गुरुवार, 16 नवंबर 2017

मधु असुर थे यादवों के पूर्वज ! इस लिए कृष्ण को कहते हैं माधव।

अर्थात् "मधु "शशिबिन्दु के उपरान्त यादवों का विख्यात राजा हुआ ।
यादवों को भारतीय पुराणों में यद्यपि असुर संस्कृति से सम्बद्ध रूप में वर्णित किया गया है । अतः यादव और माधव पर्याय वाची शब्द हैं ।
_____________________________________
(मधोस्तन्नाम्नो दैत्यस्य पुरी । ) मथुरा ।  इति शब्दरत्नावली ॥
मधु नामक असुर ने ही मथुरा नगरी बसाई थी ।
और इसी के नाम पर इसका नाम करण हुआ ।
यह वर्णन बारहवीं सदी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भागवद् पुराण में भी वर्णित है । और मथुरा का रूप मधुरा अथवा मधुपुरी है ।
पुराणों में ऐसै ही सन्दर्भ प्राप्त हैं । देखें---
(यथा   भागवते ।  ७। १४ । ३१ । “ नैमिषं फाल्गुनं सेतुः प्रभासोऽथ कुशस्थली ।
वाराणसी मधुपुरी पम्पा बिन्दुसरस्तथा ॥ “ )
ऋग्वेद के ९६ वें सूक्त की एक ऋचा में कृष्ण के लिए असुर सम्बोधन आया है ।
ऋग्वेद कहताअष्टम् मण्डल के ९६.१३-१४वीं ऋचा में:------
____________________________________
‘अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे धारयतल्वम्, तित्विषाण:;
विशो अदेव् इर्भ्या चरन्तिर् बृहस्पतिना युजेन्द्र:
ससाहे’.
________________________________________
अर्थात् अंशुमती( संज्ञा स्त्री० )  यमुना (कलिन्दी यमुना )की उपस्थ (तलहटी )“उपस्था उपस्थे उत्सङ्गेऽन्तरालदेशे वा” भा० “तस्याः कुमारमुपस्थ आदधुः” गोभि० “उपस्थे उत्सङ्गे” सं० त० “भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान्” (ऋ० २, १४, ७ )
“रथोपस्थ उपाविशत्” गीता  (उप + स्था)
विश शब्द का प्रयोग वैदिक सन्दर्भों में प्राप्त है।
जो पणियों का विशेषण है । पणि फिनीशियन थे जो असीरियन जन-जाति के सहवर्ती थे।
(विश--क्विप् । १ मनुजे २ वैश्ये च अमरः )विट्, [श्] पुं, (विश् + क्विप् ।) वैश्यः । (यथा, मनुः । २ । ३६ । “गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्व्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भाच्च द्बादशे विशः ॥”) मनुजः । इत्यमरः ॥ (यथा, रघुः । १ । ९३ । “अथ प्रदोषे दोषज्ञः संवेशाय विशांपतिम् । सूनुः सूनृतवाक् स्रष्टुः विससर्जोदितश्रियम् ॥”) प्रवेशः । इति विश्वः ॥
यादवों में मधु एक प्रतापी शासक माना जाता है। मधु को असुर, दैत्य, दानव दास आदि कहा गया है।
साथ ही यह भी है ,कि मधु बड़ा धार्मिक एवं न्यायप्रिय शासक था।
परिचय की दृष्टि से मधु राजा के सौ पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र, एक यादवराज था। मधु राजा के कुल में श्री कृष्ण पैदा हुए थे ,और इसी कारण कृष्ण माधव और वृष्णि वंशीय होने से 'वार्ष्णेय' कहलाए। इनका वंश 'वृष्णि वंशीय यादव' कहलाता था।
ये लोग द्वारिका में निवास करते थे।
क्योंकि यादव ही इज़राएल में यहूदीयों के रूप में वर्णित हैं , परिलक्षित है ।
मधु की पत्नी का नाम कुम्भीनसी था ।
और मधु के पुत्र का नाम लवण का था।
लवण के पुत्र वाण की पुत्री उषा का विवाह कृष्ण के पुत्र प्रद्धुम्न के साथ हुआ था
,यह भी पुराणों में वर्णित है ।
शत्रुघ्न ने मधु पुत्र लवणासुर को मार कर ब्रज परिक्रमा की थी। पुराण कारों ने आनुमानिक रूप से ये वर्णन कर दिया है।
मधु इक्ष्वाकु वंशी राजा दिलीप द्वितीय का अथवा उसके उत्तराधिकारी दीर्घबाहु का समकालीन रहा होगा ,मधु के गुजरात से लेकर यमुना तट तक के स्वामी होने का वर्णन है।
मधु का शासन शूरसेन से आनर्त (उत्तरी गुजरात) तक के भू-भाग पर था। यदुवंशी मधु का शासन मथुरा पर भी था। मधु अत्यंत प्रतापी, प्रजा-पालक और धार्मिक नरेश था। मधु को अच्छा शासक माना जाता है।
इतिहास पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि मधु नामक दैत्य ने जब मथुरा का निर्माण किया तो निश्चय ही यह नगरी बहुत सुन्दर और भव्य रही होगी।
मधु द्वारा निर्मित मधुपुरी को मधु नामक दैत्य ने बसाया था। वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है। मधु पुत्र लवणासुर को शत्रुघ्न ने युद्ध में पराजित कर उसका वध कर दिया था
यह भी वर्णन वाल्मीकि-रामायण में है ।
वाल्मीकि-रामायण में राम के द्वारा यदु वंश के प्राचीनतम कबीले आभीरों का वध समुद्र के कहने पर दर्शाया है ।🌋 ----------------------------------------------------------------- यदुवंशी कृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में-- यह कहना पूर्ण रूपेण मिथ्या व विरोधाभासी ही है कि .......
