श्रीमद्भागवत पुराण, देवी भागवत महापुराण, और पद्म पुराण में ब्राह्मणों की पात्रता और भागवत कथा वाचन का शास्त्रीय दृष्टिकोण
योगेश रोहि विद्वान एवं शोधकर्ता-
प्रस्तुति करण- ओ३म् प्रकाश महाराज जी देवरिया-
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भारतीय शास्त्रों में ब्राह्मणों की पात्रता और उनके कर्तव्यों पर गहन विवेचन मिलता है। श्रीमद्भागवत पुराण, देवी भागवत महापुराण, और पद्म पुराण में इस विषय पर स्पष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं। कुछ लोग दावा करते हैं कि ब्राह्मण, चाहे वह अनैतिक आचरण वाला हो, पूजा और भागवत कथा वाचन के लिए योग्य है। यह दावा श्रीमद्भागवत पुराण के कुछ प्रक्षिप्त, बाद में जोड़े गए, श्लोकों पर आधारित है। किंतु, देवी भागवत महापुराण और पद्म पुराण वैदिक सिद्धांतों के आधार पर इस दावे का खंडन करते हैं। इस लेख में इन श्लोकों का संदर्भ सहित विश्लेषण किया गया है, ताकि शास्त्रीय और सुगम रूप से सत्य स्पष्ट हो।
श्रीमद्भागवत पुराण के प्रक्षिप्त श्लोक
श्रीमद्भागवत पुराण, स्कंध १०, उत्तरार्ध, अध्याय ६४ में कुछ श्लोकों का उल्लेख है, जो ब्राह्मणों को अंध सम्मान देने की बात करते हैं। ये श्लोक हैं।
- श्लोक ४१-
विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः
> घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः।
अनुवाद- यदि ब्राह्मण अपराधी हो, मारने वाला हो, या शाप देता हो, तब भी मेरे भक्त उससे द्वेष न करें, और सदा नमस्कार करें।
- श्लोक ४२-
यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः
तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक्।
अनुवाद- जिस प्रकार मैं तीनों समय सावधानी से ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुम भी करो। जो मेरी आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसे दंड दूंगा।
- श्लोक ४३-
ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः
अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव।
अनुवाद- ब्राह्मण का अपहृत धन अपहरणकर्ता को, भले अनजाने में, अधःपतन में डाल देता है, जैसे राजा नृग को ब्राह्मण की गाय के कारण नरक भोगना पड़ा।
विश्लेषण
ये श्लोक प्रक्षिप्त माने जाते हैं, क्योंकि ये वैदिक सिद्धांतों और श्रीमद्भागवत पुराण के मूल दर्शन से मेल नहीं खाते। वैदिक परंपरा में गुण, कर्म, और आचरण को जन्म से ऊपर रखा जाता है। ये श्लोक ब्राह्मणों को अंध सम्मान देने की बात करते हैं, जो देवी भागवत महापुराण और पद्म पुराण के विपरीत है।
देवी भागवत महापुराण का दृष्टिकोण
देवी भागवत महापुराण, तृतीय स्कंध, अध्याय १० में गोभिल मुनि और तपस्वी देवदत्त के संवाद में ब्राह्मणों की पात्रता स्पष्ट की गई है। कुछ महत्वपूर्ण श्लोक हैं:
- श्लोक २९-३३-
कथं क्रुद्धोऽसि विप्रेन्द्र वृथा मयि निरागसि।
अक्रोधना हि मुनयो भवन्ति सुखदाः सदा॥
स्वल्पेऽपराधे विप्रेन्द्र कथं शप्तस्त्वया ह्यहम्।
मूर्खपुत्रादपुत्रत्वं वरं वेदविदो विदुः।
