गुरुवार, 8 मार्च 2018

 शूद्र शब्द की भारोपीय भाषा परिवार में अवधारणात्मक रूप

  शूद्र शब्द की भारोपीय भाषा परिवार में अवधारणात्मक रूप
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.भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु  विश्व इतिहास का प्रथम अद्भुत् शोध-------
विश्व सांस्कृतिक अन्वेषणों के पश्चात् एक तथ्य पूर्णतः प्रमाणित हुआ है जिस वर्ण व्यवस्था को मनु का विधान कह कर भारतीय संस्कृति के प्राणों में प्रतिष्ठित किया गया था ।
उसकी प्राचीनता भी पूर्णतः संदिग्ध ही है .मिथ्या वादीयों ने वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय विधान घोषित भी किया तो इसके मूल में  केवल इसकी अल्प प्राचीनता ह वर्ण व्यवस्था कुछ प्राचीन तो है पर ईश्वरीय विधान कदापि नहीं है ।
..... मैं यादव योगेश कुमार रोहि  वर्ण व्यवस्था के विषय में केवल वही तथ्य उद्गृत करुँगा ! जो सर्वथा नवीन हैं।
वर्ण व्यवस्था के विषय में  आज जैसा आदर्श प्रस्तुत किया जाता है रूढ़ि वादी ब्राह्मण समुदाय के द्वारा वह यथार्थ की सीमाओं में नहीं है ।
...वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप स्वभाव , प्रवृत्ति और कर्म गत भले ही हो !  ......
कालान्तरण में वर्ण व्यवस्था की विकृति -पूर्ण परिणति जाति वाद के रूप में हुई। पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ केसै अनुयायी ब्राह्मणों द्वारा लिखित  मनु -स्मृति तथा आपस्तम्ब गृह्य शूत्रों ने भी प्रायः जाति गत  वर्ण व्यवस्था का ही अनुमोदन किया है ।
परन्तु आर्यों की सामाजिक प्रणाली में वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव कब हुआ ? और कहाँ से हुआ ?
इसी तथ्य को मेेेैंने अपने अनुसन्धान का विषय बनाया है
.मनस्वी पाठकों से मैं यही निवेदन करता हूँ हमारे इन तथ्यों की समीक्षा कर अवश्य प्रतिक्रियाऐं प्रेषित करें ...
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वर्ण व्यवस्था का वैचारिक उद्भव अपने बीज वपन काल  रूप में आज से सात हज़ार वर्ष पूर्व बाल्टिक सागर के तट- वर्ती स्थलों पर  जर्मन  के आर्यों तथा यहीं बाल्टिक सागर के दक्षिण -पश्चिम में बसे  हुए ..गोैलॉ .वेल्सों  .ब्रिटों (व्रात्यों ) के पुरोहित ड्रयडों (Druids )के सांस्कृतिक द्वेष के  रूप में हुआ था । यह जर्मनिक तथा कैल्टिक संस्कृतियों का परस्पर विरोधात्मक रूप था ।
यह मेरे प्रबल प्रमाणों के दायरे में है।
प्रारम्भ में केवल दो ही वर्ण थे ! देव और असुर
---जो कालान्तरण में आर्य और शूद्र रूप में रूढ़ हो गये ।..जिन्हें यूरोपीयन संस्कृतियों में क्रमशः Ehre एर  "The honrable people in Germen tribes ".......
जर्मन भाषा में आर्य शब्द के ही इतर रूप हैं ...Arier  तथाArisch आरिष यही एरिष Arisch शब्द जर्मन भाषा की उप शाखा डच और स्वीडिस् में भी विद्यमान है.
और दूसरा शब्द शाउटर Shouter.  है ।
शाउटर शब्द का परवर्ती उच्चारण साउटर Souter शब्द के रूप में भी है ।
शाउटर यूरोप की धरा पर स्कॉटलेण्ड के मूल निवासी थे ., इसी का इतर नाम आयरलेण्ड भी था .
.शाउटर लोग गॉल अथवा ड्रयूडों की ही एक शाखा थी जो परम्परागत रूप से चर्म के द्वारा वस्त्रों का निर्माण और व्यवसाय  उत्तरीय ध्रुव के लोगों के लिए करती थी
. The Shouter was a branch of Gaol or Druids, which traditionally used to manufacture garments from the With leather and for the people of North Pole.
...यूरोप की संस्कृति में वस्त्र  बहुत बड़ी अवश्यकता और बहु- मूल्य सम्पत्ति थे ...क्यों कि शीत का प्रभाव ही अत्यधिक था.... उधर उत्तरी-जर्मन के नार्वे आदि  संस्कृतियों में इन्हेैं सुटारी (Sutari ) के रूप में सम्बोधित किया जाता था यहाँ की संस्कृति में इनकी महानता सर्व विदित है 
यूरोप की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह शब्द ...सुटॉर.(Sutor ) के रूप में है |
....तथा पुरानी अंग्रेजी (एंग्लो-सेक्शन) में यही शब्द सुटेयर -Sutere -के रूप में है.. जर्मनों की प्राचीनत्तम शाखा गॉथिक भाषा में यही शब्द सूतर (Sooter )के रूप में है|
विदित हो कि गॉथ जर्मन आर्यों का एक प्राचीन राष्ट्र है जो विशेषतः बाल्टिक सागर के दक्षिणी किनारे परअवस्थित है ईसा कीतीसरी शताब्दी में  डेसिया राज्य में प्रस्थान किया डेसिया का समावेश इटली के अन्तर्गत हो गया   ! गॉथ राष्ट्र की सीमाऐं दक्षिणी फ्रान्स तथा स्पेन तक थी .. उत्तरी जर्मन में यही गॉथ लोग ज्यूटों के रूप में प्रतिष्ठित थे और भारतीय आर्यों में ये गौडों के रूप में परिलक्षित होते हैं...
