वेद स्वयं मूर्तिपूजा के समर्थक हैं । अनेक वेद-मंत्र इसकी साक्षी देते है।
देखिये – अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख है-
(संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे। सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण संसृज॥”)
“अर्थात् “ हे रात्रे ! संवत्सर की प्रतिमा ! हम तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से हमको सम्पन्न करो।”
अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है-
(एह्याश्मा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः )
“हे भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में अधिष्ठित होइये। आपका यह शरीर पत्थर की बनी मूर्ति हो जाये।”
(मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि | [तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ])
हे महावीर तुम ईश्वर की प्रतिमा हो |
(सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५])
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ] हैं |
(अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत | (अथर्ववेद-20.92.5)
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन करो,भली भांति पूजन करो |
(ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ])
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य पाषण के लिए नमस्कार है |
गणपति अथर्व शीर्षम् की फलश्रुती है-
(“सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा सिद्धमनत्रो भवति ।।”)
– सूर्यग्रहणके समय महानदीमें अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद्का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है ।
इसी प्रकार देवी अथर्वशीर्षम् की फलश्रुती है –
प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है, प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें ब्राह्मण में उल्लेख है-
अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती, रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित हो जाती है, वह पसीजती है, अपनी आँखों को खोलती और बन्द भी करती है।
“कपिल तंत्र” में इस भाव की पुष्टि करते हुए कहा गया है-”जिस तरह गाय के सारे शरीर में उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के द्वारा ही बाहर निकलता है, इसी तरह परमात्मा की सर्वव्यापक शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति में होता है।
इस तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर रहा है, वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है। बाह्य दृष्टि से दिखाई देता है कि वह प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर रहा होता है।
प्र । वः॒ । ग्रा॒वा॒णः॒ । स॒वि॒ता । दे॒वः । सु॒व॒तु॒ । धर्म॑णा । धूः॒ऽसु । यु॒ज्य॒ध्व॒म् । सु॒नु॒त ॥ १०.१७५.१
पदान्वय व अनुवाद:
ग्रावा॑ण॒ उप॑रे॒ष्वा म॑ही॒यन्ते॑ स॒जोष॑सः । वृष्णे॒ दध॑तो॒ वृष्ण्य॑म् ॥
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दे |
प्र वो ग्रावाणः सविता देवः सुवतु धर्मणा ।
धूर्षु युज्यध्वं सुनुत ॥१॥
ग्रावाणो अप दुच्छुनामप सेधत दुर्मतिम् ।
उस्राः कर्तन भेषजम् ॥२॥
ग्रावाण उपरेष्वा महीयन्ते सजोषसः ।
वृष्णे दधतो वृष्ण्यम् ॥३॥
ग्रावाणः सविता नु वो देवः सुवतु धर्मणा ।
यजमानाय सुन्वते ॥४॥
सायणभाष्यम्