तथापि ब्राह्मणो मूर्खः सर्वेषां निन्द्य एव हि॥
पशुवच्छूद्रवच्चैव न योग्यः सर्वकर्मसु।
यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु॥
अनुवाद- मुनि क्रोधरहित और सुखदायक होते हैं। छोटे अपराध पर मुझे शाप क्यों। वेदवेत्ता कहते हैं कि मूर्ख पुत्र से पुत्रहीनता बेहतर है। मूर्ख ब्राह्मण निंदनीय, पशु और शूद्र के समान सभी कार्यों में अयोग्य, न पूजा योग्य, न दान का पात्र है।
- श्लोक ३४-३६-
देशे वै वसमानश्च ब्राह्मणो वेदवर्जितः।
करदः शूद्रवच्चैव मन्तव्यः स च भूभुजा॥
नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता॥
राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु।
अनुवाद: वेदविहीन ब्राह्मण को शूद्र के समान करदाता माना जाए। उसे देव, पितृ कार्यों में आसन न दें। राजा उसे शूद्र समान समझे, शुभ कार्यों में नियुक्त न करे, बल्कि कृषि कार्य में लगाए।
- श्लोक ३७-३८-
विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन॥
आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः॥
अनुवाद- ब्राह्मण के अभाव में कुश के चट से श्राद्ध करना ठीक है, पर मूर्ख ब्राह्मण से कभी नहीं। मूर्ख को अधिक अन्न देना दाता और ग्रहीता दोनों को नरक में ले जाता है।
- श्लोक ३९-४३-
धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि॥
मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन॥
भुक्त्वान्नं वेदविद्विप्रो वेदाभ्यासं करोति वै।
क्रीडन्ति पूर्वजास्तस्य स्वर्गे प्रमुदिताः किल॥
अनुवाद- उस राजा के राज्य को धिक्कार, जहाँ मूर्ख ब्राह्मण दान-सम्मान से पूजित होते हैं। मूर्ख और पंडित में भेद करना विद्वान का कर्तव्य है। जहाँ मूर्ख गौरव पाते हैं, वहाँ पंडित को नहीं रहना चाहिए। वेदज्ञ ब्राह्मण, जो वेदाभ्यास करता है, उसके पूर्वज स्वर्ग में प्रसन्न रहते हैं।
विश्लेषण
देवी भागवत महापुराण स्पष्ट करता है कि मूर्ख, वेदविहीन, या अनैतिक ब्राह्मण पूजा, दान, या कथा वाचन के योग्य नहीं। केवल वेदज्ञ, धर्मनिष्ठ ब्राह्मण ही इन कार्यों के लिए उपयुक्त है।
कलियुग में ब्राह्मणों का स्वरूप
देवी भागवत महापुराण, द्वादश स्कंध, अध्याय १० में कलियुग के ब्राह्मणों का वर्णन है:
- श्लोक ४१-४३-
पराम्बापूजनासक्ताः सर्वे वर्णाः परे युगे।
तथा त्रेतायुगे किञ्चिन्न्यूना धर्मस्य संन्थितिः॥
द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥
पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः॥
अनुवाद- सत्ययुग में सभी वर्ण भगवती के पूजन में आसक्त थे। त्रेतायुग में धर्म कम हुआ, द्वापर में और कम। कलियुग में पूर्व युगों के राक्षस, व्यभिचारी ब्राह्मण बनकर आते हैं, जो पाखंडी, ठग, और वेद-धर्म से विमुख होते हैं।
विश्लेषण
कलियुग में ब्राह्मणों का पाखंडी, वेदविहीन स्वरूप दर्शाया गया है। यह बताता है कि जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, आचरण और ज्ञान आवश्यक हैं।
पद्म पुराण में भागवत कथा वाचन की पात्रता
