शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2018

अहीरों के इतिहास को मिटाने की साज़िश

अहीरों के इतिहास को मिटाने की साज़िश
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।
अर्थात्  उन पापकर्म करनेवाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शी अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७।
बौद्ध काल के परवर्ती काल खण्ड में रचित महाभारत का मूसल पर्व में यह असंगत बात केवल यादव द्रोही धूर्त ब्राह्मणों की कलुषित मानसिकता को दर्शाती है
अब इसी बात को  बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत् पुराण के प्रथम अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा कहा गया है ।
इसे भी देखें---
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । 
सख्या  प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की  गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय
एक श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है।
कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
क्योंकि दौनों शब्दों के द्वारा एक ही बात कही गयी ।
गोपिकाओं को अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें को लूटने की;बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया ।
और मनु-स्मृति में ब्राह्मण पिता से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न सन्तान ;फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये ।
फिर समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को राम मार दिया था द्रुमकुल्य देश में ।
फिर पुष्यमित्र सुंग ई०पू० 184 के समय में लिखित सुमित भार्गव के द्वारा मनु-स्मृति में अहीरों का जन्म ब्राह्मण के द्वारा अम्बष्ठ कन्या से वर्णित किया गया।
क्योंकि अहीर तो ब्राह्मणों से भी अधि पूज्य हुए जा रहे हैं। और यह व्यभिचार में संलग्न पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के अनुयायी ब्राह्मणों को सहन नही था ।
तब उन्होंने मनु का विधान बता कर मनु-स्मृति में अहीरों का जन्म इस प्रकार दर्शाया।
ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15
यद्यपि शैलीगत-आधार पर मनुस्मृति में  विधानात्मकता होना चाहिए ;परन्तु यहाँ ऐतिहासिक शैली को अपनाया जा रहा है।यहाँ पर जो मनु-स्मृति के श्लोक हैं वे ऐैतिहासिक शैली में होने से प्रक्षिप्त है ।
इस विषय़ में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।(10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)
अतः इस ऐतिहासिक शैली में वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से मनु से बहुत परवर्ती काल अर्थात् ई०पू० १८४ के समकक्ष पुष्यमित्र सुंग के द्वारा संरक्षित ब्राह्मणों के ये श्लोक है
अवान्तरविरोध होने से ये प्रक्षिप्त( नकली) श्लोक हैं। 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है मनु-स्मृति कार ने 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिख डाले हैं।32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है।33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है ।  36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है । जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की । 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है
परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्भोग से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है ;यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनु के कथन कदापि नही हो सकते हैं ;अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा!
गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।  (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य)
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते$प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
अर्थात्  हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम'  द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।
इसमें यह 55 वाँ अध्याय है ।
"पितामह वाक्य" नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ]
अब कृष्ण का जन्म हरिवंश पुराण---जो महाभारत का खिल-भाग (अवशिष्ट) है । उसमें कृष्ण का जन्म आभीर (गोप) कबींले में बताया है ।
देखें---
गोपायनं य:  कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।  (हरिवंश पुराण ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य)
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें-यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते$प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
अर्थात्  हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम'  द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।
इसमें यह 55 वाँ अध्याय है । पितामह वाक्य नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ]
षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में  कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । तो लोग समझेगे यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७।
एक श्लोक और
"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: ।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:।
यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२
अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :-यह रोहिणी का पुत्र है ।इस लिए इसका नाम रौहिणेय यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को  अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है ।
यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।
परन्तु भागवतपुराण में ही परस्पर विरोधाभास है ।
देखें---
" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत ।
नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९। जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं ।जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे ,
तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
फिर यह कहना पागलपन है कि कृष्ण यादव थे नन्द गोप थे ।भागवतपुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
और इसे लिखने वाले कामी व भोग विलास -प्रिय  ब्राह्मण थे ।
पुष्यमित्र सुंग के विधानों का प्रकाशन करने वाला है।
अब कोई बताएे कि गोप ही गोपिकाओं को लूटने वाले कैसे हो सकते हैं ?
वास्तविक रूप में ये प्रक्षिप्त ( नकली) श्लोक  किन्हीं विक्षिप्त ब्राह्मणों ने जोड़ कर केवल अहीरों ( गोपों) को कृष्ण से अलग करने की असफल कुचेष्टा की है ।
प्रभु उन धूर्तों की दिवंगत आत्मा को शान्ति दे !
