(विषय- सूची)
१- श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक- पृष्ठ -५
२- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त दूसरा कोई परमेश्वर नहीं ! पृष्ठ-७
३- गोलोक में गोपों की उत्पत्ति एवं भूलोक पर-
४-श्रीकृष्ण का आभीर( गोप) जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतरण- पृष्ठ -१२
५-श्रीकृष्ण सहित प्रमुख पौराणिक व्यक्तियों का गोप जाति के अन्तर्गत यदुवंश से सम्बन्ध-पृष्ठ-२०
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६-अहीर गोप और यादव एक ही जाति के तीन विशेषण- ३३-
७-यादव अथवा गोप वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत एक ही जाति-पृष्ठ- ३५
८-श्रीकृष्ण के सहचर - गोप और गोपियों की प्रशंसा-पृष्ठ ४५
९- श्रीकृष्ण का अपने पारिवारिक सदस्य गोपों के साथ गोलोकगमन तथा कुछ गोपों का पृथ्वी पर हू रह जाना-पृष्ठ- ४९
१०- गोपियों के १६ वें अँश के बराबर भी ब्रह्मा नहीं हैं।
११- ब्रह्मा विष्णु तथा शंकर आदि त्रिवृहद्-देव भी गोपियों की चरण रज के स्पर्श करने के लिए तरसते हैं।
१२-श्रीकृष्ण के एक बहेलिए के द्वारा मारा जाने का खण्डन -
१३-यादवों का सम्पूर्ण विनाश कभी नहीं हुआ-
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•लघु ( छोटे) किन्तु महत्व पूर्ण बिन्दु-
•गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण और राधा जी की नित्य किशोरावस्था ( ) रहती है। पृष्ठ ६-
•श्रीकृष्ण सदैव गोप - वेष में रहते हैं।-६
•श्रीकृष्ण के विग्रह ( शरीर) में ब्रह्मा ,विष्णु और शिव का विलय होना- पृष्ठ-१०
•गोप- गोपियों की उत्पत्ति। पृष्ठ- १३
•पृथ्वी का पृथम गोप सम्राट पुरुरवा-पृष्ठ-२७
•लोकतान्त्रिक विधि से सम्राट बने हुए अन्य गोप जाति के वीर-आयुष ,नहुष , ययाति , यदु , तथा कार्तवीर्य- अर्जुन आदि -पृष्ठ २८-३१
•यादवों का वैष्णव वर्ण ब्रह्मा के द्वारा बनाये गये वर्णों से श्रेष्ठ है। क्योंकि यादव सभी वर्णों का व्यवसाय ( वृत्ति ) कर सकते हैं। पृष्ठ- ३५
•यादव - ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत आये हुए सभी वर्णों का कार्य कर सकते हैं।पृष्ठ ३६-४१
•भारत भूमि पर गोप जाति से श्रेष्ठ कोई जाति नहीं - पृष्ठ -४७
[7/26, 6:15 AM] yogeshrohi📚: 📕-(अध्याय ~१ )
भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक और उनके अनेक स्वरूपों का वर्णन ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म -खण्ड में मिलता है । सन्दर्भ- ब्रह्म वैवर्त पुराण अध्याय २- श्लोक ११- पृष्ठ २५ गीताप्रेस हिन्दी संस्करण ।
पूर्ववर्ती प्रलय काल में केवल ज्योति- पुञ्ज प्रकाशित होता था । जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी वह ज्योतिर्मण्डल नित्य व शाश्वत है। वही सम्पूर्ण विश्व का कारण है ।
वह स्वेच्छामयी ,रूपधारी सर्वव्यापी परमात्मा का सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर( भीतर ) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं। और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है। परम महान तेज ही उसका शाश्वत स्वरूप है।
श्लोक- वहाँ आधि( मानसिक पीड़ा) व्याधि( शारीरिक पीड़ा) जरा ( बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं।
प्रलय काल में वहाँ केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं।
और सृष्टि काल में वही गोप - गोपियों से परिपूर्ण रहता है।
और इस गोलोक से नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम भाग में इसी के समानांतर शिवलोक विद्यमान है।
श्लोक- गोलोक से भीतर अत्यंत मनोहर ज्योति है। जो परम आह्लाद जनक तथा
नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक निराकार व परात्पर ब्रह्म है। और इसी ब्रह्म ज्योति के भीतर अत्यंत रूप सुशोभित होता है । जो नूतन जल धर ( मेघ) के समान श्याम (साँवला) है।
उनके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। उनका निर्मल मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है। यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है । उनकी दो भुजाएँ हैं । एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है ; और उपरोष्ठ और अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है।
श्लोक - पृष्ठ संख्या २६- वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्न मय सिंहासन पर आसीन और आजानुलम्बिनी( घुटनों तक लटकने वाली ) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं। वे ही प्रभु स्वेच्छामयी रूपधारी सबके आदि कारण सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी गी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक में सदा गोप( आभीर) -वेष में रहते हैं ।
[7/26, 8:29 PM] yogeshrohi📚: श्री कृष्ण ही एक मात्र परम प्रभु( Supreme power of Universe) - ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- ११ श्लोक - संख्या
"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।
