं करते थे। 

कुछ मध्यकालीन भारतीय मनिदरों मेंं कापालिक संन्यासियों को चित्रांकितउत्कीर्णित किया गया है, जो अब तक एक पहेली बने हुए हैंं। विष्वविख्यात तिरुपति (यह षब्द ‘थिरु है जिसक अर्थ है ‘श्री किन्तु बोलचाल में तिरु बोला जाता है) बालाजी मनिदर के गर्भगृह के बाहर मुख्य चौक में एक स्तम्भ पर एक कापालिक व कपालवनिता का काममुæ्रा में उत्कीर्णित चित्र इसका सर्वोच्च उदाहरण कहा जा सकता है। महाराष्ट्र के नासिक जिले मेंं जगतपुरी नामक स्थान पर एक षिलालेख यह सिद्ध करता है कि, कापालिक इस क्षे़त्र मेंं 7वीं शताबिद मेंं सुस्थापित थे। इनका दूसरा महत्त्वपूर्ण केन्द्र आन्ध्रप्रदेष मेंं श्रीपर्वत (आधुनिक नागार्जुनीकोण्डा) मेंं था और यहां से वे सम्पूर्ण भारत मेंं फैल गये। आठवीं शताबिद के संस्कृत नाटक ‘मालती-माधव की नायिका कापालिक संन्यासियों द्वारा चामुण्डा देवी को दी जा रही उसकी बलि से बचकर भाग निकलती है। यह नाटक भी कापालिकों के 8वीं शताबिद से पूर्व के असितत्त्व को सिद्ध करती है। वर्तमान मेंं अघोरियों को कापालिकों का वंषज कहा जाता है, जिन्हेंं अघोरपंथी भी कहते हैंं।

‘सर्व दर्षन संगृह मेंं ही माधव द्वारा बताया गया ‘षैव समूह तमिल के ‘षैव सिद्धान्त को इंगित करता है। शैव सिद्धान्त का प्रमुख ग्रन्थ ‘षिव सूत्र है, जो वासुगुप्त पर 8वीं 9वीं शताबिद में प्रकट हुआ कहा जाता है। वासुगुप्त ने ‘स्पन्द-कारिका 9वीं शताबिद मेंं लिखा। 

‘प्रत्यभिज्ञा काष्मीर के शैव अनुयायियों से संबद्ध है। इस मत का प्रमुख शास्त्र उत्पल द्वारा लिखित ‘प्रत्यभिज्ञा शास्त्र तथा अभिनवगुप्त द्वारा लिखित ‘परमार्थसार, ‘प्रत्यभिज्ञाविमर्षनी तथा ‘तन्त्र आलोक है, जो उत्पल द्वारा 9वीं शताबिद मेंं लिखा गया और क्षेमराज द्वारा 10वी शताबिद मेंं ‘षिव सूत्र विमर्षिनी लिखा गया। तमिल और काष्मीर के शैव मतों मेंं महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि, तमिल का शैव सिद्धान्त जहां यथार्थ और द्वैतवादी है, वहीं काष्मीर का शैव मत संन्यास और आदर्षवादी है। प्रत्यभिज्ञा की अपने नाम के अनुरूप एक अलग ही पहचान है। शैव मत की यह एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक और दार्षनिक संस्था है, जिसके अनुयायी षिव को सर्वोच्च वास्तविकता के रूप मेंं आराधना करते हैंं। तमिल के शैव सिद्धान्त के विपरीत यह शाखा काष्मीर के शैव मत की भांति संन्यास और आदर्षवादी है। इन सभी शाखाओंं मेंं षिव को अखिल ब्रह्रााण्ड का सम्पूर्ण सत्य तथा तात्तिवक व सक्षम कारण माना है। चित्त, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया नामक उसकी पांच शयिं मानी गयी हैं। 

आधुनिक सन्दर्भ मेंं सम्प्रदाय

भारत मेंं आधुनिक हिन्दुत्व के शैव, शाä और वैष्णव नाम से तीन प्रमुख सम्प्रदाय हैं। प्रस्तुत विवरण मेंं हमारा अध्ययन शैव मत पर केनिæत है। शैव मत के अन्तर्गत अनेक शैव शाखाएं हैं जो ऐसे दार्षनिक व धार्मिक संगठन है, जो षिव को सर्वोच्च देवता के रूप मेंं पूजती हैं। शैव मत मेंं अनेक भिन्न संस्थाएं हैं जैसे उच्च दार्षनिकता लियेे हुए शैव सिद्धान्तवादी, सामाजिक रूप से भिन्नता लियेे हुए लिंगायत, दषनामी संन्यासियों के सदृष्य संन्यास सोपान तथा अनेक प्रादेषिक भिन्नता लियेे हुए स्थानीय लोक संस्थाएं। कुछ विद्वानों ने शैव मत का आरम्भ भारत मेंं आयोर्ं से भी पूर्व होने वाली लिंग की पूजा के समय से जोड़ा है। जैसा कि हमने जातियों के विकास क्रम के प्रसंग मेंं इसकी चर्चा की है, यह अभी तक निषिचत नहींं हो सका है तथापि यह स्पष्ट है कि, वैदिक देवता रूæ को षिव से मिश्रित किया गया था जो उपनिषदों के पष्चातवर्ती समय मेंं प्रकट हुआ। श्वेताष्वतरोपनिषद मेंं षिव को सर्वोच्च देवता माना गया, किन्तु यह र्इसा पूर्व व र्इस्वी की दूसरी शताबिद और पाषुपत सम्प्रदाय के आने तक उपासकों के संगठनात्मक रूप मेंं विकसित नहींं हुआ था। आज आधुनिक शैव मत की अनेक शाखाएं हैं, जिनमेंं बहुसंंख्यात्मक संस्था से लेकर आत्यनितक एकात्मवादी विचारधाराएं हैं, किन्तु वे सभी शैव मत के तीन सिद्धान्तों पर सहमत हैं। ये सिद्धान्त क्रमष:

1. ‘पति अर्थात षिव,

2. ‘पषु अर्थात जीव अथवा आत्मा और

3. ‘पाष

अर्थात बन्धन जो आत्मा को भौतिकता मेंं बांधे रखता है। आत्मा के लियेे इस बन्धन से मुä अिैर षिवत्व की प्रापित का उíेष्य निर्धारित किया गया है। इस उद्देश्य के निमित्त चार मार्ग बताये गये हैंं। इनमें….

