सोमवार, 30 मार्च 2020

नन्द और वसुदेव सजातीय गोप बन्धु तथा हूण किरात शक और यवन आदि का हैहयवंश के यादवों में विलय...

यादवों का गुप्त और गोप नामक विशेषण उनकी गो पालन व रक्षण प्रवृत्तियों के कारण हुआ ...
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(हरिवंशपुराण एक समीक्षात्मक अवलोकन ...)

हरिवंशपुराण के हरिवंश पर्व में  दशम अध्याय का 36वाँ वह श्लोक  जिसमें यादवों को गुप्त विशेषण से अभिहित किया गया है ।
इस सन्दर्भ में देखें -
रेवत के प्रसंंग में  यह श्लोक विचारणीय है 👇
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कृतां द्वारवतीं नाम्ना बहुद्वारा मनोरमाम् । 
भोजवृष्णन्यकैर्गुप्तां वासुदेव पुरोगमै:।।36।

(उस समय उस पुरी में ) बहुत से दरबाजे बन गये थे ।
और वसुदेव आदि भोज, वृष्णि और अन्धक वंशी यादव उस रमणीय पुरी के गुप्त( रक्षण करने वाले ) थे ।।36।

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बाहोर्व्यसनिस्तात हृतं राज्यभूत् किल।
हैहयैस्तालजंघैश्च शकै: शार्द्धं विशाम्पते ।3।

यवना : पारदाश्चेैव काम्बोजा: पह्लवा: खसा: ।।
एते ह्यपि गणा: पञ्च हैहयार्थे पराक्रमान् ।।4। 

(हरिवंशपुराण के हरिवंश पर्व के चौदहवें अध्याय में  ) इन दौनों श्लोको में वर्णन है कि 👇

यवन, पारद, कम्बोज, शक, और खस ये सभी गण हैहयवंश के यादवों के सहायक थे ।

वैश्म्पायन जी बोले – हे राजन् ! राजा बाहू शिकार और जुए आदि व्यसनों में पड़ा रहता था ; तात ! इस अवसर से लाभ उठाकर बाहु के राज्य को हैयय , तालजंघ और शकों ने छीन लिया।।3।।

यवन, पारद, कम्बोज, शक, और खस इन सभी गणों ने हैहयवंश के यादवों के लिए पराक्रम किया था।।4।

 इस प्रकार राज्य के छिन जाने पर राजा बाहू वन को चला गया और उसकी पत्नी भी उसके पीछे-पीछे गई उसके बाद उस राजा ने दुखी होकर वन में ही अपने प्राणों को त्याग दिया ।5।।

 उसकी पत्नी यदुवंश की कन्या थी; वह गर्भवती थी ; बाहु के पीछे -पीछे वह भी वन में गई थी उसकी सौत (सपत्नी) ने उसे पहले ही विष( गर) दे दिया था ।6।।

 तब  वह स्वामी की चिता बनाकर उस पर चढ़ने लगी उसी समय वन में विराजमान भृगुवंशी  और्व ऋषि ने दया के कारण उसे रोका।। 7।।

तब बाहू की गर्भवती पत्नी ने और्व ऋषि के आश्रम में ही विष (गर) सहित एक शिशु को जन्म दिया जो आगे चलकर सगर नामक महाबाहू राजा के रूप में प्रसिद्ध हुआ ; 
राजा सगर कभी धर्म से पतित नहीं हुए ।8।।

  निम्नलिखित श्लोकांशों में हैहयवंश के यादवों का तथा शकों ,हूणों यवनों और पह्लवों का विलय दर्शाया गया है ।।

विदित हो की परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में आभीर शब्द का ही प्रयोग हूणों ,यवनों, और ,पह्लवों ,तथा किरातों के साथ बहुतायत से हुआ है ।
ये लोग विदेशी हैं या नहीं इसका साक्ष्य तो भारतीय ग्रन्थों में भी कहीं नहीं है अपितु  इन जन-जातियों को अहीरों कों छोड़ कर नन्दनी गाय के विभिन्न अंगों से उत्पन्न दर्शाया है ।
वह भी क्षत्रिय के रूप में ...
जिसके विवरण हम यथाक्रम देंगे 
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तत: शकान् सयवनान् काम्बोजान्  पारदांस्तथा ।
पह्लवांश्चैव नि:शेषान् कर्तुं व्यवसितस्तदा ।।12।।

बड़े होकर सगर ने ही तत्पश्चात शक ,यवन पारद कम्बोज शक और पह्लवों को पूर्णत: समाप्त करने का निश्चय किया ।।12।।

तब महात्मा सगर उनका सर्वनाश करने लगे तब वे (शक, यवनादि) वशिष्ठ की शरण में गये वशिष्ठ ने कुछ विशेष शर्तों पर ही उन्हें अभय दान दिया  और सगर को ( उन्हें शक यवनादि) को मारने से रोका ।14।।

इसी अध्याय के 18 वें श्लोक में वर्णन है कि  शक, यवन, काम्बोज,पारद, कोलिसर्प, महिष, दरद, चोल, और केरल ये सब क्षत्रिय ही थे । 

महात्मा सगर ने वशिष्ठ जी के वचन से इन सब का संहार न करके केवल इनका धर्म नष्ट कर दिया ।।18-19।।👇

शका यवना काम्बोजा: पारदाश्च विशाम्पते !
  कोलिसर्पा: स  महिषा दार्द्याश्चोला: सकरेला :।।18।

(हरिवंशपुराण हरिवंश पर्व चौदहवाँ अध्याय )

इसी अध्याय के 20 वें श्लोक में वर्णन है कि उन धर्म विजयी राजा सगर ने अश्वमेध की दीक्षा लेकर 
खस , तुषार(कुषाण)चोल ,मद्र ,किष्किन्धक,कौन्तल ,वंग, 
शाल्व, और कौंकण देश के राजाओं को जीता । 

 इस प्रकार सगर  ने पृथ्वी विजयी करने लिए अपना घोड़ा छोड़ा ।।-20-21।। देखें निम्नलिखित श्लोक👇

खसांस्तुषारांश्चोलांश्च मद्रान् किष्किन्धकांस्तथा ।
कौन्तलांश्च तथा वंगान् साल्वान् कौंकणकांस्तथा ।।20।।
(हरिवंशपुराण हरिवंश पर्व चौदहवाँ अध्याय )

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वस्तुत प्रस्तुत श्लोकों में आभीर शब्द के रूप में हैहयवंश यादवों का प्रयोग किया है परवर्ती ब्राह्मणों ने आभीरों का प्रयोग शक, यवन ,हूण कुषाण (तुषार) आदि के साथ वर्णित किया है ।