देवों मे काल का भी कासल हूँ।विधाता का भी विधाता हूँ। संहार कारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक परात्पर परमेश्वर हूँ। मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- सृष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं।
इसके पश्चात गोपेश्वर श्रीकृष्ण देवी तथा देवगणों को निर्देश करते हुए कहते हैं।
" ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं हूँ।
मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ उनकी रक्षा कौन कर सकता है? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ उसका विनाश करने वाला कोई नहीं मूलत: मैं ही सबका सर्जक पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ। -क्योंकि मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ। भक्त मेरे अनुयायी हैं। भक्त मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं।इस लिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।
इस प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के अध्याय -२१ लिखा गया है।" वे श्रीकृष्ण श्री राधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं। ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव आदि देवता निरन्तर उनकी पूजा, स्तुति और वन्दना करते रहते हैं। उनकी अवस्था किशोर है।
वे राधा के प्राण नाथ शान्तस्वरूप- एवं परात्पर हैं। वे सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्य शाली हैं।
देखें ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय ६६ के अनुसार -
गोपेश्वर श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन कुछ इस प्रकार है।
जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं।
" हे राधे ! संसार के सभी दृश्य नश्वर ( नाशवान) हैं। कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में
कुछ देवता मेरे अंश हैं कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्म रूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियां है । प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जीतने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं सबका आत्मा हूँ
और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ।
हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के पश्चात नष्ट हो जाते हैं। सबसे पहले मैं वही था !
और सबके अन्त में मैं ही रहुँगा-
हे राधे जिस प्रकार मैं हूँ उसी प्रकार तुम भी हो !
जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता में भेद नहीं हैं। प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है। वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो।
बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।
विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से सुन्दरी जननी हो। उस विराट विष्णु के रोम कूपों को प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा विष्णु तथा महेश( शिव) आदि देवता विद्यमान हैं।
ये ब्रह्मा विष्णु तथा शिव तथा अन्य ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा विष्णु तथा शिव आदि देवता मेरी ही कलाऐं हैं।
फिर भी कृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय चलता है।
जिस समय प्रलय काल में जो - जो देवता श्रीकृष्ण के जिस जिस भाग से उत्पन्न हुए थे । वे सभी देवता उसी क्रम में श्रीकृष्ण के भाग और अंशों में विलीन हो जाते हैं।
इस बात की पुष्टि ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय ३४- से होती है।
पृष्ठ संख्या ६-७-८-९
[7/27, 8:39 PM] yogeshrohi📚: ब्रह्म वैवर्त पुराण अध्याय- ३४ के श्लोक-
चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः । ५७।
लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे ।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः । ५८ ।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ।
रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः ।५९।
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।
ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः । 2.34.६०।
प्राकृतिक प्रलय के समय सम्पूर्ण देवता आदि चराचर प्राणी ब्रह्मा मैं विलीन हो जाते हैं। और ब्रह्मा क्षुद्र विष्णु के नाभि कमल में लीन हो जाते हैं। और क्षुद्र विष्णु विराट विष्णु में और विराट विष्णु स्वराट्- विष्णु में लीन हो जाता है।
इसके बाद क्षीर सागर में निवास करने वाले श्री विष्णु ( नारायण) तथा वैकुण्ठ में निवास करने वाले चतुर्भुज धारी विष्णु परम्- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण के वाम पार्श्व ( वाँये बगल) में विलीन हो जाते हैं।
रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं। और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।