1. ‘चर्या अर्थात उपासना के बाद कार्य,

2. ‘क्रिया अर्थात र्इष्वर की सेवा के लियेे अन्तरंग कार्य,

3. ‘योग अर्थात आत्मा तथा परमात्मा के मिलन की क्रिया और

4. ‘ज्ञान अर्थात तत्त्वज्ञान को शामिल किया गया है। 

समरसता का पर्याय है नाथ संप्रदाय

नाथ संप्रदाय की परंपरा में गुरु गोरक्षनाथ ने मध्यकाल में सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा अभियान चलाया। उनके अभियान में हिंदू धर्म की विभिन्न जातियों को स्थान मिला। उस समय तो कई मुस्लिम भी नाथ संप्रदाय में दीक्षित हुए और सिद्ध के रूप में प्रतिष्ठा पाई। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े राजाओं ने इनसे दीक्षा प्राप्त की। अपने विपुल वैभव को त्याग कर ऐसे लोगों ने आत्मोप्लब्धि प्राप्त की तथा जनकल्याण के कार्य में अग्रसर हुए…नाथ संप्रदाय का भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे के संरक्षण में अद्वितीय योगदान है। लंबे समय से विदेशी दासता झेल रहे समाज में इस संप्रदाय ने नई स्फूर्ति पैदा की और ऊंच-नीच की भावना से परे जाकर आध्यात्मिक तत्व को समझने की दृष्टि पैदा की। आद्य शंकराचार्य इस संप्रदाय के आदि पुरुष माने जाते हैं। इसको वर्तमान रुप देने वाले योगाचार्य बालयति श्री गोरक्षनाथ को भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। तंत्र और योग ग्रंथों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथाआें का विशद वर्णन हुआ है। श्री गोरक्षनाथ को वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत माना जाता है। उन्होंने योग क्रियाओं द्वारा मानव शरीरस्थ महाशक्तियों के विकास करने का उपदेश दिया और हठयोग की प्रक्रियाओं का प्रचार करके भयानक रोगों से बचने का जनसमाज को एक बहुत बड़ा साधन प्रदान किया। श्री गोरक्षनाथ ने योग संबंधी अनेकों ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे, जिनमे बहुत से प्रकाशित हो चुके है और कई अप्रकाशित रुप में योगियों के आश्रमों में सुरक्षित हैं। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए। उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानंद प्राप्त किया तथा जनकल्याण के लिए अग्रसर हुए। इन राजर्षियों द्वारा बड़े-बड़े कार्य हुए। श्री गोरक्षनाथ ने सांसारिक मर्यादा की रक्षा के लिए श्री मत्स्येंद्रनाथ को अपना गुरु माना। ऐसी मान्यता है कि चिरकाल तक इन दोनों में शंका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा। नाथपंथ का योगी संप्रदाय अनादि काल से चला आ रहा है। बुद्ध काल में वाम मार्ग का प्रचार बहुत प्रबलता से हुआ। वाममार्गी सिद्धांत बहुत ऊंचे थे, किंतु साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धांतों की वास्तविकता को नहीं समझ पा रहे थे और इस कारण पथभ्रष्ट हो रहे थे। इस काल में उदार चेता श्री गोरक्षनाथ ने वर्तमान नाथ संप्रदाय को प्रचलित किया और तात्कालिक 84 सिद्धों में सुधार की प्रक्रिया को जन्म दिया। यह सिद्ध वज्रयान मतानुयायी थे। यह योगी संप्रदाय बारह पंथो में विभक्त है, यथाः-सत्यनाथ, धर्मनाथ, दरियानाथ, आई पंथी, रास के, वैराग्य के, कपिलानी, गंगानाथी, मन्नाथी, रावल के, पाव पंथी और पागल। इन बारह पंथ की प्रचलित परिपाटियों में कोई भेद नही हैं। भारत के प्रायः सभी प्रांतों में इस योगी संप्रदाय के बड़े-बड़े वैभवशाली आश्रम है और उच्च कोटि के विद्वान इन आश्रमों के संचालक हैं। श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल में बहुत प्रतिष्ठित था और अब भी नेपाल के राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में स्वीकार करते हैं। वहां पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं। यहां तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम है और वहां के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं। काबुल,गांधार, सिंध, बलूचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊंचा मान पाया था। इस संप्रदाय में कई भांति के गुरु होते हैं जैसे कि चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि। श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन,कान फाड़ना या चीरा चढ़ाने की प्रथा प्रचलित की थी। कान फाड़ने के प्रति तत्पर होने का मतलब कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य के प्रति अपनी आस्था प्रकट करना है।  श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों, शिष्यों के लिए एक कठोर परीक्षा नियत कर दी। कान फड़ाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता है। चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है। बिना कान फटे साधु को ‘औघड़’ कहते है और इसका आधा मान होता है। भारत में श्री गोरखनाथ के नाम पर कई विख्यात स्थान हैं और इसी नाम पर कई महोत्सव मनाए जाते हैं। यह संप्रदाय अवधूत संप्रदाय है। अवधूत शब्द का अर्थ होता है- स्त्री रहित या माया प्रपंच से रहित जैसा कि  सिद्ध सिद्धांत पद्धति में लिखा हैः-‘सर्वान् प्रकृति विकारन वधु नोतीत्यऽवधूतः।’अर्थात् जो समस्त प्रकृति विकारों को त्याग देता या झाड़ देता है, वह अवधूत है। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से अपने इष्ट देव का ध्यान करते है। परस्पर आदेश या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है जिसका वर्णन वेद और उपनिषद आदि में किया गया है।योगी लोग अपने गले में काले ऊन का एक जनेऊ रखते है जिसे ‘सेली’ कहते है। गले में एक सींग की नादी रखते है। इन दोनों को सींगी सेली कहते है। नाथ संप्रदाय का संबंध शैव मत से होता है और यह आराध्य के रूप में भगवान शिव की आराधना करते हैं। नाथ संप्रदाय के अनुयायियों ने समय-समय पर देश और धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देशभक्ति की उत्कृष्ट भावना को भी अभिव्यक्त किया है।

नाथ संप्रदाय और बाबा बालकनाथ – बाबा बालकनाथ हिमाचल और पंजाब प्रांत के सर्वाधिक पूज्य सिद्ध हैं। नाथ संप्रदाय से उनके संबंधों के बारे में परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं लेकिन लोक कथाओं में इस बात का पर्याप्त प्रमाण मिलता है कि बाबा बालकनाथ का संबंध नाथ संप्रदाय से था। बाबा बालक नाथ की माता का नाम यशोदा और पिता का नाम दुर्गादत्त था। वे भार्गव ब्राह्मण थे। बाबा बालकनाथ का झुकाव बचपन से ही वैराग्य की ओर था। किशोरवय होते-होते उनकी प्रसिद्धि एक चमत्कारी सिद्ध के रूप में हो गई थी।  एक बार उन्हें गुरु गोरखनाथ जी के दर्शन हुए और वह उनके पीछे चलने वाले चेलों की लंबी भीड़ देखकर हैरान रह गए। उन चेलों में कुछ राजकुमार भी थे। बाबा बालकनाथ जी ने गुरु गोरखनाथ को अपना गुरु बनाने की सोची। लेकिन यह संभव नहीं था क्योंकि गुरु गोरखनाथ किसी बालक को अपना शिष्य नहीं बनाते थे। बाबा बालकनाथ जी जब शिष्य बनने की कामना के साथ गुरु गोरखनाथ के पास गए तो उन्होंने, उन्हें शिष्य बनाने से इनकार कर दिया और आगे चलकर कभी शिष्य बनाने का आश्वासन दिया। एक दिन गुरु गोरखनाथ जी उस नगरी आए जिस जगह बाबा बालकनाथ जी विराजमान थे,तब बाबा बालकनाथ ने उनके साथ चमत्कार करने का विचार किया और सोचा कि अगर वह मुझे पकड़ने में कामयाब हो गए तो मैं इन्हें अपना गुरु मान लूंगा। यह सोचकर बाबा बालकनाथ जी जब उनसे मिलने गए और शिष्य बनाने के लिए प्रार्थना की तो पहले गुरु गोरखनाथ जी ने उन्हें समझाया और कहा नाथ पंथ बहुत कठिन है,तलवार की धार पर चलने के समान है। लेकिन जब बाबा नहीं माने तो गोरक्षनाथ उन्हें शिष्य बनाने के लिए राजी हो गए। जब वह उनका कर्ण छेदन करने वाले थे तभी बाबा बालकनाथ जी हवा में उड़ गए। यह देखकर गुरु गोरखनाथ जी ने अपनी बाईं भुजा को बड़ा किया और बाबा बालकनाथ जी को पकड़ कर नीचे उतार लिया और कहा- यदि कोई और शंका मन में हो तो वह भी निकाल लो। मैंने तुम्हे भागने का मौका दिया था पर तुम नहीं भाग सके। अब जिसे याद करना हो कर लो अब तो तुम्हें शिष्य बनना ही पड़ेगा। यह सुनकर बाबा बालकनाथ जी ने कहा- गुरुदेव! आपके सिवा कोई याद करने लायक नहीं है। आप चाहे बंधन में रखकर कर्ण छेदन करें या बिना बंधन के बिना। इतना सुनकर गुरु गोरखनाथ जी ने उन्हें बंधनों से मुक्त कर दिया।

सिद्धों और नाथों की महापरम्परा (कौलान्तक मार्ग)

