मंगलवार, 14 जून 2022

अहीरजाति में यदुवंश और वृष्णिकुल-


जादौन: यदुवंशी राजपूत कौन हैं ?

 Who are Yaduvanshi Rajput ? Jadon

जादौन या जादों अहीर जाति से उत्पन्न हुए राजपूत है, जिनका राजपूती करण 18 वीं शताब्दी में हुआ। जादौन राजवंश के संस्थापक ब्रह्मपाल अहीर और उनके सगे संबंधियों को छोड़कर अन्य जादौन यहूदियों के धर्म परिवर्तन के फलस्वरूप जादौन अहीरो में जुड़कर जादौनों ने राजपूत समूह बना लिया। और जो नहीं जुड़ पाए वे जादौन बंजारा ही रहे। इसीलिए बंजारा जाति के एक समुदाय को भी जादौन नाम से इतिहास में जाना जाता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ब्रम्हपाल अहीर सीधे यादवों / अहीरों से नहीं उत्पन्न हुए है। यह आभीर यदुवंशियों की एक शाखा गड़रिया ( पाल जाति ) से सम्बन्ध रखते थे ! अत: इतिहास में पाल शब्द प्रारंभिक रूप में गोपालक अहीरों का वाचक था।
परन्तु कालान्तरण में मथुरा से निर्वसित सभी आभीर यदुवंशी जो करौली में शासक रहे पाल " उपाधि ही धारण करते थे।

 CasteJadaun Rajput ( जादौन )
GroupRajput (राजपूत)
ClaimYadav
RealityYahudi Banjara ( Jadon )
OriginBramhpal Ahir ( A Yaduvanshi Gadaria )
CountryIndia
LocationKarauli
यहूदी बंजारा होना यादव न होने का मापदंड नहीं है |विदित हो कि यहूदी / हिब्रू भी मूलतः यादव ही होते हैं। यहूदी शब्द यादव तथा (Hebrew) शब्द अभीर / अभीरू से ही है।


अहीर जाति की प्राचीनता और महानता के पौराणिक दस्तावेज़- जिसमें कालान्तर में यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ- 

अहीर जाति-

सेमेटिक पुरा कथाओं में जिस प्रकार यहुदह् ( यदु:) के पिता याकूव/ जैकव को अबीर नाम से वर्णन किया गया है जो की ईश्वर का एक नाम है।
और भारतीय पुराणों में ययाति का वर्णन भी उसी प्रकार है जिस प्रकार सेमेटिक मिथकों में याकूव का । 
याकूव से जैकव तथा फिर हाकिम जैसे शब्द विकिसित हुए।
उसी प्रकार पद्म पुराण में अहीर जाति में ही अत्रि से लेकर ययाति तथा उनके वाद के यदु: और तुर्वसु को दर्शाया गया है। जबकि अत्रि ब्रह्मा को सात मानस पुत्रों में से एक हैं। जो स्वयं वेदों सी अधिष्ठात्री देवी गायत्री का विवाह जगतपिता ब्रह्मा के साथ कराते हैं।
यदि हम सैमेटिक मिथकों में याकूव की। बात करें तो यह शब्द यूरोप री अनेक भाषाओं में बहुत से उच्चारण भेदी रूपों में दृष्टिगोचर होता है।

इसी सा रूपान्तरण जेम्स( jems) एक अंग्रेजी भाषा का शब्द है; जिसे हिब्रू मूल का नाम दिया गया है, जो आमतौर पर पुरुषों के लिए उपयोग किया जाता है। यह मूलत: हिब्रू भाषा के याकूब शब्द का रूपान्तरण है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से याकूव और जेम्स शब्द मूलत: एक है।
यह एक आधुनिक  याकूव का वंशज शब्द है।जिसे हम जेम्स कहते हैं।
पुराने फ्रांसीसी जेम्स के माध्यम से , वल्गर लैटिन में आईकोमस(Icomus) (तुलना करें- इटालियन-( गियाकोमो ), पुर्तगाली- (टियागो) , स्पैनिश -(इगो), सैंटियागो ) , लैटिन -(इकोबस) से जो कि  एक व्युत्पन्न संस्करण है। 
हिब्रू याकूव नाम का जैकब  लैटिन रूप है। (मूल हिब्रू: יעקב) .
अंग्रेजी के पहले नामों में अंतिम -एस(s) पुराने फ्रेंच से उधार लिए गए लोगों के लिए विशिष्ट है।
 
चूंकि स्पैनिश और इसके डेरिवेटिव(व्युत्पन्न- शब्द)में J का उच्चारण / x / (Kh) किया जाता है, कई यहूदियों ने इस नाम का इस्तेमाल है इसके हिब्रू नाम का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया था जिसे चा-यिम (उच्चारण खा-यिम) या इसके समान रूपों को स्पेनिश और अंग्रेजी में जा-यिम में के रूप में भी लिखा गया था।
जेमी या जिम, भले ही दो नामों की उत्पत्ति बहुत भिन्न हो। लेकिन बहुत से शब्द मूलत: एक होते हुए भी बहुरूपी हो जाते हैं ।
नीचे याकू से बने बहुरूपी शब्दों को उदाहरण हैं 
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जैक , जैकी, जैकी
जैमे या जेमी
जिम या जिमी
जिम्बो
विभिन्न भाषाओं में जेम्स और जैकब के प्रकार ही हैं।
१-अफ्रीकी : जैकोबस, कूस (छोटा), कोबस (छोटा), जाको (छोटा)
२-अल्बानियाई : जैकुप, जैकब, जैकब या जैकोव
३-अलेमानिक : कोबी, चोबी, जोकेल, जैकोब्ली (छोटा), जोकेली (छोटा), जोगी

४-अम्हारिक् : (याकूब)
५-अरबी : يعقوب ( Yaʻqub )
६-अर्गोनी - चाइम, चाकोबो
७-अर्मेनियाई : शास्त्रीय शब्दावली में और सुधारित शब्दावली में ( पश्चिमी : हागोप, पूर्वी : हाकोब)

८-अस्तुरियन : डिएगू, ज़ाकोबू, ज़ैमे
९-अज़रबैजानी : याकूब
१०-बास्क : जैकू, जैकब, जैकोबे, जगोबा, जैमे , जेक; जकोबा, जगोबे (स्त्रीकृत); 
जागो (छोटा)
११-बवेरियन : जैकल, जॉक, जॉक, जॉकी
१२-बेलारूसी : Jakub, куб (याकूब), Jakaŭ, каў (Yakaw)
१३-बंगाली : মস (Jēms/Jēmsh), াকুব (Iyakub)
___________
१४-बाइबिल हिब्रू : याकोव (יעקב)
१५-बोस्नियाई : Jakub
________________
१६-ब्रेटन : जगु, (जगट), जैकट, जेक, जेक, जेकेज़, जेकेज़िग, जकोउ, जालम, चाल्म।

१७-बल्गेरियाई : ков (याकोव)
१८-कैंटोनीज़ (जीम-देखें)
१९-कातालान : जैम, ज़ाउम, जेकमे, जैकब, डिडैक, सैंटियागो
२०-चीनी : 詹姆斯 (ज़ानमुसी), 詹姆士 (ज़ानमुशी)
२१-कोर्निश : जागो, जैम्स, जम्मा
२२-क्रोएशियाई : जैकोव, जैकब, जकसाक
२३-चेक : जैकब, जैकोबेक (छोटा), कुबा (छोटा),

 कुबिक (छोटा), कुबिसेक (छोटा), कुबास (अनौपचारिक, असामान्य), कुबी (अनौपचारिक), कुब्सिक (अनौपचारिक, असामान्य)
२४-डेनिश : इब, जैकब, जैकब, जेप्पे, जिम, जिमी
२५-डच : जैकब, जैकोबस, जैकब, जैको, जैको, कोबस, कूस, जाप, कोबे, कोबस, कूस, सजाक, स्जाकी
२५-अंग्रेजी :
जैक
याकूब
जैकब (असामान्य, जर्मन, यिडिश, आदि के माध्यम से)
जैकोबी (दुर्लभ, मुख्यतः अमेरिकी, और मूल रूप से एक उपनाम)

जेक , जेकी (छोटा)
कोबी/कोबी (छोटा, असामान्य, मुख्यतः अमेरिकी)
जेमी (अल्पसंख्यक, सभी मुख्य रूप से अंग्रेजी बोलने वाली भूमि, यूनाइटेड किंगडम, आयरलैंड, कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, आदि में पाया जाता है)
Jaime/Jaimie (छोटे, असामान्य, मुख्यतः अमेरिकी, और स्पेनिश के माध्यम से)
जिम
जिमी / जिमी / जिमी / जिमी / जिमी (छोटा)
जिम्बो (छोटा)
जंबो

२६-एस्पेरान्तो : जैकोबोस
२७-एस्टोनियाई : जैकब, जाकोब, जागुप , जाकी
फिरोज़ी : जैकुप , जक्कू (केवल डबल नामों में जैसे जोआन जक्कू, हंस जक्कू। पहले जैकब/जैकब की वर्तनी थी)
२८-फिलिपिनो : जैमे, जैकब, सैंटियागो (धार्मिक उपयोग)
२९-फिनिश : जाकोब, जाकोप्पी, जाको, जस्का , जिमिक
३०फ्रेंच : जैक्स , जैकलिन (स्त्रीकृत), जेम्स, जैम्स, जैकब, जैक्कोट (छोटा), जैकोट (छोटा), जैकोटे (स्त्रीकृत), जैको (छोटा), जैक (छोटा), जैकी (छोटा), जैक (छोटा), जैकी (छोटा)
३१-फ़्रिसियाई : जापिको
३२-फ्रीयुलियन : जैकुम
३३-गैलिशियन् : ज़ैमे, इयागो, डिएगो, ज़ाकोबे, ज़ाकोमे
३४-जॉर्जियाई : (इकोब), (कोबा)
३५-जर्मन : जैकब, जैकोबस, जेकेल (छोटा), जैकेल (छोटा), कोब्स (छोटा), कोबी ( स्विस जर्मन छोटा)
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३६-ग्रीक :
ακώβ (इयाकोव, सेप्टुआजेंट में )
βος (इकोवोस, न्यू टेस्टामेंट )
ακουμής (याकौमिस, बोलचाल, संभवतः Ιωακείμ (जोआचिम) से भी)
Ιακωβίνα (इकोविना, नारीकृत)
(यांगोस, शायद स्लाव भाषाओं के माध्यम से
Δημήτρης (दिमित्रिस) संभवतः /Γιάννης (Ioannis/Yannis, John या Jonah) से भी
या ακ (ज़ाकिस या ज़क, फ़्रेंच-साउंडिंग)
हवाईयन : किमो, इकोबो, इकोपो
हिब्रू : जैकब और जेम्स दो अलग-अलग, असंबंधित नाम हैं एसा कुछ लोगों कि मत है परन्तु यह सत्य नहीं है।
जैकब (याकोव या याकोव) है,।

जेम्स के लिए स्पेनिश नाम जैम का उच्चारण स्पेनिश में के इज़राइली उच्चारण की तरह किया जाता है।

(हैम या चैम ने खा-यिम और अर्थ जीवन का उच्चारण किया)।
चैम के अल्पार्थक हैं:

Chayimee (येहुदी या स्पेनिश Jaime से)
'ל/חיימקה (येदिश से चीकेल/चायिमके)
३७-हिंदी : पोजिशन (Jēmsa)
३८-हंगेरियन : जैकब, जैकोबी
३९-आइसलैंडिक : जैकोबी
इग्बो जेम्स, जेम्स, जेकीबी
४०-इन्डोनेशियाई : याकोबस, याकूबुसो
४१-आयरिश : सेमास / सेमास / सेमस , शेमाइस (संवादात्मक , जहां से अंग्रेजी : हामिश ), सीमस ( अंग्रेजी), शामस ( अंग्रेजी ), सेमी (छोटा), सेमिन (छोटा), सेमुइसिन (छोटा), इकोब
४२-इटालियन : जियाकोमो, इकोपो या जैकोपो, जियाकोबे, जियाकोमिनो, जियाको, जियामो, मिनो
४५-जापानी : ジェームス (जुमुसु)
४६-जेरियास : जिमसी
४७-कन्नड़ : (Jēms)
४८-कज़ाख : ақып (ज़ाकिप, जैकब), куб (याकूब, याकूब)
किकुयू : जेमुथी, जेमेथी, जिम्मी, जकुबू (उच्चारण "जकूफू")
४९-कोरियाई : 제임스 (जेमसेउ), (याकोबो)
स्वर्गीय रोमन : इकोमुस
५०-लैटिन : Iacobus, Iacomus (vulgarized), डिडाकस (बाद में लैटिन)
५१-लातवियाई : जैकब्स, जैकब्स, जैकबसी
५२-लिम्बर्गिश : जैकब, सजाक, सजक, केयूबेक
५३-लिथुआनियाई : जोकिबासी
लोम्बार्ड : जियाकॉम, जियाकम, जैकोम
निचला जर्मन : जैक, जैकब, कोब, कोप्के
लक्ज़मबर्ग : जैकब, जैक, जेक, जेकिक
मकदूनियाई : аков (याकोव)
५४-मलय : يعقوب ( याकूब ), याकूब, याकूब
मलयालम : चाको, जैकब, याकोब (उच्चारण याह-कोहब)
माल्टीज़ : akbu, akmu, Jakbu
मैंक्स : जैमिस
माओरी : हेमी
उत्तरी सामी : जाहकोटी
नार्वेजियन : जैकब, जैकोप, जेप्पे
ओसीटान : जैक्मे (उच्चारण जम्मे), जैम, जैम्स (उपनाम, उच्चारण जम्मे), जेम्स (उपनाम, उच्चारण जम्मे)
५५-फ़ारसी : وب ( याक़ुब )
पीडमोंटिस : जियाको, जैको (मोंटफेरैट बोली); छोटा: जियाकोलिन, जियाकोलेट, जैकोलिन
५६-पोलिश : जैकब, कुबा (छोटा), कुबुन (छोटा प्यारा)
५७-पुर्तगाली : जैको ( ओटी फॉर्म), जैकब, जैमे, इगो, टियागो ( एनटी में प्रयुक्त अनुबंधित रूप ), थियागो और थियागो (ब्राजील में प्रयुक्त संस्करण), डिओगो, डिएगो, सैंटियागो, जैकलीन (महिला।)
प्रोवेनकल : जैकमी
५८-पंजाबी : (जुमासा)
५९-रोमानियाई : इकोब, इकोव
६०-रूसी : Иаков (याकोव) (पुरातन ओटी रूप), ков (याकोव, याकोव), а (यशा) (छोटा)
सामोन : इकोपो, सेमीसी, सिमी (जिम)
६१-सार्डिनियन : जियागु (लोगुडोरेस), इयाकू (नूरोसे)
६२-स्कॉट्स : जेम्स, जेम्स, जेमी , जेज़र , जेमी
६३-स्कॉटिश गेलिक : सेउमास , शूमाइस (संवादात्मक), हामिश (अंग्रेजी)
६४-सर्बियाई (सिरिलिक/लैटिनिक): Јаков/Jakov (याकोव); акша/जक्ष (यक्ष); аша/जसा (यशा) (छोटा)
सिसिलियन : जियाकुमु, जुकुमु
६५-सिंहल : (डिओगु), (जैकब), (संथियागो), (याकोब)
६६-स्लोवाक : Jakub, Kubo, Kubko (छोटा), Jakubko (छोटा)
६७-स्लोवेनियाई : जैकब, जकास
६८-सोमाली : याकूब
६९-स्पेनिश : जैमे, जैकोबो, यागो, टियागो,
इसके अतिरिक्त दुनियाँ सी अन्य भाषाओं में भी यह शब्द है ।

सैंटियागो , डिएगो , जैकोबा (महिला), जैकब
स्वाहिली : याकूब
स्वीडिश : जैकोबो
सिलहटी : া (याकूब)
सिरिएक : (याकूब)
तमिल : ்ஸ் (Jēms)
तेलुगु : ు (याकिबू) (जिम्स)
थाई : (जेम, सेम्सो )
तुर्की : याकूब, याकूब
यूक्रेनियन : ків (याकिव)
उर्दू : مز (जेम्स), وب (याकूब)
विनीशियन : जोकोमो, जोको
वालून : जोके
वेल्श : इयागो, सियाम्सो
येहुदी : (यांकेव/यांकिफ), /קופפל (कप्पेल/कोप्पेल), /יענקלה (यांकेल/यांकेलेह), (यांकी), (याकब - रोमानियाई इकोब से), और अन्यजातियों का नाम जैकब से संबद्ध नहीं है: (जेम्स)
योरूबा जकोब, जकोबुस
ज़ुलु : जैकोबी
लोकप्रियता संपादन करना
जेम्स अंग्रेजी बोलने वाली दुनिया में सबसे आम पुरुष नामों में से एक है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, जेम्स बीसवीं शताब्दी के अधिकांश समय में पुरुष शिशुओं के लिए दिए गए पांच सबसे आम नामों में से एक था। 
अरबी - हाकिम-
संस्कृत- ययाति-
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अबीर अर्थ-

बाइबिल हिब्रू में अबीर

मैं

🔼 नाम अबीर: सारांश

अर्थ- पराक्रमी, रक्षक, ढाल
शब्द-साधन( शब्द व्युत्पत्ति)
क्रिया אבר ( 'br ) से, बलवान होना या रक्षा करना। संस्कृत वृ(आवृणोति)

🔼 बाइबिल में नाम अबीर

अबीर नाम जीवित परमेश्वर की उपाधियों में से एक है। किसी कारण से इसका आमतौर पर अनुवाद किया जाता है (किसी कारण से सभी भगवान के नाम आमतौर पर अनुवादित होते हैं और आमतौर पर बहुत सटीक नहीं होते हैं), और पसंद का अनुवाद आमतौर पर( शक्तिशाली) होता है, जो बहुत सटीक नहीं होता है। (अवर)अबीर नाम बाईबिल में छह बार आता है लेकिन अकेले नहीं; पाँच बार यह (याकूब) नाम के साथ और एक बार इस्राएल के साथ जोड़ा गया है।

यशायाह 1:24 में हम प्रभु के चार नामों को तेजी से उत्तराधिकार में पाते हैं जैसा कि यशायाह रिपोर्ट करता है: "इसलिए १-अदोन २-यहोवा ३-सबोत  ४अबीर  इज़राइल घोषित करता है । यद्यपि -"एलॉहिम"  भी ईश्वर का एक अन्य नाम है जोकि "एल" का बहुवचन रूप है ।

यशायाह 49:26 में एक और पूर्ण रस्सी मिलती है: "सभी मांस जानेंगे कि मैं, यहोवा, तुम्हारा उद्धारकर्ता और तुम्हारा मुक्तिदाता, अबीर याकूब हूं," और यशायाह 60:16 में समान उल्लेख किया गया है।

पूरा नाम अबीर जैकब सबसे पहले खुद जैकब ने बोला था।  अपने जीवन के अंत में, याकूब ने अपने पुत्रों को आशीर्वाद दिया, और जब यूसुफ की बारी आई तो उसने उससे अबीर याकूब के हाथों की आशीषों के बारे में बात की (उत्पत्ति 49:24)। कई वर्षों बाद, भजनहार ने राजा डेविड को याद किया, जिसने अबीर जैकब द्वारा शपथ ली थी कि वह तब तक नहीं सोएगा जब तक कि उसे (YHWH) "यह्व" के लिए जगह नहीं मिल जाती; अबीर याकूब के लिए एक निवास स्थान (भजन 132:2-5)।

🔼 अबीर नाम की व्युत्पत्ति

अबीर नाम जड़ אבר ( 'br' ) से आया है, जिसका मोटे तौर पर मतलब होता है मजबूत होना:

 क्रिया אבר ( 'br ) का अर्थ है मजबूत या दृढ़ होना, विशेष रूप से रक्षात्मक तरीके से (आक्रामक के बजाय)। व्युत्पन्न संज्ञाएं אבר ( ' एबर ) और אברה ( 'एब्रा ) पिनियन (ओं) को संदर्भित करती हैं; जो एक पक्षी के पंख बनाती हैं, जिसका अर्थ है कि पूर्वजों ने एवियन पंखों को उड़ने के बजाय रक्षा करने के साधन के रूप में देखा (हस्ताक्षर) इसलिए, स्वर्गदूतों की विशेषता उड़ने की क्षमता नहीं बल्कि रक्षा करने की प्रवृत्ति है)।

क्रिया ( अबार ) पिनियन से की जाने वाली गतिविधियों का वर्णन करती है, जो उड़ना या रक्षा करना है। विशेषण ( 'अब्बीर' ) , जिसका अर्थ है रक्षात्मक तरीके से मजबूत; सुरक्षात्मक।

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हमारे समाज और देश में बड़े बड़े अनुसन्धान कर्ता  हुए हैं। 
अभी अभी एक शूद्र वादी  विचारधारा के पोषक  विद्वान  लेखक "राकेश यादव जी" ने 'अहीर शब्द की कुण्डली को खोज कर इसकी व्युत्पत्ति की नयी थ्योरी ईजाद की  है।

उनके अनुसार अहीर शब्द वर्हि: शब्द का रूपान्तरण है।
न कि आभीर शब्द का

परन्तु  लेखक ने  संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण वर्हि; शब्द का अर्थ केवल मोर को ही माना हैं। जबकि वर्हि: का अर्थ मुर्गा भी होता है ।

("वर्हमस्य+ इन) -व्युपत्ति से जिसके वर्हम ( पूँछ-पंख हो  वह वर्हिण- या वर्हि: होने से मयूर तथा मुर्गा का वाचक है ।

यद्यपि अहीर लोग मोर अथवा मुर्गा तो नहीं पालते थे जिन्हें वर्हि से सम्बद्ध किया जाए।
 
परन्तु मोर पंख का मुकुट  अहीर  जाति में उत्पन्न यादवों के तत्कालिक नायक श्रीकृष्ण अवश्य धारण करते थे ।
 
मयूर पालना गुप्त काल में  मगध के  मौर्यों  का कार्य रहा है  ।
विदित हो कि ब्राह्मणीय-
वर्ण-व्यवस्था में यादवों अथवा अहीर जाति को समाहित नहीं किया जा सकता है।

क्यों कि जब वर्ण-व्यवस्था की अवधारणा भी नहीं थी तब  भी अहीर जाति  थी।

क्यों कि अहीर जाति में ईश्वरीय विभूतियों के रूप में अनेक वैष्णवी शक्तियों ने अवतरण किया है।