"वर्णानां ब्राह्मणोsहम् " ( श्रीमद्भगवद् गीता षष्ठम् अध्याय विभूति-पाद) __________________________________ {"चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:" } (श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय ४/३)
क्योंकि कृष्ण यदु वंश के होने से स्वयं ही शूद्र अथवा दास थे । फिर वह व्यक्ति समाज की पक्ष-पात पूर्ण इस वर्ण व्यवस्था का समर्थन क्यों करेगा ! ... गीता में वर्णित बाते दार्शिनिक रूप में तो कृष्ण का दर्शन (ज्ञान) हो सकता है । ________________________ परन्तु
{"वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "} ________________________________________ अथवा
{ चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:} जैसे
तथ्य उनके मुखार-बिन्दु से नि:सृत नहीं हो सकते हैं गुण कर्म स्वभाव पर वर्ण व्यवस्था का निर्माण कभी नहीं हुआ... ये तो केवल एक आडम्बरीय आदर्श है । केवल जन्म या जाति के आधार पर ही हुआ ।
ईरानी आर्यों ने भी समाज को चार वेदों में विभाजित किया था ।
परन्तु वह विभाजन कर्म पर आधारित था ।
परन्तु भारतीय वर्ण-व्यवस्था जाति पर आधारित रही
__________________________________________
.. स्मृतियों का विधान था , कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ।
क्योंकि वह जन्म से ब्राह्मण है इसलिए _____________________________________
और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है।
क्योंकि कौन दोष-पूर्ण अंगों वाली गाय को छोड़कर, शील वती गधी को कौन दुहेगा ?
_____________"_________________""______
... "दु:शीलोSपि द्विज पूजिये न शूद्रो विजितेन्द्रीय: क: परीत्ख्य दुष्टांगा दुहेत् शीलवतीं खरीम् ।।१९२।।. ( पराशर स्मृति ) ------------------------------------------------------

हरिवंश पुराण में वसुदेव का गोप रूप में वर्णन है । _______________________________
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ! गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वम् एष्यति ।।२२।।
अर्थात् जल के अधिपति वरुण के द्वारा ऐसे वचनों को सुनकर अर्थात् कश्यप के विषय में सब कुछ जानकर वरुण ने कश्यप को शाप दे दिया , कि कश्यप ने अपने तेज के प्रभाव से उन गायों का अपहरण किया है । उसी अपराध के प्रभाव से व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करें अर्थात् गोपत्व को प्राप्त हों । ________________________________________ हरिवंश पुराण (ब्रह्मा की योजना) नामक अध्याय पृष्ठ संख्या २३३ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करणों) ****************************************** और बौद्ध काल के बाद में रचित स्मृति - ग्रन्थों में जैसे व्यास -स्मृति में अध्याय १ श्लोक संख्या ११--१२ में--- ______________________________________ ______________________________________ अर्थात् बढ़ई ,नाई ,गोप (यादव)कुम्भकार,बनिया ,किरात कायस्थ मालाकार ,दास अथवा असुर कोल आदि जन जातियाँ इतनी अपवित्र हैं, कि इनसे बात करने के बाद सूर्य दर्शन अथवा स्नानं करके पवित्र होना चाहिए ----------(व्यास -स्मृति )----. सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ---------------------------------------------------
" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: । स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: --------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है । और विप्रों के द्वारा भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... (सम्वर्त- स्मृति) ____________________________ वेद व्यास स्मृति में लिखा है कि _____________________________________ वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । वणिक् किरात: कायस्थ :मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) ,नाई ,गोप ,आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ,माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्करो, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दास,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान करना चाहिए तब शुद्धि होती है
____________________________
अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दासगोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ( व्यास-स्मृति) धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया: ।।५०।। _______________________________________ नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________ (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) -------------------------------------------------------------- स्मृतियों की रचना काशी में हुई ,---------- वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे । _________________________________________ "" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
__________________________________________
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । -------------------------------------------------------------- तुलसी दास जी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए लिखते हैं --- -------- राम और समुद्र के सम्वाद रूप में..
. "आभीर यवन किरात खल अति अघ रूप जे " वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर समुद्र राम से निवेदन करता है कि आप अपने अमोघ वाण उत्तर दिशा में रहने वाले अहीरों पर छोड़ दे-- जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।
कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ................
जड़ समुद्र भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है ।

--------------------------------------------------------------उत्तरेणावकाशो$स्ति कश्चित् पुण्यतरो मम ।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।।
उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: ।
आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।।
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: ।
अमोघ क्रियतां रामो$यं  तत्र शरोत्तम: ।।३४।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।।
          (वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग)
__________________________________________
अर्थात् समुद्र राम से बोल प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं ।
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है ।३२।
वहाँ अाभीर आदि जातियों के बहुत सेमनुष्य निवास करते हैं ।
जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं ।सबके सब पापी और लुटेरे हैं ।
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है ।
इस पाप को मैं नहीं यह सकता हूँ ।
हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३।
________________________________________
निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है
जो अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु मूर्खता पूर्ण भी है ।
__________________________________________
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६  में गायत्री माता को  नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री के रूप में वर्णित किया गया है ।
_________________________________________
" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
      सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या ,
      शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
_________________________________________
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर  दंग रह गये ।
उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।
इन्द्र ने तब  ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ?
_________________________________________

गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो ,
अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
भागवत पुराण :----को
१०/१/२२ में स्पष्टत: आभीरों अथवा गोपों देवताओं का अवतार बताया गया है ।
________________________________________
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।
________________________________________
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं
पगले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी
गायत्री के लिए ..
