सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

नवी सदी में तुर्कों और पठानों का ख़िताब था ”ठाकुर” ‘ताक्वुर’ (Tekvur)




नवी सदी में तुर्कों और पठानों का ख़िताब था ”ठाकुर” ‘ताक्वुर’ (Tekvur)
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तुर्कों और पठानों का खिताब था तक्वुर हिन्दुस्तानी भाषाओं मे विशेषत: व्रज भाषा में आने पर यह ठक्कुर हो गया यद्यपि संस्कृत पुट देने के लिए इसे ठक्कुर रूप में प्रतिष्ठित किया गया 
 ठाकुर  शब्द 
नवी सदी में
तुर्कों और फिर पठानों का खिताब था |
ताक्वुर( tekvur)
जिसमें भारतीय भाषाओं में ठक्कुर और ठाकुर शब्द विकसित हुए  ।
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टेकफुर शब्द का जन्म खिताबुक सल्तनत  और प्रारम्भिक तुर्की काल में किया गया था ।

जिसका प्रयोग ” स्वतन्त्र या अर्ध-स्वतन्त्र अल्पसंख्यक व ईसाई शासकों या  फिर एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बीजान्टिन गवर्नरों के सन्दर्भ में बहुतायत से किया गया था ।

 
उत्पत्ति और अर्थ की दृष्टि से
इस शीर्षक (उपाधि) की उत्पत्ति अनिश्चित है।
परन्तु भाषा वैज्ञानिकों द्वारा यह सुझाव दिया गया है ; कि यह अरबी निकोर के माध्यम से बीजान्टिन शाही नाम (निकेफोरोस )से निकला है।

यद्यपि कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह आर्मेनियाई (टैगशेवर ) शब्द से नि:सृत हुआ है ।
जिसका अर्थ होता है “क्राउन-बेयरर (Crown bearer )” अर्थात् “राजमुकुट धारण करने वाला “

13 वीं शताब्दी में फारसी या तुर्की में लिखने वाले इतिहासकारों द्वारा यह शब्द और  इसके अन्य रूपों ( “tekvur ” tekur “tekir “ आदि  का प्रयोग “भू-खण्ड मालिकों के सन्दर्भ में शुरु किया गया था।

 
ताक्वुर (tekvur) रूप में यूरोपीय  इतिहास कार “बीजान्टिन लॉर्ड्स या गवर्नरों को दर्शाते हैं ।

बीजांटिन को ही इस्तांबुल के नाम से जाना गया
बीजान्टियम से संबंधित कांस्टेंटिनोपल का मूल नाम, आधुनिक इस्तांबुल) अनातोलिया ( बिथिनिया , पोंटस ) और थ्रेस में कस्बों और किलों के संरक्षक को ताक्वुर कहते थे ।
यह तुर्की सल्तनत का दौर था .
इतिहास में कस्न्निया के नाम से प्रसिद्ध तुर्की शहर इस्तांबुल के नाम से जाना जाता है |

यह देश का सबसे बड़ा शहर और उसकी सांस्कृतिक और आर्थिक राजधानी या केंद्र है।

तथा टेक्फुर शब्द प्रायः बीजान्टिन के सीमावर्ती युद्ध के नेताओं (सामन्तों ) तथा अक्रितई के कमाण्डरों को भी दर्शाता है ।

लेकिन बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को भी खुद को यह दर्शाता है 👇

 उदाहरण के लिए, पैलेस ऑफ तुर्की के नाम तेक्फुर सराय के मामले में कॉन्स्टेंटिनोपल में पोर्फिरोजेनिटस के मामले में भी यही शब्द प्रचलित है ।

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आर्मेनियन भाषा में ठाकुर शब्द का अस्तित्व निम्न रूपों में है 

թագաւոր
Old Armenian
Etymology-

Borrowed wholly from Parthian “tag(a)-bar (“king”, literally “crown bearing”)

(compare Persian تاجور‎ (tâjvar) and reshaped under the influence of the suffix -աւոր (-awor).

The first part is the source of Old Armenian թագ (tʿag), the second part goes back to Proto-Indo-European *bʰer-. Formation in Armenian as “թագ” (tʿag) + -աւոր (-awor) is unlikely.
Noun—

թագաւոր • 
(tʿagawor)= king ।
թագաւոր թագաւորաց ― tʿagawor टैगॉर tʿagaworacʿ ।
― the king of kings (Emperor) सम्राट
թագաւոր հայոց ― tʿagawor hayocʿ ― the king of Armenia
 (आरमेेनिया का राजा)

կեցցէ՛ թագաւոր ― kecʿcʿḗ tʿagawor ― long live the king ! God save the king!

टेगेवुर शब्द राजा या मखिया के तौर पर तुर्की साहित्य में निम्न प्रकार से प्रयुक्त है 👇 

թագաւոր կենդանեաց ― tʿagawor kendaneacʿ ― king of beasts (lion)

 
թագաւոր թռչնոց ― tʿagawor tʿṙčʿnocʿ ― king of birds (eagle)

թագաւոր ծաղկանց ― tʿagawor całkancʿ#― king (queen) of flowers (rose)

թագաւոր իժ ― tʿagawor iž ― basilisk
թագաւորք ― tʿagaworkʿ ― certain hymns of the Armenian Church
թագաւոր կալ յումեքէ ի վերայ աշխարհի ուրուք

 ― tʿagawor kal yumekʿē i veray ašxarhi urukʿ ― to be made king of some country

թագաւոր առնել ― tʿagawor aṙnel ― to make a king, to cause to reign
Declension
i-a-type
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Synonyms
արքայ (arkʿay)
Derived terms.
Terms derived from թագաւոր (tʿagawor)

Related terms
թագ (tʿag)
թագուհի (tʿaguhi)
Descendants .
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कुछ यूरोपीय और मध्यएशियायी भाषाओं ठक्कुर शब्द निम्न प्रकार से है  👇

1- Armenian: թագավոր (tʿagavor)

2-Middle Armenian: թագւոր (tʿagwor)

3-Arabic: تكفور‎ (takfūr)

