रविवार, 12 जुलाई 2020

🌸•–यादव•–🌸

यादव" भारत में ही नहीं अपितु पश्चिमी एशिया, मध्य अफ्रीका , तथा यूरोप का प्रवेश द्वार समझे जाने वाले यूनान तक अपनी धाक दर्ज कराने वाली आभीर जन-जाति का प्रतिनिधि समुदाय है। 


पारम्परिक रूप से इन्हें इनके वृत्ति (व्यवसाय) मूलक विशेषण के तौर पर गोप , गोपाल कहा जाता है ।
यद्यपि वंशमूलक रूप से भारतीय पुराणों में इन्हें  यादव भी कहा गया है।

 भारतीय पुराणों में गोप और यादव शब्द पर्य्याय रूप में सापेक्षिक प्रयुक्त हैं ।

 गोप विशेषण गायों के पालन करने के कारण ही इन्हें प्राप्त है ।
 गाय को प्राचीन काल से विश्व -संस्कृतियों 'ने प्रतिष्ठा दी गयी ।
गायें विश्व की माता हैं  इसमें प्रकार वाल्मीकि-रामायण में दिलीप के मुखार बिन्दु से यह उद्गार नि:सृत होता है –
 " गावो विश्वस्य मातरः = गायें विश्व की माता हैं " 👇
___________________
भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि ,पीत्वा तोयं जलाशयात् ।
 दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥ 
अर्थात्‌ रूखी-सूखी घास के तिनके खाकर भी और जलाशयों ( तालाब , पोखर आदि) से जल पीकर संसार के प्राणियों को दूध देती हैं इसी लिए वे गायें विश्व की माता हैं ।

वेदों में कहा गया हैः- गावो विश्वस्य मातरः। अर्थात् गाय सम्पूर्ण विश्व की माता है।

 महाभारत में भी आता हैः- मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुख: 'गौएँ सभी प्राणियों की माता कहलाती हैं वे गायें सभी को सुख देने वाली हैं।' (महाभारत अनुशासन पर्व 69.7) 

गौमाता की सेवा भगवत्प्राप्ति के साधनों में से एक है।
 गौदुग्ध का सेवन करना भी गौ- सेवा है।
 जब गाय का दूध जीवन का समग्र आवश्यक आहार है ।
तो गायों का पालन भी  परमावश्यक है ।

गाय के दूध, दही, घी, की ही नहीं अपितु भारतीय पुराणों में गौमूत्र तथा गोबर (गो-मल)की  भी विशेष महिमा है। 

विश्व में केवल एक गाय ही एक ऐसा पशु है जिसके मल - मूत्र को भी पवित्र और गुण कारी माना जाता है।
जब कि संसार में ऐसा अन्य कोई प्राणी नहीं 
महिषी भी गायों की सहवर्ती होकर सम्माननीया हैं ।
 
भारतीय संस्कृति में पवित्र और गुण कारी गायों के मल मूत्र को सदीयों से माना जाता है ।

 सभी भारतीय पुराणों, उपनिषदों और महाभारत आदि ग्रन्थों में  गौदुग्ध की महिमा का वर्णन मिलता है।
जिसमें अनेक औषधीय गुण हैं ।

 इस प्रकार से गायों की सेवा के महानता पूर्ण कार्य को करने के कारण ही सभी पुराणों में गोपों को पवित्र और उच्च मानव होने की मान्यता प्राप्त है ।
जो गाय सम्पूर्ण विश्व की पालन करने वाली है उस दाता पालन करने वाले ये गोप या यादव हैं ।

 ये कभी किसी काल में तुच्छ नहीं मानते गये ।
गो-पालन करने की क्रियाओं का विकसित रूप ही कृषि के रूप में हुआ ।
और किसान सबका अन्न-दाता है ।

जो प्राचीन काल में गोप ,  गो-चारण करने वाले लोग थे ।
वे ही कालान्तरण में कृषि- संस्कृतियों के आविष्कारक हुए ।

वर्तमान में यादव शब्द वंशमूलक रूप में विद्यमान गोप अथवा आभीर जन-जाति के समुदायों को सन्दर्भित करता है ।

 
19वीं और 20वीं शताब्दी से ये यादव लोग सामाजिक और राजनीतिक पुनरुत्थान के आंदोलन के भागीदार के रूप में एक मंच पर संगठित हुए ।


ये वैदों में वर्णित तुर्वशु क सहवर्तीे यदु  के वंश से सम्बद्ध हैं ।
जिनका  वर्णन यहूदियों के पवित्र ग्रन्थ हिब्रूू बाइबिल के जैनेसिस
खण्ड में है ।
इसी बाइबिल में यहुदह् और तुरवजु का वर्णन जैरुशलेम के समीर हुआ है ।
इसके अतिरिक्त सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों में भी यदु का वर्णन "उदु" के रूप में हुआ है ।

ईसा० पूर्व 57 के विक्रम संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य उज्जयिनी के सभा -रत्नों में आसीन अमरसिंह के अमर कोष में गोप और आभीर पर्याय वाची शब्द हैं ।👇
_______
गोपः (पुंल्लिंग)- (गां गोजातिं पाति रक्षतीति । गो + पा + कः ।) जातिविशेषः । गोपाल -गोयाला इति भाषा ॥ 
तत्पर्य्यायः ।
 १गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ । 
इत्यमरः  (वर्ग ।अध्याय ।श्लोक । २ । ९ । ५७ ॥)

संस्कृत के गोपाल शब्द से ही हिन्दी की अन्य सहवर्ती भाषाओं और बोलीयों में ग्वाल, गोयल ,गवली और ग्वारिया आदि शब्दों का तद्भव हुआ।
महाराष्ट्र और गोआ ,(गोपराष्ट्र) में यह शब्द गवली है ।
आभीर विशेषण


'परन्तु कालान्तरण में जब प्राचीनत्तम सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हुआ तो कुछ स्वार्थ सिद्ध पुरोहितों'ने गोपालन वृत्ति और कृषि कार्य करने वाले  इन्द्र गोपों को वैश्य वर्ण में समाविष्ट करने की दुष्चेष्टा की जबकि तथाकथित वैश्य कहे जाने वाले कभी गोपालन और कृषि करते हुए नहीं देखे जाते हैं ।
अत: गोपाल और कृषकों की वृत्ति को वैश्य वर्ण में समाविष्ट करना
असंगत है ।  
क्योंकि पालन और लालन क्रियाऐं वीरों अथवा क्षत्रियों की हैं ।

परंपरागत रूप से यादव  और उनके आदि पूर्वज  यदु को ऋग्वेद के अनेक सुक्तो की ऋचाओं में गोप कहा गया है ।👇
_____
उ॒त दा॒सा प॑रि॒विषे॒ स्मद्दि॑ष्टी॒ गोप॑रीणसा ।

यदु॑स्तु॒र्वश्च॑ मामहे ॥१०
पदपाठ–
उ॒त । दा॒सा । प॒रि॒ऽविषे॑ । स्मद्दि॑ष्टी॒ इति॒ स्मत्ऽदि॑ष्टी । 
गोऽप॑रीणसा । यदुः॑ । तु॒र्वः । च॒ । म॒म॒हे॒ ॥१०



“उत अपि च "स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ गोपै: इणसा गोपरीणसा वा बहुगवादियुक्तौ  इति गोप: 

“दासा दास्यन्ति ददति वा स्थितौ तेनाधिष्ठितौ 
“यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी ।

“परिविषे -परित: व्याप्नोति तस्मै 
"मामहे - मह् पूजायाम् प्रशंसायाम् वा आत्मनेपदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप ।
______________________________
ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा में यदु और तुर्वशु को गोप रूप में गायों से आवृत( घिरा हुआ) दर्शाया गया है ।
जिनकी प्रसंशा की गयी है ।

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा– गायों  से घिरा हुआ ।

यद्यपि अन्यत्र वैदिक सन्दर्भों में यदु और तुर्वशु को वैदिक पुरोहित
अपने अधीन और अपने शासन में करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।🌸प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ 
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि 
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 

(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी  यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।

क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर  किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान 
वेदों के ही अनुगामी हैं।

---जो वेद में है ; उसी का विस्तार पुराणों में है। 
इसी लिए यदुकुल के युग पुरुष कृष्ण के वर्चस्व से अभिभूत  पुरोहितों 'ने षड्यन्त्र पूर्वक 
आभीरों के सांस्कृतिक नृत्य हल्लीशम को रास लीला में परिवर्तन कर कृष्ण के चरित्र को पतित करने के लिए अनेक कमोत्तेजक  यौन मूलक प्रसंग उनके जीवन लीला से संपृक्त कर दिये ।

अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
विदित हो कि  वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण  को  दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।

सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में  यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं । 
जब यदु को ही वेदों में दास कहा है । 
अब दास शब्द का अर्थ विवादास्पद है. 
क्योंकि प्राचीनत्तम वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ उदार और दाता था दास्यति इति दास :– जो देता है वह दास होता है ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।  
वह भी गोपों को रूप में ।

लौकिक संस्कृत में दास का अर्थ भृत्य तथा पराधीन सेवक के अर्थों से गुजरता हुए भक्त के अर्थ तक आया ।
हिन्दी के भक्ति काल में दास भक्त का वाचक है ।

यद्यपि द्वेष वश कुछ रूढ़िवादी पुरोहितों'ने यादवों के वर्चस्व को सहन 'न करने के कारण उन्हें कहीं वैश्य तो कहीं स्मृति ग्रन्थों में शूद्र बनाने की  दुष्चेष्टा की जबकि महाभारत  में गोपों की अजेय विशाल सेना  जिसके प्रशिक्षक स्वयं कृष्ण थे ।
क्षत्रिय रूपों में थे ।

महाभारत के उद्योग पर्व में अहीरों की नारायण संज्ञा वाली नारायणी सेना यौद्धाओं के विषय में कृष्ण स्वयं कहते है ।
दुर्योधन से –👇
_______
मत्संहननतुल्यानां गोपानामर्बुदं महत् --
नारायणा इति ख्याता: सर्वेसंग्राम योधिन:।।18।

यादव" भारत में ही नहीं अपितु पश्चिमी एशिया, मध्य अफ्रीका , तथा यूरोप का प्रवेश द्वार समझे जाने वाले यूनान तक अपनी धाक दर्ज कराने वाली आभीर जन-जाति का प्रतिनिधि समुदाय है। 


पारम्परिक रूप से इन्हें इनके वृत्ति (व्यवसाय) मूलक विशेषण के तौर पर गोप , गोपाल कहा जाता है ।
यद्यपि वंशमूलक रूप से भारतीय पुराणों में इन्हें  यादव भी कहा गया है।

 भारतीय पुराणों में गोप और यादव शब्द पर्य्याय रूप में सापेक्षिक प्रयुक्त हैं ।

 गोप विशेषण गायों के पालन करने के कारण ही इन्हें प्राप्त है ।
 गाय को प्राचीन काल से विश्व -संस्कृतियों 'ने प्रतिष्ठा दी गयी ।
गायें विश्व की माता हैं  इसमें प्रकार वाल्मीकि-रामायण में दिलीप के मुखार बिन्दु से यह उद्गार नि:सृत होता है –
 " गावो विश्वस्य मातरः = गायें विश्व की माता हैं " 👇
___________________
भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि ,पीत्वा तोयं जलाशयात् ।
 दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥ 
अर्थात्‌ रूखी-सूखी घास के तिनके खाकर भी और जलाशयों ( तालाब , पोखर आदि) से जल पीकर संसार के प्राणियों को दूध देती हैं इसी लिए वे गायें विश्व की माता हैं ।

वेदों में कहा गया हैः- गावो विश्वस्य मातरः। अर्थात् गाय सम्पूर्ण विश्व की माता है।

 महाभारत में भी आता हैः- मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुख: 'गौएँ सभी प्राणियों की माता कहलाती हैं वे गायें सभी को सुख देने वाली हैं।' (महाभारत अनुशासन पर्व 69.7) 

गौमाता की सेवा भगवत्प्राप्ति के साधनों में से एक है।
 गौदुग्ध का सेवन करना भी गौ- सेवा है।
 जब गाय का दूध जीवन का समग्र आवश्यक आहार है ।
तो गायों का पालन भी  परमावश्यक है ।

गाय के दूध, दही, घी, की ही नहीं अपितु भारतीय पुराणों में गौमूत्र तथा गोबर (गो-मल)की  भी विशेष महिमा है। 

विश्व में केवल एक गाय ही एक ऐसा पशु है जिसके मल - मूत्र को भी पवित्र और गुण कारी माना जाता है।
जब कि संसार में ऐसा अन्य कोई प्राणी नहीं 
महिषी भी गायों की सहवर्ती होकर सम्माननीया हैं ।
 
भारतीय संस्कृति में पवित्र और गुण कारी गायों के मल मूत्र को सदीयों से माना जाता है ।

 सभी भारतीय पुराणों, उपनिषदों और महाभारत आदि ग्रन्थों में  गौदुग्ध की महिमा का वर्णन मिलता है।
जिसमें अनेक औषधीय गुण हैं ।

 इस प्रकार से गायों की सेवा के महानता पूर्ण कार्य को करने के कारण ही सभी पुराणों में गोपों को पवित्र और उच्च मानव होने की मान्यता प्राप्त है ।
जो गाय सम्पूर्ण विश्व की पालन करने वाली है उस दाता पालन करने वाले ये गोप या यादव हैं ।

 ये कभी किसी काल में तुच्छ नहीं मानते गये ।
गो-पालन करने की क्रियाओं का विकसित रूप ही कृषि के रूप में हुआ ।
और किसान सबका अन्न-दाता है ।

जो प्राचीन काल में गोप ,  गो-चारण करने वाले लोग थे ।
वे ही कालान्तरण में कृषि- संस्कृतियों के आविष्कारक हुए ।