***************************************
________________________________________
अहीर ही वास्तविक यादवों का रूप हैं ।
जिनकी अन्य शाखाएें गौश्चर: (गुर्जर) तथा जाट हैं ।
दशवीं सदी में अल बरुनी ने नन्द को जाट के रूप में वर्णित किया है ।
...जाट अर्थात् जादु (यदु ) अहीर ,जाट ,गुर्जर आदि जन जातियों को शारीरिक रूप से शक्ति शाली और वीर होने पर भी तथा कथित ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय नहीं माना.. _______________________________________ क्योंकि इनके पूर्वज यदु दास घोषित कर दिये थे ।.... और आज जो राजपूत अथवा ठाकुर अथवा क्षत्रिय स्वयं को लिख रहे हैं ... वो यदु वंश के कभी नहीं हैं । क्योंकि वेदों में भी यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया है।
जादौन तो अफ़्ग़ानिस्तान में तथा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में पठान थे ।
जो सातवीं सदी में कुछ इस्लाम में चले गये और कुछ भारत में राजपूत अथवा ठाकुर के रूप में उदित हुए ... यद्यपि जादौन पठान स्वयं को यहूदी ही मानते हैं .... ________________________________________ परन्तु हैं ये पठान लोग धर्म की दृष्टि से मुसलमान है ... पश्चिमीय एशिया में भी अबीर (अभीर) यहूदीयों की प्रमाणित शाखा है । यहुदह् को ही यदु कहा गया ... हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये" और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है । -----------------------------------------------------------------
वेदों में वर्णित तथ्य ही ऐतिहासिक श्रोत हो सकते हैं । न कि रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थ में वर्णित तथ्य.... ये पुराण आदि ग्रन्थ बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये । और भविष्य-पुराण सबसे बाद अर्थात् में उन्नीसवीं सदी में.. ----------------------------------------------------------------- आभीर: , गौश्चर: ,गोप: गोपाल : गुप्त: यादव - इन शब्दों को एक दूसरे का पर्याय वाची समझा जाता है।
अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है, जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया था ।
गुप्त कालीन संस्कृत शब्द -कोश "अमरकोष " में गोप शब्द के अर्थ ---गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर:, वल्लभ, आदि बताये गए हैं।
प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर, अरोरा व ग्वाला सभी समानार्थी शब्द हैं। हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं।.
वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी अहीर, घोषी नामक जो मुसलमान गद्दी जन-जाति है ।
वह भी इन्ही अहीरों से विकसित है । हिमाचल प्रदेश में गद्दी आज भी हिन्दू हैं । तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है।
आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई। _________________________________________
इतिहास कारों ने ऐसा लिखा ...
परन्तु प्रमाण तो यह भी हैं कि अहीर लोग , देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध भारतीय आर्यों से बहुत पहले ही इस भू- मध्य रेखीय देश में आ गये थे, जब भरत नाम की इनकी सहवर्ती जन-जाति निवास कर कहा थी । भारत नामकरण भी यहीं से हुआ है...
शूद्रों की यूरोपीय पुरातन शाखा स्कॉटलेण्ड में शुट्र (Shouter) थी ।
स्कॉटलेण्ड का नाम आयर लेण्ड भी नाम था । तथा जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) भी इसी को कहा गया ... स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र आयबेरिया इन अहीरों की एक शाखा की क्रीडा-स्थली रहा है ! आयरिश भाषा और संस्कृति का समन्वय प्राचीन फ्रॉन्स की ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड संस्कृति से था । ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटॉन् भी इसी संस्कृति से सम्बद्ध थे । ______________________________________ परन्तु पाँचवी-सदी में जर्मन जाति से सम्बद्ध एेंजीलस शाखा ने इनको परास्त कर ब्रिटेन का नया नाम आंग्ललेण्ड देकर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया --- भारत के नाम का भी ऐसा ही इतिहास है । _______________________________________ आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- " अभित: ईरयति इति आभीर " के रूप में भी मान्य है । इनका तादात्म्य यहूदीयों के कबीले अबीरों (Abeer) से प्रस्तावित है । "( और इस शब्द की व्युत्पत्ति- अभीरु के अर्थ अभीर से प्रस्तावित है--- जिसका अर्थ होता है ।