रविवार, 26 अगस्त 2018

भारतीय संस्कृति में  (ॐ) नाद ब्रह्म के रूप में व्याख्यायित है ।

भारतीय संस्कृति में  (ॐ)  ध्वनि  नाद - ब्रह्म के रूप में व्याख्यायित है ।
ओ३म् इस समग्र सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत एक अनाहत निरन्तर अनुनिनादित नाद है । एेसा लगता कि उस अनन्त सत्ता का जैसे प्रकृति से साक्षात् सम्वाद है ।
(ॐ ) शब्द को भारतीयों ने सर्वाधिक पवित्र शब्द तथा ईश्वर का वाचक माना ,उस ईश्वर का वाचक जो अनन्त है । यजुर्वेद के अध्याय ४० / १७ वीं एक ऋचा में कहा गया है "ओम खम् ब्रह्म " - ओम ही सर्वत्र व्याप्त परम ब्रह्म है।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में सूर्य का वाचक रवि शब्द भी है । मिश्र की संस्कृति में जिसे रा रहा गया है ।
 रविः अदादौ रु शब्दे ।रू धातु का परस्मैपदीय प्रथम पुरुष एक वचन का रूप है रौति अर्थात् जो ध्वनि करता है ।
    (रूयते स्तूयते इति  रवि:। रु + “ अच  इः ।
“ उणाणि सूत्र ४ । १३८ । इति इः )  सूर्य्यः । 
अर्कवृक्षः ।  इत्यमरः कोश ॥ 
सूर्य्यस्य भोग्यं दिनं वार रूपम् ॥ 
यथा   -- “ रवौ वर्ज्ज्यं चतुः पञ्च सोमे सप्त द्बयं तथा “ इत्यादिवारवेलाकथने समयप्रदीपः

पौराणिक ग्रन्थों में रविः शब्द की काल्पनिक व्युपत्ति की गयी है  वह भी अव् धातु से । देखें ''रवि'' ¦ पु॰ (अव्--इन् रुट्च्)

१ सूर्य्ये । ज२ अर्कवृक्षे च
अचिरात्तु प्रकाशेन अवनात् स रविः स्मृतः” मत्स्यपुराणतन्नामनिरुक्तिः। 
अर्थात् मत्स्य पुराण में रवि शब्द की व्युपत्ति करते हुए बताया है कि दीर्घ काल से प्रकाश के द्वारा जो रक्षा करता है वह रवि है ।
अव् धातु का एक अर्थ रक्षा करना भी है ।
वस्तुत यह व्युपत्ति आनुमानिक व काल्पनिक है ।

वैदिक सन्दर्भों से उद्धृत कुछ तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है ।
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ओ३म् क्रतो स्मर ।।-(यजु० ४०/१५)
“हे कर्मशील ! ‘ओ३म् का स्मरण कर।”
यजुर्वेद के दूसरे ही अध्याय में यह आज्ञा है-
ओ३म् प्रतिष्ठ ।।-(यजु० २/१३)
” ‘ओ३म्’ में विश्वास-आस्था रख !”
गोपथ ब्राह्मण में आता है-
आत्मभैषज्यमात्मकैवल्यमोंकारः ।।-(कण्डिका ३०)
“ओंकार आत्मा की चिकित्सा है और आत्मा को मुक्ति देने वाला है।”
माण्डूक्योपनिषद् का पहला ही आदेश यह है-
ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानम् ।
भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव ।। १।।
“यह ‘ओ३म्’ अक्षर क्षीण न होने वाला अविनाशी है,यह सम्पूर्ण भूत,वर्तमान और भविष्यत् ओंकार का व्याख्यान् है।सभी कुछ ओंकार में है।”
अर्थात् ओंकार से बाहर कुछ नहीं,कुछ भी नहीं।
छान्दोग्योपनिषद् का ऋषि कहता है-
ओ३म् इत्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत ।
“मनुष्य ‘ओ३म्’ इस अक्षर को उद्गीथ समझकर उपासना करे।”
‘गोपथ ब्राह्मण’ के पूर्वभाग के पहले अध्याय की २२वीं कण्डिका में ‘ओ३म्’ की उपासना तथा जप के अनेक रहस्य बतलाये हैं।

‘योगदर्शन’ समाधिपाद में ‘ओ३म्’ का जप और उसके अर्थों का चिन्तन करने का आदेश दिया है इसके साथ ही योग-साधना में जो विघ्न आकर खड़े होते हैं,उनको दूर करने का यह उपाय बताया है-
तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ।। ३२ ।।
“उन (विक्षेप-विघ्नों) को दूर करने के लिए एक तत्त्व (ओ३म्) का अभ्यास करना चाहिए।”

