शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

वेदों में भी राधा कृष्ण को गोप रूप में वर्णन किया गया ।

आर्य समाजीयों ने वेदों को अपौरुषेय स्वीकार करते हुए
उसमें इतिहास नहीं माना !

उन्होंने वैदिक ऋचाओं का अन्वय अपने पूर्व दुराग्रह से प्रेरित होकर किया !


और पुराणों में व्याप्त अन्ध-विश्वास आदि विकृतियों का भी पूर्ण परिमार्जन अपेक्षित रूप में नहीं किया !

 
जैसे कींचड़ को साफ तो  कर दें परन्तु उसे समूल रूप से मिटाऐं या वहाँ से दूर नहीं हटाऐं ।

बरसात में फिर वह कींचड़ वहीं पहुँचेगी ?

परन्तु यह केवल कींचड़ को साफ ही करना है ! कींचड़ हठाना नहीं हुआ है ।


आर्य समाजीयों ने जिस महाभारत को प्रमाणित माना है  उसमें भी अनेक कल्पनाओं का समावेश है ।
उसके भीष्म-पर्व में महात्मा बुद्ध का वर्णन है ।

कल्कि अवतार का वर्णन आदि भी हैं !


और वाल्मीकि रामायण क भी ये प्रमाणित मानते हैं ! अयोध्या काण्ड में महात्मा  बुद्ध का वर्णन है।

 महाभारत और पुराणों की कथाऐं समान हैं ।
महाभारत में श्रीमद्भागवत् गीता को पाँचवीं सदी में अलग से समायोजित किया गया है । 

क्यों कि गीता के श्लोक उपनिषदों में भी हैं ।. 👇
आत्मा शाश्वत तत्व है !

आत्मा अवनाशी है ये बातें 
श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ हैं दौंनों का यह उद्घोष है ⬇
________________________________________
न जायते म्रियते वा कदाचित् न
अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः | 


अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ||

-------------------------------------------------------------
     (श्रीमद्भागवत् गीता .)..

कृष्ण का उल्लेख महाभारत से प्राचीन ग्रन्थों छान्दोग्य उपनिषद, कौषीतकी ब्राह्मण तथा ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में भी है ।

कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है।
छान्दोग्य उपनिषद  :--(3.17.6 ) 👇

कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् ।
वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्ते:
_______________________________________
कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था ; और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।

परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
👇
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है :-👇

आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त । 

द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14। 


अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत्
तन्वं तित्विषाण: विशो (अदेवीरभ्या )
चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।

ऋग्वेद में वर्णन मिलता है ---" कि कृष्ण जो  देवों को न मानने वाला है वह अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ गायें चराता हुआ रहता है । 

उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया 
इन्द्र कहता है कि कृष्ण  को मैंने देख लिया है जो देवों को न मानने वाला है  ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गायें चराता रहता है
 इस उपर्युक्त ऋचा में (चरन्तम् )  क्रिया  पद कृष्ण के    गोप होने का सशक्त प्रमाण है ।

पुराणों में भी इन्द्र और कृष्ण का सांस्कृतिक विरोध सर्ववविदित है !

वेदों में राधा , कृष्ण , वृषभानु , गोप, और व्रज आदि का वर्णन भी बहुतायत से आया है !

वेदों में भी राधा कृष्ण को गोप रूप में वर्णन किया गया ।

जिसका प्रमाण हम नीचे देते है ।

________________________________________

आ नः स्तुत उप वाजेभिरूती इन्द्र याहि हरिभिर्मन्दसानः। तिरश्चिदर्यः सवना पुरूण्याङ्गूषेभिर्गृणानः सत्यराधाः ॥१॥

👇

आ। नः। स्तुतः। उप। वाजभिः। ऊती। इन्द्र। याहि। हरिभिः। मन्दसानः। तिरः। चित्। अर्यः। सवना। पुरूणि। आङ्गूषेभिः। गृणानः। सत्यराधाः ॥१॥

(ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:29» ऋचा :1 )|

अन्वय:👇

  स्तुतो मन्दसान आङ्गूषेभिर्गृणानः सत्यराधा अर्य्यस्त्वं पुरूणि सवना प्राप्तः तिरश्चित्सन्नूती वाजेभिर्हरिभिश्च सह न उपायाहि ॥१॥

________________________________________

हे इन्द्र  राधा  सत्य हैं -स्तोत्रों के द्वारा प्रसन्न  आनन्दित होते हुए पूर्ण यज्ञों के प्राप्त करने वाली हैं ।