सिद्धों और नाथों की आदि काल से ले कर अब तक यानि महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज तक की यात्रा को ही कौलान्तक मार्ग कहते है. सिद्ध परम्परा के योगी महायोगी सत्येन्द्र नाथ महापुरुष हैं. नाथ और सिद्ध पंथ के अद्वितीय परम पुरुष. आइये जानते हैं कैसी परम्परा के पीठ प्रमुख है महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी महाराज. सृष्टि के आरम्भ में ही भगवन शिव नाथ स्वरुप में प्रकट हुए. नाथ यानि जो कुछ भी है स्वयं का है और शिव स्वयं स्वयंभू हैं, यदि शरीर स्त्री का है तो पुरुष उसकी पूर्णता है और यदि शरीर पुरुष है तो स्त्री उसकी पूर्णता है. शिव है तो शक्ति के कारण और शक्ति शिव के कारण है यही अभेद मत सिद्ध मत कहलाता है. इसलिए अर्धनारीश्वर शिवलिंग रूप को पूजने वाला या निराकार स्वरुप को माननेवाला सिद्ध कहलाता है. नाथ और सिद्ध एक ही है किन्तु एक भेद है जो दोनों को अलग करता है. नाथ योग मार्गी है अपने पर काबू कर अपना स्वामी हो जाना नाथ हो जाना है. और सिद्ध अपनी शक्तियों को विविध माध्यमों जैसे तंत्र, मंत्र, योग, औषधि आदि से जगा कर सृष्टि सहित व सर्व हित में लगा देना सिद्ध मार्ग का लक्षण है. किन्तु नाथ हुए बिना सिद्ध नहीं हो सकता और नाथ बिना सिद्ध हुए लगभग मुर्दा है. ये संप्रदाय शिव से शुरू हो कर आज तक के पड़ाव तक पहुंचा है. पर आज सिद्ध और नाथ एक मत नहीं रहे अलग-अलग संप्रदाय दो हो गए हैं. सिद्धों में भी कई उप संप्रदाय बन गए हैं और नाथों में भी. नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने वर्तमान नाथ स्वरुप में ढला है. जबकि पहले नाथ बाबा गृहस्थ में रेट हुए या घुमक्कड़ बाबा होते हुए भी स्त्रीसंग या विवाह कर लेते थे. इसी कारण सिद्धों का एक मार्ग बना बज्रयान,जो मांस मदिरा जहर जैसे पदर्थों का भी आहार ले कर सुरक्षित रह लेता था. स्त्री संग या विवाह आदि को साधारण कार्य मानता था और मंत्र तंत्र की महाविद्याओं में निपुण हो गया था. किन्तु धीरे धीरे इस मार्ग में विकृतियाँ आने लगी ये केवल भोग का ही मार्ग रह गया.तब गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। एक ऐसी व्यवस्था दी जो आजतक निरंतर चल ही रही है. ब्रजयान को त्तिब्बतियों नें अपने बौद्ध धर्म में जोड़ कर प्रमुख स्थान दिया. यहाँ तक की उनकी एक प्रमुख शाखा ही ब्रजयानी कहलाती है. गुरु मच्छेंद्र नाथ और गोरखनाथ को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है. सिद्ध नाथ हिमालयों वनों एकांत स्थानों में निवास करते हैं. ये सभी परिव्रराजक होते है यानि घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। सिद्धों के पास कुछ नहीं होता शिव की तरह घुटनों तक एक उनी कपड़ा होता है व सर्दियों में ऊपर से एक टुकड़ा लपेट लेते है. जबकि नाथों के पास हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी होते हैं. मूलत: पहले दोनों एक ही थे इसलिए नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध भी कहा जाता है. ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे ‘सिले’ कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को ‘सींगी सेली’ कहते हैं। नाथ पंथी साधक शिव की भक्ति में लीन रहते हैं. नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं. एक दूसरे को  ‘आदेश’ कह कर नमस्कार या अभिवादन करते हैं. अलख और आदेश शब्द का अर्थ ॐ या सृष्टी पुरुष यानि भगवन होता है. जो नागा यानि वस्त्र रहित साधू है वे भभूतीधारी भी नाथ सम्प्रदाय से ही है. अब अलग मत में सम्मिलित हैं.सिद्धों और नाथ योगियों में जो महँ तेजस्वी उत्त्पन्न हुए उनसे ही आगे क्रमशः बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय चले हैं ये माना जाता है. नाथ साधु-संत हठयोग, तप और सिद्धियों पर विशेष बल देते हैं. सिद्धों में ८४ सिद्ध महँ तपस्वी और चमत्कारी हुए और नाथों में नवनाथ प्रमुख हुए जिनकी कहानिया जन-जन में 

फैली हुयी हैं. नव नाथों के नाम – आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ (इनके नामों में भेद है यानि कई अलग-अलग नामों से एक ही आचार्य को संबोधित किया जाता है जैसे नौ नाथ गुरु : 1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ. इसलिए नामों को लेकर चिंतित न हों). इनके बाद इनके बारह शिष्य हुए – नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ या 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ। इतिहासकारों के अनुसार आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान से वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ. ये सभी भी नाथ ही थे. सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे. सिध्हों के उदहारण-ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चौरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। केवल भगवान दत्तात्रेय एइसे जोगी हैं जो सिद्ध नाथ होते हुए यानि शैव-शक्त होते हुए भी वैष्णव हैं. सिद्ध सम्प्रदाय भारत का परम प्राचीन, उदार, ऊँच-नीच की भावना से परे अवधूत अथवा योगियों का सम्प्रदाय है। पद्म, स्कन्द शिव ब्रह्मण्ड आदि पुराण, तंत्र महापर्व आदि तांत्रिक ग्रंथ बृहदारण्याक आदि उपनिषदों में तथा और दूसरे प्राचीन ग्रंथ रत्नों में श्री गुरु गोरक्षनाथ की कथायें बडे सुचारु रुप से मिलती है। सिद्ध और नाथ संप्रदाय वर्णाश्रम धर्म से परे पंचमाश्रमी अवधूत होते है. जिन्होने अतिकठिन महाशक्तियों को तपस्या द्वारा प्राप्त कर आत्सात किया और कल्याल हेतु संसार को उपदेश दिया. हठ योग की प्रक्रियाओं द्वारा भयानक रोगों से बचने के लिए जन समाज को योग का ज्ञान दिया. नाथों और सिद्धों के चमत्कारों से प्रभावित होकर बड़े-बड़े राजा इनसे दीक्षित हुए. उन्होंने अपने अतुल वैभव को त्याग कर निजानन्द अनुभव किया और जन-कल्याण में जुट गए. श्री गोरक्षनाथ ने सिद्ध परम्परा के महायोगी श्री मत्स्येन्द्रनाथ को अपना गुरु माना और लेकिन तंत्र मार्ग और वामाचार के कारण (योग और भोग एक साथ का सिद्धांत) लम्बे समय तक दोनों में शaका समाधान के रुप में संवाद चलता रहा. मत्स्येन्द्र को भी पुराणों तथा उपनिषदों में शिवावतर माना गया अनेक जगह इनकी कथायें लिखी हैं. इतिहासकारों नें नाथ परम्परा की पुनर्स्थापना का काल भगवान शंकराचार्य से 200 वर्ष पूर्व बताया है.जिसका आधार शंकर दिग्विजय नामक ग्रन्थ मन जाता है. महात्मा बुद्ध काल में सिद्धों में वाम मार्ग का प्रचार बहुतज्यादा था जिसके सिद्धान्त भी बहुत ऊँचे थे,लेकिन साधारण बुद्धि के लोग इन सिद्धान्तों की वास्तविकता न समझ कर तंत्र मर्गियों को बुरा समझा और सभी इसकी आड़ में भोग विलास सहित पापाचार करने लगे. ये सिद्ध वज्रयान के मतानुयायियों का सबसे बुरा काल था. श्री गोरक्षनाथ का नाम नेपाल प्रान्त में बहुत बड़ा था और अब तक भी नेपाल का राजा इनको प्रधान गुरु के रुप में मानते है और वहाँ पर इनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठित आश्रम हैं. यहाँ तक कि नेपाल की राजकीय मुद्रा (सिक्के) पर श्री गोरक्ष का नाम था और वहाँ के निवासी गोरक्ष ही कहलाते हैं. काबुल-गान्धर सिन्ध, विलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रान्तों में यहा तक कि मक्का मदीने तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और ऊँचा मान पाया था. इस सम्प्रदाय में कई भाँति के गुरु होते हैं जैसे- चोटी गुरु, चीरा गुरु, मंत्र गुरु, टोपा गुरु आदि. श्री गोरक्षनाथ ने कर्ण छेदन-कान फाडना या चीरा चढ़ाने की प्रथाप्रचलित की थी. कान फाडने को तत्पर होना कष्ट सहन की शक्ति, दृढ़ता और वैराग्य का बल प्रकट करता है.श्री गुरु गोरक्षनाथ ने यह प्रथा प्रचलित करके अपने अनुयायियों शिष्यों के लिये एक कठोर परीक्षा नियत कर दी. कान फडाने के पश्चात मनुष्य बहुत से सांसारिक झंझटों से स्वभावतः या लज्जा से बचता हैं. चिरकाल तक परीक्षा करके ही कान फाड़े जाते थे और अब भी ऐसा ही होता है. बिना कान फटे साधु को ‘ओघड़’ कहते है और इसका आधा मान होता है. ये आधा अधूरा सा इतिहास है जो नाथों और सिद्धों की एक झलक देता है. सही और सटीक जानकारियां यहाँ देना व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि मूल उद्देश्य से हम भटक जायेंगे. अब आप संक्षिप्तत: ये समझ लीजिये की वर्तमान नाथ सप्रदाय से पहले एक नाथ संप्रदाय था जिसे सिद्ध संप्रदाय कहा जाता था. इसी सिद्ध संप्रदाय के भागों को ब्रजयानी या कौलाचारी कहा जाता है. किन्तु सिद्ध संप्रदाय के योगी बड़े ही गुप्त नियमों का पालन कर गुफाओं कंदराओं में अपना जीवन जीते थे और आज भी लगभग लुप्त हो चुकी ये परम्परा आखिरी सांस लेती हुई भी जिन्दा है. कौलान्तक पीठाधीश्वर महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के रूप में. जो इसी सिद्ध परंपरा ब्रज्रयानी और कौलाचारी परम्परा से भी पहले स्थित परम्परा महासिद्ध परम्परा के पूर्ण पुरुष हैं. एक समय सिद्ध और नाथ अलग-अलग हो गए थे अब महायोगी सत्येन्द्र नाथ जी के सत्य ज्ञान नें इस प्राचीन पंथ को एक बार फिर जोड़ कर वापिस धरा पर जीवित किया है. भारत वर्ष की सबसे पुरानी परम्परा में आप भी जुड़ कर इस विराट का हिस्सा बन सकते हैं. हिमालय पर्वत पर रहने वाले महायोगी आपकी प्रतीक्षा में हैं. अब सिद्ध नाथ परम्परा को कौलान्तक पीठ के रूप में आपको आगे बढ़ाना है और स्वयं प्राप्त करना है वो अमूल्य ज्ञान जिस कारण भारत को पूजा जाता है, जो जीवन को पूर्ण कर देता है.