4-Old Catalan: tafur

5-Catalan: tafur

6-Old Portuguese: tafur, taful

7-Galician: tafur

8-Portuguese: taful

9-Old Spanish: tafur

10-Spanish: tahúr

11- Persian: تکفور‎ (takfur)

12-Turkish: tekfur

13- Armenian: թագվոր (tʿagvor)

14- Persian: تکور‎ (takvor)

15-Classical Syriac: ܬܟܘܘܪ‎ (takkāwōr)
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References–👇
Petrosean, H. Matatʿeay V. (1879),
“թագաւոր”, in Nor Baṙagirkʿ Hay-Angliarēn [New Dictionary Armenian–English], Venice: S. Lazarus Armenian Academy
Awetikʿean, G.; Siwrmēlean, X.; Awgerean, M. (1836–1837), “թագաւոր”, in Nor baṙgirkʿ haykazean lezui [New Dictionary of the Armenian Language] (in Old Armenian), Venice: S. Lazarus Armenian Academy
Ačaṙean, Hračʿeay (1971–1979),

 “թագ”, in Hayerēn armatakan baṙaran [Dictionary of Armenian Root Words] (in Armenian), 2nd edition, Yerevan: University Press
Godel, Robert (1975) An introduction to the study of classical Armenian, Wiesbaden: Dr. Ludwig Reichert Verlag, page Number 63….
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ताक्वुर = राजा
1⃣-पुरानी अर्मेनियाई भाषा में
ताक्वुर “tekvur” शब्द की व्युत्पत्ति देखें अनेक पश्चिमीय एशिया की भाषाओं में जैसे 
पार्थियन फारसी की उपशाखा में ” टैग ए -बार “tag(a)-bar (“king”, literally “crown bearing”)

( ताक्वुर शाब्दिक रूप से अर्थ “ताज पहनने वाला ” )
यह यहाँं पार्थियन से पूरी तरह से उधार लिया गया और प्रत्यय ( -ओवर ) के प्रभाव में पुनः बदल दिया गया है

अर्थात्‌ “टेकॉवर”
टेक ऑवर शब्द में पहला भाग पुरानी अर्मेनियाई भाषा में ताज ( ताग ) है ।

और, दूसरा भाग प्रोटो-इण्डो-यूरोपीय भाषा के बियर-(भृ ) पर वापस जाता है।
दौनों से मिलकर टेग्वुर रूप बनता है ...
ताज के रूप में अर्मेनियाई में गठित ( t’ag ) + -year ( -awor ) असंभव है।
नाम
राजा • ( तागॉवर )
राजा
राजा के राजा – तागावर( t’agaworac ) – राजाओं के राजा (सम्राट ) ।

अर्मेनिया के राजा – तागावर हायक ‘ – आर्मेनिया का राजा
उदाहरण वाक्य रूप में 
राजा रहेगा – “kec’c’ḗ t’agawor “-
जिसका अर्थ है "लंबे समय तक राजा रहते हैं"

 भगवान राजा को बचाओ!
long live the king! God save the king!

पशुओं का राजा – तागावर केंडानेक ‘ – जानवरों का राजा (शेर)

राजा पक्षी – t’agawor t’ṙč’noc ‘ – पक्षियों के राजा (ईगल)

राजा फूल – t’agawor całkanc ‘ – फूलों के राजा/ (रानी) (गुलाब)

कैरेबियन के राजा – t’agawor iž – बेसिलिस्क
राजाओं – t’agawork ‘ –

 आर्मेनियाई चर्च के कुछ भजन में इसका प्रयोग हुआ जैसे 
दुनिया भर में राजा – t’agawor kal yumek’ē i veray ašxarhi uruk ‘ – कुछ देश के राजा बनने के लिए।

राजा को लेने के लिए – राजा बनाने के लिए, राजा बनाने के लिए
अस्वीकरण
ia -type
समानार्थी शब्द
राजा ( arkayay )
व्युत्पन्न शब्द-
राजा ( t’agawor ) से ली गई शर्तें
संबंधित शब्द –
ताज ( ताग )
रानी ( तागुही )

Descendants–
1-अर्मेनियाई: राजा ( tagavor )

2-मध्य अर्मेनियाई: कौवा ( t’agwor )

3-अरबी: تكفور ( takfūr )

4-पुराना कैटलन: tafur

5-कातालान: tafur

6-पुरानी पुर्तगाली: ताफुर , ताफर

7-गैलिशियन: tafur

8-पुर्तगाली: taful

9-पुरानी स्पेनिश: tafur

10-स्पेनिश: tahúr

11-फारसी: تکفور ( takfur )

12-तुर्की: Tekfur

13-अर्मेनियाई: ताज ( t’agvor )

14-फारसी: تکور ( takvor )

15-क्लासिकल सिरिएक:
 ܬܘܘܘ ( takkawwōr )
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सन्दर्भित श्रोत-निम्न हैं 
पेट्रोसेन, एच। मतायत वी। (1879), ” राजा “, नोर नोरघगिरक में, हे-एंग्लियारन [ नया शब्दकोश अर्मेनियाई-अंग्रेज़ी ], वेनिस: एस लाजर अर्मेनियाई अकादमी
Awetik’ean, जी .; सिवरमेलेन, एक्स .; Awgerean, एम। (1836-1837), ” राजा “, नॉर नॉरफ़ॉक में, पुराने अर्मेनियाई, वेनिस में: एस लाजर अर्मेनियाई अकादमी..
Achaffianic, Hrač’eay (1 971-19 7 9), ” टैग “, Hayerēn armatakan baṙaran [ आर्मेनियाई रूट शब्द का शब्दकोश ]

दूसरा संस्करण, येरेवन। यूनिवर्सिटी प्रेस
गोडेल, रॉबर्ट (1 9 75) शास्त्रीय अर्मेनियाई , विस्बादेन के अध्ययन के लिए एक परिचय :
डॉ लुडविग रीइचेर वेरलाग की पुस्तक पेज 63 से उद्धृत
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(मॉड इस्तांबुल द्वारा सन्दर्भित तथ्य )💂
इसी प्रकार ( इब्न बीबी —जो एक फारसी इतिहासकार है और 13 वीं शताब्दी के दौरान रूम के सेल्जूक सल्तनत के इतिहास के लिए प्राथमिक स्रोत के लेखक के रूप में जाने जाते थे।