जबकि भागवत पुराण में अहीर हूणों और किरातों  शकों और यवनों के सहवर्ती हैं।
 इसका प्रमाण नीचे  लिखा श्लोक है :-
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किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: 
आभीर शका यवना खशादय :।

येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति 
तस्यै प्रभविष्णवे नम:। (श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८) 

अर्थात् किरात, हूण ,पुलिन्द ,पुलकस ,आभीर ,शक, यवन ( यूनानी) और खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जातियाँ यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं ;
 उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है।
श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ 
यद्यपि यह श्लोक प्रक्षिप्त है । 
तो भी यहांँ विचारणीय तथ्य यह है कि आभीर हूणों यवनों और पह्लवों तथा किरातों के सहवर्ती व सहायक रहे हैं ।
कुछ हूणों ने आभीरों में विलय किया जो अब गुर्जरों का एक गोत्र या वर्ग है ।
🐂

सगर का वर्णन सुमेरियन माइथोलॉजी में भी सार्गोन के रूप में है ।
और ईरानी माइथोलॉजी अवेस्ता ए जेन्द में वशिष्ठ का रूप "वहिश्त" के रूप में  है ।
 वहिश्त पुरानी फारसी में स्वर्ग के अर्थ में रूढ़ है ।

हरिवंशपुराण के हरिवंश पर्व चौंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या १-२-३- पर  यदुवंशीयों के उत्पत्ति सन्दर्भ में निम्नलिखित श्लोक हैं 👇
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गान्धारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्य्ये बभूवतु: ।
गान्धारी जनयामास अनमित्रं महाबलम् ।।१।

अर्थात् क्रोष्टा की गांधारी और माधुरी नाम की दो पत्नियां थी ; गांधारी के गर्व से महाबली अनमित्र उत्पन्न हुए ।१।

माद्री युधाजितं पुत्रं ततो८न्यं देवमीढुषम् ।
तेषां वंशस्त्रिधा भूतो वृष्णीनां कुलवर्धनं ।। २।

माद्री के पुत्र युधाजित और दूसरे पुत्र देवमीढुष हुए वृष्णियों के कुल को बढ़ाने वाला उनका वंश तीन शाखाओं में बँट गया ।२।

माद्र्या: पुत्रस्य जज्ञाते सुतौ वृष्ण्यन्धकावुभौ ।
जज्ञाते तनयौ वृष्णे: श्वफलकश्चित्रकस्तथा ।३।।

माद्री के पुत्र युधाजित वृष्णि (वृष्णि वंश में उत्पन्न दूसरा वृष्णि) और अन्धक नाम के दो पुत्र हुए और वृष्णि के पुत्र स्वफलक और चित्रक हुए ।३।

विदित हो कि बारहसैनी बनिया जो बरसाने से सम्बद्ध हैं उनके पूर्वज भी यही युधाजित के पुत्र वृष्णि हैं ।।

गीताप्रेस गोरखपुर के संस्करण में एक श्लोक स्थानान्तिरित या हटा दिया गया  है- 
वर्तमान में इतना ही श्लोक है ।

अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः । 
महिष्यां जज्ञिरे शूराद् भोज्यायां पुरुषा दश ॥ १७ ॥ 

वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुन्दुभिः । 
जज्ञे यस्य प्रसूतस्य दुन्दुभ्यः प्रणदन् दिवि ॥ १८ ॥ 

आनकानां च संह्रादः सुमहानभवद् दिवि । 
पपात पुष्पवर्षं च शूरस्य भवने महत् ॥ १९ ॥

मनुष्यलोके कृत्स्नेऽपि रूपे नास्ति समो भुवि ।
यस्यासीत् पुरुषाग्र्यस्य कान्तिश्चन्द्रमसो यथा ॥ २० ॥ 

देवभागस्ततो जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः । 
अनाधृष्टिः कनवको वत्साअवानथ गृञ्जिमः ॥ २१ ॥ 

श्यामः शमीको गण्डूषः पञ्च चास्य वराङ्गनाः । 
पृथुकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवा श्रुतश्रवाः ॥ २२ ॥ 

राजाधिदेवी च तथा पञ्चैता वीरमातरः । 
पृथां दुहितरं वव्रे कुन्तिस्तां कुरुनन्दन ॥ २३ ॥ 

शूरः पूज्याय वृद्धाय कुन्तिभोजाय तां ददौ ।
तस्मात् कुन्तीति विख्याता कुन्तिभोजात्मजा पृथा २४ ॥ 

अन्त्यस्य श्रुतदेवायां जगृहुः सुषुवे सुतः । 
श्रुतश्रवायां चैद्यस्य शिशुपालो महाबलः ॥ २५॥ 

हिरण्यकशिपुर्योऽसौ दैत्यराजोऽभवत् पुरा । 
पृथुकीर्त्यां तु तनयः संजज्ञे वृद्धशर्मणः ॥ २६ ॥ 

करूषाधिपतिर्वीरो दन्तवक्त्रो महाबलः । 
पृथां दुहितरं चक्रे कुन्तिस्तां पाण्डुरावहत् ॥ २७॥ 

यस्यां स धर्मविद् राजा धर्माज्जज्ञे युधिष्ठिरः । 
भीमसेनस्तथा वातादिन्द्राच्चैव धनञ्जयः ॥ २८॥ 

लोकेऽप्रतिरथो वीरः शक्रतुलयपराक्रमः । 
अनमित्राच्छिनिर्जज्ञे कनिष्ठाद् वृष्णिनन्दनात् ॥ २९॥ 

शैनेयः सत्यकस्तस्माद् युयुधानश्च सात्यकिः ।
असङ्गो युयुधानस्य भूमिस्तस्याभवत् सुतः ॥ ३०॥ 

भूमेर्युगधरः पुत्र इति वंशः समाप्यते । 
उद्धवो देवभागस्य महाभागः सुतोऽभवत् । 
पण्डितानां परं प्राहुर्देवश्रवसमुद्भवम् ॥ ३१ ॥ 

अश्मक्यां प्राप्तवान् पुत्रमनाधृष्टिर्यशस्विनम् । 
निवृत्तशत्रुं शत्रुघ्नं देवश्रवा व्यजायत ॥ ३२ ॥ 

देवश्रवाः प्रजातस्तु नैषादिर्यः प्रतिश्रुतः । 
एकलव्यो महाराज निषादैः परिवर्धितः ॥ ३३॥ 

वत्सावते त्वपुत्राय वसुदेवः प्रतापवान् । 
अद्भिर्ददौ सुतं वीरं शौरिः कौशिकमौरसम् ॥ ३४॥ 

गण्डूषाय त्वपुत्राय विष्वक्सेनो ददौ सुतान् । 
चारुदेष्णं सुचारुं च पञ्चालं कृतलक्षणम् ॥ ३५॥ 