आभीर जाति के नायक / नायिका "गायत्री "दुर्गा "राधा  और विन्ध्याचल वासिनी तथा कृष्ण और बलराम आदि के रूप में  गोप लीला करते हुए भी भागवत धर्म का द्वार समस्त शूद्र और स्त्रीयों के लिए खोल देते हैं ।

गोप अहीरों के द्वारा नारायणी सेना बना कर दुष्टों का संहार कर देते हैं ।
युद्ध- भूमि में कृष्ण सूत बनकर रथ भी हाँकते हैं।

और युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में शूद्र बनकर उच्छिष्ट ( झूँठी) पत्तर भी  कृष्ण  उठाते हैं।
 
और वैश्यवृत्ति समझी जाने वाले कार्य  कृषि-और गोपालन  करने वाले होकर गायें भी चराते हैं ।

फिर अहीरों के लिए वर्ण- व्यवस्था के क्या मायने हैं ? 
अहीर हिन्दु नहीं हैं क्योंकि हिन्दुत्व में बनिया ब्राह्मण और ठाकुर या राजपूत  समझे जाने वाले लोग श्रीराम के नाम पर भगवा के बैनर तले एक जुट हैं ।
अहीरों तुम हिन्दू नहीं हो उन अर्थों में जिन अर्थों में तुम आज स्वयं को कह रहो हो ।
हिन्दू ब्राह्मण वाद या पूरक शब्द है ।

और हिन्दु को रूप में वर्णव्यवस्था को अन्तर्गत आपको शूद्र वर्ण में स्थित किया जाएगा ।

अहीर भागवत हैं  सात्वत हैं ।
जिसे मनु स्मृति कार ने पूर्वदुराग्रह वश शूद्र बनाने की कोशिश की है।

वैश्य वर्ण के व्रात्य से स्वजातीय स्त्री से उत्पन्न पुत्र को सुधन्वाचार्य, कारुष्य, विजन्मा, मैत्र और (सात्वत) कहते हैं।

जबकि पुराणों के अनुसार (सात्वत) यादवों का वह समुदाय है जिसने भागवत धर्म का प्रतिपादन किया।

सात्वत संहिता या सात्त्वत संहिता एक पञ्चरात्र संहिता है। सात्वतसंहिता, पौस्करसंहिता तथा जयाख्यासंहिता को सम्मिलित रूप से 'त्रिरत्न' कहा जाता है। सात्त्वत संहिता की रचना ५०० ई के आसपास हुई मानी जाती है। 

अतः यह सबसे प्राचीन पंचरात्रों में से एक है। यह गुप्त काल था जब भागवत धर्म अपने चरम पर था।सभी गुप्त राजा परमभागवत की उपाधि अपने नाम के अन्त में लगाते थे यही वो काल था जब भगवान श्रीकृष्ण सी बहुतायत नीतियों का निर्माण हुआ।

सातत्व का शाब्दिक अर्थ
  • संज्ञा पुं० [सं०] (१) बलराम (२) श्रीकृष्ण (३) विष्णु (४) यदुवंशी । यादव (५) परन्तु मनुस्मृति-संहिता के अनुसार  सात्वत एक वर्ण संकर जाति है  ।जिसकी उत्पत्ति जातिच्युत वैश्य और त्यक्त क्षत्रिय पत्नी से उत्पन्न संतान  सात्वत के अनुयायी । प्राचीन ग्रन्थों में ये सात्वत  वैष्णव हैं (७) एक प्राचीन देश का नाम ।
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मनुस्मृतिकार ने तो अहीर जाति को भी वर्णसंकर बनाकर निम्नरूप में वर्णन किया है।


उग्र कन्या (क्षत्रिय से शूद्रा में उत्पन्न कन्या को उग्रा कहते हैं) उसमें ब्राह्मण से उत्पन्न बालक को आवृत, अम्बष्ठ (ब्राह्मण से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र आभीर और आयोगवी कन्या (शूद्र से वैश्य स्त्री से उत्पन्न कन्या) से उत्पन्न पुत्र को धिग्व्रण कहते हैं ।
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जबकि स्मृतियों से पूर्व लिखित ग्रन्थ पद्मपुराण के सृष्टिखण्ड में सत्युग में ही अहीर जाति का अस्तित्व सिद्ध होता है जब कोई वर्णसंकर जाति भी सृष्टि में नहीं थी तब अहीर थे । अत: अहीरों को वर्णसंकर कहना शास्त्रकार की मूढ़ता का परिचायक है ।
अहीर वह प्राचीनतम जाति है जिसमें सतयुग को प्रारम्भ में ही गायत्री नामक वैष्णवी शक्ति का अवतरण होता है ।
जो ब्रह्मा के यज्ञकार्य के लिए उनकी पत्नी के रूप में उपस्थित होती हैं। अत: अहीर प्रत्येक रूप में वैष्णव ही हैं । और इनकी सात्विकता तथा सदाचार या वर्णन सबसे प्राचीन पुराण पद्म पुराण भी करता है।
हिन्दी अनुवाद -★विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नाम की कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।१५।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति में यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ।१६।
और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) तब होगी जब धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा।१७।(स्कन्दपुराणनागर खण्ड)-में भी गायत्री की कथा-का वर्णन निम्न लिखित है।
"
त्वं च विष्णो तया प्रोक्तो मर्त्यजन्म यदाऽप्स्यसि॥













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स्कन्दपुराण को नागर खण्ड में वर्णन है कि  गोपा अथवा आभीर जहाँ भी रहेंगे वहीं वहीं मेरे वंश के प्रभाव से सभी देवता और लक्ष्मी निवास करेंगे चाहें वह स्थान वन ही क्यों न हो!!
वास्तव में वैष्णव ही इन अहीरों का अपना वर्ण है विष्णु" का  एक मत्स्य मानव के रूप में  जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णन है वे वहाँ भी विष्णु एक सुमियिन देवता है।
वे विष्णु ही वेदों में गोप के रूप में  गायों का पालन करता है।
वही विष्णु अहीरों में जन्म लेते हैं । और यह
अहीर शब्द भी अपने पूर्व में वीर शब्द का रूपान्तरण होता  है।
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परन्तु परवर्ती शब्दकोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही की। है जैसे क्रमश: देखें-
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यह प्रथम उत्पत्ति अमरसिंह के शब्दकोश अमरकोश पर आधारित है ।
अमर सिंह को परवर्ती शब्द कोशकार 
(२)-तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति (अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर: ) के  रूप में की अमरसिंह कि व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude  ) को अभिव्यक्त करती है ।
तो तारानाथ वाचस्पति की  व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय( profation) को अभिव्यक्त करती है ।

क्योंकि अहीर ही गो और महिष पालने वाले "वीर" चरावाहे थे ! 
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में  ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।

और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शलआर्ट का  विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है 
क्योंकि अबीर का  मूल रूप  "बर / बीर"  है ।
भारोपीय भाषाओं में वीर का  सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है । 
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अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे।
अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर  का विकास हुआ।
अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है ।
जो अफ्रीका कि "अफर"  जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका के  जिम्बाब्वे में था।
तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में  यही लोग "अवर"  और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में  अफोर- आदि नामों  से विद्यमान थी ।
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है ।

परन्तु परवर्ती पुराण तथा स्मृतियों में अहीरों की महानता से द्वेष रखने वाले पुरोहितों ने अहीरों को शूद्र और व्यभिचारी रूप में वर्णित किया है ।

जैसा कि वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को मानते हुए भी स्कन्द पुराण ,नान्दी उपपुराण, और लक्ष्मी नारायणसंहिता आदि ग्रन्थों में अहीरों को सावित्री के शाप के बहाने से दुराचारी तक बताया गया है । 

एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा शक्रं प्रोवाच सादरम् ॥
कृतस्नानं सुरैः सार्धं विनयावनतं स्थितम् ॥४९॥

सहस्राक्षं त्वया कष्टं मन्मखे विपुलं कृतम् ॥
आनीता च तथा पत्नी गायत्री च सुमध्यमा ॥ ६.१९०.५० ॥ -स्कन्दपुराण नागर खण्ड १९०

स्कन्द पुराण के १९२ वें अध्याय में प्रक्षेप रूप में
गायत्री का नामकरण कथानक का भाव कम शं भंग करके शंकर( ईश्वर) के द्वारा गायत्री का नामकरण कराया गया जबकि इससे इसी नागरखण्ड के पहले १९०वें अध्याय में  अहीर कन्या को गायत्री नाम पहले से ही ब्रह्मा को द्वारा संबोधित है।
और तो और इस पुराण के इस खण्ड में अहीरों को अपवित्र तथा उनकी स्त्रियों को बहुत से पतियों वाली बताकर दुराचारी रूप नें दर्शाया है ।

स्कन्दपुराणम्- खण्डः ६ (नागरखण्डः)अध्यायः १९२वाँ अध्याय-


                ॥ सूत उवाच ॥ 
अथ श्रुत्वा महानादं वाद्यानां समुपस्थितम् ॥
नारदः सम्मुखः प्रायाज्ज्ञात्वा च जननीं निजाम्॥ १॥
प्रणिपत्य स दीनात्मा भूत्वा चाश्रुपरिप्लुतः॥
प्राह गद्गदया वाचा कण्ठे बाष्पसमावृतः ॥२॥

आत्मनः शापरक्षार्थं तस्याः कोपविवृद्धये ॥
कलिप्रियस्तदा विप्रो देवस्त्रीणां पुरः स्थितः ॥३॥

मेघगम्भीरया वाचा प्रस्खलंत्या पदेपदे ॥
मया त्वं देवि चाहूता पुलस्त्येन ततः परम् ॥४॥

स्त्रीस्वभावं समाश्रित्य दीक्षाकालेऽपि नागता॥५॥
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ततो विधेः समादेशाच्छक्रेणान्या समाहृता ॥
काचिद्गोपसमुद्भूता कुमारी देव रूपिणी ॥ ६ ॥

गोमुख में प्रवेश कराकर गुदा मार्ग से निकालने पर गायत्री नाम का विधान तथा आभीर कन्या को ब्राह्मणी बनाना-★

गोवक्त्रेण प्रवेश्याथ गुह्यमार्गेण तत्क्षणात् ॥
आकर्षिता महाभागे समानीताथ तत्क्षणात् ॥७॥

सा विष्णुना विवाहार्थं ततश्चैवानुमोदिता ॥
ईश्वरेण कृतं नाम गायत्री च तवानुगम् ॥८॥

ब्राह्मणैः सकलैः प्रोक्तं ब्राह्मणीति भवत्वियम्॥
अस्माकं वचनाद्ब्रह्मन्कुरु हस्तग्रहं विभो॥९॥
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 देवैः सर्वैः स सम्प्रोक्तस्ततस्तां च वराननाम् ॥
ततः पत्न्युत्थधर्मेण योजयामास सत्वरम् ॥६.१९२. १० ॥
किं वा ते बहुनोक्तेन पत्नीशालां समागता ॥
रशना योजिता तस्या गोप्याः कट्यां सुरेश्वरि॥११॥

तद्दृष्ट्वा गर्हितं कर्म निष्क्रांतो यज्ञमण्डपात् ॥
अमर्ष वशमापन्नो न शक्तो वीक्षितुं च ताम् ॥१२॥

एतज्ज्ञात्वा महाभागे यत्क्षमं तत्समाचर ॥
गच्छ वा तिष्ठ वा तत्र मण्डपे धर्मवर्जिते ॥ १३॥

तच्छ्रुत्वा सा तदा देवी सावित्री द्विजसत्तमाः ॥
प्रम्लानवदना जाता पद्मिनीव हिमागमे ॥१४ ॥

लतेव च्छिन्नमूला सा चक्रीव प्रियविच्युता ॥
शुचिशुक्लागमे काले सरसीव गतोदका ॥१५॥

प्रक्षीणचन्द्रलेखेव मृगीव मृगवर्जिता ॥
सेनेव हतभूपाला सतीव गतभर्तृका ॥ १६ ॥

संशुष्का पुष्पमालेव मृतवत्सैव सौरभी ॥
वैमनस्यं परं गत्वा निश्चलत्वमुपस्थिताम् ॥
तां दृष्ट्वा देवपत्न्यस्ता जगदुर्नारदं तदा ॥ १७ ॥

धिग्धिक्कलिप्रिय त्वां च रागे वैराग्यकारकम् ॥
त्वया कृतं सर्वमेतद्विधेस्तस्य तथान्तरम् ॥ १८ ॥
                      ॥ गौर्युवाच ॥
अयं कलिप्रियो देवि ब्रूते सत्यानृतं वचः ॥
अनेन कर्मणा प्राणान्बिभर्त्येष सदा मुनिः ॥ १९ ॥

अहं त्र्यक्षेण सावित्रि पुरा प्रोक्ता मुहुर्मुहुः ॥
नारदस्य मुनेर्वाक्यं न श्रद्धेयं त्वया प्रिये ॥
यदि वांछसि सौख्यानि मम जातानि पार्वति ॥ ६.१९२.२० ॥

ततःप्रभृति नैवाहं श्रद्दधेऽस्य वचः क्वचित् ॥
तस्माद्गच्छामहे तत्र यत्र तिष्ठति ते पतिः ॥ २१ ॥

स्वयं दृष्ट्वैव वृत्तांतं कर्तव्यं यत्क्षमं ततः ॥
नात्रास्य वचनादद्य स्थातव्यं तत्र गम्यताम् ॥२२॥

                ॥ सूत उवाच ॥ 
गौर्या स्तद्वचनं श्रुत्वा सावित्री हर्षवर्जिता ॥
मखमण्डपमुद्दिश्य प्रस्खलन्ती पदेपदे ॥ २३ ॥

प्रजगाम द्विजश्रेष्ठाः शून्येन मनसा तदा ॥
प्रतिभाति तदा गीतं तस्या मधुरमप्यहो ॥२४॥

कर्णशूलं यथाऽऽयातमसकृद्द्विजसत्तमाः ॥
वन्ध्यवाद्यं यथा वाद्यं मृदंगानकपूर्वकम् ॥ २५ ॥

प्रेतसंदर्शनं यद्वन्मर्त्यं तत्सा महासती ॥
वीक्षितुं न च शक्रोति गच्छमाना तदा मखे ॥२६॥

शृंगारं च तथांगारं मन्यते सा तनुस्थितम् ॥
वाष्पपूर्णेक्षणा दीना प्रजगाम महासती ॥२७॥

ततः कृच्छ्रात्समासाद्य सैवं तं यज्ञमंडपम् ॥
कृच्छ्रात्कारागृहं तद्वद्दुष्प्रेक्ष्यं दृक्पथं गतम् ॥२८॥

अथ दृष्ट्वा तु संप्राप्तां सावित्रीं यज्ञमण्डपम् ॥
तत्क्षणाच्च चतुर्वक्त्रः संस्थितोऽधोमुखो ह्रिया।२९॥

तथा शम्भुश्च शक्रश्च (वासुदेवस्तथैव) च ॥
ये चान्ये विबुधास्तत्र संस्थिता यज्ञमंडपे ॥ ६.१९२.३०॥

ते च ब्राह्मणशार्दूलास्त्यक्त्वा वेदध्वनिं ततः ॥
मूकीभावं गताः सर्वे भयसंत्रस्तमानसाः ॥३१॥

अथ संवीक्ष्य सावित्री सपत्न्या सहितं पतिम् ॥
कोपसंरक्तनयना परुषं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
                  ॥ सावित्र्युवाच ॥
किमेतद्युज्यते कर्तुं तव वृद्ध तमाकृते ॥
ऊढवानसि यत्पत्नीमेतां गोपसमुद्भवाम्।३३।
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उभयोः पक्षयोर्यस्याः स्त्रीणां कांता यथेप्सिताः ॥
शौचाचारपरित्यक्ता धर्मकृत्यपराङ्मुखाः ॥३४॥
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यदन्वये जनाः सर्वे पशुधर्मरतोत्सवाः॥
सोदर्यां भगिनीं त्यक्त्वा जननीं च तथा पराम्॥ ३५॥
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तस्याः कुले प्रसेवंते सर्वां नारीं जनाः पराम् ॥
यथा हि पशवोऽश्नंति तृणानि जलपानगाः ॥३६॥

विण्मूत्रं केवलं चक्रुर्भारोद्वहनमेव च॥९
तद्वदस्याः कुलं सर्वं तक्रमश्राति केवलम् ॥३७॥
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कृत्वा मूत्रपुरीषं च जन्मभोगविवर्जितम् ॥
नान्यज्जानाति कर्तव्यं धर्मं स्वोदरसं श्रयात्॥३८।

अन्त्यजा अपि नो कर्म यत्कुर्वन्ति विगर्हितम् ॥
आभीरास्तच्च कुर्वंति तत्किमेतत्त्वया कृतम् ॥३९॥
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अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ॥
त्वया वा ब्राह्मणी कापि प्रख्याता भुवनत्रये ॥ ६.१९२.४०॥
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नोढा विधे वृथा मुण्ड नूनं धूर्तोऽसि मे मतः ॥
यत्त्वया शौचसंत्यक्ता कन्याभावप्रदूषिता॥४१॥

प्रभुक्ता बहुभिः पूर्वं तथा गोपकुमारिका॥
एषा प्राप्ता सुपापाढ्या वेश्याजनशताधिका॥४२॥

अन्त्यजाता तथा कन्या क्षतयोनिः प्रजायते॥
तथा गोपकुमारी च काचित्तादृक्प्रजायते॥४३॥

मातृकं पैतृकं वंशं श्वाशुरं च प्रपातयेत्।
तस्मादेतेन कृत्येन गर्हितेन धरातले॥४४॥

न त्वं प्राप्स्यसि तां पूजां तथा न्ये विबुधोत्तमाः॥
अनेन कर्मणा चैव यदि मेस्ति ऋतं क्वचित्॥४४॥

पूजां ये च करिष्यंति भविष्यंति च निर्धनाः॥
कथं न लज्जितोसि त्वमेतत्कुर्वन्विगर्हितम्॥४६॥
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पुत्राणामथ पौत्राणामन्येषां च दिवौकसाम्॥
अयोग्यं चैव विप्राणां यदेतत्कृतवानसि॥४७॥

अथ वा नैष दोषस्ते न कामवशगा नराः॥
लज्जंति च विजानंति कृत्याकृत्यं शुभाशुभम्॥४८॥
अकृत्यं मन्यते कृत्यं मित्रं शत्रुं च मन्यते॥
शत्रुं च मन्यते मित्रं जनः कामवशं गतः॥४९॥

द्यूतकारे यथा सत्यं यथा चौरं च सौहृदम्॥
यथा नृपस्य नो मित्रं तथा लज्जा न कामिनाम्॥६.१९२.५०॥

अपि स्याच्छीतलो वह्निश्चंद्रमा दहनात्मकः।
क्षाराब्दिरपि मिष्टः स्यान्न कामी लज्जते ध्रुवम्॥५१॥

न मे स्याद्दुखमेतद्धि यत्सापत्न्यमुपस्थितम्॥
सहस्रमपि नारीणां पुरुषाणां यथा भवेत्॥ ५२॥

कुलीनानां च शुद्धानां स्वजात्यानां विशेषतः॥
त्वं कुरुष्व पराणां च यदि कामवशं गतः॥५३॥
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एतत्पुनर्महद्दुःखं यदाभीरी विगर्हिता॥
वेश्येव नष्टचारित्रा त्वयोढा बहुभर्तृका ॥ ५४॥

तस्मादहं प्रयास्यामि यत्र नाम न ते विधे ॥
श्रूयते कामलुब्धस्य ह्रिया परिहृतस्य च ॥ ५५ ॥

अहं विडंबिता यस्मादत्रानीय त्वया विधे ॥
पुरतो देवपत्नीनां देवानां च द्विजन्मनाम् ॥
तस्मात्पूजां न ते कश्चित्सांप्रतं प्रकरिष्यति ॥५६ ॥

अद्य प्रभृति यः पूजां मंत्रपूजां करिष्यति ॥
तव मर्त्यो धरापृष्ठे यथान्येषां दिवौकसाम् ॥ ५७ ॥

भविष्यति च तद्वंशो दरिद्रो दुःखसंयुतः ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यः शूद्रोपि चालये ॥५८॥

एषाऽभीरसुता यस्मान्मम स्थाने विगर्हिता ॥
भविष्यति न संतानस्तस्माद्वाक्यान्ममैव हि॥५९॥

न पूजां लप्स्यते लोके यथान्या देवयोषितः ॥ ६.१९२.६० ॥

करिष्यति च या नारी पूजा यस्या अपि क्वचित् ॥
सा भविष्यति दुःखाढ्या वंध्या दौर्भाग्यसंयुता ॥ ६१ ॥
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पापिष्ठा नष्टचारित्रा यथैषा पंचभर्तृका ॥
विख्यातिं यास्यते लोके यथा चासौ तथैव सा ॥ ६२ ॥

एतस्या अन्वयः पापो भविष्यति निशाचर ॥
सत्यशौचपरित्यक्ताः शिष्टसंगविवर्जिताः ॥ ६३ ॥

अनिकेता भविष्यंति वंशेऽस्या गोप्रजीविनः ॥
एवं शप्त्वा विधिं साध्वी गायत्रीं च ततः परम् ॥ ६४॥
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ततो देवगणान्सर्वाञ्छशाप च तदा सती ॥
भोभोः शक्र त्वयानीता यदेषा पंचभर्तृका ॥ ६५॥

तदाप्नुहि फलं सम्यक्छुभं कृत्वा गुरोरिदम् ॥
त्वं शत्रुभिर्जितो युद्धे बंधनं समवाप्स्यसि ॥ ६६ ॥

कारागारे चिरं कालं संगमिष्यत्यसंशयम् ॥
वासुदेव त्वया यस्मादेषा वै पंचभर्तृका ॥ ६७ ॥

अनुमोदिता विधेः पूर्वं तस्माच्छप्स्याम्यसंशयम् ॥
त्वं चापि परभृत्यत्वं संप्राप्स्यसि सुदुर्मते ॥ ६८ ॥

समीपस्थोऽपि रुद्र त्वं कर्मैतद्यदुपेक्षसे ॥
निषेधयसि नो मूढ तस्माच्शृणु वचो मम ॥ ६९ ॥

जीवमानस्य कांतस्य मया तद्विरहोद्भवम् ॥
संसेवितं मृतायां ते दयितायां भविष्यति ॥ ६.१९२.७० ॥