इसी तरह सम्पूर्ण शक्तियाँ विष्णु माया दुर्गा में समाहित हो जाती हैं। और दुर्गा स्वयं श्री कृष्ण की बुद्धि में समाहित होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी की अँशभूता शक्तियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी स्वयं श्री राधा जी में लीन हो जाती हैं। तत्पश्चात गोपियाँ और देव पत्नीयाँ श्री राधा जी में लीन हो गयीं । और श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी राधा स्वयं श्रीकृष्ण के प्राणों में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
और गोलोक के सम्पूर्ण गोप श्रीकृष्ण के रोम कूपों में विलीन हो जाते हैं। ।
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अध्याय २- का पृष्ठ संख्या १०-
लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे ।।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ।। ५८ ।।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ।।
रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः। ५९। ******
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।
ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः । 2.34.६० ।
[7/28, 9:27 AM] yogeshrohi📚: इसी प्रकार श्रीराम और उनके भाईयों सहित सीता जी के श्रीकृष्ण के विग्रह में लीन हो जाने की बात गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय -३ के श्लोक संख्या ६- से ८ तक लिखा गया है।
"तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥६॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥७॥
लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥८॥
अनुवाद:- तत्पश्चात वह पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम में पधारे उनके हाथ में धनुषवाण थे और साथ में सीता सहित भरत आदि तीनों भाई भी थे।(६)
उनका दिव्य धनुष दशकरोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उसपर निरन्तर चम्बर डुलाये जा रहे थे। और असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे । उस रथ के एक लाख चक्कों में मेघों की गर्जना निकल रही थी । और उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ गोलोक में पधारे -वे श्रीराम भी श्रीकृष्ण के विग्रह में शीघ्र विलीन हो गये।
इस प्रकार देखा जाय तो भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि ( प्रारम्भ) और अन्त हैं। और यही कृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह ( शरीर)से जिस क्रम में सृष्टि का निर्माण करते हैं तो समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह ( शरीर) में विलय भी कर लेते हैं।
जैसे मकड़ी अपने शरीर से लार के द्वारा जाला बनाकर उसमे स्थित हो जाती है । और फिर कुछ समय पश्चात वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में समेत लेती है।
यह सृष्टि- जगत परमात्मा श्री कृष्ण का शाश्वत स्वरूप है।
शिव जी पार्वती से कहते हैं।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् । ४८।
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् ।४९।
ब्रह्मवैवर्तपुराण - (प्रकृतिखण्डः) अध्यायः (४८)
हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।
केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो
" इस प्रकार से देखा जाये तो कृष्ण से बढ़कर कोई दूसरा ईश्वर नहीं है।
पृष्ठ संख्या- ११ ( अध्याय-२)
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ।।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।।६३।।
[7/28, 4:39 PM] yogeshrohi📚: (📕-अध्याय-3 )★
गोलोक से गोप-गोपियों की उत्पत्ति एवं श्रीकृष्ण का भूतल पर गोप जाति के यदुवंश में अवतरण-
भगवान श्रीकृष्ण चाहें गोलोक में हों अथवा भू- लोक में उनका प्रथम सम्बन्ध गोप और गोप जाति से ही होता है।
फिर इसी गोप अथवा आभीर जाति में यदुवंश के अन्तर्गत उनका आगे चलकर अवतरण होता है।
गोप जाति स्वराट विष्णु ( गोलोक वासी कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न होने वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत है।
ब्रह्मा गोपों की अथवा यादवों की सृष्टि नहीं करते हैं। इस प्रकार इकाइयाँ रूप में गोप प्रत्येक ब्रह्माण्ड में क्षुद्र विष्णु के रोम कूपों से उत्पन्न होकर भूतल पर स्थापित होते हैं। और ब्रह्मा इसी क्षुद्र विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होकर भूतल पर चार वर्णों की सृष्टि के साथ -साथ चराचर प्राणियों की सृष्टि करते हैं।
गोलोक में गोपों की सर्वप्रथम उत्पत्ति श्रीकृष्ण के रोमकूपों से और गोपियों की उत्पत्ति श्री राधा जी के रोमकूपों से हुई है।
यह बात पुराणों में भी लिखित है। जैसे ब्रह्म वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के अध्याय-5-में श्रीकृष्ण से गोलोक में गोपों की उत्पत्ति और श्री राधा जी से गोपियों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।
आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे । २५।
रासे सम्भूय गोलोके सा दधाव हरेः पुरः ।
तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम ।२६।
प्राणाधिष्ठातृदेवी सा कृष्णस्य परमात्मनः ।
आविर्बभूव प्राणेभ्यः प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ।२७।