‘प्र वः' इति चतुर्ऋचं चतुर्विंशं सूक्तं गायत्रम् । अर्बुदस्य सर्पर्षेः पुत्र ऊर्ध्वग्रावा नामर्षिः । सोमाभिषवार्था ग्रावाणो देवता । तथा चानुक्रान्तं-प्र वश्चतुष्कमूर्ध्वग्रावार्बुदिर्ग्राव्णोऽस्तौद्गायत्रम्' इति । ग्रावस्तोत्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च--- आ व ऋञ्जसे प्र वो ग्रावाण इति सूक्तयोः' ( आश्व. श्रौ. ५. १२) इति । यद्वा । इदमेकमेव सूक्तं ग्रावस्तोत्रम् । सूत्र्यते हि---* प्र वो ग्रावाण इत्येक उक्तं सर्पणम्' (आश्व. श्रौ. ५. १२ ) इति । ।
प्र वो॑ ग्रावाणः सवि॒ता दे॒वः सु॑वतु॒ धर्म॑णा ।
धू॒र्षु यु॑ज्यध्वं सुनु॒त ॥१
प्र । वः॒ । ग्रा॒वा॒णः॒ । स॒वि॒ता । दे॒वः । सु॒व॒तु॒ । धर्म॑णा ।
धूः॒ऽसु । यु॒ज्य॒ध्व॒म् । सु॒नु॒त ॥१
प्र । वः । ग्रावाणः । सविता । देवः । सुवतु । धर्मणा ।
धू:ऽसु । युज्यध्वम् । सुनुत ।। १ ॥
हे vग्रावाणः सोमाभिषवार्थाः पाषाणाः वः युष्मान् सविता प्रेरकः "देवः vधर्मणा आत्मीयेन धारणेन कर्मणा vप्र vसुवतु अभिषवार्थं प्रेरयतु । ' षू प्रेरणे' । तौदादिकः । यूयं च "धूर्षु अभिषवस्थानेषु प्राच्यादिमहादिक्षु "युज्यध्वं युक्ता भवत । अनन्तरं सुनुत अभिषुणुत सोमम् ॥
ग्रावा॑णो॒ अप॑ दु॒च्छुना॒मप॑ सेधत दुर्म॒तिम् ।
उ॒स्राः क॑र्तन भेष॒जम् ॥२
ग्रावा॑णः । अप॑ । दु॒च्छुना॑म् । अप॑ । से॒ध॒त॒ । दुः॒ऽम॒तिम् ।
उ॒स्राः । क॒र्त॒न॒ । भे॒ष॒जम् ॥२
ग्रावाणः । अप। दुच्छुनाम् । अप । सेधत । दुःऽमतिम् ।
उस्राः । कर्तन । भेषजम् ।।२।।
हे "ग्रावाणः vदुच्छुनां दुःखकारिणीं शत्रुभूतां प्रजाम् अप vसेधत अस्मत्तोऽपगमयत । * षिधु गत्याम्'। तथा दुर्मतिं दुष्टाभिसंधिं च vअप सेधत । vभेषजं सुखमस्माकं यथा भवति तथा vउस्राः गाः vकर्तन कुरुत ॥ करोतेश्छान्दसो विकरणस्य लुक् ।' तप्तनप्तनथनाश्च' इति तनबादेशः ॥
ग्रावा॑ण॒ उप॑रे॒ष्वा म॑ही॒यन्ते॑ स॒जोष॑सः ।
वृष्णे॒ दध॑तो॒ वृष्ण्य॑म् ॥३
ग्रावा॑णः । उप॑रेषु । आ । म॒ही॒यन्ते॑ । स॒ऽजोष॑सः ।
वृष्णे॑ । दध॑तः । वृष्ण्य॑म् ॥३
ग्रावाणः । उपरेषु । आ । महीयन्ते । सजोषसः ।
वृष्णे । दधतः । वृष्ण्यम् ।। ३ ।।
vग्रावाणः दिक्ष्ववस्थिताः पाषाणाः सजोषसः सह प्रीयमाणाः संगताः सन्तो वा उपरेषु । उपरो नामाभिषवाय चतुर्णां ग्राव्णां मध्ये स्थापितो विस्तृतः पाषाणः । प्रदेशापेक्षं बहुवचनम् । उपरस्य प्रान्तेषु vमहीयन्ते प्रकाशन्ते । आकारः पूरणः । किं कुर्वन्तः । Vवृष्णे वर्षित्रे सोमाय vवृष्ण्यं वीर्यं दधतः प्रयच्छन्तः ॥
ग्रावा॑णः सवि॒ता नु वो॑ दे॒वः सु॑वतु॒ धर्म॑णा ।
यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥४
ग्रावा॑णः । स॒वि॒ता । नु । वः॒ । दे॒वः । सु॒व॒तु॒ । धर्म॑णा ।
यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥४
ग्रावाणः । सविता । नु। वः । देवः । सुवतु । धर्मणा ।
यजमानाय । सुन्वते ।। ४ ।।
vदेवः दानादिगुणयुक्तः सविता हे ग्रावाणः Vवः युष्मान् vधर्मणा आत्मीयेन धारणेन 'नु क्षिप्रं "सुवतु अभिषवे प्रेरयतु । किमर्थम् । सुन्वते सोमाभिषवं कुर्वते यजमानाय यजमानार्थम् । तस्य'आओ! वेद को जानें' (2)
"ऋग्वेद में सूर्यग्रहण"
ऋग्वेद के पाँचवें मण्डल के चालीसवें सूक्त की ऋचा संख्या 5 से 9 तक में सूर्यग्रहण से सम्बन्धित उल्लेख मिलता है।
"यत्त्वा सूर्य स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः ।
अक्षेत्रविद्यथा मुग्धो भुवनान्यदीधयुः ॥५॥
स्वर्भानु: राहु का एक नाम है , जो व्यक्ति आरोही नोड, ग्रहण का कारण है; वह कश्यप का एक पुत्र था , जो दानवों या असुरों की माता दनु द्वारा दिया गया था ; हिरण्यकशिपु की बहन सिंहिका द्वारा एक और संबंधपरक तर्क उसे विप्रचिती का पुत्र बनाता है।
