मंगलवार, 13 अगस्त 2024

-समत्व मध्य है।

"श्रीकृष्ण की दार्शनिकता- philosophy)  साम्यवाद( समत्व) 

                "अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।

"अनुवाद:-

अर्जुन बोले - हे केशव ! परमात्मा में स्थित- बुद्धि वाले मनुष्य के क्या लक्षण होते हैं ? वह स्थित बुद्धिवाला मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?

"श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।

अनुवाद:- 

श्रीभगवान् बोले - हे पृथानन्दन ! जिस काल में साधक अपने मन में सञ्चित सम्पूर्ण-कामनाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है। और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। 
 

( विशेष:- कामनाऐं ही बुद्वि को चलायमान करती हैं और कर्म के फल का कारण भी इच्छाऐं हैं। और कर्म का फल भोगने के लिए ही मनुष्य को पुन: जन्म कर्म गत संस्कारों के अनुसार प्राप्त होता है और कर्म का फल तो केवल भोगने पर ही समाप्त होता है यही इच्छाओं संसार में अच्छे - बुरे कर्म कराती हैं अत: कृष्ण नें आध्यात्मिक मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए बिना कर्म के फल की इच्छाओं के  लोक हित में कर्म  करने को कहा है।  जिसे हम कर्तव्य कह सकते हैं।। 

मूल श्लोकः

"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।
 

दुःखोंकी प्राप्ति होनेपर जिसके मनमें उद्वेग नहीं होता और सुखों की प्राप्ति होनेपर जिसके मन में वासना उत्पन्न नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह (मुनि)मननशील मनुष्य स्थिरबुद्धि कहा जाता है।2.56।

मूल श्लोकः

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.57।।

अनुवाद

सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।2•57।
 

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।6.16।।
 
 

हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवाले का और न बिलकुल न खानेवाले का तथा न अधिक सोनेवाले का और न बिलकुल न सोनेवाले का ही सिद्ध होता है।।6.16।।

अब योगीके आहार आदिके नियम कहे जाते हैं अधिक खानेवालेका अर्थात् अपनी शक्ति का उल्लङ्घन करके शक्तिसे अधिक भोजन करनेवालाका योग सिद्ध नहीं होता और बिल्कुल न खानेवालेका भी योग सिद्ध नहीं होता क्योंकि यह श्रुति है कि जो अपने शरीरकी शक्तिके अनुसार अन्न खाया जाता है वह रक्षा करता है वह कष्ट नहीं देता ( बिगाड़ नहीं करता ) जो उससे अधिक होता है वह कष्ट देता है और जो प्रमाणसे कम होता है वह रक्षा नहीं करता। इसलिये योगीको चाहिये कि अपने लिये जितना उपयुक्त हो उससे कम या ज्यादा अन्न न खाय। 


बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
 

अनुवाद

बुद्धि-(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्थामें ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। अतः तू योग-(समता-) में लग जा, क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 
 

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्।।
2.51।।

अनुवाद

समतायुक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फलका त्याग करके जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर निर्विकार पद को प्राप्त हो जाते हैं।।।2.51।। 

मूल श्लोकः

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।।2.59।।

 अनुवाद

निराहारी (इन्द्रियों को विषयों से हटानेवाले) मनुष्य के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस निवृत्त नहीं होता। परन्तु इस स्थितप्रज्ञ मनुष्यका तो रस भी परमात्मतत्त्वका अनुभव होनेसे निवृत्त हो जाता है।।।2.59।। 
 

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।

 अनुवाद

 हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।।।2.60।।


ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।

अनुवाद

विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति (लगाव) पैदा हो जाता है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना की पूर्ति न होने क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य का पतन हो जाता है।।।2.62 -- 2.63।। 


क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रञ्शाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
2.63।।

 अनुवाद

विषयों का चिन्तन करनेवाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।।।2.62 -- 2.63।।
 

"नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।
2.66।।

अनुवाद

जिसके मन-इन्द्रियाँ संयमित नहीं हैं, ऐसे मनुष्य की व्यवसायात्मिका( निर्णायिका) बुद्धि नहीं होती और निर्णायिका बुद्धि न होने से उसमें कर्तव्यपरायणता की भावना नहीं होती। ऐसी भावना न होनेसे उसको शान्ति नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित मनुष्यको सुख कैसे मिल सकता है ? ।।2.66।।

 

मूल श्लोकः

"इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।2.67।

 अनुवाद

अपने-अपने विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से एक ही इन्द्रिय जिस मन को अपना अनुगामी बना लेती है, वह अकेला मन जल में नौका को वायु की तरह इसकी बुद्धि को हर लेता है।।।2.67।।
 

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

                      अनुवाद

हे धनञ्जय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।2.48।।

                  "श्रीभगवानुवाच ।
 अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज ।
 साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः॥६३॥


 नाहं आत्मानमाशासे मद्‍भक्तैः साधुभिर्विना।
 श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिःअहं परा॥६४॥

(श्रीमद्भागवतम्-9.4.63-64)

अनुवाद

          "भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:-

"दुर्वासा जी ! मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने  मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उनको प्रिय हूँ।६३।

अनुवाद

ब्राह्मण! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ।इस लिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
2.38।।

                    अनुवाद

सुख-दु:ख,  लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ;  इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।।2.38 ।।


मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते।।14.25

अनुवाद

जो मान और अपमान में सम है; शत्रु और मित्र के पक्ष में भी सम है, ऐसा सर्वारम्भ परित्यागी पुरुष गुणातीत कहा जाता है।।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।।

                      अनुवाद
 हे धनञजय आसक्ति
को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो। यह समभाव ही योग कहलाता है।।


दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2.56।।

अनुवाद

दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है? जिसके मन से राग? भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं? वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है।।

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।12.17।।

                        अनुवाद

जो न हर्षित होता है और न द्वेष करता है; न शोक करता है और न आकांक्षा; तथा जो शुभ और अशुभ को त्याग देता है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।।


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