देवी षोडशवर्षीया नवयौवनसंयुता ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना सस्मिता सुमनोहरा । २८।
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो
गोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः । ४०।
लक्षकोटीपरिमितः शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागणः । ४१।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
गोलोक में स्वराट्- विष्णु भगवान श्रीकृष्ण के वाम पार्श्व में वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के समान ही किशोर वय थी।
कन्या- शब्द स्त्री वाचक भी है। ऋग्वेद में जन्य: शब्द वर का वाचक है। जिसमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता विकसित हो गयी हो-
और इसी जन्य: शब्द के सापेक्ष जन्या: शब्द था जो उत्तर वैदिक भाषा तथा लौकिक संस्कृत में कन्या: हो गया है।
अत: कन्या शब्द बधू वाचक भी है।
अत: राधा को कृष्ण की पत्नी ( आदि प्रकृति) ही मानना चाहिए-
किशोरी राधा जी के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई जो रूप और वेष में राधा जी के समान थीं।
फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से अनेक गोप गणों की उत्पत्ति हुई जो रूप और वेष में कृष्ण के ही समान थे ।
पृष्ठ १२ अध्याय -3
__________
[7/28, 9:01 PM] yogeshrohi📚: स्वराट्- विष्णु ( भगवान श्रीकृष्ण) के रोम कूपों से गोप - और गोपियों की उत्पत्ति की घटना को भगवान शिव ने भी पार्वती को बताया जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्व भौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है।
जिसका वर्णन ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-48 की श्लोक संख्या ( 48 )
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।
श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः ।४३।
गोप-गोपियों की उत्पत्ति के विषय में परम प्रभु परमात्मा श्री कृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित हो जाती हैं। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -36 के श्लोक संख्या 62 में राधा जी से कहते हैं।
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः ।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः । ६२ ।
अनुवाद:- समस्त गोपियाँ
तुम्हारी कलाऐं हैं हे राधे! और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।
इसी प्रकार जब भूतल पर श्रीकृष्ण गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरण लेते हैं।
और कुछ काल पश्चात कंस का वधकर के मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं। तब उग्रसेन कृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श लेते हैं। उसी के प्रसंग क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि
गर्गसंहिता- (विश्वजित्खण्डः) अध्यायः (२)
आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः ॥
तांबूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥
" *ममांशा यादवाः सर्वे* लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७।
तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
तब कृष्ण नें कहा था समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥ गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥ काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।
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इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
उपर्युक्त श्लोकों में एक बात विचारणीय है। कि भगवान श्रीकृष्ण ने गोपों की उत्पत्ति को दो रूपों में दर्शाया है । एक जब वे गोलोक में रास मण्डल में गोपों की सृष्टि अपने रोमरूपों से करते हैं। और द्वितीय रूप में जब वही श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतरण करते हैं तब समस्त यादवों को अपना ही अंश ( कला) बताते हैं।
स्वयं कृष्ण गोप जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतरण करते हैं । इसलिए वे अपने को गोप भी कहते हैं। और वंश गत रूप यादव भी कहते हैं ।और वृष्णि कुल में अवतरण लेने से वार्ष्णेय ( वृष्णि+ ढक्=एय) भी कहते हैं।
श्रीकृष्ण की लीला सहचर बनने के लिए गोलोक से ही भूलोक पर आते हैं तब गोपों का प्रादुर्भाव क्षुद्र विष्णु के रोम कूपों से सत् युग के प्रारम्भ में ही हो जाता है।
और इसी गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में कृष्ण का जन्म होता है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- १७ इसका साक्ष्य है।
विष्णुपुराण पञ्चम अँश अध्याय २३ में श्लोक संख्या-
२४ में कृष्ण अपना परिचय यादव रूप में देते हैं।
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोहं शशिनः कुले
वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। २४।
[7/29, 11:52 AM] yogeshrohi📚: हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।
अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है