राधा ही हरि के अनेक रूपों के साथ संसार से पार करने के लिए हमारी यज्ञों में आऐं  ! हम उन्हें बुलाते हैं !इन्द्र तुम हमारी सहायता करो ! ________________________

पदार्थान्वयभाषाः -हे राधा तुम सत्य हो  (स्तुतः) प्रशंसित (वाजेभिः)यज्ञों के द्वारा (मन्दसानः) तुमारी आराधना करते हुए (आङ्गूषेभिः) स्त्रोतों के 

(गृणानः) गायन करते हुए 

(अर्य्यः) स्वामी आप (पुरूणि) बहुत से  (सवना)  यज्ञों वाली

  (तिरः) पार करने वाली (चित्) भी होते हुए (सह हरिभिः) हरि के अनेक रूपों साथ  (नः) हम लोगों के

 ( ऊती) रक्षण आदि के लिये (उप, आयाहि) आइए ॥१॥

_______

आ हि ष्मा याति नर्यश्चिकित्वान्हूयमानः सोतृभिरुप यज्ञम्। 

स्वश्वो यो अभीरुर्मन्यमानः सुष्वाणेभिर्मदति सं ह वीरैः ॥२॥

आ। हि। स्म। याति। नर्यः। चिकित्वान्। हूयमानः। सोतृऽभिः। उप। यज्ञम्। सुऽअश्वः। यः। अभीरुः। मन्यमानः। सुस्वानेभिः। मदति। सम्। ह। वीरैः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:29» ऋचा:2 | 

अन्वय:

हे मनुष्या ! योऽभीरुर्मन्यमानः स्वश्वश्चिकित्वान् हूयमानो नर्य्यो हि सोतृभिः सह यज्ञमुपायाति ष्मा स सुष्वाणेभिवीरैस्सह सम्मदति ह ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (अभीरुः)  अभीर के घर    (चिकित्वान्)  कित-- निवासे -निवास करने करते हुए (मन्यमानः)माने जाते हुए

 (स्वश्वः) अपने घोड़े से साथ (हूयमानः) आह्वान किये जाते हुए।

  (नर्य्यः) मनुष्यों में श्रेष्ठ (हि)

 (यज्ञम्) यज्ञ के सोतृभिः) 

अनुष्ठान करने वालों के साथ  

(उप, आ, याति, स्म) 

 उनके समीप आते हैं ।

(सुष्वाणेभिः) तीक्ष्ण वाणों वाले (वीरैः) वीरों के द्वारा (सम्, मदति, ह)

उनके कारनामों से आप प्रसन्न होते हैं अथवा एैसा कार्य आपको आनन्दित करता है ।२।।

________________________

श्रावयेदस्य कर्णा वाजयध्यै जुष्टामनु प्र दिशं मन्दयध्यै। उद्वावृषाणो राधसे तुविष्मान्करन्न इन्द्रः सुतीर्थाभयं च ।३।।

श्रवय। इत्। अस्य। कर्णा। वाजयध्यै। जुष्टाम्। अनु। प्र। दिशम्। मन्दयध्यै। उत्ऽववृषाणः। राधसे। तुविष्मान्। करत्। नः। इन्द्रः। सुऽतीर्था। अभयम्। च ॥३॥

अन्वय:

 त्वमस्य कर्णा वाजयध्यै जुष्टामनु श्रावय येनाऽयं दिशं मन्दयध्यै उद्वावृषाणस्तुविष्मानिन्द्रो राधसे नःसुतीर्थाभयञ्चेदेव प्र करत् ॥३॥

________________________________________

पदार्थान्वयभाषा:-

(राधसे नः )हे राधे हम आपके लिए  स्तुति करते हैं । (सुतीर्थाभयञ्चेदेव प्र करत)-हम सब अच्छे तीर्थों में  (अस्य) इसके (कर्णा)- दौंनों कानों को स्तुत करते हुए प्रसन्न करें ।

 (वाजयध्यै) -यज्ञ करें और (जुष्टाम्) -जिन्हें प्रसन्न करें 

 (अनु, श्रावय) हे राधे तुम जहाँ हो  अपने कानों से सुनलो (दिशम्) दिशा को (मन्दयध्यै)  गुञ्जायमान करें  हे राधे इन्द्र तुम्हारे प्रशंसक हैं ।

(उद्वावृषाणः) बरस कर बहने वाले (तुविष्मान्) वेगयुक्त इन्द्र भी ॥३॥

________________________________________

अच्छा यो गन्ता नाधमानमूती इत्था विप्रं हवमानं गृणन्तम्। 

उप त्मनि दधानो धुर्या३शून्त्सहस्राणि शतानि वज्रबाहुः 

॥४॥

अच्छ। यः। गन्ता। नाधमानम्। ऊती। इत्था। विप्रम्। हवमानम्। गृणन्तम्। उप। त्मनि। दधानः। धुरि। आशून्। सहस्राणि। शतानि। वज्रऽबाहुः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:29» मन्त्र:4 | 