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ओङ्कारः, पुं० (ओम् + कार प्रत्ययः ) प्रणवः । इत्यमरः कोश॥ (यथाह स्मृतिः जेेैसा कि स्मृतिग्रन्थों में कहा है गया है ।
“ओङ्कारः पूर्व्वमुच्चार्य्यस्ततो वेदमधीयते” ।ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्ज्जातौ तस्मान्माङ्गलिकावुभौ” । इति व्याकरणटीकायां दुर्गादासः ।
व्याकरण टीका कार दुर्गादास लिखते है कि  ओ३म् कार तथा अथ ये दौनों शब्द पूर्व काल में ब्रह्मा के कण्ठ के भेदन करके उत्पन्न हुए अत: ये मांगलिक हैं ।

प्राणायामैस्त्रिभिः पूतस्तत ओङ्कारमर्हति” ॥ इति मनुः स्मृति। २ । ७५ ॥ अत्राह आवस्तम्बः,
“ओङ्कारः स्वर्गद्वारं तद्ब्रह्म अध्येष्यमाण एतदापि प्रतिपद्येत विकथां चान्यां कृत्वा एवं लौकिक्या वाचा व्यावर्त्तते” ।
लौकिक्या वाचा व्यावर्त्तते तया मिश्रितं न भवतीत्यर्थः)

अमरकोशः
ओङ्कार पुं। 
ओंकारः 

समानार्थक:ओङ्कार,प्रणव 

1।6।4।1।2 

शिक्षेत्यादि श्रुतेरङ्गमोङ्कार प्रणवौ समौ।
इतिहासः पुरावृत्तमुदात्ताद्यास्त्रयः स्वराः॥ 

पदार्थ-विभागः : , पौरुषेयः

वाचस्पत्यम्

'''ओङ्कार''' पु॰ ओम् + स्वरूपे कार प्रत्ययः। प्रणवे। 
“प्राणायामै-स्त्रिभिः पूतस्ततओङ्कारमर्हति” मनुःस्मृति। 
“ओङ्कारश्चाथ-शब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा” पुरा॰ अधिकम् ओम् शब्दे चक्ष्यते। 
“ओङ्कारं पूर्व्वमुच्चार्य्यस्ततो पश्चाद्वेदमधीयते” इति स्मृतेः 
तस्मदोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। प्रवर्त्तन्तेविधानोक्ता” इति गीतोक्तेः 
“स्रवत्यनोङ्कृतं सर्व्वम्” इत्युक्तेश्च ओङ्कारस्य सर्व्वकर्म्मारम्भादौ पाठ्यत्वात् आरम्भसाधनत्वेन 

२ आरम्भे। सप्तानां सामावयवानां 

३ प्रथमावयवे च। उद्गीथशब्दे 

११७० पृ॰ सप्तावयवसामानि दृश्यानि।
ओङ्कारः तदाकारः अस्त्यस्यअच्। काशीस्थे 

३ शिवलिङ्गभेदे “ओङ्कारं प्रथमं लिङ्गंद्वितीयन्तु त्रिलोचनमिति” काशीस्थचतुर्द्दशप्रधानलिङ्गकथने। तदाविर्भावकथा तत्रैव 