जो भीरु अथवा कायर नहीं है ,अर्थात् अभीर :) ________________________________________ इतिहास मे भी अहीरों की निर्भीकता और वीरता का वर्णन प्राचीनत्तम है । इज़राएल में आज भी अबीर यहूदीयों का एक वर्ग है । जो अपनी वीरता तथा युद्ध कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है । कहीं पर " आ समन्तात् भीयं राति ददाति इति आभीर : इस प्रकार आभीर शब्द की व्युत्पत्ति-की है , जो अहीर जाति के भयप्रद रूप का प्रकाशन करती है । अर्थात् सर्वत्र भय उत्पन्न करने वाला आभीर है । यह सत्य है कि अहीरों ने दास होने की अपेक्षा दस्यु होना उचित समझा ... तत्कालीन ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित आडम्बर का विरोध किया । अत: ये ब्राह्मणों के चिर विरोधी बन गये और ब्राह्मणों ने इन्हें दस्यु ही कहा " _________________________________________ बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया हुआ बताया है , वह भी यवन (यूनानीयों)के साथ ... देखिए कितना विरोधाभासी वर्णन है । फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गया.... और वह भी गोपिकाओं को लूटने वाले .. ________________________________________ जबकि गोप को ही अहीर कहा गया है । संस्कृत साहित्य में.. इधर उसी महाभारत के लेखन काल में लिखित स्मृति-ग्रन्थों में व्यास-स्मृति के अध्याय १ के श्लोक संख्या ११---१२ पर गोप, कायस्थ ,कोल आदि को इतना अपवित्र माना, कि इनको देखने के बाद तुरन्त स्नान करना चाहिए.. _______________________________________ यूनानी लोग भारत में ई०पू० ३२३ में आये और महाभारत को आप ई०पू० ३०००वर्ष पूर्व का मानते हो.. फिर अहीर कब बाहर से आये ई०पू० ३२३ अथवा ई०पू० ३०००में .... भागवत पुराण में तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार माना लिया गया है । जबकि वाल्मीकि-रामायण में राम बुद्ध को चोर और नास्तिक कहते हैं । राम का और बुद्ध के समय का क्या मेल है ? अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३४ वें श्लोक में राम कहते हैं--जावालि ऋषि से---- -------------------------------------------------------------- यथा ही चोर:स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ------------------------------------------------------------------- ---------------------------------------
बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया..... फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये.... -------------------------------- किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: आभीर शका यवना खशादय :। येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम: ------------------------------------ श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८
वास्तव में एैसे काल्पनिक ग्रन्थों का उद्धरण देकर जो लोग अहीरों(यादवों) पर आक्षेप करते हैं ।
नि: सन्देह वे अल्पज्ञानी व मानसिक रोगी हैं .. वैदिक साहित्य का अध्ययन कर के वे अपना उपचार कर लें ... ------------------------------------------------------------
हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ---वीर अथवा शक्तिशाली (Strong or brave) आभीरों को म्लेच्छ देश में निवास करने के कारण अन्य स्थानीय आदिम जातियों के साथ म्लेच्छों की कोटि में रखा जाता था, तथा वृत्य क्षत्रिय कहा जाता था। वृत्य अथवा वार्त्र भरत जन-जाति जो वृत्र की अनुयायी तथा उपासक थी । जिस वृत्र को कैल्ट संस्कृति में ए-बरटा (Abarta)कहा है । जो त्वष्टा परिवार का सदस्य हैं । तो इसके पीछे यह कारण था , कि ये यदु की सन्तानें हैं _______________________________________ यदु को ब्राह्मणों ने आर्य वर्ग से बहिष्कृत कर उसके वंशजों को ज्ञान संस्कार तथा धार्मिक अनुष्ठानों से वञ्चित कर दिया था । और इन्हें दास -(दक्ष) घोषित कर दिया था ।
इसका एक प्रमाण देखें --- ------------------------------------------------------------------- उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे- ------------------------------------------------------------- ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२ सूक्त के १० वें श्लोकाँश में.. यहाँ यदु और तुर्वसु दौनों को दास कर सम्बोधित किया गया है । यदु और तुर्वसु नामक दास गायों से घिरे हुए हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं। ---------------------------------------------------------------- ईरानी आर्यों की भाषा में दास शब्द दाह/ के रूप में है जिसका अर्थ है ---पूज्य व पवित्र अर्थात् (दक्ष ) यदु का वर्णन प्राचीन पश्चिमीय एशिया के धार्मिक साहित्य में गायों के सानिध्य में ही किया है । अत: यदु के वंशज गोप अथवा गोपाल के रूप में भारत में प्रसिद्ध हुए..... हिब्रू बाइबिल में ईसा मसीह की बिलादत(जन्म) भी गौओं के सानिध्य में ही हुई ... ईसा( कृष्ट) और कृष्ण के चरित्र का भी साम्य है | ईसा के गुरु एेंजीलस( Angelus)/Angel हैं ,जिसे हिब्रू परम्पराओं ने फ़रिश्ता माना है ।
तो कृष्ण के गुरु घोर- आंगीरस हैं ।
---------. ------------ ----------------------------------------
दास शब्द ईरानी असुर आर्यों की भाषा में दाहे के रूप में उच्च अर्थों को ध्वनित करता है।
बहुतायत से अहीरों को दस्यु उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है ।
सम्भवत: इन्होंने चतुर्थ वर्ण के रूप में दासता की वेणियों को स्वीकार नहीं किया, और ब्राह्मण जाति के प्रति विद्रोह कर दिया तभी से ये दास से दस्यु: हो गये ... जाटों में दाहिया गोत्र इसका रूप है ।
वस्तुत: दास का बहुवचन रूप ही दस्यु: रहा है । जो अंगेजी प्रभाव से डॉकू अथवा (dacoit )हो गया । ------------------------------------------------------------------- महाभारत में भी युद्धप्रिय, घुमक्कड़, गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है। महाभारत के मूसल पर्व में आभीरों को लक्ष्य करके प्रक्षिप्त और विरोधाभासी अंश जोड़ दिए हैं । कि इन्होने प्रभास क्षेत्र में गोपियों सहित अर्जुन को भील रूप में लूट लिया था । आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा। अन्ततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाए, जिन्हें राजपूतों सा ही योद्धा माना गया। ---------------------------------------------------------- मनु-स्मृति में अहीरों को काल्पनिक रूप में ब्राह्मण पिता तथा अम्बष्ठ माता से उत्पन्न कर दिया है । आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं।
______________________________________
ब्राह्मणद्वैश्य कन्यायायामबष्ठो नाम जायते ।
"आभीरोsम्बष्टकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण" इति-----( मनु-स्मृति ) अध्याय १०/१५
तारानाथ वाचस्पत्य कोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- दी है --- "आ समन्तात् भियं राति ददाति - इति आभीर : " अर्थात् सर्वत्र भय भीत करने वाले हैं ।
- यह अर्थ तो इनकी साहसी और वीर प्रवृत्ति के कारण दिया गया था ।
क्योंकि शूद्रों का दर्जा इन्होने स्वीकार नहीं किया । दास होने की अपेक्षा दस्यु बनना उचित समझा।
अत: इतिहास कारों नें इन्हें दस्यु या लुटेरा ही लिखा । जबकि अपने अधिकारों के लिए इनकी यह लड़ाई थी । सौराष्ट्र के क्षत्रप शिलालेखों में भी प्रायः आभीरों का वर्णन मिलता है। ----------------------------------------------------------------- पुराणों व बृहद्संहिता के अनुसार समुद्रगुप्त काल में भी दक्षिण में आभीरों का निवास था।
उसके बाद यह जाति भारत के अन्य हिस्सों में भी बस गयी। मध्य प्रदेश के अहिरवाड़ा को भी आभीरों ने संभवतः बाद में ही विकसित किया।
राजस्थान में आभीरों के निवास का प्रमाण जोधपुर शिलालेख (संवत 918) में मिलता है, जिसके अनुसार "आभीर अपने हिंसक दुराचरण के कारण निकटवर्ती इलाकों के निवासियों के लिए आतंक बने हुये थे " यद्यपि पुराणों में वर्णित अभीरों की विस्तृत संप्रभुता 6ठवीं शताब्दी तक नहीं टिक सकी, परंतु बाद के समय में भी आभीर राजकुमारों का वर्णन मिलता है, हेमचन्द्र के "दयाश्रय काव्य" में जूनागढ़ के निकट वनस्थली के चूड़ासम राजकुमार गृहरिपु को यादव व आभीर कहा गया है। भाटों की श्रुतियों व लोक कथाओं में आज भी चूड़ासम "अहीर राणा" कहे जाते हैं। अम्बेरी के शिलालेख में सिंघण के ब्राह्मण सेनापति खोलेश्वर द्वारा आभीर राजा के विनाश का वर्णन तथा खानदेश में पाये गए गवली (ग्वाला) राज के प्राचीन अवशेष जिन्हें पुरातात्विक रूप से देवगिरि के यादवों के शासन काल का माना गया है, यह सभी प्रमाण इस तथ्य को बल देते हैं कि आभीर यादवों से संबन्धित थे।
आज तक अहीरों में यदुवंशी अहीर नामक उप जाति का पाया जाना भी इसकी पुष्टि करता है।
____________________________________________
अहीरों की ऐतिहासिक उत्पत्ति को लेकर विभिन्न इतिहासकर एकमत नहीं हैं।
परन्तु महाभारत या श्री मदभगवत् गीता के युग मे भी यादवों के आस्तित्व की अनुभूति होती है ।। तथा उस युग मे भी इन्हें आभीर,अहीर, गोप या ग्वाला ही कहा जाता था। कुछ विद्वान इन्हे भारत में आर्यों से पहले आया हुआ बताते हैं, परंतु शारीरिक गठन के अनुसार इन्हें आर्य माना जाता है। ---------------------------------------------------------------- पौराणिक दृष्टि से, अहीर या आभीर यदुवंशी राजा आहुक के वंशज है। शक्ति संगम तंत्र मे उल्लेख मिलता है कि राजा ययाति के दो पत्नियाँ थीं-देवयानी व शर्मिष्ठा। देवयानी से यदु व तुर्वशू नामक पुत्र हुये। यदु के वंशज यादव कहलाए।
ये सारी विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं ही है ।
मात्र काल्पनिक उड़ाने , यह भी वाल्मीकि-रामायण में वर्णन है कि शत्रुघ्न ने मधुपुरी के स्थान पर  नई मथुरा या मथुरा नगरी बसाई थी।
मधुवन या मधुपुरी मधु के नाम पर ही है जो कि मथुरा का पुराना नाम है। इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है। लवणासुर, जिसको शत्रुघ्न ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था। इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है।
रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है।
रामायण पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल में रचित ग्रन्थ है ।
हिन्दूओं के प्रमुख धर्मग्रंथ ऋग्वेद का मूल देवता इंद्र है।
इसके 10,552 श्लोकों में से 3,500 अर्थात् ठीक एक-तिहाई इंद्र से संबंधित हैं।
इंद्र और कृष्ण का मतान्तर एवं युद्ध सर्वविदित है। प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में कृष्ण को विजेता बताया है ।
तथा इंद्र का पराजित होना दर्शाया है।
इंद्र और कृष्ण का यह युद्ध आमने-सामने लड़ा गया युद्ध नहीं है।
यद्यपि वेदों में इन्द्र आर्यों का प्रधान देव है ।