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो गन्तोती इत्था नाधमानं हवमानं गृणन्तं विप्रं त्मन्युप दधानः सहस्राणि शतान्याशून् धुरि दधानोऽच्छ गन्ता वज्रबाहू राजा भवेत् सोऽस्मानभयङ्कर्त्तुमर्हेत् ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (गन्ता) चलनेवाला (ऊती) रक्षण आदि के लिये (इत्था) इस प्रकार से (नाधमानम्) ऐश्वर्य्यवान् प्रशंसित (हवमानम्) ईर्ष्या करनेवाले (गृणन्तम्) स्तुति करते हुए (विप्रम्) बुद्धिमान् को (त्मनि) आत्मा में (उप, दधानः) धारण करता हुआ (सहस्राणि) सहस्रों और (शतानि) सैकड़ों (आशून्) शीघ्र चलनेवाले घोड़ों को (धुरि) रथ के जुए में धारण करता हुआ (अच्छ) उत्तम प्रकार चलनेवाला (वज्रबाहुः) शस्त्र हाथों में लिये राजा हों वह हम लोगों को भयरहित करने योग्य हो ॥४!

त्वोतासो मघवन्निन्द्र विप्रा वयं ते स्याम सूरयो गृणन्तः। भेजानासो बृहद्दिवस्य राय आकाय्यस्य दावने पुरुक्षोः

 ॥५॥

त्वाऽऊतासः। मघऽवन्। इन्द्र। विप्राः। वयम्। ते। स्याम। सूरयः। गृणन्तः। भेजानासः। बृहत्ऽदिवस्य। रायः। आऽकाय्यस्य। दावने। पुरुऽक्षोः ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:29» ऋचा :5 | 

अन्वय:

हे मघवन्निन्द्र ! त्वोतासो भेजानासो गृणन्तो विप्राः सूरयो वयं बृहद्दिवस्याकाय्यस्य पुरुक्षोः ते रायो दावने स्थिराः स्याम ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मघवन्) श्रेष्ठ धनयुक्त (इन्द्र) उत्तम गुणों के धारण करनेवाले राजन् !

 (त्वोतासः) आप से रक्षा और वृद्धि को प्राप्त (भेजानासः) सेवन और (गृणन्तः) स्तुति करते हुए (विप्राः) ज्ञानवपन करने वाला (सूरयः) प्रकाशित विद्यावाले (वयम्) हम लोग (बृहद्दिवस्य) प्रकाशमान (आकाय्यस्य) सब प्रकार शरीर में उत्पन्न (पुरुक्षोः) बहुत अन्नादि से युक्त (ते) आपके (रायः) धन के और (दावने) देनेवाले के लिये स्थिर (स्याम) हो जाऐं ॥५॥

अन्वय भेद से अर्थ भेद  हो जाता है और अनेक भाष्य कारों ने यही किया !

________________________________________

राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी ।

यह गोप शब्द वेदों में भी आया है ।

 (यथा, ऋग वेद में गोप शब्द आभीर अथवा गोपालन करने वाले का वाचक है ।। १० । ६१ । १० 👇

 द्विबर्हसो य उप गोपम्  आगुरदक्षिणासो अच्युता दुदुक्षन् 

बर्ह--स्तुतौ असुन् । आस्तरणे ऋ० १ । ११४ । १० ।

आ + गुर्--क्विप् । प्रतिज्ञायाम् “अस्य यज्ञस्यागुर उदृचमशीय” श्रुतिः ।

अर्थात् जो दो वार  स्तुति युक्त होकर प्रतिज्ञा कर विना गिरे हुए   दक्षिणा देने के लिए गाय दुहने की इच्छा से पास आता है वह गोप धन्य है ।

वैदिक संहिताओं में राधा शब्द वृषभानु गोप की पुत्री का वाचक है

व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग शब्द है👇

(राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" 

(राध् + अच् । टाप् ):- राधा -

अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है वह ईश्वरीय सत्ता।

वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति के रूप में है ।

______________________________
👇

इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |

पिबा त्वस्य गिर्वण : ।।

(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० )

  अर्थात् :- हे  ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है । वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा  तुम सोमरस पान करो।

___________________________________

विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य  राधस : सवितारं नृचक्षसं 

(ऋग्वेद १ .  २ २.  ७) 

_______________________________________ 

सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! 

जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सबको जन्म देने वाले प्रभु  हमारी रक्षा करें। 

__________________________________

त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते  बोधि गोपा: 

जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। 

(ऋग्वेद -मण्डल-३/सूक्त-१५/ऋचा-२)

_________________________________

अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें ।

जन्म  के समान नित्य  तुम  विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक

स्तुतियों का सेवन करते हो  ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो ।

त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि ।  

वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।।  

(ऋग्वेद - -मण्डल-३/सूक्त-१५/ऋचा-३ )

_____________________________________

अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! 

पूर्व काल में  कृष्ण ही अग्नि के सदृश् गमन करने वाले थे !

ये सर्वत्र दिखाई देते हैं ,  ये कृष्ण अग्नि रूप हमारे लिए धन उत्पन्न करें 

इस  दोनों ऋचाओं  में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप और कृष्ण का उल्लेख किया गया है ।

 जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं। 

यस्या रेणुं  पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : 

-(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद )

राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत्  चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं। 

पुराणों में श्री राधा जी का वर्णन कर पुराण कारों ने उसे अश्लीलताओं से पूर्ण कर अपनी 

काम प्रवृत्तियों का ही प्रकाशित किया है   

श्रीमद्भागवत पुराण के रचयिता के अलावा १७ और अन्य पुराण रचने वालों ने राधा का वर्णन नहीं किया है ।

विदित हो कि भागवत महात्मय में ही राधा का वर्णन है । भागवत पुराण में नहीं !

जो पद्म पुराण से संग्रहीत है !

इनमें से केवल छ :  पुराणों में श्री राधा का उल्लेख है। 

जैसे 

" राधा प्रिया विष्णो : (पद्म पुराण ) 

राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता 

(नारद पुराण ) 

तत्रापि राधिका शाश्वत (आदि पुराण )

रुक्मणी द्वारवत्याम 

तु राधा वृन्दावन वने ।

(मत्स्य पुराण १३. ३७ 

(साध्नोति साधयति  सकलान् कामान् यया  राधा प्रकीर्तिता: )

(देवी भागवत पुराण )

राधोपनिषद में श्री राधा जी के २८ नामों का उल्लेख है।

गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं। 

कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : 

(श्रीमदभागवत )

हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली  श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त  है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ).

यहाँ "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है ।

महालक्ष्मी के लिए नहीं। 

क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं। 

वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ? 

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स्वप्रतिबिम्ब विभाति "      (श्रीमदभागवतम १ ०/ ३३/१ ६ कृष्ण रमा के संग रास करते हैं।

 यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है। रमा का मतलब लक्ष्मी  भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास   प्रयोजन नहीं है.लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं।

रास तो लीलापुरुष घनश्याम ही करते हैं। 

आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य                              -(श्रीमदभागवतम १ राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी 

यह शब्द वेदों में भी आया है ।

व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा:- स्त्रीलिंग(राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् + अच् । टाप् ):-

अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य 

सफल करती है ।

वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है ।

______________________________🌄

त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि ।

वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।।  (ऋग्वेद - -मण्डल-३/सूक्त-१५/ऋचा-३ )

______________________________

अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु ! पूर्व काल में  कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले है । ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करें  

इस  दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप  का उल्लेख किया गया है । 

जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं|

_________________________________________

यस्या रेणुं  पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त :

-(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद )

राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत्  चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं। 

उपनिषदों में कृष्ण का उल्लेख है ! 👇

कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। 

छान्दोग्य उपनिषद  :--(3.17.6 ) 

कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् ।

 वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्ते:

कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि  घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी ! जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। 

श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था ; और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।

पुराणों में श्री राधा जी का वर्णन कर पुराण कारों ने उसे अश्लीलताओं से पूर्ण कर अपनी काम प्रवृत्तियों का ही प्रकाशन किया है

श्रीमद्भागवत पुराण के रचयिता के अलावा १७ और अन्य पुराण रचने वालों ने राधा का वर्णन नहीं किया है ।

इनमें स केवल छ : पुराणों में श्री राधा का उल्लेख है। 

___________________________________________________

यथा " राधा प्रिया विष्णो : (पद्म पुराण )

राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता 

(नारद पुराण ) 

तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण 

रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने 

(मत्स्य पुराण १३. ३७)

 "साध्नोति साधयति  सकलान् कामान् यया  राधा प्रकीर्तिता: "

(देवी भागवत पुराण )

राधोपनिषद में श्री राधा जी के 28 नामों का उल्लेख है।

गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए विशेषण हैं। 

कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : (श्रीमदभागवत )

हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली  श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त  है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ).