यत्र यज्ञे प्रविष्टेयं गर्हिता पंचभर्तृका ॥
भवानपि हविर्वह्ने यत्त्वं गृह्णासि लौल्यतः ॥ ७१ ॥

तथान्येषु च यज्ञेषु सम्यक्छंकाविवर्जितः ॥
तस्माद्दुष्टसमाचार सर्वभक्षो भविष्यसि ॥ ७२ ॥

स्वधया स्वाहया सार्धं सदा दुःखसमन्वितः ॥
नैवाप्स्यसि परं सौख्यं सर्वकालं यथा पुरा ॥ ७३ ॥

एते च ब्राह्मणाः सर्वे लोभोपहतचेतसः ॥
होमं प्रकुर्वते ये च मखे चापि विगर्हिते। ७४ ॥

वित्तलोभेन यत्रैषा निविष्टा पञ्चभर्तृका ॥
तथा च वचनं प्रोक्तं ब्राह्मणीयं भविष्यति ॥ ७५ ॥

दरिद्रोपहतास्तस्माद्वृषलीपतयस्तथा ॥
वेदविक्रयकर्तारो भविष्यथ न संशयः ॥ ७६ ॥

भोभो वित्तपते वित्तं ददासि मखविप्लवे ॥
तस्माद्यत्तेऽखिलं वित्तमभोग्यं संभविष्यति ॥७७ ॥
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तथा देवगणाः सर्वे साहाय्यं ये समाश्रिताः ॥
अत्र कुर्वंति दोषाढ्ये यज्ञे वै पांचभर्तृके ॥ ७८॥

संतानेन परित्यक्तास्ते भविष्यंति सांप्रतम्॥
दानवैश्च पराभूता दुःखं प्राप्स्यति केवलम् ॥ ७९ ॥
एतस्याः पार्श्वतश्चान्याश्चतस्रो या व्यवस्थिताः ॥
आभीरीति सपत्नीति प्रोक्ता ध्यानप्रहर्षिताः ॥ ६.१९२.८० ॥

मम द्वेषपरा नित्यं शिवदूतीपुरस्सराः ॥
तासां परस्परं संगः कदाचिच्च भविष्यति ॥ ८१ ॥
नान्येनात्र नरेणापि दृष्टिमात्रमपि क्षितौ ॥
पर्वताग्रेषु दुर्गेषु चागम्येषु च देहिनाम् ॥
वासः संपत्स्यते नित्यं सर्वभोगविवर्जितः ॥ ८२ ॥
                ॥ सूत उवाच ॥
एवमुक्त्वाऽथ सावित्रीकोपोपहतचेतसा ॥
विसृज्य देवपत्नीस्ताः सर्वा याः पार्श्वतः स्थिताः ॥ ८३ ॥

उदङ्मुखी प्रतस्थे च वार्यमाणापि सर्वतः ॥
सर्वाभिर्देवपत्नीभिर्लक्ष्मीपूर्वाभिरेवच ॥८४॥
तत्र यास्यामि नो यत्र नामापि किल वै यतः ॥
श्रूयते कामुकस्यास्य तत्र यास्याम्यहं द्रुतम् ॥८५॥
एकश्चरणयोर्न्यस्तो वामः पर्वतरोधसि ॥
द्वितीयेन समारूढा तस्यागस्य तथोपरि ॥८६॥
अद्यापि तत्पदं वामं तस्यास्तत्र प्रदृश्यते ॥
सर्वपापहरं पुण्यं स्थितं पर्वतरोधसि ॥ ८७ ॥
अपि पापसमाचारो यस्तं पूजयते नरः ॥
सर्वपातकनिर्मुक्तः स याति परमं पदम् ॥ ८८ ॥
यो यं काममभि ध्याय तमर्चयति मानवः ॥
अवश्यं समवाप्नोति यद्यपि स्यात्सुदुर्लभम्॥ ८९ ॥
                  ॥ सूत उवाच ॥
एवं तत्र स्थिता देवी सावित्री पर्वता श्रया ॥
अपमानं महत्प्राप्य सकाशात्स्वपतेस्तदा ॥ ६.१९२.९० ॥
यस्तामर्चयते सम्यक्पौर्णमास्यां विशेषतः ॥
सर्वान्कामानवाप्नोति स मनोवांछितां स्तदा ॥९१॥

या नारी कुरुते भक्त्या दीपदानं तदग्रतः ॥
रक्ततंतुभिराज्येन श्रूयतां तस्य यत्फलम् ॥ ९२ ॥

यावन्तस्तंतवस्तस्य दह्यंते दीप संभवाः ॥
मुहूर्तानि च यावंति घृतदीपश्च तिष्ठति ॥
तावज्जन्मसहस्राणि सा स्यात्सौभाग्यभांगिनी॥ ९३॥

पुत्रपौत्रसमोपेता धनिनी शील मंडना। ॥
न दुर्भगा न वन्ध्या च न च काणा विरूपिका ॥ ९४ ॥

या नृत्यं कुरुते नारी विधवापि तदग्रतः ॥
गीतं वा कुरुते तत्र तस्याः शृणुत यत्फलम् ॥९५ ॥

यथायथा नृत्यमाना स्वगात्रं विधुनोति च ॥
तथातथा धुनोत्येव यत्पापं प्रकृतं पुरा ॥ ९६ ॥

यावन्तो जन्तवो गीतं तस्याः शृण्वंति तत्र च ॥
तावंति दिवि वर्षाणि सहस्राणि वसेच्च सा ॥९७॥

सावित्रीं या समुद्दिश्य फलदानं करोति सा ॥
फलसंख्याप्रमाणानि युगानि दिवि मोदते ॥ ९८ ॥

मिष्टान्नं यच्छते यश्च नारीणां च विशेषतः ॥
तस्या दक्षिणमूर्तौ च भर्त्राढ्यानां द्विजोत्तमाः ॥
स च सिक्थप्रमाणानि युगा नि दिवि मोदते ॥९९॥

यः श्राद्धं कुरुते तत्र सम्यक्छ्रद्धासमन्वितः ॥
रसेनैकेन सस्येन तथैकेन द्विजोत्तमाः ॥
तस्यापि जायते पुण्यं गयाश्राद्धेन यद्भवेत् ॥ ६.१९२.१०० ॥

यः करोति द्विजस्तस्या दक्षिणां दिशमाश्रितः॥
सन्ध्योपासनमेकं तु स्वपत्न्या क्षिपितैर्जलैः॥१०१॥

सायंतने च संप्राप्ते काले ब्राह्मणसत्तमाः॥
तेन स्याद्वंदिता संध्या सम्यग्द्वादशवार्षिकी ॥१०२॥
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यो जपेद्ब्राह्मणस्तस्याः सावित्रीं पुरतः स्थितः ॥
तस्य यत्स्यात्फलं विप्राः श्रूयतां तद्वदामि वः ॥ १०३ ॥
दशभिर्ज्जन्मजनितं शतेन च पुरा कृतम् ॥
त्रियुगे तु सहस्रेण तस्य नश्यति पातकम् ॥१०४॥

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन चमत्कारपुरं प्रति ॥
गत्वा तां पूजयेद्देवीं स्तोतव्या च विशेषतः ॥१०५॥

सावित्र्या इदमाख्यानं यः पठेच्छृणुयाच्च वा ॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः सुखभागत्र जायते ॥१०६॥

एतद्वः सर्वमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं द्विजोत्तमाः ॥
सावित्र्याः कृत्स्नं माहात्म्यं किं भूयः प्रवदाम्यहम् ॥१०७॥

इति श्रीस्कांदे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां षष्ठे नागरखण्डे हाटकेश्वरक्षेत्रमाहात्म्ये सावित्रीमाहात्म्यवर्णनंनाम द्विनवत्युत्तरशततमोऽध्यायः ॥ १९२ ॥
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जबकि पद्मपुराण अहीरों को सदाचारी को रूप में वर्णन करता है ।
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जिन अहीरों की जाति में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ;जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को  भी वरदान में बदल देती हैं।

इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का भी जन्म होता है
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है ;
यदु और तुर्वसु को ऋग्वेद के दशम् मण्डल के बासठवें सूक्त की दशम ऋचा में गायों से घिरा हुआ गायों के दाता और त्राता के रूप  में स्तुत्य किया गया है ।
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न तमश्नोति कश्चन दिव इव सान्वारभम् ।
सावर्ण्यस्य दक्षिणा वि सिन्धुरिव पप्रथे ॥९॥

उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥

सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः सूर्येणास्य यतमानैतु दक्षिणा ।
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प्र नूनं जायतामयं मनुस्तोक्मेव रोहतु ।
यः सहस्रं शताश्वं सद्यो दानाय मंहते ॥८॥
पदपाठ-
प्र । नूनम् । जायताम् । अयम् । मनुः । तोक्मऽइव । रोहतु ।यः । सहस्रम् । शतऽअश्वम् । सद्यः । दानाय । मंहते ॥८।
भाष्य-
“अयं सावर्णिः “मनुः "नूनं क्षिप्रं “प्र “जायतां =प्रजातो भवतु । धनादिभिः पुत्रादिभिश्च “रोहतु प्रादुर्भवतु । तत्र दृष्टान्तः । “तोक्मेव । यथा जलक्लिन्नं बीजं प्रादुर्भवति एवं कर्मफलसंयुक्तः स मनुः पुत्रादिभिः रोहतु । “यः अयं मनुः “शताश्वं बह्वश्वसंयुक्तं “सहस्रं गवां “सद्यः तदानीमेव “दानाय= “मंहते अस्मा ऋषये दातुं प्रेरयति ॥८।

न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।

“तं सावर्णिं मनुं “कश्चन कश्चिदपि “आरभम् आरब्धुं स्वकर्मणा “न “अश्नोति न व्याप्नोति । यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् । “दिवइव द्युलोकस्य “सानु समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य “सावर्ण्यस्य मनोरियं गवादिदक्षिणा “सिन्धुरिव स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां “पप्रथे विप्रथते । विस्तीर्णा भवति।

उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा ।यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०

“उत =अपि च। "स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ। “गोपरीणसा= गोपरीणसौ =गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ।
 “दासा =दातारौ दासृ =दाने
 ( दासति ददास दासिता दासत इत्यादि ) दाशतिवत् 878 (क्षीरतरंगिणीधातुपाठ)

स्थितौ =तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च= एतन्नामकौ राजर्षी “परिविषे अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय "ममहे = माहमहे   । 

सहस्रऽदाः । ग्रामऽनीः । मा । रिषत् । मनुः । सूर्येण । अस्य । यतमाना । एतु । दक्षिणा ।सावर्णेः । देवाः । प्र । तिरन्तु । आयुः । यस्मिन् । अश्रान्ताः । असनाम । वाजम् ॥११

“सहस्रदाः गवादीनां सहस्रस्य दाता “ग्रामणीः ग्रामाणां नेता कर्ता जनपदानामयं “मनुः “मा “रिषत् न कैश्चिदपि रिष्टो हिंसितो भवतु । यद्वा । कर्मनेतॄनस्मान्मा हिनस्तु किंतु धनादिदानेन पूजयतु । “अस्य “यतमाना गच्छन्ती “दक्षिणा “सूर्येण सह “एतु संगच्छताम् । त्रिषु लोकेषु प्रसिद्धा भवत्वित्यर्थः । तस्यास्य “सावर्णेः सवर्णपुत्रस्य मनोः “देवाः इन्द्रादयः “आयुः जीवन “प्र “तिरन्तु प्रवर्धयन्तु । “अश्रान्ताः कर्मसु अनलसाः सर्वं कर्म कुर्वन्तो वयं “यस्मिन् मनौ “वाजं गोलक्षणमन्नम् “असनाम संभजेमहि । नाभानेदिष्ठोऽहमलभ इत्याशास्ते ॥ २ ॥
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और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुष ,नहुष' और  ययाति आदि का नाम नहीं था।

तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है  ।
वही अहीर जाति का ही रूप है।

वर्तमान में  भारतीयों को इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है।
 क्यों कि अहीरों से यादव हैं नकि यादवों से अहीर।

अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। 
और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं 
सप्तऋषियों में गिने गये अत्रि ऋषि ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं । नकि जैविक अथवा मैथुनीय पुत्र!

पद्मपुराण का यह श्लोक ही इस बात को प्रमाणित कर देता है कि प्रारम्भ में गोत्र नहीं थे ।

गोत्र की अवधारणा-"†
पद्मपुराण, स्कन्दपुराण, तथा नान्दी उपपुराण तथा लक्ष्मीनारयणसंहिता आदि के अनुसार ब्रह्मा जी की एक पत्नी गायत्री देवी भी हैं। 
जो ब्राह्माके पुत्र अत्रि की भी माता सिद्ध होती है ‌

अत्रि- सप्तर्षियों में से एक । विशेष—ये ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते हैं । इनकी स्त्री अनुसूया थीं । दत्तात्रेय, दुर्वासा और सोम  इनके पुत्र थे । इनका नाम दस प्रजापतियों में भी है। 

और जब आभीर कन्या गायत्री का विवाह ब्रह्मा से होता है तब अत्रि ऋषि स्वयं पुरोहित बनते हैं ।
अत: अहीरों या गोत्र अत्रि नहीं है।।
अत्रिर्होतार्चिकस्तत्र पुलस्त्योऽध्वर्युरेव च॥
उद्गाताऽथो मरीचिश्च ब्रह्माहं सुरपुंगवः॥7.1.165.३०॥ 
(स्कन्दपुराणम्‎ | खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)‎ | प्रभासक्षेत्र माहात्म्यम्
__________
परन्तु अहीर जाति का अत्रि और सोम से क्या सम्बन्ध हैं भारतीय पुराणकार यह स्पष्ट नहीं कर पाए क्यों कि पुराण कारों नें यह कथाऐं कनानी और हिब्रू संस्कृतियों से ग्रहण की हैं ।

कनानी मिथकों में एब्राहम को जगत का पिता बताया गया है । 

सुमेर के उर नामक नगर में जिनका जन्म हुआ था।


भारतीय पुराणों में वर्णित जगत पिता की जैविक समानता सैमेटिक मिथकों से मिलती जुलती है ।कुछ अतिरञ्जनीओं ने  कथाओं में परस्पर भिन्नताओं को स्थापित कर दिया है ।
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 तेरह के पुत्र अब्राहम को ही सैमेटिक मिथकों में जगत का पिता माना गया है ।जो कि ब्राह्म का रूपान्तरण है ।

हिब्रू कुलपति
वैकल्पिक शीर्षक: अब्राम, अवराम, अवराम, इब्राहीमी

प्रमुख प्रश्न
इब्राहीम क्यों महत्वपूर्ण है?

इब्राहीम कहाँ का था?

इब्राहीम का परिवार कैसा था?

अब्राहम किस लिए जाना जाता है?

अब्राहम किसमें विश्वास करता था?

इब्राहीम , हिब्रू में अव्राहम , जिसे मूल रूप से अब्राम कहा जाता है या, हिब्रू में, अवराम , (शुरुआती दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व में फला-फूला नाम ) , 

हिब्रू पितृसत्ताओं में से पहला और तीन महान एकेश्वरवादी धर्मों- यहूदी धर्म , ईसाई धर्म और इस्लाम द्वारा सम्मानित व्यक्ति का नाम।

 बाइबिल की उत्पत्ति की पुस्तक के अनुसार , अब्राहम ने मेसोपोटामिया में ऊर नगर को छोड़ दिया , क्योंकि ईश्वर ने उसे एक अज्ञात भूमि में एक नया राष्ट्र खोजने के लिए बुलाया।

 जिसे बाद में उसने सीखा कि वह देश कनान था । उसने निर्विवाद रूप से परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन किया

जिनसे उसे बार-बार वादे और एक वाचा मिली कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा।

 यहूदी धर्म में वादा किया गया वंश समझा जाता है कि यहूदी लोग इब्राहीम के बेटे

यहूदी इसहाक से पैदा हुए थे, जो उनकी पत्नी सारा से पैदा हुए थे । 

इसी तरह, ईसाई धर्म में यीशु की वंशावली का पता इसहाक से लगाया जाता है,।

और इब्राहीम के इसहाक के निकट-बलिदान को क्रूस पर यीशु के बलिदान के पूर्वाभास के रूप में देखा जाता है।

 इस्लाम में यह इश्माएल है, इब्राहीम का जेठा पुत्र, हाजिरा से पैदा हुआ , जिसे ईश्वर के वादे की पूर्ति के रूप में देखा जाता है, और पैगंबर मुहम्मद उसके वंशज हैं।


जोजसेफ मोलनार: द मार्च ऑफ अब्राहम
जोज़सेफ मोलनार: अब्राहम का मार्च
सभी मीडिया देखें
फला-फूला: c.2000 ईसा पूर्व - c.1501 ईसा पूर्व  उर
उल्लेखनीय परिवार के सदस्य: पत्नी सारा पुत्र इसहाक
अब्राहम की "जीवनी" की गंभीर समस्या
सामान्य अर्थों में अब्राहम की कोई जीवनी नहीं हो सकती।

 सबसे अधिक जो किया जा सकता है वह यह है कि आधुनिक ऐतिहासिक खोजों की व्याख्या को बाइबिल सामग्री पर लागू किया जाए ताकि उसके जीवन में घटनाओं की पृष्ठभूमि और पैटर्न के बारे में एक संभावित निर्णय पर पहुंचा जा सके। 

इसमें पितृसत्तात्मक युग का पुनर्निर्माण शामिल है (अब्राहम, इसहाक , जैकब , और जोसेफ ; प्रारंभिक 2 सहस्राब्दी ईसा पूर्व ), जो 19 वीं शताब्दी के अंत तक अज्ञात था।

 और लगभग अनजाना माना जाता था। यह माना गया था, काल्पनिक बाइबिल स्रोतों की एक अनुमानित डेटिंग के आधार पर , कि बाइबिल में पितृसत्तात्मक कथाएं बहुत बाद की अवधि (9वीं -5 वीं शताब्दी) की स्थिति और चिंताओं का एक प्रक्षेपण मात्र थीं।

ईसा पूर्व ) और संदिग्ध ऐतिहासिक मूल्य।

आख्यानों की व्याख्या करने के लिए कई सिद्धांत विकसित किए गए थे- उदाहरण के लिए, कि पितृसत्ता पौराणिक प्राणी या जनजातियों या लोककथाओं या etiological (व्याख्यात्मक) आकृतियों के व्यक्तित्व थे जिन्हें विभिन्न सामाजिक, न्यायिक या सांस्कृतिक प्रतिमानों के लिए बनाया गया था।

 हालांकि, प्रथम विश्व युद्ध के बाद , पुरातात्विक अनुसंधान ने स्मारकों और दस्तावेजों की खोज के साथ काफी प्रगति की है, जिनमें से कई पारंपरिक खाते में पितृसत्ताओं को सौंपी गई अवधि के हैं।

 एक शाही महल की खुदाई उदाहरण के लिए, यूफ्रेट्स (फरात नदी) पर एक प्राचीन शहर मारी , हजारों क्यूनिफॉर्म टैबलेट (आधिकारिक अभिलेखागार और पत्राचार और धार्मिक और न्यायिक ग्रंथ) को प्रकाश में लाया और इस तरह व्याख्या को एक नया आधार प्रदान किया, जिसका उपयोग विशेषज्ञों ने यह दिखाने के लिए किया, बाइबिल की पुस्तक में उत्पत्ति , कथाएं अन्य स्रोतों से पूरी तरह से फिट बैठती हैं, 

जो आज दूसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में जानी जाती हैं, लेकिन बाद की अवधि के साथ अपूर्ण रूप से जानी जाती हैं। 

1940 के दशक में बाइबल के एक विद्वान ने इस परिणाम को "पुराने नियम की पुनः खोज" कहा।

इस प्रकार, पिता इब्राहीम की आकृति के पुनर्निर्माण के लिए दो मुख्य स्रोत हैं: उत्पत्ति की पुस्तक- तेरह (अब्राहम के पिता) की वंशावली से और अध्याय 11 में ऊर से हारान के लिए उनके प्रस्थान से अध्याय 25 में अब्राहम की मृत्यु तक और हाल ही में उस क्षेत्र और युग से संबंधित पुरातात्विक खोज और व्याख्या जिसमें बाइबिल का वर्णन होता है।

बाइबिल खाता

बाइबिल के खाते के अनुसार, अब्राम ("पिता [या भगवान] ऊंचा है"), जिसे बाद में इब्राहीम ("कई राष्ट्रों का पिता") नाम दिया गया, जो एक मूल निवासी थामेसोपोटामिया में उर , 
परमेश्वर (यहोवा) द्वारा अपने देश और लोगों को छोड़ने और एक अज्ञात भूमि की यात्रा करने के लिए कहा जाता है, जहां वह एक नए राष्ट्र का संस्थापक बन जाएगा।

 वह निर्विवाद रूप से कॉल का पालन करता है और (75 वर्ष की आयु में) अपनी बंजर पत्नी, सराय के साथ आगे बढ़ता है, जिसे बाद में नाम दिया गया सारा ("राजकुमारी"), उसका भतीजा लूत, और अन्य साथियों की भूमि के लिए कनान ( सीरिया और मिस्र के बीच )।


वहाँ निःसंतान सेप्टुजेनेरियन को बार-बार वादे और परमेश्वर से एक वाचा प्राप्त होती है कि उसका "वंश" भूमि का वारिस होगा और एक असंख्य राष्ट्र बन जाएगा। 

आखिरकार, उनका न केवल एक बेटा है,इश्माएल , अपनी पत्नी की दासी द्वारा हाजिरा लेकिन, 100 वर्ष की आयु में, सारा द्वारा एक वैध पुत्र है,इसहाक , जो वचन का वारिस होगा।

 फिर भी इब्राहीम इसहाक को बलिदान करने के लिए परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिए तैयार है, जो उसके विश्वास की परीक्षा है, जिसे अंत में पूरा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि परमेश्वर एक मेढ़े को प्रतिस्थापित करता है। 

सारा की मृत्यु पर, वह खरीदता है मकपेला की गुफा के पास हेब्रोन , साथ में आसपास के मैदान के साथ, एक परिवार के दफन स्थान के रूप में। 

यह इब्राहीम और उसकी भावी पीढ़ी द्वारा वादा की गई भूमि के एक टुकड़े का पहला स्पष्ट स्वामित्व है।

अपने जीवन के अंत में, वह यह देखता है कि उसका बेटा इसहाक एक कनानी महिला के बजाय मेसोपोटामिया में अपने ही लोगों की एक लड़की से शादी करता है।

 इब्राहीम की 175 वर्ष की आयु में मृत्यु हो जाती है और उसे सारा के बगल में मकपेला की गुफा में दफनाया जाता है।

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यद्यपि गायत्री को भारतीय पुराणों में ब्रह्मा की पत्नी तो बताया है परन्तु गायत्री को पुराणों में ब्राह्मी शक्ति न मानकर वैष्णवी शक्ति  का अवतार माना हैं ।

दुर्गा भी इन्हीं का रूप है  जब ये नन्द की पुत्र बनती हैं तब इनका नाम यदुवंशसमुद्भवा के रूप में नन्दजा भी होता है ।

पुराणों के ही अनुसार ब्रह्मा जी ने एक और स्त्री से विवाह किया था जिनका नाम माँ सावित्री है। 

पौराणिक इतिहास के अनुसार यह गायत्री देवी राजस्थान के पुष्कर की रहने वाली थी जो वेदज्ञान में पारंगत होने के कारण महान मानी जाती थीं। 

कहा जाता है एक बार पुष्‍कर में ब्रह्माजी को एक यज्ञ करना था और उस समय उनकी पत्नीं सावित्री उनके साथ नहीं थी तो उन्होंने गायत्री से विवाह कर यज्ञ संपन्न किया। 

लेकिन बाद में जब सावित्री को पता चला तो उन्होंने सभी देवताओं सहित ब्रह्माजी को भी शाप दे दिया।
तब उस शाप का निवारण भी आभीर कन्या गायत्री ने ही किया जो ब्रह्मा जी की द्वितीय पत्नी थी।

स्वयं ब्रह्मा को सावित्री द्वारा दिए गये शाप को गायत्री ने वरदान में बदल दिया।

तब अहीरों में कोई गोत्र या प्रवर नहीं था ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रह में गायत्री यदुवंश समुद्भवा के रूप में- नन्द की पुत्री हैं।
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पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सत्रहवाँ -

                           *-भीष्म उवाच–
तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्त्तमः।१।___________
गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।

एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्
आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।

                 *-पुलस्त्य उवाच–
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृृप।४।

रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गतः
निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।

विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः
नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।
__________
गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।

हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति च
स्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।

केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु संदरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कंबली।९।

केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।

इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
______
पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनी
पुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।

एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।

योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
______
*******************************
धर्मवंतं सदाचारं भवंतं धर्मवत्सलम्
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचयेे।१५।

अनया (गायत्र्या )तारितो गच्छ (यूयं भो आभीरा) दिव्यान्लोकान्महोदयान्
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
________________________ 
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
______________

तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः
करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।

न चास्या भविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोः प्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।

एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
___________________
भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।

एवं भवतु देवेश वरदानं विभो तव
अनुनीतास्तदा गोपाः स्वयं देवेन विष्णुना।२३।

____________________________
ब्रह्मणाप्येवमेवं तु वामहस्तेन भाषितम्
त्रपान्विता दर्शने तु बंधूनां वरवर्णिनी।२४।

कैरहं तु समाख्याता येनेमं देशमागताः
दृष्ट्वा तु तांस्ततः प्राह गायत्री गोपकन्यका।२५।

वामहस्तेन तान्सर्वान्प्राणिपातपुरःसरम्
अत्र चाहं स्थिता मातर्ब्रह्माणं समुपागता।२६।

भर्ता लब्धो मया देवः सर्वस्याद्यो जगत्पतिः
नाहं शोच्या भवत्या तु न पित्रा न च बांधवैः।२७।

सखीगणश्च मे यातु भगिन्यो दारकैः सह
सर्वेषां कुशलं वाच्यं स्थितास्मि सह दैवतैः।२८।

गतेषु तेषु सर्वेषु गायत्री सा सुमध्यमा
ब्रह्मणा सहिता रेजे यज्ञवाटं गता सती।२९।

याचितो ब्राह्मणैर्ब्रह्मा वरान्नो देहि चेप्सितान्
यथेप्सितं वरं तेषां तदा ब्रह्माप्ययच्छत।३०।

तया देव्या च गायत्र्या दत्तं तच्चानुमोदितम्
सा तु यज्ञे स्थिता साध्वी देवतानां समीपगा।३१।

दिव्यंवर्षशतं साग्रं स यज्ञो ववृधे तदा
यज्ञवाटं कपर्दी तु भिक्षार्थं समुपागतः।३२।

_________________________________

बृहत्कपालं संगृह्य पंचमुण्डैरलंकृतः
ऋत्विग्भिश्च सदस्यैश्च दूरात्तिष्ठन्जुगुप्सितः३३

ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन महाभारत शान्ति पर्व के ‘मोक्षधर्म पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 208 के अनुसार इस प्रकार है ।
 ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन इस प्रकार है।

- भीष्‍म द्वारा ब्रह्मा के पुत्र का वर्णन युधिष्ठिर ने पूछा– भरतश्रेष्‍ठ! पूर्वकाल में कौन कौन से लोग प्रजापति थे और प्रत्‍येक दिशा में किन-किन महाभाग महर्षियों की स्थिति मानी गयी है। भीष्‍म जी ने कहा– 

भरतश्रेष्‍ठ! इस जगत में जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्‍पूर्ण दिशाओं में जिन-जिन ऋषियों की स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषय में तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो।

एकमात्र सनातन भगवान स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा सबके आदि हैं।
स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के सात महात्‍मा पुत्र बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्‍ठ।

ये सभी स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा के समान ही शक्तिशाली हैं। पुराण में ये साम ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्‍त प्रजापतियों का वर्णन आरम्‍भ करता हूँ।

अत्रिकुल मे उत्‍पन्‍न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान प्राचीन बर्हि हैं, उनसे प्रचेता नाम वाले दस प्रजापति उत्‍पन्‍न हूँ।

पुराणानुसार पृथु के परपोते ओर प्राचीनवर्हि के दस पुत्र जिन्होंने दस हजार वर्ष तक समुद्र के भीतर रहकर कठिन तपस्या की और विष्णु से प्रजासृष्टि का वर पाया था।
 दक्ष उन्हीं के पुत्र थे।
उन दसों के एकमात्र पुत्र दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति हैं। 
उनके दो नाम बताये जाते है – ‘दक्ष’ और ‘कश्यप मरीचि के पुत्र जो कश्यप है, उनके भी दो नाम माने गये हैं।
 कुछ लोग उन्‍हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्‍हें कश्यप के नाम से जानते हैं। 
अत्रि के औरस पुत्र श्रीमान और बलवान राजा सोम हुए, जिन्‍होंने सहस्‍त्र दिव्‍य युगों तक भगवान की उपासना की थी।

प्रभो ! भगवान अर्यमा और उनके सभी पुत्र-ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्‍तम स्रष्टा) कहे गये हैं। 

धर्म से विचलित न होने वाले युधिष्ठिर! शशबिन्‍दु के दस हजार स्त्रियाँ थी। 
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अत्रि ऋषि की उत्पत्ति-
अथाभिध्यायतः सर्गं दश पुत्राः प्रजज्ञिरे ।
भगवत् शक्तियुक्तस्य लोकसन्तानहेतवः ॥२१॥

मरीचिरत्र्यङ्‌गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
भृगुर्वसिष्ठो दक्षश्च दशमस्तत्र नारदः ॥ २२ ॥

उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे दक्षोऽङ्गुष्ठात्स्वयम्भुवः ।
प्राणाद्वसिष्ठः सञ्जातो भृगुस्त्वचि करात्क्रतुः।२३।

पुलहो नाभितो जज्ञे पुलस्त्यः कर्णयोः ऋषिः ।
अङ्‌गिरा मुखतोऽक्ष्णोऽत्रिः मरीचिर्मनसोऽभवत् ॥ २४ ॥

धर्मः स्तनाद् दक्षिणतो यत्र नारायणः स्वयम् ।
अधर्मः पृष्ठतो यस्मात् मृत्युर्लोकभयङ्करः।२५॥

हृदि कामो भ्रुवः क्रोधो लोभश्चाधरदच्छदात् ।
आस्याद् वाक्सिन्धवो मेढ्रान् निर्‌ऋतिः पायोरघाश्रयः ॥ २६ ॥

छायायाः कर्दमो जज्ञे देवहूत्याः पतिः प्रभुः ।
मनसो देहतश्चेदं जज्ञे विश्वकृतो जगत् ॥ २७ ॥

वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयम्भूर्हरतीं मनः ।
अकामां चकमे क्षत्तः सकाम इति नः श्रुतम् ।२८॥

तमधर्मे कृतमतिं विलोक्य पितरं सुताः ।
मरीचिमुख्या मुनयो विश्रम्भात् प्रत्यबोधयन्।२९ ॥

नैतत्पूर्वैः कृतं त्वद्ये न करिष्यन्ति चापरे ।
यस्त्वं दुहितरं गच्छेः अनिगृह्याङ्गजं प्रभुः ॥ ३० ॥

तेजीयसामपि ह्येतन्न सुश्लोक्यं जगद्‍गुरो ।
यद्‌वृत्तमनुतिष्ठन् वैन्वै लोकः क्षेमाय कल्पते।३१॥

तस्मै नमो भगवते य इदं स्वेन रोचिषा ।
आत्मस्थं व्यञ्जयामास स धर्मं पातुमर्हति ।३२ ॥

स इत्थं गृणतः पुत्रान् पुरो दृष्ट्वा प्रजापतीन् ।
प्रजापतिपतिस्तन्वं तत्याज व्रीडितस्तदा ।
तां दिशो जगृहुर्घोरां नीहारं यद्विदुस्तमः ॥ ३३ ॥

कदाचिद् ध्यायतः स्रष्टुः वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकाम् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ 

चातुर्होत्रं कर्मतन्त्रं उपवेदनयैः सह ।
धर्मस्य पादाश्चत्वारः तथैवाश्रमवृत्तयः ॥ ३५।

                   ।।विदुर उवाच ।।
स वै विश्वसृजामीशो वेदादीन् मुखतोऽसृजत् ।
यद् यद् येनासृजद् देवस्तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥ ३६।

                 ।।मैत्रेय उवाच ।।
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्यान् वेदान् पूर्वादिभिर्मुखैः ।
शास्त्रमिज्यां स्तुतिस्तोमं प्रायश्चित्तं व्यधात्क्रमात् ॥ ३७ ॥
_____________________________________
तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद -

इसके पश्चात् जब भगवान् की शक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा जी ने सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोक की बहुत वृद्धि हुई।

उनके नाम मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे। 

इसमें नारद जी प्रजापति ब्रह्मा जी की गोद से, दक्ष अँगूठे से, वसिष्ठ प्राण से, भृगु त्वचा से, क्रतु हाथ से, पुलह नाभि से, पुलस्त्य ऋषि कानों से, अंगिरा मुख से, अत्रि नेत्रों से और मरीचि मन से उत्पन्न हुए।

फिर उनके दायें स्तन से धर्म उत्पन्न हुआ, जिनकी पत्नी मूर्ति से स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठ से अधर्म का जन्म हुआ और उससे संसार को भयभीत करने वाला मृत्यु उत्पन्न हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा जी के हृदय से काम, भौहों से क्रोध, नीचे के होंठ से लोभ, मुख से वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से पाप का निवास स्थान (राक्षसों का अधिपति) निर्ऋति। 

छाया से देवहूति के पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए।
इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्मा जी के शरीर और मन से उत्पन्न हुआ। 

विदुर जी ! भगवान् ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहारी थी।
हमने सुना है-एक बार उसे देखकर ब्रह्मा जी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थीं।
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उन्हें ऐसा अधर्ममय संकल्प करते देख, उनके पुत्र मरीचि आदि ऋषियों ने उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया।

‘पिताजी! आप समर्थ हैं, फिर भी अपने मन में उत्पन्न हुए काम के वेग को न रोककर पुत्रीगमन्-जैसा दुस्तर पाप करने का संकल्प कर रहे हैं। 

ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्मा ने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा।

जगद्गुरो! आप-जैसे तेजस्वी पुरुषों को भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आप लोगों के आचरणों का अनुसरण करने से ही तो संसार का कल्याण होता है। 

जिन भगवान् ने अपने स्वरूप में स्थित इस जगत् को अपने ही तेज से प्रकट किया है, उनें नमस्कार है। 

इस समय वे ही धर्म की रक्षा कर सकते हैं’। अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियो को अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियों के पिता ब्रह्मा जी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीर को उसी समय छोड़ दिया।
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 तब उस घोर शरीर को दिशाओं ने ले लिया।
 वही कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते है। 

एक बार ब्रह्मा जी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहले की तरह सुव्यवस्थित रूप से सब लोकों की रचना किस प्रकार करूँ? 

इसी समय उनके चार मुखों से चार वेद प्रकट हुए।
इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र, होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म, यज्ञों का विस्तार, धर्म के चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ-ये सब भी ब्रह्मा जी के मुखों से ही उत्पन्न हुए।
(भागवतपुराणस्कन्ध तृतीय अध्याय-१२)
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उनमें से प्रत्‍येक के गर्भ से एक-एक हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। इस प्रकार उन महात्‍मा के एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापति की इच्‍छा नहीं करते थे।
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 प्राचीनकाल के ब्राह्मण अधिकांश प्रजा की उत्‍पत्ति शशबिन्‍दु यादव से ही बताते हैं। प्रजापति का वह महान वंश ही वृष्णिवंश का उत्‍पादक हुआ।

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संस्कृत कोश गन्थों सं में गोत्र के विकसित अर्थ अनेक हैं जैसे  १.संतान । २. नाम । ३. क्षेत्र । ४.(रास्ता) वर्त्म । ५. राजा का छत्र । 
६. समूह । जत्था । गरोह । ७. वृद्धि । बढ़ती । ८. संपत्ति । धन । दौलत । ९. पहाड़ । 
१०. बंधु । भाई । 
११. एक प्रकार का जातिविभाग । १२. वंश । कुल । खानदान । 
१३. कुल या वंश की संज्ञा जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है । 
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विशेष—ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य द्विजातियों में उनके भिन्न भिन्न गोत्रों की संज्ञा उनके मूल पुरुष या गुरु ऋषयों के नामों के अनुसार है ।
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सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा में यम के समय से निषिद्ध माना जाता है।

यम ने ही संसार में धर्म की स्थापना की यम का वर्णन विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियों में हुआ है 
जैसे कनानी संस्कृति ,नॉर्स संस्कृति ,मिश्र संस्कृति ,तथा फारस की संस्कृति और भारतीय संस्कृति आदि-में यम का वर्णन है ।
 
यम से पूर्व स्त्री और पुरुष जुड़वाँ  बहिन भाई के रूप में जन्म लेते थे ।
 
परन्तु यम ने इस विधान को मनुष्यों के लिए निषिद्ध कर दिया ।

केवल पक्षियों और कुछ अन्य जीवों में ही यह रहा । 
यही कारण है कि मनु और श्रद्धा भाई बहिन भी थे और पतिपत्नी भी ।
मनुष्यों के युगल स्तन ग्रन्थियाँ इसका प्रमाण हैं । 
ऋग्वेद में यम-यमी संवाद भी यम से पूर्व की दाम्पत्य व्यवस्था का प्रमाण है ।
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एक ही गोत्र के लड़का लड़की का भाई -बहन होने से  विवाह भी निषिद्ध ही है।
यद्यपि  गोत्र शब्द का प्रयोग वंश के अर्थ में  वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

ऋग्वेद में गोत्र शब्द का प्रयोग गायों को रखने के स्थान के एवं मेघ के अर्थ में हुआ है।
गोसमूह के अर्थ में गोत्र-
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त्वं गोत्रमङ्गिरोभ्योऽवृणोरपोतात्रये शतदुरेषु गातुवित् ।

ससेन चिद्विमदायावहो वस्वाजावद्रिं वावसानस्य नर्तयन् ॥

— ऋग्वेद १/५१/३॥
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 - पदपाठ
त्वम् । गोत्रम् । अङ्गिरःऽभ्यः । अवृणोः । अप । उत । अत्रये । शतऽदुरेषु । गातुऽवित् ।

ससेन । चित् । विऽमदाय । अवहः । वसु । आजौ । अद्रिम् । ववसानस्य । नर्तयन् ॥३।

सायण भाष्य-

हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा । (गोत्रं गोसमूहं) पणिभिरपहृतं गुहासु निहितम् अङ्गिरोभ्यः ऋषिभ्यः अप अवृणोः गुहाद्वारोद्घाटनेन प्रकाशयः।
 "उत अपि च "अत्रये महर्षये । कीदृशाय । “शतदुरेषु शतद्वारेषु यन्त्रेष्वसुरैः पीडार्थं प्रक्षिप्ताय "गातुवित् मार्गस्य लम्भयिताभूः ।
 तथा “विमदाय “चित् विमदनाम्ने महर्षयेऽपि "ससेन अन्नेन युक्तं “वसु धनम् “अवहः प्रापितवान् । तथा “आजौ संग्रामे जयार्थं "ववसानस्य निवसतो वर्तमानस्यान्यस्यापि स्तोतुः "अद्रिं वज्रं “नर्तयन् रक्षणं कृतवानसीति शेषः । अतस्तव महिमा केन वर्णयितुं शक्यते इति भावः ॥
 गोत्रम् ।' गुङ् अव्यक्ते शब्दे । औणादिकः त्रप्रत्ययः । यद्वा । खलगोरथात्' इत्यनुवृत्तौ ‘ इनित्रकट्यचश्च' (पा. सू. ४. २. ५१) इति समूहार्थे त्रप्रत्ययः । शतदुरेषु । शतं दुरा द्वाराण्येषाम् । द्वृ इत्येके । द्वर्यन्ते संव्रियन्ते इति दुराः। घञर्थे कविधानम्' इति कप्रत्ययः। छान्दसं संप्रसारणं परपूर्वत्वम् । तच्च यो ह्युभयोः स्थाने भवति स लभतेऽन्यतरेणापि व्यपदेशम् इति • उरण् रपरः ' ( पाणिनि सूूूूत्र १. १. ५१ ) इति रपरं भवति । 

यद्वा । द्वारशब्दस्यैव छान्दसं संप्रसारणं द्रष्टव्यम् । गातुवित् । ‘गाङ् गतौ' । अस्मात् ‘कमिमनिजनिभागापायाहिभ्यश्च' (उ. सू. १. ७२ ) इति तुप्रत्ययः । तं वेदयति लम्भयतीति गातुवित् । ‘विद्लृ लाभे' । अन्तर्भावितण्यर्थात् क्विप् । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम्। ससेन । ससम् इति अन्ननाम । ‘ससं नमः आयुः' (नि.२.७.२१) इति तन्नामसु पाठात् । आजिः इति संग्रामनाम । “आहवे आजौ ' (नि. २. १७. ८) इति तत्र पाठात् । अद्रिम् । अत्ति भक्षयति वैरिणम् इति अद्रिर्वज्रः । ‘ अदिशदिभूशुभिभ्यः क्रिन्' इति क्रिन्प्रत्ययः । नित्त्वादाद्युदात्तत्वम् । यास्कस्त्वेवम् अद्रिशब्दं व्याचख्यौ- अद्रिरादृणात्यनेनापि वात्तेः स्यात् ' ( निरु. ४. ४ ) इति । ववसानस्य । ‘वस निवासे । कर्तरि ताच्छीलिकः चानश् । 'बहुलं छन्दसि ' इति शपः श्लुः । द्विर्भावहलादिशेषौ । चित्वादन्तोदात्तत्वम् 

इसको निघण्टु (मेघः । इति निघण्टुः । १ । १० । ) तथा सायण के भाष्य में मेघ का अर्थ दिया है। यथा सायणभाष्य से :

हे इन्द्र “त्वं “गोत्रम् अव्यक्तशब्दवन्तं वृष्ट्युदकस्यावरकं मेघम् “अङ्गिरोभ्यः अङ्गिरसामृषीणामर्थाय "अप "अवृणोः अपवरणं कृतवानसि । वृष्टेरावरकं मेघं वज्रेणोद्घाट्य वर्षणं कृतवानसीत्यर्थः। यद्वा ।

मेघ के अर्थ में ऋग्वेद में "गोत्र" के प्रयोग का भी उदाहरण :

'यथा कण्वे मघवन्मेधे अध्वरे दीर्घनीथे दमूनसि ।

यथा गोशर्ये असिषासो अद्रिवो मयि गोत्रं हरिश्रियम् 

— ऋग्वेद ८/५०/१०॥

सायण-भाष्य-
हे अद्रिवः वज्रिवन् इन्द्र मेधे यज्ञे यथा येन प्रकारेण कण्वे एतन्नामके ऋषौ निमित्ते हरिश्रियम् । हरिः जगत्तापहर्त्री हरितवर्णा वा श्रीः जललक्ष्मीर्यस्य तादृशम् । गोत्रं मेघम् असिसासः दत्तवानसि । ईदृशे कण्वे अध्वरे । ध्वरतिर्हिंसाकर्मा । तद्रहिते दीर्घनीथे दीर्घं स्वर्लोकपर्यन्तं नीथं हविः प्रापणं यस्य तथाभूते । पुनः कीदृशे । दमूनसि दानमनसि उदारे । यथा च गोशर्ये एतन्नामके ऋषौ मेघं दत्तवानसि तथा मयि पुष्टिगौ हरिश्रियं गोत्रं देहि। यथा तयोरनुग्रहदृष्ट्या मेघवृष्टिं कृतवानसि तथा मय्यपि कृपादृष्ट्या अभिलषितवृष्टिं कुर्वित्यभिप्रायः ॥ ॥ १७ ॥
इसके अर्थ में समय के साथ विस्तार हुआ है।
गौशाला एक बाड़ अथवा परिसीमा में निहित स्थान है। इस शब्द का क्रमिक विकास गौशाला से उसके साथ रहने वाले परिवार अथवा कुल  के रूप में हुआ।

इसमें विस्तार से गोत्र को विस्तार, वृद्धि के अर्थ में प्रयुक्त किया जाने लगा।

गोत्र का अर्थ पौत्र तथा उनकी सन्तान के अर्थ में भी है । इस आधार पर यह वंश तथा उससे बने कुल-प्रवर की भी द्योतक है।

यह किसी व्यक्ति की पहचान, उसके नाम को भी बताती है तथा गोत्र के आधार पर कुल तथा कुलनाम बने हैं।

इसे समयोपरांत विभिन्न गुरुओं के कुलों (यथा कश्यप, षाण्डिल्य, भरद्वाज आदि) को पहचानने के लिए भी प्रयोग किया जाने लगा। 

क्योंकि शिक्षणकाल में सभी शिष्य एक ही गुरु के आश्रम एवं गोत्र में ही रहते थे, अतः सगोत्र हुए।

यह इसकी कल्पद्रुम में दी गई व्याख्या से स्पष्ट होता है :

गोत्रम्, क्ली, गवते शब्दयति पूर्ब्बपुरुषान् यत् । इति भरतः ॥ (गु + “गुधृवीपतीति ।” उणादि । ४ । १६६ । इति त्रः ) तत्पर्य्यायः । सन्ततिः २ जननम् ३ कुलम् ४ अभिजनः ५ अन्वयः ६ वंशः ७ अन्ववायः ८ सन्तानः ९ । इत्यमरः । २ । ७ । १ ॥ आख्या । (यथा, कुमारे । ४ । ८ । “स्मरसि स्मरमेखलागुणैरुत गोत्रस्खलितेषु बन्धनम् ॥”) सम्भावनीयबोधः । काननम् । क्षेत्रम् । वर्त्म । इति मेदिनी कोश । २६ ॥

 छत्रम् । इति हेमचन्द्रःकोश ॥ संघः । वृद्धिः । इति शब्दचन्द्रिका ॥ वित्तम् । इति विश्वः ॥

यह व्यवस्था विभिन्न जीवों में विभेद करने के लिए भी प्रयोग होती है।

गोत्र का परिसीमन के आधार पर क्षेत्र, वन, भूमि, मार्ग भी इसका अर्थ है (मेदिनीकोश) 

तथा उणादि सूत्र "गां भूमिं त्रायते त्रैङ् पालने क" से गोत्र का अर्थ (गो=भूमि तथा त्र=पालन करना, त्राण करना) के आधार पर भूमि के रक्षक अर्थात पर्वत, वन क्षेत्र, बादल आदि है।
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गो अथवा गायों की रक्षा हेतु ऋग्वेद में इसका अर्थ गौशाला निहित है,।

तथा वह सभी व्यक्ति जो परिवार के रूप में इससे जुडे हैं वह भी गोत्र ही कहलाए।

इसके विस्तार के अर्थ से यह वित्त (सम्पदा), अनेकता, वृद्धि, सम्भावनाओं का ज्ञान आदि के अर्थ में भी प्रकाशित हुआ है।

तथा हेमचंद्र के अनुसार इसका  एक अर्थ  छतरी( छत्र भी है।

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क्योंकि उस वैदिक समय  में गोत्र नहीं थे ।
गोत्रों की अवधारणा परवर्ती काल की है । सपिण्ड (सहोदर भाई- बहिन ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद 10 वें मण्डल के_1-से लेकर  14 वें सूक्तों में यम -यमी जुड़वा भाई-बहिन के सम्वाद के रूप में एक आख्यान द्वारा पारस्परिक अन्तरंगो के सम्बन्ध में  उसकी नैतिकता और अनैतिकता को लेकर संवाद मिलता है।

यमी अपने सगे भाई यम से  संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। 
परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है ,कि ऐसा मैथुन सम्बन्ध अब प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
और जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते हैं वे घोर पाप करते हैं.
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है”)‌

न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात् ।
अन्येन मत्प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥१२॥
पदान्वय-
न । वै । ऊं इति । ते । तन्वा । तन्वम् । सम् । पपृच्याम् । पापम् । आहुः । यः । स्वसारम् । निऽगच्छात् ।

अन्येन । मत् । प्रऽमुदः । कल्पयस्व । न । ते । भ्राता । सुऽभगे । वष्टि । एतत् ॥१२।

सायण-भाष्य★

यमो यमीं प्रत्युक्तवान् । हे यमि “ते तव “तन्वा शरीरेण “तन्वम् आत्मीयं शरीरं “न “वै “सं पपृच्यां नैव संपर्चयामि । नैवाहं त्वां संभोक्तुमिच्छामीत्यर्थः । “यः भ्राता “स्वसारं भगिनीं “निगच्छात् नियमेनोपगच्छति । संभुङ्त्श इत्यर्थः । तं “पापं पापकारिणम् “आहुः । शिष्टा वदन्ति । एतज्ज्ञात्वा हे “सुभगे सुष्ठु भजनीये हे यमि त्वं “मत् मत्तः “अन्येन त्वद्योग्येन पुरुषेण सह “प्रमुदः संभोगलक्षणान् प्रहर्षान् “कल्पयस्व समर्थय । “ते तव “भ्राता यमः “एतत् ईदृशं त्वया सह मैथुनं कर्तुं “न “वष्टि न कामयते । नेच्छति ॥

“ पापमाहुर्य: सस्वारं निगच्छात” ऋ10/10/12 ( “जो अपने सगे बहन भाई से संतानोत्पत्ति करते हैं, भद्र जन उन्हें पापी कहते हैं)

इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.
अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “ एक पुर्वज अथवा पूर्वपुरुष  के पौत्र परपौत्र आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी.
यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.
“ सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते !
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन !! “
मनु स्मृति –5/60
(सपिण्डता) सहोदरता (सप्तमे पुरुषे) सातवीं पुरुष में (पीढ़ी में ) (विनिवर्तते) छूट जाती है।

 (जन्म नाम्नोः) जन्म और नाम दोनों के (आवेदने)  जानने  से, (समान-उदक भावः तु) आपस में  (जलदान)का व्यवहार भी छूट जाता है।
 इसलिये सूतक में सम्मिलित होना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
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“सगापन तो सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है. 
आनुवंशिकी (जेनेटिक्स) गुण - मानव के ।
गोत्र निर्धारण की व्याख्या करता है ।।

जीवविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत आनुवंशिकता -उत्तराधिकारिता ( जेनेटिक्स हेरेडिटी) तथा जीवों की विभिन्नताओं (वैरिएशन) का अध्ययन किया जाता है।

आनुवंशिकता के अध्ययन में' ग्रेगर जॉन मेंडेल "जैसे यूरोपीय जीववैज्ञानिकों  की मूलभूत उपलब्धियों को आजकल आनुवंशिकी के अंतर्गत समाहित कर लिया गया है। 

विज्ञान की भाषा में प्रत्येक सजीव प्राणी का निर्माण मूल रूप से कोशिकाओं द्वारा ही हुआ होता है। अत: कोशिका जीवन की शुक्ष्म इकाई है।

इन कोशिकाओं में कुछ  गुणसूूूूूत्र (क्रोमोसोम) पाए जाते हैं। इनकी संख्या प्रत्येक जाति (स्पीशीज) में निश्चित होती है। 

इन गुणसूत्रों के अन्दर माला की मोतियों की भाँति कुछ (डी .एन. ए .) की रासायनिक इकाइयाँ पाई जाती हैं जिन्हें जीन कहते हैं। 

यद्यपि  डी.एन.ए और आर.एन.ए दोनों ही न्यूक्लिक एसिड होते हैं।

 इन दोनों की रचना "न्यूक्लिओटाइड्स"   से होती है जिनके निर्माण में कार्बन शुगर, फॉस्फेट और नाइट्रोजन बेस (आधार) की मुख्य भूमिका होती है।

डीएनए जहाँ आनुवंशिक गुणों का वाहक होता है और कोशिकीय कार्यों के संपादन के लिए कोड प्रदान करता है वहीँ आर.एन.ए की भूमिका उस कोड  (संकेतावली)

को प्रोटीन में परिवर्तित करना होता है। दोेैनों ही तत्व जैनेटिक संरचना में अवयव हैं ।
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आनुवंशिक कोड (Genetic Code) डी.एन.ए और बाद में ट्रांसक्रिप्शन द्वारा बने (M–RNA पर नाइट्रोजन क्षार का विशिष्ट अनुक्रम (Sequence) है,

जिनका अनुवाद प्रोटीन के संश्लेषण के लिए एमीनो अम्ल के रूप में किया जाता है। 

एक एमिनो अम्ल निर्दिष्ट करने वाले तीन नाइट्रोजन क्षारों के समूह को कोडन, कोड या प्रकुट (Codon) कहा जाता है।

और ये जीन, गुणसूत्र के लक्षणों अथवा गुणों के प्रकट होने, कार्य करने और अर्जित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं।

इस विज्ञान का मूल उद्देश्य आनुवंशिकता के ढंगों (पद्धति) का अध्ययन करना है ।

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गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।

समस्त जीव, चाहे वे जन्तु हों या वनस्पति, अपने पूर्वजों के यथार्थ प्रतिरूप होते हैं। 

वैज्ञानिक भाषा में इसे 'समान से समान की उत्पति' (लाइक बिगेट्स लाइक) का सिद्धान्त कहते हैं। 

आनुवंशिकी के अन्तर्गत कतिपय कारकों का विशेष रूप से अध्ययन किया जाता है। जो निम्नलिखित हैं।

प्रथम कारक आनुवंशिकता है। किसी जीव की आनुवंशिकता उसके जनकों (पूर्वजों या माता पिता) की जननकोशिकाओं द्वारा प्राप्त रासायनिक सूचनाएँ होती हैं।

जैसे कोई प्राणी किस प्रकार परिवर्धित होगा, इसका निर्धारण उसकी आनुवंशिकता ही करेगी।
दूसरा कारक विभेद है जिसे हम किसी प्राणी तथा उसकी सन्तान में पाते  हैं।

प्रायः सभी जीव अपने माता पिता या कभी कभी बाबा, दादी या उनसे पूर्व की पीढ़ी के लक्षण प्रदर्शित करते हैं।
ऐसा भी सम्भव है कि उसके कुछ लक्षण सर्वथा नवीन हों।
 इस प्रकार के परिवर्तनों या विभेदों के अनेक कारण होते हैं।
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जीवों का परिवर्धन तथा उनके परिवेश अथवा पर्यावरण (एन्वाइरनमेंट) पर भी निर्भर करता है। 

प्राणियों के परिवेश अत्यन्त जटिल होते हैं; इसके अंतर्गत जीव के वे समस्त पदार्थ तत्व बल  तथा अन्य सजीव प्राणी (आर्गेनिज़्म) समाहित हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते रहते हैं।

वैज्ञानिक इन समस्त कारकों का सम्यक्‌ अध्ययन करता है, एक वाक्य में हम यह कह सकते हैं कि आनुवंशिकी वह विज्ञान है।
जिसके अन्तर्गत आनुवंश्किता के कारण जीवों तथा उनके पूर्वजों (या संततियों) में समानता तथा विभेदों, उनकी उत्पत्ति के कारणों और विकसित होने की संभावनाओं का अध्ययन किया जाता है।
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पैतृक गुणसूत्रों के पुनर्संयोजन के फलस्वरूप एक ही पीढी की संतानें भी भिन्न हो सकती हैं।

 उत्परिवर्तन की प्रक्रिया-। 

जीन दोहराव अतिरेक(आवश्यकता से अधिक होने का भाव, गुण या स्थिति / आधिक्य )आदि प्रदान करके विविधीकरण की अनुमति देता है।

एक जीन जीव को नुकसान पहुंचाए बिना अपने मूल कार्य को मूक( म्यूट ) और खो सकता है।

डी़.एन.ए प्रतिकृति की प्रक्रिया के दौरान, दूसरी स्ट्रैंड(  रस्सी का बल)के बहुलकीकरण में कभी-कभी त्रुटियां होती हैं। 

म्यूटेशन नामक ये त्रुटियां किसी जीव के फेनोटाइप को प्रभावित कर सकती हैं।

फिनोटाइप(phenotype) क्या है ?
लक्षण प्रारूप या फिनोटाइप समलक्षी जीवो के विभिन्न गुणों जैसे आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव आदि को व्यक्त करता है।

जीनोटाइप(genotype)
जीव प्रारूप या जीनोटाइप जीनी संरचना जीव के जैनिक संगठन को व्यक्त करता है,।

जो कि उसमें विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।

फेनोटाइप और जीनोटाइप में अन्तर  "लक्षण 'प्ररूप और जीव प्ररूप में अन्तर-
फेनोटाइप(लक्षण   प्ररूप)  जीनोटाइप(जीव प्ररूप)
यह जीवों के विभिन्न गुण आकार,आकृति,रंग तथा स्वभाव को व्यक्त करता है। 
यह जैनिक संगठन को व्यक्त करता है जो उसमे विभिन्न लक्षणों को निर्धारित करता है।

जीवो को प्रत्यक्ष देखने से ही समलक्षणी का पता चल जाता है। 
इस संरचना को जीवो की पूर्वज -कथा या संतति के आधार पर ही स्थापित किया जा सकता है।
समान समलक्षणी वाले जीवों की जीनी संरचना समान हो भी सकती और नहीं भी। 
समान जीनी संरचना वाले जीवों के एक ही पर्यावरण में होने पर उनका समलक्षणी भी समान होता है।
इनके व्यक्त करने का आधार दृश्य संरचना(देखकर) है। इनका आधार जीन संरचना है।
उम्र के साथ बदलते  रहते हैं। यह पूरी उम्र एक समान होते है।
खासकर अगर वे एक जीन के प्रोटीन कोडिंग अनुक्रम के भीतर होती हैं।

डी.एन.ए पोलीमरेज़ की "प्रूफरीडिंग" क्षमता के कारण, प्रत्येक 10–100 मिलियन बेस में त्रुटि दर आमतौर पर बहुत कम होती है।

डी.एन.ए में परिवर्तन की दर को बढ़ाने वाली प्रक्रियाओं को उत्परिवर्तजन कहा जाता है: 

उत्परिवर्तजन रसायन डी.एन.ए प्रतिकृति में त्रुटियों को बढ़ावा देते हैं, अक्सर आधार-युग्मन की संरचना में हस्तक्षेप करके, जबकि यूवी विकिरण डी.एन.ए संरचना को नुकसान पहुंचाकर उत्परिवर्तन को प्रेरित करता है।

डीएनए के लिए रासायनिक क्षति स्वाभाविक रूप से होती है और कोशिकाएँ बेमेल और टूटने की मरम्मत के लिए डी.एन.ए मरम्मत तंत्र का उपयोग करती हैं। 
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हालांकि, मरम्मत हमेशा मूल अनुक्रम को पुनर्स्थापित नहीं करती है।

डीएनए और पुनः संयोजक जीनों के आदान-प्रदान के लिए क्रोमोसोमल क्रॉसओवर का उपयोग करने वाले जीवों में, अर्धसूत्रीविभाजन के दौरान संरेखण में त्रुटियां भी उत्परिवर्तन का कारण बन सकती हैं। 

क्रॉसओवर में त्रुटियां विशेष रूप से होने की संभावना है जब समान अनुक्रम पार्टनर गुणसूत्रों को गलत संरेखण को अपनाने का कारण बनाते हैं; 

यह जीनोम में कुछ क्षेत्रों को इस तरह से उत्परिवर्तन के लिए अधिक प्रवण बनाता है। 

ये त्रुटियां डीएनए अनुक्रम में बड़े संरचनात्मक परिवर्तन पैदा करती हैं - दोहराव, व्युत्क्रम, संपूर्ण क्षेत्रों का विलोपन - या विभिन्न गुणसूत्रों (गुणसूत्र अनुवाद) के बीच अनुक्रमों के पूरे भागों का आकस्मिक विनिमय।
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प्राकृतिक चयन और विकास -
उत्परिवर्तन एक जीव के जीनोटाइप को बदल देते हैं और कभी-कभी यह विभिन्न फेनोटाइप को प्रकट करने का कारण बनता है। 

अधिकांश उत्परिवर्तन एक जीव के फेनोटाइप, स्वास्थ्य या प्रजनन फिटनेस  (शारीरिक रूप से उपयुक्त) बहुत कम प्रभाव डालते हैं। 

कई पीढ़ियों से, जीवों के जीनोम में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो सकता है,।

जिसके परिणामस्वरूप गोत्र विकास होता है। अनुकूलन नामक प्रक्रिया में, लाभकारी उत्परिवर्तन के लिए चयन एक प्रजाति को उनके पर्यावरण में जीवित रहने के लिए बेहतर रूप में विकसित करने का कारण बन सकता है।

विभिन्न प्रजातियों के जीनोम के बीच की होमोलॉजी की तुलना करके, उनके बीच विकासवादी दूरी की गणना करना संभव है।

और जब वे अलग हो सकते हैं। आनुवंशिक तुलना को आमतौर पर फेनोटाइपिक विशेषताओं की तुलना में प्रजातियों के बीच संबंधितता को चिह्नित करने का एक अधिक सटीक तरीका माना जाता है।

प्रजातियों के बीच विकासवादी दूरी का उपयोग विकासवादी वृक्ष बनाने के लिए किया जा सकता है; ये वृक्ष समय के साथ सामान्य वंश और प्रजातियों के विचलन का प्रतिनिधित्व करते हैं,।

हालांकि वे असंबंधित प्रजातियों (क्षैतिज जीन स्थानांतरण और बैक्टीरिया में सबसे आम के रूप में ज्ञात) के बीच आनुवंशिक सामग्री के हस्तांतरण को नहीं दिखाते हैं

आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार (inbreeding multiplier) अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से अर्थात एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है.
गणित के समीकरण के अनुसार इसे समझे-
अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,)
पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है।
तात्पर्य स्पष्ट है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है।
यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो ने सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था।

सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग , अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक क्षमता की कमी, अपंगता, विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. ।

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से  समर्थित/अनुमोदित व्यवस्था है.। 
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प्राचीन सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं.
 एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है. 
ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं, और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते.
आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं।

माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु,अंगिरा, मरीचि और अत्रि।
भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के कुल में गौतम और भरद्वाज,मरीचि के कश्यप,वसिष्ट, एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए.
इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए. 
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गौत्र एक अवधारणा का आधार यह भी तथ्य है ।
अत्रि के विश्वामित्र के साथ एक और भी गोत्र चला बताते हैं.इस प्रकार के विवरण से प्राप्त होती है आदि ऋषियों के आश्रम के नाम.अपने नाम के साथ गुरु शिष्य परम्परा, पिता पुत्र परम्परा आदि, अपने नगर, क्षेत्र, व्यवसाय समुदाय के नाम जोड कर बताने की प्रथा चल पडी थीं.
 परन्तु वैवाहिक सम्बंध के लिए सपिंड की सावधानी सदैव वांछित रहती है. 
आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है।
.इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड देना आवश्यक नही रह गया है.

 परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती. सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रहती. इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है.
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इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया.

परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है.
वैदिक सभ्यता मे हर जन को उचित है के अपनी बुद्धि का विकास अवश्य करे. इसी लिए गायत्री मंत्र सब से अधिक महत्वपूर्ण माना और पाया जाता है.

निष्कर्ष यह निकलता है कि सपिण्ड विवाह नही करना चाहिये. गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये.

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 प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार रोहि-
सम्पर्कसूत्र-8077160219-अलीगढ़ उत्तर-प्रदेश

अत्रि गोत्र से संबंधित सभी लोगों का मूल सम्बन्ध अभीर जनजाति से ही है। पौराणिक दृष्टि से अत्रि गोत्र के लोग अभीर / अहीर हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से मूल अभीर जनजाति के लोगों को ही पुराणों में अत्रि गोत्र में समाहित किया गया है। 
दूसरे शब्दों में सभी सोमवंशी आभीर जनजाति से संबद्ध हैं।

गोपाभीरयादवा एकैव वंशजातीनाम् त्रतये। विशेषणा: वृत्तिभिश्च प्रवृत्तिभिर्वंशानां प्रकारा:सन्ति।

""अर्थ : गोप, अहीर , यादव ये सब एक ही वंश के सजातीय है। ये इनकी वृत्ति, जीवन जीने कि शैली और प्रवित्ति के अनुसार एक ही वंश के लोगों के विभिन्न विशेषण हैं।

""विदित हो प्रत्येक यादव अहीर होता है, परन्तु प्रत्येक अहीर यादव नहीं होता। परन्तु जो अहीर ना हो कर शब्द स्वयं को यादव कहता हो, निश्चित ही उनके पूर्वज यहूदी बंजारे समूहों में रहते थेे | तभी उसने अपनी प्राचीन पहचान खो दिया है | यादव अपने इतिहास को संगीत के माध्यम से सुरक्षित रखते थे तभी उन्होंने अपनी प्राचीन अहीर / अभीर पहचान को आज तक कायम किया हुआ है |

जादौन का यहुदयों से सम्बन्ध

"Jadon is a clan or a sub group commonly found amongst Ahir and Rajput communities in India. The term Jadon also refers to a division of Banjara, a nomadic community.
जादौन राजपूत

Jadon the Meronothite

"Jadon the Meronothite was one of the builders of the wall of Jerusalem in the Book of Nehemiah in the Hebrew Bible. जानकारी के लिऐ बता दें कि जादौन नाम यहुदयों से गहरा संबंध रखता है यादव से नहीं / ना के बराबर।

The prophet Jadon

According to Flavius Josephus, Jadon was the name of a minor prophet referred to in his Antiquities of the Jews VIII,8,5 who is thought to have been “the man of God” mentioned in 1 Kings 13:1. In the Lives of the Prophets he is called Joad. A Rabbinic tradition identifies him with Iddo.

"source : https://en.m.wikipedia.org/wiki/Jadon

Jadon : Bible Encyclopedias

jā´don ( ידון , yādhōn , perhaps “he will judge” or “plead”): One who helped to rebuild the wall of Jerusalem in company with the men of Gibeon and of Mizpah ( Nehemiah 3:7 ). He is called the “Meronothite,” and another Meronothite is referred to in 1 Chronicles 27:30 , but there is no mention of a place Meronoth. Jadon is the name given by Josephus (Ant. , VIII, viii, 5; ix, 1) to “the man of God” from Judah who confronted Jeroboam as he burned incense at the altar in Bethel, and who was afterward deceived by the lie of the old prophet (1 Ki 13). Josephus may probably have meant Iddo the seer, whose visions concerning Jeroboam (2 Chronicles 9:29 ) led to his being identified in Jewish tradition with “the man of God”, from Judah.

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जादौन राजपूतों का इतिहास

source: https://www.studylight.org/encyclopedias/eng/isb/j/jadon.html

 "भाटी राजपूतों की उत्पत्ति और वंशावली |
जादौन राजपूत का इतिहास

जादौन ब्लॉग लिस्ट तथा उनके उत्तर | Jadaun Rajput History

"इस वंश के छठे (6th) चंद्रवंशी राजा ययाति के पुत्र चंद्रवंशी राजा यदु के वंशज “यदुवंशी” कहलाये। … यदुवंशी क्षत्रिय जादौन वंश राजपूत समाज का एक प्रमुख वंश है जादौन वंश के राजपूत आज पूरे देश में मौजूद हैं। जादौन वंश का भी इतिहास काफी स्वर्णिम रहा है।

कमालिया गोत्र (जादौन ठाकुर) • करौली यदुवंशियों के प्राचीन दुर्ग मंडरायल का ऐतिहासिक शोध—– • करौली राज्य के प्राचीन दुर्ग उतगिरि का ऐतिहासिक शोध एवं करौली के यदुवंशी जादौन राजपूतों का सिकन्दर लोदी से खूनी-संघर्ष—– • यदुवंशी क्षत्रियों की शाखा जादौन/जाधव राजपूतों के विषय में 10 रोचक तथ्य जो शायद आपने नहीं सुने होंगे • जादौन क्षत्रिय राजवंश , History of Jadaun Rajput, Jadon Rajput Itihas, Jadaun Vanshavali • History of Jadons/Jadauns : Rajput Provinces of India • गैर राजपूत राजवंश और उनके राजपूत पूर्वज(SINSINWAR JAT OF BHARATPUR)

बंजारे कैसे बन गए राजपूत ?

 How Banjaras Became Rajput ?

इसका विस्तृत लेख भाई योगेश रोही द्वारा लिखे गए लेख से प्राप्त होता है जो इस प्रकार है: यह लेख सीधे भाई योगेश रोही के लिखे गए लेख से लिया गया है जिसका लिंक : असली यदुवंशी कौन ? (1) अहीर अथवा जादौन ! एक विश्लेषण –भाग-प्रथम  http://vivkshablogspot.blogspot.com/2018/07/blog-post_98.html

जादौन राजपूत । गैर राजपूत राजवंश और उनके राजपूत पूर्वज(SINSINWAR JAT OF BHARATPUR)

(भारत में जादौन ठाकुर तो जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।

क्योंकि अफगानिस्तान अथवा सिन्धु नदी के मुहाने पर बसे हुए जादौन पठानों का सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब था "तक्वुर" ! जो भारतीय भाषाओं में "ठक्कुर , ठाकुर ,टैंगॉर तथा 'ठाकरे रूपों में प्रकाशित हुआ।
जमीदारी खिताबों के तौर पर भारत में इस शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए सबसे पहले हुआ।
जो तुर्की काल में जागीरों के अथवा
भू-खण्डों के मालिक थे ।
उस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय प्राय द्वीप में इस्लामीय विचार धाराओं का भी आग़ाज (प्रारम्भ) नहीं हुआ था।  केवल ईसाई विचार धाराओं का प्रचार था ।
तब जादौन पठान  कबीलों के रूप में ईरानी संस्कृति को आत्मसात् किये हुए थे ।
यद्यपि ये वंशगत रूप से स्वयं यहूदीयों से सम्बद्ध थे ।
उसके लगभग एक शतक बाद ई०सन् (712) में मौहम्मद बिन-काशिम अरब़ से चल कर ईरान में होता हुआ भारत में सिन्धु के मुहाने पर उपस्थित होता है।
तब भारत में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार होता है । जब मौहम्मद बिन काशिम के साथ आए इस्लामीय मज़हब के नुमाइन्दों ने देखा कि यहाँ तो आदमी -आदमी को जातिवाद के तराजू में तौला जा रहा है ।
यहाँ तो गरीब व निचले स्तर के इन्सानों को शूद्रों का नाम देकर ; उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता है ।
फिर इस्लामीय  विचार धारा तो साम्य वाद पर आश्रित थी ।
इस समय छूआ-छूत एवं जातिगत भेद भावना अपनी पराकाष्ठा पर थे । ब्राह्मण हिन्दू-समाज का सर्वेसर्वा थे तथा राजपूत जो विदेशीयों का क्षत्रिय करण रूप था । वे
उन ब्राह्मणों के संरक्षक बन गया थे ।
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सरे आम  जब निम्न समझी जाने वाली जन-जातियों की सुन्दर कन्याओं को अपनी हवश आपूर्ति के लिए उच्च वर्ग के लोगों द्वारा अपहरण कर लिया जाता था तब वह दृश्य मानवीय नारी सत्ता के लिए बड़े दु:खद था ।
निम्न वर्ग भूमिहीन ,व गुलाम होकर स्वाभिमान शून्य जीवन जी रहा था।


हीन भावना से ग्रसित होकर अपना दुर्भाग्य समझ कर वह निरन्तर अपमानों के कड़वे घूँट पी रहा था ।

निराशा वाद में श्वाँसें गिन गिन कर जी रहा था। 
इस्लामीय विचार धाराओं का उदय भारत में
ऐैसे समय पर इन लोगों को आशा की किरण बन गया 
इन लोगों ने स्वेैच्छिक रूप से इस्लाम को स्वीकार किया। 
परन्तु 15 वीं सदी में तलवार के बल पर भी बुतसिकन बन कर इस्लामीय शरीयत को मुगलों द्वारा प्रसारित किया गया ।
और कुछ गौण मान्यताओं के अनुसार तो केरल के मालावार से भी मौहम्मद बिन काशिम के एक सदी पहले ही इस्लामीय शरीयत का आग़ाज अरब सागर के व्यापारियों द्वारा हुआ ।
परन्तु  (712) ई० सन् की घटना को ही ऐैतिहासिक मान्यताऐं हैं ।
इस समय विदेशीयों को यह एहशास हो गया था कि हिन्दुस्तान को जीतना आसान है ।
क्योंकि यहाँ समाज में कौम़परस्ती हावी है ।
हिन्दुस्तान को जीतने का माद्दा तो दारा प्रथम के समय ईरानीयों में भी था ।
यह घटना सिकन्दर से पहले की अर्थात् ई०पू० चतुर्थ सदी की है ।

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भारत में आने वाले प्रथम विदेशी तो हखामनी ईरानी लोग ही थे।
विदेशी भारत को जीतकर  गुलाम बनाने में सफल इस लिए भी रहे ; कि  उस समय जिन जन-जातियाें को शूद्रों के रूप में श्रेणि बद्ध किया गया ।
उनसे सारे अधिकार जब्त कर लिए गये ।
उन्हें न पढ़ने का अधिकार था ।
न लड़ने का  और नाहीं कोई धर्म कर्म करने का विदेशीयों से युद्ध काल में भी निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें के प्रति तिरस्कार व हीनता की भावना ब्राह्मणों तथा राजपूतों द्वारा होने के कारणये लोग  शान्त रहते
क्योंकि विधानों के अनुसार क्षत्रिय ही लड़ सकता है ।
शूद्रों का कार्य तो केवल दौनों वर्णों की केवल सेवा करना है ।
स्मृति-ग्रन्थों का सृजन ही शूद्रों के आधिकारिक प्रतिबन्ध को दृष्टि गत कर के हुआ। फिर जब ये लोग समाज से अलग-थलग पड़ गये; तब देश गुलाम बन गया ।
और आज भी समाज की स्थित ग्राम्य-स्तर पर इसी प्रकार की परिलक्षित होती है ।
धार्मिक रूढि वादी अनुष्ठानों की आढ़ में वस्तुतः आज भी अन्ध-विश्वास व व्यभिचार पूर्ण मान्यताओं व क्रिया कलापों का  सम्पादन ग्राामीण तथा शहरी स्तर पर देखा जा सकता है ।
राजस्थान में एैसा देखने को अधिक मिलता है।
क्योंकि यहाँ राजपूतों में अभिमान पूर्वक अन्धक मान्यताओं को धर्मानुष्ठानों के रूप में बड़ी अनिवार्यता से लागू किया जाता है ।
जहाँ वस्तुतः  शिक्षा नहीं होता वहाँ गरीबी तो होती ही है । वहाँ की जनता भी अन्ध-विश्वासी व रूढ़ि वादी परम्पराओं का निर्वहन करती रहती है ।
राजस्थान राजपूतों का प्रथम गढ़ है । जहाँ पाकिस्तान की कुछ सीमाऐं स्पर्श करती हैं।
विदित हो कि राजपूत विदेशीयों का वह वर्ग है।
जिसके अन्तर्गत कुषाण ,हूण , हित्ती, शक , सिथियन, जॉर्जियन तथा पठान आदि थे ।
जादौन राजपूत की  एक शाखा राजस्थान में खाँनजादा
नाम से प्रसिद्ध है ।
और खान पठानों का लकब (Title)
है । 

नीचे कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं देखें—👇
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Autor: Source: Wikipedia
Editora: Books LLC, Wiki Series
Data de publicação: 2011-07-27
ISBN: 115546883X
Páginas: 38 pages
Tag: muslim, communities, rajasthan, khanzadamughalmirasiqaimkhanimuslimrangrez, manganiarmeratcheetahdeshwali, langha
Please note that the content of this book primarily consists of articles available from Wikipedia or other free sources online. Pages: 37. Chapters:

जादौन राजपूत | जादौन शब्द (Joda) शब्द से विकसित हुआ है ।जिसका अर्थ है यहुदह् अथवा Yehudah की सन्तानें

Khanzada, Mughal, Meo, Mirasi, Qaimkhani, MuslimRangrez, Manganiar, Merat, Cheetah, Deshwali, Langha, Silawat, Ghanchi, Sindhi-Sipahi, Rath, Pathans of Rajasthan, Pinjara, Shaikh of Rajasthan, Bhutta (भाटी ), Singiwala, Khadim, Sorgar, Kandera, Chadwa, Hiranbaz, Hela Mehtar. Excerpt:
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The Khanzada, or Khanzadah,(Urdu:) (Hindi खान जादा) is a subdivision of Rajputs, now found mainly in the Rajasthan, Haryana and Western Uttar Pradesh of India; and Sindh, Punjab provinces of Pakistan. Khanzadahs, the royal family of Muslim Jadon (also spelt as Jadaun) Rajputs,
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accepted Islam on their association with the Sufi Saints. Khanzadah, the Persian form of the Rajputana word ‘Rajput’, is the title of the great representatives of the ancient Yaduvanshi royal Rajput family, descendants of Krishna and therefore of Lunar Dynasty. They are the Mewatti Chiefs of the Persian historians, who were the representatives of the ancient Lords of Mewat. Khanzada = Khan (Raj) + zada (put Son) = Rajput.
The word Khanzada or Khanzadeh in Persian means ‘son of a Khan’, ‘Khan means king’. Or Pathan . While Khanzadi or Khanzadehi is used for daughters of Khan. Mewat –
The Kingdom of Khanzadahs, Muslim Jadu Rajput clan, Mewatpatti The ancient country of Mewat is roughly contained within a line running irregularly northwards from Dig in Bhartpur to about the latitude of Rewari,
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then westwards below Rewari to the longitude of a point six miles (10 km) west of the city of Alwar, and then south to the Barah stream in Ulwur. The line then turns east Dig,
to form the southern boundary. The Mewat country possesses several hill ranges. Those by Ulwur, and those that form the present boundary to the north-east were the most important. Tijara, lying near the latter, contended with Ulwur for the first place in Mewat.
However, it is prominently a division of Jadubansi Rajputs…

उपर्युक्त तथ्यों का हिन्दी रूपान्तरण देंखें 👇

""लेखक: स्रोत: विकिपीडिया

सम्पादक: पुस्तकें एलएलसी, विकीपीडिया श्रृंखला
डेटा डी publicação: 2011-07-27
आईएसबीएन: 115546883 एक्स
Pagginas: 38 पेज….
टैग: मुस्लिम, समुदायों, राजस्थान, खानजादा, मुगल, मिरासी,  कैमखानी, मुस्लिम रेंजरेज़, मंगानीर, मेरेट, चीता, देशवाली, लंगा
कृपया ध्यान दें कि इस पुस्तक की सामग्री में मुख्य रूप से विकिपीडिया या अन्य मुक्त स्रोतों से उपलब्ध लेख शामिल हैं। पृष्ठ 37. अध्याय: खानजादा, मुगल, मेयो, मिरासी,कैमखानी, मुस्लिम रंगरेज़, मंगानी, मेरत, चीता, देशवली, लंघा, सिलावत, घांची, सिंधी-सिपाही, राठ, राजस्थान के पठान, पिंजारा, राजस्थान के शेख , भूट भाटी या भुट्टो, सिंगिवाला, खादिम, सोगर, कंदरा, चाडवा, हिरणबाज, हेला मेहतर।
उद्धरण: खानजादा, या खानजादा, (उर्दू:) वस्तुत: (खान जादा) राजपूतों का एक उपविभाग है, जो मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा और भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया जाता है; और सिंध, पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त भी है । मुस्लिम जादौन (जादुन के रूप में भी लिखा गया) के शाही परिवार खानजादा ने सूफी संतों के साथ अपने सहयोग पर इस्लाम को स्वीकार किया। राजपूताना शब्द ‘राजपूत’ का फारसी रूप खानजादा प्राचीन यदुवंशी शाही राजपूत परिवार, कृष्णा के वंशज और इसलिए सोम वंश के महान प्रतिनिधियों का खिताब है।
वस्तुत ये जादौन पठान यहूदीयों की शाखा ही है


—जो भारतीय धरातल पर जादौन राजपूत के रूप में अपने को यदुवंशी कहते हैं।
वे फारसी इतिहासकारों के मेवाट्टी चीफ हैं, जो मेवाट के प्राचीन लॉर्ड्स के प्रतिनिधि थे।
खानजादा = खान (राज) + ज़दा (उत्पन्न) = राजपूत। फारस में खानजादा या खानजादा शब्द का अर्थ है ‘खान का पुत्र’, ‘खान का अर्थ राजा’ है।
खान  की बेटियों के लिए खानजादी या खानजादेही का इस्तेमाल किया जाता है। खान पठानों का लकब उपाधि है मेवाट – खानजादाह का राज्य, मुस्लिम जादौन राजपूत कबीले, मेवात्पट्टी मेवाट का प्राचीन देश भारतपुर में डिंग से अनियमित रूप से उत्तर में चलने वाली रेखा के भीतर रेवाड़ी के अक्षांश के बारे में बताया जाता है, फिर रेवाड़ी के नीचे पश्चिम की तरफ छह मील की ऊंचाई पर (10 किमी) अलवर शहर के पश्चिम में, और फिर दक्षिण में उल्वा में बरहा धारा तक की भी भाग । फिर दक्षिणी सीमा बनाने के लिए रेखा पूर्वी डिंग (दीर्घ पुर) बदल जाती है। मेवाट देश में कई पहाड़ी श्रृंखलाएं हैं।
उल्वुर के लोग, और जो उत्तर-पूर्व में वर्तमान सीमा बनाते हैं वे सबसे महत्वपूर्ण थे। तिजारा, उत्तरार्द्ध के पास झूठ बोलते हुए, उल्वा में पहली जगह मेवाट के साथ संघर्ष किया।
हालांकि, यह मुख्य रूप से जादौन राजपूतों का एक प्रभाग है …
हम अपनी इसी ऐैतिहासिक श्रृंखला में यह लिपिबद्ध कर चुके हैं कि राजस्थान के जादौन राजपूत जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।
ये बड़े वीर तथा यौद्धा होते थे ।
मागी अथवा बिरहमन —जो ईरानी पुरोहित थे
इनकी संस्कृति कुछ कुछ भारतीय ब्राह्मणों से साम्य रखता है ।
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भारत में इन जादौन पठानों का मार्ग दर्शन  स्वीडन ,नार्वे से चल कर सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों से परिपुुष्ट हुए इन ब्राह्मणों ने इस भारत में आगमन काल में अपने ब्राह्मण धर्म के लिए समायोजित  किया ।
तब यहाँ भरत, किरात, कोल , भील आदि द्रविड जन-जातियाँ निवास कर रहीं थी ।
यहाँ के इन पूर्व वासीयों को दमन  करने के लिए पुरोहित समाज ने इन विदेशीयों का समायोजन क्षत्रियों के रूप में किया।

क्योंकि बुद्ध के प्रादुर्भाव से वैदिक कर्म काण्ड परक ब्राह्मण धर्म मन्द पड़ गया था ।
अत: बौद्ध श्रमणों के विध्वंस के लिए भी एैसा हुआ।
सबने माउण्ट आबू की कथा भाटौं की मुखार बिन्दु से श्रवण की गयी होगी ।
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में दो मत प्रचलित हैं।
कर्नल टोड व स्मिथ आदि के अनुसार राजपूत वह विदेशी जातियाँ है ;
जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया था और —जो ब्राह्मणों के समानान्तर भारत में आये और यहाँ की भरत अथवा व्रात्य —जो वृत्र से सम्बद्ध थी ।
उन जातियों को परास्त किया ।
वे उच्च श्रेणी के विदेशी राजपूत कहलाए, चन्द्रबरदाई लिखते हैं ।
कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के संपूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउण्ट आबू पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, गुर्जर-प्रतिहार व सोलंकी राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
यहाँ गुर्जर शब्द जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) से आगत विदेशीयों का रूप है ।
न कि गौश्चर: या गूज़र का वाचक —जो अहीरों की एक शाखा है।
परन्तु आधुनिक सन्दर्भ में गुर्जर एक संघ है जिसमें अनेक कबीले के लोग हैं । आधुनिक गुर्जरों का मताधिक्य स्वयं को सूर्यवंश अथवा रघुवंश से जोड़ने का का है । जबकि नन्द और बृषभानु यदुवंश से सम्बद्ध थे ।
जो पुराणों के अनुसार सोम अथवा चन्द्रवंश की शाखा है।
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गुर्जर शब्द की प्राच्य और पाश्चात्य व्युत्पत्ति-पर आगे विश्लेषण (Etymological Analization)किया गया है
उपर्युक्त माउण्ट आबू की घटना को इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं।
इन्हीं राजपूतों के रूप में जादौन पठानों को भी वर्गीकृत किया गया हैं ।

—जो राजस्थान में बंजारों की एक शाखा है ।
आज भी भूबड़िया बञ्जारे स्वयं को राजपूतों के रूप में मानते हैं ।
राजपूतों में जादौन जन-जाति तो अपने प्रारम्भिक काल में बञ्जारा वृत्ति का निर्वहन करती थी।
ये जादौन पठान थे ।
ये भी यौद्धा व सहासी तो थे ही ।
इन्होंने स्वयं को यहूदी माना तो बाद में यदुवंशी क्षत्रिय मानने लगे ।
परन्तु यहाँ समस्या यह है कि वैदिक सन्दर्भों में यदुस्तुर्वश्च (यदु और तुर्वसु को दास स्वीकार किया है । और दास वैदिक सन्दर्भों में असुर अथवा अदैवीय रूप है तथा इन्हें जीतने के लिए पुरोहितों ने  इन्द्र से प्रार्थना भी हैं । इस लिए जादौन राजपूत
प्रत्यक्षत: वैदिक यदु से सम्बद्ध नहीं हैं।

जादौन राजपूत

क्योंकि दूसरा बडा़ कारण यह है कि जादौन ठाकुर अपने को कभी भी गोपों से सम्बन्धित नहीं मानते हैं ।
जबकि सम्पूर्ण यदुवंश की पृष्ठ-भूमि गोपालन वृत्ति से सम्बद्ध हैं ।

"इसके लिए ऋग्वेद की यह प्राचीनत्तम ऋचा प्रमाण भूत है कि यदु को ऋग्वेद में गोप रूप वर्णन किया है ।

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            ”उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
         गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
                                (ऋग्वेद-१० /६२ /१०

इस लिए ब्राह्मणों ने इन्हें राजपूतों के रूप में समायोजित किया।
उस समय जादौन पठानों के कबीलों में अपने रुतबे का इज़हार करने के लिए सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब के रूप में तक्वुर( tekvur) शब्द का प्रचलन था ।
तब जादौन पठान ईरानी एवं यहूदी विचार धारा से ओत-प्रोत थे ।
यद्यपि मनु (नूह) ए-ब्राहम (ब्रह्मा) विश-नु (देवन) इशहाक( इक्ष्वाकु) इत्यादि नाम भारतीय पुराणों में भी हैं।
ब्राह्मणों को भी ईरानी धर्म-ग्रन्थों में बरहमन कहा गया तथा सुमेरियन पुरातन कथाओं बरम (Baram)
यहूदीयों की बहुत सी पृथा ब्राह्मणों जैसी थीं ।
क्योंकि देवर -विवाह जिसे लैविरेट (levirate) पृथा के रूप में भी जाना जाता है ।
यहूदीयों में प्रचलित थी ; वह ब्राह्मणों में यथावत् रही ।
परन्तु नियोग पृथा तो ब्राह्मणों की – मौलिक सृष्टि है। -जैसे बाद में इस्लामीय शरीयत में हलाला की रश्म जो विवाह-विच्छेदन के पुन: समायोजन हेतु ज़िना के तौर पर बनायी गयी 

परन्तु इस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय धरातल पर सर्वत्र ईसाई विचार धारा का बोल-बाला था ।
जादौन  शब्द (Joda) शब्द से विकसित हुआ है 
जिसका अर्थ है यहुदह् अथवा Yehudah की सन्तानें
विदित हो कि ईसाई मज़हब यहूदीयों की विकसित  विचार धारा है यह हमने ऊपर बताया 😘
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यहाँ हम ठाकुर शब्द की व्युत्पत्ति पर भी  एक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं; कि इसका प्रयोग जादौन पठानों के साथ कब से जुड़ा हुआ है?
देखें नीचें (तुर्की ऐैतिहासिक विवरणों से उद्धृत तथ्य )👇
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Origin and meaning of tekvur name in pathan Tribes…
The Turkish name, Tekfur Saray, means “Palace of the Sovereign” from the Persian word meaning “Wearer of the Crown”.
It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople.
The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos – which means “born in the Purple Chamber”.
It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and From Middle Armenian (թագւոր ) (tʿagwor) टैंगॉर , from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Attested in Ibn Bibi’s works…… (Classical Persian) /tækˈwuɾ/ (Iranian Persian) /tækˈvoɾ/ تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_
हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन)
(takvorân) or تکورها (takvor-hâ)) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary
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तुर्कों की कुछ शाखाऐं सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से यहाँ हिन्दुस्तान में आकर बसीं।
इससे पहले यहाँ से पश्चिम में देव संस्कृति के अनुयायी आर्य(आयोनियन , हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का बसाव रहा था।