उन्होंने कोन्या में सुल्तानत के कुलपति के प्रमुख के रूप में कार्य किया और समकालीन घटनाओं पर इतिवृत्त तैयार किया ।

उनकी सबसे मशहूर किताब “एल-इवामिरुएल-अलियाये फिल-उमुरी’ल-अलायिये” है यह भी सिक्किशिया के अर्मेनियाई राजाओं को टेक्वुर (ठक्कुर) के रूप में सन्दर्भित करते हैं ।

जबकि वह और डेडे कॉर्कट महाकाव्य ट्रेबीज़ोंड के साम्राज्य के शासकों को ” दंजित के टेक्वुर ” के रूप में सन्दर्भित करता है ।

प्रारम्भिक तुर्क अवधि में, इस शब्द का इस्तेमाल किले और कस्बों के बीजान्टिन (इस्तांबुल)गवर्नर दोनों के लिए किया जाता था।

जिसके साथ तुर्क उत्तर-पश्चिमी अनातोलिया और थ्रेस में राज्य- विस्तार के दौरान लड़े थे,

लेकिन  इस शब्द का प्रयोग बीजान्टिन सम्राटों के लिए भी, मलिक (“राजा”) के साथ एक दूसरे के साथ और शायद ही कभी, फासिलीयस (बीजान्टिन शीर्षक बेसिलस का प्रतिपादन) के सन्दर्भों में ताक्वुर “tekvur” शब्द का  होता था ।

हसन क्लॉक(Çolak )सुझाव देता है कि यह उपयोग कम से कम वर्तमान राजनीतिक वास्तविकताओं और बीजान्टियम की गिरावट को प्रतिबिंबित करने के लिए एक जानबूझकर विकल्प के तौर पर था।

जो 1371-94 ईस्वी के बीच और फिर 1424 के बीच और 1453 में कॉन्स्टेंटिनोपल के पतन के कारण रंप बीजान्टिन राज्य एक सहायक “वासल उसमान” के लिए प्रयुक्त हुआ ।
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बीसवीं शताब्दी के तुर्क इतिहासकार एनवेरी कुछ हद तक अद्वितीय रूप से दक्षिणी ग्रीस के फ्रैंकिश शासकों और एजियन द्वीपों लोगों के लिए “टेकफुर” शब्द का प्रयोग करते हैं ।

 परन्तु भारतीय भाषाओं मे यह शब्द नौवीं सदी में तुर्कों के माध्यम से प्रवेश करता है 
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सन्दर्भ सूचिका:—-
^ ए बी सी डी Savvides 2000 , पीपी 413-414।
^ ए बी Çolak 2014 , पी। 9।
^ कोलक 2014 , पीपी। 13 एफ ..
^ कोलक 2014 , पी। 19।
^ कोलक 2014 , पी। 14।
स्रोत —-
कोलक, हसन (2014)। ” Tekfur , Fasiliyus और Kayser : ओटोमन दुनिया में बीजान्टिन इंपीरियल Titulature की अपमान, लापरवाही और स्वीकृति” ।
Hadjianastasis, Marios में। ओटोमन इमेजिनेशन के फ्रंटियर: रोड्स मर्फी के सम्मान में अध्ययन । BRILL। पीपी 5-28। आईएसबीएन 978 9 004280 9 15 ।
Savvides, एलेक्सियो (2000)। “टेकफुर” । इस्लाम का विश्वकोश, नया संस्करण, खंड एक्स: टी-यू । 
लीडेन और न्यूयॉर्क: ब्रिल। पीपी 413-414। आईएसबीएन 90-04-11211-1 ।
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विशेष रूप यह जानना आवश्यक है कि बीजान्टिन साम्राज्य क्या था ?

बीजान्टिन साम्राज्य जिसे पूर्वी रोमन साम्राज्य के रूप में भी जाना जाता है।

पूर्व में रोमन साम्राज्य की निरन्तरता अथवा सातत्य विलुप्तता प्राचीन काल और मध्य युग के दौरान भी जारी थी , जब इसकी राजधानी शहर “कॉन्स्टेंटिनोपल (आधुनिक “इस्तांबुल” था ।

जो बीजान्टियम के रूप में स्थापित किया गया था ।
तब आधुनिक इस्तांबुल , 5 वीं शताब्दी ईस्वी सन् में पश्चिमी रोमन साम्राज्य के विखण्डन और पतन से बच गया और सन् 1453 ईस्वी में तुर्क तथा तुर्की साम्राज्य गिरने तक एक अतिरिक्त हज़ार साल तक अस्तित्व में रहा।

इसके अधिकांश अस्तित्व के दौरान साम्राज्य सबसे शक्तिशाली था ; यह यूरोप में आर्थिक, सांस्कृतिक और सैन्य बल में प्रबल था ।

दोनों “बीजान्टिन साम्राज्य” और “पूर्वी रोमन साम्राज्य” इतिहास के अन्त के बाद बनाए गए ऐतिहासिक भौगोलिक शब्द हैं;

इसके नागरिकों ने अपने साम्राज्य को रोमन साम्राज्य के रूप में सन्दर्भित करना जारी रखा 

( ग्रीक : Βασιλεία τῶν Ῥωμαίων , tr। Basileia tôn Rhōmaiōn ; लैटिन : इंपीरियम रोमनम ), या रोमानिया ( Ῥωμανία ), और खुद को “रोमियों” के रूप में।
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अल -ए सालजूक ) ओघुज तुर्क सुन्नी मुस्लिम राजवंश था; 

जो धीरे-धीरे एक फारसी बन गया समाज और मध्ययुगीन पश्चिम और मध्य एशिया में तुर्क-फारसी परम्पराओं में योगदान दिया।

सेल्जूक्स ने सेल्जुक साम्राज्य और “सल्तनत ऑफ रूम “की स्थापना की , जो उनकी ऊंचाई पर अनातोलिया से ईरान के माध्यम से फैली थी और जो प्रथम क्रूसेड के लक्ष्य थे।