पद्म पुराण, उत्तरखंड, अध्याय १९३ में भागवत कथा वाचन की पात्रता का वर्णन है-
- श्लोक २०-
विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत्।
दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽति निःस्पृहः॥
अनुवाद: भागवत कथा का वक्ता विरक्त, वैष्णव, वेद-शास्त्रों से शुद्ध, दृष्टांतों में कुशल, धीर, और महत्वाकांक्षा से मुक्त होना चाहिए।
- श्लोक २१-
अनेकधर्मविभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि ब्राह्मणा:॥
अनुवाद: धर्म के विभिन्न मार्गों में भटके, स्त्रियों में आसक्त, पाखंडी व्यक्ति, भले ब्राह्मण हों, भागवत कथा वाचन के लिए अयोग्य हैं।
- श्लोक २२-
वक्तुः पार्श्वे सहायार्थमन्यः स्थाप्यस्तथाविधः।
पण्डितः संशयच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः॥
अनुवाद: कथा वक्ता के साथ एक अन्य विद्वान होना चाहिए, जो संदेहों का समाधान कर सके, और लोगों को ज्ञान देने में तत्पर हो।
विश्लेषण
पद्म पुराण स्पष्ट करता है कि केवल वेदज्ञ, वैष्णव, निःस्पृह व्यक्ति ही भागवत कथा वाचन का अधिकारी है। मूर्ख, पाखंडी ब्राह्मण इसके लिए अयोग्य हैं।
विप्र शब्द की व्याख्या
कुछ लोग विप्र शब्द को केवल ब्राह्मण के अर्थ में लेते हैं, जो भ्रामक है। शब्दकल्पद्रुम और प्रायश्चित विवेक में भरत मुनि के हवाले से विप्र की परिभाषा है:
उप्यते धर्म्मबीजमत्र इति वपेर्नाम्नीति रे निपातनादत इत्वम्।
ब्रह्मणा जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते।
विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रियलक्षणम्॥
अनुवाद- धर्मबीज का वपन करने वाला वेदवेत्ता विप्र है। ब्रह्मा की संतान से ब्राह्मण, संस्कारों से द्विज, और वेदविद्या से विप्र। तीनों लक्षणों से वह श्रोत्रिय, वैदिक विद्वान, होता है।
विश्लेषण
विप्र का अर्थ केवल जन्म से ब्राह्मण नहीं, बल्कि वेद-ज्ञान, धर्मनिष्ठा से युक्त व्यक्ति है। भागवत कथा वाचन का अधिकार गुण, कर्म से प्राप्त होता है।
निष्कर्ष
श्रीमद्भागवत पुराण के प्रक्षिप्त श्लोकों का दुरुपयोग कर ब्राह्मणों को अंध सम्मान देने का दावा गलत है। देवी भागवत महापुराण, पद्म पुराण, और वैदिक सिद्धांत स्पष्ट करते हैं कि केवल वेदज्ञ, धर्मनिष्ठ, निःस्पृह व्यक्ति ही भागवत कथा वाचन का अधिकारी है। मूर्ख, पाखंडी, अनैतिक ब्राह्मण न पूजा के योग्य हैं, न दान के पात्र, न कथा वाचन के लिए उपयुक्त। वैदिक दर्शन में गुण, कर्म सर्वोपरि हैं।
संदर्भ-
- श्रीमद्भागवत पुराण, स्कंध १०, उत्तरार्ध, अध्याय ६४
- देवी भागवत महापुराण, तृतीय स्कंध, अध्याय १०, द्वादश स्कंध
- पद्म पुराण, उत्तरखंड, अध्याय १९३
- शब्दकल्पद्रुम, प्रायश्चित विवेक
नोट- यह विश्लेषण शास्त्रीय सिद्धांतों पर आधारित है। शास्त्रार्थ में संदेह होने पर मूल ग्रंथों का अध्ययन, विद्वानों से परामर्श करें।
आभार- यह लेख शास्त्रों के प्रति श्रद्धा, गहन अध्ययन के साथ तैयार किया गया है। प्रश्न, संदेह के लिए टिप्पणी करें। 🙏 संक्षेप में किया गया।
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