अर्थ- हे सूर्य! जब स्वर्भानु नामक असुर ने तुम्हें माया निर्मित अन्धकार से ढक लिया था, तब सभी लोक अंधकार पूर्ण हो गए थे। वहाँ के निवासी मूढ़ होकर अपने-2 स्थान को भी नहीं जा पा रहे थे।
अर्थ- हे इन्द्र ! जब तुमने सूर्य के नीचे वाले स्थान में फैली हुई स्वर्भानु की दिव्य माया को दूर भगा दिया था, तब अन्धकार में ढके सूर्य को अत्रि ऋषि ने चार ऋचाएँ बोलकर प्राप्त किया था।
अर्थ- सूर्य ने अत्रि से कहा- "हे अत्रि! इस प्रकार की अवस्था में पड़ा हुआ मै तुम्हारा सेवक हूँ। इस अन्न की इच्छा वाले असुर भयजनक अन्धकार द्वारा मुझे न निगल लें। तुम मेरे मित्र और सत्य का पालन करने वाले हो। तुम मेरी रक्षा करो।
यं वै सूर्यं स्वर्भानुस्तमसाविध्यदासुरः ।
अत्रयस्तमन्वविन्दन्नह्यन्ये अशक्नुवन् ॥९॥
ऋग्वेदः मण्डल_5/40/5
उपर्युक्त ऋचाओं में निसन्देह सूर्यग्रहण का ही उल्लेख है। जिसे तब खगोलीय ज्ञान के अभाव में आसुरी प्रकोप माना गया है। और जिसका निवारण भी तंत्र-मंत्र में ही तलाशा गया है। सूर्य से हटती छाया को अनुष्ठानिक प्रभाव का प्रतिफल माना जाता रहा होगा। आज भी वैदिक मान्यताओं का पोषक समाज, समस्याओं के निदान हेतु यज्ञादि अनुष्ठानों में दैवीय शक्ति व दैवीय चमत्कार में विश्वास रखता है। जबकि हक़ीक़त में ऐसा कुछ भी नहीं होता. यागनिष्पत्तय इत्यर्थः ॥३॥
वस्तुतः यज्ञ आदि क्रियाओं का मूल्यांकन आध्यात्मिक स्तर पर कदापि नहीं करना चाहिए क्योंकि अध्यात्म कर्मकाण्ड रहित मनस्साधना है।
जिसके लिए आचरण और विचारों की पवित्रता आवश्यक है।
सायणभाष्य-
ऋग्वेद का अध्ययन करते हुए अन्ततः पाँचवें मण्डल के चालीसवें सूक्त की ऋचा संख्या 5 से 9 तक में सूर्यग्रहण से सम्बन्धित उल्लेख है
(५)अर्थ- हे सूर्य! जब स्वर्भानु नामक असुर ने तुम्हें माया निर्मित अन्धकार से ढक लिया था, तब सभी लोक अंधकार पूर्ण हो गए थे। वहाँ के निवासी मूढ़ होकर अपने-2 स्थान को भी नहीं जा पा रहे थे।
(६)अर्थ- हे इन्द्र! जब तुमने सूर्य के नीचे वाले स्थान में फैली हुई स्वर्भानु की दिव्य माया को दूर भगा दिया था, तब अन्धकार में ढके सूर्य को अत्रि ऋषि ने चार ऋचाएँ बोलकर प्राप्त किया था।
(७)अर्थ- सूर्य ने अत्रि से कहा- "हे अत्रि! इस प्रकार की अवस्था में पड़ा हुआ मै तुम्हारा सेवक हूँ। इस अन्न की इच्छा वाले असुर भयजनक अन्धकार द्वारा मुझे न निगल लें। तुम मेरे मित्र और सत्य का पालन करने वाले हो। तुम मेरी रक्षा करो।
(८)अर्थ- ब्राह्मण अत्रि ने सूर्य को उपदेश दिया। इन्द्र के निमित्त सोम निचोड़ने हेतु पत्थरों को आपस में रगड़ा। स्तोत्रों द्वारा देवों की सेवा एवं अपने मन्त्रों के बल से सूर्य रूपी नेत्र को अंतरिक्ष में स्थापित किया। अत्रि ने स्वर्भानु की माया को दूर कर दिया।
(९)अर्थ- स्वर्भानु नामक असुर ने जिस सूर्य को अन्धकार द्वारा जकड़ लिया था, अत्रि ने उसे स्वतन्त्र किया। अन्य किसी में इतनी शक्ति नहीं थी।
उपर्युक्त ऋचाओं में निसन्देह सूर्यग्रहण का ही उल्लेख है।
जिसे तब खगोलीय ज्ञान के अभाव में दैवीय असुर का प्रकोप माना गया है। और जिसका निवारण भी तंत्र-मंत्र में ही तलाशा गया है। सूर्य से हटती छाया को अनुष्ठानिक प्रभाव का प्रतिफल माना जाता रहा होगा। आज भी वैदिक मान्यताओं का पोषक समाज, समस्याओं के निदान हेतु यज्ञादि अनुष्ठानों में दैवीय शक्ति व दैवीय चमत्कार में विस्वास रखता है। जबकि हक़ीक़त में ऐसा कुछ भी नहीं होता.