यहां पर स्थापित है नाथ संप्रदाय की पहली गादी

चित्रकूट, संवाददाता: ‘हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ’ भले ही यह लाइनें गोस्वामी तुलसीदास ने साढे़ पांच सौ साल पहले ही लिखी हों पर वास्तव में इन शब्दों के गूढ़ मायने चित्रकूट की धरती पर पांच हजार साल पहले ही व्यक्त किये जा चुके थे। कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर से दीक्षा के लेने के बाद जब स्वामी मच्कि्षन्द्र नाथ को विश्व भ्रमण का आदेश मिला तो उनके कदम चित्रकूट पहुंचकर थम गये। यहां की प्राकृतिक सुषमा और विविधता से वह इतने प्रभावित हुये कि उन्होंने अपनी पहली गादी यहीं स्थापित कर दी। यहीं चित्रकूट में अनुसुइया के जंगलों पर उन्हें अपने सुयोग्य शिष्य के रूप में गोरखनाथ भी मिल गये। गादी की स्थापना करने के साथ गुरु गोरखनाथ को कैलाश ले जाकर अपनी दिव्य शक्तियां देने के बाद वे वहीं पंच तत्वों में विलीन हो गये। गुरु गोखरनाथ ने स्यामल नाथ को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने भी गुप्त नाथ को अपना शिष्य बनाया। गुरु गुप्त नाथ के समय नाथ संप्रदाय के इस प्रथम तीर्थ का विस्तार काफी तेजी से हुआ। पूरे देश से यहां पर आने वाले ज्ञान पिपासु अपनी ज्ञान साधना को पूर्ण करते रहे वहीं उन्होंने यहां पर व्यंकटेश भगवान की मूर्तियों के विग्रहों की स्थापना कर भगवान बाला जी के मंदिर की स्थापना की। नाथ संप्रदाय की पहली गादी को चित्रकूट में होने की मान्यता यहां पर महाराज गुप्त नाथ के समय ही मिली। यह परंपरा परमहंस नाथ, ब्रह्ममनन्द नाथ, माधव नाथ से बढ़कर अब वर्तमान गुरु योगेश्यवरानंद मंगलनाथ तक आ पहुंची है। 

नाथ संप्रदाय के प्रमुख आचार्य योगेश्यवरानंद मंगलनाथ जी महाराज कहते हैं कि नाथ संप्रदाय का मतलब किसी को डराना नही बल्कि सभी प्राणियों में सद्गुणों को विस्तारित करना है। हर व्यक्ति में भगवान का अंश है। उसे किसी का डर नही होना चाहिये। मनुष्य को हानि लाभ जीवन मरण यश और अपयश तो विधि के विधान के अनुरूप ही मिलता है पर साधना वास्तव में उसे सभी कष्टों में खड़ा रहने की कला सिखाती है। जीवन संग्राम में विजय पथ का रास्ता केवल साधना से ही संभव है। आदि नाथ भगवान शंकर के डमरू से निकला ओंकार आज भी उतना ही प्रभावी है जितना प्रभावी वह स्वामी मच्छिन्द्र नाथ जी के समय पर था। वे कहते हैं कि दर्शन ही सभी प्रकार के ज्ञान और विज्ञान की मां है। अगर दर्शन नही होता तो किसी प्रकार की वस्तुओं का जन्म ही नही होता। खुद को शांत रखने के लिये वे साधना करने पर बल देते हैं और थोड़ा समय अपने लिये निकाल लेने पर ऐसा करना संभव बताते हैं। 

गोरखनाथ और गृहस्थ साधुओं की परंपरा

महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।

गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चैरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज ११वी से १२वी शताब्दी के नाथ योगी थे। गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर मे स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यही दिखे थें। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे रोट महोत्सव कहते है और यहाँ मेला भी लगता है।

डॉ० बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ० बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को निसंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चैंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परंतु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है। पुस्तकें ये हैं-

1. सबदी  2. पद  3.शिष्यादर्शन  4. प्राण सांकली  5. नरवै बोध  6. आत्मबोध 7. अभय मात्रा जोग  8. पंद्रह तिथि  9. सप्तवार  10. मंछिद्र गोरख बोध  11. रोमावली12. ग्यान तिलक  13. ग्यान चैंतीसा  14. पंचमात्रा   15. गोरखगणेश गोष्ठ 16.गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)  17.महादेव गोरखगुष्टिउ 18. शिष्ट पुराण  19. दया बोध 20.जाति भौंरावली (छंद गोरख)  21. नवग्रह   22. नवरात्र  23 अष्टपारछ्या  24. रह रास  25.ग्यान माला  26.आत्मबोध (2)   27. व्रत   28. निरंजन पुराण   29. गोरख वचन 30. इंद्र देवता   31.मूलगर्भावली  32. खाणीवाणी  33.गोरखसत   34. अष्टमुद्रा  35. चौबीस सिध  36 षडक्षर  37. पंच अग्नि  38 अष्ट चक्र   39 अूक 40. काफिर बोध

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में इस देश में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालंधरनाथ और कृष्णपाद के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथ जी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते है। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएँ मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत सी पारंपरिक कथाएँ और किंवदंतियाँ भी समाज में प्रसारित है। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिंध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएँ प्रचलित हैं। ऐसे ही कुछ आख्यानों का वर्णन यहाँ किया जा रहा हैं।

1. गोरक्षनाथ जी के आध्यात्मिक जीवन की शुरूआत से संबंधित कथाएँ विभिन्न स्थानों में पाई जाती हैं। इनके गुरू के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ हैं। परंतु सभी मान्यताएँ उनके दो गुरूओं के होने के बारे में एकमत हैं। ये थे-आदिनाथ और मत्स्येंद्रनाथ। चूंकि गोरक्षनाथ जी के अनुयायी इन्हें एक दैवी पुरूष मानते थे, इसीलिये उन्होनें इनके जन्म स्थान तथा समय के बारे में जानकारी देने से हमेशा इन्कार किया। किंतु गोरक्षनाथ जी के भ्रमण से संबंधित बहुत से कथन उपलब्ध हैं। नेपालवासियों का मानना हैं कि काठमांडू में गोरक्षनाथ का आगमन पंजाब से या कम से कम नेपाल की सीमा के बाहर से ही हुआ था। ऐसी भी मान्यता है कि काठमांडू में पशुपतिनाथ के मंदिर के पास ही उनका निवास था। कहीं-कहीं इन्हें अवध का संत भी माना गया है।

2. नाथ संप्रदाय के कुछ संतो का ये भी मानना है कि संसार के अस्तित्व में आने से पहले उनका संप्रदाय अस्तित्व में था। इस मान्यता के अनुसार संसार की उत्पत्ति होते समय जब विष्णु कमल से प्रकट हुए थे, तब गोरक्षनाथ जी पटल में थे। भगवान विष्णु जम के विनाश से भयभीत हुए और पटल पर गये और गोरक्षनाथ जी से सहायता मांगी। गोरक्षनाथ जी ने कृपा की और अपनी धूनी में से मुट्ठी भर भभूत देते हुए कहा कि जल के ऊपर इस भभूति का छिड़काव करें, इससे वह संसार की रचना करने में समर्थ होंगे। गोरक्षनाथ जी ने जैसा कहा, वैस ही हुआ और इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु और महेश श्री गोर-नाथ जी के प्रथम शिष्य बने।

3. एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए। सतयुग में वह लाहौर पार पंजाब के पेशावर में रहे, त्रेतायुग में गोरखपुर में निवास किया, द्वापरयुग में द्वारिका के पार भुज में और कलियुग में पुनः गोरखपुर के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।

4. एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी  में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।

5. गोरक्षनाथ के करीबी माने जाने वाले मत्स्येंद्रनाथ में मनुष्यों की दिलचस्पी ज्यादा रही हैं। उन्हें नेपाल के शासकों का अधिष्ठाता कुल गुरू माना जाता हैं। उन्हें बौद्ध संत (भिक्षु) भी माना गया है,जिन्होनें आर्यावलिकिटेश्वर के नाम से पदमपाणि का अवतार लिया। उनके कुछ लीला स्थल नेपाल राज्य से बाहर के भी है और कहा जाता है लि भगवान बुद्ध के निर्देश पर वो नेपाल आये थे। ऐसा माना जाता है कि आर्यावलिकटेश्वर पद्मपाणि बोधिसत्व ने शिव को योग की शिक्षा दी थी। उनकी आज्ञानुसार घर वापस लौटते समय समुद्र के तट पर शिव पार्वती को इसका ज्ञान दिया था। शिव के कथन के बीच पार्वती को नींद आ गयी, परन्तु मछली (मत्स्य) रूप धारण किये हुये लोकेश्वर ने इसे सुना। बाद में वहीं मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाने गये।

6. एक अन्य मान्यता के अनुसार श्री गोरक्षनाथ के द्वारा आरोपित बारह वर्ष से चले आ रहे सूखे से नेपाल की रक्षा करने के लिये मत्स्येंद्रनाथ को असम के कपोतल पर्वत से बुलाया गया था।

7. एक मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को हिंदू परंपरा का अंग माना गया है। सतयुग में उधोधर नामक एक परम सात्विक राजा थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनका दाह संस्कार किया गया परंतु उनकी नाभि अक्षत रही। उनके शरीर के उस अनजले अंग को नदी में प्रवाहित कर दिया गया, जिसे एक मछली ने अपना आहार बना लिया। तदोपरांत उसी मछ्ली के उदर से मत्स्येंद्रनाथ का जन्म हुआ। अपने पूर्व जन्म के पुण्य के फल के अनुसार वो इस जन्म में एक महान संत बने।

8.एक और मान्यता के अनुसार एक बार मत्स्येंद्रनाथ लंका गये और वहां की महारानी के प्रति आसक्त हो गये। जब गोरक्षनाथ जी ने अपने गुरु के इस अधोपतन के बारे में सुना तो वह उनकी तलाश मे लंका पहुँचे। उन्होंने मत्स्येंद्रनाथ को राज दरबार में पाया और उनसे जवाब मांगा । मत्स्येंद्रनाथ ने रानी को त्याग दिया,परंतु रानी से उत्पन्न अपने दोनों पुत्रों को साथ ले लिया। वही पुत्र आगे चलकर पारसनाथ और नीमनाथ के नाम से जाने गये,जिन्होंने जैन धर्म की स्थापना की।

9. एक नेपाली मान्यता के अनुसार, मत्स्येंद्रनाथ ने अपनी योग शक्ति के बल पर अपने शरीर का त्याग कर उसे अपने शिष्य गोरक्षनाथ की देखरेख में छोड़ दिया और तुरंत ही मृत्यु को प्राप्त हुए और एक राजा के शरीर में प्रवेश किया। इस अवस्था में मत्स्येंद्रनाथ को काम और सेक्स का लोभ हो आया। भाग्यवश अपने गुरु के शरीर को देखरेख कर रहे गोरक्षनाथ जी उन्हें चेतन अवस्था में वापस लाये और उनके गुरु अपने शरीर में वापस लौट आयें।

10. संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। गोरक्षनाथ जी की एक गोष्ठी में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।

11. पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पूरनमल भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पूरनमल पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पूरनमल तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पूरनमल वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।

12. बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से राजस्थान  पंजाब में गोपीचंद भरथरी , रानी पिंगला और राजा भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथ के परमप्रिय शिष्य बन गये थे।

विभिन्न मान्यताओं को तथा तथ्यों को ध्यान में रखते हुये ये निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरक्षनाथ जी का जीवन काल तेरहवीं शताब्दी से पहले का नहीं था। गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जलधरनाथ समसमायिक थे दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे,तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे,फिर संयोगवश ऐसे एक आचार-विचार  में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध सेक्स संसर्ग मुख्य बात थी – संभवतः यह वामाचारी यौनसुखी साधना थी-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता आसानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज में डॉ० प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्त्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविर्भूत हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।

(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं, राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86।1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र भरथरी  का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।

(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहराव है।

(6) कंथड़ी नामक एक सिद्धि के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चैलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।

इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ  के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

(1) कबीर,  नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चैदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।

(2) गोगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।

(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।

(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1200 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएं भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है।

परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है

गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, महाराज, आप क्यों रो रहे हैं? गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी। इस पर राजा ने कहा,  हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं। गोरखनाथ बोले, तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं। 

तुम तो एक मृत स्त्री के कारण स्वयं  मरने के लिए तैयार बैठे हो। गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया। कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।

गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर  आज भी दर्शनीय है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ गोगामेडीश् के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रह है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की साथ आए  धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं। इन्ही गोगाजी को आज जावरवीर गोगा कहते है और राजस्थान से लेकर विहार  और पश्चिम बंगाल तक इसके श्रद्धालु रहते हैं ।

कबीर जी और गुरु गोरखनाथ

श्री मंछदरनाथ जी के शिष्य गुरु गोरखनाथ जी को प्रायः सनातन धर्म में आस्था रखने वाले सभी लोग जानते हैं। गुरु गोरखनाथ जी कबीर साहेब के समय में ही हुये और इनका सिद्धी ज्ञान विलक्षण था। उन दिनों काशी में प्रत्येक हफ्ते विद्धानों की सभा होती थी और सभा के नियमानुसार चोटी के विद्धान आपस में शास्त्रार्थ करते थे और बाद में जीतने वाला ज्ञानी हारने वाले का तिलक चाट लेता था और जीतने वाला विजयी घोषित कर दिया जाता था। उन दिनों कबीर जी के नाममात्र के गुरु (ये रहस्य है कि रामानन्द कबीर जी के गुरु कहलाते थे पर वास्तव में ये सत्य नहीं था ) रामानन्द जी का विद्धता में बेहद बोलबाला था और गुरु गोरखनाथ ने उनसे शास्त्रार्थ किया। शास्त्रज्ञान और वैष्णव पद्धति का आचरण करने वाले रामानन्द जी गुरु गोरखनाथ जी की सिद्धियों के आगे नहीं टिक सके और गुरु गोरखनाथ जी ने उनका तिलक चाट लिया इससे रामानन्द जी बेहद आहत हुये क्योंकि उनकी गिनती चोटी के विद्धानों में होती थी। इस घटना से उनका बेहद अपमान हुआ था। कबीर जी उन दिनों रामानन्द के नये-नये शिष्य बने थे और उनकी अपारशक्ति का किसी को बोध नहीं था। कबीर साहेब ने रामानन्द जी से आग्रह किया कि वे अपने अखाड़े की तरफ से गुरु गोरखनाथ से ज्ञानयुद्ध करना चाहते हैं। 

इस पर रामानन्द जी ने उनका बेहद उपहास किया। उनकी नजर में कबीर जी एक कपङे बुनने वाले जुलाहा मात्र थे वो ज्ञान की बातें क्या जानें। सभी ने उनकी बेहद खिल्ली उङाई लेकिन फिर भी कबीर जी ने रामानन्द जी से बार-बार आग्रह किया कि वे एक बार उन्हे गुरु गोरखनाथ से ज्ञानयुद्ध कर लेने दें। हारकर रामानन्द जी ने उन्हें इजाजत दे दी। कबीर जी ने अपने मस्तक से लेकर नाभि तक एक लम्बा तिलक लगाया और गुरु गोरखनाथ से युद्ध करने पहुँचे। गुरु गोरखनाथ उनका तिलक देखकर चिढ़ गये। कबीर जी और गुरु गोरखनाथ का युद्ध शुरु हुआ और गुरु गोरखनाथ ने कबीर जी की खिल्ली उड़ाते हुये अपना त्रिशूल निकाला और अपनी सिद्धी के बल पर त्रिशूल की बीच की नोंक पर जा बैठा और बोले कि में तो यहाँ बैठकर युद्ध करूँगा। क्या तुम मुझसे लङोगे? कबीर साहेब मुस्कराये और अपनी जेब से कपङे बुनने वाली कच्चे सूत की गुल्ली निकालकर उसका छोक पकङकर गुल्ली आसमान की तरफ उछाल दी। गुल्ली आसमान में चली गयी कबीर साहेब कच्चे सूत पर चङकर आसमान में पहुँच गये और बोले गोरख मैं तो यहाँ से युद्ध करूँगा। गुरु गोरखनाथ बेहद तिलमिला गए फिर भी गुरु गोरखनाथ ने अपने अहम में कई टेढे़-मेढ़े सवाल किये और कबीर जी का जवाब सुनकर उनके छक्के छूट गये और गुरु गोरखनाथ को विद्धानों की उस सभा में अपनी हार मान ली।