७३ अध्याये “यथोङ्कारस्य लिङ्गस्य प्रादुर्भाव इहाभवत्। पुरानन्दवनेचात्र ब्रह्मणा विश्वयोनिना। तपस्तप्तं महादेवि! समाधिंदधता परम्।
पूर्ण्णे युगसहस्रेऽथ मित्त्वा पातालसप्तकम्।
उदतिष्ठत् पुरोज्योतिर्विद्योतितहरिन्मुखम्।
यदन्तराविरभवन्निर्व्याजेन समाधिना।
तदेव परमं धामबहिराविरभूद्विधेः।
अभूच्चटचटाशब्दः स्फुटितो भूमिमागतः। तच्छब्दाद्व्यसृजद्बेधाः समाधिं क्रमतोवशी। स्रष्टाऽसृज्यत तत्सानौ यावदुन्मील्य लोचने।
पुरःपश्चाद्ददर्शाग्रे तावदक्षरमादिमम्।
अकारं सत्वसम्पन्नमृक्-क्षेत्रं सृष्टिपालकम्। नारायणात्मकं साक्षात्तमःपारेप्रतिष्ठितम्।
ओङ्कारमथ तस्याग्रेरजोरूपं यजुर्जनिम्।
बिधातारं समस्तस्य स्वाकारमिव चिन्तितम्।
नीरव-ध्वान्तसङ्केतसदनाभं तदग्रतः।
मकारं स ददर्शाथतमोरूपं विशेषतः।
साम्नां योनिं लये हेतुं साक्षाद्रुद्रस्वरूपिणम्।
अथ तत्पुरतोधाता व्यधात् स्वनयना-तिथिम्। विश्वरूपमथोङ्कारं सगुणञ्चापि निर्गुणम्। अनाख्यनादशदनं परमानन्दविग्रहम्।
शब्दव्रह्मेतियत् ख्यातं सर्व्ववाङ्ममयकारणम्। अथोपरिष्टान्नादस्यविन्दरूपं परात् परम्।
कारणं कारणानाञ्च जगदा-[पृष्ठ संख्या1555-b+ 38] सञ्जनं परम्। विधिर्विलोकयाञ्चक्रे तपसा गोचरी-कृतम्। अवनादोमिति ख्यातं सर्व्वस्यास्य स्वभावतः। भक्त-मुन्नयते यस्मात्तदोमिति यईरितः।
अरूपोऽपि स्वरूपाट्यःस घात्रा नेत्रयोःकृतः। तारयेद्यद्भवाम्मोधेः स्वजपासक्तमानसम्।
ततस्तार इति ख्यातोयस्तं ब्रह्मा व्यलोकयत्।
प्रणूयते यतः सर्व्वैः पुरनिर्व्वाणकामुकैः।
सर्व्वेभ्योऽ-भ्यधिकस्तस्मात् प्रणवोयः पकीर्त्तितः। सुसेवितारंपुरुषं प्रणमेद्यः परम्पदम्। अतस्तं प्रणवं शान्तंप्रत्यक्षीकृतवान् विधिः। त्रयीमयस्तुरीयोयस्तुर्य्याती-तोऽखिलात्मकः। नादविन्दुस्वरूपो यः स प्रैक्षि द्विजगा-मिना।
प्रावर्त्तन्त यतोवेदाः साङ्गाः सर्वस्य योनयः।
स वेदादिः पद्मभुवा पुरस्तादवलोकितः।
वृषभोयस्त्रिधा-बद्धोरोरवीति महोदयः।
स नेत्रविषयीचक्रे परमःपरमेष्ठिना।
शृङ्गाश्चत्वारि यस्यासन् हस्तासन्सप्त एव च।
द्वेशीर्षे च त्रयः पादाः स देवोविधिनेक्षितः। यदन्तर्ली-नमखिलं भूतं भावि भवत् पुनः।
तद्वीजं वीजरहितंद्रुहिणेन विलोकितम्। लीनं मृग्येत यत्रैतदाब्रह्मस्तम्भभाजगम्।
अतः सभाज्यते सद्भिर्यल्लिङ्गं तद्विलोकितम्। पञ्चार्थायत्र भासन्ते पञ्चब्रह्ममयं हि यत्।
आदिपञ्च-स्वरूपं यन्निरैक्षि ब्रह्मणा हि तत्।
तमालोक्य ततो-वेधा लिङ्गरूपिणमीश्वरम्”। ओङ्कारेश्वरोऽप्यत्र। 

४ बुद्ध-शक्तिभेदे स्त्री त्रिका॰। अवर्णाऽस्यादेः परत्वेपररूपम्।

शब्दसागरः

ओङ्कार  m. (-रः) The mysterious name of the deity: see ओम्। f. (-रा) A Baudd'ha Sakti, or female personification of divine energy. E. ओम् and कार affix implying a letter, the compound letter ओ; other- wise ओम्, signifying assent, and कार who makes; what complies with our wishes.

Apte

ओङ्कारः [ōṅkārḥ], See under ओम्.