भारत में हर्षवर्धन (590-647 ई० सन्) प्राचीन भारत में एक कान्यकुब्ज (कन्नौज) का राजा था ;

जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था ;
उसके राज्यविस्तार के पतन के बाद यहाँ विदेशीयों विशेषत: हूणों ,कुषाणों , तुर्कों एवं सीथियन (Scythian) जन-जातियाें का राजपूतीकरण हुआ । और फिर नये सिरे से ब्राह्मणों की कर्म काण्ड परक  वैदिक  क्रियाऐं प्रारम्भ हुईं।🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
इन राजपूतों में सिन्धु और अफगानिस्तान के गादौन / जादौन पठानों की भी बड़ी संख्या थी। ठाकुर शब्द के मूल रूप के विषय में हम आपको बताऐं! कि तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।

ये लोग तुर्की होने से खाँन अथवा पठान अथवा तक्वुर tekvur टाइटल लगाते थे ।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदित हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे ठक्कुर के रूप में लिखा गया है। कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे। 
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलती थी। और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
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समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में उल्लेख करते हैं। कि ” जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे ” उसमान खलीफ का समय (644 – 656 ) ईस्वी सन् के समकक्ष रहा है भारत में यहाँ हर्षवर्धन का शासन तब क्षीण होता जा रहा था ।
बौद्ध श्रमणों के पलायन तथा संहार के लिए पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण ब्राह्मण धर्म के विस्तार के लिए विदेशीयों को सम्मोहित कर रहे थे ।
उस्मान फलीफा के नैतृत्व में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार पश्चिमीय एशिया में निरन्तर हो रही था ।
उस्मान को  शिया लोग ख़लीफा मानने को तैयार नहीं थे।
सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान (644- से 656 राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप में निर्वाचित किया गया था। उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा ।
इन्हीं के मार्ग दर्शन में तुर्कों ने इस्लामीय मज़हब को स्वीकार किया।
ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में भी प्रचलित था
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पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है। इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।
और यही कबीले पख़्तून थे ।
मुग़ल काल में भी अकबर से लेकर अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक , हर मुग़ल शासक अकबर के बाद और तक़रीबन सारे बादशाह राजपूत कन्याओ से ही पैदा हुए 
जैसे  जहाँगीर , शाहजहाँ , औरंगजेब आदि 
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विदित हो कि  मुस्लिम काल में हजारों राजपूतो ने इस्लाम स्वीकार किया और कुछ इस्लामीय विचार धाराओं के खिलाफ रहे ।
इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले राजपूत
जैसे- कायमखानी , खानजादे , मेव ,रांघड , चीता , मेहरात , राजस्थान के रावत जो फिर हिन्दू बन गए आदि सब राजपूत मुस्लमान ही तो है।
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और जादौन अफगानिस्तान मूल के ईरानी यहूदीयों का कबीला था ।
—जो सातवीं सदी के आसपास कुछ मुसलमान हो गये मणिकार अथवा पण्यचारी का व्यवसाय करने वाले मनिहार तथा बंजारे भी थे ।
—जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी अत: राजस्थान के बंजारा समाज में जादौन कबीला भी है । जिनका ऐैतिहासिक विवरण निम्न है👇
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As Follows (1) Dharawat (2)ghuglot (3)Badawat (4) Boda (5)Malod (6)Ajmera (7) Padya (8)Lakhavat (9) Nulawat… All the above Come under the jadon (jadhav) Sub-Group of the Charan Banjara also called as Gormati in the area. from the same area among the Labhana banjara the following clan are reported : 1- kesharot 2-dhirbashi 3- Gurga 4- Rusawat 5- Meghawat 6- khachkad 7-Pachoriya 8 Alwat 9- khasawat 10 bhokan 11- katakwal 12- Dhobda 13 Machlya 14 -khaseriya 15-Gozal 16- borya 17- Ramawat 18 Bhutiya 19 Bambholya 20 Rethiyo 21-Majawat the Rathor and jadon are Charan banjara are more common in the area Among the sonar Banjara clan names like medran are found but the type is rare. A Sub-Group by name Banjara (the drum -beater are also found in the pusad area having topical clan names like (1) Hivarle, ( 2) karkya (3)Failed (4) Shelar (5) kamble (6) Deopate (7) Dhawale. These clan names unlike the other given above Do not sound akin to Rajput clan names and are similar to those among the pardhan or other lower castes in the area who are traditionally enged in drum- beating at the time marriage or other ceremonies. it is likely that these lower castes were assimilated in the Banjara community as there drum-beater or the lowest in ranks among the Banjara adopted the function along with the clan names/surnames of the local lower castes engaged in the function. Rathod is also used as a clan name among the Gormati Banjaras which is very common another common surname is jadhav which sound akin the Maratha surname in Maharashtra. madren is a clan name reported from the Sonar Banjara….
हिन्दी अनुवाद:—निम्नलिखित के अनुसार (1) धारवत (2) घुह्लोट (3) बदावत (4) बोडा (5) मालोड (6) अजमेरा (7) पद्या (8) लखवत (9) नुलावत … उपरोक्त सभी चरन बंजारा के जादौन (जाधव) उप-समूह के तहत आते हैं । जिन्हें क्षेत्र में गोर्मती भी कहा जाता है। लैबाना (लभाना) बंजारा के बीच एक ही क्षेत्र से निम्नलिखित कबीलों की सूचना दी गई है: 1- केशारोट 2-धीरबाशी 3- गुड़गा 4- रसवत 5- मेघावत 6- खचकड़ 7-पचोरिया 8 अलवत 9- खसावत 10 भोकन 11- कटकवाल 12- ढोबा 13 मच्छिया 14-चेकेसरिया 15-गोज़ल (गोयल) 16- बोर्य 17- रामावत 18 भूटिया 1 9 बंबोल्या 20 रेथियो 21-माजावत आदि.. राठौर और जादौन क्षेत्र में चारन बंजारा अधिक आम हैं सोनार बंजारा कबीले के नाम जैसे मेद्रान में पाए जाते हैं लेकिन यह प्रकार दुर्लभ है। बंजारा नाम से एक उप-समूह (ड्रम -बीटर नगाड़ा बजाने वाला ) पुसाड क्षेत्र में भी पाए जाते हैं ; जिसमें सामयिक कबीलों के नाम होते हैं (1) हिवरले, (2) करका (3) असफल (4) शेलर (शिलार) (5) कॉम्बले (6) द्योपेत ( 7) धवले। ऊपर दिए गए दूसरे के विपरीत ये कबीले नाम राजपूत कबीले के नामों की तरह नहीं लगते हैं और वे उस क्षेत्र में क्षमा या अन्य निचली जातियों के समान हैं जो पारम्परिक रूप से शादी या अन्य समारोहों में ड्रम को पीटते हैं।
यह सम्भावना है कि बंजारा समुदाय में इन निचली जातियों को समेकित (समायोजित) किया गया था क्योंकि बंजारा के बीच ड्रम-बीटर या सबसे कम रैंक समारोह में लगे स्थानीय निचली जातियों के कबीलों के नामों / उपनामों के साथ समारोह को अपनाया था।
राठोड़ और जादौन गोर्मती के बीच एक कबीले के नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
जो कि आम बात है, एक आमनाम जाधव है 
जो महाराष्ट्र में मराठा उपनाम जैसा लगता है। जादौन पठान—जो अफगानिस्तानी मूल के उनमें मणिकार अथवा मनिहार भी बंजारा वृत्ति से जीवन यापन करते थे ।
पश्चिमीय एशिया के यहूदीयों के ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ों में यहूदीयों को सोने – चाँदी तथा हीरे जवाहरात का सफल व्यापारी भी बताया गया है मदर सोनार बंजारा से एक कबीले का नाम है जादौन ।
मिश्र में कॉप्ट Copt यहूदीयों की सोने -चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है।
जो भारतीय गुप्ता वार्ष्णेय गोयल आदि यदुवंशी वैश्य शाखा से साम्य परिलक्षित करती है। मनिहार– मनिहार (अंग्रेजी: Manihar) हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी की जाति है। इस जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी बेचना है। इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा
जाता है। मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है।

यूँ तो नेपाल की तराई क्षेत्र में भी मनिहारों के वंशज मिलते हैं। ये लोग अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द के रूप में अब प्राय: सिद्दीकी ही लगाते हैं।

मुसलमान होने से.. मणिकार अथवा पण्यचारि दौनों शब्द वैदिक हैं –
–जो कालान्तरण में मनिहार तथा बंजारा रूप में परिवर्तित हुए ।
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उत्पत्ति का इतिहास— इन जातियों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं ; एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई।
भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता को त्याग कर मुसलमान बने। इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों के नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे-भट्टीसोलंकीचौहान, बैसवाराजादौन आदि
इसीलिये इनके रीति रिवाज़ हिन्दुओं से मिलते हैं; दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये वो लोग है जिनका गजनी में शासकों के यहाँ घरेलू काम करना था ; और इनकी महिलायें हरम की देखभाल करती थी जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास नारखी, बछिगाँव आदि के क्षेत्रों में बस गये।
इन पठानों की कुछ उपजातियाँ — (1)शेख़ (2) इसहानी, (3) कछानी, (4) लोहानी, (5) शेख़ावत, (6) ग़ोरी, (7) कसाउली, (8) भनोट, (9) चौहान, (10) पाण्ड्या, (11) मुग़ल, (12) सैय्यद, (13) खोखर, (14) बैसवारा और (15) राठी (16) गादौन अथवा जादौन । पश्चिमीय पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के पठानों में जादौन पठानों की एक शाखा है जिसकी कद- काठी जादौन राजपूतों तथा जादौन बन्जारों से मिलती है ।
-जो पश्तो भाषा बोलते हैं – जैसे राजस्थानी पिंगल डिंगल उपभाषाओं के सादृश्य- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा– पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा ।
(Theory of Pashtun descent from Israelites)
19 वीं सदी के बाद से बहुत से पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बना हुआ है। पश्तून लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है; जिन्हें लगभग २,८०० साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था।
सम्भवत वैदिक सन्दर्भों में दाशराज्ञ वर्णन इसकी संकेत है ।
ऐैतिहासिक विवरण के सन्दर्भों में – पख़्तूनों के बनी इस्राएल होने की बात सोलहवीं सदी ईस्वी में जहाँगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है। अंग्रेज़ लेखक अलेक्ज़ेंडर बर्न ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है। यद्यपि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं।
अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः सन् 1837 में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था ; कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है ।
इसमें  कोई सन्देह नहीं ! लेकिन इसमें भी सन्देह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करते हैं।
विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है।
यहूदी होने से ये स्वयं को जूडान अथवा जादौन पठान कहते हैं ।
इधर भारतीय जादौन समुदाय भी स्वयं को यदुवंशी कहता है ।
जे. बी . फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की ‘फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त‘ नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था। जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने सन् 1858 ईस्वी में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया ;जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ाई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये।
इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया। जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे में जो शोधपत्र 1861 में प्रकाशित किया गया है, उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है ।
वह लिखता है कि उनके अफ़्गानिस्तान में होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं। और वह आगे यह भी लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्कृति, उनका व उनके ज़िलों ,गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है।
ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है ।
इसी तरह ऋग्वेद के तीसरे खण्ड की 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है।
भारत में कान्यकुब्ज के राजा हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो।
इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे।
तथा इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ; तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है। राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।
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कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।
जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ; और अपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप “
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए ।
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी कर्म काण्ड परक धर्म -व्यवस्था कायम की और बौद्ध श्रमणों के विरुद्ध प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से युद्ध छेड़ दिया ।
बारहवीं सदी में 
“चंद्रबरदाई लिखता हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप में देखते हैं “ जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं ।
सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी।
और संस्कृत भाषा में भी ठक्कुर शब्द जमीदार का विशेषण है ।
संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठक्कुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के सन्दर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है । इसके कुछ समय बाद पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाने लगी । 

जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया । पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन छठी से बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
वल्लभाचार्य भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तम्भ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं।
जिनका प्रादुर्भाव ईः सन् 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ।
इन्होंने ने ही कृष्ण के विग्रह को ठक्कुर नाम दिया।
महमूद गजनबी ने 1000-1030 र्इ. और मुहम्मद गोरी ने 1175-1205 र्इ०सन्  के मध्य भारत पर आक्रमण किए थे ; ये भी मंगोलियन तुर्की थे ।
तभी से तक्वुर ,ठक्कुर रूप धारण कर संस्कृत भाषा में समाविष्ट हो गया था ।
और इसका प्रचलन विस्तारित रूव से तक्वुर tekvur खिताब के तौर पर 16 वीं सदी की संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द रूप में ;
संस्कृत और फारसी बहिन बहिन होने से जादौन लोगों की बोली (क्षेत्रिय भाषा) डिंगल और पिंगल प्रभाव वाली राजस्थानी व्रज उपभाषा का ही रूप है । जो राजस्थान करौली( कुकुरावली) क्षेत्रों की रही है । और जादौन पठानों की भाषा पश्तो , पहलवी पर जिनका पूरा प्रभाव है ।
जादौन पठान यहूदीयों की शाखा होने से यदुवंशी तो हैं ही ।
परन्तु गोपों या अहीरों से स्वयं को सम्बद्ध न मानना इनको जादौन पठानों की भारतीय शाखा सूचित करता है ।
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ये कहते हैं कि हमारा गोपों से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु इतिहास कार अहीरों को ही यादव मानने के पक्ष में ।
क्योंकि यादव ही सदीयों से गोपालन करने वाले रहे हैं । इसी लिए गोप विशेषण केवल यादवों को रूढ़ हो गया । संस्कृत भाषा में गोप शब्द का अर्थ:- (गां गौर्जातिं पाति रक्षतीति गोप: ।
(गो + पा + कः) जातिविशेषः यादव । गोयल इति हिन्दी भाषा में॥
तत् पर्य्यायः १ गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ गोप:। इति अमरःकोश ।२।९ ।५७
अमरकोशः में गोप के पर्याय वाची रूप हैं ।
गोसंख्य ,गोधुक, अहीर,वल्लभ (जाट) , गौश्चर: (गुर्जर)
 हम आप को बताऐं कि अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है।
इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है।
इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे।
कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।
इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पण्डितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।
और अमर सिंह ने आभीर तथा गोप परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित कर यादवों के व्यवसाय परक विशेषण माने हैं । परन्तु हिन्दू समाज की रूढि वादी ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था में तो देखिए! कि यहाँ अहीरों को क्षत्रिय कभी नहीं माना जाना !
निश्चित रूप में यादवों के इतिहास को विकृत करने में हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों का हाथ है ।
स्मृति-ग्रन्थों का निर्माण रूढि वादी ब्राह्मणों ने की है । 

जिनमें आँशिक नैतिक मूल्यों की आढ़ में अनेक अनैतिकताओं से पूर्ण बातों का भी समायोजन कर दिया गया है ।
गोपों की काल्पनिक मनगढ़न्त व्युत्पत्ति का वर्णन स्मृति-ग्रन्थों में भिन्न भिन्न प्रकार से है ।
कहीं “मणिबन्ध्यां तन्त्रवायात् गोपजातेश्च सम्भवः  ” इति पराशरपद्धतिः ॥
अर्थात् मणि बन्ध्या में तन्त्रवाय्यां से गोप उत्पन्न हुए! तो मनु-स्मृति कार कहीं गोपों का वर्णन बहेलियों , चिड़ीमार , कैवट , तथा साँप पकड़ने वालों के साथ वनचारियों के रूप में वर्णित किया है।
मनुः स्मृति में अध्याय -८ / २६० / “व्याधाञ्छाकुनिकान् गोपान् कैवर्त्तान् मूल खानकान् ।
व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः )
अहीरों या गोपों ने ब्राह्मणों की इस अवैध -व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया ।
इनकी गुलामी (दासता) स्वीकार न करके दस्यु अथवा विद्रोही बनना स्वीकार कर लिया है !

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आइए देखें— यादवों को कैसे वीर अथवा यौद्धा जन जाति से शूद्र बनाया गया है ?
एक वार सभी अहीर वीर इस सन्देश को ध्यान पूर्वक पढ़ें! और उसके वाद सुझावात्मक प्रति क्रिया दें ! आपका भाई यादव योगेश कुमार ‘रोहि’

ग्राम-आज़ादपुर
पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़-उ०प्र०
ब्राह्मण समाज तथा ख़ुद को असली यदुवंशी क्षत्रिय कहने वाले जादौन तथा अन्य राज-पूत सभी अहीरों को यादव नहीं मानते हैं और उन्हें चोर , लुटेरा मानकर परोक्ष रूप में गालियाँ देते रहते हैं अहीरों के विषय में ये कहते हैं कि अहीरों अथवा गोपों ने प्रभास क्षेत्र में यदुवंशी स्त्रीयों सहित अर्जुन को लूट लिया था ।


इस लिए ये गोप यदुवंशी नहीं होते हैं ।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि गोपों ने प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर गोपिकाओं को क्यों लूट लिया था ?

 और अहीरों के यदुवंशी न होने के लिए ये इसी बात को प्रमाणों के तौर पर पेश करते हैं ।
अब हम इसी प्रश्न का पौराणिक सन्दर्भों पर आधारित उत्तर प्रस्तुत करते हैं !
गोपों ने अर्जुन को इसलिए परास्त कर लूटा —
एक दिन जब दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिए सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। 

जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे ;अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा !
इसके कुछ ही देर पश्‍चात पाण्डु पुत्र अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचा !
और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गया।
जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी द‍ृष्टि अर्जुन पर पड़ी। 

पहली दृष्टि का फल—- अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा।
अर्जुन ने कहा, “भगवन् ! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।” अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ।
क्योंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।
”दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन!
मेरी द‍ृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो।
अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा।
किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा।
अब तुम लोग निश्‍चय कर लो कि किसे क्या चाहिये ? अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल गोप यौद्धाओं की नारायणी सेना लेने के लिये ही आया था।
इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।
अब हम घटना काआगे वर्णन करने से पूर्व एक अक्षौहिणी सेना का मान बताते हैं — 21870 रथ तथा 21870 हाथी तथा 65610 अश्वारोहि तथा 109350 पदाति ( पैदल सैनिक ) यह एक अक्षौहिणी सेना का मान होता था ।
संस्कृत भाषा जिसकी व्युत्पत्ति- इस प्रकार वर्णित है👇 अक्ष+ ऊहः समूहः संविकल्पकज्ञानं वा सोऽस्यामस्ति +इनि, अक्षाणां रथानां सर्व्वेषामिन्द्रियाणाम् “वा ऊहिनीणत्वं वृद्धिश्च । रथगजतुरङ्गपदाति संख्याविशेषान्विते सेनासमूहे । “अक्षौहिण्यामित्यधिकैः सप्तत्या चाष्टभिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः।
एवमेव रथानान्तु संख्यानं कीर्त्तितं बुधैः ।
पञ्चषष्टिः सहस्राणि षट् शतानि दशैव तु । संख्यातास्तुरगास्तज्ज्ञैर्विना रथ्यतुरङ्गमैः ।
नॄणां शतसहस्रं तु सहस्राणि न वैवतु ।
शतानि त्रीणिचान्यानि पञ्चाशच्च पदातय इति ।
गोपों की अक्षौहिणी सेना में कुछ गोप यौद्धाओं का संहार भी हुआ ।
और कुछ शेष भी बच गए थे इन्हीं गोपों ने प्रभास क्षेत्र में परास्त कर गोपिकाओं सहित लूट लिया था 👇
इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है । इसे भी देखें—👇 _________________________________________
सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या –१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें- इसी बात को महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय में वर्णन किया है परन्तु निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है अत: यह प्रक्षिप्त नकली श्लोक हैं। देखें👇
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।
अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।।
महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है। कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलती है ।
अर्जुन के प्रति यादवों का दूसरा बड़ा विरोध का कारण सुभद्रा का हरण था —- जब एक बार वृष्णि संघ, भोज और अन्धक वंश के समस्त यादव लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया।
इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार सम्पत्ति का दान -गरीबों को दिया गया।
बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ सज-धजकर घूम रही थीं। अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे।
गन्धर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे।
गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी।
इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं।
उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगा।
कदाचित अर्जुन काम-मोहित हो गया ।
एक दिन जब सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया।
जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई,
तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिया। गोप सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए !
और वहाँ सब हाल कहा।
सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया।
वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के समस्त यादव योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे।
सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर सभी यादवों की आंखें चढ़ गईं।
उनका स्वाभिमान डगमगाने लगा उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले अर्जुन को उचित दण्ड देने का निश्चय किया।
कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। तब बलराम ने विचार किया कि अभी युद्ध का उचित समय नहीं है ।
इसलिए बलराम ने गोपों से कहा- “हे वीर योद्धाओ ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो ?”
फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- “जनार्दन!
तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय क्या है ?
तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया।
यह दुस्साहस करके उसने हम समस्त यादवों को अपमानित किया है।
मैं यह कदापि नहीं सह सकता।
” तब कृष्ण बोले- भाई बलराम
“अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है।
क्योंकि यादवों में तो ये वधू-अपहरण परम्परा है ही उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है।
क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था।
उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।” कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ यादव लोग कसमसाए  और अर्जुन—से बदला लेने के लिए संकल्प बद्ध हो गये वही नारायणी सेना के गोप रूप में यादव यौद्धा ही थे — जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है ।
सन्दर्भित ग्रन्थ– ↑ महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220 ↑ श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12
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गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे ।
गोप यादवों का व्यवसाय परक विशेषण है ; गो-पालक होने से तथा यादव वंशगत विशेषण है ।
यदु की सन्तान होने से ” यदोर्पत्यं इति यादव” और अभीर यादवों का ही स्वभाव गत विशेषण है ।
क्योंकि ये कभी किसी से डरते नहीं हैं ।
हिब्रू बाइबिल में भी इनके इसी विशेषण को अबीर रूप में वर्णित किया है जिसका अर्थ है: वीर ,सामन्त अथवा यौद्धा मार्शलआर्ट का विशेषज्ञ ।
संस्कृत भाषा में अभीर शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण इस प्रकार है👇
अ = नहीं + भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर या अभीर वह है जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर रूप बनता है —जो समूह अथवा सन्तान वाची है । इसी लिए दुर्योधन ने इन अहीरों(गोपों) का नारायणी सेना के रूप में चुनाव किया ! और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे ! यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था । क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे और कृष्ण का देहावसान हो गया था और बलदाऊ भी नहीं रहे थे ।
क्योंकि फिर इनको निर्देशन करने वाले बलराम तथा कृष्ण दौनों में से कोई नहीं था ।
फिर तो इन यदुवंशी गोपों ने अर्जुन पर तीव्रता से आक्रमण कर तीर कमानों से उसे परास्त कर दिया बहुत से यादव यौद्धा तो पहले ही आपस में लड़ कर मर गये थे ।
ये केवल कृष्ण से सम्बद्ध थे ।
नारायणी सेना के इन गोपों ने केवल अर्जुन से ही युद्ध किया था ।
नकि कृष्ण की रानियों अथवा यदुवंशी गोपिकाओं के रूप में वधूओं को लूटा था !
लूटपाट के वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण व अहीरों के प्रति द्वेष भाव को अभिव्यञ्जित करने वाले लेखकों के हैं । केवल यदुवंश की सभी स्त्रीयों को अर्जुन के साथ न जाने के लिये कहा !
परन्तु —जो साथ चलने के लिए सहमत नहीं हुईं थी उन्हें प्रताडित कर चलने के लिए कहा !
बहुत सी गोपिकाऐं स्वेैच्छिक रूप से गोपों के साथ वृन्दावन तथा हरियाणा में चलीं गयी ।
यहाँ यह तथ्य भी उद्धरणीय है कि -👇
भगवान कृष्ण ने अपने अवसान काल से पूर्व अर्जुन को निर्देश दिया था कि —हे अर्जुन आप इन सभी यदु वंशी गोप स्त्रीयों को यादव यौद्धाओं के संहार के पश्चात् अपने साथ ही ले जाना सम्भवत: कृष्ण अर्जुन के साथ गोपियों को जानबूझ कर भेजा था ।
क्योंकि वह इस बात को भली भांति जानते थे कि यादव योद्धा अर्जुन को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते हैं ! जब से उसने सुभद्रा का हरण किया है ।
किन्तु यादवों के बल पौरुष और प्रभाव को अर्जुन इसीलिए झेल पा रहा था क्योंकि उसके साथ भगवान् कृष्ण थे !
किन्तु अर्जुन यह समझता था कि मैं परम शक्तिशाली हूं मैंने नारायणी सेना को भी परास्त कर दिया है । तो ये अर्जुन का भ्रम था 
नारायणी सेना शान्त थी कृष्ण के प्रभाव से क्योंकि वह कृष्ण की ही सेना थी ! आज उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण ने अपने शरीरान्त काल में गोपियों को अर्जुन के साथ भेजा था ; ताकि आज उसका यह अहंकार भी खण्ड खण्ड हो जाए कि अहीरों को भी वह हरा सकता है !
कृष्ण इस तथ्य को भली-भांति जानते थे ; कि अहीर योद्धा अर्जुन को युद्ध में अवश्य ही परास्त कर देंगे और गोपियों को अपने साथ उनको ले जाएंगे और प्रभास क्षेत्र में यही हुआ। और अहीरो को अपने यदुवंश का मान रखना था ।
और इधर कृष्ण का भी मान रखना था । क्योंकि कृष्ण ही नारायणी सेना के अधिपति थे । कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में सर्व-प्रथम सभी के सम्मुख कहा था ये नारायणी सेना अपराजेय है इस पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता ; परन्तु उधर कृष्ण पाण्डवों के भी सारथी थे ।
कृष्ण के रथेष्ठा अर्जुन को हराना यदुवंश और कृष्ण के ही मान का घटाना था ।
इसलिए कृष्ण के रहते गोपों ने अर्जुन को कुछ नहीं कहा और अन्त समय में कृष्ण के अवसान काल में गोपों ने अर्जुन का भी मान मर्दन कर दिया और नारायणी सेना के अपराजेयता का संकल्प अहीरों ने अखण्ड बनाए रखा ।
और फिर यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ; गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें 👇
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” अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले। भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४ अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं ! तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे कल सकता था ? क्योंकि अहीरों का मुकाबला तो त्रेता युग में राम भी नहीं कर पाये थे ।