तथा युद्ध के नायक रूप में आर्यों का सहायक है ।
परन्तु पुराणों में इन्द्र कृष्ण द्वारा पराजित होकर कृष्ण को गोविन्द संज्ञा से अभिहित करते हैं ।
इस युद्ध में कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा का विरोध किया जाता है, ।
जिससे कुपित इन्द्र अतिवृष्टि कर मथुरावासियों को डुबोने पर आमादा हैं।
कृष्ण गोवर्धन पर्वत के जरिए अपने लोगों को इन्द्र के कोप से बचा लेते हैं। इन्द्र थककर पराजय स्वीकार कर लेता है। इस संपूर्ण घटनाक्रम में कहीं भी आमने-सामने युद्ध नहीं होता है लेकिन अन्य हिंदू धर्मग्रंथों, विशेषकर ऋग्वेद में इस युद्ध के दौरान जघन्य हिंसा का जिक्र है तथा इंद्र को विजेता दिखाया गया है।
ऋग्वेद मंडल-1 सूक्त 130 के 8वें श्लोक में कहा गया है कि - ''हे इंद्र! युद्ध में आर्य यजमान की रक्षा करते हैं। अपने भक्तों की अनेक प्रकार से रक्षा करने वाले इंद्र उसे समस्त युद्धों में बचाते हैं एवं सुखकारी संग्रामों में उसकी रक्षा करते हैं।
इन्द्र ने अपने भक्तों के कल्याण के निमित्त यज्ञद्वेषियों की हिंसा की थी।
इंद्र ने कृष्ण नामक असुर की काली खाल उतारकर उसे अंशुमती ( यमुनानदी )के किनारे मारा और भस्म कर दिया।
इन्द्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला।''
ये वर्णन अतिश्योक्ति पूर्ण हैं ।
______________________________________
ऋग्‍वेद के मंडल-1 के सूक्त 101 के पहले श्लोक में लिखा है कि:
''गमत्विजों, जिस इंद्र ने राजा ऋजिश्वा की मित्रता के कारण कृष्ण असुर की गर्भिणी पत्नियों को मारा था, उन्हीं के स्तुतिपात्र इंद्र के उद्देश्य से हवि रूप अन्न के साथ-साथ स्तुति वचन बोला।
वे कामवर्णी दाएं हाथ में वज्र धारण करते हैं।
रक्षा के इच्छुक हम उन्हीं इन्द्र का मरुतों सहित आह्वावन करते हैं।''
इंद्र और कृष्ण की शत्रुता की भी रहस्य को समझने के लिए ऋग्वेद के मंडल 8 सूक्त 96 के श्लोक 13,14,15 और 17 को भी देखना चाहिए
ऋगवेद के श्लोक 13 के अनुसार:- शीघ्र गतिवाला एवं दस हजार सेनाओं को साथ लेकर चलने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमती नदी के किनारे रहता था।
इंद्र ने उस चिल्लाने वाले असुर को अपनी बुद्धि से खोजा एवं मानव हित के लिए वधकारिणी सेनाओं का नाश किया।
श्लोक -14: इंद्र ने कहा-मैंने अंशुमती नदी के किनारे गुफा में घूमने वाले कृष्ण असुर को देखा है, वह दीप्तिशाली सूर्य के समान जल में स्थित है। हे अभिलाषापूरक मरुतो, मैं युद्ध के लिए तुम्हें चाहता हूं। तुम यु़द्ध में उसे मारो।
श्लोक -15: तेज चलने वाला कृष्ण असुर अंशुमती नदी के किनारे दीप्तिशाली बनकर रहता था।
इंद्र ने बृहस्पति की सहायता से काली एवं आक्रमण हेतु आती हुई सेनाओं का वध किया।
श्लोक 17: हे बज्रधारी इंद्र! तुमने वह कार्य किया है। तुमने अद्वितीय योद्धा बनकर अपने बज्र से कृष्ण का बल नष्ट किया। तुमने अपने आयुधों से कुत्स के कल्याण के लिए कृष्ण असुर को नीचे की ओर मुंह करके मारा था ,तथा अपनी शक्ति से शत्रुओं की गाएं प्राप्त की थीं।
क्या कृष्ण और यादव असुर थे?
ऋग्वेद के इन श्लोकों पर कृष्णवंशीय लोगों का ध्यान नहीं गया होगा। यदि गया होता तो बहुत पहले ही तर्क-वितर्क शुरू हो गया होता। वेद में उल्लेखित असुर कृष्ण को यदुवंश शिरोमणि कृष्ण कहने पर कुछ लोग शंका व्यक्त करेंगे ,कि हो सकता है कि दोनों अलग-अलग व्यक्ति हों, लेकिन जब हम सम्पूर्ण प्रकरण की गहन समीक्षा करेंगे तो यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाएगी, क्योंकि यदुकुलश्रेष्ठ का रंग काला था, वे गायवाले थे और यमुना तट के पास उनकी सेनाएं भी थीं।
सबसे प्राचीनत्तम ग्रन्थ( ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा से भी यह सिद्ध हो जाता है
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं हम उन महामानवों का सम्मान करते हैं ।(ऋ०१०/६२/१०/)
दास अथवा असुर संस्कृति के उपासक थे ।
ईरानी आर्यों ने असुर संस्कृति का अनुपालन किया
और अपने सर्वोपरि ईश्वरीय सत्ता का वाचक को अहुर मज्दा कहा , यह अहुर मज्दा भी असुर महत् का तद्भव है।
दाहिस्तान भी यहीं पर है अजरवेज़ान और ईरानी सीमाओं में 🗾🗾🗾
वेद के असुर कृष्ण के पास भी सेनाएं थीं। अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के पास उनका निवास था । और वह भी काले रंग एवं गाय वाला थे। उसका गोर्वधन गुफा में बसेरा था।
यदुवंशी कृष्ण एवं असुर कृष्ण दोनों का इन्द्र से विरोध था।
दोनों यज्ञ एवं इंद्र की पूजा के विरुद्ध थे।
वेद में कृष्ण एवं इन्द्र का यमुना के तीर  युद्ध होना, कृष्ण की गर्भिणी पत्नियों की हत्या, सम्पूर्ण सेना की हत्या, कृष्ण की काली छाल नोचकर उल्टा करके मारने और जलाने, उनकी गायों को लेने की घटना इस देश के आर्य-अनार्य युद्ध का ठीक उसी प्रकार से एक हिस्सा है, जिस तरह से महिषासुर, रावण, हिरण्यकष्यप, राजा बलि, बाणासुर, , बृहद्रथ के साथ छलपूर्वक युद्ध करके उन्हें मारने की घटना को महिमामण्डित किया जाना। इस देश के मूल निवासियों को गुमराह करने वाले पुराणों को ब्राह्मणों ने इतिहास की संज्ञा देकर प्रचारित किया जो कल्पना की उड़ाने मात्र अधिक हैं।