यहाँ "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है 

महालक्ष्मी के लिए नहीं। 

क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं। 

वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ? 

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स विभाति                    

-(श्रीमदभागवतम १ ०. ३३.१ ६ कृष्ण रमा के संग रास करते हैं। 

यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है। रमा का मतलब लक्ष्मी  भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास   प्रयोजन नहीं है.लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं।

रास तो लीलापुरुष घनश्याम ही करते हैं। 

आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य                             -(श्रीमदभागवतम १०. ३०.२ )

जब श्री कृष्ण महारास के मध्यअप्रकट(दृष्टि ओझल ,अगोचर ) हो गए गोपियाँ प्रलाप करते हुए मोहभाव को प्राप्त हुईं। 

वे रमापति (रमा के पति ) के रास का अनुकरण करने लगीं।  स्वांग भरने  लगीं। यहाँ भी रमा का अर्थ  राधा ही है  लक्ष्मी नहीं हो सकता क्योंकि  विष्णु रास रचाने वाले  नहीं रहे हैं।

वस्तुत यह अति श्रृंगारिकता कृष्ण के पावन चरित्र को लाँछित भी करती है । 

परन्तु ये सब काल्पनिक उड़ाने मात्र ही  हैं  

यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमद् भागवत १०/३०/३५ )

श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर (अप्रकट )हो गए।

महारास से विलग हो गए। 

गोपी राधा का भी एक रूप है।

जब श्री कृष्ण महारास के मध्य अप्रकट (दृष्टि ओझल ,अगोचर ) हो गए गोपियाँ प्रलाप करते हुए मोहभाव को प्राप्त हुईं। 

वे रमापति (रमा के पति ) के रास का अनुकरण करने लगीं।  

स्वांग भरने  लगीं।

 यहाँ भी रमा का अर्थ  राधा ही है । लक्ष्मी नहीं हो सकता क्योंकि  विष्णु रास रचाने वाले  नहीं रहे हैं।

वस्तुत यह अति श्रृंगारिकता कृष्ण के पावन चरित्र को लाँछित भी करती है । परन्तु ये सब काल्पनिक उड़ाने मात्र ही  हैं ।

यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमद् भागवत १०/३०/३५ )

श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर (अप्रकट )

हो गए।

महारास से विलग हो गए ।

______________________________________

मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट(भित्तिचित्र) मिला है !

जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।

पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।

 इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं ।

वैसे भी अहीरों (गोपों)में कृष्ण का जन्म हुआ ; और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) समन्वय स्थापित करते हैं।

 इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है। 

द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू०  समय तक निर्धारित हैं। 

इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है। ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) 

और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के  तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।

और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है ।

परन्तु इन्द्र उपासक देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने   इन्द्र को पराजयी कभी नहीं बताया।

 विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है  देखें--- अंशु + अस्त्यर्थे मतुप् । सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।

सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० । अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० । 

पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।

ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है।

 :-आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।

 द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि । 

वो वृषणो युध्य ताजौ ।14। 

अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। 

 ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था । 

उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया । 

इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।

जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाऐं चराता हुआ रहता है ।  

चरन्तम् क्रिया पद देखें !

 कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।

वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है । यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त  वरुण , अग्नि आदि का वाचक है-'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग 105 बार हुआ है। 

उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'श्रेष्ठ' अर्थ में किया गया है और केवल 15 स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।

'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न 

('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) 

और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। 

विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।

इन्द्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परन्तु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।

असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे । 

अनन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई।

फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया।

फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)  

शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।

(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:) 

ये लोग पश्चिमीय एशिया असुर लोग असीरियन रूप सुमेरियन पुराणों में वर्णित हैं ।

परन्तु ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त के दशम् ऋचा में गोप जन-जाति के पूर्व प्रवर्तक एवम् पूर्वज यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है। _

 " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।   (10/62/10ऋग्वेद )

अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं । 

अत: सम्मान के पात्र हैं |

 यद्यपि पौराणिक कथाओं में यदु नाम के दो राजा हुए । 

एक हर्यश्व का पुत्र यदु तथा एक ययाति का पुत्र और तुर्वसु का सहवर्ती यदु । 

आभीर जन जाति का सम्बन्ध

 तुर्वसु के सहवर्ती यदु से है । 

जिसका वर्णन हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड  में भी है। 

यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है।

हरिवंश पुराण में आभीर,गोप और यादव शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं 
_________________________________________
यादव योगेश कुमार 'रोहि' 8077160219

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें