(गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य-पञ्चंवर्णम्")
(श्रीकृष्ण-स्तुति)
- "वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयम्। सर्व लोकै रभिनन्दनीयम्।। कर्मस्य फल इति ते नियम। कर्मेच्छा सङ्कल्पो वयम्।।१।।
- भक्त-भाव सुरञ्जनम् । राग-रङ्ग त्वं सञ्जनम्।। बोधि -शोध मनमञ्जनम्। नमस्कार खल-भञ्जनम्।२।
- मयूर पक्ष तव मस्तकम्। मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकम्।। ज्ञान रश्मि त्वं प्रभाकरम्। गुणातीत गुरु-गुणाकरम्।३।
- नमामि याम: त्वमष्टकम्- । हरि-शोक अति कष्टकम्।। भव-बन्ध मम मोचनम् । सर्व भक्तगण रोचनम्।४।
- कृष्ण श्याम त्वं मेघनम्, लभेमहि जीवन धनम्।। रोमैभ्यो गोपा: सर्जकम्। सकल सिद्धी: त्वमर्जकम्।५।
- कृपा- सिन्धु गुरु-धर्मकम्। नमामि प्रभु उरु-कर्मकम्।। इन्द्र-यजन त्वं निवारणम्। पशु-हिंसा तस्या कारणम्।६।
- स्नातकं प्रभु- सुगोरजम् । सदा विराजसे त्वं व्रजम्।। दधान ग्रीवायां मालकम्। नमामि-आभीर बालकम्।७।
- कृषि कर्मणेषु प्रवीणम् । ते आपीड केकी-पणम्।। कृषाणु शाण हल कर्पणम् । वन्दे कृष्ण-संकर्षणम्।८।
- गोप-गोपयो रधिनायकम्। वैष्णव धर्मस्य विधायकम्।। व्रज रज ते प्रभु भूषणम् । नमामि कोटिश: पूषणम्।९।
- निष्काम कर्मं निर्णायकम्। सुतान वेणु लय -गायकम्।। दीन बन्धो: त्वं सहायकम्। नमामि यादव विनायकम्।१०।
- किशोर वय- सुव्यञ्जितम्। राग-रङ्ग शोभित नितम्।। नमस्कार प्रभु त्वं सद्-व्रतम्।। "पेय ज्ञान गीतामृतम्।११।
- वन्यमाल कण्ठे धारिणम्। नमामि व्रज- विहारिणम्।। वैजयन्ती लालित्य हारिणं। लीला विलोल विस्तारिणं।१२।
"प्राक्कथन"
"प्रस्तावना-
पूर्णस्य पूर्णमादाय,
पूर्णमेवावशिष्यते।१।
- "असंख्यब्रह्मणा पाते कालेऽतीतेऽपि नारद ! यद्गुणानां नास्ति नाशस्तत्समानो गुणेन च।२७।
- "कृष्ण: परं ज्ञानं कृष्ण: परं तप: स: साधनया प्रतीयते।भक्तानां वाणीभिरुच्चारित सो भासयति गीते पुनीते।।२।
- "यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।(श्रीमद्भगवद्गीता -३/२१)
- भूरी भाराणि घनानि गृहीत्वा कथाणां वाचकाश्च। हरेर्नामविक्रयिनो घोरा नरकेषु पतन्ति।१९१।
- कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु ।१९२।
- कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका।१९३।
- ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा । कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः ।१९४।
- सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ । ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः ।१९५।
- "ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि । मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो भवेद् ध्रुवम्।१९६।
- मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः ।१९७।
- ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु। महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८। ____________________
इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।८५।
अनुवाद:- अधिक धन लेकर कथा कहने वाले कथावचक तथा ईश्वर के नाम पर दुकानें चलाकर ईश्वर का नाम बेचने वाले घोर नरकों में गिरते हैं।
विद्वानों के कवित्व पर प्रहार करने वाला सात जन्मों तक मेंढक होता है। जो झूठे ही अपने को विद्वान कहकर गाँव की पुरोहितायी और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला, एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट( कृकलास) होता है।
फिर एक जन्म में बर्रै( ततैया) होने के बाद वृक्ष की चीटीं होता है। तत्पश्चात क्रमशः शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होता है।
चारों वर्णों में कन्या बेचने वाला मानव तामिस्र नरक में जाता है
और वहाँ तब तक निवास करता है, जब तक सूर्य-चंद्रमा की स्थिति रहती है। इसके बाद वह मांस बेचने वाला व्याध होता है।
तत्पश्चात पूर्वजन्म में जो जैसा कर्म करने वाला होता है, उसी के अनुसार उसे व्याधि आ घेरती है।
ईश्वर के नाम को बेचने वाले ब्राह्मण की मुक्ति नहीं होती- यह अटल सत्य है।
मृत्युलोक में जिसके स्मरण में मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गौ की योनि में उत्पन्न होता है। इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है।
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"ग्रन्थ-पूर्वसारांश"
कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः। ३४.२५६।
यादवों के एक सौ एक वैष्णव कुल हैं। उन सभी में स्वराट् विष्णु (श्रीकृष्ण) विद्यमान हैं।२५५।
देवासुरे हता ये तु दैतेयास्मुमहाबलाः। उत्पन्नास्ते मनुष्येषु जनोपद्रवकारिणः॥४७।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः।निदेश्षस्थायिनस्तस्य ववृधुस्सर्वयादवाः॥४९।
अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
इसे हम पारिभाषिक रूप में स्पष्ट करते हैं।
वर्ण-
वर्णः, पुं, (व्रियते इति । वृ + “कॄवृजॄषिद्रुगुपन्य- निस्वपिभ्यो नित् ।” उणा० ३ । १० । इति नः । स च नित् ।) जातिः वर्ण के अन्तर्गत जन्म से प्राप्त प्रवृत्तियों के अनुसार व्यवसाय के वरण (चुनाव से है। ।
वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण होते हैं, जबकि जातियों की संख्या हज़ारों में है।
वर्ण का आधार व्यक्ति के कर्म और गुण और स्वभाव होते हैं, जबकि जाति का आधार व्यक्ति का जन्म या वंश होता है.
वर्ण व्यवस्था के तहत, व्यवसाय का चुनाव भी किया जाता था.
जाति व्यवस्था के तहत ,वंश परम्परागत व्यवसाय को ही अनिवार्य रूप में करना पड़ता है। लोगों को उनके जन्म के आधार पर समूहों में बांटा जाता था.
( जाति-)
*** व्यक्ति समूहों की प्रवृति मूलक पहचान है। जैसे मनुष्य समूहों के समाज में अलग अलग देखी जाती -जैसे वणिक( समाज) उनकी वृत्ति ( व्यवसाय) होता है खरीद-फरोख्त करना और उसी अनुसार उनकी (स्वभाव गत गहराई) लोलुपता और मितव्यता यही उनकी जातिगत पहचान है।इसी तरह से जैसे अहीर जाति की वृत्ति कृषि और पशु पालन यह वृत्ति उन्ही लोगों में हो सकती है जो निडर ( निर्भीक) और साहसी हो । इनकी वृत्ति के अनुसार ही इनकी निर्भीक प्रवृति का विकास जन्म से हुआ यह निडर प्रवृत्ति ही इनकी जाति सूचक पहचान है। इसी लिए इनको आभीर कहा जाता है।
सबसे पहले जाति की बात करते हैं ।
जो एक समुद्र के समान है। जातियों का निर्माण मनुष्यों की प्रवृतियों से निर्धारित हुआ। और प्रवृतियाँ विकसित होती हैं मनुष्यों की वृत्तियो ( व्यवसायों) से ।
वृतियाँ समान परिवेश में विकसित होकर जातीय प्रवृति का निर्माण करती हैं। जैसे सभी सरकारी प्राइमरी मास्टर बड़े मित व्यययी( कंजूस) होते हैं। सभी वकील लगभग समान वृतियों( व्यवसायी) वाले समान परिवेश (माहौल) कोर्ट कचहरी दिवानी आदि में पहल करने वाले होते हैं। लगभग सभी सिपाही पुलिस वाले भी अपने परिवेश से प्रेरित होते ही हैं। सीमा पर सैनिक तैनात होते हैं उनकी समान प्रवृति होती है।
प्रवृत्ति स्वभाव की गहराई का दूसरा नाम है
जो जन्म से ही सुनिश्चित होती है।
स्वभाव और प्रवृत्ति में वही अन्तर है जो अनुभव और अनुभूति में है।
यही प्रवृत्ति जब व्यक्तियों में जन्म से होती है तब वही उनकी जाति को सूचित करती है।
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( वंश-)
व्यक्ति के आनुवांशिक (patrimonial ) रक्त प्रवाह से समन्वित जैविक श्रृंखला ही वंश है। यह पीढियों की सीढियों में प्रवाहित होता।आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) का प्रयोग करके प्रायः जीवों का डी० एन० ए० परखा जाता है और इस आधार पर उन जीवों को एक जाति का घोषित किया जाता है जिनकी डी•एन•ए छाप एक दूसरे से मिलती हो और दूसरे जीवों से अलग हो।
एक जाति में अनेक वंश होते हैं ।
इसलिए जाति रूपी समुद्र में वंश रूपी अनेक वँश रूपी नदियाँ निकलती हैं।
एक जाति में अनेक वंश होते है।
वंश भी रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखला है। जिसमें अपने पूर्वजों का स्वभाव आनुवंशिक रूप से नदी रूप में प्रवाहित होता है।
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( कुल-)
तथा इन वंश रूपी नदियों से गोत्र रूपी धाराऐ निकलती हैं। और वंश में अनेक कुल रूपी कुल्याऐं( नालीयाँ ) निकलकर परिवारों का समूह का निर्माण करती है।एक जाति में अनेक वंश होते हैं । और एक वंश में भी अनेक कुल होते हैं। जैसे महाभारत काल में यदुवंश में एक सौ कुल थे।
"कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।३४.२५५।
अनुवाद:-यादवों( यदुवंश)के एक सौ एक कुल हैं। और वे सब कुल विष्णु के कुल ( वैष्णव कुल ) स्वराट् विष्णु सबमें विद्यमान हैं।
२५५।
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।। ३४.२५६ ।।
अनुवाद:- विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध(बन्धे हुए) हैं।२५६।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३४ ।।
अमर कोश मे गोत्र वर्ण का भी वाचक है।
अत:१- वर्ण - २-जाति- -३- वंश -४-गोत्र ५-कुल - ६-परिवार और अन्तिम इकाई ५-व्यक्ति ही होता है।
ये सभी उत्तरोत्तर परस्पर जुड़ी हुई रक्त सम्बन्धित जैविक श्रृंखलाऐं हैं। ।
इस लिए यादवों का वर्ण और गोत्र दोनो ही वैष्णव है।
आभीर जाति में यदुवंश का उदय हुआ यह सम्पूर्ण जाति स्वराट् विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न है। अत: इसका वर्ण और पूर्वज गोत्र( जनन गोत्र) भी वैष्णव ही है।
यादव वंश में एक सौ एक कुल महाभारत काल में थे ।
ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में गोत्र मूलत: चार ही थे।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय- (२९६) के श्लोक- (१७) से होती है। जिसमें - राजा जनक पराशर ऋषि का प्रश्नोत्तर रूप में संवाद है।-
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
महाभारत शान्ति पर्व का निम्न श्लोक इस बात का संकेत करता है।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
अनुवाद:
अन्य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
"जनक उवाच।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
यदेतज्जायतेऽपत्यं स एवायमिति श्रुतिः ।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
अनुवाद:-
आप इस विषय को बतायें । श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती हैं, तद्रूप ही समझी जाती है अर्थात संतति के रूप में जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है।
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी ?
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
उत्तम क्षेत्र( खेत) और उत्तम बीज से जो जन्म होता है, वह पवित्र (उत्तम) ही होता है।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
वक्त्राद्भुजाभ्यामूरुभ्यां पद्भ्यां चैवाथ जज्ञिरे।
सृजतः प्रजापतेर्लोकानिति धर्मविदो विदुः॥५॥
धर्मज्ञ पुरूष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरू और पैर -इन अंगों से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ था ।५।
मुखजा ब्राह्मणास्तात बाहुजाः क्षत्रबन्धवः।
ऊरुजा धनिनो राजन्पादजाः परिचारकाः॥६॥
अनुवाद:-
तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
*****
"जनक ने पूछा-
ॠषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात जो शुद्ध योनि में और दूसरे जो विपरीत योनि में उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्व को कैसे प्राप्त हुए ? ।११।
पराशर जी ने कहा -
राजन ! तपस्या से जिनके अन्त:करण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरूषों के द्वारा जिस संतान की उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छा से जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्र की दृष्टि (जातीय शरीर) से निकृष्ट होने पर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।१२।
नरेश्वर ! मुनियों ने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबल से ॠषि बना दिया।१३।
उपरोक्त संवादों से सिद्ध होता है कि - प्रारम्भिक काल में गोत्रों का निर्धारण व्यक्ति के तपोबल एवं उसके कर्मों के आधार पर निश्चित हुआ करता था। अर्थात् निम्न योनि का व्यक्ति भी अपने तपोबल एवं कर्मों के आधार पर उच्च योनि को प्राप्त कर सकता था।
उसी तरह से उच्च योनि का व्यक्ति निम्न कर्म करने पर निम्न योनि को प्राप्त होता था। किंतु इस सिद्धांत का प्रचलन धीरे-धीरे कम होता गया और अन्ततोगत्वा ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में गोत्र एवं कुल का निर्धारण कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। जिसके परिणाम स्वरूप सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता का उदय हुआ। क्योंकि पूर्व काल में जिन चार ऋषियों अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु से जो चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे उनके अतिरिक्त ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अपनी आवश्यकतानुसार अन्य ऋषियों को भी गोत्रकारिणों में शामिल किया जो किसी न किसी
रूप में आगे-पीछे ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए थे। उन सभी को सम्मिलित कर पुरोहितों नें गोत्र निर्धारण का एक नया सिद्धान्त बनाया जो मुख्यतः तीन सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र ( पूर्वज गोत्र)कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि काक संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
(गुरु गोत्र)
इस सम्बन्ध में बतादें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि- अधिकांश पौराणिक ग्रन्थों में यादवों के मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" को न बताकर उनके वैकल्पिक गोत्र- अत्रि गोत्र को बताया गया और इसका प्रचार-प्रसार भी पुरोहितों द्वारा खूब किया गया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी आदि विचारकों का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण भी यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
विदित हो कि वर्ण और गोत्र दोनों ही शब्द मनुष्य की उत्पत्ति मूलक सम्बन्धों को सूचित करते हैं।
ईसापूर्व पञ्चम सदी के संस्कृत कोश अमर कोश में गोत्र शब्द एक एक पर्याय वर्ण भी है।
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद , योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराने का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को सम्पन्न कराना था।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
तो आज इसी तरह के समस्त संशयों का समाधान इस वीडियो में किया गया है कि कैसे यादवों का गोत्र और वर्ण दोनों ही वैष्णव है। किन्तु इसके पहले मेरे उस वीडियो को आपको देखना होगा जिसमें बताया गया है कि यादवों का मुख्य गोत्र- वैष्णव गोत्र है। नहीं तो आपका संशय यो ही बना रहेगा। दूसरी बात यह कि यादवों के गोत्र, जाति और वर्ण को जानने से पहले ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र, वर्ण, और जाति व्यवस्था को जानना होगा। क्योंकि यादव ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के भाग नहीं हैं। यह बात भी इस वीडियो में स्वतः सिद्ध हो जायेगा। जिसमें सबसे पहले आप लोगों ब्रह्मी वर्ण व्यवस्था के गोत्र,चातुर्वर्ण्य तथा जाति व्यवस्था को जानते हुए उसी क्रम में यादवों के वैष्णव वर्ण की उन समस्त विशेषताओं को भी जान पाएंगे जिनकी जानकारी न होने से यादव समाज आज तक भ्रम की स्थिति में जी रहा है।
तो चलिए श्रीकृष्ण का नाम लेकर बिना देर किए इन सभी महत्वपूर्ण जानकारियों को प्रारंभ करते हैं।
तो इस सम्बन्ध में बता दें कि किसी भी व्यक्ति का गोत्र मुख्यतः तीन प्रकार का होता है-
(१)- मूल गोत्र
(२)- स्थानमूलक गोत्र
(३)- गुरू गोत्र
अब हमलोग क्रमवार इन तीनों प्रकार के गोत्रों की उत्पत्ति और विशेषताओं को जानेंगे-
(१)- जिसमें पहले नम्बर पर "मूल गोत्र" का नाम आता है। यह गोत्र किसी व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है की किस व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति किससे हुई है। इस मूल गोत्र में व्यक्ति का रक्त संबंध होता है। जैसे गोपों (यादवों) का मूल गोत्र वैष्णव है। क्योंकि यादवों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है। इसके बारे में आगे बताया गया है।
इसी तरह से जो लोग अपने को ब्रह्मा जी की संतान मानते हैं उन सभी का मूल गोत्र- "ब्राह्मी गोत्र" है। जैसे- ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न कुछ ब्राह्मण इत्यादि।
अब आप लोगों यहां पर यह सोच रहे होंगे कि कुछ ही ब्राह्मण क्यों सभी ब्राह्मण क्यों नहीं ? क्या सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हैं? तो इसका जवाब है जी हां सभी ब्राह्मण ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्योंकि कुछ पौराणिक ग्रंथों में ब्राह्मणों के जन्म को अन्य तरह से भी बताया गया है। किन्तु यहां पर ब्राह्मणों की उत्पत्ति को बताना मेरा उद्देश्य नहीं है। फिर भी यदि कोई यह बात जानना ही चाहता है तो वह स्कन्द पुराण का खण्ड- (३) के अध्याय- (३९) के प्रसंगों को पढ़कर यह जानकारी ले सकता है कि अधिकांश ब्राह्मणों कि जन्म दूसरे तरीके से किस प्रकार बताई गई है। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि मूल गोत्र व्यक्ति के जन्मगत आधार को दर्शाते हुए यह पहचान कराता है कि व्यक्ति की प्रारंभिक उत्पत्ति जिससे हुई है, उसीके नामानुसार उस व्यक्ति का मूल गोत्र निर्धारित होता है। जैसे- ब्राह्मी गोत्र, वैष्णव गोत्र इत्यादि। जिसमें वैष्णव गोत्र के बारे में आगे विस्तार से बताया हूं।
(२)-दूसरा गोत्र स्थान या स्थानीय गोत्र के नाम से जाना जाता है, जो किसी व्यक्ति के भौगोलिक स्थिति को दर्शाते हुए स्थान विशेष की पहचान कराता है। इस तरह के गोत्र की उत्पत्ति तब होती है जब एक ही जाति वर्ण और वंश के लोग जब किसी परिस्थिति विशेष के कारण अपने मूल निवास स्थान से (Migrate) कर जाते हैं, अर्थात वे अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर अपने समूह सहित अन्यत्र जाकर बस जातें हैं। तब उनके मूल स्थान के नाम पर उनकी पहचान हेतु एक उपगोत्र बन जाता हैं। इस तरह का
स्थानीय गोत्र अधिकांशतः गोपों अर्थात यादवों में देखने को मिलता है। यहीं कारण है कि यादवों में इस तरह के गोत्र बहुतायत पाए जाते हैं। देखा जाए तो भारत के हर प्रांतों में यादवों की पहचान अलग-अलग गोत्रों से होती है। किन्तु उनका मूलगोत्र, जाति एवं वंश पूर्ववत बना रहता है।
यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। पूर्व काल में कंस के अत्याचारों से बहुत से यादव मथुरा छोड़कर यत्र-तत्र सर्वत्र बस गए। इसी तरह से केशी राक्षस के भय से नन्द बाबा के पिता पर्जन्य मथुरा छोड़कर परिवार सहित गोकुल में जा बसे। किन्तु वहां पर पशुओं के लिए अच्छा चारागाह न होने के कारण नन्द बाबा गोकुल को भी छोड़कर श्रीकृष्ण सहित समस्त गोपों के साथ ब्रज के बृंदावन में रहने लगे। इसके अतिरिक्त जब श्रीकृष्ण कंस का वध करके मथुरा में रहने लगे तब वहां पर जरासंध के बार बार आक्रमण से तंग आकर श्रीकृष्ण अपने समस्त गोपों के साथ मथुरा को छोड़कर द्वारका नगरी में रहने लगे। कहने का तात्पर्य यह है कि यादवों में स्थान परिवर्तन की परम्परा पूर्व काल से ही रही है। जिसके परिणामस्वरूप उनके स्थान विशेष के नाम पर अनेकों गोत्रों का उदय हुआ। आज वर्तमान समय में यादव हर प्रांतों में अलग-अलग गोत्रों के नाम से जाने जाते हैं। किन्तु उनका मूलगोत्र वैष्णव गोत्र ही। जैसे- ढ़़ढ़ोर, ग्वाल, कृष्नौत, मझरौट, मथुरौट, नारायणी, घोसी, घोष, गोल्ला, गवली, मरट्ठा, मथुवंशी, इत्यादि बहुत से स्थानीय उपगोत्र है उन सभी को बता पाना इतना आसान नहीं है जितना आप सोच रहे होंगे। इसके अतिरिक्त भारत से सटे राज्य नेपाल में भी यादवों के बहुत स्थानीय उपगोत्र है जैसे - सिराहा, धनुषा, सप्तरी, बारा, रौतहट, सरलाही, परसा, महोत्तरी, बांके, सुनहरी इत्यादि। ये सभी यादवों के ही स्थानी उपगोत्र हैं।
अब आते हैं तीसरे प्रकार के गोत्र - गुरु गोत्र पर
(३)- गुरु गोत्र - गोपों के तीसरे प्रकार के उपगोत्र का नाम है। इस प्रकार के गोत्र में व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी ऋषि या अपने पसंद के विश्वासनीय सतनामी गुरु या किसी ऋषि मुनि से- दीक्षा, गुरुमंत्र या गुरूमुख होकर अपने उपगोत्र या वैकल्पिक गोत्र का निर्धारण करते हैं। इसलिए इस प्रकार के गोत्र को "गुरुगोत्र " कहा जाता है, जिसमे गोत्र कर्ता (ऋषि )और उसके अनुयायियों में किसी प्रकार का रक्त संबंध नहीं होता है। इस तरह के गोत्र का मुख्य उद्देश्य- दीक्षा, शिक्षा, पूजा-पाठ, विवाह इत्यादि को संपन्न कराने तक ही सीमित होता है।
गोपों के इस वैकल्पिक "गुरूगोत्र" अत्रि नाम की परम्परा का प्रारंभ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही प्रचलन में आया। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मंत्रोच्चारण से संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे। उसी समय से ऋषि अत्रि गोपों के प्रथम ब्राह्मण पुरोहित हुए। और गोपों के प्रत्येक धार्मिक कार्यों को संपन्न का संकल्प लिया तथा गोपों ने भी ब्राह्मण ऋषि अत्रि के नाम से एक
गुरु गोत्र बनाया जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ एवं विवाह इत्यादि को संपन्न कराना था। अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६ और १७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
वर्ण-
जाति
वंश
कुल खान)
गोत्र ( वैवाहिक विभाजन के लिए ताकि एक ही गोत्र मे विवाह न हो सके)
________________
यादवों को अपना वास्तविक गोत्र जानने से पहले गोत्रों की उत्पत्ति को जानना होगा की गोत्रों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा गोत्र कितने प्रकार के होते हैं ?
"मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।
अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च।।१७।
अर्थात - पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु - ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे।१८।
कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्।।१८।
वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्या से ही साधू-समाज में सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं।१८।
विशेषधर्मान्वर्णानां प्रब्रूहि भगवन्मम।
तथा सामान्यधर्मांश्च सर्वत्र कुशलो ह्यसि॥१९॥
अनुवाद:-
जनक ने पूछा - वक्ताओं में श्रेष्ठ महर्षे ! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णों का जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है ? यह मैं जानना चाहता हूँ।१९।
कथं ब्राह्मणतो जातो विशेषग्रहणं गतः॥२॥
ऐसी दशा में प्रारम्भ में ब्रह्माजी से उत्पन्न हुए ब्राह्मणों से ही सबका जन्म हुआ है।२।
तब पराशरजी ने कहा- महाराज ! यह ठीक है कि
"पराशर उवाच।
एवमेतन्महाराज येन जातः स एव सः।
तपसस्त्वपकर्षेण जातिग्रहणतां गतः।।३।
सुक्षेत्राच्च सुबीजाच्च पुण्यो भवति संभवः।
अतोऽन्यतरतो हीनादवरो नाम जायते।।४।
अनुवाद:-
जिससे जो जन्म लेता है, उसी का वह स्वरूप होता है तथापि तपस्या की न्यूनता के कारण लोग निकृष्ट जाति को प्राप्त हो गये हैं।३।
यदि क्षेत्र और बीज में से एक भी निम्नकोटि ( घटिया) का हो तो उससे निम्न संतान की ही उत्पत्ति होती है।४।
तात ! जो मुख से उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओं से उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को क्षत्रिय माना गया। राजन ! जो ऊरूओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणों से हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये । पुरूषप्रवर ! इस प्रकार ब्रह्माजी के चार अंगों से चार वर्णों की ही उत्पत्ति हुई।
इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णों के सम्मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण वर्णसंकर कहलाते हैं। इसपर जनक ने पुनः पूछा - मुनिश्रेष्ठ ! जब सबको एकमात्र ब्रह्माजी ने ही जन्म दिया है, तब मनुष्यों के भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए ? इस जगत में मनुष्यों के बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।
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"जनक ने पूछा-
(१)- पहला यह कि - वे ऋषि-मुनि जिनसे संतानें उत्पन्न हुई, और उसने उत्पन्न सभी संतानें उस ऋषि के नाम से अपने गोत्र को स्वीकार करती हैं।
ऐसे गोत्र को जन्म के आधार पर सन्तान पूरक गोत्र कहा जाता है। इस तरह के गोत्र ब्राह्मणों में देखने को मिलता है। जो अक्सर कहा करते हैं कि मैं इस ऋषि या उस ऋषि का संतान हूं।
ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुछ और लोग भी हैं जो अपने को किसी न किसी ऋषि का ही संतान मानते हुए उनके नाम से अपना गोत्र निर्धारित करते हैं। आजकल गोत्र धारण करने की होड़ मची हुई है। क्योंकि ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में बहुतों को अपने गोत्रों का पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में पुरोहितों ने अलग से सार्वजनिक गोत्र बनाया गया है उसे नीचे देखें।
(२)- दूसरा यह कि - ऐसा मानव समूह जिन्हें अपने उत्पाद अर्थात निज की उत्पत्ति किससे हुई है इसका पता ही नहीं हो। तो ऐसे लोगों के लिए सामुहिक (Common) गोत्र बनाया गया है जिसका नाम है "कश्यप गोत्र"। यह गोत्र विस्तार की दृष्टि से भूतल पर सबसे बड़ा गोत्र माना जाता है। क्योंकि इसमें- पशु पक्षियों सहित अधिकांश मानव समूह जो ब्राह्मी वर्ण- व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है या जिन्हें अपने गोत्र का पता नहीं है उन सभी को इसमें शामिल किया गया है।
(३)- तीसरा यह कि- ऐसे लोग जो ब्रह्मा पर्यन्त किसी ऋषि-मुनियों की संतान न होकर सीधे परमेश्वर श्रीकृष्ण की संतान या (Product) हैं। वे ही लोग इसमें आते हैं।
ऐसे लोगों का गोत्र भी दो प्रकार के होते हैं-
(१)- पहला यह कि- उनका मुख्य गोत्र तो आनुवंशिक- (Genetic) होता है जो परम्परागत रूप से रक्त सम्बन्ध का संकेत करता है।
(२)- दूसरा उनका एक गोत्र वैकल्पिक (उपगोत्र) होता है जो किसी ऋषि मुनि के नाम से होता है। जिसका मुख्य उद्देश्य दीक्षा, शिक्षा ,पूजा पाठ, यज्ञ, विवाह इत्यादि पौरोहित्य कर्म कराने तक ही सीमित होता है। इस वैकल्पिक गोत्र से उनका किसी तरह का रक्त सम्बन्ध नहीं होता है। इस तरह का गोत्र- गोपों अर्थात् यादवों का होता है क्योंकि गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना या किसी अन्य ऋषि-मुनियों के उत्पाद नहीं है। इसलिए ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में जो गोत्र बनाए गए हैं वे इन गोपों पर प्रभावी नहीं होते। क्योंकि यादवों के लिए ये गोत्र वैकल्पिक हैं। उनका मुख्य गोत्र तो "वैष्णव गोत्र" है। क्योंकि उत्पत्ति की दृष्टिकोण से इन गोपों की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से हुई है न की ब्रह्मा या किसी ऋषि-मुनि से हुई है।
इस सम्बन्ध में बता दें कि- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में दो ही शक्तियों द्वारा सृष्टि रचना होती है। प्रथम सृष्टि रचना परमेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में हुई, जिसमें में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गोप-गोपियां, प्रमुख देवी और देवताओं की उत्पत्ति हुई।
इसलिए श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) को प्राथमिक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। तथा दूसरी सृष्टि रचना प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा जी द्वारा होती है इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितियक सृष्टि कर्ता कहा जाता है।
जिसका परिणाम यह हुआ कि- पूरा यादव समाज अपने मूल "वैष्णव गोत्र" सहित अपने अस्तित्व को भी भूल गया कि- ऋषि अत्रि के जन्म से बहुत पहले ही गोप और गोपियों अर्थात् यादवों की उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट्- विष्णु) के रोम कूपों से हो चुकी थी। तो फिर गोपों के बाद जन्में ऋषि अत्रि कैसे यादवों (गोपों) के गोत्र प्रवर्तक होकर यादवों में स्वीकार किए गये है ? यह एक विचारणीय विषय है।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त गोपाचार्य हंस श्री आत्मानन्द जी महाराज एवं योगेश कुमार रोहि व गोपाचार्य हंस माता प्रसाद जी का कहना है कि -
"गोप जाति श्रीकृष्ण अर्थात स्वराट विष्णु से उत्पन्न हैं न कि ब्रह्मा के मानस पुत्र अत्रि ऋषि से। इसलिए रक्त संबंध एवं उत्पत्ति विशेष के कारण यादवों (गोपों) का मुख्य गोत्र "वैष्णव गोत्र" ही मान्य व स्वीकार्य है।"
गोपों के गोत्र एवं रक्त सम्बन्धों के विषय में गोपाचार्य हंस श्रीमाताप्रसाद योगेश रोहि आदि विद्वानों का कथन है कि - "अत्रि गोत्र" के बारे में इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यादवों के लिए "अत्रि गोत्र" एक वैकल्पिक गोत्र है जिसका मुख्य उद्देश्य पूजा पाठ, विवाह ,यज्ञ इत्यादि सम्पन्न कराने तक ही सीमित है। क्योंकि इस वैकल्पिक गोत्र से गोपों का कोई रक्त सम्बन्ध नहीं है"।
गोपों के इस वैकल्पिक गोत्र अत्रि की परम्परा का प्रारम्भ सर्वप्रथम भू-तल पर ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में अहीर कन्या देवी गायत्री के विवाह के उपरान्त ही हुआ था। जिसमें अहीर कन्या देवी गायत्री का विवाह ब्रह्मा से अत्रि ने ही यज्ञ में मन्त्रोच्चारों द्वारा संपन्न कराया था। क्योंकि उस यज्ञ के प्रमुख "अध्वर्यु" (यज्ञ में मन्त्रोच्चारण करनें वाला पुरोहित) अत्रि ही थे।
अहीर कन्या देवी गायत्री का ब्रह्मा से विवाह का प्रसंग पद्मपुराण के अध्याय- (१६) और (१७) में मिलता है। जिस किसी को इसकी जानकारी लेनी है वहां से ले प्राप्त कर सकता है।
फिर आगे चलकर गोपों की इसी परम्परा को निर्वहन करते हुए भू-तल पर गोप कुल में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण संग श्रीराधा का विवाह भाण्डीर वन में अत्रि के पिता ब्राह्मण देवता ब्रह्मा द्वारा ही संपन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।
"पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।
हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।
ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।
कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।
प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।
वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।
श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।
पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।
तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।
पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः।।१३०।
अनुवाद- (१२०-१३०)
फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मन्त्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - गोपों का वैकल्पिक गोत्र "अत्रि" केवल पूजा पाठ, यज्ञ और विवाह इत्यादि तक ही सीमित है। अत्रि- गोत्र में गोपों के रक्त सम्बन्धों को स्थापित करना उनके मूल गोत्र "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के समान होगा।
क्योंकि "गोत्र उत्पत्ति सिद्धान्त के अनुसार यह मान्यता है की प्रारम्भिक काल में जिनकी उत्पत्ति जिससे होती है उसी के नाम पर उसका गोत्र निर्धारित होता है"। इस सिद्धान्त के अनुसार गोप यादवों का "अत्रि गोत्र" तब माना जाता जब इन गोप यादवों की उत्पत्ति ऋषि अत्रि से हुई होती।
किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रारम्भिक काल में यादवों (गोप और गोपियों) की उत्पत्ति गोलोक में श्रीकृष्ण और श्रीराधा से प्रथम कल्प में उसी समय हो जाती है जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पन्न होते हैं। इस बात को विस्तार पूर्वक अध्याय- (४) में बताया गया है कि- गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोपों की उत्पत्ति कैसे हुई है।
फिर भी इस सम्बन्ध में कुछ साक्ष्य यहाँ देना चाहेंगे कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के रोमकूपों से ही हुई है।
(१)- पहला साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-(४८) के श्लोक (४३) से है जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।।४३।
अनुवाद -• श्रीराधा के रोम कूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्रीकृष्ण के रोम कूपों से संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
(२)- दूसरा साक्ष्य - ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- (४०) और (४२) से है, जिसमें लिखा गया
है कि -
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- (४०-४२)
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्रीराधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६) के श्लोक- (६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः।६२।
अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
(४)- चौथा साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- (७) से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धान्त के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी व गोपाचार्य हंस आत्मानन्द आदि विद्वानों का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस सम्बन्ध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।। २७।
अनुवाद-( २६-२७)
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।।९१।
अनुवाद- (९०-९१)
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से।
तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी सम्भव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किंतु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए।
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
अनुवाद- ४०-४२
• उसी क्षण उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०।
• फिर तो श्रीकृष्ण के रोम कूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे।४२।
(३)- तीसरा साक्ष्य- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -(३६ के श्लोक- ६२) से है जिसमें स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२।
अनुवाद- हे राधे ! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।६२।
(४)- चतुर्थ साक्ष्य - गर्गसंहिता विश्वजित्खण्ड के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ७ से है जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-
ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७॥
अनुवाद:- समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७।
अब ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि - जब गोपों (यादवों) की उत्पत्ति गोपेश्वर श्रीकृष्ण से हुई है तो जाहिर सी बात है कि इनका गोत्र भी श्रीकृष्ण के नामानुसार वैष्णव ही होना चाहिए न की अत्रि के नाम से अत्रि गोत्र होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह गोत्र सिद्धांत के बिल्कुल विपरीत होगा।
इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भक्त एवं श्रीकृष्ण चरित्र विश्लेषक- गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी का कथन है कि - "यादवों का अत्रि गोत्र तब माना जाता जब यादवों की उत्पत्ति अत्रि से हुई होती। किंतु अत्रि का जन्म तो गोपों की उत्पत्ति से बहुत बाद में भू-तल पर ब्रह्मा जी से हुई है। ऐसे में गोपों का गोत्र- अत्रि कैसे हो सकता है ?"