असंग्रामेण यो वीरो नावर्तत कदाचन । 
रौक्मिणेयो महाबाहुः कनीयान् पुरुषर्षभ ॥ ३६॥ 

वायसानां सहस्राणि यं यान्तं पृष्ठतोऽन्वयुः । 
चारुमांसानि भोक्ष्यामश्चारुदेष्णहतानि तु॥३७॥ 

तन्द्रिजस्तन्द्रिपालश्च सुतौ कनवकस्य तु । 
वीरश्चाश्वहनश्चैव वीरौ तावावगृञ्जिमौ ॥ ३८॥

श्यामपुत्रः शमीकस्तु शमीको राज्यमावहत् । 
जुगुप्समानौ भोजत्वाद् राजसूयमवाप सः । 
अजातशत्रुः शत्रूणां जज्ञे तस्य विनाशनः ॥ ३९॥ 

वसुदेवसुतान् वीरान् कीर्तयिष्यामि ताञ्छृणु ॥४०॥ 

वृष्णेस्त्रिविधमेतत् तु बहुशाखं महौजसम् । 
धारयन् विपुलं वंशं नानर्थैरिह युज्यते ॥ ४१ ॥ 

इति श्रीमहाभारते खिलेषु हरिवंशे हरिवंशपर्वणि 
वृष्णिवंशकीर्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः 

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'परन्तु वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में 
ये श्लोक इस प्रकार हैं 

देवमीढुष पुल्लिंग :- हृदीकस्य पुत्रभेदे “तस्यापि (हृदीकस्यापि)
कृतवर्मशतधनुर्देवमीढुषाद्याः पुत्रा बभूवु” श्रीधरधृत
पराशरः ।

( २) देवमीढे वसुदेवपितामहे च “अश्मक्यां जनयामास शूरं वै देवमीढुषः ।
 महिष्यां जज्ञिरे शूराद्भोज्याषां पुरुषा दश । १७।।

 वसुदेवो महाबाहुः पर्वमानक
दुन्दुभिः” इत्यादि( हरिवशं पर्व ३५ अध्याय ।

क्रोष्टुवंश्ये ३ नृपभेदे ✍💞
“गान्धारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्य्ये बभूवतुः । 
गान्धारी जनयामास अनासत्रं
महाबलम् ।१।।

 माद्री युधाजितं पुत्रं ततोऽन्यं देवमीढुषम् । 
तेषां वंशस्त्रिधा भूतो वृष्णीनां कुलवर्द्धनः।२।
हरिवंश पर्व  ३५ अध्याय ।

केवल हिन्दी अनुवाद सत्रहवें और उन्नीसवें श्लोकों का...
क्रोष्टा के तृतीय पुत्र देवमीढुष के अशमकी नाम की पत्नी से शूर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ;
 शूर के इस भोजराजकुमारी से दश पुत्र उत्पन्न हुए ।17।

शूर के पहले वसुदेव महाबाहू उपनाम आनकदुन्दुभी  उत्पन्न हुए ( इनके उत्पन्न होने पर आकाश में दुन्दुभियाँ बजीं थीं तथा स्वर्ग या आकाश में नगाड़ों का भारी शब्द हुआ इसी कारण वसुदेव का नाम आनकदुन्दुभी पड़ा। 
साथ ही इनके शूर के घर में उत्पन्न होने पर भारी वर्षा हुई थी। ।19 ।

इन दौनों उपर्युक्त श्लोकों में  ये निम्नलिखित श्लोकांश नहीं हैं।
जो मध्वाचार्य ( माधवाचार्य)की भागवत टीका पर आधरित हैं ।👇


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ये श्लोक माधवाचार्य की भागवत टीका पर आधरित हैं 👇
देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवु: महामता: ।
अश्मिकासतप्रभाश्च गुणवत्य:राज्ञ्यो रूपाभि:।१।

अर्थ:- देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं ।
अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती रूप के अनुसार हुईं ।१।

अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।
सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।
अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया
और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२

गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् 
अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य: यशस्विना।३।
अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए 
अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३

पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।।
 ये गोपालनं  कर्तृभ्यः लोके गोपारुच्यन्ते ४
अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए 
ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४

 गौपालनेन गोपा: निर्भीकेभ्यश्च  आभीरा ।
यादवा लोकेषु वृत्तिभि: प्रवृत्तिभिश्च ब्रुवन्ति ।५।।
गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर
यादव ही लोगों में गोप और आभीर कहलाते हैं ५

आ समन्तात् भियं राति ददीति ।
शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति
 ।६। 
शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६

अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।
वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर: बभूव ।।७।
अर्थ:- ( वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है )उससे आर्य्य शब्द हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर से आवीर और उससे ही आभीर शब्द हुआ।७

ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति ।
भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत ।
अर्थ:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का 
ईश्वर के रूप में वर्णन करता है ।
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"यस्यायं विश्व आर्यो दास: शेवधिपा अरि:
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सोअज्यते रयि:|९ 
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अर्थात्-- जो अरि इस  सम्पूर्ण विश्व का तथा आर्य और दास दौनों के धन का पालक अथवा रक्षक है ,
जो श्वेत पवीरु के अभिमुख होता है ,
वह धन देने वाला ईश्वर तुम्हारे साथ सुसंगत है ।

ऋग्वेद के दशम् मण्डल सूक्त( २८ )श्लोक संख्या (१)
देखें- यहाँ भी अरि: देव अथवा ईश्वरीय सत्ता का वाचक है 

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अपिच  👇

" विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम ,
               ममेदह श्वशुरो ना जगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् 
              स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् ।।
ऋग्वेद--१०/२८/१
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ऋषि पत्नी कहती है !  कि   देवता  निश्चय हमारे यज्ञ में आ गये (विश्वो ह्यन्यो अरिराजगाम,)
परन्तु मेरे श्वसुर नहीं आये इस यज्ञ में (ममेदह श्वशुरो ना जगाम )यदि वे आ जाते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते (जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् )और फिर अपने घर को लौटते (स्वाशित: पुनरस्तं जगायात् )

प्रस्तुत सूक्त में अरि: युद्ध के देव वाचक है ।
देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने और असुर संस्कृति के उपासक आर्यों ने अर्थात् असुरों ने अरि: अथवा अलि की कल्पना युद्ध के अधिनायक के रूप में की थी ।

सैमेटिक संस्कृति में "एल " एलोहिम तथा इलाह इसी के  विकसित है ।

यूनानी पुराणों में अरीज् युद्ध का ही देवता है ।
हिब्रूू बाइबिल में यहुदह् Yahuda के पिता को अबीर कहा गया है और अबीर शब्द ईश्वर का  बाचक है हिब्रूू बाइबिल में ...
विशेष :- लौकिक संस्कृत भाषा में अरि शब्द के अर्थ १-शत्रु २- पहिए का अरा ३- घर भी है ।
जबकि वैदिक कालीन भाषा में अरि का अर्थ ईश्वर और घर ही है ।

(अर् )ऋ--इन् :-१ शत्रौ 

२ रथाङ्गे, चक्रे,

 ३ विट्खदिरे, 

४ कामक्रोधलोभमोहमदमात्सर्येषु षट्सु, तत्संख्यासाम्यात् 

५ षट्संख्यायां, 

६ ज्योतिषप्रसिद्धे लग्नावधिके षष्ठस्थाने 

७ ईश्वरे च वेदेषु ।


संस्कृत विद्वान उपर्युक्त तथ्यों का विश्लेषण स्वं कर सकते हैं
प्रस्तुति-करण :-यादव योगेश कुमार 

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उपर्युक्त श्लोकांश कि परिवर्तन से  वाचस्पत्यम् संस्कृत कोश में 
हरिवंशपुराण की प्राचीनत्तम प्रति के सन्दर्भ से उद्धृत हैं ।
 जिन्हें गीताप्रेस गोरखपुर के 
संस्करण में समाविष्ट नहीं किया गया है ।
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देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।

राजा हृदीक के तीन'  पुत्र थे ।
देवमीढ सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में कहा गया है कि ...👇

अन्धकस्य सुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव :
रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८। 
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )

यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है ।

 रैवत के विश्वगर्भ अर्थात्‌ देवमीढ़ हुए 
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तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्र लोकपालोपमा: शुभा: ।

देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,
और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।

देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे ।
जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के ।

वसु वभ्रु: सुषेणश्च , सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।
यदु प्रवीण: प्रख्याता  लोकपाला इवायरे ।।५०।
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सत्य प्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु
 ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए ।
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शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।

और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
👇-💐☘
  देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।
चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।

नाभागो दिष्ट पुत्रो८न्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।
भलनन्दन: सुतस्तस्य वत्स प्रीतिर् भलन्दनात् ।२३।
दिष्ट के पुत्र का नाम नाभाग था यह उस ना भाग से पृथक है जिसका मैं आगे वर्णन करुँगा ।
वह अपने कर्म से वैश्य हो गया उसका पुत्र भलन्दन हुआ और भलन्दन का पुत्र वत्सप्रीति ।२३।
(भागवत पुराण ९/२/२३)

तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।

भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ  इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल का था । 
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇

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श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते ।
पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।।
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वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।

लेखक का मत है कि देवमीढ़ की दो पत्नियाँ विशेष थीं एक चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती और दूसरी अशमक की पुत्री अश्मिका और गुणवती के पर्जन्य आदि तीन पुत्र 
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 प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये ।
 द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा तृत्तीय 
तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।

देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।

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 देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम् 
 तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।।
तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना नन्द:।।

नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी ।और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।

उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं ।
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माधवाचार्य ने भागवत पुराण सी टीका में लिखा :-
माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति 
ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमो८थ गोप इति प्राहु।५७।

एवमन्ये८पि गोपा यादवविशेष: 
एव वैश्योद् भवत्वात् ।
अतएव स्कन्धे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)

अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्ध पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
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 वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है ।
पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति 
भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त
ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं)

संस्कृत कोश के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन कुल के विषय में वर्णन है ।👇

यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।
यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । 
इतिमेदिनी कोष:)
परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्ता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।
और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।

जैसे  अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।
'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें 
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि - गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍

देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।
चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।

नाभागो दिष्ट पुत्रो८न्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।
तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।

भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ  इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल का था । 
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇

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श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते ।
पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।।
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वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।

लेखक का मत है कि देवमीढ़ की दो पत्नियाँ विशेष थीं एक चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती और दूसरी अशमक की पुत्री अश्मिका और गुणवती के पर्जन्य आदि तीन पुत्र 
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 प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये ।
 द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा तृत्तीय 
तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।

देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।

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 देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम् 
 तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।।
तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना नन्द:।।

नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी ।और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।

उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं ।
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माधवाचार्य ने भागवत पुराण सी टीका में लिखा :-
माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति 
ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमो८थ गोप इति प्राहु।५७।

एवमन्ये८पि गोपा यादवविशेष: 
एव वैश्योद् भवत्वात् ।
अतएव स्कन्धे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)

अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्ध पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
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 वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है ।
पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति 
भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त
ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं)



 महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में  नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। 

और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; एेसा वर्णन है । 
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहाँ कहा है ?
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।२७।

गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में 
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा 
।२१। कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।

उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।

इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।

मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।

कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं 
२४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)

पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की 
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) 
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय 
पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)।

अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। 
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।

नारायणी सेना गोपों ने ही पंजाब प्रदेश में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था वे भी गोप अहीर नामान्तर 
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प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले 
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से 
यह प्रक्षिप्त (नकली)श्लोक उद्धृत करते हैं ।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले !अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है ।
इसे देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । 
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। 

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । 
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 

परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!

( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है। 

बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये. महाभारत का मूसल पर्व और वाल्मीकि-रामायण का अन्तिम उत्तर काण्ड धूर्त और मूर्खों की ही रचनाऐं हैं।

क्योंकि गायों से गदहा और खच्चरियों से हाथी तथा कुत्तों से विलौटा भी उत्पन्न होते हैं।

व्यजानयन्त खरा गोषु करभा८श्वतरीषु च ।
शुनीष्वापि बिडालश्च मूषिका नकुलीषु च।९।

अर्थात् गायों के पेट से गदहे तथा खच्चरियों से हाथी । कुतिया से बिलोटा ,और नेवलियों के गर्भ से चूहा उत्पन्न होने लगे ।
(महाभारत मूसल पर्व द्वित्तीय अध्याय)
महाभारत मूसल पर्व में कृष्ण की सैकड़ों  पत्नियों
का भी उल्लेख भागवतपुराण के ही समान है ।

अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। 
यह भी देखें-व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है :-

" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: । 
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: ।।

अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।

और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: 
कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न
 स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो 
नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। 

एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: 
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।

 वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 

चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।

और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं ।
 इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।

अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।

 शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। . 
(व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये 

 
इतना ही नहीं रूढ़ि वादी अन्ध-विश्वासी ब्राह्मणों ने यूनान वासीयों हूणों,पारसीयों पह्लवों शकों द्रविडो सिंहलों तथा पुण्डीरों (पौंड्रों) की उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि मूत्र गोबर आदि से बता डाली है।👇
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असृजत् पह्लवान् पुच्छात्  
प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान् 
(द्रविडान् शकान्)।योनिदेशाच्च यवनान् 
शकृत: शबरान् बहून् ।३६।