(1)
हे इन्द्र “आ “याहि अस्मद्यज्ञमागच्छ । आगत्य च हे “सोमपते सोमस्य स्वामिन्निन्द्र “अद्रिभिः ग्रावभिः “सुतं अभिषुतं “सोमं पिब । हे "वृषन् फलस्य वर्षयितः “वृत्रहन्तम अतिशयेन शत्रूणां हन्तृतम "वृषभिः वर्षकैर्मरुद्भिः सहा याहि पिब च।
(2)
“ग्रावा अभिषवसाधनः पाषाणः “वृषा वर्षकः सोमरसस्य फलस्य वा। "मदः सोमपानेन जनितः “वृषा वर्षकः । “अयं "सुतः अभिषुतः “सोमः "वृषा तं सोमं “वृषभिः सह पिब ।।
(3)
हे “वज्रिन् वज्रवन् “इन्द्र “वृषा सोमरसस्य सेक्ताहं “वृषणं त्वां “हुवे आह्वयामि । किमर्थम् । “चित्राभिः चायनीयाभिः "ऊतिभिः रक्षाभिर्निमित्तभूताभिः । शिष्टं गतम् ॥
‘ऋजीषी वज्री ' इत्येषा ब्राह्मणाच्छंसिनः शस्त्रयाज्या।' ऋजीषी वज्री वृषभस्तुराषाळिति याज्या ' ( आश्व. श्रौ. ५, १६ ) इति हि सूत्रितम् ॥
(4)
“ऋजीषी । सवनद्वयेऽभिषुतस्य गतसारस्य सोमस्य तृतीयसवने आप्यायाभिषुतः योऽस्ति स ऋजीषः सोमः । सोऽस्यास्तीत्यृजीषी । “वज्री वज्रवान् “वृषभः वर्षिता “तुराषाट् तुराणां त्वरमाणानां शत्रूणां सोढा “शुष्मी बलवान् “राजा ईश्वरः सर्वस्य "वृत्रहा वृत्रस्य हन्ता “सोमपावा सोमरसस्य पाता एवं महानुभाव इन्द्रः “हरिभ्यां “युक्त्वा रथं योजयित्वा “उप “यासत् उपगच्छतु । "अर्वाङ् अस्मदभिमुखमागच्छतु । आगत्य च “माध्यंदिने “सवने मत्सत् माद्यतु सोमेन “इन्द्रः ॥
______
(5)
इदमादिचतुर्भिर्मन्त्रैः अत्रीणां कर्म कीर्त्यते । हे “सूर्य प्रेरक देव “त्वा त्वां “यत् यदा "आसुरः असुरस्य प्राणापहर्तुरसुर्या वा पुत्रः “स्वर्भानुः स्वर्भानुसंज्ञकः “तमसा मायानिर्मितेन “अविध्यत् आवृणोदित्यर्थः । तदा “भुवनानि सर्वाणि "अदीधयुः दृश्यन्ते । “यथा तत्रत्यः सर्वो जनः “अक्षेत्रवित् स्वस्वस्थानमजानन् “मुग्धः मूढो भवति तथा ॥११ ॥
(6)
“अध अथ जगन्मौढ्यानन्तरं “स्वर्भानोः असुरस्य “यत् याः “मायाः सन्ति । कीदृश्यस्ताः ।। “दिवः द्योतमानादादित्यात् “अवः अवस्तात् वर्तमानाः । तदुपरितिरोधानासामर्थ्यादिति भावः । हे "इन्द्र ताः सर्वाः "अवाहन अवहंसि । अथात्रेरेव परोक्षवादः । "तमसा अन्धकारेण "अपव्रतेन अपगतकर्मणा "गूळ्हं "सूर्यम् । अन्धकारस्यावरणरूपत्वादपव्रतत्वम् । तथाविधं "तुरीयेण “ब्रह्मणा ‘ग्राव्णो ब्रह्मा' इत्यनेन "अत्रिः "अविन्दत् लब्धवान् । आवरणापगमोपायं निरावरणं शुद्धं वा सूर्यमिति । पूर्वमन्त्रापेक्षया अस्य तुरीयत्वम् । एकैकं मायांशमेकैकेन मन्त्रेणापनोद्य चतुर्थेन मन्त्रेण निलीनं तमोऽप्यनुददित्यर्थः ॥