अलं ( बस कर ठहरो!) ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है ।
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
"क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः 3/80/10 ।।
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
"तुष्टोऽस्मि कृष्ण तपसा तवोग्रेण महामते ।
ददामि वाच्छितान्कामान्ब्रूहि यादवनन्दन ॥३६॥
अनुवाद:-
हे कृष्ण! हे महामते! मैं शिव तुम्हारे उग्र तप से संतुष्ट हूँ । हे यादव नन्दन आप अपना इच्छित वर बताईए मैं उसे तुम्हें अवश्य दुँगा।३६।
देवीभागवतपुराण -स्कन्धः (४)-अध्यायः (२५)
उपर्युक्त श्लोक में भगवान शिव श्रीकृष्ण को यादव नन्दन कह कर सम्बोधित कर रहे हैं।
अत: गोप यादव तथा आभीर विशेषण सम्बोधन एक जाति के लिए ही हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62वीं सूक्त की 10 वीं ऋचा में यदु और उसके भाई तुर्वसु को गायों का पालन करने वाले गोप रूप में दर्शाया है।
"उ॒त दा॒सा प॑रि॒विषे॒ स्मद्दि॑ष्टी॒ गोप॑रीणसा । यदु॑स्तु॒र्वश्च॑ मामहे ॥
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।
उपर्युक्त ऋचा में दास= दाता अथवा दानी के अर्थ में है। तब मामहे क्रिया पद सार्थक होता है।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा अथवा गो+ परिणसा।
जिसका अर्थ है शक्ति के द्वारा गायों का पालन करने वाला । अथवा गो परिणसा= गायों से घिरा हुआ
यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब महिमा वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में नहीं हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाहे" शब्द के रूप में विकसित है ।
पृष्ठ संख्या १५ अध्याय 3-📕
[7/29, 1:54 PM] yogeshrohi📚: जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।
"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।
यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।
"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने के पांच कारण होते हैं १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।
श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।
"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।
"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा मैं हरि का सदैव भजन करूँगा।७७।
_________________
कः पिता कोऽत्र वै माता सर्वे स्वार्थपरा भुवि।
न कांक्षे तव राज्यं वै न दास्ये यौवनं मम ।७८।
"अनुवाद:-कौन पिता है कौन माता है यहाँ सब स्वार्थ में रत हैं इस संसार में न मैं अब तुम्हारे राज्य की इच्छा करता हूँ और ना ही अपने यौवन की ही इच्छा करता हूँ यह बात पुरु ने अपने पिता ययाति से कही ।७८।
इत्युक्त्वा पितरं नत्वा हिमालयवनं ययौ।
तत्र तेपे तपश्चापि वैष्णवो धर्मभक्तिमान् ।७९।
"अनुवाद:- इस प्रकार कहकर पिता को नमन कर पुरु हिमालय के वन को चला गया और वहाँ तप किया और वैष्णव धर्म का अनुयायी बन भक्ति को प्राप्त किया।७९।
कृषिं चकार धर्मात्मा सप्तक्रोशमितक्षितेः ।
हलेन कर्षयामास महिषेण वृषेण च ।८०।
"अनुवाद:-उस धर्मात्मा ने पृथ्वी को सात कोश नाप कर वहाँ हल के द्वारा कृषि कार्य भैंसा और बैल के द्वारा भी किया।८०।
आतिथ्यं सर्वदा चक्रे नूत्नधान्यादिभिः सदा ।
विष्णुर्विप्रस्वरूपेण ययौ कुरोः कृषिं प्रति ।८१।
"अनुवाद:-:- नवीन धन धान्य से वह सब प्रकार से अतिथियों का सत्कार करता तभी एक बार विष्णु भगवान विप्र के रूप धारण कर कुरु के पास गये और उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। ८१।
आतिथ्यं च गृहीत्वैव मोक्षपदं ददौ ततः । कुरुक्षेत्रं च तन्नाम्ना कृतं नारायणेन ह ।।८२।।
"अनुवाद:-तब भगवान् विष्णु ने कुरु का आतिथ्य सत्कार ग्रहण कर उसे मोक्ष पद प्रदान किया उस क्षेत्र का नाम नारायण के द्वारा कुरुक्षेत्र कर दिया गया।८२।
कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती लोग सदीयों से कृषि और पशुपालन कार्य करते चले आ रहे हैं। आज कल ये लोग जाट " गूजर और अहीरों के रूप में वर्तमान में भी इस कृषि और पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।८२।
""सन्दर्भ:-
श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः । ७३।
और आगे चलकर इसी गोप जाति में यदु वंश हुआ जिसमें महाभारत काल में (101) एक सौ एक से ज्यादा कुल थे। इन्हीं में वृष्णि कुल में नन्द" और वसुदेव आदि का जन्म हुआ । वसुदेव कृष्ण के जन्मदाता पिता तो नन्द पालक पिता हुए।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि( १०/३७/ श्रीमद्भगवद्गीता-
सभी वैष्णव पुरुरवा से यदु पर्यन्त एक ही आभीर जाति से सम्बन्धित थे।
आभीर:पुत्री गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया।
आभीरा: किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५।
अनया-आभीरकन्याया तारितो गच्छ! *दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
न चास्याभविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोःप्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी ( अच्छे व्रत का पालन करने वाले!
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
___________________
अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा।
[7/29, 3:01 PM] yogeshrohi📚: ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८॥
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १९ ॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
भगवत पुराण - (9/23/18-19)
अनुवाद:-
ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ।
परीक्षित! महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है।
जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के- रूप में अवतार लिया था।
[7/29, 6:49 PM] yogeshrohi📚: (अध्याय- 4- 📕) पृष्ठ २०
श्रीकृष्ण सहित प्रमुख पौराणिक व्यक्तियों का गोप जाति के यदुवंश से सम्बन्ध-
१-भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय- १०० श्लोकों में कहा है कि
मैं सर्वदा गोप हूँ।
दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा
तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
________________________
ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
________
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक
तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
______
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
___________________________
•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
_______
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
____________
स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।
अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है
अलं ( बस कर ठहरो!) ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
____________
गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है
_______________________________
अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं ।
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र।
पद्म पुराण गर्ग संहिता आदि ग्रन्थों में गोप को आभर भी कहा जैसा कि नन्द को कहीं गोप तो कहीं
आभीर कहा है जैसा कि गर्गसंहिता में👇
" आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
(विश्व जितखण्ड अध्याय सप्तम)
____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
गोपानां वचनं श्रुत्वा कृष्णः पद्मदलेक्षणः ।
प्रत्युवाच स्मितं कृत्वा ज्ञातीन्सर्वान्समागतान्।।2.20.१०।।
गोपों का वचन सुन कर कमल के जैसे नेत्रों वाले भगवान श्रीकृष्ण मुस्कराकर सभी जातीय बन्धुओं से बोले !
मन्यन्ते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।।११।।
यद् तुम मुझे भीषण कार्य करने वाला मानते हों परन्तु मैं यह सब नहीं मानता मैं तुम्हारा स्वजातीय बान्धव हूँ।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व-अध्याय 20
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 11 श्लोक 56-60
57।। एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च। अमीशामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।58।।
इसलिए दुष्टों के नियन्त्रण के लिए व्रज में मेरा निवास हुआ और मैंने गोपों में जन्म लिया है।५८।
गर्गसंहिता के (बलभद्रखण्डः) के अध्यायः (२) में बलराम गोपजाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतार लेने की बात करते हैं।
"हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण
हे कामधेनो भूम्यां भरतखण्डे यदुकुलेऽवतरंतं मां
यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत ॥१४॥
बलराम अपने जन्म के विषय में कहते हैं।
मैं भू- मण्डल पर भारत वर्ष में यदु वंश के वृष्णि कुल में अवतार लुँगा। १४।
आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।।
१३२-१३३. एक ग्वाले की बेटी थी, जो सुन्दर थी, जिसकी नाक सुन्दर थी और आँखें आकर्षक थीं। कोई देवी, कोई गंधर्व , कोई राक्षसी, कोई नाग, कोई युवती उस सुन्दर स्त्री के समान नहीं थी। उसने उसे एक अन्य देवी लक्ष्मी के समान आकर्षक रूप में देखा, जो अपनी सुन्दरता के धन से मन की शक्तियों को कम कर रही थी (अर्थात विचलित कर रही थी)।
गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम्।।१५६।।
१५६-१५७. "हे वीर! मैं एक गोप-कन्या हूँ; मैं दूध, यह शुद्ध मक्खन और मलाई से भरा दही बेचती हूँ। तुम्हें जो स्वाद चाहिए - दही या छाछ - वह मुझे बताओ, जितना चाहो ले लो।"
एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका
तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।
जब वह गोपिका इस प्रकार विचारमग्न हो गई, तब ब्रह्माजी ने यज्ञ को शीघ्र पूर्ण करने के लिए विष्णु से ये शब्द कहे:
"
देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभो
एवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्।१८५।।
और यह गायत्री नामक देवी है , जो परम सौभाग्यशाली है।" जब ये शब्द कहे गए, तब विष्णुजी ने ब्रह्माजी से ये शब्द कहे: "हे जगत के स्वामी, आज तुम उससे गन्धर्व - विवाह करो, जिसे मैंने तुम्हें दिया है। अब और संकोच मत करो।
उपर्युक्त श्लोकों में गायत्री का सम्बोधन कहीं गोपकन्या है कहीं आभीर कन्या है। जो गोप और आभीर के परस्पर पर्याय होने की पुष्टि करता है।
अध्याय ४- पृष्ठ २०
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