वर्तमान में यादव शब्द वंशमूलक रूप में विद्यमान गोप अथवा आभीर जन-जाति के समुदायों को सन्दर्भित करता है ।

 
19वीं और 20वीं शताब्दी से ये यादव लोग सामाजिक और राजनीतिक पुनरुत्थान के आंदोलन के भागीदार के रूप में एक मंच पर संगठित हुए ।


ये वैदों में वर्णित तुर्वशु क सहवर्तीे यदु  के वंश से सम्बद्ध हैं ।
जिनका  वर्णन यहूदियों के पवित्र ग्रन्थ हिब्रूू बाइबिल के जैनेसिस
खण्ड में है ।
इसी बाइबिल में यहुदह् और तुरवजु का वर्णन जैरुशलेम के समीर हुआ है ।
इसके अतिरिक्त सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों में भी यदु का वर्णन "उदु" के रूप में हुआ है ।

ईसा० पूर्व 57 के विक्रम संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य उज्जयिनी के सभा -रत्नों में आसीन अमरसिंह के अमर कोष में गोप और आभीर पर्याय वाची शब्द हैं ।👇
_______
गोपः (पुंल्लिंग)- (गां गोजातिं पाति रक्षतीति । गो + पा + कः ।) जातिविशेषः । गोपाल -गोयाला इति भाषा ॥ 
तत्पर्य्यायः ।
 १गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ । 
इत्यमरः  (वर्ग ।अध्याय ।श्लोक । २ । ९ । ५७ ॥)

संस्कृत के गोपाल शब्द से ही हिन्दी की अन्य सहवर्ती भाषाओं और बोलीयों में ग्वाल, गोयल ,गवली और ग्वारिया आदि शब्दों का तद्भव हुआ।
महाराष्ट्र और गोआ ,(गोपराष्ट्र) में यह शब्द गवली है ।
आभीर विशेषण


'परन्तु कालान्तरण में जब प्राचीनत्तम सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हुआ तो कुछ स्वार्थ सिद्ध पुरोहितों'ने गोपालन वृत्ति और कृषि कार्य करने वाले  इन्द्र गोपों को वैश्य वर्ण में समाविष्ट करने की दुष्चेष्टा की जबकि तथाकथित वैश्य कहे जाने वाले कभी गोपालन और कृषि करते हुए नहीं देखे जाते हैं ।
अत: गोपाल और कृषकों की वृत्ति को वैश्य वर्ण में समाविष्ट करना
असंगत है ।  
क्योंकि पालन और लालन क्रियाऐं वीरों अथवा क्षत्रियों की हैं ।

परंपरागत रूप से यादव  और उनके आदि पूर्वज  यदु को ऋग्वेद के अनेक सुक्तो की ऋचाओं में गोप कहा गया है ।👇
_____
उ॒त दा॒सा प॑रि॒विषे॒ स्मद्दि॑ष्टी॒ गोप॑रीणसा ।

यदु॑स्तु॒र्वश्च॑ मामहे ॥१०
पदपाठ–
उ॒त । दा॒सा । प॒रि॒ऽविषे॑ । स्मद्दि॑ष्टी॒ इति॒ स्मत्ऽदि॑ष्टी । 
गोऽप॑रीणसा । यदुः॑ । तु॒र्वः । च॒ । म॒म॒हे॒ ॥१०



“उत अपि च "स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ “गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ गोपै: इणसा गोपरीणसा वा बहुगवादियुक्तौ  इति गोप: 

“दासा दास्यन्ति ददति वा स्थितौ तेनाधिष्ठितौ 
“यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी ।

“परिविषे -परित: व्याप्नोति तस्मै 
"मामहे - मह् पूजायाम् प्रशंसायाम् वा आत्मनेपदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप ।
______________________________
ऋग्वेद की उपर्युक्त ऋचा में यदु और तुर्वशु को गोप रूप में गायों से आवृत( घिरा हुआ) दर्शाया गया है ।
जिनकी प्रसंशा की गयी है ।

गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा– गायों  से घिरा हुआ ।

यद्यपि अन्यत्र वैदिक सन्दर्भों में यदु और तुर्वशु को वैदिक पुरोहित
अपने अधीन और अपने शासन में करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।🌸प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ 
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि 
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 

(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी  यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।

क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर  किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान वेदों के ही अनुगामी हैं ।

---जो वेद में है ; उसी का विस्तार पुराणों में है। 
इसी लिए यदुकुल के युग पुरुष कृष्ण के वर्चस्व से अभिभूत  पुरोहितों 'ने षड्यन्त्र पूर्वक 
आभीरों के सांस्कृतिक नृत्य हल्लीशम को रास लीला में परिवर्तन कर कृष्ण के चरित्र को पतित करने के लिए अनेक कमोत्तेजक  यौन मूलक प्रसंग उनके जीवन लीला से संपृक्त कर दिये ।

अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
विदित हो कि  वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण  को  दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।

सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में  यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं । 
जब यदु को ही वेदों में दास कहा है । 
अब दास शब्द का अर्थ विवादास्पद है. 
क्योंकि प्राचीनत्तम वैदिक सन्दर्भों में दास का अर्थ उदार और दाता था दास्यति इति दास :– जो देता है वह दास होता है ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।  
वह भी गोपों को रूप में ।

लौकिक संस्कृत में दास का अर्थ भृत्य तथा पराधीन सेवक के अर्थों से गुजरता हुए भक्त के अर्थ तक आया ।
हिन्दी के भक्ति काल में दास भक्त का वाचक है ।

यद्यपि द्वेष वश कुछ रूढ़िवादी पुरोहितों'ने यादवों के वर्चस्व को सहन 'न करने के कारण उन्हें कहीं वैश्य तो कहीं स्मृति ग्रन्थों में शूद्र बनाने की  दुष्चेष्टा की जबकि महाभारत  में गोपों की अजेय विशाल सेना  जिसके प्रशिक्षक स्वयं कृष्ण थे ।
क्षत्रिय रूपों में थे ।

महाभारत के उद्योग पर्व में अहीरों की नारायण संज्ञा वाली नारायणी सेना यौद्धाओं के विषय में कृष्ण स्वयं कहते है ।
दुर्योधन से –👇
_______
मत्संहननतुल्यानां गोपानामर्बुदं महत् --
नारायणा इति ख्याता: सर्वेसंग्राम योधिन:।।18।

अर्थात्‌ – मेरे पास दस करोड़ गोपों (अहीरों) की सेना है जो सब के सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं; उन सब की नारायण संज्ञा है ;
 वे सभी युद्ध में भयंकर युद्ध करते हैं 18।
________________________
 उद्योग पर्व महाभारत  7/18

कदाचित स्थान भेद से भूमिका का भेद तो सही है 'परन्तु किसी को स्थायीत्व देना तर्क संगत नहीं।
नारायणी सेना के यौद्धा गोप ही  यादव कन्या सुभद्रा का अपहरण करने वाले अर्जुन को पञ्चनद प्रदेश पंजाब में कृष्ण की अनुपस्थिति में परास्त करते हैं ।
इसी बात को भागवत पुराण के प्रथम स्कन्द के पन्द्रह वें अध्याय के बीसवें श्लोक में वर्णित किया गया।

_____
"सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन 
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। 

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । 
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि ।२०।
_________________________________________________
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । 
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय 
पन्द्रहवाँ श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-
_______________
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है।
कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर 
रूप में ही वर्णन करता है ।

यद्यपि  न्याय संगत रूप में  यादव क्षत्रिय और अपने आध्यात्मिक 
उच्चताओं के शिखर पर पहुँचने के कारण ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठता प्राप्त कर रहे थे ।
नवीनत्तम आध्यात्मिक मार्ग भागवत धर्म यादवों का था 
हरिवशं पुराण में जिसका स्पष्टत: विवरण है ।

ऋग्वेद में यदु के विषय में लिखा है कि 
     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं 
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;।
दास वैदिक सन्दर्भों में दानी अथवा उदार का अर्थ देते -देते देव विरोधी हो गया ।
जैसे असु-र शब्द का अर्थ...

वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वंश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।👇
_________________________________________

और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है देखें---
__________
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! 
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तथा यदु की सन्तान यादवों   को  शासन (वश) में किया ।

______



 उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उत्तरार्ध  से यादव आंदोलन ने अपने घटकों  की  सामाजिक प्रतिष्ठा को सुधारने के लिए काम किया है।  गोप गवली घोसी कमरिया ग्वाला  भरवाड़  आदि जो वस्तुतः अहीर नामों से सम्बोधित थे ।
जैसे –घोसी अहीर , कमरिया अहीर, आदि ....
इनकी सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि को सुधारने में तथा भागवत धर्म के प्रतिउन्मुख करने में लोक संगीत के सशक्त हस्ताक्षर स्वामी आधार चैतन्य का अतीव योगदान हैं ।
इन्हीं की शिष्य परम्परा में भागवत पुराण का वाचन ,गायन का बीड़ा यादव नव युवकों 'ने उठाया उत्र भारती में स्वामी आधार चैतन्य के नक्से- क़दम पर  अनेक अहीर शास्त्रीयों का सैलाव उमड़ पडा ।
जिसमें बहुत से अच्छे लोक-गायक और कथा वाचक भी हुए ।
राजनैतिक रूप से श्री मुलायम सिंह , लालू प्रसाद शरद यादव आदि का योगदान सराहनीह है ।

 
यादव शब्द वर्तमान में  कई यदुवंशी उपजातियों को समाग्रहीत  करता है जो मूल रूप से अनेक नामों से जानी जाती है,
 हिन्दी क्षेत्र, पंजाब व गुजरात में- अहीर, महाराष्ट्र, गोवा में - गवली, आंध्र व कर्नाटक में- गोल्ला, तमिलनाडु में - कोनर, केरल में - मनियार जिनका सामान्य पारम्परिक कार्य चरवाहे के रूप में गोपालन था यही लोग कृषक बने  गोपालक व दुग्ध-विक्रय इनकी जीविका का साधन है ।

कृष्ण नाम में कृषक की अर्थ व्यञ्जना स्पष्टत है 
और बल भद्र का हल मूसल उनके कृषि यन्त्रों के रूप ही हैं ।
पश्चिमी भारत में जाट और गुर्जर संघों में समाहित अनेक जन-जातियों का वंशमूलक सम्बन्ध अहीरों अथवा गोपों से है ।

 
अहीर (वर्तमान में यादव) जाति की वंशावली एक सैद्धांतिक क्रम के आदर्शों पर आधारित है तथा उनके पूर्वज, गोप (गोपालक )योद्धा श्रीकृष्ण पर केंद्रित है, जो कि एक गोप यादव और दुष्टों के संहार क्षत्रिय थे। 

वर्तमान स्थिति यादव ज्यादातर उत्तरी भारत में रहते हैं और विशेष रूप से हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में रहते हैं।
और इससे अल्प संख्या में सभी प्रान्तों विद्यमान हैं ।

समय के साथ उनके पारम्परिक व्यवसाय गोपालन के लिए गो-चारण बदल गए और कई वर्षों से यादव मुख्य रूप से खेती में जुड़े हैं, ।

पूरी दुनियाँ  मार्शल आर्ट के प्रवर्तक इज़राएल और भारत के अहीर ही थे । बौद्ध श्रमणों 'ने यह विद्या अहीरों से सीखी और चीन, तिब्बत, जापान,और  कोरिया आदि देशों में ले गये ।


 
 उत्तर भारत में अधिकांश पहलवान यादव जाति के हैं।
 वह इसे दुग्ध व्यवसाय और डेयरी फार्मों में शामिल होने के कारण
तथा कृषि कार्य में महनत करने के कारण फौलादी शरीर के होते थे ।
 बताते हैं, जो इस प्रकार दूध और घी को एक अच्छे आहार के लिए आवश्यक माना जाता है।

 यद्यपि यादव विभिन्न क्षेत्रों में जनसंख्या में काफी अनुपात रखते हैं, जैसे कि 1931 में बिहार में 11% यादव थे। लेकिन चरवाहे गतिविधियों में उनकी रुचि परंपरागत रूप से भूमि के स्वामित्व से मेल नहीं खाती थी और परिणामस्वरूप वे "प्रमुख जाति" नहीं थे। उनकी पारंपरिक स्थिति को जाफरलोट ने "निम्न जाति के किसानों" के रूप में वर्णित किया है। 



यादवों का पारंपरिक दृष्टिकोण शांतिपूर्ण रहा है, जबकि गायों के साथ उनका विशेष संबंध एवं कृष्ण के बारे में उनकी मान्यताएं हिंदू धर्म में एक विशेष महत्व रखता है।

 उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक कुछ यादव सफल पशु व्यापारी बन गए थे और अन्य को मवेशियों की देखभाल के लिए सरकारी अनुबंध मिल गए थे। 

पाश्चात्य समाज शास्त्रीराजपूतों  जाफरलोट का मानना है कि गाय और कृष्ण के साथ उनके संबंधों के धार्मिक अर्थों को उन यादवों द्वारा प्रयोग किया गया।

 और यादवों के गिरते हुए स्वाभिमान को चेतना देते हुए हरियाणा के राव बहादुर बलबीर सिंह ने 1910 में "अहीर यादव क्षत्रिय महासभा" की स्थापना की, जिसमें कहा गया कि अहीर वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय थे, 
और अपनी वीरता प्रवृत्ति के कारण आज भी हैं ।


 यादव समुदाय के संस्कृतिकरण के लिए आंदोलन में विशेष महत्व आर्य समाज की भूमिका थी जिसके प्रतिनिधि 1890 के दशक के अंत से राव बहादुर के परिवार से जुड़े थे। 

 हालाँकि स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित इस आंदोलन ने एक जाति पदानुक्रम का समर्थन किया और साथ ही साथ इसके समर्थकों का मानना था कि जाति को वंश के बजाय योग्यता पर निर्धारित किया जाना चाहिए। 