सेल्जुक हुकुमरानाओ की वंशगत नामावलि  कुछ इस प्रकार थी :–
Seljuq राजवंश
देश
Seljuk साम्राज्य
रूम के सल्तनत
स्थापित
10 वीं शताब्दी – सेल्जूक
टाइटल
सेल्जूक साम्राज्य के सुल्तान
रूम के सुल्तान
दमिश्क(सीरिया) के अमीर
Aleppo के Emir
विघटन
दमिश्क :
1104 – तख्तटेक ग्रेट सेल्जूक द्वारा बाकताश को हटा दिया गया था ।

1194 – तेखिश के साथ युद्ध में टोग्रुल 3 की मौत हो गई थी
रूम :
1307 – मेसूद द्वितीय की मृत्यु हो गई

सेल्जूक तुर्को का प्रारम्भिक इतिहास:—
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सेल्जूक्स ओघुज तुर्क की क्यनीक शाखा से निकल कर , जो 9 वीं शताब्दी में मुस्लिम दुनिया की परिधि पर रहते थे। 

अर्थात्‌ ईसा की नवीं सदी में सेल्जूक तुर्को ने इस्लाम कबूल कर लिया था ।
इस समय इस्लाम का प्रचार प्रसार करने के लिए तुर्कों की कुछ शाखाऐं भारत को भी गयीं 

कैस्पियन सागर के उत्तर में और अराल सागर अपने याबघु खगनेट में ओघज़ संघ की, तुर्कस्तान के कज़ाख स्टेप में है ।

10 वीं शताब्दी के दौरान, विभिन्न घटनाओं के कारण, ओघुज़ मुस्लिम शहरों के साथ निकट संपर्क में आये थे।

जब सेल्जूक कबीले के नेता सेल्जूक ओघुज के सर्वोच्च सरदार यबघू के साथ पतित हो रहे थे, तो उन्होंने टोकन-ओघुज के बड़े हिस्से से अपने कबीले को अलग कर दिया और निचले सीर दरिया के पश्चिमी तट पर शिविर लगाया ।
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सन् 9 85 ईस्वी के आसपास, सेल्जूकों का इस्लाम में धर्मांन्तरण हो गया।

यही समय भारत में तुर्को के प्रथम आक्रमण का था
जिसका आग़ाज सुबक्तगीन और इसके श्वसुर
अल्प तिगिन के द्वारा हुआ।

अल्पतिगीन  961 ईस्वी से 963 ईस्वी तक आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान के ग़ज़नी क्षेत्र का राजा रहा था।

तुर्क जाति का यह राजा पहले बुख़ारा और ख़ुरासान के सामानी साम्राज्य का एक सिपहसालार हुआ करता था जिसने उनसे अलग होकर ग़ज़नी की स्थानीय लाविक (Lawik) नामक शासक को हटाकर स्वयं सत्ता हथिया  ली। 

इस से उसने ग़ज़नवी साम्राज्य की स्थापना की
जो आगे चलकर उसके वंशजों द्वारा आमू दरिया से लेकर सिन्धु नदी क्षेत्र तक और दक्षिण में अरब सागर तक यह साम्राज्य का का विस्तार हुआ।

विदित हो कि तुर्की भाषाओं में ‘अल्प तिगिन’ का मतलब ‘बहादुर राजकुमार’ होता है।

यद्यपि यह बहादुर तो था परन्तु दोखे या छल से  इसके दामाद सुबक्तगीन ने गजनी को हथिया लिया।

अल्प तिगिन ख़ुरासान छोड़कर हिन्दू कुश पर्वतों को पार करके ग़ज़नी आ गया, जो उस ज़माने में ग़ज़ना के नाम से जाना जाता था।

वहाँ लवीक नामक एक राजा था, जो सम्भव है कुषाण वंश से सम्बन्ध रखता हो।

अल्प तिगिन ने अपने नेतृत्व में आये तुर्की सैनिकों के साथ उसे सत्ता-विहीन कर दिया और ग़ज़ना पर अपना राज्य स्थापित किया। 

ग़ज़ना से आगे उसने ज़ाबुल क्षेत्र पर भी क़ब्ज़ा कर लिया।

963 ईसवी सन् में अल्प तिगिन ने राजगद्दी अपने बेटे, इशाक, को दे दी ।

लेकिन वह 965 में मर गया। 

फिर अल्प तेगिन का एक दास बिलगे तिगिन 966-975 में राजसिंहासन पर बैठा।

उसके बाद ईस्वी सन् 975-977 काल में बोरी तिगिन और फिर  977 में अल्प तिगिन का दामाद सबुक तिगिन गद्दी पर बैठा, जिसने ग़ज़नवी साम्राज्य पर  997 ईस्वी सन तक राज किया।

सुबुक तिगिन अबु मंसूर सबक़तग़िन) ख़ोरासान के गज़नवी साम्राज्य का संस्थापक था और भारत पर अपने आक्रमणों के लिए प्रसिद्ध महमूद गज़नवी का पिता।
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11 वीं शताब्दी में सेल्जूक्स खुरासन प्रान्त में अपने पूर्वजों के घरों से मुख्य भूमि फारस में चले गए;
जहाँ उन्हें गजनाविद साम्राज्य का सामना करना पड़ा।

1025 में, ओघुज़ तुर्क के 40,000 परिवार कोकेशियान अल्बानिया के क्षेत्र में स्थानान्तरित हो गए और सेल्जूक्स ने सन् 1035 ईस्वी में नासा मैदानी इलाकों की लड़ाई में गजनाविदों को हराया।

तुघरील, चघरी और याबघू को गवर्नर, जमीन के अनुदान का प्रतीक मिला, और उन्हें देहकान (डैकन) का खिताब दिया गया।

दूसरे  तुर्की लोग उन्हें ताक्वुर tekvur भी कहते थे ।
यहीं से ठाकुर प्रतिष्ठा और सामन्तीय वर्चस्व के अर्थ में रूढ़ होता चला गया और मुगल काल तक यह जागीर दारों या भूखण्ड मालिकों का पर्याय बन गया .