इस संबंध में गोपाचार्य हंस श्री योगेश रोही जी के कथन पर विचार किया जाए तो उनका कथन बिल्कुल सत्य है। क्योंकि प्रमुख पौराणिक ग्रंथों में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही बतायी गई है।
मत्स्यपुराण के अध्याय- (१७१) के श्लोक - (२६) और (२७) में अत्रि की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से बताई गई है। जो इस प्रकार है-
विश्वेशं प्रथमः तावन्महातापसमात्मजम्।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्मं स सृष्टवान।।२६।
दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम्।
वसिष्टं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम्।।२७।
अनुवाद- २६-२७
सर्वप्रथम ब्रह्मा ने अपने धर्म नामक पुत्र को प्रकट किया जो विश्व के ईश्वर महान तपस्वी सम्पूर्ण मन्त्रों द्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, "अत्रि", पुलस्त्य, क्रतु , वशिष्ठ, गौतम, भृगु, अंगिरा और मनु को उत्पन्न किया।२६-२७।
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण के अध्याय- (१४५) के श्लोक (९० और ९१) में ब्रह्मा जी के दस मानस पुत्रों में अत्रि को भी बताया गया है।
भृगुर्मरीचिरत्रिश्च अङ्गिराः पुलहः क्रतुः।
मनुर्दक्षो वसिष्ठश्च पुलस्त्यश्चापि ते दशः।।९०।
ब्राह्मणो मानसा ह्येते उत्पन्नाः स्वयमीश्वराः।
परत्वेनर्षयो यस्मान्तास्तस्मान्महर्षयः।।९१।
अनुवाद- ९०-९१
भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वशिष्ठ और पुलस्त्य, ये दस ऐश्वर्यशाली ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। ये ऋषिगण ब्रह्म परतत्व से युक्त है, इसीलिए महर्षि माने गए हैं।
अतः उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि - ऋषि अत्रि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं अर्थात इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई हैं ना की गोपेश्वर श्रीकृष्ण से। तब ऐसे में गोपों का गोत्र -"अत्रि" नाम से कैसे स्थापित हो सकता है ? यह तभी संभव हो सकता है जब अत्रि की भी उत्पत्ति श्रीकृष्ण से हुई होती। किन्तु अत्रि तो ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं।
इससे यह सिद्ध होता है कि यादवों के मूल गोत्र- "वैष्णव गोत्र" को विकृत करने के लिए जाने-माने ऋषि अत्रि को निराधार और बेवजह ही घसीट कर यादवों के गोत्र में सम्मिलित किया गया ताकि यादव लोग भ्रमित होकर अपने मूल गोत्र "वैष्णव" को भूलकर ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अत्रि गोत्र का अंग बनकर रह जाए और अपने मूल गोत्र वैष्णव को सदा-सदा के लिए भूल जाए। और इस सम्बन्ध में मेरा तो मानना है कि पुरोहितों का यह प्रयोग (Experiment) यादवों पर 99% सफल रहा।
इन्हीं सभी बातों को सोच कर कभी-कभी मुझे बहुत दुख होता है कि जिन गोपों की उत्पत्ति परमेश्वर श्री कृष्ण से हुई हो भला वह कैसे ब्रह्मजाल में फंसकर आज अपने मूल गोत्र वैष्णव को ही भूल गया।
इस संबंध में यादव समाज से मेरा यही सुझाव और निवेदन है कि जब भी कोई ब्राह्मण पुरोहित पूजा-पाठ या विवाह के अवसर पर आपको अपने गोत्र का नाम लेने को कहे तो आप लोग उस समय अपने मूल गोत्र "वैष्णव" का ही नाम ले और उस ब्राह्मण पुरोहित को भी बताएं कि पुरोहित जी आपका गोत्र अत्रि हो सकता है क्योंकि अत्रि ब्राह्मण थे और आप भी ब्राह्मण हैं। किंतु मेरा मूल गोत्र तो वैष्णव है क्योंकि मेरी उत्पत्ति तो गोपेश्वर श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से गोलोक में उसी समय हो चुकी थी, जब ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए आप जो भी मेरे लिए कृत्य करें वह सब वैष्णव गोत्र के नाम से ही करें अन्यथा हमारा श्रमसाध्य यह कार्य व्यर्थ ही जाएगा।
"अध्याय- नवम (९)-
[भाग -[२] अत्रि की उत्पत्ति और उनका परिचय ]
अध्याय- (९)[भाग- (२) ऋषि अत्रि को लेकर आश्चर्य तो तब होता है जब यह पता चलता है की ऋषि अत्रि का एक अलग से वंश और गोत्र भी है। जो ब्राह्मणों से सम्बंधित है न कि यादव अथवा गोपों से सम्बन्धित। इसकी पुष्टि- मत्स्यपुराण के अध्याय- (१९७) के श्लोक- (१-११) से होती है जिसमें भगवान मत्स्य कहते हैं-
"मत्स्य उवाच।
अत्रिवंशसमुत्पन्नान् गोत्रकारान्निबोध मे।
कर्दमायनशाखेयास्तथा शारायणाश्च ये ।।१।
उद्दालकिः शौणकर्णिरथौ शौक्रतवश्च ये।
गौरग्रीवा गौरजिनस्तथा चैत्रायणाश्च ये ।।२।
अर्द्धपण्या वामरथ्या गोपनास्तकि बिन्दवः।
कणजिह्वो हरप्रीति र्नैद्राणिः शाकलायनिः ।।३।
तैलपश्च सवैलेय अत्रिर्गोणीपतिस्तथा।
जलदो भगपादश्च सौपुष्पिश्च महातपाः ।।४।
छन्दो गेयस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः।
श्यावाश्वश्च तथा त्रिश्च आर्चनानश एव च ।।५।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः।
दाक्षिर्बलिः पर्णविश्च ऊर्णनाभिः शिलार्दनिः ।।६।
वीजवापी शिरीषश्च मौञ्जकेशो गविष्ठिरः।
भलन्दनस्तथैतेषां त्र्यार्षेयाः प्रवरा मताः ।।७।
अत्रिर्गविष्ठिरश्चैव तथा पूर्वातिथिः स्मृतः।
परस्परमवैवाह्या ऋषयः परिकीर्तिताः ।।८।
आत्रेयपुत्रिकापुत्रानत ऊर्ध्वं निबोध मे।
कालेयाश्च सवालेया वासरथ्यास्तथैव च ।।९।
धात्रेयाश्चैव मैत्रेयास्त्र्यार्षेयाः परिकीर्तिताः।
अत्रिश्च वामरथ्यश्च पौत्रिश्चैवमहानृषिः ।।१०।
इत्यत्रिवंशप्रभवास्तवाह्या महानुभावा नृपगोत्रकाराः।
येषां तु नाम्ना परिकीर्तितेन पापं समग्रं पुरुषो जहाति।। ११।
"अध्याय- प्रथम• ★-
"सृष्टि उत्पत्ति की प्रागैतिहासिक घटना उपक्रमों में गोलोक में सृष्टि उत्पत्ति का वर्णन-
यद्गुणानां नास्ति नाशस्तत्समानो गुणेन च ।२७।
सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः।२८।
स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह।
स्त्रीरूपा वामभागांशाद्दक्षिणांशः पुमान्स्मृतः।२९।
गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक और उनके अनेक स्वरूपों का वर्णन गर्गसंहिता तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड में मिलता है ।
सन्दर्भ- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक संख्या- ४ से श्लोक संख्या- २३ तक गोपेश्वर श्रीकृष्ण को परात्पर स्वरूप तथा उनके गोलोक का सम्यक्- वर्णन निम्नांकित है।-
- ज्योतिःसमूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज ।। सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम् ।४।
अनुवाद-पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति- पुञ्ज प्रकाशित था । जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी ; वही नित्य व शाश्वत ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है ।४।
- स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत्।ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ।५।
अनुवाद-वह स्वेच्छामयी, ,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं।५।
- तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज।। त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति।६।
अनुवाद-और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है।६।
- तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।७।
अनुवाद :-और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न ने भी दिखाई देने योग्य नहीं है वह केवल वैष्णवों के लिए ही दृश्य और गम्यं( (पहुँचने योग्य) है।
- श्लोक-आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम्।८। (द्वितीय अध्याय के आठवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)
अनुवाद- वहाँ आधि( मानसिक पीड़ा) व्याधि( शारीरिक पीड़ा) जरा ( बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं।
- सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम् । लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम् ।९।
अनुवाद -रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वही गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है।९।
- तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् । वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम् । 1.2.१०।
अनुवाद-और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।१०।
- श्लोक- गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।। १३ ।।
अनुवाद-गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है।१३।
- परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा ।।१४।।
अनुवाद-जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४।
- तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।।तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।।१५।।