मूत्रतश्चासृजत् कांश्चित् शबरांश्चैव पार्श्वत: ।
पौण्ड्रान् किरातान् यवनान् 
सिंहलान् बर्बरान् खसान् ।३७। 
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यवन,शकृत,शबर,पोड्र,किरात,सिंहल,खस,द्रविड,पह्लव,चिंबुक, पुलिन्द, चीन , हूण,तथा केरल आदि जन-जातियों की काल्पनिक व हेयतापूर्ण व्युत्पत्तियाँ  अविश्वसनीय हैं ।
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•नन्दनी गाय ने पूँछ से पह्लव उत्पन्न किये ।
•तथा धनों से द्रविड और शकों को।
•यौनि से यूनानीयों को  और गोबर से शबर उत्पन्न हुए।
कितने ही शबर उसके मूत्र ये उत्पन्न हुए उसके पार्श्व-वर्ती भाग से पौंड्र किरात यवन सिंहल बर्बर और खसों की सृष्टि ।३७।

ब्राह्मण -जब किसी जन-जाति की उत्पत्ति-का इतिहास न जानते तो उनको विभिन्न चमत्कारिक ढ़गों से उत्पन्न कर देते । 

अब इसी प्रकार की मनगड़न्त उत्पत्ति अन्य पश्चिमीय एशिया की जन-जातियों की कर डाली है देखें--नीचे👇
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चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससरज फेनत: सा गौर् म्लेच्छान् बहुविधानपि ।३८।

इसी प्रकार गाय ने फेन से चिबुक  ,पुलिन्द, चीन ,हूण केरल, आदि बहुत प्रकार के म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई ।
(महाभारत आदि पर्व चैत्ररथ पर्व १७४वाँ अध्याय)
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भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहद्अट्टाल संवृतम् ।
दृढ़प्राकार निर्यूहं शतघ्नी जालसंवृतम् ।।

तोपों से घिरी हुई यह नगरी बड़ी बड़ी अट्टालिका वाली है ।
(महाभारत आदि पर्व विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व ।१९९वाँ अध्याय )

वाल्मीकि रामायण के बाल काण्ड के चौवनवे सर्ग में वर्णन है कि 👇
-जब विश्वामित्र का वशिष्ठ की गोै को बलपूर्वक ले जाने के सन्दर्भ में दौनों की लड़ाई में हूण, किरात, शक और यवन आदि जन-जाति उत्पन्न होती हैं ।

अब इनके इतिहास को यूनान या चीन में या ईरान में खोजने की आवश्यकता नहीं।
👴...

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सुरभि: सासृजत् तदा ।
तस्या हंभारवोत्सृष्टा: पह्लवा: शतशो नृप।।18।

राजकुमार उनका 'वह आदेश सुनकर उस गाय ने उस समय वैसा ही किया उसकी हुँकार करते ही सैकड़ो पह्लव जाति के वीर (पहलवान)उत्पन्न हो गये।18।

पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पह्लवाञ्शतशस्तदा ।20।

भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रतान् ।।
तैरासीत् संवृता भूमि: शकैर्यवनमिश्रतै:।21।।

उन्होंने छोटे-बड़े कई तरह के अस्त्रों का प्रयोग करके उन पहलवानों का संहार कर डाला विश्वामित्र द्वारा उन सैकडौं पह्लवों को पीड़ित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबल गाय ने पुन: यवन मिश्रित जाति के भयंकर वीरों को उत्पन्न किया उन यवन मिश्रित शकों से वहाँ की सारी पृथ्वी भर गई 20 -21।

ततो८स्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह।
तैस्ते यवन काम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृता ।23।

तब महा तेजस्वी विश्वामित्र ने उन पर बहुत से अस्त्र छोड़े उन अस्त्रों की चोट खाकर वे यवन ,कांबोज और बर्बर जाति के योद्धा व्याकुल हो उठे ।23।।

अब इसी बाल-काण्ड के पचपनवें सर्ग में भी देखें---
कि यवन गाय की यौनि से उत्पन्न होते हैं 
और गोबर से शक उत्पन्न हुए थे ।

योनिदेशाच्च यवना: शकृतदेशाच्छका: स्मृता।
रोमकूपेषु म्लेच्‍छाश्च हरीता सकिरातका:।3।

यौनि देश से यवन शकृत् देश यानि( गोबर के स्थान) से शक उत्पन्न हुए  रोम कूपों म्लेच्‍छ, हरित ,और किरात उत्पन्न हुए।3।।

यह सर्व विदित है कि बारूद का आविष्कार चीन में हुआ 
बारूद की खोज के लिए सबसे पहला नाम चीन के एक व्यक्ति ‘वी बोयांग‘ का लिया जाता है।

कहते हैं कि सबसे पहले उन्हें ही बारूद बनाने का आईडिया आया.
माना जाता है कि  चीन के "वी बोयांग" ने अपनी खोज के चलते तीन तत्वों को मिलाया और उसे उसमें से एक जल्दी जलने वाली चीज़ मिली.
 बाद में इसको ही उन्होंंने ‘बारूद’ का नाम दिया.

300 ईसापूर्व में ‘जी हॉन्ग’ ने इस खोज को आगे बढ़ाने का फैसला किया और कोयला, सल्फर और नमक के मिश्रण का प्रयोग बारूद बनाने के लिए किया.

 इन तीनों तत्वों में जब उसने पोटैशियम नाइट्रेट को मिलाया तो उसे मिला दुनिया बदल देने वाला ‘गन पाउडर‘ बन गया ।
बारूद का वर्णन होने से ये मिथक अर्वाचीन हैं ।
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 हरिवंशपुराण पुरण के समान ब्रह्म-पुराण के पाँचवें अध्याय" में भी  सूर्य्यः वंश वर्णन" में एक प्रसंग है ।👇

बाहोर्व्यसनिन : पूर्व्वं हृतं राज्यमभूत् किल।
हैहयैंस्तालजंघैश्च शकै: सार्द्ध द्विजोत्तमा: ।35।

यवना: पारदाश्चैव काम्बोजा : पह्लवास्तथा।
एते ह्यपि गणा: पञ्च हैहयार्थे पराक्रमम् ।36।

लोमहर्षण जी ने कहा हे ब्राहमणों यह बाहू राजा पहले बहुत ही व्यसनशील था । 

इसलिए शकों के साथ हैहय और तालजंघो ने इसका राज्य से छीन लिया ।
यवन ,पारद, कम्बोज और पह्लव  तथा हूण यह भी पांच गण थे जो 
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यद्यपि इतिहास कारों ने भारत में शकों का आगमन 300 ईसापूर्व में मध्य एशिया के पज़ियरिक क्षेत्र से  निश्चित किया है ये शक (स्किथी) घुड़सवार थे ।