सेल्जुक तुर्कों ने दंडानाकान की लड़ाई में एक गजनाविद सेना को हरा दिया, और 1050/51ईस्वी में तुघ्रिल द्वारा इस्फ़हान की सफल घेराबंदी के बाद,
उन्होंने बाद में एक साम्राज्य की स्थापना की जिसे बाद में ग्रेट सेल्जुक साम्राज्य कहा जाता है।

सेल्जूकों नें स्थानीय आबादी के साथ मिश्रित और निम्नलिखित दशकों में फारसी संस्कृति और फारसी भाषा को अपनाया।
बाद की अवधि —–
मुगलों ने भी फारसी को राजकाज की भाषा बनाया ..

फारस में पहुंचने के बाद, सेल्जूक्स ने फारसी संस्कृति को अपनाया और फारसी भाषा को सरकार की आधिकारिक भाषा के रूप में इस्तेमाल किया था .

और तुर्क-फारसी परम्परा के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें “तुर्किक शासकों द्वारा संरक्षित फारसी संस्कृति” शामिल है।

आज, उन्हें फारसी संस्कृति , कला , साहित्य और भाषा के महान संरक्षक के रूप में याद किया जाता है।

उन्हें पश्चिमी तुर्क के आंशिक पूर्वजों के रूप में माना जाता है ।

– वर्तमान में अजरबेजान गणराज्य के ऐतिहासिक निवासियों (ऐतिहासिक रूप से शिरवन और अरान के रूप में इन्हें जाना जाता है),

अज़रबैजान (ऐतिहासिक अज़रबैजान, जिसे ईरानी अज़रबैजान भी कहा जाता है ),
जहाँ कभी ईरानी पूर्वजों का आवास था (आर्य्यन ए वीजो )के नाम से उसी से अजर बेजान शब्द िकसित हुआ ...

यह अव तुर्कमेनिस्तान , और तुर्की की सीमाओं में परिबद्ध है ।
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(भारतीय धरा में ठाकुर उपाधि का प्रचलन का समय)
तुर्की के इतिहास को तुर्क जाति के इतिहास और उससे पूर्व के इतिहास के दो अध्यायों में देखा जा सकता है।

सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ भारत के सीमा वर्ती क्षेत्रों में आकर बसीं।

इससे पहले यहाँ से पश्चिम में देव संस्कृति के अनुयायी आर्य (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का बसाव रहा था।

तुर्की में ईसा के लगभग 7500 वर्ष पहले मानव बसाव के प्रमाण यहाँ मिले हैं।

हिट्टी साम्राज्य की स्थापना 1900-1300 ईसा पूर्व में हुई थी।
1250 ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूत कर दिया और आसपास के इलाकों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।

1200 ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन आरम्भ हो गया।

छठी सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस ने अनातोलिया ( तुर्की ) पर अपना अधिकार जमा लिया। 
इसके करीब 200 वर्षों के पश्चात 334 इस्वी पूर्व में सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया।

बाद में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था।
ईसापूर्व 130 इस्वी सन् में अनातोलिया भी  रोमन साम्राज्य का अंग बना।

ईसा के पचास वर्ष बाद संत पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया ।

और सन् 113 में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।

इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई।

छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर 100 वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
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अरबों के बाद तुकों ने भारत पर आक्रमण किया।
तुर्क चीन की उत्तरीपश्चिमी
सीमाओं पर निवास करने वाली एक असभ्य एवं बर्बर जन-जाति थी।
उनका उद्देश्य एक विशाल मुस्लिम साम्राज्य स्थापित करना तो था ही परन्तु यहाँं के -जाति-व्यवस्था मूलक असमानताओं से लाभ उठाना भी था ।
जैसा आज भी हिन्दुस्तान में राजनीति की रीढ़ जातिवाद है या कहें की राजनीति के पहिए की धुरी है .

अलप्तगीन नामक एक तुर्क जिसका वर्णन हम पूर्व में कर चुके हैं ।
उस सरदार ने गजनी में स्वतन्त्र तुर्क राज्य की स्थापना की।

यह समय सन 977 ईस्वी का था।
अलप्तगीन के दामाद सुबुक्तगीन ने गजनी पर अपना अधिकार कर लिया और भारत पर आक्रमण
करने वाला प्रथम मुस्लिम तुर्की आक्रान्ता था ।

मुहम्मद बिन कासिम 712 ईस्वी में अरबी का पहला आक्रान्ता था जबकि भारत पर
आक्रमण करने वाला प्रथम तुर्की मुसलमान सुबुक्तगीन ही था।

सुबुक्तगीन से अपने राज्य को होने वाले भावी खतरे का पूर्वानुमान लगाते हुए दूरदर्शी हिन्दूशाही वंश
के शासक जयपाल ने दो बार उस पर आक्रमण भी किया परन्तु हार गया ।
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सुबुक तिगिन (फ़ारसी – ابو منصور سبکتگین, अबु मंसूर सबक़तग़िन) ख़ोरासान के गज़नवी साम्राज्य का स्थापक था और भारत पर अपने आक्रमणों के लिए प्रसिद्ध महमूद गज़नवी का पिता था ।

सुबुकतिगिन ने अलप्तिगिन के दो परवर्ती शासकों के अन्दर भी एक ग़ुलाम के रूप में शासन का कार्यभार देखा और सन् 977 में वो ग़ज़नी का सुल्तान बना।

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ये ही भारत में ताक्वुर “tekvur” उपाधि के धारक थे ।
यह ताक्वुर tekvur ही भारतीय भाषाओं में ठक्कुर तथा ठाकुर बनकर प्रतिष्ठित हो गया ।

भारतीय इतिहास में ठक्कुर उपाधि धारण करने वाले वही सामन्त हुए जो तुर्को के अधीन माण्डलिकों के रूप में थे ।
राजपूत काल में राजपूतों ने कुछ को छोड़कर मुगलों और तुर्कों से सामाजिक सम्बन्धो की स्थापना भी की अकबर की अनेक राजपूत  समाज से पत्नीयाँ थी ...

तुर्को और मुगलों की भारत में आव्रजन मध्य-एशिया से ही हुआ परन्तु ये सजातिय बन्धु बान्धव ही  थे | 
जैसे गूजर ,जाट और अहीरों का पारस्परिक सम्बन्ध है ...