...ये बातें आकस्मिक और काल्पनिक नहीं हैं क्यों कि यूरोप में जर्मन आर्यों की बहुत सी शाखाऐं प्राचीन भारतीय गोत्र-प्रवर्तक ऋषियों के आधार पर हैं
जैसे अंगिरस् ऋषि के आधार पर जर्मनों की ऐञ्जीलस् Angelus  या Angle.  
जिन्हें पुर्तगालीयों ने अंग्रेज कहा था ईसा की पाँचवीं सदी में ब्रिटेन के मूल वासीयों को परास्त कर ब्रिटेन का नाम- करण  आंग्ल -लेण्ड कर दिया था... जर्मन आर्यों में गोत्र -प्रवर्तक भृगु ऋषि के वंशज Borough...उपाधि अब भी लगाते हैं  और वशिष्ठ के वंशज बेस्त  कह लाते हैं समानताओं के और भी स्तर हैं ...परन्तु हमारा वर्ण्य विषय शूद्रों से सम्बद्ध है |
लैटिन भाषा में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन क्रिया स्वेयर -- Suere = to sew सीवन करना ,वस्त्र -वपन करना
विदित हो कि संस्कृत भाषा में भी शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति  शाउटर शब्द के समान है..
देखें :- (श्वि  + द्रा  + क ) अर्थात् श्वि धातु  संज्ञा करणे में  द्रा  + क प्रत्यय परे करने पर शूद्र शब्द बनता है ! कहीं कहीं भागुरि आचार्य के मतानुसार  कोश कारों ने  ....शुच् = शूचि कर्मणि धातु में संज्ञा भावे रक् प्रत्यय करने पर दीर्घ भाव में सिद्ध की है ..
.  ....और इस शब्द  का पर्याय  सेवक शब्द है .......जिसका भी मूल अर्थ होता है... वस्त्रों का सीवन sewing ..करने वाला ..विचार केवल संक्षेप में ही व्यक्त करुँगा ! भारतीय आर्यों ने अपने आगमन काल में भारतीय धरा पर द्रविडों की शाखा कोलों को ही शूद्रों की प्रथम संज्ञा प्रदान की थी ....जिन्हें दक्षिण भारत में चोल  .या चौर तथा चोड्र भी कहा गया था ..  कोरी- जुलाहों के रूप में आज तक ये लोग वस्त्रों का परम्परागत रूप से निर्माण करते चले आरहे हैं  |
ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ण व्यवस्था में वर्गीकृत किया था|    ......
फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में भी आर्यों के इन चार वर्णों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ----+जैसे देखें नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार १ ---- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण  जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है .. २-----नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा  तथा रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही वास्तर्योशान कहा गया है !!!!यही लोग द्रुज थे जिन्हे कालान्तरण में दर्जी भी कहा गया है    .....इसी सन्दर्भ में तथ्य भी विचारणीय है कि ईरानी आर्यों का सानिध्य  ईरान आने से पूर्व आर्यन -आवास अथवा (आर्याणाम् बीज). जो आजकल सॉवियत -रूस का सदस्य देश अज़र -बेजान है एक समय यहीं पर सभी आर्यों का समागम स्थल था.......जिनमें जर्मन आर्य ईरानी आर्य तथा भारतीय आर्य भी थे ****** उत्तरीय ध्रुव के पार्श्व -वर्ती स्वीडन जिसे प्राचीन नॉर्स भाषा में स्वरगे .Svirge कहा गया है  यूरोप में जिस प्रकार जर्मन आर्यों की सांस्कृतिक युद्ध पश्चिमी यूरोप में गोल Goal  ..केल्ट ,वेल्स ( सिमिरी )तथा ब्रिटॉनों से निरन्तर होता रहता था. जिनके पुरोहित ड्रयूड Druids -थे    शाउटर भी गॉलो की शाखा थी ..वास्तव में भारत में यही जन जातियाँ क्रमशः   .कोल ,किरात तथा भिल्लस् और भरत कह लायीं ये भरत जन जाति भारत के उत्तरी-पूर्व जंगलों में रहने वाली थी और ये वृत्र के अनुयायी व उपासक थे ...
भारत में भी इन जन -जातियों के पुरोहित भी द्रविड ही थे यह एक अद्भुत संयोग है !
यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट करदें कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक होता है छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं, •••
..तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है l अथवा हम कहें कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार हैंl
अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क रोहि किसी अस्त्र से कम नहीं हैं
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा ....सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ,गतिविधियाँ कभी भी  ऐक-भौमिक नहीं अपितु विश्व-व्यापी होती है ! क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है. इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक  तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है ""

विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें .

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