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प्राचीन कैल्ट (celt) जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham )शब्द का दृढता से  उच्चारण विधान किया जाता था |  मूल शब्द ओग्मियोस है (जिसे ओगमियस भी कहा जाता है; प्राचीन ग्रीक संस्कृति में  Ὄγμιος; रूप तथा लैटिन: ओगमियस, ओगिमियस) वाद्यता अथवा वाणी का सेल्टिक देवता था।
वह यूनानी देव   (Heracles ) के पुराने संस्करण की तरह दिखता था जो पुरुषों को बांधने के लिए दृढ़ विश्वास की अपनी शक्तियों का उपयोग करता था ।

ओगमियोस के बारे में अधिकांश ज्ञान अन्य प्राचीन संस्कृतियों से उनके और शक्तिशाली देवताओं और नायकों के बीच तुलना करने के सन्दर्भ  से आता है।

  उन लोगों का विश्वास था !  कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों  ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया है ।
अर्थात्  प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति ( syllable prosperity ) यथावत् रहती है !
ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था । जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं
वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार  नि:सृत होती है जैसे सूर्य से प्रकाश ।
प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा ( ammon - ra ) जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है ..
रा एक प्राचीन शब्द है सूरज के मिस्र के देवता के लिए रूढ़ है ।
25 वीं और 24 वीं शताब्दी ईसा पूर्व पांचवें राजवंश तक, वह प्राचीन मिस्र के धर्म में सबसे महत्वपूर्ण देवताओं में से एक बन गया था, जो मुख्य रूप से दोपहर के सूर्य के साथ पहचाना जाता था|
(राह के रूप में उच्चारण, और कभी-कभी रे के रूप में) एक प्राचीन मिस्र के सूर्य देवता है। ... पहले रा के मुख्य पंथ केंद्र हेलीओपोलिस (प्राचीन इनुनू) में आधारित था जिसका अर्थ है "सूर्य का शहर।"
बाद में मिस्र के राजवंश काल में, रा को देव होरस के साथ विलय कर दिया गया, जैसे कि रे-होराखाटी (और कई प्रकार की वर्तनी)।

या वह फाल्कन से जुड़ा था, और उसके कई चित्रों ने उसे फाल्कन के सिर से दिखाया।
Horus के सामान्य Pschent headdress की बजाय अपने सिर पर सूर्य डिस्क होने के कारण इन छवियों को Horus की छवियों से अलग किया जा सकता है।

नए साम्राज्य में, जब भगवान अमॉन ने प्रमुखता के लिए गुलाब किया तो वह रा के साथ अमन-रा में जुड़ा हुआ हो गया था। अमरना काल के दौरान, अथेनाटन ने एक अन्य सौर देवता, एटिन, को देवतापूर्ण सौर डिस्क के पक्ष में रा के पंथ को दबा दिया, लेकिन अथेनाटन की मृत्यु के बाद रा की पंथ बहाल कर दी गई।

अराफिस, अराजकता का देवता, एक विशाल नागिन था जिसने हर रात सूर्य की नाव की यात्रा को रोकने या इसे अपने पटरियों में एक सम्मोहन के साथ रोकने से रोकने का प्रयास किया था। शाम के दौरान, मिस्र के लोगों का मानना ​​था कि राम अटम के रूप में या एक राम के रूप में सेट है।

आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्धान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है ।
  .सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि में ..
तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै !
जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है ..
अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे ..
दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ..मिश्र की संस्कृति
में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य था ..
क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि ..अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारणहै मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्परओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !! .....
....इन्हीं से ईसाईयों में Amen तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !! (ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन omi /ovin  या  के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते थे !
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...Omi – “The shouter”.  Odin says he is called this “midst gods”.
अर्थात् जर्मन पुरा कथाओं में अॉमी के सम्बन्ध में यह मान्यता है । यह निरन्तर स्वरित रूप है । यह सभी देवों के मध्य में प्रतिष्ठित है ।
.इसी वुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था ..
...यही woden अंग्रेजी में goden बन गया था  ; जिससे कालान्तर में गोड(god  )शब्द बना है
जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में  विद्यमान हैं !
सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ।
वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक के रूप में आया है।
भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि निकाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की ! ......
जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ है। पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे !
ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे !
वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था ...
...द्रुज जनजाति ...प्राचीन इज़राएल ..
जॉर्डन ..लेबनॉन में तथा सीरिया में
आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है ..
.द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है ..पुनर्जन्म ..   कर्म फल के भोग के लिए होता है ..ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति druid द्रयूडों में पुरोहितों के रूप में थी !
केल्ट वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने

इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था !
एक द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य - वेत्ता और तत्व दर्शी थे !
जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है
...मैं योगेश कुमार रोहि भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ !
जो संक्षिप्त ही है ।
ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !! इसके अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है
यूनानी आर्य ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !!!!!!!
भारतीय सांस्कृतिक संन्दर्भ में भी ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति परक व्याख्या आवश्यक है वैदिक ग्रन्थों विशेषतः ऋग्वेद मेंओमान् के रूप में भी है संस्कृत के वैय्याकरणों के अनुसार ओ३म् शब्द धातुज ( यौगिक) है जो अव् घातु में मन् प्रत्यय करने पर बना है
पाणिनीय धातु पाठ में अव् धातु के अनेक अर्थ हैं ।
अव्-- --१ रक्षक २ गति ३ कान्ति४ प्रीति ५ तृप्ति ६ अवगम ७ प्रवेश ८ श्रवण ९ स्वामी १० अर्थ ११ याचन १२ क्रिया १३ इच्छा १४ दीप्ति १५१६ आलिड्.गन १७ हिंसा १८ आदान १९ भाव वृद्धिषु ( १/३९

भारतीय सन्दर्भ में भी वे इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करते हैं जो संक्षिप्त ही है ।
ऊँ एक प्लुत स्वर है ।यही सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !!
इसके अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्व- वर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए हैं।
यूनानी आर्य ज्यूस ( द्योस) और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !!!!!!!भारतीय सांस्कृतिक संन्दर्भ में भी औ३म् शब्द की व्युत्पत्ति परक व्याख्या आवश्यक है ।
वैदिक ग्रन्थों विशेषतः ऋग्वेद में यह शब्द ओमान् के रूप में भी है ।
संस्कृत के वैय्याकरणों के अनुसार ओ३म शब्द धातुज ( यौगिक) है |
जो अव् घातु में मन् प्रत्यय करने पर बना है।
पाणिनीय धातु पाठ में अव् धातु के अनेक अर्थ हैं |
अव् = १ रक्षक २ गति ३ कान्ति४ प्रीति ५ तृप्ति ६ अवगम ७ प्रवेश ८ श्रवण ९ स्वामी १० अर्थ११ याचन १२ क्रिया १३ इच्छा १४ दीप्ति १५ अवाप्ति १६ आलिड्.गन १७ हिंसा १८ आदान १९ भाव वृद्धिषु ( १/३९
भाषायी रूप में ओ३म् एक अव्यय ( interjection) है जिसका अर्थ है -- ऐसा ही हो ! ( एवमस्तु !) it be  so अरबी़ तथा हिब्रू रूप है आमीन् 
वैदिक ऋचाओं में ओ३म् अव्यय के रूप में व्यापक रूप से प्रयुक्त है ।👇
“ओम् तस्माद्यज्ञात्सर्व हुत” (ऋग्वेद् १०।९०।९,यजुर्वेद् ३१।७) अर्थात् “ओ३म् से ही सारी सृष्टि और चारों वेदों का प्रादुर्भाव हुआ है ऐसा भारतीयों की मान्यता है ।”
एतदनुज्ञाक्षरं” (छान्दोग्योपनिषद् १।१।८) अर्थात् “ओ३म् ही अनुज्ञा(अनुमति/स्वीकृति का द्योतक है।”
ओमित्येदनुकृतिर्ह” (तैत्तिरीयोपनिषद् १।८।१) अर्थात् “ओ३म् अनुकृति(अनुकरण/सम्मति) सूचक शब्द है।”
“ओमिति ब्रह्म ओमितिदं सर्वम्।।”अर्थात् “ओ३म् में ब्रह्म ही नहीं सभी देव समाहित् हैं।”
तत्प्रविश्य देवा अमृता अभया अभवन्”(छान्दोग्योपनिषद् १।४।४)अर्थात् “ओ३म् में प्रवेशकर ही सभी देवोंने अमृतत्व/अभयत्व प्राप्त किया।”
लौकिक संस्कृत में ओमन् ( ऊँ) का अर्थ--- औपचारिकपुष्टि करण अथवा मान्य स्वीकृति का वाचक है मालती माधव ग्रन्थ में १/७५ पृष्ट पर-- ओम इति उच्यताम् अमात्यः" तथा साहित्य दर्पण --- द्वित्तीयश्चेदोम् इति ब्रूम १/"" हमारा यह संदेश प्रेषण क्रम अनवरत चलता रहेगा ।
मैं  यादव योगेश कुमार "रोहि" निवेदन करता हूँ !!
कि इस महान संदेश को सम्पूर्ण समाज में प्रसारित कर दो !!!
आमीन्.   .... सम्पर्क- सूत्र -----8077160219

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