इसलिए उन्होंने पारंपरिक विरासत में मिली जाति व्यवस्था को धता बताने के लिए यादवों को यज्ञोपवीत को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। 

'परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों 'ने बिहार में,अहीरों द्वारा धागा पहनने के कारण हिंसा के अवसर पैदा किए  जहाँ भूमिहार और राजपूत प्रमुख भूमिका में थे ।

वर्ण संकर जाति के रूप में पुराणों वर्णित राजपूत ब्राह्मणों के संरक्षक के रूप में तैनात रहते थे ।

यादवों के इसी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में अक्सर नया इतिहास बनाना शामिल रहा है। 

यादवों के लिए पहली बार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विट्ठल कृष्णजी खेडे़कर जो कि स्कूली टीचर थे 
इतिहास लिखा  था।
 खेडेकर के इतिहास ने यह दावा किया कि यादव, आभीर जनजाति के वंशज थे और आधुनिक यादव वही समुदाय थे, जिन्हें महाभारत और पुराणों में राजवंश कहा गया ।

 इसी के प्रेरणा रूप में अखिल भारतीय यादव महासभा की स्थापना 1924 में इलाहाबाद में की गई थी। 

इस कार्यक्रम में शराब ना पीने और शाकाहार के पक्ष में अभियान शामिल था। 
 साथ ही स्व-शिक्षा को बढ़ावा देना और गोद लेने को बढ़ावा देना भी शामिल था। 

यहाँ सभी को अपने क्षेत्रीय नाम, गोत्र आदि के नाम छोड़कर "यादव" नाम को अपनाने का अभियान चला था।

 इसने ब्रिटिश राज को यादवों को सेना में अधिकारी के रूप में भर्ती करने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश की और वित्तीय बोझ को कम करने और शादी की स्वीकार्य उम्र बढ़ाने जैसे सामुदायिक प्रथाओं को आधुनिक बनाने की मांग की। 

यद्यपि यह सुधारात्मक पहल आर्य्य समाज के संस्थापक महर्षि दयान्द के द्वारा हुई ।

यद्यपि आर्य्य समाज का प्रादुर्भाव हिन्दू धर्म की कींचड़ साफ करने के लिए हुआ 'परन्तु कालान्तरण में महर्षि दयान्द के मरने के बाद
वही ब्राह्मण वाद गाली हो गया आर्य्य समाज में भी ।

पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करने के लिए जो ग्रन्थ लिखे गये उन में परम्परा गत रूप में सलामत आख्यानकों में स्वार्थ के अनुरूप परिवर्तन किया गया ।

गोपों अथवा अहीरों के साथ भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान किए गये ।

कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया यह सब क्रमोत्तर रूप से हुआ 

परन्तु अस्तित्व हीन बातों को उद्धृत करना विद्वित्ता नहीं 

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 कृष्ण और वसुदेव को पद्म-पुराण , देवीभागवत पुराण तथा हरिवशं पुराण में गोप कहा गया है !


प्रस्तुत हैं अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा !

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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। 


 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 


अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।

वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। 

हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।

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गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२ 

हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०


< हरिवंशपुराणम्‎ | पर्व १ (हरिवंशपर्व)

हरिवंशपुराणम्

अध्यायः ४०


जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा

चत्वारिंशोऽध्यायः

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स्कन्दपुराणम्/खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)/प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्/अध्यायः ००९


गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ॥ 

स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः ॥ २६ ॥ 



तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।


देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण

                  "ब्रह्मोवाच"

नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।

भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।


•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 

भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।


यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।

यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।


•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।


तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।

स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।२०।।


•–तथा उन समस्त असुरों का  संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !

–२०


पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।

जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।


•– विष्णो पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 

जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।


अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।

प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।


•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ नीयत खराब हो गयी।।२२।


ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।

उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।


•–तब वरुण मेरे पास आये  और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।


कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।

अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।


•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।


मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।

चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५।


•–  मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं।

तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।


कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।

अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।


•– देव जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।


प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।

त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।


•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं

क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।


यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।

'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।


•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।


यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।

मम गाव:  प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।


•–इस कार्यका जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं ।

मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए  तभी में समुद्र के जाऊँगा ।।२९।


या आत्मदेवता गावो या: गाव: सत्त्वमव्ययम् ।

लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।।३०।


•–इन गोऔं के देवता साक्षात् पर ब्रह्म परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं 

आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।


त्रातव्या: प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।

गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।


•–पहले गोओं की रक्षा करव़नी चाहिए  फिर सुरक्षित हुईं गोएें ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं 

गोऔं औ ब्राह्मणों की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।

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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।

गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३२।।


•–विष्णु ! जल के स्वामी  वरुण के ऐसा कहने पर  गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।


येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।

स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३३।


•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से  वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।


या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ।

तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।३४।।


•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ; तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक में जाऐंगी ।।३४।


ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।


•–गोप के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ  रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।


वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरि गोवर्धनो नाम मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।


•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो

गोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेगा 

जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।


तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य  कर दायक:।
तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्च ते।३७।

जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।

अदिति और सुरभि नाम की उनकी दौनों पत्नीयाँ  होंगी ।३७।


देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।

सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।


•–बुद्धिमान वसुदेव की  देवकी देवकी और रोहिणी 

दो भार्याऐं होंगी ।

उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।


तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।
वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।


•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप  बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये ।

ठीक वाले जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बड़ कर विराट् हो गये थे ।३९।


छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनां मायया योगरूपया ।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।।४०।


•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।


जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।


•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।

आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।


देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।

•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।

साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।


गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत: ।
वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।


•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।


विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते ।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति ।।४४।


•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्व व्यापी परमेश्वर गोप बालक  के रूप में व्रज में निवास करेंगे ।


उस समय सब लोगो आपके हाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे ( बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे)।४४।


त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया: सततं तव।।४५।


•–कमल नयन !आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ  गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।


जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।


•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।

आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।


देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।


•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।

साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।


गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत: ।
वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।


•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।


विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं   गते ।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति।।४४।


•–महाबाहो! विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्व व्यापी परमेश्वर गोप बालक के रूप में व्रज में निवास करेंगे उस समय सब 'लोग' आपके बाल-रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे अर्थात्‌( बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे)।४४।


त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया सततं तव।।४५।


•– कमल नयन आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्तजन वहाँ गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे और सदी आपके साथ रहेंगे।४५।।


वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावत:।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति के त्वयि ।। ४६।


•–जब  आप वन गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे  ,तथा यमुना जी के जल में होते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।


जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।।
यस्त्वया तात इत्युक्त: स पुत्र इति वक्ष्यति।४७।।


•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा तात कहकर पुकारे जाने पर

आप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।


अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथा: 
कश्यपादृते।

का चधारयितुंशक्ता
 त्वां विष्णो अदितिं विना।।४८।


•–विष्णो ! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ?

देवी अदिति अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।


योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान् स्वान् स्वान् गच्छामो मधुसूदन।।४९।

•-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए ,

हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।


                   "वैश्म्पायन उवाच"

स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।५०।


•-वैशम्पायन बोले – जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।


तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो: सुदुर्गमा।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।


•– वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।


पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधी:।
आत्मानं योजयामास वसुदेव गृहे प्रभु : ।५२।

•– उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।


इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।


(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।



   गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण
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इसी सन्दर्भ में हरिवशं पुराण में एक आख्यानक  प्रासंगिक है ⬇👇


एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर  तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;


तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !

यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।


वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।

ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।


क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?


'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।


उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा 

तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।

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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।


•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।


उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !

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क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।


•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे एेसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 

यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 

इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।


लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।


•-मैं तीनों लोगों का पालक 

तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।

इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11


इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇

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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।

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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।

 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।


हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 

(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)

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अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।

और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।


हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में 

पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !

देखें उस सन्दर्भ को ⬇

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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।


अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक  श्री कृष्ण से कहता है 

अलं ( बस कर  ठहरो!)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26। 

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)

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गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।

 और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।

यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 

अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है 

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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 

निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥

इतिहास हमेशा से पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर लिख गये विशेषत: भारतीय समाज में  
कुछ महानुभावों का तर्क है कि इज़राएल के चरावाहे यहूदी अबीर आदि आर्य्य नहीं थे । 

जर्मन के एडोल्फ हिटलर 'ने स्वयं को आर्य्य मानकर यहूदियों का कत्ले आम किया ।
'परन्तु आर्य्य शब्द का अर्थ और इतिहास किस प्रकार बदला गया 
यह भी जानना अपेक्षित है ।👇
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मित्रों ब्राह्मणों का कृषि और गौपालन से क्या वास्ता ? मन्दिर तक है इन पुरोहितों का रास्ता !

मित्रों ब्राह्मणों का कृषि और गौपालन से क्या वास्ता ? मन्दिर तक है इन पुरोहितों का रास्ता !
___________.    
ब्राह्मण समाज केवल कर्म-काण्ड मूलक पृथाओं का सदीयों से संवाहक रहा है ।

 और धार्मिक क्रियाऐं करने वाला यौद्धिक गतिविधियों से परे ही रहता है ।

 वैसे ब्राह्मण शब्द सभी महान संस्कृतियों में विद्यमान है ।
 जिसका अर्थ होता है केवल और केवल " मन्त्र -पाठ करने वाला पुजारी " 
अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में  इस शब्द की व्युत्पत्ति इसी प्रकार हुई ।
यद्यपि पण्डित , ब्राह्मण और पुरोहित जैसे धार्मिक कर्मकाण्ड मूलक व्यक्तियों के विशेषण रह हैं ।
यूरोपीय संस्कृतियों में भी ये  शब्द क्रमश pedante, Bragman तथा prophete के रूप में हैं ।
_________
 pedant = 1-Middle French pedant, pedante, from French pédanterie. 

2- Italian pedante (“a teacher, schoolmaster, pedant”), 
of uncertain origin, 
___________
profete = person who speaks for God; 
one who foretells, inspired preacher," from Old French prophete, profete "prophet, soothsayer" Modern French prophète) and directly from Latin propheta, from . Greek prophetes (Doric prophatas) "an interpreter, spokesman," especially of the gods, "inspired preacher or teacher,"
___________

 Bremin= Origin and Etymology of (brahman) in European languages Middle English (Bragman ) inhabitant of India, and German in Bremen city , 

derived from Latin Bracmanus,) from Greek (Brachman,) it too derivetion from Sanskrit brāhmaṇa of the Brahman caste, from brahman ।
 Brahman First Known Use: 15th century
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वर्तमान भारतीय संस्कृति 'ने  अपने प्रव्रजन ( यात्रा) काल में अनेक संस्कृतियों जैसे- सुमेरियन ,बैबीलॉनियन असीरियन कैसाइटी ,एमोराइट , कैनानाइटी तथा मितन्नी (मितज्ञु) संस्कृतियों से अनेक देवों को स्वीकार किया ।

 यद्यपि आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन भाषाओं में तो है 'परन्तु इसका श्रोत इण्डो -सैमेटिक है देव अरि:  है ।जो सैमेटिक संस्कृतियों में एल , इलु ,अलि तथा इलाह रूपों हैं ।
पाश्चात्य इतिहास कारों'ने आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन रूप में  भारतीय और जर्मन रोमन जन-जातियों का वंशमूलक विशेषण बना दिया ।
'परन्तु जो ईरानी स्वयं असीरीयों के असुर महत्( अहुर - मज्दा ) ईश्वर के उपासक और देव संस्कृतियों के विद्रोही थे ।
आर्य्य और वीर शब्दों का प्रयोग उन्हीं के के लिए हुआ ईरान शब्द का आधार भी आर्यन शब्द है ।
'परन्तु भारतीय भाषाओं में भी आर्य्य शब्द देव संस्कृतियों के उपासकों 'ने श्रेष्ठ आचरण वाले लोगों के अर्थ में रूढ़ कर लिया ।

देव संस्कृति के उपासक आर्यों के पुरोहित तथा सर्वेसर्वा: ब्राह्मण समाज का आगमन स्वर्ग से हुआ।
अब ये स्वर्ग कहाँ था ।
इसके भौगोलिक साक्ष्यों का भी अन्वेषण किया गया ।

 परन्तु स्वर्ग तो स्वीडन का पुराना मिथकीय नाम है ।
 समग्र भारतीय पुराणों में तथा वैदिक ऋचाओं मे भी यही तथ्य प्रतिध्वनित होता है ।
 कि ब्राह्मण तो स्वर्ग से आये । 

सर्व-प्रथम हम यूरोपीय भाषा परिवार में तथा वहाँ की प्राचीनत्तम संस्कृतियों से भी यह तथ्य उद्घाटित करते हैं कि वास्तविक रूप में स्वर्ग कहाँ था ?

 और देवों अथवा सुरों के रूप में ब्राह्मणों का आगमन किस प्रकार हुआ ?