अनुवाद-वही निराकार व परात्पर ब्रह्म है जिसका ज्योति के भीतर अत्यन्त रूप सुशोभित होता है ।१५।
- नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम्।।शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।।१६।।
अनुवाद-जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) उनके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। उनका निर्मल मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है।१६।
- कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् । द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।१७।
अनुवाद-यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है । उनकी दो भुजाएँ हैं । एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है ; और उपरोष्ठ और अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं।१७।
- श्लोक -रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् । तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।।२०।।
अनुवाद-वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं।२०।
- स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्। किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।।२१।।
अनुवाद-वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक में सदा गोप (आभीर) -वेष में रहते हैं।२१।
- " The Shri Krishna is the only supreme power of the the entire universe-
- श्री कृष्ण संपूर्ण ब्रह्मांड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं।"
"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः। न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।
अनुवाद:- गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। कृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं है और शंकर (शिव) से बड़ा कोई सहनशील वैष्णव इस पृथ्वी पर नहीं है।१६।
देवाः कालस्य कालोऽहं विधाता धातुरेव च। संहारकर्तुः संहर्ता पातुः पाता परात्परः । ४२ ।
अनुवाद:-"गोपेश्वर श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों के विषय में कहते हैं देवों में काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ।४२।
- "ममाज्ञयाऽयं संहर्ता नाम्ना तेन हरः स्मृतः। त्वं विश्वसृट् सृष्टिहेतोः पाता धर्मस्य रक्षणात्।४३।
अनुवाद:-मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- सृष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं।४३।
सन्दर्भ:-श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः ।६ ।
उपर्युक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान बात नारद पुराण में भी कही गयी है।
- "यो देवो जगतामीशः कारणानां च कारणम् ।युगान्ते निगदन्त्येतद्रुद्ररूपधरो हरिः ।।६-४६।।
अनुवाद:-जो देव जगत का स्वामी कारणों या भी कारण है वह हरि युग के अन्त में रूद्र रूप धारण करता है।४६।
- "रुद्रो वै विष्णुरुपेण पालयत्यखिलंजगत् ।।ब्रह्मरुपेण सृजति प्रान्तेः ह्येतत्त्रयं हरः ।।६-४७।।
- "ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।स्वकर्मफलदाताऽहं कर्मनिर्मूलकारकः । ४४ ।
अनुवाद:-"ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। ४४।
- "अहं यान्संहरिष्यामि कस्तेषामपि रक्षिता । यानहं पालयिष्यामि तेषां हन्ता न कोऽपि वा। ४५।
अनुवाद:-और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं ।४५।
- "सर्वेषामपि संहर्ता स्रष्टा पाताऽहमेव च। नाहं शक्तश्च भक्तानां संहारे नित्यदेहिनाम् ।।४६।।
अनुवाद:-मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ।
- "भक्ता ममानुगा नित्यं मत्पादार्चनतत्पराः। अहं भक्तान्तिके शाश्वत्तेषां रक्षणहेतव ।४७।
अनुवाद:-भक्त मेरे अनुयायी ( मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।
- "सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः। न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः। ४८।
अनुवाद:- सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं।४८।
"क्योंकि मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ। भक्त मेरे अनुयायी हैं ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान इसी प्रकार की बात श्रीमद्भागवत पुराण के नवम- स्कन्ध के चतुर्थ- अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४) पर कहते हैं।
सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाला परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहता है। यह बात श्रीमद्भागवत पुराण में निम्न प्रकार से है।
- " अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज। साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।।६३।
- "नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।।-
- श्रीमद्भागवत पुराण- नवम- स्कन्ध का चतुर्थ- अध्याय-श्लोक संख्या-(६३-६४)
"भगवान श्रीकृष्ण ने कहा:-
"दुर्वासा जी ! मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।
ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ।इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।
इस प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय -२१ लिखा गया है।"
- स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम् ।। भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम् ।। ४१।।
अनुवाद-स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्री राधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं। ४१।
- ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम् । किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम् । ४२।
अनुवाद ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वर्जित और जिनकी स्तुति कि गयी हो वे वे राधा जी के प्रिय श्रीकष्ण जिनकी अवस्था किशोर है शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४१।
- निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् । ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।। ४३।
अनुवाद वे सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ध्यान करना चाहिए ।४३।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-67 के अनुसार कृष्ण की सर्वोपरिता-
"गोपेश्वर श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन कुछ इस प्रकार है।
अनुवाद:- हे राधे! मैं आधार और आधेय कारण और कार्य भी हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान हैं।
- आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च। ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा । ५०।
अनुवाद- कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में कुछ देवता मेरे अंश हैं ।५०।
- "केचित्कलाः कलांशांशास्तदंशांशाश्च केचन ।मदंशा प्रकृतिः सूक्ष्मा साच मूर्त्याच पञ्चधा ।५१ ।
अनुवाद- कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियां है ।५१।
- "सरस्वती च कमला दुर्गा त्वं चापि वेदसूः। सर्वे देवाः प्राकृतिका यावन्तो मूर्तिधारिणः ।५२।
अनुवाद-प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं सबका आत्मा हूँ।५२।
- "अहमात्मा नित्यदेही भक्तध्यानानुरोधतः । ये ये प्रकृतिका राधे ते नष्टाः प्राकृते लये।५३।
अनुवाद:-और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के पश्चात नष्ट हो जाते हैं। ५३।
- "अहमेवाऽऽसमेवाग्रे पश्चादप्यहमेव च । यथाऽहं च तथा त्वं च यथा धावल्यदुग्धयोः ।५४।
अनुवाद:-सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में मैं ही रहुँगा-हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता ( सफेदी) में भेद नहीं हैं।५४।
- "भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः। अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु ।५५।
अनुवाद:-प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है।५५।
- "अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी । अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।५६ ।
अनुवाद:-वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो। जो समिष्टी (समूह)में है वही व्यष्टि (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।५६।
- "अयं विष्णोर्लोमकूपे वासो मे चांशतः सति । तस्य स्त्री त्वं च बृहती स्वांशेन सुभगा तथा ।५७।
अनुवाद:-विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से उसकी पत्नी हो।५७।
- "तस्य विश्वे च प्रत्येकं ब्रह्मविष्णुशिवादयः। ब्रह्मविष्णुशिवा अंशाश्चान्ये चापि च मत्कलाः ।। ५८ ।।