कहा जाता है कि जब कृष्ण ने अपनी दस हज़ार सेना के साथ अंशुमती या यमुना परआवास किया तब इन्द्र ने मरुतों
को संगठित किया और पुरोहित देव बृहस्पति की सहायता से अदेवी: विश: के साथ युद्ध किया।।
अदेवी: विश: का अर्थ सायण ने काले रंग का असुर बताया है।
कृष्ण को श्याम वर्ण का आर्येतर योद्धा बताया गया है, जो यादव जाति का था।
यह सम्भव मालूम पड़ता है, क्योंकि परवर्ती अनुश्रुति है कि इन्द्र और कृष्ण में बड़ी शत्रुता थी। ऐसा प्रसंग आया है जिसमें कृष्णगर्भा के मारे जाने की चर्चा है, जिसका अर्थ संशयपूर्वक सायण ने कृष्ण नामक असुर की गर्भवती पत्नियाँ बताया है।
इसी प्रकार से इन्द्र द्वारा
कृष्णयोनि: दासी: के विनाश का भी उल्लेख है
सायण की उर्वर कल्पना ने उन्हें निकृष्ट जाति की आसुरी सेना माना है,।
किन्तु विल्सन कृष्ण को श्याम वर्ण का द्योतक मानते हैं। यदि विल्सन का अर्थ सही माना जाए तो यह स्पष्ट है कि दास काले रंग के होते थे।
किन्तु हो सकता है कि उन्हें उसी प्रकार काले रंग का कहा गया हो, जिस प्रकार दस्युओं और आर्यों के अन्य शत्रुओं को कहा गया है।
उपर्युक्त प्रसंगों से निस्संदेह यह स्पष्ट होता है कि अग्नि और सोम के उपासक आर्यों को भारत के काले लोगों से युद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद में एक प्रसंग आया है, जिसमें ‘पुरुकुत्स’ का पुत्र ‘त्रसदस्यु’ नामक वैदिक योद्धा काले रंग के लोगों के नेता के रूप मे वर्णित है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि उसने उन लोगों पर अपनी धाक जमा रखी थी।
यदि दस्युओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त अनास
शब्द का अर्थ नासाविहीन या चिपटी नाकवाला किया जाए और दासों के प्रसंग में प्रयुक्त वृषशिप्र शब्द का अर्थ ‘वृषभ ओष्ठवाला’ या उभरे ओठोंवाला माना जाए तो यह मालूम पड़ेगा कि मुखाकृतियों की दृष्टि से आर्यों के शत्रु उनसे भिन्न प्रकार के थे।
परन्तु असुर संस्कृति के उपासक आर्यों से भी अधिक सुन्दर व शक्ति शाली थे ।
असुर शब्द 'असु' अर्थात 'प्राण', और 'र' अर्थात 'वाला' (प्राणवान् अथवा शक्तिमान) से मिलकर बना है। बाद के समय में धीरे-धीरे असुर भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया।
ऋग्वेद में 'असुर' वरुण तथा दूसरे देवों के विशेषण रूप में व्यवहृत हुआ है, जिसमें उनके रहस्यमय गुणों का पता लगाता है।
असुर वस्तुत असीरियन यौद्धा थे जो सेमेटिक जन-जाति के यहूदीयों से सम्बद्ध है।
यद्यपि अवान्तर काल में हिब्रू बाइबिल अथवा पुराणों
आर्यों के मूल धर्म में सर्वशक्तिमान भगवान के अंशस्‍वरूप प्राकृतिक शक्तियों की उपासना होती थी। ऋग्‍वेद में सूर्य, वायु, अग्नि, आकाश और इंद्र से ऋद्धि-सिद्धियां मांगी जाती थीं।
यही देवता हैं। उक्त देवताओं के ऊपर विष्णु और विष्णु से ऊपर ब्रह्म ही सत्य माना जाता था।
बाद में अमूर्त देवताओं की कल्‍पना हुई जिन्‍हें ‘असुर’ कहा गया।
जो प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन भी कर सकते थे, मानवता एवं सांसारिक हित एवं भौतिक प्राप्ति हेतु |  ‘देव’ तथा ‘असुर’ ये दोनों शब्‍द पहले देवताओं के अर्थ में प्रयोग होते थे।
ऋग्‍वेद के प्राचीनतम अंशों में ‘असुर’ इसी अर्थ में प्रयुक्‍त हुआ है। वेदों में ‘वरुण’ को ‘असुर’ कहा गया और सबके जीवनदाता ‘सूर्य’ की गणना ‘सुर’ तथा ‘असुर’ दोनों में है।
कृष्ण को भी ऋग्वेद में कृष्णासुर कहा गया है |
तो इसके मूल में यही अवधारणा है । ऋग्वेद ८/९६/७५८४ में इन्द्र का कथन है.
.द्रप्सम पश्यंविषुयोचरस्तमुपह्वरे नद्यो अन्शुमत्या: |
भो त कृष्णमवत स्थिवांस मिस्यामि वो वृषणो ||
इस तथ्य का वारं वार पिष्ट- पेषण ध्यानाकर्षण
----हमने अंशुमती तट ( यमुना तट ) पर गुफाओं में घूमते हुए कृष्णासुर को सूर्य के सदृश्य देख लिया है | हे मरुतो! संग्राम में हम आपके सहयोग की अपेक्षा रखते हैं|
बाद में कर्म के नियमानुशासन की प्रतिबद्धता से संयुक्त होने पर अति-भौतिकता पर चलने वालों को असुर एवं संस्कारित मानवीय व उच्चकोटि के सदाचरण के गुणों को सुर कहा गया |
‘देव’ शब्‍द के लिए सुर का प्रयुक्‍त करने लगे और ‘असुर’ का अर्थ ‘राक्षस’ करने लगे।
परन्तु ईरानी आर्यों के पवित्र ग्रन्थ  ऋग्वेद में यम अपनी बहन यमी से उसकी कामेच्छा जनित मांग के अनुचित रूप की सिकायतअसुर वरुण से करने की कहता है । |
ऋग्वेद १०/१०/८८६७ में यम का कथन है कथन है---
न ते सखा सख्यं वष्टये वत्सलक्ष्यामद्वि पुरुषा भवति|
महष्पुमान्सो असुरस्य वीरा दिवोध्वरि उर्विया परिख्यानि ||
--हे सखी! आपका यह सहयोगी आपके साथ इस प्रकार के संपर्क का इच्छुक नहीं है क्योंकि आप सहोदरा बहन हैं|
हमें यह अभीष्ट नहीं है |
आप असुरों के वीर पुत्रों, जो सर्वत्र विचरण करते हैं की संगति करें |
मिश्र की पुरातन कथाओं में यम को हेम कहा गया है ।
जहाँ भाई-बहिन ही विवाह कर लेते हैं ।
परवर्ती युग में असुर का प्रयोग देवों (सुरों) के शत्रु रूप में प्रसिद्ध हो गया।
हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं।
धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, असु राति अर्थात् जो प्राण देता है, के रूप में चित्रित किया गया है
