शनिवार, 4 जुलाई 2020

यादव केवल यादव हैं क्षत्रिय या शूद्र नहीं!

महाभारत का सम्पादन बृहद् रूप पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में हुआ ।

भारत की प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक राजधानी मगध थी ।
जो आधुनिक विहार है ।

मगध से विहार बनने के सन्दर्भ में 
ये तथ्य विदित हैं कि महात्मा बुद्ध  के नवीनत्तम सम्प्रदाय पाषण्ड  ( पाषम् बन्धनम् अण्डयति खण्डयति इति पाषण्ड अर्थात्‌ जो वैदिक विधानों के नाम पर प्राकृत जनों पर आरोपित पाशों का खण्डन करता है वह पाषण्ड है । 
यद्यपि ब्राह्मण पुरोहितों'ने पाषण्ड शब्द  की काल्पनिक व्युत्पत्ति पा-पाति रक्षति दुरितेभ्यः पा--क्विप् पाः 
वेदधर्मस्तं षण्डयति  खण्डयति निष्फलं करोति ।
 “पालनाच्च त्रयी- धर्मः पाशब्देन निगद्यते ।
 षण्डयन्ति तु तं यस्मात् पाषण्डस्तेन कीर्त्तित” इत्युक्ते वेदाचारत्यागिनि अमरकोश 

उसी में दीक्षित नव बौद्ध श्रमणों के लिए जो विहार ( आश्रम) बहुतायत रूप से बनाए गये तभी  से मगध का नाम विहार हो गया ।

महाभारत जन किंवदंतियों पर आधारित आख्यानकों का बृहद् संकलन है ।

जिसे महर्षि व्यास के नाम पर सम्पादित किया गया ।

और इसे जय संहिता का नाम दिया गया ।
कोई भा मानवीय ग्रन्थ पूर्व दुराग्रह से रहित नहीं होता है ।
दुराग्रह कहीं न कहीं मोह और हठों से समन्वित रूप से प्रेरित होते हैं ।
और हठों और मोह अज्ञानता से प्रेरित होते हैं ।
इसके विपरीत संकल्प अथवा  प्रतिज्ञा  ज्ञान से प्रेरित मनश्चेष्टाऐं हैं ।
 महाभारत कथाओं का अवसान इन आख्यानकों से हुआ की जब रोते हुआ अर्जुन व्यास जी से अपनी मनोव्यथा कहता है ।

प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले 
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से 
यह प्रक्षिप्त (नकली)श्लोक उद्धृत करते हैं ।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले !अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है ।
इसे देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । 
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। 

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । 
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 

परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!

( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---

तब युधिष्ठिर स्वर्गलोक प्रस्थान का विचार करके ब्रजनाभ जो श्रीकृष्ण का प्रपोत्र थे उनको यादवो का राजा बना दिये और स्वर्गलोक चले गए अब श्रीकृष्ण प्रपोत्र थे यादव थे तभी तो यादवो के राजा बने 
वस्तुतः राजा बनने से तात्पर्य केवल अवशिष्ट यादवों को संरक्षण देना और उनका रञ्जन करना है ।

'परन्तु वर्ण व्यवस्था वादी और देव 'संस्कृति' का यादवों से संयोजन अतिश्योक्ति पूर्ण हैं ।
सब मिथ्या है ।

मुर्ख जैसी बात करते हो सुनी सुनाई बात पर अकल है।

ऋग्वेद में  यादवों को परास्त करने और उनके अनिष्ट की कामना करने वाले पुरोहित यादवों को शूद्र या म्लेच्छ ही कहेंगे ।
इसी लिए क्षत्रिय कृत्रिम वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणों सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार करेंगे ।

 कि नही ना कोई प्रमाण दे रहे कि कहा यादवो को क्षत्रिय कहा गया है कहा श्रीकृष्ण को क्षत्रिय कहा गया है ।
यदि कहा भी गया है तो यह सब पराभव वादीयों का कुटिल समझौता है ।

जिसका परिणाम केवल दोखा या प्रवञ्चना ही है ।

 वासुदेव को क्षत्रिय कहा गया है कहा यदु को क्षत्रिय कहा गया है।
ऐसा राग अलापने वाले वर्ण संकर जनजातियों के संघ राजपूतों को ही यदुवंशी बना रहे हैं ।

क्योंकि ब्राह्मणों की वर्तमान धर्म संहिता स्मृति आदि ग्रन्थों में अहीर गोपों' को शूद्र रूप में वर्णित किया गया है।

जो यादव आज अपने मन की झूँठी तसल्ली के लिए खुद को वैदिक क्षत्रिय कह रहे हैं ।

उनके पास कोई प्रमाण नही है
वितण्डावाद है।

एसे 'लोग' दो विपरीत दिशा में चलने वाली नावों पर सवारी करना चाहते हैं ।। 

यदि आप'कहें'कि जब यादव क्षत्रिय नहीं हैं तो शूद्र हुए 
तो यह कहना भी मूर्खता है । 
क्योंकि यादवों 'ने कभी वर्ण व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं किया। 
इनका नवीन धर्म भागवत था ।

गोपों अथवा अहीरों के साथ भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान 
कहीं क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र ....
____________________________________________

एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर  तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।

वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे ही माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा 
तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
________________________

ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।

•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !

क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।

•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे एेसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।

लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।

•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11

इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
___________________________

•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे 
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।

हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में 
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
____________
स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।

अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक  श्री कृष्ण से कहता है 
अलं ( बस कर  ठहरो!)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26। 
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)

गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।
 और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है 
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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥

अन्यत्र भी कृष्ण और वसुदेव को गोप कहा गया है 
;अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा!
गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। 

 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।

वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते$प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।

देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत: 
अर्थात्  हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर 
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके 
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।

कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम'  द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।

इसमें यह 55 वाँ अध्याय है ।
"पितामह वाक्य" नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ] 
अब कृष्ण का जन्म हरिवंश पुराण---जो महाभारत का खिल-भाग (अवशिष्ट) है । 
उसमें कृष्ण का जन्म आभीर (गोप) कबींले में बताया है ।

देखें---
गोपायनं य:  कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।  (हरिवंश पुराण ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।

वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण

" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते$प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत: 

अर्थात्  हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर 
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके 
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।

कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम'  द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।
इसमें यह 55 वाँ अध्याय है । 
पितामह वाक्य नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ]


'परन्तु स्मृति ग्रन्थों में गोप शूद्र बना दिए 
और उनकी व्युत्पत्ति भी वर्ण संकर के रूप में की गयी ।

व्याधांच्छाकुनिकान्” गोपान्।
 “मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः” मनुस्मृति
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है 
------------------------------------------------------------- " क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
 स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:

 ----------------------------------------------------------------- अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है । 
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.. __________________________________________ वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
 वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन:
 एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। 
चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। 

एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: 
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है । ____________________________ अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।

 शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति । 
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
 (व्यास-स्मृति) 

नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । 
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________
 (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) 
--------------------------------------------------------------

 स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
 देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________ 

" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________ अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । 
--------------------------------------------------------------
 निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है । 
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।

जिसमे ब्राह्मण वाद के वर्चस्व विषयक किसी भी सिद्धान्तों का समायोजन नहीं था ।

 
कुछ लोग सहत्रबाहु को लेके इतिहास बताते है ।

 ‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎ ‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎ जिसे हैहय वंश का यादव माना जाता है ।
परशुराम का युद्ध सहस्रबाहु से हुआ ।
और पुराणों में उसे चक्रवर्ती सम्राट वर्णित किया गया है।
और ब्राह्मणों 'ने यह भी वर्णित कर दिया कि क्षत्रियों की 
विधवाएें ऋतुकाल में ब्राह्मणों के पास गयीं 
तब उनसे क्षत्रिय हुए  ।
'परन्तु यह कथा कल्पना प्रसूत व मनगडन्त है ।
सामान्यत तर्क से ही इसका स्वत: खण्डन हो सकता है ।
क्या विधवा हुई सभी स्त्रियाँ ब्राह्मणों से ही गर्भ वता हुईं
उससे पहले कोई गर्भवती नहीं थी।? 

क्या इक्कीस वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया?
सारी थ्योरी निराधार है ।
यद्यपि यादव अपने पराक्रमी और निर्भीकता पूर्ण आचरण के लिए क्षत्रिय हैं ।
जो किसी राजपूत या ब्राह्मण के प्रमाण पत्र के मोहताज नहीं ..

क्षत्रिय यादव वही है जो यादव धर्म का पालन करे इसलिए श्रीकृष्ण कहा जब उनको राजा बनने की बात यादव सामंतों ने कही !
तब 

एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२

आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३ 

श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय

अर्थात्‌  मैं राजा नही बन सकता कोई यादव राजसिंहासन पर नही बैठ सकता क्यों कि यदु जी ने वचन दिया था।
'परन्तु जो उग्रसेन स्वयं यादव ही थे ।
वे राजा कैसे बन गये।
भागवत पुराण भी मिलाबट पूर्ण हैं इसमें भी जोड़ और तोड़ होने से विरोधाभासी स्थिति है।

 यादव अथवा अहीर केवल  वही क्षत्रिय या शूद्र नहीं 
उसकी निर्भीकता प्रवृत्ति 'ने उसे आभीर बना दिया ।

उसकी गोपालन वृत्ति 'ने उसे गोप  बना दिया ।
और यदुवंश में जन्म लेने के कारण वह यादव कहलाया ।
अहीर सबसे प्राचीनत्तम और शुद्ध यादव हैं ।
क्योंकि की यदु के पूर्वजों को ही आभीर (अबीर) कहा गया ।

इसी लिए हम्हें अहीर होने पर फक्र है ।
और हमारा भोजन दूध दही और चक्र है।
दुश्मनो के लिए  कभी लाठी तो कभी सुदर्शन चक्र भी है ।

__________
यादव योगेश कुमार 'रोहि'

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