शक प्राचीन मध्य एशिया में रहने वाली स्किथी लोगों की एक जनजाति या जनजातियों का समूह था।

 इनकी सही नस्ल की पहचान करना कठिन रहा है क्योंकि प्राचीन भारतीय, ईरानी, यूनानी और चीनी स्रोत इनका अलग-अलग विवरण देते हैं। 

भारतीय पुराणों में इन्हें पतित क्षत्रिय बताया है ।
फिर भी अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि 'सभी शक स्किथी थे, लेकिन सभी स्किथी शक नहीं थे', 

तात्पर्य यह  'शक' स्किथी समुदाय के अन्दर के कुछ हिस्सों का जाति नाम था।

 स्किथी विश्व के भाग होने के नाते शक एक प्राचीन ईरानी भाषा-परिवार की बोली बोलते थे और इनका अन्य स्किथी-सरमती लोगों से सम्बन्ध था।

 शकों का भारत के इतिहास पर गहरा असर रहा है क्योंकि यह "युएझ़ी "लोगों के दबाव से भारतीय उपमहाद्वीप में घुस आये और उन्होंने यहाँ एक बड़ा साम्राज्य बनाया।

 आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय कैलंडर 'शक संवत' कहलाता है।
 बहुत से इतिहासकार इनके दक्षिण एशियाई साम्राज्य को 'शकास्तान' कहने लगे हैं, जिसमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, सिंध, ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा और अफ़्ग़ानिस्तान शामिल थे।
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शक प्राचीन देव संस्कृति के वैदिक कालीन सम्बन्धी रहे हैं जो शाकल द्वीप पर बसने के कारण शाक अथवा शक कहलाये. ।

भारतीय पुराण इतिहास के अनुसार शक्तिशाली राजा सगर (Sargon-I) द्वारा देश निकाले गए थे व लम्बे समय तक निराश्रय रहने के कारण अपना सही इतिहास सुरक्षित नहीं रख पाए।

 हूणों द्वारा शकों को शाकल द्वीप क्षेत्र से भी खदेड़ दिया गया था।
 जिसके परिणाम स्वरुप शकों का कई क्षेत्रों में बिखराव हुआ। 

वर्तमान में ये रोड़ जाति है जो करनाल के आसपास  बसे हुए हैं।
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विशेष— पुराणों में इस जाति की उत्पत्ति सूर्यवंशी राजा नरिष्यंत से कही गई है।

 राजा सगर ने राजा नरिष्यंत को राज्यच्युत तथा देश से निर्वासित किया था।

 वर्णाश्रम आदि के नियमों का पालन न करने के कारण तथा ब्राह्मणों से अलग रहने के कारण वे म्लेच्छ हो गए थे। 
उन्हीं के वंशज शक कहलाए।

आधुनिक विद्वनों का मत है कि मध्य एशिया पहले शकद्वीप के नाम से प्रसिद्ध था। 

यूनानी इस देश को 'सीरिया' कहते थे। 
उसी मध्य एशिया के रहनेवाला शक कहे जाते है।

 एक समय यह जाति बड़ी प्रतापशालिनी हो गई थी।
 ईसा से दो सौ वर्ष पहले इसने मथुरा और महाराष्ट्र पर अपना अधिकार कर लिया था। 

ये लोग अपने को देवपुत्र कहते थे। 
इन्होंने  190 वर्ष तक भारत पर राज्य किया था। 
इनमें कनिष्क और हविष्क आदि बड़े बड़े प्रतापशाली राजा हुए हैं।

भारत के पश्चिमोत्तर भाग कापीसा और गांधार में यवनों के कारण ठहर न सके और बोलन घाटी पार कर भारत में प्रविष्ट हुए।

 तत्पश्चात् उन्होंने पुष्कलावती एवं तक्षशिला पर अधिकार कर लिया और वहाँ से यवन लोग हट गए थे । 

72 ई. पू. शकों का प्रतापी नेता मोअस उत्तर पश्चिमान्त  के प्रदेशों का शासक था। 

उसने महाराजाधिराज महाराज की उपाधि धारण की जो उसकी मुद्राओं पर अंकित है। 

उसी ने अपने अधीन क्षत्रपों की नियुक्ति की जो तक्षशिला, मथुरा, महाराष्ट्र और उज्जैन में शासन करते थे;कालांतर में ये स्वतंत्र हो गए। 

शक विदेशी समझे जाते थे यद्यपि उन्होंने शैव मत को स्वीकार कर किया था। 

मालव जन ने विक्रमादित्य के नेतृत्व में मालवा से शकों का राज्य समाप्त कर दिया और इस विजय के स्मारक रूप में विक्रम संवत् का प्रचलन किया जो आज भी भारतीयों के धार्मिक कार्यों में व्यवहृत है।

 शकों के अन्य राज्यों का शकारि विक्रमादित्य गुप्तवंश के चंद्रगुप्त द्वितीय ने समाप्त करके एकच्छत्र राज्य स्थापित किया।

 शकों को भी अन्य विदेशी जातियों की भाँति भारतीय समाज ने आत्मसात् कर लिया। 
शकों की प्रारंभिक विजयों का स्मारक शक संवत् आज तक प्रचलित है।

पह्लव एक प्राचीन जन जाति जो प्रायः प्राचीन पारसी या ईरानी मानी जाती है।

 मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि प्राचीन पुस्तकों में जहाँ-जहाँ खस, यवन, शक, कांबोज, वाह्लीक, पारद आदि भारत के पश्चिम में बसनेवाली जातियों का उल्लेख है वहाँ-वहाँ पह्लवों का भी नाम आया है।

उपर्युक्त तथा अन्य संस्कृत ग्रंथों में पह्लव शब्द सामान्य रीति से पारस निवासियों या ईरानियों के लिये व्यवहृत हुआ है मुसलमान ऐतिहासिकों ने भी इसको प्राचीन पारसीकों का नाम माना है। 

प्राचीन काल में फारस के सरदारों का 'पहृलवान' कहलाना भी इस बात का समर्थक है कि पह्लव पारसीकों का ही नाम है। 

सासनीय सम्राटों के समय में पारस की प्रधान भाषा और लिपि का नाम पह्लवी पड़ चुका था।

 तथापि कुछ युरोपीय इतिहासविद् 'पह्लव' सारे पारस निवासियों की नहीं केवल पार्थिया निवासियों पारदों— की अपभ्रंश संज्ञा मानते हैं।

पारस के कुछ पहाड़ी स्थानो में प्राप्त शिलालेखों में 'पार्थव' नाम की एक जाति का उल्लेख है। 