गुरु मत्स्येंद्रनाथ का समय

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में इस देश में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालंधरनाथ और कृष्णपाद के संबंध में अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं। गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थेय दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जलांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे। तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी  संभवतः यह वामाचारी साधना थी-चैथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज में डॉ० प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्त्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।

(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86।1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्र गोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।

(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।

(6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चैलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाय था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट हो कर अणहिल्लपुर में अवत्तीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।

इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चैदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।

(2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।

(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते हैं।

(4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1200 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ा है। परंतु ऊपर के प्रमणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है।

गुरु मत्स्येंद्रनाथ को शिष्य गोरख की मदद

मूल रूप से शिव के उपासक माने जाते हैं नाथ-सम्प्रदाय के लोग। मराठी संत ज्ञानेश्वर के अनुसार क्षीरसागर में पार्वती के कानों में शिव ने जो ज्ञान दिया, मछली के पेट में निवास कर रहे मत्स्येन्द्रनाथ के कानों तक पहुंच गया। और इसी के साथ ही मत्स्येन्द्रनाथ बाकायदा गुरू हो गये। अब रही चेले की बात। यह घटना अलग है। गोरखपीठ की मान्यता के अनुसार शिव ने ही एक बार धूनी रमाये औघड़ की शक्ल में एक निःसंतान महिला को भभूत देते हुए उसे मंगल का आशीष दिया। लेकिन दूसरी महिलाओं ने उस महिला को भरमा दिया कि इन औघड़ों के चक्कर में मत पड़ो। महिला ने उस भस्म को जमीन में गाड़ दिया। बात खुली तो जमीन खोदी गयी और निकल आये गोरक्षनाथ। इसके बाद से ही साथ हो गया मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का। इन दोनों ने काया, मन और आत्मा की सम्पूर्ण पवित्रता की जरूरत को समझा और अपने इस संकल्प को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नगरों-गांवों की धूल छाननी शुरू कर दी। योग और ध्यान को इसके केंद्र में रखा गया।

गुरू-चेले का यह सम्बन्ध अविच्छिन्न रूप से चल ही रहा था कि अचानक एक राज्य की मैनाकिनी नाम की रानी का करूण रूदन मत्स्येन्द्रनाथ को विचलित कर गया। वह निःसंतान थी और अपने पति के शव पर विलाप कर रही थी। मत्स्येन्द्रनाथ को दया आ गयी। रानी की गोद भरने के लिए वे राजा के शव में प्रवेश कर गय और पुनः जीवित राजा बनकर मैनाकिनी से संभोगरत हो गये। मैनाकिनी की गोद साल भर बाद लहलहा उठी। लेकिन मत्स्येंद्रनाथ कुछ ही दिनों बाद वे अपने कर्तव्यों को ही भूल गये। रास-लीलाओं ने उन्हें घेर लिया। राजमहल में पुरूषों का प्रवेश रोक दिया गया। केवल महिला कर्मचारी या नर्तकियां ही वहां जा सकती थीं। गोरक्षनाथ अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ की  इस हालत से विचलित थे। गोरख को  किसी तरह गुरू को बचाना था और तरीका सूझ नहीं रहा था। बस एक दिन भभूत लगाया और त्रिशूल उठाकर संकल्प लिया गुरू को बचाने का। नर्तकियों के साथ गोरखनाथ भी तबलावादक बन कर उनके ही वेश में राजमहल में प्रवेश कर गये। रास-रंग और गायन-नर्तन शुरू हुआ।

स्त्री-वेश में अपनी अदायें दिखा रहे गोरखनाथ मृदंग भी बजा रहे थे। पूरा माहौल वाह-वाह से गूंज रहा था। कि अचानक राजा के शरीर में वास कर रहे मत्स्येन्द्रनाथ की आंखें फटी की फटी ही रह गयीं। गौर से सुना तो पाया कि एक नर्तकी के मृदंग से साफ आवाज आ रही थी कि …जाग मछन्दर गोरख आया,…. चेत मछन्दर गोरख आया, …..चल मछन्दर गोरख आया। मत्स्येन्द्रनाथ बेहाल हो गये, सिर चकरा गया। गौर से देखा तो सामने चेला खड़ा है। गुरू शर्मसार हो गये। राजविलासिता छोड़कर चलने को तैयार तो हुए, लेकिन शर्त रखी कि मैनाकिनी के बेटे को नदी पर साफ कर आओ। गोरखनाथ को साफ लगा कि गुरू में मायामोह अभी छूटा नहीं है। उन्होंने राजकुमार को धोबी की तरह पाटा पर पीट-पीट कर छीपा और निचोडकर अलगनी पर टांग दिया। मत्स्येन्द्रनाथ नाराज हुए तो गोरखनाथ ने शर्त रख दी कि माया छोड़ों तो बेटे को जीवित कर दूं। मरता क्या ना करता। भोगविलास ने गुरू की ताकत खत्म कर दी थी। शर्त माननी ही पड़ी। यानी गुरू तो गुड ही रहा मगर चेला शक्कर हो गया। बाद की यह सारी गाथाएं गोरखनाथ की शान में गढ़ी गयीं।

उधर आस्था से अलग तर्कशास्त्रियों के अनुसार ईसा की सातवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी के बीच ही गोरखनाथ का आविर्भाव हुआ। चूंकि यह काल भार के लिए काफी संक्रमण का था, इसलिए गोरखनाथ का योगदान देश को एकजुट करने के लिए याद किया जाता है। काया, मन और आत्मा शुद्धि को समाजसेवा और फिर मोक्ष के लिए अनिवार्य साधन बताने का गोरखनाथ का तरीका जन सामान्य ने अपना लिया। गोरखनाथ का कहना था कि साधना के द्वारा ब्रहमरंध्र तक पहुंच जाने पर अनाहत नाद सुनाई देता है जो वास्तविक सार है। यहीं से ब्रहमानुभूति होती है जिसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता। वे राम में रमने को एकमात्र मार्ग बताते हैं जिससे परमनिधान वा ब्रह्मपद प्राप्त होता है। गोरखनाथ ने असम से पेशावर, कश्मीर से नेपाल और महाराष्ट्र तक की यात्राएं कीं। उनकी बनायी गयीं 12 शाखाएं आज भी जीवित हैं जिनमें उडीसा में सत्यनाथ, कच्छ का धर्मनाथ, गंगासागर का कपिलानी, गोरखपुर का रामनाथ, अंबाला का ध्वजनाथ, झेलम का लक्ष्मणनाथ, पुष्कर का बैराग, जोधपुर का माननाथी, गुरूदासपुर का गंगानाथ, बोहर का पागलपंथ समुदाय के अलावा दिनाजपुर के आईपंथ की कमान विमलादेवी सम्भाले हैं, जबकि रावलपिंडी के रावल या नागनाथ पंथ में ज्यादातर मुसलमान योगी ही हैं।

कबीर और रैदास से  मुलाकात

गोरखनाथ जी को एक दिवस इच्छा हो गई कि कबीर साहब से मिला जाये !कबीर साहब उस समय मे एक ऐसे संत हुये की उनके पास हिन्दू मुसलमानकोई भी हो  सब समान भाव उनमे रखते थे ! और ऐसा ही उस समय केसंत समाज मे भी उनसे हर पंथ , हर सम्प्रदाय का महात्मा उनसे भेंट मुलाकात करके प्रसन्न होता था ! इनके बारे विस्तृत चर्चा फिर कभी करेंगे !अभी हम इस कहानी को आगे बढायेंगे ! अपने प्रोग्राम अनुसार गोरखनाथ कबीरसाहब के पास पहुंच गये।

