यह स्वामी निश्चलानन्द सरस्वती जो की गोवर्धन मठ (पुरी) उडीसा के निवर्तमान शंकराचार्य हैं ।
उन्हें नंद और वसुदेव के विषय में पारिवारिक जानकारी न होने के कारण केवल अपने पूर्वदुराग्रह से प्रेरित हो कर दोनों ही महापुरुषों को अलग अलग जाति -वर्ण का बता दिया है।
परन्तु यह आवश्यक नहीं कि आज के शंकराचार्य पूर्ण ज्ञानी और शिव का ही अवतार हों-
इस लिए आज के शंकराचार्यों से प्राय: यह गलतियाँ होना स्वाभाविक हैं।
नन्द और वसुदेव को लेकर जो विवाद किया जाता है वह केवल उन दौंनो के गोपत्व को लेकर है।
गोप शब्द का अभिधा मूलक अर्थ गोपालक ( गायों का पालन करने वाला-है गोपालन करना और कृषि करना आर्यों की परम्परागत और मौलिक वृत्ति रही है। शास्त्रों में गाय के विषय में लिखा है ।
"भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि ,पीत्वा तोयं जलाशयात् दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥
निश्चलानन्द जी का कहना है कि नन्द गाय पालन करने से ही वैश्य थे। और वसुदेव क्षत्रिय थे; अर्थात दोनों का वर्ण अलग अलग था ।
वसुदेव ने भी जब गोपालन और कृषि कार्य किया तो वे किस आधार पर क्षत्रिय थे गोपालन करने से उनको भी वैश्य कहना चाहिए।
और पुराणों में वसुदेव को गोपों में जन्म लेने का वर्णन अनेक स्थलों पर हुआ है।
शूरसेनाभिधःशूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥६१॥
•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे ।
उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! ये (शूरसेन और अग्रसेन दौंनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए ) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व में कश्यप का ब्रह्मा के आदेश से व्रज में वसुदेव गोप के रूप में अवतरण होना भी वसुदेव के गोप रूप को सूचित करता है।-
(ब्रह्मोवाच)
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९ ।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।।
________________________
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै । २२ ।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।। २३ ।।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।। २४ ।।
मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।। २५।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।। २६ ।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः।२७।।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम् ।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।। २८ ।।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः ।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१ ।
इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः ।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः ।।३४।।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते ।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः ।।३५।।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः ।। ३६।।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः ।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।।३७।।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।। ३८।।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।। ३९ ।।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया ।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन ।1.55.४०।
उपर्युक्त श्लोकों में वर्णन है कि जब एक बार कश्यप ऋषि अपने पुत्र वरुण की गायों को उससे लेकर भी गायों के अत्यधिक दुग्ध देने से कश्यप की नीयत में आयी खोट के कारण वरुण की गायें पुन: वापस नहीं करते तब ब्रह्मा के पास आकर वरुण कश्यप और उनकी पत्नीयो अदिति और सुरभि की गायों को इन देने की शिकायत करते हैं।
तब ब्रह्मा कश्यप और उनकी पत्नीयों को गोप गोपी रूप में व्रज में गोपालन करते रहने के लिए जन्म लेने का शाप देते हैं ।
जो वसुदेव और उनकी दो पत्नी अदिति और सुरभि ही क्रमश देवकी और रोहिणी बनती हैं ।और वसुदेव कश्यप के अंश हैं ।
तो गोप तो वसुदेव भी थे नन्द ही नहीं ये यादवों के गोपालन वृत्ति परक विशेषण थे ।
(हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व 55वाँ अध्याय)
________________
और तो और निश्चलानन्द जी को महात्मा बुद्ध के विषय में जानकारी न होने के कारण भी ये दो बुद्ध होने की बात करते हैं एक बुद्ध ब्राह्मण थे ।
तो दूसरे क्षत्रिय ।
जो कि इनका समाज को भ्रमित करने वाला बयान है।
परन्तु हम सबसे पहले शंकराचार्य के उस मत का खण्डन करते हैं ।
जिसमें ये कहते हैं कि नन्द वैश्य थे और वसुदेव क्षत्रिय ?
सरस्वती जी मुझे बड़े दु:ख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि सदीयों से आपके कपटी पूर्वज यादवों का इतिहास बिगाड़ते रहे हैं ।
विदित हो कि
अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।
राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि..👇
अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए
तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्र लोकपालोपमा: शुभा: ।४९
देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के ।
वसु वभ्रु: सुषेणश्च , सभाक्षश्चैव वीर्यमान् ।यदु प्रवीण: प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।।५०।
___________________________________
सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए है।
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
'देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता ।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना ।।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यताँगत: ।तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य गोकुल का था ।
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुः द्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते ।
पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।
वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है।
अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है।
परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है।
स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को
और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था ।
निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
__________
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०।
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशं गतः।
करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनः सदैव हि ।५२ ॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।
मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए ।
वर्णित है अर्थात् ( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप ||30||
उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है
तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे वे वैश्य कहाँ हुए ?