डॉ॰ हाग आदि का कहना है कि यह 'पार्थव' पार्थियंस (पारदों) का ही नाम हो सकता है और 'पह्लव' इसी पार्थव का वैसा ही  अपभ्रंश है जैसा अवेस्ता के मिध्र (वै० मित्र) का मिहिर। 

अपने मत की पुष्टि में ये लोग दो प्रमाण और भी देते हैं। एक यह कि अरमनी भाषा के ग्रंथों में लिखा है कि अरसक (पारद) राजाओं की राज-उपाधि 'पह्लव' थी।

 दूसरा यह कि पार्थियावासियों को अपनी शूर वीरता और युद्धप्रियता का बडा़ घमंड था।

 और फारसी के 'पहलवान' और अरमनी के 'पहलवीय' शब्दों का अर्थ भी शूरवीर और युद्धप्रिय है। 

रही यह बात कि पारसवालों ने अपने आपके लिये यह संज्ञा क्यों स्वीकार की और आसपास वालों ने उनका इसी नाम से क्यों उल्लेख किया।

 इसका उत्तर उपर्युक्त ऐतिहासिक यह देते हैं कि पार्थियावालों ने पाँच सौ वर्ष तक पारस में राज्य किया और रोमनों आदि से युद्ध करके उन्हें हराया।

 ऐसी दशा में 'पह्लव' शब्द का पारस से इतना घनिष्ठ संबंध हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

संस्कृत पुस्तकों में सभी स्थलों पर 'पारद' औक 'पह्लव' को अलग अलग दो जातियाँ मानकर उनका उल्लेख किया गया है।

 हरिवंश पुराण में महाराज सगर के द्वारा दोनों की वेशभूषा अलग अलग निश्चित किए जाने का वर्णन है। पह्लव उनकी आज्ञा से 'श्मश्रुधारी' हुए और पारद 'मुक्तकेश' रहने लगे।

 मनुस्मृति के अनुसार 'पह्लव' भी पारद, शक आदि के समान आदिम क्षत्रिय थे और ब्राह्मणों के अदर्शन के कारण उन्हीं की तरह संस्कारभ्रष्ट हो शूद्र हो गए। 

पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44) 

हरिवंश पुराण के अनुसार महाराज सगर न इन्हें बलात् क्षत्रियधर्म से पतित कर म्लेच्छ बनाया। 

इसकी कथा इस प्रकार है कि हैहयवंशी क्षत्रियों ने सगर के पिता बाहु का राज्य छीन लिया था।

 पारद, पह्लव, यवन, कांबोज आदि क्षत्रियों ने हैहयवंशियों की इस काम में सहायता की थी। 

सगर ने समर्थ होने पर ही हैहयवंशियों को हराकर पिता का राज्य वापस लिया।

 उनके सहायक होने के कारण 'पह्लव' आदि भी उनके कोपभाजन हुए।

 ये लोग राजा सगर के भय से भागकर उनके गुरु वशिष्ठ की शरण गए।

 वशिष्ठ ने इन्हें अभयदान दिया।
 गुरु का बचन रखने के लिये सगर ने इनके प्राण तो छोड़ दिए पर धर्म ले लिया, इन्हें छात्र धर्म से बहिष्कृत करके म्लेच्छत्व को प्राप्त करा दिया।

सगर की माता यदुकुल महिला थीं ।
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 वाल्मीकीय रामायण के अनुसार 'पह्लवों' की उत्पत्ति वशिष्ठ की गौ नन्दनी (शबला )के हुंभारव (रँभाने) से हुई है। 
विश्वामित्र के द्वारा हरी जाने पर उसने वशिष्ठ की आज्ञा से लड़ने के लिये जिन अनेक क्षत्रिय जातियों को अपने शब्द से उत्पन्न किया 'पह्लव' उनमें पहले थे।

यूनानियों के बाद शक आए।
शक मूलतः मध्य एशिया के निवासी थे।
शकों की 5 शाखाएं थी और हर शाखा की राजधानी भारत और अफगानिस्तान में अलग-अलग भागों में थी।
पहली शाखा ने अफगानिस्तान, दूसरी शाखा ने पंजाब (राजधानी तक्षशिला ) , तीसरी शाखा ने मथुरा, चौथी शाखा ने पश्चिम भारत एवं पांचवी शाखा के उपरी दक्कन पर प्रभुत्व स्थापित किया।

चारागाह की खोज में सब भारत आए।
58 ईसापूर्व में उज्जैन के विक्रमादित्य द्वितीय ने शकों को पराजित कर के बाहर खदेड़ दिया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।

शकों की अन्य शाखाओं की तुलना में दक्षिण भारत में प्रभुत्व स्थापित करने वाली शाखा ने सबसे लंबे अरसे तक शासन किया।

शकों का सबसे प्रतापी शासक रुद्रदामन प्रथम था जिसका शासन गुजरात के बड़े भूभाग पर था।
रुद्रदामन प्रथम ने काठियावाड़ की अर्धशुष्क सुदर्शन झील (मौर्य द्वारा निर्मित) का जीर्णोद्धार किया।
भारत में शक राजा अपने को छत्रप कहते थे।

यदि  गुर्जर लोग समझते हैं कि वे रघुवंशी हैं 
तो विदित हो कि रघु ने स्वयं हूणों और कम्बोजों को  परास्त कर दिग्विजय प्राप्त की तो  रघुवंशी गुर्जर कौन से हैं ? :-

तत्र हूणावरोधानां भर्तृषु व्यक्तविक्रमम् ।
कपोलपाटलादेशि बभूव रघुचेष्टितम् ॥ ४-६८॥

काम्बोजाः समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वराः ।
गजालानपरिक्लिष्टैरक्षोटैः सार्धमानताः ॥ ४-६९॥

(रघुवंश महाकाव्य चतुर्थ सर्ग )

सभी गुर्जर हूण नहीं गुर्जर एक संघ हैं जिसमें कुषाण (तुषार) हूण भी सामिल हैं ।

हूण  एक प्राचीन मंगोल जाति जो पहले चीन की पूरबी सीमा पर लूट मार किया करती थी, पर पीछे अत्यंत प्रबल होकर एशिया और यूरोप के सभ्य देशों पर आक्रमण करती हुई फैली।

 विशेषत:—हूणों का इतना भारी दल चलता था कि उस समय के बड़े बड़े सभ्य साम्राज्य उनका उवरोध नहीं कर सकते थे।

 चीन की ओर से हटाए गए हूण लोग तुर्किस्तान पर अधिकार करके सन् ४०० ई० से पहले वंक्षु नद (आक्सस नदी) के किनारे आ बसे।

 यहाँ से उनकी एक शाखा ने तो यूरोप के रोम साम्राज्य की जड़ हिलाई और शेष पारस साम्राज्य में घुसकर लूटपाट करने लगे।

 पारस वाले इन्हें 'हैताल' कहते थे। 
कालिदास के समय में हूण वंक्षु के ही किनारे तक आए थे, भारतवर्ष के भीतर नहीं घुसे थे; 

क्योंकि रघु के दिग्विजय के वर्णन में कालिदास ने हूणों का उल्लेख वहीं पर किया है। 

यद्यपि हूणों को रघु के द्वारा परास्त करना विसंगति पूर्ण है 
क्यों की लघ राम के भी पूर्वज हैं और राम समय पौराणिकों द्वारा नौं लाख वर्ष पूर्व है तथा इतिहास कारों द्वारा सात हजार वर्ष पूर्व है।

जैसा कि हमने ऊपर उद्धृत किया है ।
अब यदि हूण विदेशी हैं तो रघुवंश का उनसे क्या मेल ?
और यदि हूण देशी हैं तो उन्हें विदेशी उन्हें क्यों वर्णित किया गया है ?

