रविवार, 8 जून 2025

भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है। प्रस्तावित - गोपाचार्य हंस योगेश रोहि व माता प्रसाद जी !

भक्त-भक्ति" और भगवान तीनों का परस्पर सम्पूरक अस्तित्व है।
भक्त का आध्यात्मिक अभिधेयार्थ (मूल- अर्थ) निष्काम और समर्पण भाव से सेवा करने वाला है।
क्योंकि संस्कृत वैदिक भाषा में भज् धातु का प्रमुख अर्थ- सेवा करना ही होता है।
इसी भज्- प्रत्य धातु से क्त प्रत्यय करने पर भक्त शब्द बनता है। अतः भक्त और भक्ति एक दूसरे के सम्पूरक हैं।

अब प्रश्न उठता है कि इस संसार में सेवा किसकी की जाए ? और किस भावना से की जाए ? यह सब कारण ही भक्ति के मानकोंं को निर्धारित करते हैं। क्योंकि भक्ति सांसारिक सेवा से पूर्णत: भिन्न सेवा है और दोनों का वेग समान होते हुए भी धारा विपरीत ही है। जिसमें सेवा भक्ति की प्रथम सीढ़ी है। क्योंकि जब सेवा ईश्वर परक अथवा भगवान के प्रति आध्यात्मिक भावना युक्त हो जाती है तब वह भक्ति कहलाती है।
भगवान-  भक्त- और भक्ति इन सभी के मूल में भज् धातु- ही विद्यमान है। जैसे - भज्- सेवायां + (घ) प्रत्यय करने पर = भग शब्द बनता है। और भग से सम्पन्न व्यक्ति भगवान पद का अधिकारी है।
यदि इसको व्याकरणिक दृष्टि से देखा जाए तो
भग शब्द  में + वतुप् (वत्) प्रत्यय करने पर = भगवान्‌  शब्द बनता है। अतः भक्त और भगवान में सन्निकट का सम्बन्ध है क्योंकि भज् धातु में + (क्त) प्रत्यय करने पर भक्त शब्द (पद) बनता है। और भगवत् शब्द का ही प्रथमा विभक्ति एकवचन का रूप भगवान् है।

अत: मूल शब्द भगवत् ही व्यवहारिक रूप से भगवन् अथवा भगवान् के रूप मेंं सम्बोधित किया जाता है। और जो भगवद् भक्ति में तल्लीन है वही भागवत है।

✳️ ज्ञात हो - भगवत् शब्द उस परमेश्वर का गुणवाची विशेषण है। जिस परमेश्वर में सभी प्रमुख गुण समाहित होते हैं। जो प्रारम्भ और अन्त की सीमाओं से भी परे है। वही ईश्वरीय सत्ता साकार होने पर भगवान विशेषण से अभिहित होती है। 

शब्दकोश गन्थों तथा व्याकरण में भग शब्द के निम्नलिखित प्रमुख अर्थ वर्णित हैं-
१-धन २- ज्ञान. ३- बल- ४-महात्म्य ( बड़प्पन) और ५- सौन्दर्य (कान्ति) अथवा श्री जो सभी भगवान के ही विशेषण हैं। 
भगवान की निष्काम और समर्पण भाव से सायुज्य प्राप्त करने हेतु जो व्यक्ति सेवा करता है। वही सच्चे अर्थ में भक्त अथवा भागवत कहलाता है जो सदैव निष्काम अर्थात् कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त होता है।

दूसरे शब्दों में जब व्यक्ति इन सभी भगवद्गुणों  को प्राप्त करने की पात्रता प्राप्त कर लेता है । तब वह भक्त कहलाता है। शास्त्रों में भी भगवान शब्द की व्याख्या निम्नलिखित रूप से की गयी है।

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसश्श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।७४
(विष्णुपुराण /षष्टांशः/अध्यायः ५)

"भगवान छः अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी है- अनन्त शक्ति,  अनन्तज्ञान,  अनन्तसौंदर्य,  कीर्ति, ऐश्वर्य और वैराग्य"।
(भक्त अन्त:करण शुद्ध होने पर प्रभु के इन सभी स्वरूपों का अनुभव करता है।)


शुद्धे महाविभूत्याख्ये ब्रह्मणि शब्दयते।
मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे॥

श्रीविष्णु पुराण, ६/५/७२
अनुवाद व अर्थ-
भगवान शब्द उपनिषदों में वर्णित "ब्रह्म" शब्द से भी जाना जाता है, जो अनन्त वृद्धि वाला है। वह सब कारणों का भी कारण है।  इस सम्पूर्ण जगत व ब्रह्माण्डों के सर्वेसर्वा होने के कारण  वह भगवान परब्रह्म कहलाते हैं।

एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥

श्रीविष्णु पुराण-, ६/५/७६
हे मैत्रेय यह महान शब्द भगवान परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेव (श्रीकृष्ण) का ही वाचक है। किसी अन्य का नहीं।

✳️ ज्ञात हो कि - वही परंब्रह्म अपने एक रूप में साकार होकर लीला हेतु शरीर धारण करता है। अर्थात संसार में अवतार लेता है।
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेदों में ही प्रमाण रूप में तथ्य आते हैं। जैसे- यजुर्वेद के अनुसार -
प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा विजायते” इस ऋचा में ब्रह्म को अजन्मा मान कर फिर यह कहा कि ‘बहुधा विजायते’ अर्थात् फिर ‘जनी प्रादुर्भावे’ का प्रयोग दिया है। अर्थात् वह परमात्मा अजन्मा होकर भी लीला हेतु शरीर धारण करता है। पूर्ण ऋचा निम्नलिखित है।

प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते। तस्य योनिं परि पश्यन्ति धीरास्तस्मिन् ह तस्थुर्भवनानि विश्वा ।। (यजुर्वेद ३१ / १९)

भावार्थ :
परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।
अर्थात प्रजाओं के पालक भगवान गर्भ के भीतर भी विचरते हैं. अर्थात वे तो स्वयं जन्मरहित हैं, किन्तु़ अनेक प्रकार से अवतरित होकर जन्म ग्रहण करते रहते हैं।

विद्वान पुरुष ही उनके उद्भव स्थान को देखते एवं समझते हैं। जिस समय वह आविर्भूत (अवतरित) होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोक उन्हीं के आधार पर अवस्थित रहते हैं अर्थात वह सर्वश्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता बनकर लोकों को चलाते रहते हैं।

पदों के अन्वय मूलक अर्थ-
जो (अजायमानः) अपने स्वरूप से उत्पन्न नहीं होनेवाला (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक जगदीश्वर है। वह  ( गर्भे ) गर्भस्थ जीवात्मा और (अन्तः) सबके हृदय में (चरति) विचरता है और (बहुधा) बहुत प्रकारों से (वि, जायते) विशेषकर प्रकट होता जन्म लेता (तस्य) उस प्रजापति के जिस (योनिम्) स्वरूप को (धीराः) ध्यानशील विद्वान् जन (परि, पश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं (तस्मिन्) उसमें (ह) निश्चय (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तर (तस्थुः) स्थित हैं ॥१९ ॥

इस प्रकार से परंप्रभु परमेश्वर श्रीकृष्ण की सार्वभौम सत्ता व उनकी सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय- (तृतीय) समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय- (चतुर्थ) में जानकारी दी गई कि -
गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार कैसे हुआ ?

📚
         
            "अध्याय - चतुर्थ (४)

गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।

यह तो सर्वविदित है कि ब्रह्माजी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें स्रष्टा भी कहा जाता है। किन्तु प्रश्न यह है कि- सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना है ? क्या ब्रह्माजी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियाँ भी हैं ? क्या  ब्रह्माजी के चार वर्णों के अलावा कोई पाँचवाँ वर्ण भी इस भू-मण्डल पर है ? इन अनेक प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के रहस्यों को जान पाना भी सम्भव नहीं है।

तो इन समग्र प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त अर्थात् - परिवर्तनमयी विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का वर्णन करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना का वर्णन करते हैं जो  ब्रह्माजी द्वारा की गई है। यहीं कारण है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है। इस पुराण में सृष्टि की प्रारम्भिक उत्पत्ति के बारे में ब्रह्मखण्ड के अध्याय-(३) के निम्नलिखित श्लोकों में लिखा गया है कि-

"दृष्ट्वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयङ्करम्।
निर्जन्तु निर्जलं घोरं निर्वातं तमसा वृतम् ।।१।

आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः।३।

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः।४।

ततो महानहङ्कारः पञ्चतन्मात्र एव च।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेतिसंज्ञकाः।५।

आविर्बभूव पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः।६।

शंखचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः।।
रत्नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः।७।

आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः।
शुद्धस्फटिकसङ्काशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः।। १८।

आविर्वभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात्।
महातपस्वी वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः।३०।

शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः।३१।

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