कबीर ने उनका बडा आदर सत्कार किया और दोनो महात्माओं मे सत्सन्ग चर्चाचलती रही ! इतनी देर मे कमाली जो कि कबीर की बेटी थी वो आ गई ! और कबीर साहब से बोली – मैं तैयार हूं ! अब चले ! कबीर साहब ने कमाली का परिचय गोरख से करवाया और कमाली उनको प्रणाम करके बैठ गई ! गोरखनाथ जी ने पूछा कि आपका कहां जाने का प्रोग्राम था ? तब कबीर साहब ने बताया कि हम संत रैदास जी के पास मिलने जाने वाले थे ! और कबीर साहब यह तो कह नही पाये कि अब आप आगये तो नही जायेंगे , क्योंकी उनका वहां जाना जरुरी था ! अब कबीर साहब बोले – गोरखनाथ जी आप भी हमारे साथ चलें तो बडा अच्छा हो ! रैदास जी बहुत पहुंचे हुये महात्मा हैं !अब गोरख ठहरे कुलीन नाथपंथ के महान सिद्ध योगी ! वो भला मिलने जाये और वो भी रैदास से ? ये भी कोई बात हुई ? अरे गोरख के तो उनको दर्शन भी नही हों !और ये कबीर साहब का दिमाग कुछ चल गया जो हमसे कह रहे हैं कि रैदास सेमिलने चलो ! उनकी क्या जात है ? हम अच्छी तरह से जानते हैं ! पर कबीर साहब ने जब जोर देकर कहा तो गोरख मना नही कर सके ! और तीनों पहुंच गये रैदास के घर पर ! वहां पहुंचते ही रैदास तो बिल्कुल भाव विह्वल हो कर पगला से गये ! साक्षात कबीर, जिसको वो परमात्मा ही मानते थे ! वो उनके घर आया है ? और साथ मे गोरखनाथ जी , ये वो गोरख जिनका आने का तो सपने मे भी रैदास नही सोच सकते थे। आज साक्षात उनके सामने और उनके घर पर आ गये हैं ! क्योंकी कई बार रैदास ने कबीर को कहा भी था कि एक बार मुझे गोरखनाथ जी के दर्शन करवा दो !और आज तो उनकी समस्त इच्छाए पूरी हो रही थी !

जब ये तीनों लोग वहां पहुंचे थे तब रैदास जी अपने नित्य कर्म अनुसार जुते सी रहे थे !और इनके पहुंचते ही उसी अवस्था मे उठ्कर अन्दर गये ! वापसी मे उनके हाथ मे दो गिलास पानी या शर्बत के थे ! उन्होने उसी अवस्था मे एक गिलास कबीर की तरफ बढाया ! कबीर ने वह गिलास तुरन्त गटागट पी लिया ! और दुसरे गिलास को उन्होने गोरखनाथ जी की तरफ बढाया ! गोरखनाथ बोले – नही नही , मुझे प्यास नही है ! मैं अभी २ रास्ते मे पी कर ही आया हूं! जैसे हम लोग किसी को चाय के लिये मना करते हैं उसी अन्दाज मे उन्होंने पानी पीने से मना र दिया ! रैदास जी ने बहुत आग्रह किया ! पर गोरख ने मना कर दिया और अब वही गिलास रैदास जी ने कमाली की तरफ बढा दिया ! कमाली ने भी पी कर खाली कर दिया ! असल मे गोरख बहुत बडे सिद्ध योगी थे और वह उस समय के प्रसिद्ध नाथपन्थ के महान योगी थे !

उनके मन मे यह बात आ गई कि यह सीधासाधा चर्मकार, और अभी चमडा सीये हुये हाथों से पानी ले आया ! मैं इसके इन हाथो से पानी कैसे पिऊं ? और वैसे भी नाथ पंथ मे उस समय यह अभिजात्यपन था ! यानी कि हम श्रेष्ठ है जाति के हैं ! खैर साहब अब थोडा बहुत जो भी सत्संग हुआ और फिर सब विदा होकर अपने २ ठिकाने पहुंच गये ! अब इस घटना के बहुत बाद की बात है !

एक रोज गोरख आकाश मार्ग से जा रहे थे ! नीचे से उन्हे एक महिला की आवाज आई-आदेश गुरुजी .. आदेश गुरुजी .. ( यह नाथ पंथ मे प्रणाम करने का शब्द है ) !गुरु गोरख नाथ चौंके ? यह कौन है जो मुझे इस तरह देख पा रहा है ! और वो भी एक औरत ? उन्हे बडा आश्चर्य हुवा ! गुरु गोरखनाथ जी इतने महान सिद्ध थे कि अपनी योगमाया और सिद्धि के बल पर  जहां भी हो अपनी मर्जी से आकाश मे विचरते थे और वो भी अद्रष्य होकर ! उनको इतनी सिद्धियां प्राप्त थी कि उनके लिये कुछ भी असम्भव नही था ! इस घटना के समय वो मुल्तान (अब पाकिस्तान मे ) के उपर से जा रहे थे !गोरखनाथ आकाष से  नीचे आये और उन्होने उस औरत से पूछा कि – तुमने मुझे देखा कैसे ! मुझे अदृश्य होने के बाद कोई भी नही देख सकता ! ये हुनर या सिद्धि तो नाथपन्थ मे भी किसी के पास नही है ! फिर तू कौन ? औरत बोली – गुरुजी मैं तो आपको जब भी आप इधर से गुजरते हैं ! तब हमेशा ही देखती हूं ! और हमेशा आपको प्रणाम करती हूं। पर आप बहुत तेजी से जा रहे होते हैं !आज आप कम ऊंचाई पर थे तो आपको मेरी प्रणाम सुनाई दे गई ! आप तो मेरे घर चलिये !और मेरा आतिथ्य गृहण किजिये !

अब तो गोरख और भी चक्कर खा गये कि अब ये कौन मुझसे बडा सिद्ध पैदा हो गया ?यहे सिद्धि तो मेरे पास भी नही है कि मैं किसी अदृश्य व्यक्ति को देख सकूं ! उन्होने सोच लिया कि ये महिला में भी कुछ सिद्धि जरुर रखती है ! और आप अपने से छोटे मे तो रूचि नहीं  लेते पर बडे को आप यूं ही इग्नोर भी नही करते ! गोरख ने पूछा – माते आपका परिचय दिजिये ! मैं अधीर हो रहा हूं ! वो औरत बोली – गुरुजी आप मुझे नही पहचाने ?

अरे मैं वही कमाली हूं! याद करिये ! आप हमारे घर आये थे ! कबीर साहब के यहां !तब गोरख को याद आया कि अरे हां – यह महिला सही कह रही है ! मैने इसे कबीर के घर देखा था । तब उन्होने पूछा – तुझको यहअदृश्य वस्तुयें कब से दिखाई देती हैं और ये सिद्धि तुमको किसने दी ?कमाली बोली – गुरुजी , मेरे को कोई सिद्धि विद्धि नही दी किसीने ! बस मुझे तो दिखाई देता है ! अब गोरख ने सोचा की शायद कबीर यहे सिद्धि जानते होंगे और उन्होने ही कमाली को  यह सिद्धि दी होगी !

अब उन्होने पूछा कि कब से यह वस्तुएं दिखाई दे रही हैं ?कमाली बोली – आपको याद होगा कि आप और कबीर साहब के साथ मैं भी रैदास जी के यहां गई थी और उन्होने एक पानी का गिलास आपको दिया था ! और आपने वोपानी पीने से इनकार कर दिया था ! और वो गिलास रैदास जी ने मुझे दे दिया था !बस तबसे ही मुझे सब अदृश्य चीजे दिखाई देती हैं ! भूत प्रेत, जलचर, नभचर सब कुछ दिखाई देते हैं ! मैं शादी के बाद यहां मुल्तान आ गई ! क्योकी मेरी शादी यहां मुलतान मे हुई है ! और आपको तो मैं अक्सर ही देखती हूं !जब भी आप इधर से आकाश मार्ग से गमन करते हैं ! अब गोरख नाथ के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा ! उनको अब वो रहस्य समझ आया कि क्यो कबीर उनको रैदास के यहां ले गये थे और क्यो रैदास ने उनको इतना आग्रह किया था कि गिलास का सर्बत पी लो  !