कुछ आधुनिक प्रतियों में 'वंक्षु' के स्थान पर 'सिंधु' पाठ कर दिया गया है, पर वह ठीक नहीं।

 प्राचीन मिली हुई रघुवंश की प्रतियों में 'वंक्षु' ही पाठ पाया जाता है।

 वंक्षु नद के किनारे से जब हूण लोग फारस में बहुत उपद्रव करने लगे, तब फारस के प्रसिद्ध बादशाह बहराम गोर ने सन् ४२५ ई० में उन्हें पूर्ण रूप से परास्त करके वंक्षु नद के उस पार भगा दिया।

 पर बहराम गोर के पौत्र फीरोज के समय में हूणों का प्रभाव फारस में बढ़ा।

 वे धीरे धीरे फारसी सभ्यता ग्रहण कर चुके थे और अपने नाम आदि फारसी ढंग के रखने लगे थे।

 फीरोज को हरानेवाले हूण बादशाह का नाम खुशनेवाज था। 
जब फारस में हूण साम्राज्य स्थापित न हो सका, तब हूणों ने भारतवर्ष की ओर रुख किया। 

पहले उन्होंने सीमांत प्रदेश कपिश और गांधार पर अधिकार किया, फिर मध्यदेश की ओर चढ़ाई पर चढ़ाई करने लगे।

 गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त इन्हीं चढ़ाइयों में मारा गया।
 इन चढ़ाइयों से तत्कालीन गुप्त साम्राज्य निर्बल पड़ने लगा। 
कुमारगुप्त के पुत्र महाराज स्कंदगुप्त बड़ी योग्यता और वीरता से जीवन भर हूणों से लड़ते रहे। 

सन् ४५७ ई० तक अंतर्वेद, मगध आदि पर स्कंदगुप्त का अधिकार बराबर पाया जाता है। 

सन् ४६५ के उपरांत हुण प्रबल पड़ने लगे और अंत में स्कंदगुप्त हूणों के साथ युद्ध करने में मारे गए। 

सन् ४९९ ई० में हूणों के प्रतापी राजा तुरमान शाह (सं० तोरमाण) ने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर पूर्ण अधिकार कर लिया। 

इस प्रकार गांधार, काश्मीर, पंजाब, राजपूताना, मालवा और काठियावाड़ उसके शासन में आए।

 तुरमान शाह या तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल (सं० मिहिरकुल) बड़ा ही अत्याचारी और निर्दय हुआ।

 पहले वह बौद्ध था, पर पीछे कट्टर शैव हुआ। गुप्तवंशीय नरसिंहगुप्त और मालव के राजा यशोधर्मन् से उसने सन् ५३२ ई० मे गहरी हार खाई और अपना इधर का सारा राज्य छोड़कर वह काश्मीर भाग गया।

 हूणों में ये ही दो सम्राट् उल्लेख योग्य हुए।
 कहने की आवश्यकता नहीं कि हूण लोग कुछ और प्राचीन जातियों के समान धीरे धीरे भारतीय सभ्यता में मिल गए।

 राजपूतों में एक शाखा हूण भी है ; कुछ लोग अनुमान करते हैं कि राजपूताने और गुजरात के कुनबी भी हूणों के वंशज हैं।

 २. एक स्वर्णमुद्रा। 'हुन' । ३. बृहत्संहिता के अनुसार एक देश का नाम जहाँ हूण रहते थे।—बृहतसंहिता  पृ० ८६।

हैहयवंश के यादवों के साथ पारदों का भी उल्लेख है ।
 पारद पश्चिमी एशिया की एक प्राचीन जाति जो पारस के उस प्रदेश में निवास करती थी जो कास्पियन सागर के दक्षिण के पहाड़ों को पार करके स्थित था। 

पारदों के  हाथ में बहुत दिनों तक पारस साम्राज्य रहा। महाभारत, मनुस्मृति, बृहत्संहिता इत्यादि में पारद देश और पारद जाति का उल्लेख मिलता है।

 यथा मनुस्मृति में —
पौण्ड्रकाश्चोड्र द्रविडा: काम्बोजा: शका: पारदा: पह्लवश्चीना: किराता: दरदा: खशा : 10/44

 इसी प्रकार बृहत्संहिता में पश्चिम दिशा में बसनेवाली जातियों में 'पारत' और उनके देश का उल्लेख है—

 'पञ्चनद रमठ पारत तारक्षिति शृंग वैश्य कनक शकाः। पुराने शिलालेखों में 'पार्थव' रूप मिलता हैं जिससे यूनानी 'पार्थिया' शब्द बना है।

 यूरोपीय विद्वानों ने 'पह्लव' शब्द को इसी 'पार्थिव' का अपभ्रंश  मानकर पह्लव और पारद को एक ही ठहराया है। 
पर संस्कृत साहित्य में ये दोनों जातियाँ भिन्न लिखी गई हैं।
 मनुस्मृति के समान महाभारत और बृहत्संहिता में भी 'पह्लव' 'पारद' से अलग आया है।

 अतः 'पारद '  का   'पह्लव'  से कोई संबंध नहीं प्रतीत होता। 
पारस में पह्लव शब्द शाशानवंशी सम्राटों के समय से ही भाषा और लिपि के अर्थ में मिलता है।

 इससे सिद्ध होता है कि इसका प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में पारसियों के लिये भारतीय ग्रंथों में हुआ है।

 किसी समय में पारस के सरदार 'पहृलवान' कहलाते थे। संभव है, इसी शब्द से 'पह्लव' शब्द बना हो।

 मनुस्मृति में 'पारदों' और 'पह्लवों' आदि को आदिम क्षत्रिय कहा है जो ब्राह्मणों के अदर्शन से संस्कार-भ्रष्ट होकर शूद्रता को प्राप्त हो गए।

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प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार 'रोहि'

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