यदि ब्राह्मण और स्वयं को क्षत्रिय और यदु वंशी घोषित करने वाले ।
यह कहते हैं कि अहीरों ने गोपिकाओं को प्रभास क्षेत्र में लूट लिया और बाद में यादव बन गये !
यद्यपि ये श्लोक प्रक्षिप्त (नकली) ही हैं ।
और इन्हें सत्य भी मान लिया जाय तो ;  मूर्खों अहीरों ने ही अहीरों की स्त्रीयों को लूटा ।
तुम्हारी स्त्रीयों को तो नहीं लूटा ।
निश्चित रूप से ये बाते 17-18 वीं सदी की हैं

इस  ज़माने में हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि सारी कायनात में खौफ का पर्याय थे अहीर ! अहीरों को  क्रिमिनल ट्राइब व जन्मजात दुर्दान्त हत्यारे और लुटेरों की खौफनाक खिताबो से नवाज़ा जाना ; यह साबित करता है कि अहीरों का खौफ था तो अय्याश और समाज को ऊँच नीच के तराजू में तोलने वाले दम्भीयों ( पाखण्डीयों) के दिलों में । नकि -गरीबों के दिलों में अहीरों का जन्मजात गुण निर्भीकता होने से उन्हें अभीर अथवा सामूहिक रूप में आभीर कहा गया
अहीरों ने कभी भी ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था युक्त होकर उनकी दासता स्वीकार नहीं की अपितु दस्युओं के खिताब अख्त्यार करना स्वाभिमान समझा !
लोग कहते हैं कि अहीर चोर थे , अहीर हत्यारे थे ।
परन्तु हम कहते हैं कि अहीरों  डकैत
(Daicoit ) हुए हैं । और जालिमों के हत्यारे हुए।
चोर तो छिपकर वस्तुऐं अपहरण करता है ।
परन्तु अहीरों ने सरे अाम वस्तुओं  छीना तो उन अय्याशों से जिन्होंने गरीब, मजलूम और असाह्य लोगों की जमीने कब्जाईं   उन -गरीबों की -बहिन बेटीयों की की इज्जत को साथ खिलबाड़ किया था उन की दौलत को लूटा ऩनसे छीना ।
अहीरों ने गरीबों की -बहिन बेटीयों की इज्जत लूटने वाले लुटेरों को ही लूटा और -गरीबों की मदद की थी ।
यह इतिहास का कटु सत्य है ।
इज्जत लूटने वाले लुटेरों को लूटना कोई गैंरत का काम नहीं अपितु न्याय का काम है । और अहीरों ने यही किया ।
फिर अहीरों से कैसी नफरत ? अहीर सदीयों से न्याय के पेैरोकार रहे हैं ।
अत: अहीरों से दुश्मनी करने वाले ख़ामियाजा भुगतने को तैयार रहें  ।
    अहीरों के परिवार में कृष्ण का जन्म हुआ ।              
प्रमाण तो यह भी मिलता है कि कृष्ण को कहीं भी पुराणों में ब्राह्मण -व्यवस्था ने क्षत्रिय के रूप में स्वीकार नहीं कहा गया है । अपितु शूद्र अवश्य कहा गया है; सम्भवत पुराण कारों का कृष्ण को शूद्र अथवा गोप कहने के मूल में  यही भावना रही है कि इनके पूर्वज यदु दास थे ।
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास---जो गायों से घिरे हुए हैं हम उनका वर्णन करते हैं।ऋ०10/62/10
अब शूद्र कह कर अहीरों को शिक्षा और संस्कार के द्वार तो बन्द कर ही दिये गये ।
तब उन्हें अपना इतिहास कैसे पता होता !
