इदं मे अग्ने कियते पावकामिनते गुरुं भारं न मन्म.। बृहद्दधाथ धृषता गभीरं यह्वं पृष्ठं प्रयसा सप्तधातु. ।। ऋग्वेदे । ४। ५। ६।
अनुवाद:- हे पवित्र करने वाले अग्नि देव ,गुरु भार भी मन्त्र बल से अनुभव नहो होता । अपनी पीठ पर सात धातुओं का अत्यधिक भार धारण करने वाले गम्भीर और धैर्यवान- अग्निदेव आप प्रसन्न हो।६।
यूरोपीय भाषाओं में गुरु: शब्द पूर्व उत्पत्ति काल से ही विद्यमान है। जब कभी सभी भारोपीय संस्कृतियों का एक ही मञ्च पर सम्मेलन रहा होगा। यूरोपीय भाषाओं में ह़म गुरु: शब्द को निम्नलिखित रूपों में देखते हैं-
संस्कृत- गुरु:= महान (भार युक्त)"heavy, weighty, venerable;"
ग्रीक- बेरो:(baros) barys भार ( weight ) लम्बाई( strength ) या शक्ति(force) के अर्थ में प्रचलित है।
लैटिन- ग्रेविस-(gravis)
पुरानी अंग्रेज़ी- क्वेरन= cweorn /quern (भारी)
प्राचीन जर्मन ( गॉथिक भाषा-में) कॉरुस kaurus भारी("heavy);"
लैटिस- गुरुत्-(gruts)- "heavy।
अवेस्ता- ग़र- मनन-चिन्तन अथवा स्तुति करना।
- लिथुआनियन- गिरियु (giriu) girti - स्तुति करना।
गुरु: में विशेष ज्ञान का भाव था इसीलिए गुरु: ज्ञान का श्रोत हुआ। ज्ञान व्यक्ति के मौलिक अनुभवों ये सिद्ध व प्रमाणित बौद्धिक सम्पदा होता है। जबकि शिक्षा दूसरे से सीखी हुई ही होती है।इसीलिए गुरु: शिक्षक पद से उच्च व गरिमा नया है।
भगवान श्रीकृष्ण एक शिक्षक न होकर एक पूर्ण गुरु है। उनमें अनुभव जन्य ज्ञान और सिद्ध ज्ञान की गरिमा समाहित है। जो अर्जुन जैसे जिज्ञासु शिष्य को तृप्त करती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें