सोमवार, 9 मई 2022

ब्राह्मणों के विधान -★

दूषित हाथों में पवित्र वस्तु भी दूषित हो जाती है। 
अत:आज के समय भगवा पाखण्डीयों और दुराचारीयों का भी लबादा बन गया है।

यद्यपि भगवारंग धारी सभी मनुष्य तो दूषित नहीं होते हैं परन्तु अधिकतर लोग अपने पाप,और दुष्कर्मो तथा असली शैतानी रूप को छुपाने के लिए भी भगवा धारण कर लेते हैं। क़तल, चोरी और व्यभिचार के जुल्म में संलिप्त व्यक्ति जेल कि सजायाफ्ता जिन्दगी से बचने के लिए भगवाधारी बन जाता है।

ब्राह्मणस्य द्विजस्य वा भार्या शूद्रा 
              धर्म्मार्थे न भवेत् क्वचित्।
रत्यर्थ नैव सा यस्य रागान्धस्य 
             प्रकीर्तिता ।। (विष्णु- स्मृति)
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अर्थात्‌ ब्राह्मण के लिए शूद्रा स्त्री धर्म कार्य के लिए नही अपितु वासना तृप्ति के लिए होनी चाहिए अत: शूद्रा का ब्राह्मण काम-तृप्ति (वासना तृप्ति- Sensuality )के लिए इस्तेमाल करे उसे वास्तविक पत्नी 'न बनाऐ
ऐसा ब्राह्मणों के स्मृति ग्रन्थों में वर्णित है ।

क्या यही भारतीय ब्राह्मणों की सामाजिक व्यवस्थाओं का प्रारूप था ?
यदि ऐसा था तो यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है!
और अन्तत: इसका परिणाम यही हुआ कि भारत देश सामाजिक विखण्डन के कारण लगभग दो हजार वर्ष तक विदेशों का गुलाम रहा ।
भारतीयों के परस्पर एकजुट न होने के कारण ही विदेशीयों का भारत पर आक्रमण लगातार होता रहा। इसका दिक् व्यवस्था का जिम्मेदार तत्कालीन पुरोहित समाज ही है । 
जिसने अपने स्वार्थ की  वेदी पर  मानवता को हव्य बना दिया। शूद्र और महिलाओं के दमन के लिए हमारे शास्त्रों में जो विधान बनाऐं गयें हैं।
वो किसी भी धर्म की बुनियादी सामग्री नहीं है।
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महिलाओं की सामाजिक स्थिति स्मृति काल में कैसी थी 
? इसका अन्दाजा हम इस श्लोक से लगा सकते हैं।👇

बाल्ययौवनवार्द्धकेष्वपि पितृभर्तपुत्राधीनता ।
मृते भर्त्तरि ब्रह्म चर्य्य तदनवारोहणं वा।
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अर्थात्‌ बालकपन , यौवन और वृद्धा अवस्था में भी  पिता, भर्ता और पुत्रों की अधीनता में रहना  स्त्रियों का धर्म है। 
अन्त में अपने पति के मर जाने पर विधवा ब्रह्म चर्य्य का पूर्ण पालन करे अथवा पति की चिता पर आरोहण कर उसके साथ जल जाऐं यही  स्त्रीयों का परम धर्म है। (विष्णु-स्मृति)

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विचारणीय तथ्य यह है कि क्या महिलाओं के प्रति यह व्यवहार आज भी प्रासंगिक है ।

और विदित हो कि " सत्य का मानक शाश्वतता ही है । जो सर्वत्र और सार्वकालिक है वही सत्य है ।
सत्य पूछा जाए तो महिलाओं के शैक्षिक अधिकारों का हनन उनको गुलाम बनाने के लिए ही काफी था ।

स्त्रीयों को सामाजिक और धार्मिक विधानों के परिधानों में सुसज्जित करने वाले पुरुष समाज 'ने विशेषत: पुरोहित समाज नें  धर्म या कर्तव्य तो अधिक प्रदान किए और स्वतन्त्रता या अधिकार 'न के बराबर दिए है ।
 
और इन विधानों को बनाने वालों ने खुद के लिए अधिकारों का बाहुल्य तथा कर्तव्य का विधान न के बराबर निर्धारित किए।
-स्मृतियों की रचना पुराणों के वाद हुई जैसा कि स्वयं (शान्तातप स्मृति )में वर्णन है कि 👇

"ब्राह्मणोद्वाहनञ्चैव कर्तव्यं तेन शुद्धये।
श्रवणं हरिवशंस्य कर्त्तव्यञ्च यथाविधि।।61।