 व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से कुछ उद्धरण आँग्लभाषा में हैं ।
 जिनका सरलत्तम अनुवादित रूप भी प्रस्तुत है ।

 ( ब्राह्मण शब्द का मूल व उसकी व्युत्पत्ति-) पर एक विवेचना :- 

वास्तव में ब्राह्मण शब्द वर्ण का वाचक है ।

 भारतीय पुराणों में ब्राह्मण का प्रयोग मानवीय समाज में सर्वोपरि रूप से निर्धारित किया है ।

 क्योंकि इन -ग्रन्थों को लिखने वाले भी स्वयं वही थे । संस्कृत भाषा के ब्राह्मण शब्द सम्बद्ध है ।

 , ग्रीक ("ब्राचमन" ) तथा लैटिन ("ब्रैक्समेन" ) मध्य अंग्रेज़ी का ("बागमन ") भारतीय पुरोहितों का मूल विशेषण बामन जो ब्राह्मण शब्द का तत्सम है ।
ग्रीक ब्रेगमन ।

 इसका पहला यूरोपपीय ज्ञात प्रयोग: 15 वीं शताब्दी में है ।
 भारतीय संस्कृति में वर्णित ब्राह्मणों का तादात्म्य जर्मनीय शहर ब्रेमन में बसे हुए ब्रामरों से प्रस्तावित है ।

 पुरानी फारसी भाषा में जो अवेस्ता ए झन्द से सम्बद्ध है उसमे बिरहमन शब्द ब्राह्मण शब्द का ही तद्भव है ।
 सुमेरियन तथा अक्काडियन भाषा में बरम ( Baram ) ब्राह्मण का वाचक है ।

 वैसे अरब की संस्कृतियों में "वरामक " पुजारी का वाचक है ।
 अंग्रेज़ी भाषा में ब्रेन (Brain) मस्तिष्क का वाचक है ।
क्योंकि मस्तिष्क ज्ञान का केन्द्र होता है ।

 संस्कृत भाषा में तथा प्राचीन - भारोपीय भाषा में इसका रूप ब्रह्मण है।

 मस्तिष्क का रूप :---- क्योंकि कि भारतीय मिथकों में ब्राह्मण विराट पुरुष के मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करते हैं 
यह उपमा इन शब्दों के इन्हीं अर्थों से प्रेरित थी।
अपने प्रारम्भिक काल में सही आचरण वाले नियम और संयम में रहने वाले पुरोहित जब अर्थ लोलुप  काम -लिप्सा  में लिप्त रहने लगे ।
नाम के ब्राह्मण रह गये 

 क्योंकि इन्होंने ज्ञान पर अपना एकाधिकार कर लिया ।
 _____________________________________________
 -ब्रह्मण की व्युत्पत्ति एक उपमात्मक प्रतिष्ठा के तौर पर  ऋग्वेद के १०/९०/१२ " में हुई ।

 ब्राह्मणोऽंस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ।
 "उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोऽंजायत।।
 _________________________________________
 अर्थात् ब्राह्मण विराट-पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए, और बाहों से राजन्य ( क्षत्रिय) ,उरु ( जंघा) से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए ।
 ________________________________________________
 यद्यपि यह ऋचा पाणिनीय कालिक ई०पू० ५०० के समकक्ष है ।

 परन्तु यहाँ ब्राह्मण को विद्वान् होने से मस्तिष्क-(ब्रेन )कहना सार्थक था ।
क्योंकि सांसारिक भोगों से निरत और आध्यात्मिक साधना में रत ब्राह्मण जन कल्याण में दृढ़-व्रत थे ।

 देव संस्कृति के उपासक ब्राह्मणों ने आध्यात्मिक विद्या को कैल्ट संस्कृति के मूर्धन्य ड्रयूड( Druids) पुरोहितों से ग्रहण किया था।
ये ड्रयूडस् Druids दुनियाँ के पहले द्रव- विद–वेत्ता थे ।
इस बात को भी  कम इतिहास कार जानते हैं ।

 यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान ब्रेन (Brain) शब्द उच्च अर्थ में, "चेतना और मन का अवयव," है ।

 पुरानी अंग्रेजी मेंं (ब्रेजेगन) "मस्तिष्क", तथा प्रोटो-जर्मनिक (ब्रैग्नाम ) (मध्य जर्मन (ब्रीगेन ) आदि के स्रोत भी यहीं से हैं ,।
 भौतिक रूप से ब्रेन " (कोमल तथा भूरे रंग का पदार्थ, एक कशेरुकीय कपाल गुहा है "।
 पुरानी फ़्रिसियाई और डच भाषा में यह (ब्रीन),है ।
 यहाँ इसकी व्युत्पत्ति-अनिश्चितता से सम्बद्ध, है । 
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कदाचित भारोपीय-मूल * मेरगम् (संज्ञा)- "खोपड़ी, मस्तिष्क" तथा (ग्रीक ब्रेखमोस) "खोपड़ी के सामने वाला भाग, सिर के ऊपर") से भी इसका साम्य है । 

लेकिन भाषा वैज्ञानिक 'लिबर्मन" लिखते हैं "कि ब्रेन (मस्तिष्क) "पश्चिमी जर्मनी के बाहर कोई स्थापित संज्ञा नहीं है ।

 ..." तथा यह और ग्रीक शब्द से जुड़ा नहीं है।
 अधिक है तो शायद, वह लिखते हैं, कि इसके व्युत्पत्ति-सूत्र भारोपीय मूल के हैं ।
 जैसे( bhragno) "कुछ टूटा हुआ है से हैं । 
संस्कृत भाषा में भ्रग्नो का समानान्तरण देखें--- भ्रंश्
 भ्रञ्ज् :-- अध: पतने भ्रंशते । बभ्रंशे । भ्रंशित्वा । भ्रष्ट्वा । भ्रष्टः । भ्रष्टिः । भ्रश्यते इति भ्रशो रूपम् 486।

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 परन्तु अब प्रमाण मिला है कि यह शब्द संस्कृत भाषा में प्राप्त भारोपीय धातु :--- ब्रह् से सम्बद्ध है ।

 ब्रह् अथवा बृह् धातु का अर्थ :---- मन्त्रों का उच्चारण करना विशेषत: तीन अर्थों में रूढ़ है यह धातु :--- 

१- वृद्धौ २- प्रकाशे ३- भाषे च _______________________________________
 बृह् :--शब्दे वृद्धौ च - बृंहति बृंहितम बृहिर् इति दुर्गः
 अबृहत्, अबर्हीत् बृंहेर्नलोपाद् बृहोऽद्यतनः
यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार  ( 16 वीं सदी में प्राप्त उल्लेख "बौद्धिक शक्ति" का आलंकारिक अर्थ अथवा 14 सदी के अन्त से है; 

यूरोपीय भाषा परिवार में प्रचलित शब्द ब्रेगनॉ जिसका अर्थ हैे
 "एक चतुर व्यक्ति" इस अर्थ को पहली बार (1914 )में यूरोपीय विद्वानों द्वारा दर्ज किया गया है।

 वस्तुत यह ब्रह्माणों की चातुर्य वृत्तियों का प्रकाशन करता है- और किसी धार्मिक कर्मकाण्ड जनित क्रियाओं का सम्पादन मात्र करने वाला  पुजारी या  पुरोहित ।

आर्य्य अर्थात् यौद्धा अथवा वीर नहीं हो सकता क्योंकि 
आर्य्य शब्द  वीर शब्द का सम्प्रसारण  है ।
और वीर यौद्धिक गतिविधियों में संलग्न होता है ।

आर्य्य शब्द का श्रोत अरि है ।
 वैसे भी अरि शब्द वैदिक संहिताओं में अर्थ ईश्वर का यौद्धिक देव रूप है।

 असुरों अथवा असीरियन लोगों की भाषाओं में अरि: शब्द अलि अथवा इलु हो गया है । 

परन्तु इसका सर्व मान्य रूप अब एलॉह (elaoh) तथा एल (el) ही हो गया है । 

ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वीं ऋचा में अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णित है ।
 ________________________________________

 "यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि: 
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोऽज्यते रयि:|९ । __________________________________________
 अर्थात्-- जो अरि इस सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है , 
जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है , 
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।९।

 इसके अतिरिक्त  ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ ) ऋचा संख्या (१)
 में देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है 
___________________________________________
 " विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
 जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।। ऋग्वेद--१०/२८/१ __________________________________________
उत सोमं पपीयात् )। 
और फिर अपने घर को लौटते 

(स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )। प्रस्तुत सूक्त में अरि: शब्द देव वाचक है । 
देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी । 

सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता स्पष्ट है । 
जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध हैं। _____________________________________________ ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के १२६ वें सूक्त का पञ्चम छन्द (ऋचा) में अरि शब्द आर्यों के सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक है:- -------------------------------------------------------------------- पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन् युक्ताँ अष्टौ-अरि(अष्टवरि) धायसो गा: । 
सुबन्धवो ये विश्वा इव व्रा अनस्वन्त:श्रव ऐषन्त पज्रा: ।।५।। ---------------------------------------------------------------- ऋग्वेद---२/१२६/५ तारानाथ वाचस्पति ने वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में इसे ईश्वर वाची सन्दर्भित करते हुए वर्णित किया है-- 
अरिभिरीश्वरे: धार्य्यतेधा ---असुन् पृ० युट् च । ईश्वरधार्य्ये ।" अष्टौ अरि धायसो गा: " ऋग्वेद १/१२६/ ५/ अरिधायस: " अर्थात् अरिभिरीश्वरै: धार्य्यमाणा "भाष्य । ________________________________________

 अरि शब्द के लौकिक संस्कृत मे कालान्तरण में अनेक अर्थ रूढ़ हुए जैसे --- 
अरि :---
१---पहिए का अरा 

२---शत्रु 

३-- विटखदिर 

४-- छ: की संख्या 

५--ईश्वर । 

वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में अरि का वर्णन:- धामश्शब्दे ईश्वरे उ० विट्खरि अरिमेद:।" सितासितौ चन्द्रमसो न कश्चित बुध:शशी सौम्यसितौ रवीन्दु ।
 रवीन्दुभौमा रविस्त्वमित्रा" इति ज्योतिषोक्तेषु रव्यादीनां 
आदि हैं । ___________________________________________ हिब्रू से पूर्व इस भू-भाग में फॉनिशियन और कनानी संस्कृति थी , जिनके सबसे बड़े देवता का नाम हिब्रू में "एल - אל‎ "था जिसे अरबी में ("इल -إل‎ "या इलाह إله-" )भी कहा जाता था । 

और अक्कादियन लोग उसे "इलु - Ilu "कहते थे , इन सभी शब्दों का अर्थ "देवता -god " होता है ।

 इस "एल " देवता को मानव जाति ,और सृष्टि को पैदा करने वाला और "अशेरा -" देवी का पति माना जाता था । वस्तुत यह अशेरा ही वैदिक  सूक्तों की स्त्री देवी है ।
जिसे यूरोपीय मिथकों में  इष्ट्रो (Oestro) एस्ट्रो आदि रूपों है । ------------------------------------------------------------------- परन्तु कालान्तरण में आर्य्य शब्द नस्लीय विचार धारा का संवाहक भी बना तो इस नस्लीय विचारधारा के नाम पर किए गए अत्याचारों ने शिक्षाविदों को "आर्यन" शब्द से बचने के लिए प्रेरित किया है,।

किसी तथ्य के अर्थों को प्रकाशिका करने वाले शब्दों का भी अर्थ -पतन  तथ्यों की गिरती प्रतिष्ठा के अनुरूप ही हो जाता है ।
आर्य्य शब्द जिसे ज्यादातर मामलों में "भारत-ईरानी" संस्कृतियों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है।

 यह शब्द अब केवल "इण्डो-आर्य भाषा" के संदर्भ में दिखाई देता है। 
_____________________________________________ व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि कोण से आर्य शब्द हिब्रू बाइबिल में वर्णित एबर से भी सम्बद्ध है ।
 लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्राञ्च में आर्य शब्द (Arien) तथा( Aryen) इन  दौनों रूपों में है ।
 इधर पश्चिमी गोलार्ध के दक्षिणा वर्ती दक्षिणी अमेरिका की ओर पुर्तगाली तथा स्पेनिश भाषाओं में यह शब्द आरियो (Ario) के रूप में विद्यमान है।
वहाँ यह किसी जन-जाति का वाचक नहीं अपितु यौद्धा का वाचक है ।
 पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ (Ariano) भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen (ऐरियल-ऐनन) के रूप में है। 

रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में (Aryika) के रूप में है।
 कैटालन भाषा में (Ari )तथा (Arica) दौनों रूपों में है। स्वयं रूसी भाषा में आरिजक (Arijec) अथवा आर्यक के रूप में यह आर्य शब्द ही विद्यमान है। 

इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में भी यह आर्य शब्द क्रमशः (Ariacoi) तथा (Ari )तथा अरबी भाषा में हिब्रू प्रभाव से (म-अारि)  M-(ariyy ) तथा अरि दौनों रूपों में है । 

. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी (Oriyoyi )रूप में है …इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् (Arice) के रूप में है। 

वेलारूस की भाषा में (Aryeic) तथा (Aryika) दौनों रूप में; पूरबी एशिया की जापानी ,कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द . Aria–iin..के रूप में है । 

भारतीय भाषाओं में वैरी  और अरि जैसे  शत्रु का अर्थ देने वाले शब्दों का विकास भी  वीर और आर्य शब्दों से हुआ ।

आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं। 
वहाँ भी  एक विवेचना अपेक्षित ही है ।

परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति से हुआ । 
उनका वास्तविक चित्रण होमर ने ई०पू० 800 के समकक्ष इलियड और ऑडेसी महाकाव्यों में ही किया है ;

 ट्रॉय युद्ध के सन्दर्भों में- ग्राम संस्कृति के जनक देव संस्कृति के अनुयायी यूरेशियन लोग थे। 
तथा नगर संस्कृति के जनक द्रविड अथवा ड्रयूड (Druids) लोग ।
यह कहना भी पूर्ण रूप से संगत नहीं !

 उस के विषय में हम यहाँं कुछ तथ्य उद्धृत करते हैं । विदित हो कि यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोधों पर आधारित हैं।

 भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning ..

आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
 १–गमन करना Togo 
२– मारना to kill
 ३– हल (अरम्) चलाना plough…. 

 हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में  (Harwe) कृषि कार्य करना ..

प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर  और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे ।
वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं ।
इन्हीं से अन्य राजपूती जनजातियों का विकास भी हुआ।
 इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! 

पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तसन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।

 वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है ।

 जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है

 …….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । 

अर्थात् कृषि कार्य भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है ! 
देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य थे ।

 परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था। 
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इस देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने यह प्रेरणा ग्रहण की। 

…सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था। 

 देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे ।
 घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे । 
'परन्तु इज़राएल और फलिस्तीन के यहूदियों के अबीर कबीलों के समानान्तरण
ये भी कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे। 
  भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायीयों 'ने गो  का सम्मान करना सुमेरियन लोगों से सीखा 
सुमेरियन भाषाओं में गु (Gu) गाय को कहते हैं ।
यहूदियों के पूर्वज  जिन्हें कहीं ब्रह्मा कहीं एब्राहम भी कहा गया सुमेरियन नायक थे ।
 विष्णु  भी सुमेरियन बैबीलॉनियन देवता हैं ।
यहूदियों का तादात्म्य भारतीय पुराणों में वर्णित यदुवंशीयों से है ।
यहूदियों का वर्णन भी चरावाहों के रूप में मिलता है ।
इसमें अबीर मार्शल आर्ट के जानकार हैं ।
राम कृष्ण गोपाल भण्डारकर जिनका तादात्म्य भारतीय अहीरों से करते हैं ।

….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था . 
अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे । 

संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।

 …क्यों कि अब भी संस्कृत तथा यूरोप के शब्द लगभग 90% प्रतिशत साम्य - मूलक हैं । 

पुरानी आयरिश भाषा में आइर (आयर ) शब्द है जिसका अर्थ है :- अभिजात अथवा स्वतन्त्र और "महान" 

और पुरानी आयरिस. (Old Irish)में  (aire),का  meaning "freeman" and "noble" है ।
इसी एरियो- के साथ व्यक्तिगत नाम गॉलिश (प्राचीन फ्राँन्स की भाषा ) में तथा ईरानीयों के धर्म-ग्रन्थ 
 अवेस्ता में एेर्या (airya) है ।
जिसका अर्थ है आर्यन, ईरानी बड़े अर्थ में है ।
 ओल्ड इंडिक प्राचीन भारतीय भाषा में एरि-अर्थात्, वफादार, समर्पित व्यक्ति और रिश्तेदार से जुड़ा हुआ है।

 आयर आर्य्य का रूपान्तरण है । 
वस्तुत: गोपालन वृत्ति से समन्वित जन-जाति आभीर ही है जो  हिब्रू-बाइबिल के अबीर( बीर ) तथा आयरिश शब्द आयर से सम्बन्धित है । 

यूनानी देवता अरिस् एक युद्ध का ही देवता है ।
अरीज्( ares)  (/ esriːz /; 
प्राचीन यूनानी: ηςρÁ, [res [árɛːs]) युद्ध का ग्रीक देवता है।

 वह अरि: ज़ीउस और हेरा के पुत्र है जो बारह ओलंपिक में से ही एक हैं। 👇
सन्दर्भ सूची:-
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Ares (/ˈɛəriːz/; Ancient Greek: Ἄρης, Áres [árɛːs]) is the Greek god of war. 
He is one of the Twelve Olympians, the son of Zeus and Hera. Reference:- Hesiod, Theogony 921
 (Loeb Classical Library numbering); 
Iliad, 5.890–896. By contrast, Ares's Roman counterpart Mars was born from Juno alone, according to Ovid (Fasti 5.229–260).

 ग्रीक साहित्य में, वह अरिस् अक्सर अपनी बहन के विपरीत युद्ध के भौतिक या हिंसक और अदम्य पहलू का प्रतिनिधित्व करता है।

 बख़्तरबंद एथेना, जिसके कार्यों में बुद्धि की देवी के रूप में सैन्य रणनीति और सेनापतीत्व शामिल हैं।

 In Greek literature, he often represents the physical or violent and untamed aspect of war, in contrast to his sister, the armored Athena, whose functions as a goddess of intelligence include military strategy and generalship. 
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Reference :- Walter Burkert, Greek Religion (Blackwell, 1985, 2004 reprint, originally published 1977 in German), pp. 141; William Hansen, Classical Mythology: A Guide to the Mythical World of the Greeks and Romans (Oxford University Press, 2005), p. 113. 
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रोमन देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मार्स ( मार) के रूप में युद्ध के देवता की कल्पना की , प्राचीन रोमन धर्म और मिथक में, (लैटिन: Mārs,) युद्ध का देवता था ।
 और यह एक कृषि संरक्षक भी था, जो प्रारंभिक रोम की विशेषता थी। 

वह केवल बृहस्पति के लिए दूसरे स्थान पर था और वह रोमन सेना के धर्म में सैन्य देवताओं में सबसे प्रमुख था।
 उनके अधिकांश त्योहार मार्च, (लैटिन मार्टियस) नाम के मै
 
हीने में और अक्टूबर में आयोजित किए जाते थे, जो एक सैन्य अभियान के लिए मौसम की शुरुआत करते थे
 और खेती के लिए मौसम का अंत करते थे। 

अंग्रेजी में प्रचलित मार्च( March) - युद्ध अभियान के अर्थ में रूढ़ हो गया है ।
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 प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार'रोहि' अलीगढ़
सम्पर्क सूत्र 8077160219

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भारतीय पौराणिक सन्दर्भ सूची -- हरिवशं पुराण भागवत पुराण महाभारत पद्म-पुराण ऋग्वेद आदि ---


अर्थात्‌ – मेरे पास दस करोड़ गोपों (अहीरों) की सेना है जो सब के सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं; उन सब की नारायण संज्ञा है ;
 वे सभी युद्ध में भयंकर युद्ध करते हैं 18।
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 उद्योग पर्व महाभारत  7/18

कदाचित स्थान भेद से भूमिका का भेद तो सही है 'परन्तु किसी को स्थायीत्व देना तर्क संगत नहीं।
नारायणी सेना के यौद्धा गोप ही  यादव कन्या सुभद्रा का अपहरण करने वाले अर्जुन को पञ्चनद प्रदेश पंजाब में कृष्ण की अनुपस्थिति में परास्त करते हैं ।
इसी बात को भागवत पुराण के प्रथम स्कन्द के पन्द्रह वें अध्याय के बीसवें श्लोक में वर्णित किया गया।

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"सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन 
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। 

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । 
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोऽस्मि ।२०।
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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । 
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय 
पन्द्रहवाँ श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-
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महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है।
कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर 
रूप में ही वर्णन करता है ।

यद्यपि  न्याय संगत रूप में  यादव क्षत्रिय और अपने आध्यात्मिक 
उच्चताओं के शिखर पर पहुँचने के कारण ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठता प्राप्त कर रहे थे ।
नवीनत्तम आध्यात्मिक मार्ग भागवत धर्म यादवों का था 
हरिवशं पुराण में जिसका स्पष्टत: विवरण है ।

ऋग्वेद में यदु के विषय में लिखा है कि 
     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं 
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;।
दास वैदिक सन्दर्भों में दानी अथवा उदार का अर्थ देते -देते देव विरोधी हो गया ।
जैसे असु-र शब्द का अर्थ...

वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वंश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।👇
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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है देखें---
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अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! 
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तथा यदु की सन्तान यादवों   को  शासन (वश) में किया ।

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 उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के उत्तरार्ध  से यादव आंदोलन ने अपने घटकों  की  सामाजिक प्रतिष्ठा को सुधारने के लिए काम किया है।  गोप गवली घोसी कमरिया ग्वाला  भरवाड़  आदि जो वस्तुतः अहीर नामों से सम्बोधित थे ।
जैसे –घोसी अहीर , कमरिया अहीर, आदि ....
इनकी सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि को सुधारने में तथा भागवत धर्म के प्रतिउन्मुख करने में लोक संगीत के सशक्त हस्ताक्षर स्वामी आधार चैतन्य का अतीव योगदान हैं ।
इन्हीं की शिष्य परम्परा में भागवत पुराण का वाचन ,गायन का बीड़ा यादव नव युवकों 'ने उठाया उत्र भारती में स्वामी आधार चैतन्य के नक्से- क़दम पर  अनेक अहीर शास्त्रीयों का सैलाव उमड़ पडा ।
जिसमें बहुत से अच्छे लोक-गायक और कथा वाचक भी हुए ।
राजनैतिक रूप से श्री मुलायम सिंह , लालू प्रसाद शरद यादव आदि का योगदान सराहनीह है ।

 
यादव शब्द वर्तमान में  कई यदुवंशी उपजातियों को समाग्रहीत  करता है जो मूल रूप से अनेक नामों से जानी जाती है,
 हिन्दी क्षेत्र, पंजाब व गुजरात में- अहीर, महाराष्ट्र, गोवा में - गवली, आंध्र व कर्नाटक में- गोल्ला, तमिलनाडु में - कोनर, केरल में - मनियार जिनका सामान्य पारम्परिक कार्य चरवाहे के रूप में गोपालन था यही लोग कृषक बने  गोपालक व दुग्ध-विक्रय इनकी जीविका का साधन है ।

कृष्ण नाम में कृषक की अर्थ व्यञ्जना स्पष्टत है 
और बल भद्र का हल मूसल उनके कृषि यन्त्रों के रूप ही हैं ।
पश्चिमी भारत में जाट और गुर्जर संघों में समाहित अनेक जन-जातियों का वंशमूलक सम्बन्ध अहीरों अथवा गोपों से है ।

 
अहीर (वर्तमान में यादव) जाति की वंशावली एक सैद्धांतिक क्रम के आदर्शों पर आधारित है तथा उनके पूर्वज, गोप (गोपालक )योद्धा श्रीकृष्ण पर केंद्रित है, जो कि एक गोप यादव और दुष्टों के संहार क्षत्रिय थे। 

वर्तमान स्थिति यादव ज्यादातर उत्तरी भारत में रहते हैं और विशेष रूप से हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार में रहते हैं।
और इससे अल्प संख्या में सभी प्रान्तों विद्यमान हैं ।

समय के साथ उनके पारम्परिक व्यवसाय गोपालन के लिए गो-चारण बदल गए और कई वर्षों से यादव मुख्य रूप से खेती में जुड़े हैं, ।

पूरी दुनियाँ  मार्शल आर्ट के प्रवर्तक इज़राएल और भारत के अहीर ही थे । बौद्ध श्रमणों 'ने यह विद्या अहीरों से सीखी और चीन, तिब्बत, जापान,और  कोरिया आदि देशों में ले गये ।


 
 उत्तर भारत में अधिकांश पहलवान यादव जाति के हैं।
 वह इसे दुग्ध व्यवसाय और डेयरी फार्मों में शामिल होने के कारण
तथा कृषि कार्य में महनत करने के कारण फौलादी शरीर के होते थे ।
 बताते हैं, जो इस प्रकार दूध और घी को एक अच्छे आहार के लिए आवश्यक माना जाता है।

 यद्यपि यादव विभिन्न क्षेत्रों में जनसंख्या में काफी अनुपात रखते हैं, जैसे कि 1931 में बिहार में 11% यादव थे। लेकिन चरवाहे गतिविधियों में उनकी रुचि परंपरागत रूप से भूमि के स्वामित्व से मेल नहीं खाती थी और परिणामस्वरूप वे "प्रमुख जाति" नहीं थे। उनकी पारंपरिक स्थिति को जाफरलोट ने "निम्न जाति के किसानों" के रूप में वर्णित किया है। 



यादवों का पारंपरिक दृष्टिकोण शांतिपूर्ण रहा है, जबकि गायों के साथ उनका विशेष संबंध एवं कृष्ण के बारे में उनकी मान्यताएं हिंदू धर्म में एक विशेष महत्व रखता है।

 उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक कुछ यादव सफल पशु व्यापारी बन गए थे और अन्य को मवेशियों की देखभाल के लिए सरकारी अनुबंध मिल गए थे। 

पाश्चात्य समाज शास्त्रीराजपूतों  जाफरलोट का मानना है कि गाय और कृष्ण के साथ उनके संबंधों के धार्मिक अर्थों को उन यादवों द्वारा प्रयोग किया गया।

 और यादवों के गिरते हुए स्वाभिमान को चेतना देते हुए हरियाणा के राव बहादुर बलबीर सिंह ने 1910 में "अहीर यादव क्षत्रिय महासभा" की स्थापना की, जिसमें कहा गया कि अहीर वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय थे, 
और अपनी वीरता प्रवृत्ति के कारण आज भी हैं ।


 यादव समुदाय के संस्कृतिकरण के लिए आंदोलन में विशेष महत्व आर्य समाज की भूमिका थी जिसके प्रतिनिधि 1890 के दशक के अंत से राव बहादुर के परिवार से जुड़े थे। 

 हालाँकि स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित इस आंदोलन ने एक जाति पदानुक्रम का समर्थन किया और साथ ही साथ इसके समर्थकों का मानना था कि जाति को वंश के बजाय योग्यता पर निर्धारित किया जाना चाहिए। 

इसलिए उन्होंने पारंपरिक विरासत में मिली जाति व्यवस्था को धता बताने के लिए यादवों को यज्ञोपवीत को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया। 

'परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों 'ने बिहार में,अहीरों द्वारा धागा पहनने के कारण हिंसा के अवसर पैदा किए  जहाँ भूमिहार और राजपूत प्रमुख भूमिका में थे ।

वर्ण संकर जाति के रूप में पुराणों वर्णित राजपूत ब्राह्मणों के संरक्षक के रूप में तैनात रहते थे ।

यादवों के इसी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में अक्सर नया इतिहास बनाना शामिल रहा है। 

यादवों के लिए पहली बार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विट्ठल कृष्णजी खेडे़कर जो कि स्कूली टीचर थे 
इतिहास लिखा  था।
 खेडेकर के इतिहास ने यह दावा किया कि यादव, आभीर जनजाति के वंशज थे और आधुनिक यादव वही समुदाय थे, जिन्हें महाभारत और पुराणों में राजवंश कहा गया ।

 इसी के प्रेरणा रूप में अखिल भारतीय यादव महासभा की स्थापना 1924 में इलाहाबाद में की गई थी। 

इस कार्यक्रम में शराब ना पीने और शाकाहार के पक्ष में अभियान शामिल था। 
 साथ ही स्व-शिक्षा को बढ़ावा देना और गोद लेने को बढ़ावा देना भी शामिल था। 

यहाँ सभी को अपने क्षेत्रीय नाम, गोत्र आदि के नाम छोड़कर "यादव" नाम को अपनाने का अभियान चला था।

 इसने ब्रिटिश राज को यादवों को सेना में अधिकारी के रूप में भर्ती करने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश की और वित्तीय बोझ को कम करने और शादी की स्वीकार्य उम्र बढ़ाने जैसे सामुदायिक प्रथाओं को आधुनिक बनाने की मांग की। 

यद्यपि यह सुधारात्मक पहल आर्य्य समाज के संस्थापक महर्षि दयान्द के द्वारा हुई ।

यद्यपि आर्य्य समाज का प्रादुर्भाव हिन्दू धर्म की कींचड़ साफ करने के लिए हुआ 'परन्तु कालान्तरण में महर्षि दयान्द के मरने के बाद
वही ब्राह्मण वाद गाली हो गया आर्य्य समाज में भी ।

पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करने के लिए जो ग्रन्थ लिखे गये उन में परम्परा गत रूप में सलामत आख्यानकों में स्वार्थ के अनुरूप परिवर्तन किया गया ।

गोपों अथवा अहीरों के साथ भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान किए गये ।

कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया यह सब क्रमोत्तर रूप से हुआ 

परन्तु अस्तित्व हीन बातों को उद्धृत करना विद्वित्ता नहीं 

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 कृष्ण और वसुदेव को पद्म-पुराण , देवीभागवत पुराण तथा हरिवशं पुराण में गोप कहा गया है !


प्रस्तुत हैं अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा !

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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।

स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। 


 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 


अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।

वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। 

हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।

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गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १८२ 

हरिवंशपुराणम्/पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः ४०


< हरिवंशपुराणम्‎ | पर्व १ (हरिवंशपर्व)

हरिवंशपुराणम्

अध्यायः ४०


जनमेजयेन भगवतः वराह, नृसिंह, परशुराम, श्रीकृष्णादीनां अवताराणां रहस्यस्य पृच्छा

चत्वारिंशोऽध्यायः

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स्कन्दपुराणम्/खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)/प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्/अध्यायः ००९


गोपायनं यः कुरुते जगतः सार्वलौकिकम् ॥ 
स कथं भगवान्विष्णुः प्रभासक्षेत्रमाश्रितः ॥ २६ ॥ 



तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।


देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण

                  "ब्रह्मोवाच"

नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।


•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 

भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।


यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।


•–और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।


तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।२०।।


•–तथा उन समस्त असुरों का  संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !

–२०


पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।


•– विष्णो पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 

जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।


अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।


•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ नीयत खराब हो गयी।।२२।


ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।


•–तब वरुण मेरे पास आये  और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।


कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।


•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।


मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५।


•–  मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं।

तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।


कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।
अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।


•– देव जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।


प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।
त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।


•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं

क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।


यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।


•–लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।


यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।
मम गाव:  प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।


•–इस कार्यका जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं ।

मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए  तभी में समुद्र के जाऊँगा ।।२९।


या आत्मदेवता गावो या: गाव: सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।।३०।


•–इन गोऔं के देवता साक्षात् पर ब्रह्म परमात्मा हैं तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं 

आपसे प्रकट हुए जो जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में दो और ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण एक समान माने गये हैं ।३०।


त्रातव्या: प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मण परित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।


•–पहले गोओं की रक्षा करव़नी चाहिए  फिर सुरक्षित हुईं गोएें ब्राह्मणों की रक्षा करती हैं 

गोऔं औ ब्राह्मणों की रक्षा हो जाने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है ।३१।

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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३२।।


•–विष्णु ! जल के स्वामी  वरुण के ऐसा कहने पर  गोऔं के कारण तत्व को जानने वाले मैंने कश्यप को शाप देते हुए कहा ।३२।


येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।३३।


•–महर्षि कश्यप 'ने अपनेे जिस अंश से  वरुण की गोऔं का अपहरण किया है ;उस अंश से वे पृथ्वी पर जाकर गोप होंगे ।३३।


या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।३४।।


•–वे जो सुरभि नाम वाली देवी हैं ; तथा देव रूपी अग्नि के प्रकट करने वाली अरणी के समान जो अदिति देवी हैं वे दौनों पत्नियाँ कश्यप के साथ ही भू-लोक में जाऐंगी ।।३४।


ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्पस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम:।३५।


•–गोप के रूप में जन्मे कश्यप पृथ्वी पर अपनी उन दौनों पत्नियों के साथ  रहेंगे उस कश्यप का अंश जो कश्यप के समान ही तेजस्वी है।।३५।


वसुदेव: इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरि गोवर्धनो नाम मधुपुरायास्त्वदूरत:।।३६।।


•–वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो

गोऔं और गोपों के अधिपति रूप में निवास करेगा 

जहांँ मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्धन नाम का पर्वत है ।।३६।।


तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य  कर दायक:।
तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्च ते।३७।

जहांँ वे गायों की सेवा में लगे हुए और कंस को कर देने वाले होंगे ।

अदिति और सुरभि नाम की उनकी दौनों पत्नीयाँ  होंगी ।३७।


देवकी रोहिणी च इमे वसुदेवस्य धीमत: ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।३८।


•–बुद्धिमान वसुदेव की  देवकी देवकी और रोहिणी 

दो भार्याऐं होंगी ।

उनमें रोहिणी तो सुरभि होगी और देवकी अदिति होगी ।३८।


तत्र त्वं शिशुरेवादौ गोपालकृत लक्षण:।
वर्धयस्व महाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।३९।


•– महाबाहो आप ! वहाँ पहले शिशु रूप में रहकर गोप  बालक का चिन्ह धारण करके क्रमश: बड़े होइये ।

ठीक वाले जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन से बड़ कर विराट् हो गये थे ।३९।


छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मनां मायया योगरूपया ।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।।४०।


•–मधुसूदन योग माया के द्वारा स्वयं ही अपनेे स्वरूप को आच्छादित करके आप लोक हित के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।


जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।


•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।

आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।


देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।

•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।

साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।


गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत: ।
वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।


•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।


विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते ।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति ।।४४।


•–महाबाहो विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्व व्यापी परमेश्वर गोप बालक  के रूप में व्रज में निवास करेंगे ।


उस समय सब लोगो आपके हाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे ( बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे)।४४।


त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया: सततं तव।।४५।


•–कमल नयन !आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्त गणों वहाँ  गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे ।४५।


जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकस: ।
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले ।।४१।


•–ये देवता 'लोग' विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं ।

आप स्वयं को पृथ्वी पर उतारें ।४१।


देवकीं रोहिणींं चैव गर्भाभ्यां परितोषय ।
गोप कन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।।४२।


•–दो गर्भों के रूप में प्रकट हों माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिए ।

साथ ही यथासमय गोप कन्याओं आनन्द प्रदान करते हुए व्रज भूमि में विचरण कीजिए।


गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावत: ।
वनमाला परिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति के वपु :।।४३।।


•-विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप वन वन में दोड़ते फिरेंगे उस समय आपके वनमाला भूषित शरीर का 'लोग' दर्शन करेंगे। वे धन्य हो जाऐंगे ।।४३।


विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं   गते ।
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालकत्वं एष्यति।।४४।


•–महाबाहो! विकसित कमल दल के समान नेत्रों वाले आप सर्व व्यापी परमेश्वर गोप बालक के रूप में व्रज में निवास करेंगे उस समय सब 'लोग' आपके बाल-रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे अर्थात्‌( बाल लीला के रसास्वादन में लीन हो जाऐंगे)।४४।


त्वद्वक्ता: पुण्डरीकाक्ष तव चित्त वशानुगा:।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहाया सततं तव।।४५।


•– कमल नयन आपके चित्त के अनुकूल चलने वाले भक्तजन वहाँ गोऔं की सेवा करने के लिए गोप बनकर प्रकट होंगे और सदी आपके साथ रहेंगे।४५।।


वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावत:।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति के त्वयि ।। ४६।


•–जब  आप वन गायें चराते होंगे और व्रज में इधर-उधर दोड़ते होंगे  ,तथा यमुना जी के जल में होते लगाते होंगे ; उन सभी अवसरों पर भक्तजन आपका दर्शन करके आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।


जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।।
यस्त्वया तात इत्युक्त: स पुत्र इति वक्ष्यति।४७।।


•–वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा , जो आपके द्वारा तात कहकर पुकारे जाने पर

आप से पुत्र कहकर बोलेगें ।४७।


अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथा: 
कश्यपादृते।

का चधारयितुंशक्ता
 त्वां विष्णो अदितिं विना।।४८।


•–विष्णो ! अथवा आप कश्यप के सिवा किसके पुत्र होंगे ?

देवी अदिति अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ।४८।


योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै ।
वयमप्यालयान् स्वान् स्वान् गच्छामो मधुसूदन।।४९।

•-मधुसूदन आप अपनेे स्वाभाविक योगबल से असुरों पर विजय पाने के लिए यहांँ से प्रस्थान कीजिए ,

हम लोगो भी अपने अपने स्थान को जा रहे हैं।।४९।


                   "वैश्म्पायन उवाच"

स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।५०।


•-वैशम्पायन बोले – जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।


तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो: सुदुर्गमा।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।


•– वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।


पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधी:।
आत्मानं योजयामास वसुदेव गृहे प्रभु : ।५२।

•– उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।


इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।


(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।



   गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण
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इसी सन्दर्भ में हरिवशं पुराण में एक आख्यानक  प्रासंगिक है ⬇👇


एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर  तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;


तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !

यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।


वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।

ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।


क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?


'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।


उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा 

तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।

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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।


•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।


उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !

________

क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।


•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे एेसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 

यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 

इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।


लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।


•-मैं तीनों लोगों का पालक 

तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।

इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11


इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇

______

गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।

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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।

 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।


हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 

(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)

_______

अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।

और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।


हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में 

पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !

देखें उस सन्दर्भ को ⬇

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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।


अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक  श्री कृष्ण से कहता है 

अलं ( बस कर  ठहरो!)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26। 

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)

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गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।

 और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।

यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 

अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है 

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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 

निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥

इतिहास हमेशा से पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर लिख गये विशेषत: भारतीय समाज में  
कुछ महानुभावों का तर्क है कि इज़राएल के चरावाहे यहूदी अबीर आदि आर्य्य नहीं थे । 

जर्मन के एडोल्फ हिटलर 'ने स्वयं को आर्य्य मानकर यहूदियों का कत्ले आम किया ।
'परन्तु आर्य्य शब्द का अर्थ और इतिहास किस प्रकार बदला गया 
यह भी जानना अपेक्षित है ।👇
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मित्रों ब्राह्मणों का कृषि और गौपालन से क्या वास्ता ? मन्दिर तक है इन पुरोहितों का रास्ता !

मित्रों ब्राह्मणों का कृषि और गौपालन से क्या वास्ता ? मन्दिर तक है इन पुरोहितों का रास्ता !
___________.    
ब्राह्मण समाज केवल कर्म-काण्ड मूलक पृथाओं का सदीयों से संवाहक रहा है ।

 और धार्मिक क्रियाऐं करने वाला यौद्धिक गतिविधियों से परे ही रहता है ।

 वैसे ब्राह्मण शब्द सभी महान संस्कृतियों में विद्यमान है ।
 जिसका अर्थ होता है केवल और केवल " मन्त्र -पाठ करने वाला पुजारी " 
अपने जीवन के प्रारम्भिक काल में  इस शब्द की व्युत्पत्ति इसी प्रकार हुई ।
यद्यपि पण्डित , ब्राह्मण और पुरोहित जैसे धार्मिक कर्मकाण्ड मूलक व्यक्तियों के विशेषण रह हैं ।
यूरोपीय संस्कृतियों में भी ये  शब्द क्रमश pedante, Bragman तथा prophete के रूप में हैं ।
_________
 pedant = 1-Middle French pedant, pedante, from French pédanterie. 