मुगल लोग  मंगोल के अधिवासी थे –जो मंगोलिया है यह पूर्व और मध्य एशिया में एक भूमि से घिरा देश है।

इसकी सीमाएं उत्तर में रूस, दक्षिण, पूर्वी और पश्चिमी में चीन से मिलती हैं।

यद्यपि, मंगोलिया की सीमा कज़ाख़िस्तान से नहीं मिलती, लेकिन इसकी सबसे पश्चिमी छोर कज़ाख़िस्तान के पूर्वी सिरे से कुछ दूर जरूर है.

आधुनिक तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के मध्य बसे हुए थे।
जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए।

लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर (तुर्की) में बसे।

नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती चलाती गई।

ये सल्जूक़ तुर्क थे —जो वस्तुत: ईरानी संस्कृति तथा भाषाओं का जीवन में व्यवहार करते थे ।

अत: तुर्की भाषाओं पर ईरानी भाषाओं का प्रभाव स्पष्टत: परिलक्षित होता है |

सल्जूक़ तुर्क स्वयं को पठान तथा तक्वुर खिताबो से नवाज़ा करते थे ।
इसके साथ ही ये सेल्जुक तुर्क कैस्पियन सागर के पश्चिम में व मध्य तुर्की के कोन्या में स्थापित हो गए।

ईस्वी सन् 1071 में उन लोगों ने बिजेंटाइनों को परास्त कर एशिया माइनर पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
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मध्य टर्की में कोन्या को राजधानी बनाकर उन्होंने उस्मान ख़लीफा के नैतृत्व में इस्लामी संस्कृति को भी अपनाया।

इस साम्राज्य को ‘रुम सल्तनत’ कहते हैं क्योकि इस इलाके़ में पहले इस्तांबुल के रोमन शासकों का ही अधिकार था ।

जिसके नाम पर इस इलाक़े को जलालुद्दीन रुमी कहते थे।

 यह वही समय था जब तुर्की के मध्य (और धीरे-धीरे उत्तर) भाग में ईसाई रोमनों (और ग्रीकों) का प्रभाव घटता जा रहा था ।

इसी क्रम में यूरोपीयों का उनके पवित्र ईसाई भूमि, अर्थात्‌ येरुशलम और आसपास के क्षेत्रों से सम्पर्क टूट गया –
क्योकि अब यहाँ ईसाईयों के बदले मुस्लिम शासकों का राज हो गया था।

अपने ईसाई तीर्थ स्थानों की यात्रा का मार्ग सुनिश्चित करने और कई अन्य कारणों की वजह से यूरोप में पोप ने धर्म युद्धों का आह्वान किया।

यूरोप से आए धर्म योद्धाओं ने यहाँ पूर्वी तुर्की पर अधिकार बनाए रखा पर पश्चिमी भाग में सल्जूक़ों का साम्राज्य बना रहा।

लेकिन इनके दरबार में फ़ारसी भाषा और संस्कृति को बहुत महत्व दिया गया; अपने सामानान्तर के पूर्वी सम्राटों, गज़नी के शासकों की तरह, इन्होंने भी तुर्क शासन में फ़ारसी भाषा को दरबार की भाषा बनाया।

सल्जूक़ दरबार में ही सबसे बड़े सूफ़ी कवि रूमी (जन्म 1215) को आश्रय मिला और उस दौरान लिखी शाइरी को भारत में सूफ़ीवाद की श्रेष्ठ रचना माना जाता है।

सन् 1220 के दशक से मंगोलों ने अपना ध्यान इधर की तरफ़ लगाया।

कई मंगोलों के आक्रमण से उनके संगठन को बहुत क्षति पहुँची और 1243 ईस्वी में साम्राज्य को मंगोलों ने जीत लिया।

यद्यपि इसके शासक ईस्वी 1308 तक शासन करते रहे परन्तु साम्राज्य बिखर गया था।
इतना ऐतिहासिक विवरण भारत में ठाकुर शब्द की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही किया गया 

भारतीय इतिहास मे यही तक्वुर बाद में ठाकुर शब्द के रूप  पूज्य सोलवी सदी में पुष्टिमार्ग के द्वारा वल्लभाचार्य के सम्प्रदाय में कृष्ण की प्रतिमा के लिए रूढ़ होगया मन्दिर के लिए हवेली शब्द का भी प्रयोग हुआ था  ।

 आज ठाकुर शब्द का प्रयोग मिथिला के ब्राह्मणों की एक उपाधि  है ।
अन्य अर्थ :-  देवता  ठाकुर  इति ख्यातः ।
 यथा “श्रीदामनामगोपालः श्रीमान् सुन्दरटक्कुरः ।। ” इत्यनन्तसंहिता ।।
देवपतिमायां, 

२ द्विजोपाधिभेदे च । 
यथा गोविन्द- ठक्कुरः काव्यप्रदीपकर्त्ता । 

३ देवतायाञ्च । “सुदामा नाम गोपालः श्रीमान् सुन्दरठक्वुरः” अनन्तसंहिता । 
इति वाचस्पत्ये ठकारादिशब्दार्थसङ्कलनम् ।

भारतीय इतिहास में ठाकुर शब्द का प्रयोग कालान्तरण में इन अर्थों में होने लगा 
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नाइयों के लिए एक संबोधन (जैसे—आओ भाई नाऊ ठाकुर)।
देवमूर्ति।
अन्य अर्थ 
मालिक, स्वामी।
किसी भूखंड का स्वामी।
मुखिया।
नायक, सरदार।
पूज्य व्यक्ति।
परमेश्वर
वास्तव में यह एक सम्मान सूचक उपाधि ही रहा है 
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ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति
में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में भी प्रचलित रहा ।

पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है।

इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।

और यही कबीले पख़्तून हैं।
परन्तु भारत के प्रान्त  राजस्थान में जादौन चारण बन्जारों तथा बाद में राजपूतों के रूप में भी पहचाने गये ।
यद्यपि अलवर गजेटियर में इन्हें दशवें  मथुरा के अहीर शासक ब्रह्मपाल के वंशज बताया गया है 


भारत में हर्षवर्धन के बाद की स्थिति सामाजिक रूप से विकृतिपूर्ण रही।

इस युग मे भारत अनेक छोटे छोटे राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे।