फिर अहीरों को हीन बनाने के लिए उनके महान इतिहास को विकृतिपूर्ण रूप में लिख डाला।
विदित हो कि कोई संस्कृत ग्रन्थ यदु को क्षत्रिय अथवा राजा स्वीकार नहीं करता है ।
और ब्राह्मण और वैश्य भी नहीं तो उनका शूद्र (दास) होना सिद्ध ही है ।
परन्तु कालान्तरण में अहीरों के प्रभावित को जानने वाले ब्राह्मणों ने अहीरों को ब्राह्मण (देखें--- जातिभास्कर) तो कहीं क्षत्रिय तथा वैश्य भी स्वीकार किया । परन्तु  यह सब भी ब्राह्मणों को जँचा नहीं और शूद्र वर्ण में अहीरों को समायोजन हेतु नियम और काल्पनिक कथाओं का सृजन किया गया ।
पुराणों में गोपों के रूप में अहीरों को देवताओं के अवतार रूप में वर्णन किया गया है। यादवों का व्यवहारमूलक या वृत्ति मूलक विशेषण गोप है । क्योंकि अहीरों के पूर्वज यदु भी हमेशा गायों से घिरे हुए रहते थे वेदों में यदु को दास तथा गोप कहा है ।
ऋग्वेद १०/ ६२/१०
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे।
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं ।
हम उनका वर्णन करते हैं।
अर्थात् उनके बारे में कहते हैं ।
मह् धातु का वैदिक अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है ।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हुआ।
मह् धातुआत्मने पदीय क्रिया रूप उत्तम पुरुष बहुवचन

क्योंकि यादव शब्द वंशगत उपाधि है ।
और गोप अथवा अहीर शब्द कर्म और स्वभाव गत उपाधियाँ !
पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों को वंश के आधार पर वर्णित नहीं किया अपितु कर्म के आधार पर ही अधिक वर्णित किया है ।
क्योंकि अहीरों का  यदुवंश पश्चिमीय एशिया का।सर्वश्रेष्ठ वंश था और ब्राह्मणों को इनका सर्व श्रेष्ठ होना असह्य था। ब्राह्मणों को इसके उच्चारण से भी द्वेष था।
यादवों को गोपालन करने बाला होने से गोप , गोपाल कहा गया तथा अपनी निर्भीकता व स्वछन्द गमन करने की प्रवृत्तियों को कारण अभीर कहा गया ।अभीर शब्द में समूह वाची अण् प्रत्यय करने से आभीर शब्द व्युत्पन्न होता है।अभीर शब आज भी इज़राएल में यहूदीयों की एक शाखा का नाम है जो युद्ध कला में पश्चिमीय एशिया में सर्वोपरि है । हिब्रू बाइबिल में अबीर Abeer शब्द वीर यौद्धा अथवा सामन्त का वाचक है- इतना ही नहीं बाइबिल के -सृष्टि खण्ड में ईश्वर को पाँच नामों में से अबीर Abeer भी एक नाम है ।यहूदीयों का तादात्म्य identity इतिहास कारों ने यादव जाति से किया है ।
भारतीय पुराणों में ब्राह्मणों ने अहीरों का द्वेष वश विरोधाभासी वर्णन ।
काल्पनिक उड़ानों के चौर पर किया है।अहीरों की श्रेष्ठता उन्हें नहीं पची ।
ब्राह्मणों ने स्वयं को केवल जन्म के आधार पर आँका अथवा महत्व दिया है  कर्म के आधार पर नहीं।
उन्होंने यह विधान स्मृति-ग्रन्थों में पारित किया की कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी ---पूज्य  है जबकि शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी-पूज्य नहीं है सम्माननीय नहीं है।
दु:शीलो८पि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा  दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् पाराशर-स्मृति (१९२)
आज भी यादवों को पिछड़े और अशिक्षित क्षेत्रों में अहीर या गोप कहा ही कहा जाता है ।
      शिक्षित होकर अब ये लोग यादव लिखने लगे हैं।
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    मेरे जीवन का मक़सद हो ।
                            पछताबा अपनी भूलों पर ।।
    सत्य का साथ मिल जाये।
                            चलूँ  मैं नित  उन शूलो पर।
   चुभन का एहशास भी न हो ।
                             मेरी मञ्जिल उशूलों पर ।।
  सुना है मौहब्बत हबीबों का
                            नज़रिया बदल देती हैं ।
  रोहि ये राह ए उलफत की
                       सबका ज़रिया बदल देती हैं।
  इन कौम ए अहीरों का
                            यदुवंशी वीरों का ।
सदा से ज़माना बैरी है
               जहालत के अन्धेरे हैं ।
                            सुबह होने में देरी है
         दुश्मन दहल जाए उसका वश भी नचल पाए
बस ! स्वाभिमान जगाने की देरी है।
जाट हो गूज़र कि अहीरों का कारवाँ।
ये वीर कुद़रती हैं इनकी धड़कने हैं जवाँ।।
   गुर्जर अहीरों के और जाटों के ही रिश्ते।
लुटेरे हैं ये दुश्मनों के ,गरीबों के लिए फरिश्ते
    यदुवंश के भटके हुए यही वो कबीले हैं ।
जो सामने आ जाऐं तो दुश्मन के तेबर ढीले हैं ।।
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