'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है ।
और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८)
और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।
असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया ।
और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया।
और दष्यु अथवा दास को ईरानी आर्यों ने श्रेष्ठ व पूज्य अर्थ में ग्रहण किया है ।
फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।
(ऋक्. १०।१३८।३-४)। शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)।
अर्थात् वे असुर हे अरय: हे अरय इस प्रकार करते हुए पराजित हो गये ।

वाल्मीकि-रामायण में वर्णित किया गया है कि देवता सुरा पान करने के कारण सुर कहलाए ,
और जो सुरा पान नहीं करते वे असुर कहलाते थे  ।
" सुरा प्रति ग्रहाद् देवा: सुरा इति अभिविश्रुता ।
अप्रति ग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता ।।
वस्तुत देव अथवा सुर जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध हैं ।
स्वीडन के स्वीअर (Sviar)लोग जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध हैं ।
यूरोपीय संस्कृतियों में सुरा एक सीरप (syrup)
के समान है l
यूरोपीय लोग शराब पीना शुभ और स्वास्थ्य प्रद समझते है ।
कारण वहाँ की शीतित जल-वायु के प्रभाव से बचने के लिए शराब औषधि तुल्य है ।     फ्रॉञ्च भाषा में शराब को सीरप (syrup )ही कहते हैं ।
अत: वाल्मीकि-रामायण कार ने सुर शब्द की यह अानुमानिक व्युत्पत्ति- की है ।
परन्तु सुर शब्द का विकास जर्मनिक जन-जाति स्वीअर (Sviar) से हुआ है ।
असुर और सुर दौनों शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न हुई है
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का संबंध असुरों से माना जाता है।
पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
असुर संस्कृति असीरियन लोगों की संस्कृति थी ।
असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि जातियों के आवास वर्तमान ईराक और ईरान के प्राचीनत्तम रूप में थे ।
जिसे यूनानीयों ने मैसॉपोटामिया अर्थात् दजला और फ़रात के मध्य कीआवासित सभ्यता माना --
उत्तरीय ध्रव से भू-मध्य रेखीय क्षेत्रों में आगमन काल में आर्यों ने  दीर्घ काल तक असीरियन लोगों से संघर्ष किया प्रणाम स्वरूप बहुत से सांस्कृतिक तत्व ग्रह किये
वेदों में अरि शब्द देव वाची है ।
देखें---
विश्ववो हि अन्यो अरि: आजगाम ।
मम इदह श्वशुरो न आजगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित पुनरस्तं जगायात् ।।
             (10/28/1 ऋग्वेद )
अर्थात् ऋषि पत्नी कहती है कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आये परन्तु परन्तु हमारे श्वशुरो नहीं आये इस यज्ञ में यदि वे आते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते ।।10/28/1
------------------------------------------------------
तथा अन्यत्र भी ऋग्वेद 8/51/9 -
यस्यायं  विश्वार्यो दास: शेवधिपा अरि:।
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सो अज्यते रयि:।।
अरि: आर्यों का प्रधान देव था  आर्यों ने स्वयं को अरि पुत्र माना ।
असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ ।
सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अरि शब्द अलि के रूप में वर्णित है ।

वैदिक काल में वह जो सुर या देवता न हो, बल्कि उनसे भिन्न और उनका विरोधी हो।
ईशोपनिषद में असुर्यानाम ते लोका अन्धें तमावृता ...अन्धकार के अज्ञान में रहने वाले लोग असुर | ऋग्वेद १०/१०८ सरमा प्रकरण में केवल प्राण रक्षा में लिप्त प्राणियों को असुर कहा गया है |
प्राचीन पौराणिक कथाओं के अनुसार दैत्य या राक्षस।
इतिहास और पुरातत्त्व से आधुनिक असीरिया देश के उन प्राचीन निवासियों की संज्ञा जिन्हें उन दिनों असुर कहते थे और जिनके देश का नाम पहले असुरिय आधुनिक असीरिया था।
वे ही ईरान के अहुर कहलाये|
ईरानी आर्यों ने देव शब्द का प्रयोग दुष्ट अथवा धूर्त  अर्थ में किया है दएव रूप देखें---
__________________________________________
यादव योगेश कुमार'रोहि'ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---के सौजन्य से

2 टिप्‍पणियां:

  1. गलत व्याख्यान है। पहला यह कि भगवान श्री कृष्ण और कृष्णासुर दोनों अलग समय मे जन्मे हैं दोनों भिन्न हैं। भगवान श्रीकृष्ण की सेना कभी भी यमुना किनारे नहीं थीं। और जब भगवान श्रीकृष्ण राजा बनें तो वे द्वारिका चले गये। वेद व्यास गलत कहना मूर्खता है। सुधार करो तुम्हारी भाषा असभ्य है तुम कोई नास्तिक हो या तो सनातन धर्म के विरोधी हो अथवा वोट बैंक की राजनीति में भगवान श्रीकृष्ण को अपमानित कर रहे हो।

    जवाब देंहटाएं
  2. Ise arya shabd kankatlan gya nahi. Vaidik nahi yadyapi shrot granto ka mahatv he na ki anya smirititon ka. Krishan kshtriya the. Koi anya nahi usse jyada brahman. Pet karm se varn bante he. Karm lop se varnsankarta. Tumhe kuch nahi maloom anap sanap. Baad. Vedo ki Or lo to. Varn matlab varan karna

    जवाब देंहटाएं