2- Italian pedante (“a teacher, schoolmaster, pedant”), 
of uncertain origin, 
___________
profete = person who speaks for God; 
one who foretells, inspired preacher," from Old French prophete, profete "prophet, soothsayer" Modern French prophète) and directly from Latin propheta, from . Greek prophetes (Doric prophatas) "an interpreter, spokesman," especially of the gods, "inspired preacher or teacher,"
___________

 Bremin= Origin and Etymology of (brahman) in European languages Middle English (Bragman ) inhabitant of India, and German in Bremen city , 

derived from Latin Bracmanus,) from Greek (Brachman,) it too derivetion from Sanskrit brāhmaṇa of the Brahman caste, from brahman ।
 Brahman First Known Use: 15th century
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वर्तमान भारतीय संस्कृति 'ने  अपने प्रव्रजन ( यात्रा) काल में अनेक संस्कृतियों जैसे- सुमेरियन ,बैबीलॉनियन असीरियन कैसाइटी ,एमोराइट , कैनानाइटी तथा मितन्नी (मितज्ञु) संस्कृतियों से अनेक देवों को स्वीकार किया ।

 यद्यपि आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन भाषाओं में तो है 'परन्तु इसका श्रोत इण्डो -सैमेटिक है देव अरि:  है ।जो सैमेटिक संस्कृतियों में एल , इलु ,अलि तथा इलाह रूपों हैं ।
पाश्चात्य इतिहास कारों'ने आर्य्य शब्द इण्डो-यूरोपियन रूप में  भारतीय और जर्मन रोमन जन-जातियों का वंशमूलक विशेषण बना दिया ।
'परन्तु जो ईरानी स्वयं असीरीयों के असुर महत्( अहुर - मज्दा ) ईश्वर के उपासक और देव संस्कृतियों के विद्रोही थे ।
आर्य्य और वीर शब्दों का प्रयोग उन्हीं के के लिए हुआ ईरान शब्द का आधार भी आर्यन शब्द है ।
'परन्तु भारतीय भाषाओं में भी आर्य्य शब्द देव संस्कृतियों के उपासकों 'ने श्रेष्ठ आचरण वाले लोगों के अर्थ में रूढ़ कर लिया ।

देव संस्कृति के उपासक आर्यों के पुरोहित तथा सर्वेसर्वा: ब्राह्मण समाज का आगमन स्वर्ग से हुआ।
अब ये स्वर्ग कहाँ था ।
इसके भौगोलिक साक्ष्यों का भी अन्वेषण किया गया ।

 परन्तु स्वर्ग तो स्वीडन का पुराना मिथकीय नाम है ।
 समग्र भारतीय पुराणों में तथा वैदिक ऋचाओं मे भी यही तथ्य प्रतिध्वनित होता है ।
 कि ब्राह्मण तो स्वर्ग से आये । 

सर्व-प्रथम हम यूरोपीय भाषा परिवार में तथा वहाँ की प्राचीनत्तम संस्कृतियों से भी यह तथ्य उद्घाटित करते हैं कि वास्तविक रूप में स्वर्ग कहाँ था ?

 और देवों अथवा सुरों के रूप में ब्राह्मणों का आगमन किस प्रकार हुआ ?

 व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से कुछ उद्धरण आँग्लभाषा में हैं ।
 जिनका सरलत्तम अनुवादित रूप भी प्रस्तुत है ।

 ( ब्राह्मण शब्द का मूल व उसकी व्युत्पत्ति-) पर एक विवेचना :- 

वास्तव में ब्राह्मण शब्द वर्ण का वाचक है ।

 भारतीय पुराणों में ब्राह्मण का प्रयोग मानवीय समाज में सर्वोपरि रूप से निर्धारित किया है ।

 क्योंकि इन -ग्रन्थों को लिखने वाले भी स्वयं वही थे । संस्कृत भाषा के ब्राह्मण शब्द सम्बद्ध है ।

 , ग्रीक ("ब्राचमन" ) तथा लैटिन ("ब्रैक्समेन" ) मध्य अंग्रेज़ी का ("बागमन ") भारतीय पुरोहितों का मूल विशेषण बामन जो ब्राह्मण शब्द का तत्सम है ।
ग्रीक ब्रेगमन ।

 इसका पहला यूरोपपीय ज्ञात प्रयोग: 15 वीं शताब्दी में है ।
 भारतीय संस्कृति में वर्णित ब्राह्मणों का तादात्म्य जर्मनीय शहर ब्रेमन में बसे हुए ब्रामरों से प्रस्तावित है ।

 पुरानी फारसी भाषा में जो अवेस्ता ए झन्द से सम्बद्ध है उसमे बिरहमन शब्द ब्राह्मण शब्द का ही तद्भव है ।
 सुमेरियन तथा अक्काडियन भाषा में बरम ( Baram ) ब्राह्मण का वाचक है ।

 वैसे अरब की संस्कृतियों में "वरामक " पुजारी का वाचक है ।
 अंग्रेज़ी भाषा में ब्रेन (Brain) मस्तिष्क का वाचक है ।
क्योंकि मस्तिष्क ज्ञान का केन्द्र होता है ।

 संस्कृत भाषा में तथा प्राचीन - भारोपीय भाषा में इसका रूप ब्रह्मण है।

 मस्तिष्क का रूप :---- क्योंकि कि भारतीय मिथकों में ब्राह्मण विराट पुरुष के मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करते हैं 
यह उपमा इन शब्दों के इन्हीं अर्थों से प्रेरित थी।
अपने प्रारम्भिक काल में सही आचरण वाले नियम और संयम में रहने वाले पुरोहित जब अर्थ लोलुप  काम -लिप्सा  में लिप्त रहने लगे ।
नाम के ब्राह्मण रह गये 

 क्योंकि इन्होंने ज्ञान पर अपना एकाधिकार कर लिया ।
 _____________________________________________
 -ब्रह्मण की व्युत्पत्ति एक उपमात्मक प्रतिष्ठा के तौर पर  ऋग्वेद के १०/९०/१२ " में हुई ।

 ब्राह्मणोऽंस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: ।
 "उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोऽंजायत।।
 _________________________________________
 अर्थात् ब्राह्मण विराट-पुरुष के मुख से उत्पन्न हुए, और बाहों से राजन्य ( क्षत्रिय) ,उरु ( जंघा) से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए ।
 ________________________________________________
 यद्यपि यह ऋचा पाणिनीय कालिक ई०पू० ५०० के समकक्ष है ।

 परन्तु यहाँ ब्राह्मण को विद्वान् होने से मस्तिष्क-(ब्रेन )कहना सार्थक था ।
क्योंकि सांसारिक भोगों से निरत और आध्यात्मिक साधना में रत ब्राह्मण जन कल्याण में दृढ़-व्रत थे ।

 देव संस्कृति के उपासक ब्राह्मणों ने आध्यात्मिक विद्या को कैल्ट संस्कृति के मूर्धन्य ड्रयूड( Druids) पुरोहितों से ग्रहण किया था।
ये ड्रयूडस् Druids दुनियाँ के पहले द्रव- विद–वेत्ता थे ।
इस बात को भी  कम इतिहास कार जानते हैं ।

 यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान ब्रेन (Brain) शब्द उच्च अर्थ में, "चेतना और मन का अवयव," है ।

 पुरानी अंग्रेजी मेंं (ब्रेजेगन) "मस्तिष्क", तथा प्रोटो-जर्मनिक (ब्रैग्नाम ) (मध्य जर्मन (ब्रीगेन ) आदि के स्रोत भी यहीं से हैं ,।
 भौतिक रूप से ब्रेन " (कोमल तथा भूरे रंग का पदार्थ, एक कशेरुकीय कपाल गुहा है "।
 पुरानी फ़्रिसियाई और डच भाषा में यह (ब्रीन),है ।
 यहाँ इसकी व्युत्पत्ति-अनिश्चितता से सम्बद्ध, है । 
________
कदाचित भारोपीय-मूल * मेरगम् (संज्ञा)- "खोपड़ी, मस्तिष्क" तथा (ग्रीक ब्रेखमोस) "खोपड़ी के सामने वाला भाग, सिर के ऊपर") से भी इसका साम्य है । 

लेकिन भाषा वैज्ञानिक 'लिबर्मन" लिखते हैं "कि ब्रेन (मस्तिष्क) "पश्चिमी जर्मनी के बाहर कोई स्थापित संज्ञा नहीं है ।

 ..." तथा यह और ग्रीक शब्द से जुड़ा नहीं है।
 अधिक है तो शायद, वह लिखते हैं, कि इसके व्युत्पत्ति-सूत्र भारोपीय मूल के हैं ।
 जैसे( bhragno) "कुछ टूटा हुआ है से हैं । 
संस्कृत भाषा में भ्रग्नो का समानान्तरण देखें--- भ्रंश्
 भ्रञ्ज् :-- अध: पतने भ्रंशते । बभ्रंशे । भ्रंशित्वा । भ्रष्ट्वा । भ्रष्टः । भ्रष्टिः । भ्रश्यते इति भ्रशो रूपम् 486।

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 परन्तु अब प्रमाण मिला है कि यह शब्द संस्कृत भाषा में प्राप्त भारोपीय धातु :--- ब्रह् से सम्बद्ध है ।

 ब्रह् अथवा बृह् धातु का अर्थ :---- मन्त्रों का उच्चारण करना विशेषत: तीन अर्थों में रूढ़ है यह धातु :--- 

१- वृद्धौ २- प्रकाशे ३- भाषे च _______________________________________
 बृह् :--शब्दे वृद्धौ च - बृंहति बृंहितम बृहिर् इति दुर्गः
 अबृहत्, अबर्हीत् बृंहेर्नलोपाद् बृहोऽद्यतनः
यूरोपीय विद्वानों के मतानुसार  ( 16 वीं सदी में प्राप्त उल्लेख "बौद्धिक शक्ति" का आलंकारिक अर्थ अथवा 14 सदी के अन्त से है; 

यूरोपीय भाषा परिवार में प्रचलित शब्द ब्रेगनॉ जिसका अर्थ हैे
 "एक चतुर व्यक्ति" इस अर्थ को पहली बार (1914 )में यूरोपीय विद्वानों द्वारा दर्ज किया गया है।

 वस्तुत यह ब्रह्माणों की चातुर्य वृत्तियों का प्रकाशन करता है- और किसी धार्मिक कर्मकाण्ड जनित क्रियाओं का सम्पादन मात्र करने वाला  पुजारी या  पुरोहित ।

आर्य्य अर्थात् यौद्धा अथवा वीर नहीं हो सकता क्योंकि 
आर्य्य शब्द  वीर शब्द का सम्प्रसारण  है ।
और वीर यौद्धिक गतिविधियों में संलग्न होता है ।

आर्य्य शब्द का श्रोत अरि है ।
 वैसे भी अरि शब्द वैदिक संहिताओं में अर्थ ईश्वर का यौद्धिक देव रूप है।

 असुरों अथवा असीरियन लोगों की भाषाओं में अरि: शब्द अलि अथवा इलु हो गया है । 

परन्तु इसका सर्व मान्य रूप अब एलॉह (elaoh) तथा एल (el) ही हो गया है । 

ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वीं ऋचा में अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णित है ।
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 "यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि: 
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोऽज्यते रयि:|९ । __________________________________________
 अर्थात्-- जो अरि इस सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है , 
जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है , 
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।९।

 इसके अतिरिक्त  ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ ) ऋचा संख्या (१)
 में देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है 
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 " विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
 जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।। ऋग्वेद--१०/२८/१ __________________________________________
उत सोमं पपीयात् )। 
और फिर अपने घर को लौटते 

(स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )। प्रस्तुत सूक्त में अरि: शब्द देव वाचक है । 
देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी । 

सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन संस्कृतियों के पूर्वजों के रूप में ड्रयूड (Druids )अथवा द्रविड संस्कृति से सम्बद्धता स्पष्ट है । 
जिन्हें हिब्रू बाइबिल में द्रुज़ कैल्डीयन आदि भी कहा है ये असीरियन लोगों से ही सम्बद्ध हैं। _____________________________________________ ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के १२६ वें सूक्त का पञ्चम छन्द (ऋचा) में अरि शब्द आर्यों के सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक है:- -------------------------------------------------------------------- पूर्वामनु प्रयतिमा ददे वस्त्रीन् युक्ताँ अष्टौ-अरि(अष्टवरि) धायसो गा: । 
सुबन्धवो ये विश्वा इव व्रा अनस्वन्त:श्रव ऐषन्त पज्रा: ।।५।। ---------------------------------------------------------------- ऋग्वेद---२/१२६/५ तारानाथ वाचस्पति ने वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में इसे ईश्वर वाची सन्दर्भित करते हुए वर्णित किया है-- 
अरिभिरीश्वरे: धार्य्यतेधा ---असुन् पृ० युट् च । ईश्वरधार्य्ये ।" अष्टौ अरि धायसो गा: " ऋग्वेद १/१२६/ ५/ अरिधायस: " अर्थात् अरिभिरीश्वरै: धार्य्यमाणा "भाष्य । ________________________________________

 अरि शब्द के लौकिक संस्कृत मे कालान्तरण में अनेक अर्थ रूढ़ हुए जैसे --- 
अरि :---
१---पहिए का अरा 

२---शत्रु 

३-- विटखदिर 

४-- छ: की संख्या 

५--ईश्वर । 

वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में अरि का वर्णन:- धामश्शब्दे ईश्वरे उ० विट्खरि अरिमेद:।" सितासितौ चन्द्रमसो न कश्चित बुध:शशी सौम्यसितौ रवीन्दु ।
 रवीन्दुभौमा रविस्त्वमित्रा" इति ज्योतिषोक्तेषु रव्यादीनां 
आदि हैं । ___________________________________________ हिब्रू से पूर्व इस भू-भाग में फॉनिशियन और कनानी संस्कृति थी , जिनके सबसे बड़े देवता का नाम हिब्रू में "एल - אל‎ "था जिसे अरबी में ("इल -إل‎ "या इलाह إله-" )भी कहा जाता था । 

और अक्कादियन लोग उसे "इलु - Ilu "कहते थे , इन सभी शब्दों का अर्थ "देवता -god " होता है ।

 इस "एल " देवता को मानव जाति ,और सृष्टि को पैदा करने वाला और "अशेरा -" देवी का पति माना जाता था । वस्तुत यह अशेरा ही वैदिक  सूक्तों की स्त्री देवी है ।
जिसे यूरोपीय मिथकों में  इष्ट्रो (Oestro) एस्ट्रो आदि रूपों है । ------------------------------------------------------------------- परन्तु कालान्तरण में आर्य्य शब्द नस्लीय विचार धारा का संवाहक भी बना तो इस नस्लीय विचारधारा के नाम पर किए गए अत्याचारों ने शिक्षाविदों को "आर्यन" शब्द से बचने के लिए प्रेरित किया है,।