इस पाप से छुटकारा पाने के लिए किसी ब्राह्मण का उद्वाहन करना चाहिए और विधि पूर्वक हरिवंश पुराण का श्रवण करना चाहिए।61।

विदित हो की हरिवंशपुराण में वसुदेव और नन्द को गोप अथवा अहीर कहा गया है ।

परन्तु विचारणीय तथ्य यह भी है कि जो गोप या आभीर नारायणी सेना के यौद्धाओं में शुमार थे ।

वे स्मृति कारों 'ने शूद्र कैसे बनाये  नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर या गोप की कन्या वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री को आभीर शूद्र क्यों नहीं बनाया वृषली के लालों ने गाय के मुख में डाल कर पिछवाड़े से निकाल कर भी आभीर कन्या को ब्राह्मण कन्या नहीं बना पाया। विदित हो कि  ...

फर्जी ग्रन्थ पाराशर स्मृति ,सम्वर्त स्मृति तथा मनुस्मृति आदि में गोप ,गोपाल , सात्वत और आभीरों को वर्ण संकर (Hybrid) के रूप में वर्णित करना परवर्ती पुरोहितों की मक्कारी और धूर्तता ही है ।
परन्तु ध्यान रहे कि जिसने भी अहीरों के खिलाफ ये फरेबी अभियान चलाया वह अन्त में पश्चाताप करने पर भी इस पाप से विमुक्त नहीं हो पाएगा उनके समर्थक वंशजों को यादव समाज कभी क्षमा नहीं करेगा !

नारायणी सेना के यौद्धाओं का वर्णन कहीं गोप रूप में है  तो कहीं यादव और कहीं कहीं 
जैसे महाभारत के मूसल पर्व अष्टम अध्याय श्लोकांश 47 में आभीर के रूप में है ।
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पद्म पुराण को निम्न श्लोक ही इनकी प्राचीनता और महानता को साक्ष्य हैं ।

"धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
अनया गायत्र्या तारितो  गच्छ  युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति

अनुवाद -
विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है  ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तु सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य री सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।


वैष्णव ही इन अहीरों का इनका वर्ण है । 
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
विष्णु का  गोप के रूप में वेदों में  वर्णन है।
वही विष्णु अहीरों में जन्म लेता है । 
औरअहीर शब्द ही वीर शब्द का रूपान्तरण है।
विदित हो की  "आभीर शब्द अभीर का समूह वाची रूप है।  परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: १- आ=समन्तात्+ भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है 
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोश कार 
२-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर के  रूप में की अमर सिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
क्योंकि

अहीर "वीर"  चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के  जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।


तो भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के -पन्द्रह वें अध्याय के श्लोक संख्या 20  में  गोप रूप में !

विदित हो कि नारायणी सेना के गोपों ने अर्जुन को सेना सहित पंजाब (पञ्चनद प्रदेश) में परास्त कर दिया था ।

यही बात महाभारत के मूसलपर्व अष्टम अध्याय के श्लोक 47 में आभीर रूप में तो है ही ।

'परन्तु परवर्ती रूपान्तरण होने से प्रस्तुति-करण गलत है 
द्वेषवादी पुरोहितों 'ने अर्जुन द्वारा सुभद्रा अपहरण और दुर्योधन की पक्षधर नारायणी सेना के यौद्धाओं और अर्जुन की प्राचीन शत्रुता के मूल कारण प्रकरण को तिरोहित (गायब) कर दिया 

और यदुवंशी तथा अहीर या गोपों को अलग दिखाने की कोशिश की है ।

गोपों ने ही पंजाब प्रदेश में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था वे ही  गोप अहीर नामान्तरण से भी हैं ।

अर्जुन से नारायणी सेना के यौद्धाओं की शत्रुता के एक नहीं अपितु कई समन्वित कारण थे । 

ये तो महाभारत और अन्य पुराणों में ध्वनित होती ही है ।
एक घटना अर्जुन  द्वारा अपने सगे मामा की लड़की- अर्थात्‌ ममेरी बहिन सुभद्रा का काममोहित होकर कपट पूर्वक अपहरण करना था ।

मातुल  वैसे भी माँ के समान पालन करने वाला मामा और उसकी पुत्री बहिन ही है ।
और अर्जुन'ने अपने मामा वसुदेव की पुत्री सुभद्रा का अपहरण कर उसके साथ विवाह करना यह कारनामा कभी नैतिक मर्यादाओं में समाहित नहीं था ।

(मा+तुल)– माँ के तुल्य संस्कृत भाषा में मातुल शब्द की व्युत्पत्ति – मातुर्भ्राता मातृ--डुलच् । १ मातुर्भ्रातरि अमरःकोश २ तत्पत्न्यां वा ङीष् वा आनुक् च । मातुलानी मातुली मातुला च ।