अनुवाद:-उस विराट विष्णु के रोम कूपों को प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्माा, विष्णु तथा महेश( शिव) आदि देवता मेरे अंश और कला से विद्यमान हैं।५६।
- "मत्कलांशांशकलया सर्वे देवि चराचराः । वैकुण्ठे त्वं महालक्ष्मीरहं तत्र चतुर्भुजः।५९ ।
अनुवाद:- हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम( चराचर) जगत विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ।५९।
परिचय-
कार्य-कारण-सम्बन्ध अन्यव्यतिरेक पर आधारित है। कारण के होने पर कार्य होता है, कारण के न होने पर कार्य नहीं होता। प्रकृति में प्राय: कार्य-कारण-संबंध स्पष्ट नहीं रहता। एक कार्य के अनेक कारण दिखाई देते हैं। हमें उन अनेक दिखाई देनेवाले कारणों में से वास्तविक कारण ढूँढ़ना पड़ता है। इसके लिए सावधानी के साथ एक-एक दिखाई देनेवाले कारणों को हटाकर देखना होगा कि कार्य उत्पन्न होता है या नहीं। यदि कार्य उत्पन्न होता है तो जिसको हटाया गया है वह कारण नहीं है। जो अंत में शेष बच रहता है वहीं वास्तविक कारण माना जाता है। यह माना गया है कि यह कार्य का एक ही कारण होता है अन्यथा अनुमान की प्रामाणिकता नष्ट हो जाएगी। यदि धूम के अनेक कारण हों तो धूम के द्वारा अग्नि का अनुमान करना गलत होगा।
भारतीय दर्शनों में कारण की तीन विधाएँ मानी गई हैं।
(1) उपादान कारण(समवायि कारण) वह कारण है जिसमें समवाय संबंध से रहकर कार्य उत्पन्न होता है। अर्थात् वह वस्तु जो कार्य के शरीर का निर्माण करती है, उपादान कहलाती है। मिट्टी घड़े का या धागा कपड़े का उपादान कारण हैं। इसी को समवायि कारण भी कहते हैं।
(2) असमवायि कारण- समवायि कारण में समवाय संबंध से रहकर कार्य की उत्पत्ति में सहायक होती है। धागे का रंग, धागे में, जो कपड़े का असमवायि कारण है क्यों कि धागे और कपड़े के बीच रंग का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। अत: धागे का रंग कपड़े का असमवायि कारण कहा जाता है। समवायि कारण द्रव्य होता है, परंतु असमवायि कारण गुण या क्रिया रूप होता है।
(3) निमित्त कारण- समवायि कारण में गति उत्पन्न करता है जिससे कार्य की उत्पत्ति होती है। कुम्हार घड़े का निमित्त है क्योंकि वही उपादान मिट्टी से घड़े का निर्माण करता है। समवायि और असमवायि से भिन्न अन्यथासिद्ध शून्य सभी कारण निमित्त कारण कहे जते हैं।
सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में उस परम - प्रभु द्वारा एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.” = एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" उस एक परम सत्ता( अस्तित्व) ईश्वर ने संकल्प द्वारा यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुत रूपों में विभक्त करूँ
यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्माण्ड "ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परम प्रभु के प्रतिबिम्ब( परछाँयी) मात्र हैं ।
इस भावबोध के जगते ही मनुष्य में सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध भी होता है और विकास का एक अनुभव भी होता है.।
उस परमेश्वर का स्वरूप स्वेच्छामय है। वह अपनी इच्छा से ही दो विपरीत लैगिंक रूपों में प्रकट हो गया। क्योंकि सृष्टि उत्पत्ति के लिए द्वन्द्व आवश्यक था।- "स कृष्णः सर्वस्रष्टाऽऽदौ सिसृक्षन्नेक एव च।सृष्ट्युन्मुखस्तदंशेन कालेन प्रेरितः प्रभुः॥२६।
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स्वेच्छामयः स्वेच्छया च द्विधारूपो बभूव ह ।
स्त्रीरूपो वामभागांशो दक्षिणांशः पुमान्स्मृतः ॥२७॥
प्रकृतिखण्ड: अध्याय( 3 )
एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो द्विधारूपो बभूव सः ।
वामार्धाङ्गो महादेवो दक्षिणे गोपिकापतिः॥ ८२।
सन्दर्भ:- देवी भागवत- 9/2/82
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ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति क्रम में क्षुद्र विराट पुरुष के नाभिकमल में प्रकट हुए ब्रह्मा ने विश्व की रचना की। स्वर्ग, मर्त्य (पृथ्वी) और पाताल–त्रिलोकी के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों का उन्होंने सर्जन किया।
"अध्याय- द्वितीय• ★-
मनस्
समानार्थक: १-चित्त,२-चेतस्,३-हृद्,४- हृदय,५-मनस,-६-मानस् ७-स्वान्त।
(अमरकोश- 1।4।31।2।7 )
"गरुडपुराणम् - आचार काण्ड१- अध्याय-(145) श्लोक संख्या-२
नाभिहृदम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजां पति:।2।
स एवासीदिदं विश्वं कल्पान्तेऽन्यन्न किञ्चन।8। (भागवत पुराण-9/1/8)
"सृष्टिं स्रष्टुं गच्छ वत्स नाभिपद्मोद्भवो भव ।
महाविराड् लोमकूपे क्षुद्रस्य च विधे शृणु॥४८॥
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट (Crete ) की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं से अनुप्रेरित हैं।
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भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है
हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇
बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇
आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन( यूनानी) भाषा का शब्द "माइनॉस् तथा वैदिक शब्द "मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।
जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।
यम और मनु को भारतीय पुराणों में सूर्य (अरि) का पुत्र माना गया है।
क्रीट पुराणों में इन्द्र को (Andregeos) के रूप में मनु का ही छोटा भाई और हैलीऑस् (Helios) का पुत्र कहा है।
इधर चतुर्थ सहस्राब्दी ई०पू० मैसॉपोटामियाँ दजला- और फ़रात का मध्य भाग अर्थात् आधुनिक ईराक की प्राचीन संस्कृति में मेनिस् (Menis)अथवा मेैन (men) के रूप में एक समुद्र का अधिष्ठात्री देवता है।
यहीं से मेनिस का उदय फ्रीजिया की संस्कृति में हुआ था । यहीं की सुमेरीयन सभ्यता में यही मनुस् अथवा नूह के रूप में उदय हुआ, जिसका हिब्रू परम्पराओं नूह के रूप में वर्णन भारतीय आर्यों के मनु के समान है।
मनु की नौका और नूह की क़िश्ती
दोनों प्रसिद्ध हैं।
मन्नुस, रोमन लेखक टैसिटस के अनुसार, जर्मनिक जनजातियों के उत्पत्ति मिथकों में एक व्यक्ति था। रोमन इतिहासकार टैसिटस इन मिथकों का एकमात्र स्रोत है।
जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया।
मनन शील होने से ही व्यक्ति का मानव संज्ञा प्राप्त हुई है।
श्वात्रेण यत्पित्रोर्मुच्यसे पर्या त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुनः ॥४॥
तिस्रो देवीः स्वधया बर्हिरेदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य ॥८॥
तिस्रो देवीर्बर्हिरेदं स्योनं सरस्वती स्वपसः सदन्तु ॥८॥
अमर कोश-3।3।42।2।2
श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥४॥
और इस मान:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरूरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में है और उर्वशी पुरूरवा के काव्य का मूर्त ( साकार) रूप है। क्यों कि स्वयं पुरूरवा शब्द का मूल अर्थ है। अधिक कविता /स्तुति करने वाला- संस्कृत इसका व्युत्पत्ति विन्यास इस प्रकार है। पुरू- प्रचुरं रौति( कविता करता है) कौति- कविता करता) इति पुरूरवस्- का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप पुरूरवा अधिक कविता अथवा स्तुति करने के कारण इनका नाम पुरूरवा है। क्योंकि गायत्री के सबस
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
"अध्याय- तृतीय ★-
"यादवों के आदि पूर्वज पुरूरवा गोप और गोप जातीय कन्या उर्वशी का वैदिक तथा पौराणिक विवरण एवं उनकी सन्तानों का परिचय-
अध्याय- 26 - पुरूरवा का विवरण-
पुरूरवसः चरित्र एवं वंश वर्णनम्, राज्ञा पुरूरवसेन त्रेताग्नेः सर्जनम्, गन्धर्वाणां लोकप्राप्तिः। |
षडविंशोऽध्यायः
"वैशम्पायन उवाच
बुधस्य तु महाराज विद्वान् पुत्रः पुरूरवाः।
तेजस्वी दानशीलश्च यज्वा विपुलदक्षिणः।१।
1. वैशम्पायन ने कहा: - हे महान राजा, बुध- के पुत्र पुरुरवा विद्वान, ऊर्जावान और दानशील स्वभाव के थे। उन्होंने अनेक यज्ञ किये तथा अनेक उपहार दिये।
ब्रह्मवादी पराक्रान्तः शत्रुभिर्युधि दुर्जयः।
आहर्ता चाग्निहोत्रस्य यज्ञानां च महीपतिः।२।
अनुवाद:-वह ब्रह्मज्ञान का ज्ञाता और शक्तिशाली था और शत्रु उसे युद्ध में हरा नहीं पाते थे। उस राजा ने अपने घर में सदैव अग्नि जलाई और अनेक यज्ञ किये।2।
सत्यवादी पुण्यमतिः काम्यः संवृतमैथुनः।
अतीव त्रिषु लोकेषु यशसाप्रतिमस्तदा।३।
अनुवाद:-3. वह सच्चा, धर्मनिष्ठ और अत्यधिक सुन्दर था। उसका अपनी यौन भूख पर पूरा नियंत्रण था।उस समय तीनों लोकों में उनके समान तेज वाला कोई नहीं था।3।
तं ब्रह्मवादिनं क्षान्तं धर्मज्ञं सत्यवादिनम् ।
उर्वशी वरयामास हित्वा मानं यशस्विनी ।४।