अब यहां से विदा होकर गोरख तुरन्त कबीर के पास गये और उनसे आग्रह किया कि वो अब रैदास जी के यहां उनको अभी ले चले, मै उनसे पुनः मिलना चाहता हूं! और कबीर तुरन्त ही उनको लेकर रैदास के पास गये ! रैदास जी ने उनको बैठाया और सत्संग की बाते शुरु करदी !अब गोरख का मन सत्संग में क्या लगता ! उन्होने कबीर को इशारा किया कि और  कहा कि पानी के लिये बोलो ! और रैदास जी ने आज पानी का नही पूछा ! तब उनकी उत्सुकता भांप कर रैदास बोले – गोरखनाथ जी आप जिस पानी को पीने का सोच कर आय्रे हैं वो पानी तो मुल्तान गया ! हर चीज का एक वक्त , एक मुहुर्त होता है ! अब वो घडी , वो मुहुर्त नही आयेगा ! अब मैं चाह कर भी वो पानी आपको नही पिला सकता ! तभी से ये कहावत पड गई कि ……वो पानी मुलतान गया ! क्योकिं वो पानी पीकर कमाली मुल्तान चली गई !सही है हर काम का एक समय एक मुहुर्त होता है ! उसको हम चूक गये तो अवसर हमारे पास नही आता ! तो इतने सक्षम और सिद्ध संत थे रैदास जी भी कि महान योगी गोरखनाथ भी उनके पास कुछ लेने आये थे ! सही है भक्ति अपने रंगरूप  मे अलग ही होती है !सिद्धियां अपनी जगह, भक्ति मे तो सब कुछ समाहित हो जाता है ! और अन्त मे सिद्ध भी भक्त ही बन जाता है ! जैसा गोरखनाथ के बाद के वचनों से मालूम होता है ।

आज भी हैं भोगी और योगीनाथ अस्तित्व

प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके शिष्य गोरखनाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है।

परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल, कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते हैं जिसे सिले कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को सींगी सेली कहते हैं।

इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते हैं। परस्पर श्आदेशश् या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते हैं।

इन्हीं से आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं-प्रारम्भिक दस नाथ………

आदिनाथ, आनंदिनाथ, करालानाथ, विकरालानाथ, महाकाल नाथ, काल भैरव नाथ, बटुक नाथ, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकांथनाथ। इनके बारह शिष्य थे जो इस क्रम में है- नागार्जुन, जड़ भारत, हरिशचंद्र, सत्यनाथ, चर्पटनाथ, अवधनाथ, वैराग्यनाथ, कांताधारीनाथ, जालंधरनाथ और मालयार्जुन नाथ।

चौरासी और नौ नाथ परम्परा

आठवी सदी में 84 सिद्धों के साथ बौद्ध धर्म के महायान के वज्रयान की परम्परा का प्रचलन हुआ। ये सभी भी नाथ ही थे। सिद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी सिद्ध कहलाते थे। उनमें से प्रमुख जो हुए उनकी संख्या चैरासी मानी गई है।

नौनाथ गुरु  1.मच्छेंद्रनाथ 2.गोरखनाथ 3.जालंधरनाथ 4.नागेश नाथ 5.भारती नाथ 6.चर्पटी नाथ 7.कनीफ नाथ 8.गेहनी नाथ 9.रेवन नाथ। इसके अलावा ये भी हैं 1. आदिनाथ 2. मीनानाथ 3. गोरखनाथ 4.खपरनाथ 5.सतनाथ 6.बालकनाथ 7.गोलक नाथ 8.बिरुपक्षनाथ 9.भर्तृहरि नाथ 10.अईनाथ 11.खेरची नाथ 12.रामचंद्रनाथ। ओंकार नाथ, उदय नाथ, सन्तोष नाथ, अचल नाथ, गजबेली नाथ, ज्ञान नाथ, चैरंगी नाथ, मत्स्येन्द्र नाथ और गुरु गोरक्षनाथ। सम्भव है यह उपयुक्त नाथों के ही दूसरे नाम है। बाबा शिलनाथ, दादाधूनी वाले, गजानन महाराज, गोगा नाथ, पंरीनाथ और साईं बाब को भी नाथ परंपरा का माना जाता है। उल्लेखनीय है क्या भगवान दत्तात्रेय को वैष्णव और शैव दोनों ही संप्रदाय का माना जाता है, क्योंकि उनकी भी नाथों में गणना की जाती है। भगवान भैरवनाथ भी नाथ संप्रदाय के अग्रज माने जाते हैं।

नाथपंथ के दूसरे नाथों के नाम

कपिल नाथ जी, सनक नाथ जी, लंक्नाथ रवें जी, सनातन नाथ जी, विचार नाथ जी , भ्रिथारी नाथ जी, चक्रनाथ जी, नरमी नाथ जी, रत्तन नाथ जी, श्रृंगेरी नाथ जी, सनंदन नाथ जी, निवृति नाथ जी, सनत कुमार जी, ज्वालेंद्र नाथ जी, सरस्वती नाथ जी, ब्राह्मी नाथ जी, प्रभुदेव नाथ जी, कनकी नाथ जी, धुन्धकर नाथ जी, नारद देव नाथ जी, मंजू नाथ जी, मानसी नाथ जी, वीर नाथ जी, हरिते नाथ जी, नागार्जुन नाथ जी, भुस्कई नाथ जी, मदर नाथ जी, गाहिनी नाथ जी, भूचर नाथ जी, हम्ब्ब नाथ जी, वक्र नाथ जी, चर्पट नाथ जी, बिलेश्याँ नाथ जी, कनिपा नाथ जी, बिर्बुंक नाथ जी, ज्ञानेश्वर नाथ जी, तारा नाथ जी, सुरानंद नाथ जी, सिद्ध बुध नाथ जी, भागे नाथ जी, पीपल नाथ जी, चंद्र नाथ जी, भद्र नाथ जी, एक नाथ जी, मानिक नाथ जी, गेहेल्लेअराव नाथ जी, काया नाथ जी, बाबा मस्त नाथ जी, यज्यावालाक्य नाथ जी, गौर नाथ जी, तिन्तिनी नाथ जी, दया नाथ जी, हवाई नाथ जी, दरिया नाथ जी, खेचर नाथ जी, घोड़ा कोलिपा नाथ जी, संजी नाथ जी, सुखदेव नाथ जी, अघोअद नाथ जी, देव नाथ जी, प्रकाश नाथ जी, कोर्ट नाथ जी, बालक नाथ जी, बाल्गुँदै नाथ जी, शबर नाथ जी, विरूपाक्ष नाथ जी, मल्लिका नाथ जी, गोपाल नाथ जी, लघाई नाथ जी, अलालम नाथ जी, सिद्ध पढ़ नाथ जी, आडबंग नाथ जी, गौरव नाथ जी, धीर नाथ जी, सहिरोबा नाथ जी, प्रोद्ध नाथ जी, गरीब नाथ जी, काल नाथ जी, धरम नाथ जी, मेरु नाथ जी, सिद्धासन नाथ जी, सूरत नाथ जी, मर्कंदय नाथ जी, मीन नाथ जी, काक्चंदी नाथ जी।

गुरु गोरखनाथ सचमुच ही महान योगी थे ! अगर भक्तिसिद्धान्तवादी सन्तों की माने तो वे साक्षात षिव के ही योगी रूप में अवतार थे जो विषुद्ध योग को प्रश्रय देते थे ! जिन सप्त चिरंजीवी लोगो मंे सन्तों की गणना होती है  उनमें एक गुरु गोरखनाथ को उनके अनुयायी आज भी जीवित अवस्था में मानते हैं आंैर कुछ श्रद्धालु अपने  शुभनाम के पीछे नाथ जरुर लगाते हैं । उत्तराखंड  तथा नेपालमें नाथपंथी साधुओ की वंसावली है जिनको कानफटा या  कानफडा साधु कहते और गेरुए लिबास मेे होते है और  ये सभी साधुसम्प्रदाय से दीक्षित होते है और इसके बावजूद स्त्रीसम्पर्क करते है और बिना विवाह संस्कार के किसी भीस्त्री  को मोहित करके या प्रेमजाल लाकर उसको अपने आश्रय में ले लेते है ! परन्तु इनको अघोरी नाथ भी कहते जिनको  भगवान बुद्ध के अनुयायी  भी कहा जाताहै ! वास्तव में मत्स्येन्दनाथ से उत्पन्न पारसनाथ और नीमनाथ ने  आगे चलकर ऐसे वामावार को नाथपन्थ में प्रवेष करा जहां साधु सन्त तंत्रसाधना के नाम कामपिपासा शान्त करने के लिए औरतों मे आसक्त होगये और नाथपंथ की ष्षक्ति योगसाधना की वजाय भोगसाधना में प्रवृत हो गई ! सभी प्रकार के शरीर के योगसाधन आदि भी गुरु गोरखनाथ की और उनके पूज्य गुरु मत्स्येन्द्र नाथ की देन है जिनकी प्राथमिक तंत्रसाधना और वामामार्ग की सि़द्धि के लिए अनिवार्य !  इन्हीं योगसाधनाओं के अनेक आसन करने के लिए योगगुरु रामदेव भी स्वास्थ्य रक्षा के लिए आम आदमी को प्रेरित करते है।


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