—जो राजपूत लोग कहते हैं कि यदुवंशीयों के पुरोहित गर्गाचार्य थे । तो उन मूर्खों को यह भी जान लेना चाहिए कि यहाँ तो शाँडिल्य वज्रनाभ के पुरोहित हैं ।—जो गोकुल में नन्द के पुरोहित थे । और केला माता( योगमाया) नन्द की पुत्री थीं।

गर्गाचार्यजी ने कहा-“नन्दजी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है। कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेजी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेवजी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जायेगा।”

परन्तु गर्गाचार्य केवल शूरसेन के ही समय पुरोहित बने थे । उग्रसेन के पुरोहित काश्य पुरोहित थे भीष्मक के सतानन्द थे जबकि ये सभी राजा यादव थे।

"यादवों के कुल गुरु गर्गाचार्य ग्वालों के कुल गुरु शांडिल्य ऐसा राजपूत समाज तथा कुछ रूढि वादी ब्राह्मण कहते हैं ।

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भगवान् श्री कृष्ण के देहावसान के बाद ब्रजभूमि सूनी हो गयी थी ।
कृष्ण की सभी लीला स्थलियां लुप्त हो गयी । तब उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने व्रज में पुनर्स्थापन  किया।
वज्रनाभ को इन्द्रप्रस्थ से लाकर पाण्डवों के वंशज महाराज परीक्षत ने मथुरा का राजा बनाया।
वज्रनाभ की माता विदर्भ राज रुक्मी की पौत्री थी जिनका नाम रोचना अथवा सुभद्रा था।
अनुरुद्ध जी की माता का नाम रुक्मवती या शुभांगी था जो रुक्मणी के भाई रुक्म की पुत्री थी।
वज्रनाभ ने कृष्ण कर्म स्थलों का चिन्हांकन किया। लीला स्थलियों पर समृति चिन्ह बनवा कर ब्रज को सजाने संवारने की पहल सर्व प्रथम वज्रनाभ  ने ही की थी ।


महाराज वज्रनाभ का पुत्र प्रतिबाहु हुए उनके पुत्र
सुबाहु  हुए सुबाहु के  शान्तसेन शान्तसेन के शत्सन हुए।

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वज्रनाभ ने शाण्डिल्य जी के आशीर्वाद से गोवर्धन( दीर्घपुर ), मथुरा , महावन , गोकुल (नंदीग्राम ) और वरसाना आदि छावनी बनाये।
और उद्धव जी के उपदेशानुसार बहुत से गांव बसाये।

शाण्डिल्य के विषय में पौराणिक विवरण हम आपको देते हैं -👇

शाण्डिल्य वंश :शाण्डिल्य मुनि कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र थे।
शंख और लिखित के पिता भी हैं।
हालांकि शाण्डिल्य के 12 पुत्र बताए गए हैं जिनके नाम से कुलवंश परंपरा चली।
महर्षि कश्यप के पुत्र असित, असित के पुत्र देवल मंत्र दृष्टा ऋषि हुए।
इसी वंश में शांडिल्य उत्पन्न हुए।
मत्स्य पुराण में इनका विस्तृत विवरण मिलता है।

"महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।

उन्हें त्रेतायुग में राजा दिलीप का राजपुरोहित बताया गया है, वहीं द्वापर में वे पशुओं के समूह के राजा नंद के पुजारी हैं।
एक समय में वे राजा त्रिशंकु के पुजारी थे तो दूसरे समय में वे महाभारत के नायक भीष्म पितामह के साथ वार्तालाप करते हुए दिखाए गए हैं।
कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं।
इसके साथ ही वस्तुत: शाण्डिल्य एक ऐतिहासिक व्यक्ति है लेकिन कालांतार में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुईं जैसे वशिष्ठ, विश्‍वामित्र और व्यास नाम से उपाधियाँ होती हैं।

उस समय मथुरा की आर्थिक दशा बहुत ध्वस्त हो चुकी  थी। जरासंध ने सब कुछ नष्ट कर दिया था।
राजा परीक्षत ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली )से मथुरा में बहुत से बड़े बड़े सेठ लोग भेजे।
इस प्रकार राजा परीक्षत की मदद और महर्षि शाण्डिल्य की कृपा से वज्रनाभ ने उन सभी स्थानों की खोज की जहाँ भगवान् ने अपनी  गोप मण्डली के साथ नाना प्रकार की लीलाएं की थीं।
लीला स्थलों का ठीक ठीक निश्चय हो जाने पर उन्होंने वहां की लीला के अनुसार उस स्थान का नामकरण किया।
भगवान् के लीला विग्रहों की स्थापना की तथा उन उन स्थानों पर अनेकों गांव वसाए।

स्कन्द पुराण के अनुसार यदुवंशी गोपों के पुरोहित शाण्डिल्य ऋषि की सहायता से श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ ने पुन: व्रज को बसाया ।

वे गाँव अहीरों तथा जाटों एवम् गूजरों की आधुनिक वस्तीयाँ हैं ।
स्थान स्थान पर भगवान् श्री कृष्ण के नाम से कुण्ड ओर कूए व बगीचे लगवाये।
शिव आदि देवताओ की स्थापना की। गोविन्द , हरिदेव आदि नामो से भगवधि गृह स्थापित किये।
इन सब शुभ कर्मों के द्वारा वज्रनाभ ने अपने राज्य में सर्वत्र एक मात्र श्री माधव भक्ति का प्रचार किया।
इस प्रकार वजनाभ् जी को ही मथुरा का पुनः संस्थापक के साथ -साथ यदुकुल पुनः प्रवर्तक भी माना जाता है ।इनसे ही समस्त यदुवंश का विस्तार हुआ माना जाता है। वज्रनाभ जी को ही भगवान श्री कृष्ण का प्रतिरूप माना गया है ।
वज्रनाभ के कारण से ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा आरम्भ हुई।उन्होंने ही ब्रज में 4 प्रसिद्ध देव प्रतिमा स्थापित की।
मथुरा में केशव देव ,
वृन्दावन में गोविन्द देव ,
गोवर्धन में हरि देव ,
बलदेव में दाऊजी स्थापित किये थे ।
इन यदुवंशियों का राज्य ब्रज प्रदेश में सिकंदर के आक्रमण के समय भी होना पाया जाता है ।
जब चीनी यात्री सन 635 में भारत आया था ;
उस समय मथुरा का शासक कोई आभीर  थे ।
लेकिन मथुरा के आस पास के क्षेत्र जैसे मेवात ,भदानका ,शिपथा (आधुनिक बयाना) ,कमन आदि में  (8 वीं तथा 9 वीं सदी ) के शासक राजपूत थे जिनका बौद्धों के पलायन के लिए क्षत्रिय करण हुआ था।
जिनके नाम भी प्राप्त है इस काल में मथुरा पर शासन कनौज के (गुर्जर प्रतिहार ) शासकों था ये जॉर्जिया (गुर्जिस्तान)से आये हुए विदेशी थे जिन्हें माउण्ट आबू पर ब्राह्मणों ने क्षत्रिय करण करके बौद्धों के विरुद्ध संगठित किया था ।
परन्तु गुर्जर शब्द का समायोजन अहीरों की शाखा गौश्चर: गा चारयन्ति इति गौश्चरा: अर्थात् गायें चराने वाले  से हो गया ।
विदित हो कि विदेशी गुर्जर स्वयं को अग्नि वंशी या सूर्य वंशी लिखते हैं जबकि गूज़र (गौश्चर) यदुवंशी के रूप में
सम्भवत: इस काल में यदुवंशी उनके अधीनस्थ रहे हों लेकिन इसी समय में मथुरा के शासक यदुवंशी राजा धर्मपाल भगवान श्रीकृष्ण के 77 वीं पीढ़ी में मथुरा के आस पास के क्षेत्र के शासक रहे है जिनके कई प्रमुख वंशज ब्रह्मपाल ,जयेंद्र पाल मथुरा के शासक 9 वीं सदी तक मिलते है इसके बाद महमूद गजनवी के काल में भी मथुरा /महावन पर यदुवंशियों जैसे कुलचंद राजा का शासन थी ।
इसके बाद भी शूरसेन शाखा के भदानका /शिपथा (आधुनिक बयाना );त्रिभुवनगिरी (आधुनिक तिमनगढ़ ) के कई शासको जैसे राजा विजयपाल (1043),राजा तिमानपल (1073), राजा कुंवरपाल प्रथम (1120), राजा अजयपाल जिनको महाराधिराज की उपाधि थी (1150) नें महावन के शासक थे इनके बाद इनके वंशज हरिपाल (1180), सोहनपाल (1196)महावन के शासक थे ।
इसी समय बयाना और त्रिभुवनगिरी पर राजा धर्मपाल के बेटे कुंवरपाल द्वित्तीय  का शासन था 
जिसका युद्ध मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक से हुआ था ।
इसके बाद भी महावन के राजा महिपाल यदुवंशी थे  उनके वंशज आज भी  जाटों या जाट  कह लाते हैं ।

आभीर/ अहीर क्या होता है ?

अत्रि गोत्र से संबंधित सभी लोगों का मूल सम्बन्ध अभीर जनजाति से ही है। पौराणिक दृष्टि से अत्रि गोत्र के लोग अभीर / अहीर हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से मूल अभीर जनजाति के लोगों को ही पुराणों में अत्रि गोत्र में समाहित किया गया है। दूसरे शब्दों में सभी सोमवंशी आभीर जनजाति से संबद्ध हैं।

यद्यपि आभीर कन्या गायत्री के विवाह काल में यज्ञवेदी पर अत्रि भी होता अथवा उद्गाता के रूप में उपस्थित थे ।और ये ब्रह्मा के मानस पुत्र थे । सप्त-ऋषियों में से एक के रूप में फिर भी अहीर जाति के प्रति समर्पित ऋषि अत्र को ही गोत्र प्रवर्तक स्वीकार कर लिया इसी अहीर जाति में यदुवंश हुआ ज्समें पूर्वपुरुष यदु ने गोपालन द्वारा आभीर जाति को जीवन्त रखा । 

अर्थात यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा और आनव सभी मूलतः अहीर ही हैं।

 अहीर / अभीर शब्द आर्य के समतुल्य ही अर्थ रखता है जिसका अर्थ वीर या शक्तिशाली ही होता है। जैसे अहीर को गुजराती में आयर ओर दक्षिण भारत में अय्यर ।

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अहीर शब्द का विश्लेषण भाई योगेश कुमार रोहि जी द्वारा भी किया गया है।

विदित हो प्रत्येक यादव अहीर होता है, परन्तु प्रत्येक अहीर यादव नहीं होता। परन्तु जो अहीर ना हो कर शब्द स्वयं को यादव कहता हो, निश्चित ही उनके पूर्वज यहूदी बंजारे समूहों में रहते थेे|

क्योंकी अहीर / अभीर का मूल संबंध सोमवंशी के गोत्र अत्रि / अभ्री से ही है। जिनमें आगे चलकर यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा, आनव आदि महत्त्वपूर्ण जातियों का उदय हुआ। इसीलिए यदुवंशी अहीर, नागवंशी अहीर आदि नाम आज भी सुनाई देते हैं। 
अहीर एक खनिज है जिससे यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, म्लेक्षा, आनव आदि तत्वों का जन्म हुआ है।

परन्तु कुछ लोग कहेंगे की केवल यादव ही अहीर होते हैं परन्तु अवेस्ता में राजा ययाति को भी अवीर / अभीर बोला गया है वे तो यदु के पिता थे । यदुवंशी तो थे नहीं। मत्स्य पुराण / हरिवंश पुराण में बार बार ययाति के चरित्र विशेषण के रूप में आभीर शब्द का प्रयोग किया गया है।

पुरुरवा केे भी चरित्र विशेषण के रुप में अभीर शब्द का उच्चारण पुराणों में बार बार किया गया है।

गोपाभीरयादवा एकैव वंशजातीनाम् त्रतये। विशेषणा: वृत्तिभिश्च प्रवृत्तिभिर्वंशानां प्रकारा:सन्ति।
 अर्थ : गोप, अहीर , यादव ये सब एक ही वंश के सजातीय है। ये इनकी वृत्ति, जीवन जीने कि शैली और प्रवित्ति के अनुसार एक ही वंश के लोगों के विभिन्न विशेषण हैं।

विदित हो कभी इक्ष्वाकु वंश के किसी भी राजा के लिए अभीर शब्द पुराणों में विशेषण के रूप में भी नहीं प्रयोग किया गया है।

ब्राह्मणों में भी अहीर होते हैं!

“Garg distinguishes a Brahmin community who use the Abhira name and are found in the present-day states of Maharashtra and Gujarat. That usage, he says, is because that division of Brahmins were priests to the ancient Abhira tribe.” from wikipedia तो क्या ब्राह्मण यादव जाति से संबद्ध हैं? हो भी सकते हैं और नहीं भी | 

क्यों कि अत्रि गोत्र से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति अहीर / अभीर ही है। कौरव, पांडव, कृष्ण आदि सभी अहीर थे किन्तु कृष्ण अहीर के साथ यादव भी थे क्योंकी वे यदु के वंशज थे। परन्तु कौरव पांडव अहीर होने के साथ पौरव भी थे क्योंकि वे पुरू के वंशज थे।

Wikipedia का यादव पेज

Wikipedia का यादव पेज पर यही लिखा गया है कि अहीर/ आभीर से यादव उत्पन्न हुए हैं परन्तु लोग पढ़कर समझ ही नहीं पाते| अहीर एक खनिज है जिससे यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा, आनव आदि तत्वों का जन्म हुआ है।

सम्राट सहस्त्रबाहु अर्जुन के लिए अहीर शब्द का उपयोग पद्मपुराण में

सम्राट सहस्त्रबाहु अर्जुन के लिए अहीर शब्द का उपयोग

सहस्त्रबाहु को अहीर कहा जाना इस श्लोक के प्रभाव को कम कर देता । आहुक वंशात समुद्भूता आभीरा इति प्रकीर्तिता। (शक्ति संगम तंत्र, पृष्ठ 164) जिसमें ये कहा जा रहा कि अहुक के वंशज अहीर हुए। जबकि कार्तवीर्यार्जुन आहुक के पूर्वज थे।

भागवत में भी वसुदेव ने आभीर पति नन्द को अपना भाई कहकर संबोधित किया है व श्रीक़ृष्ण ने नन्द को मथुरा से विदा करते समय गोकुलवासियों को संदेश देते हुये उपनन्द, वृषभान आदि अहीरों को अपना सजातीय कह कर संबोधित किया है।

पुराणों में राजपूत का अर्थ

क्षत्रात् करण कन्यायां राजपुत्रो बभूव ह |
राजपुत्र्यां तु करणादागरिति प्रकीर्तित: ||१०३|

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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में राजपुत्र (राजपूत)जाति की उत्पत्ति हुई है ; और राजपुत्र जाति की कन्या और करण पुरुष से आगरी जाति की उत्पत्ति हुई ||१०३|
ब्रह्मवैवर्तपुराण दशवाँ अध्याय |

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पुराणों में ये सन्दर्भ है जैसे राजा के पुत्र होने से हम राजपुत्र तो हो सकते हैं
और राजकुमार ही राजा की वैध सन्तानें मानी जाती थीं
यदु का वंश सदीयों से पश्चिमी एशिया में शासन करता रहा ‘परन्तु भारतीय पुरोहितों ने भले ही यदु को क्षत्रिय वर्ण में समाहित ‘न किया हो तो भी हम स्वयं को राजा यदु की सन्तति मानने के कारण से राजपुत्र या राजकुमार मानते हैं।
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‘परन्तु बात राजपूत समाज की बात आती है तो हम राजपूत इस लिए नहीं बन सकते क्यों कि राजपूत शब्द ही पञ्चम- षष्ठम सदी की पैदाइश है ।
और यह शब्द राजपुत्र या राजकुमार की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत को पुराणों में करणी जाति की कन्या से उत्पन्न राजा की अवैध सन्तान माना गया है ।

इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिनकी स्‍मृति में राजपूतों ने करणी सेना का गठन कर लिया है ।
करणी एक चारण कन्या थी
और चारण और भाट जनजातियाँ ही बहुतायत से राजपूत हो गये हैं ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे –
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शूद्रायां क्षत्रियादुभ: क्रूरकर्मो प्रजायते ।
शास्त्रविद्यासु कुशल संग्रामे कुशलो भवेत् ।

तथा वृत्या सजीवैद्य शूद्र धर्मां प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद : ।

हिन्दी अनुवाद:-👇

क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है ।
यह भयानक शस्त्र-विद्या और रण में चतुर और शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र-वृत्ति से अपनी जीविका चलाने वाला होता है ।
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण 26 )

दूसरे ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार वर्णन है जो हम पूर्व में बता चुके हैं ।👇

करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।

और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति भी है ।
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।

इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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राजपूत्र क्षत्रिय का शुद्धत्तम मानक नहीं है
ये आपने पौराणिक सन्दर्भों से जाना |

ऐसा हो सकता है यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा, आनव अहिरो में यादव सबसे अधिक शिक्षित रहें हों जिससे वे अपनी प्राचीन विरासतों को सहेजने में सफल रहे। संभवतः इनका माध्यम गीत रहें होंगे क्योंकी यादव अपने पूर्वजों की चरित्र को बिरहा आदि गीतों में अधिकतर गाते रहते हैं जो इनके इतिहास सहेजने का एक जरिया/ माध्यम रहा हो। आज यदुवंश के अलावा अहीर शब्द का विरासत नागवंशी लोगो के पास है जो अत्रि गोत्र से ही संबंधित राजा नहुष के पुत्रों के वंशज ही है पुराणों में एक कथा है जिसमें नहुष ऋषियों के श्राप से सर्प हो जाते हैं और वहां से नागवंशी अहिरो की उत्पत्ति होती है।

अहीर (आभीर) वंश के राजा, सरदार व कुलीन प्रशासक इस लेख में सभी अहीर राजाओं के बारे में लिखा गया है। जिस में यादव, पौरव, नागवंशी, यवन, मलेक्षा, आनव अहीर हो सकते हैं।

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