(7)
इदं सूर्यवाक्यम् । हे "अत्रे मामिमम् ईदृगवस्थं मां “तव "सन्तं तव स्वभूतम् “इरस्या अन्नेच्छया "द्रुग्धः द्रोग्धासुरः "भियसा भयजनकेन तमसा “मा “नि “गारीत् मा गिरतु । किंच हे मित्र “त्वं “मित्रः असि । प्रमीतेः सकाशात् त्राता भवसि । "सत्यराधाः सत्यधनश्च । "तौ “राजा “वरुणश्च त्वं च तौ युवां “मा माम् "इहावतं रक्षतम् । यद्वा । अत्रिरेव मित्र उच्यते । स च वरुणश्च युवाम् ॥
(8)
"ब्रह्मा ब्राह्मणः "अत्रिः “ग्राव्णः अभिषवसाधनानि "युयुजानः युञ्जन् । इन्द्रार्थं सोममभिषुण्वन्नित्यर्थः। तथा "कीरिणा । कीर्यते विक्षिप्यते इति कीरि स्तोत्रम् । तेन "देवान् "सपर्यन् पूजयन् किंच "नमसा अनेन हविर्लक्षणेन नमस्कारेण वा “उपशिक्षन् । शिक्षतिर्दानार्थोऽत्र प्रसाधने वर्तते । प्रसाधयन् एवमुक्तैः साधनैः "सूर्यस्य सर्वप्रेरकस्य "चक्षुः सर्वस्य ख्यापकं मण्डलं "दिवि अन्तरिक्षे “आधात् । निस्तमस्कं कृतवानित्यर्थः । तदेव स्पष्टयति । "स्वर्भानोः एतन्नामकस्यासुरस्य "मायाः । स्वाश्रयमव्यामोहयन्ती परांस्तु तथा कुर्वती मायेत्युच्यते । तादृशीर्मायाः। यत्तुरीयेण ब्रह्मणेत्युक्तम् । तदेतदुक्तं तुरीयं ब्रह्म । तेनात्रिसहाय इन्द्रः "अप "अघुक्षत् अपजुगोप न्यवारयदित्यर्थः । अथवा तृतीयपाद एवं व्याख्येयः । सूर्यस्य दिवि पूर्वमावृते प्रकाशे तदपनोद्य स्वकीयं चक्षुराधात् । निरावरणं तेजःसंस्त्यायं दृष्टवानित्यर्थः । स्वर्भानुमायया सूर्यस्यावृतिर्हारिद्रविके समाम्नाता--- ‘स्वर्भानुश्चासुरः सूर्यं तमसाविध्यत्तस्मै देवाः प्रायश्चित्तमैच्छन् तस्य यत्प्रथमं तमोऽपाघ्नन् सा कृष्णाविरभवत् यद् द्वितीयं सा फाल्गुनी यत्तृतीयं सा वलक्षी यदध्यस्थादपाकृन्तन्' इत्यादि ।
(9)
अत्रिकृतं सामर्थ्यमनुवदति “यं "वै "सूर्यम् इति । निगदव्याख्यैषा । "अत्रयस्तं सूर्यम् “अन्वविन्दन् इन्द्रार्थं सोमयागदेवतास्तुतिनमस्कारैरनुक्रमेणेषदीषत् तमोऽवरुध्य लब्धवन्त इत्यर्थः । “अन्ये "नहि "अशक्नुवन् न लब्धवन्तः खलु ॥ ॥ १२ ॥
मण्डल |
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