मद् उन्मत्ते  मद--णिच्--उलच् पृषो० दस्य तः ।
 (माद् +उलच् )३ धुस्तूरे ४ व्रीहिभेदे ५ मदनवृक्षे च मेदिनीकोश । ६ सर्पभेदे हेमचन्द्र-कोश ।

विदित हो कि अर्जुन ऐसी कई नैतिक गलतीयाँ कर चुका था ।

शासत्रों में ये विधान भी  थे ।👇 

"मातुलानीं सनाभिञ्च मातुलस्यात्मजां स्नुषाम् ।
एता गत्वा स्त्रियो मोहान् पराकेश विशुध्यति ।।157। (सम्वर्त स्मृति )

मामी ,सनाभि ,मामा की पुत्री अथवा उसकी पुत्र वधू इनके साथ जो व्यक्ति लुब्ध या मोहित  होकर मैथुन करता है  तो वह पराक नामक प्रायश्चित से शुद्ध होता है यह महापाप है ।

शास्त्रों में ये प्रायश्चित विधान सामाजिक व्यवस्थाओं के उन्नयन के लिए नैतिक रूप से बनाये गये थे ।
ताकि समाज पापोन्मुख न हो ।

आपको ये भी याद होगा की अर्जुन 'ने अपने मामा वसुदेव की कन्या और अपनी ममेरी बहिन सुभद्रा का अपहरण काम मोहित होकर ही किया था ।

उसकी नैतिकता और धर्म मर्यादाओं का नाश हो गया था 
इसीलिउसने अपनी ममेरी बहिन के साथ ये हरकत कर डाली 
वह भी कपटपूर्वक नारायणी सेना के यौद्धाओं अर्थात्‌ अहीरों या गोपों'ने अर्जुन को पंजाब प्रदेश में तब और बुरी तरह परास्त कर दिया था जब वह कृष्ण के कुल की यदुवंशी स्त्रीयो गोपियों को अपने ही साथ इन्द्र -प्रस्थ ले जा रहा था ।

इसी कहीं गोप तो कहीं अहीर शब्दों के द्वारा अर्जुन को परास्त करने वाला बताया गया पुराणों में ।हम आपको वे श्लोक भी दिखाते हैं
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प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले 
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से 
यह प्रक्षिप्त (नकली)श्लोक उद्धृत करते हैं ।

ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले !अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है ।
इसे देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन । 
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। 

अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । 
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।

हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 

परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!

( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है। 

अब भी कोई सन्देह की गुँजाइश है ।
कि अहीर और गोप अलग अलग हैं ।

दरअसल नारायणी सेना के गोप यदुवंशी यौद्धा ही थे 
सुभद्रा हरण ' 'ने यदुवंशी गोपों को अर्जुन का घोर शत्रुओं बना दिया था इन्हीं गोपो नें पंजाब में अर्जुन को बुरी तरह परास्त कर दिया था।

यद्यपि गोप आभीर और यादव समानान्तरण अर्थ में प्रयुक्त हैं ।

 केवल कुछ शातिर व धूर्त पुरोहितों 'ने द्वेष वश  आभीर के स्थान पर गोप लिखा और फिर गोप को केवल यादव लिखा ।

और आज अहीरों, गोप और यादवों को अलग- अलग
बताने की कोशिश में हैं ।

अहीर शब्द तो पुराणों में से लगभग यादवों का प्रत्यक्ष रूप से विशेषण नही रहने दिया ।

स्मृतियों में द्वेष वश तत्कालीन पुरोहितों'ने गोपों या कीं अहीरों को वर्ण संकर (Hybrid) या शूद्र कहकर भी वर्णित किया है ।👇

ब्राह्मण भीख मांग कर भी श्रेष्ठ हैं  इसी लिए आज भीख माँगना व्यवसाय बन गया👇 
ब्राह्मणः प्रचरेद्भैक्षं क्षत्रियः परिपालयेत्।
वैश्यो धनार्जनं कुर्याच्छूद्रः परिचरेच्च तान् ।30।
भैक्षं विप्रतिषिद्धं ते कृषिर्नैवोपपद्यते 
क्षत्रियोऽसि क्षतात्राता बाहुवीर्योपजीविता ।32।
 (अध्याय 132, उद्योगपर्व महाभारत) 
अनुवाद:-
ब्राह्मण भिक्षावृति से जीविका चलावे, क्षत्रिय प्रजापालन करे, वैश्य धनोपार्जन करे और शूद्र इन तीनों की सेवा करे।




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