क्योंकि वे तो नित्य युद्ध करते थे।
और इसके अतिरिक्त भी स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना पुरुषार्थ परिचय देते हुए कहा था जब
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।
परन्तु आज कृष्ण से मिलने का सौभाग्य भी प्राप्त हो गया ।
ये भूत या पिशाच जनजाति के लोग थे
यही आज भूटानी कहे जाते हैं ।
वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?
'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय देते हुए कहा कि शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय होने से मैं क्षत्रिय हूँ ।
तब पिशाच और जिज्ञासा पूर्वक पूँछता है ।
________________________
ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।3/80/ 9।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
________
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।।3/80/10
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ।10।।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।3/80/11।
•-मैं तीनों लोगों का पालक
तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं राजाओं के समक्ष उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।
______
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
___________________________
•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
_______
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
______________
"अत्रावतीर्णयोः कृष्ण गोपा एव हि बान्धवाः। गोप्यश्च सीदतः कस्मात्त्वं बन्धून्समुपेक्षसे।१८५.३२।
दर्शितो मानुषो भावो दर्शितं बालचेष्टितम्।
तदयं दम्यतां कृष्ण दुरात्मादेवमीढुधः।। १८५.३३
(ब्रह्मपुराण अध्याय हैं।७।
स्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति: ।।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है वह क्षत्रिय वर्ण का ही होता है ।
तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दान धर्म नामक उप पर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -)
(पृष्ठ संख्या( ५६२४) गीता प्रेस का संस्करण)
अब प्रश्न यह भी उठता है !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं ।
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ;
ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
इसके लिए देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते ।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत: ।।४।।
(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि
"तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते।
हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति: ।।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ;
वह क्षत्रिय वर्ण का होता है ।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण) _
ऋचीक-सत्यवती के पुत्र जमदग्नि, जमदग्नि-रेणुका के पुत्र परशुराम थे। ऋचीक की पत्नी सत्यवती राजा गाधि (प्रसेनजित) की पुत्री और विश्वमित्र (ऋषि विश्वामित्र) की बहिन थी।
परशुराम को शास्त्रों की शिक्षा दादा ऋचीक, पिता जमदग्नि तथा शस्त्र चलाने की शिक्षा अपने पिता के मामा राजर्षि विश्वमित्र और भगवान शंकर से प्राप्त हुई। च्यवन ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह किया।
महर्षि भृगु के प्रपौत्र, वैदिक ॠषि ॠचीक के पौत्र, जमदग्नि के पुत्र, महाभारतकाल के वीर योद्धाओं भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण को अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा देने वाले गुरु, शस्त्र एवं शास्त्र के धनी ॠषि परशुराम का जीवन संघर्ष और विवादों से भरा रहा है।
भृगुक्षेत्र के शोधकर्ता साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय के अनुसार जिन राजाओं से इनका युद्ध हुआ उनमें से हैहयवंशी राजा सहस्त्रार्जुन इनके सगे मौसा थे। जिनके साथ इनके पिता जमदग्नि ॠषि का इनकी माता रेणुका को लेकर विवाद हो गया था।
कथानक के अनुसार के साथ इनकी माता के सम्बंधों के लेकर हुए इस विवाद में इन्होंने अपने पिता के आदेश पर माता रेणुका का सिर काट दिया था। जिससे नाराज इनके मौसा सहस्त्रार्जुन ने जमदग्नि ॠषि का आश्रम उजाड़ दिया।
अब जब परशुराम ने २१बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य किया और फिर उन क्षत्रियों की विधवाऐं ब्राह्मणों के पास ऋतु दान के लिए आयीं तो उनसे उत्पन्न सन्तानें क्षत्रिय नहीं अपितु ब्राह्मण ही हुईं-
त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा ।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।
तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत सुतार्थिन्य८भिचक्रमु:।५।
ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६।
तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९।
(महाभारत आदि पर्व ६४वाँ अध्याय)
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पावन के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
तब ऋतु काल में ब्राह्मण ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए
और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई।
उसमें भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ माना गया ।
क्यों कि क्षत्रिया स्त्री में ब्राह्मण से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण होगी।
अत: परशुराम द्वारा २१बार क्षत्रिय विनाश वाली घटना कल्पना और शास्त्रीय सिद्धान्तों के विपरीत है। जिसका आगे या था क्रम हम खण्डन करेंगे-
प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये । द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा
तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए ।
देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।___________________________
देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रोऽजायत् अश्मिकां पत्न्याम् तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।।तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।।
नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी था और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं।
उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं । उपनन्द बडे़ थे ।
__________________________________ माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमोऽथ गोप इति प्राहु:।५७।
एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेष: एव वैश्योद् भवत्वात् अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका)
अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वंशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
_________________
वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है । पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं _________________________________ ब्रह्मवाक्यं ।।५१।
शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं). _______________
(विष्णु पुराण पञ्चमाँश २४वाँ अध्याय)
गुरु जी श्री सुमन्त कुमार यादव जौरा के श्री चरणों में नमन करते हुए -
पुरी के शंकराचार्य निश्चलानन्द सरस्वती के भ्रामक मतों का निवारण- प्रस्तुत करते हैं
_____________
प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार रोहि-
8077160219
प्रस्तुतिकरण - यादव योगेश कुमार रोहि-
ग्राम -आजादपुर -पहाड़ीपुर ( अलीगढ़)
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