किसी तथ्य के अर्थों को प्रकाशिका करने वाले शब्दों का भी अर्थ -पतन  तथ्यों की गिरती प्रतिष्ठा के अनुरूप ही हो जाता है ।
आर्य्य शब्द जिसे ज्यादातर मामलों में "भारत-ईरानी" संस्कृतियों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है।

 यह शब्द अब केवल "इण्डो-आर्य भाषा" के संदर्भ में दिखाई देता है। 
_____________________________________________ व्युत्पत्ति मूलक दृष्टि कोण से आर्य शब्द हिब्रू बाइबिल में वर्णित एबर से भी सम्बद्ध है ।
 लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्राञ्च में आर्य शब्द (Arien) तथा( Aryen) इन  दौनों रूपों में है ।
 इधर पश्चिमी गोलार्ध के दक्षिणा वर्ती दक्षिणी अमेरिका की ओर पुर्तगाली तथा स्पेनिश भाषाओं में यह शब्द आरियो (Ario) के रूप में विद्यमान है।
वहाँ यह किसी जन-जाति का वाचक नहीं अपितु यौद्धा का वाचक है ।
 पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ (Ariano) भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen (ऐरियल-ऐनन) के रूप में है। 

रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में (Aryika) के रूप में है।
 कैटालन भाषा में (Ari )तथा (Arica) दौनों रूपों में है। स्वयं रूसी भाषा में आरिजक (Arijec) अथवा आर्यक के रूप में यह आर्य शब्द ही विद्यमान है। 

इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में भी यह आर्य शब्द क्रमशः (Ariacoi) तथा (Ari )तथा अरबी भाषा में हिब्रू प्रभाव से (म-अारि)  M-(ariyy ) तथा अरि दौनों रूपों में है । 

. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी (Oriyoyi )रूप में है …इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् (Arice) के रूप में है। 

वेलारूस की भाषा में (Aryeic) तथा (Aryika) दौनों रूप में; पूरबी एशिया की जापानी ,कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द . Aria–iin..के रूप में है । 

भारतीय भाषाओं में वैरी  और अरि जैसे  शत्रु का अर्थ देने वाले शब्दों का विकास भी  वीर और आर्य शब्दों से हुआ ।

आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं। 
वहाँ भी  एक विवेचना अपेक्षित ही है ।

परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति से हुआ । 
उनका वास्तविक चित्रण होमर ने ई०पू० 800 के समकक्ष इलियड और ऑडेसी महाकाव्यों में ही किया है ;

 ट्रॉय युद्ध के सन्दर्भों में- ग्राम संस्कृति के जनक देव संस्कृति के अनुयायी यूरेशियन लोग थे। 
तथा नगर संस्कृति के जनक द्रविड अथवा ड्रयूड (Druids) लोग ।
यह कहना भी पूर्ण रूप से संगत नहीं !

 उस के विषय में हम यहाँं कुछ तथ्य उद्धृत करते हैं । विदित हो कि यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोधों पर आधारित हैं।

 भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning ..

आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
 १–गमन करना Togo 
२– मारना to kill
 ३– हल (अरम्) चलाना plough…. 

 हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में  (Harwe) कृषि कार्य करना ..

प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर  और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे ।
वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं ।
इन्हीं से अन्य राजपूती जनजातियों का विकास भी हुआ।
 इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! 

पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तसन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।

 वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है ।

 जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है

 …….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । 

अर्थात् कृषि कार्य भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है ! 
देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य थे ।

 परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था। 
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इस देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने यह प्रेरणा ग्रहण की। 

…सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था। 

 देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे ।
 घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे । 
'परन्तु इज़राएल और फलिस्तीन के यहूदियों के अबीर कबीलों के समानान्तरण
ये भी कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे। 
  भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायीयों 'ने गो  का सम्मान करना सुमेरियन लोगों से सीखा 
सुमेरियन भाषाओं में गु (Gu) गाय को कहते हैं ।
यहूदियों के पूर्वज  जिन्हें कहीं ब्रह्मा कहीं एब्राहम भी कहा गया सुमेरियन नायक थे ।
 विष्णु  भी सुमेरियन बैबीलॉनियन देवता हैं ।
यहूदियों का तादात्म्य भारतीय पुराणों में वर्णित यदुवंशीयों से है ।
यहूदियों का वर्णन भी चरावाहों के रूप में मिलता है ।
इसमें अबीर मार्शल आर्ट के जानकार हैं ।
राम कृष्ण गोपाल भण्डारकर जिनका तादात्म्य भारतीय अहीरों से करते हैं ।

….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था . 
अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे । 

संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।

 …क्यों कि अब भी संस्कृत तथा यूरोप के शब्द लगभग 90% प्रतिशत साम्य - मूलक हैं । 

पुरानी आयरिश भाषा में आइर (आयर ) शब्द है जिसका अर्थ है :- अभिजात अथवा स्वतन्त्र और "महान" 

और पुरानी आयरिस. (Old Irish)में  (aire),का  meaning "freeman" and "noble" है ।
इसी एरियो- के साथ व्यक्तिगत नाम गॉलिश (प्राचीन फ्राँन्स की भाषा ) में तथा ईरानीयों के धर्म-ग्रन्थ 
 अवेस्ता में एेर्या (airya) है ।
जिसका अर्थ है आर्यन, ईरानी बड़े अर्थ में है ।
 ओल्ड इंडिक प्राचीन भारतीय भाषा में एरि-अर्थात्, वफादार, समर्पित व्यक्ति और रिश्तेदार से जुड़ा हुआ है।

 आयर आर्य्य का रूपान्तरण है । 
वस्तुत: गोपालन वृत्ति से समन्वित जन-जाति आभीर ही है जो  हिब्रू-बाइबिल के अबीर( बीर ) तथा आयरिश शब्द आयर से सम्बन्धित है । 

यूनानी देवता अरिस् एक युद्ध का ही देवता है ।
अरीज्( ares)  (/ esriːz /; 
प्राचीन यूनानी: ηςρÁ, [res [árɛːs]) युद्ध का ग्रीक देवता है।

 वह अरि: ज़ीउस और हेरा के पुत्र है जो बारह ओलंपिक में से ही एक हैं। 👇
सन्दर्भ सूची:-
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Ares (/ˈɛəriːz/; Ancient Greek: Ἄρης, Áres [árɛːs]) is the Greek god of war. 
He is one of the Twelve Olympians, the son of Zeus and Hera. Reference:- Hesiod, Theogony 921
 (Loeb Classical Library numbering); 
Iliad, 5.890–896. By contrast, Ares's Roman counterpart Mars was born from Juno alone, according to Ovid (Fasti 5.229–260).

 ग्रीक साहित्य में, वह अरिस् अक्सर अपनी बहन के विपरीत युद्ध के भौतिक या हिंसक और अदम्य पहलू का प्रतिनिधित्व करता है।

 बख़्तरबंद एथेना, जिसके कार्यों में बुद्धि की देवी के रूप में सैन्य रणनीति और सेनापतीत्व शामिल हैं।

 In Greek literature, he often represents the physical or violent and untamed aspect of war, in contrast to his sister, the armored Athena, whose functions as a goddess of intelligence include military strategy and generalship. 
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Reference :- Walter Burkert, Greek Religion (Blackwell, 1985, 2004 reprint, originally published 1977 in German), pp. 141; William Hansen, Classical Mythology: A Guide to the Mythical World of the Greeks and Romans (Oxford University Press, 2005), p. 113. 
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रोमन देव संस्कृति के अनुयायीयों ने मार्स ( मार) के रूप में युद्ध के देवता की कल्पना की , प्राचीन रोमन धर्म और मिथक में, (लैटिन: Mārs,) युद्ध का देवता था ।
 और यह एक कृषि संरक्षक भी था, जो प्रारंभिक रोम की विशेषता थी। 

वह केवल बृहस्पति के लिए दूसरे स्थान पर था और वह रोमन सेना के धर्म में सैन्य देवताओं में सबसे प्रमुख था।
 उनके अधिकांश त्योहार मार्च, (लैटिन मार्टियस) नाम के मै
 
हीने में और अक्टूबर में आयोजित किए जाते थे, जो एक सैन्य अभियान के लिए मौसम की शुरुआत करते थे
 और खेती के लिए मौसम का अंत करते थे। 

अंग्रेजी में प्रचलित मार्च( March) - युद्ध अभियान के अर्थ में रूढ़ हो गया है ।
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 प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार'रोहि' अलीगढ़
सम्पर्क सूत्र 8077160219

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भारतीय पौराणिक सन्दर्भ सूची -- हरिवशं पुराण भागवत पुराण महाभारत पद्म-पुराण ऋग्वेद आदि ---



एवमुक्तास्तदा ब्रह्मा किञ्चित्कोपसमन्वित:।
पत्नीं चान्यां मदर्थे वै शीघ्रं शक्र इहानय।।१२७।।

यथा प्रवर्तते यज्ञ: कालहीनो 'न जायते।तथा शीघ्रं विधत्स्वत्वं नारीं  काञ्चिदुपानय।।१२८।

यावद्यज्ञसमाप्तिर्मे वर्णेत्वंमाकृथामन:।
भूयो८पि तां प्रमोक्ष्यामि समाप्तौतुक्रतोरिह।।।।१२९।।
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यह सुन कर ब्रह्मा क्रोधित हो गये ।
उन्होंने इन्द्र को आदेश दिया – ---हे इन्द्र ! तुम मेरे लिए एक पत्नी लाओ ! जिससे यज्ञ प्रारम्भ हो तथा पुण्य मुहूर्त 'न बीत पाये ।
यह व्यवस्था शीघ्र करो कोई भा एक नारी लेकर आओ 
इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य आदि वर्ण का -विचार मत करना  जब तक यज्ञ सम्पन्न न हो !

तब तक के लिए एक स्त्री की आवश्यकता है यज्ञ सम्पन्न होने पर स्त्री त्याग दुँगा।१२७–से १२९ तक ।

एवमुक्तास्तदा शक्रोगत्वा सर्वंधरातलं । 
स्त्रियोदृष्टास्तु यास्तेन सर्वास्ता: सपरिग्रहा:
।१३०।।

आभीर कन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना।
न देवी नच गन्धर्वी नासुरी,न च पन्नगी।१३१।।

नचास्ति तादृशी कन्या यादृशी वराङ्गना।
 ददर्श तां  सुचार्वंगीं श्रियंदेवीमिवापराम्।१३२।।

संक्षिपन्तीं मनोवृत्तिविभवं रूपसम्पदा।यद्यत्तु वस्तुसौन्दर्या  द्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।।१३३।

तत्तच्छरीरसंलग्नतन्वंग्या ददृशे वरम् ।
तां दृष्ट्वा चिन्तयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३४
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यह आदेश पाकर इन्द्र 'ने तत्काल समस्त पृथ्वी का परिभ्रमण किया।
 इन्द्र 'ने पृथ्वी पर जितनी भी नारीयाँ देखीं वे सब पति युक्त थीं । 
इन्द्र को मनोनुकूल एक भी स्त्री 'न मिली कभी उन्होंने एक उत्तम नासिका वाली उत्तम नेत्रयुक्ता सुन्दरी आभीर कन्या को देखा ।

 देखा कि समस्त देवीयों गन्धर्वी नारीयाँ ,आसुरी पन्नगी आदि में एक भी नारी इस वरांगना जैसी सुन्दर नहीं ।

यह अन्य द्वित्तीय लक्ष्मी के समान इस उत्तम अंगों वाली कन्या के समान रूप सम्पन्न अन्य कन्या नहीं थी।
उन्होंने देखा मानो यह द्वित्तीय लक्ष्मी के समान 
यह कन्या अपनी रूप सम्पदा के द्वारा 
मनोवृत्ति को विक्षिप्त कर दे रही है।

यहाँ वहाँ जिन जिन वस्तुओं में जो सौन्दर्य है वह सब इस कृशांगी के अंगों में संलग्न है ।
यह देख कर इन्द्र -विचार करने लगे कि क्या यह कन्या स्थिति में तो है ? ।।१३०-से १३४।।
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अब इसी सोलह वें अध्याय में आभीर कन्या के लिए १५५ वें श्लोक में गोपकन्या शब्द आया है।👇

गोपकन्यात्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्।
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम् ।१५५।
दध्ना चैवात्र तक्रेण रसेनापि परंतप।अर्थी येनासि तद्ब्रहि प्रगृह्णीष्व यथेप्सितम्।१५६।।

कन्या करती है – ---हे वीर मैं गोप की कन्या हूँ और यहांँ दुग्ध विक्रम करने आयी हूँ ।
यह वि शुद्ध नवनीत ( मक्खन) है
यह देखो यह मण्डरहित दधि है ।
तुमको यदि मट्ठा ( तक्र ) किंवा दूध जो भी आवश्यक हो 
यथा यथेच्छा ग्रहण करो । १५५-- से १५६ ।। 
(पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अध्याय )
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पद्म-पुराण षोडशो८ध्याय। सृष्टिखण्ड


1 टिप्पणी:

  1. Kya bkwaas krte rhte ho.....!!!
    Bihari ho kya....???
    Bihari gwale hote hai aheer nhi smjhe aur Gop shabd Kisan aur pashupalan dono krne waalo ke liye use hua hai na ki bas go palan krne waalo ke lie smjhe ....bekar ki nautanki mt kia karo....
    Krishna kbhi Abheer nhi tha.
    Abheer or yadav dono ek kabile the na ki koi caste.
    Aaj bhi bihari apne aap ko gwal khte hai na ki aheer.
    Abheero ka origin kbhi bhi Bihar/up nhi tha smjhe.
    Abheer ek foreign tribe thi jo ki bharat me bahar se aayi thi....aur baad me alag alag jaatiyo me mil gyi.
    Abheer gop ho skta hai lekin duniya ke saare Gop Aheer nhi ho skte.
    Apni Bihari bkwaas band kro smjhe.

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