अनुवाद:-4. अपना अभिमान त्यागकर यशस्विनी उर्वशी ने ब्रह्मज्ञान से परिचित क्षमाशील तथा धर्मनिष्ठ राजा को अपने पति के रूप में चुना।4।
तया सहावसद् राजा वर्षाणि दश पञ्च च।
पञ्च षट्सप्त चाष्टौ च दश चाष्टौ च भारत।५।
वने चैत्ररथे रम्ये तथा मन्दाकिनीतटे ।
अलकायां विशालायां नन्दने च वनोत्तमे ।६।
उत्तरान् स कुरून् प्राप्य मनोरथफलद्रुमान् ।
गन्धमादनपादेषु मेरुपृष्ठे तथोत्तरे ।७।
एतेषु वनमुख्येषु सुरैराचरितेषु च ।
उर्वश्या सहितो राजा रेमे परमया मुदा।८।
अनुवाद:-5-7. हे भरत के वंशज , राजा पुरुरवा दस साल तक आकर्षक चैत्ररथ उद्यान में, पांच साल तक मंदाकिनी नदी के तट पर , पांच साल तक अलका शहर में , छह साल तक वद्रिका के जंगल में , उर्वशी के साथ रहे आदि स्थानं पर रहे
सर्वोत्तम उद्यान नंदन में सात वर्षों तक, उत्तर कुरु प्रांत में आठ वर्षों तक जहां पेड़ इच्छानुसार फल देते हैं, गंधमादन पर्वत की तलहटी में दस वर्षों तक और उत्तरी सुमेरु के शिखर पर आठ वर्षों तक फल देते हैं।
अनुवाद:-8. देवताओं द्वारा आश्रयित इन सबसे सुंदर उद्यानों में राजा पुरुरवा ने उर्वशी के साथ सबसे अधिक प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से रमण किया ।
देशे पुण्यतमे चैव महर्षिभिरभिष्टुते ।
राज्यं च कारयामास प्रयागं पृथिवीपतिः।९।
अनुवाद:-9. वह राजा प्रयाग के पवित्र प्रांत पर शासन करता था , जिसकी महान राजा की ऋषियों ने बहुत प्रशंसा की है ।
तस्य पुत्रा बभूवुस्ते सप्त देवसुतोपमाः ।
दिवि जाता महात्मान आयुर्धीमानमावसुः।१०।
अनुवाद:-10-उनके सातों पुत्र सभी उच्चात्मा थे और दिव्य क्षेत्र में जन्मे देवताओं के पुत्रों के समान थे। उनके नाम आयु, धीमान , अमावसु ,।
विश्वायुश्चैव धर्मात्मा श्रुतायुश्च तथापरः ।
दृढायुश्च वनायुश्च शतायुश्चोर्वशीसुताः ।११।
अनुवाद:-11-धर्मात्मा विश्वायु , श्रुतायु , दृढायु, वनायु और शतायु थे । इन सभी को उर्वशी ने जन्म दिया था।
पुरूरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष और आयुष के पुत्र नहुष का गोपों में भगवान विष्णु के अंशावतार रूप में आना और स्वयं" वैष्णव धर्म के उत्थान में योगदान करना-व नहुष के पौत्र( नाती) यदु का वैष्णव धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए लोक भ्रमण एवं गोपालन करना"
य: पुरुरवस: पुत्र आयुस्तस्याभवन् सुता:।
नहुषः क्षत्रियवृद्धश्च रजि राभश्च वीर्यवान्॥1।
क्षत्रियवृद्धसुतस्यसं सुहोत्रस्यात्मजस्त्रयः॥2॥
पुरूरवा के पुत्र और नहुष के पिता . आयुष की गाथा-
वंशावली-
विराट विष्णु के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ उस क्रम में उतरते हुए -चंद्र-बुध- पुरुरवा -'आयुष- आदि का जन्म-
आयुष का जन्म उर्वशी में पुरूरवा से हुआ था . नहुष का जन्म आयुष की पत्नी स्वर्भानवी से हुआ इसका अन्य नाम इन्दुमती भी था।
आयुष वह एक राजा था जिसने तपस्या करके महान शक्ति प्राप्त की। (श्लोक 15, अध्याय 296,शान्ति पर्व, महाभारत).
भवान्दाता वरं सत्यं कृपया मुनिसत्तम।
पुत्रं देहि गुणोपेतं सर्वज्ञं गुणसंयुतम् ।१३०।
राजा ने कहा :
अनुवाद:- - हे श्रेष्ठ मुनि! मुझ पर दया करके आप मुझे सचमुच वर दे रहे हैं। तो आप मुझे सद्गुणों से युक्त, सर्वज्ञ पुत्र दीजिए ।१३०।
अनुवाद:- - जो देवताओं के समान पराक्रम वाला तथा देवताओं, दैत्यों, क्षत्रियों, दानवों, भयंकर राक्षसों और किन्नरों द्वारा अजेय हो। १३१।
अनुवाद:- - वह देवताओं और ब्राह्मणों का भक्त हो तथा अपनी प्रजा का विशेष पालन करने वाला हो। वह यज्ञ करने वाला, दान देने वाला, वीर, शरणागतों का स्नेह करने वाला हो।१३२।
अनुवाद:- - दानी, भोक्ता, उदार, वेदों और पवित्र ग्रंथों का ज्ञाता, धनुर्वेद में निपुण और पवित्र उपदेशों में पारंगत हो।१३३।
अनुवाद:- - उसकी बुद्धि अजेय हो; वह वीर और युद्ध में अपराजित हो। उसमें ऐसे गुण हों, वह रूपवान हो और जिससे वंश आगे बढ़े।१३४।
अनुवाद:- - हे प्रभु यदि आप कृपा करके मुझे दूसरा वरदान देना चाहते हैं तो मुझे ऐसा पुत्र दीजिए जो मेरे वंश को आगे बढ़ाए।१३५।
एकाशीतितम (81) अध्याय अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
- गौओं का माहात्म्य तथा व्यासजी के द्वारा शुकदेव से गौओं की, गोलोक की और गोदान की महत्ता का वर्णन करना:-
- "युधिष्ठिर उवाच।
- पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्।
- पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।।1
- "भीष्म उवाच।
- गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्।
- धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।2।
- न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम।
- एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।3।
- देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै।
- दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।4।
- मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
- गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।5।
- गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
- अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।6।
- अनुवाद:- युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। संसार में जो वस्तु पवित्रों में भी पवित्र तथा लोक में पवित्र कहकर अनुमोदित एवं परम पावन हो, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।
भीष्म जी नें कहा- राजन। गौऐं महान प्रयोजन सिद्ध करने वाली तथा परम पवित्र हैं। ये मनुष्यों को तारने वाली हैं और अपने दूध-घी से प्रजावर्ग के जीवन की रक्षा करती हैं। भरतश्रेष्ठ !गौओ से बढ़कर परम पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ये पुण्यजनक, पवित्र तथा तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है। गौऐं देवताओ से भी ऊपर के लोकों में निवास करती हैं। जो मनीषी पुरुष इनका दान करते हैं, वे अपने-आपको तारते हैं और स्वर्ग में जाते हैं।
युवनाश्व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये।
महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय -(81) श्लोक- (21-47) में गोलोक का भी वर्णन है।
अहिर्बुध्न्यसंहिता के अनुसार, आयुष (आयुस) का तात्पर्य "लंबे जीवन" से है, जो पंचरात्र परम्परा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है। -तदनुसार, "राजा को क्षेत्र, विजय, धन प्राप्त होगा।" लम्बी आयुष और रोगों से मुक्ति। जो राजा नियमित रूप से पूजा करता है, वह सातों खंडों और समुद्र के वस्त्र सहित इस पूरी पृथ्वी को जीत लेगा।
पाञ्चरात्र वैष्णव धर्म की एक परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जहां केवल विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। आयुस ने इस परम्परा का पालन किया।
गोप परम्परा का आदि प्रवर्तक गायत्री माता के परिवार के बाद पुरुरवा ही है।
नहुष का ययाति नाम का एक पुत्र था जिससे ,यदु तुरुवसु और अन्य तीन पुत्र पैदा हुए। यदु और पुरु के दो राजवंश (यदुवंश और पुरुवंश) आनुवांशिक परम्परा से उत्पन्न हुए हैं।
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'ययाति का यदु को देवयानी और शर्मिष्ठा को मारने का आदेश देना ,परन्तु यदु द्वारा ऐसा न करने पर ययाति द्वारा यदु को ही शाप देना"
पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80) |
"कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।
देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।
"सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।
तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।
रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।
दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।
****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।
सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।
प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।
मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।
दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।
पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।
यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।
यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।
एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।
रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।
बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।
अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।
तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।
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