इनकी ये लड़ाईयाँ आपसी शौर्य प्रदर्शन तथा अहं तुष्टि करण के लिए तो थी परन्तु ये सुन्दर स्त्रीयों को पीने के लिए भी युद्ध-रत होते थे ।

इस समय के शासक राजपूत कहलाते थे ;
राजस्थान इनका मुख्य स्थान था 
तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है।
पुराणों तथा स्मृतियों में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः 
(ब्रह्मवैवर्त पुराण 1/10/110)

धीवर की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष व राजपुत्र की स्त्री से हुई...
राजपूत क्षत्रिय होते तो संतान धीवर नही क्षत्रिय ही होनी चाहिए थी अतः स्पष्ट है कि राजपूत क्षत्रिय का पर्याय नही👇


इस पुराण में लिखा है कि किसी क्षत्रिय राजा ने जब करणी जाति की वर्ण संकर स्त्री के साथ गुप्त संभोग या व्यभिचार किया तो राजपुत्र उत्पन्न हुआ और जब राजपुत्र स्त्री में करण जाति के पुरुष से जो सन्तान उत्पन्न हुई वह आगरी हुई !

पाराशर स्मृति में भी यही बात लिखी है 

राजपूत एक वर्णसंकर जाति का नाम।
 पुराणों में इस जाति की उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और करणी वर्ण संकर जाति की स्त्री से लिखी है। 

राजपुत्र वर्णसङ्करभेदे (राजपुत)
 “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति पराशरः स्मृति 
इसमें लिखा कि वैश्य से अम्बष्ठ कन्या में उत्पन्न सन्तान राजपूत है 

वास्तव में राजपूत अनेक जातियों का संघ है ..
राजपूत शब्द  तुर्की और मुगल कालीन है 

तुर्को का आगमन हो चुका था ।
तब राजपूतों का एक विशेषण और हुआ ठाकुर ।

ये कुछ रूढ़ि वादी पुरोहितों या ब्राह्मणों के द्वारा क्षत्रिय बनाकर बौद्धों के विरुद्ध खड़े किए गये ।

ये तुर्को के अधीन माण्डलिकों के रूप में उनके अनुसार
शासन करने से ताक्वुर (“tekvur”) उपाधि धारण करने लगे ।

ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।

बाद में इन्हीं कबीलों से मुगल साम्राज्य का उदय ईस्वी सन्1526 में शुरू हुआ।

मुगल वंश का संस्थापक बाबर था, अधिकतर मुगल शासक तुर्क और सुन्नी मुसलमान थे।

मुगल शासन 17 वीं शताब्दी के आखिर में और 18 वीं शताब्दी की शुरुआत तक चला और 19 वीं शताब्दी के मध्य में समाप्त हुआ।

और फिर रानी विक्टोरिया के माध्यम से भारत पर -परोक्ष रूप से अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो गया।

तब भी ठाकुर उपाधि धारक अंग्रेजों की हुकूमत के चाटुकार नुमाइन्दे होते थे ।
और यही राज पूत कहलाते थे ।
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अंग्रेज इतिहास वेत्ता कर्नल टॉड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार “राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।

जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ;
और अपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप “
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी –कर्मकाण्ड मूलक धार्मिक  व्यवस्थाऐं  कायम की “
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” ‘पृथ्वीराज चौहान सभा में रहने वाले चारण-कवि चन्द्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।

इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं “

अठारहवीं सदी की रचना भविष्य पुराण में इनकी उत्पत्ति- का वर्णन इस प्रकार है !
यद्यपि पृथ्वीराज चौहान भी गुर्जर कबीेले से थे  और बहुत से राजपूतों का उदय भी गुर्जर , जाट और अहीरों से ही हुआ ...अठारहवीं सदी की रचना भविष्य पुराण में इनकी उत्पत्ति- का वर्णन इस प्रकार है !

यह पुराण ब्रह्म, मध्यम, प्रतिसर्ग तथा उत्तर- इन 4 प्रमुख पर्वों में विभक्त है-।

 ऐैतिहासिक घटनाओं का वर्णन प्रतिसर्ग पर्व में वर्णित है।
—जो बड़ी चालाकी से भविष्य की घटना के रूप में निर्धारित कर दी परन्तु इसे पुराण में अनेक शब्द व्युत्पत्ति मूलक रूप में  प्रक्षिप्त ही हैं । _____________________________________

जैसे पृथ्वीराज चौहान को चापिहान लिखना जैसे चौहान शब्द चापिहान का ही तद्भव रूप हो !
 परन्तु मूर्ख लेखक को शब्द व्युत्पत्ति का कोई ऐैतिहासिक ज्ञान नहीं था । _______________________________________

वस्तुत: चौहान शब्द मंगोलिया के (चाउ-हुन ) श्वेत-हूण का तद्भव रूप है । _____________________________________
डॉ. डी. आर. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जर मानकर उनका संबंध श्वेत-हूणों के स्थापित करके विदेशी वंशीय उत्पत्ति को और बल देते हैं।

परन्तु गुर्ज्जरः अहीरों की शाखा के रूप में गौश्चर का तद्भव रूप है 
🌺ये गुर्जर भी गौश्चर: अथवा गोप ही थे जो कृष्ण से सम्बद्ध हैं ..
ब्रज के गूजरों का अहीरों से जातीय सम्बन्ध है 
राजस्थान में गूजरों में भारवाड होते भी  हैं 
 चैतन्य सम्प्रदाय के रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का संग्रह किया  
श्री श्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका के नाम से  ...
परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा कि 
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"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।

भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ 
(शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
इसी क्रम गोस्वामी जी लिखते हैं कि अहीर और गूजर सजातीय यादव बन्धु हैं |

पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
अन्ये८नुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है ।
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।

आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।

भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
 इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।
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किञ्चिद् आभीर तो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले  तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं  ये प्राय: हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं ।

शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में  वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।
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जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है 
खैर ये तो भारतीय पुराोणों में विरोधाभासी स्थितियाँ द्वेष वश लिखी गयीं है ..
राजपूतों की उत्पत्ति 
की पुष्टि में वे डॉ. डी. आर. भण्डारकर बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है।

इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान भी गुर्जर थे, क्योंकि राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है।

परन्तु डॉ. डी. आर. भण्डारकर की यह भ्रान्ति मूलक अवधारणा है । 
जॉर्जिया गुर्जिस्तान की शाखा के रूप में जो गुर्ज्जरः हैं ।

वह हूण हो सकते हैं परन्तु गुर्ज्जरों की एक शाखा अहीरों के रूप में स्वयं को नन्द का वंशज मानती है ।

चौहान शब्द भारतीय इतिहास में चौथी शताब्दी ईस्वी में उद्भासित होता है ।

श्वेत-हूण, चाहल (यूरोपीय इतिहास का भारतीय रूप चोल संस्करण चालुक्य जो बाद में सौलंकी बन गया ) सौलंकी गूजर जाट और कहीं अहीरों से सम्बद्ध हैं ..
तथा इनके वंशजों के रूप में
इन लोगों की कुछ शखाऐं  कैस्पियन समुद्र के पूर्व में बसे हुए थे।

यही वह अवधि थी जब चाहल (चोल) गजनी क्षेत्र में ज़बुलिस्तान (अफगानिस्तानी प्रान्त) पर कब्जा कर रहे थे।

यह वंश मध्य एशियाई है और मूल निवासीयों के साथ अन्तःक्रिया के कारण यह भारतीय, ईरानी और तुर्की भी है।
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शताब्दी ईस्वी में श्वेत-हूण, चाहल्स (चालुक्य) (यूरोपीय इतिहास का चोल संस्करण) के वंशज, । 

हालांकि, नाम चोल को एक और कबीले द्वारा साझा किया जाता है और अंतर मिश्रण होता है;।

 इसलिए वंश मिश्रित है। 
चाहल (चोल) नाम लेबनान, इज़राइल और मध्य एशियाई देशों के मूल निवासीयों के रूप में पाया जा जाता है।

अरबी में चौहान شوهان shwhan – उपनाम है ।
मुसलमान भी चौहान शब्द का प्रयोग करते हैं।
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 Chauhan Surname User-submission: Descandants of White Huns, the Chahals (Chols of European history) — in the fourth century AD, were settled on the east of Caspian sea. This was the period when Chahals were occupying Zabulistan in the Ghazni area. Ancestry is Central Asian and due to interbreeding with natives it is Indian, Iranian, and Turkish. Chauhan Surname Meaning Submit Information on This Surname for a Chance to Win a $100 Genealogy DNA Test DNA test information User-submitted Reference Descandants of White Huns, the Chahals (Chols of European history) in the fourth century AD, were settled on the east of Caspian sea. This was the period when Chahals were occupying Zabulistan in the Ghazni area. Ancestry is Central Asian and due to interbreeding with natives it is Indian, Iranian, and Turkish. However, the name Chahal is shared by another clan and inter mixing has occurred; so ancestry is mixed. The name Chahal can be found native to Lebanon, Israel and Central Asian countries. – hsingh1861 Phonetically Similar Names SurnameSimilarityIncidencePrevalency Chaouhan93307/ Chauahan93253/ Chauhaan93243/ Chauhana9394/ Chauhanu9360/ Chauehan9346/ Chauohan9335/ Chauhann9321/ Chaauhan9318/ Chauhani9315/ SHOW ALL SIMILAR SURNAMES Chauhan Surname Transliterations TransliterationICU LatinPercentage of Incidence Chauhan in Bengali চৌহানcauhana- Chauhan in Hindi चौहानcauhana98.92 SHOW ALL TRANSLITERATIONS Chauhan in Marathi चौहानcauhana77.03 चौहाणcauhana16.16 छगनchagana1.99 चोहानcohana1.23 SHOW ALL TRANSLITERATIONS Chauhan in Tibetan ཅུ་ཝཱན།chuwen66.67 ཅུ་ཧན།chuhen33.33 Chauhan in Oriya େଚୗହାନecahana60.75 େଚୗହାନ୍ecahan14.52 ଚଉହାନca’uhana6.99 େଚୖହାନecahana4.84 େଚୖାହାନecaahana3.23 େଚୗହାଣecahana2.15 େଚୗହନecahana2.15 େଚୗାନecaana2.15 SHOW ALL TRANSLITERATIONS Chauhan in Arabic شوهان(shwhan-सौहान ) The surname statistics are still in development, sign up for information on more maps and data SUBSCRIBE By signing up to the mailing list you will only receive emails specifically about surname reference on Forebears and your information will not be distributed to 3rd parties. Footnotes Surname distribution statistics are generated from a global sample of 4 billion people Rank: Surnames are ranked by incidence using the ordinal ranking method; the surname that occurs the most is assigned a rank of 1; surnames that occur less frequently receive an incremented rank; if two or more surnames occur the same number of times they are assigned the same rank and successive rank is incremented by the total preceeding surnames Similar: Surnames listed in the “Similar Surnames” section are phonetically similar and may not have any relation to Chauhan WEBSITE INFORMATION AboutContactCopyrightPrivacyCredits RESOURCES Forenames Surnames Genealogical Resources England & Wales Guide © Forebears 2012-2018 _______________________________________

 प्राचीन चीन का सबसे लंबा स्थायी राजवंश चौ ( चाउ) ने चीन को लगभग 1027 से 221 ई०पू० तक शासन किया।
यह चीनी इतिहास में सबसे लंबा राजवंश था और उस समय जब प्राचीन चीनी संस्कृति का विकास हुआ था।

 चौ चाउ (Châu) राजवंश ने दूसरे चीनी राजवंश, शांग (शुंग) का पालन किया।

मूल रूप से पादरी, चौउ ने प्रशासनिक नौकरशाही के साथ परिवारों पर आधारित एक (प्रोटो-) सामन्ती सामाजिक संगठन स्थापित किया।
उन्होंने एक मध्यम वर्ग भी विकसित किया।

 हालांकि शुरुआत में एक विकेन्द्रीकृत आदिवासी प्रणाली, चाउ समय के साथ केंद्रीकृत हो गया।

अब ये हूण तो थे ही .. विदित हो की सुंग एक चीनी वंशगत विशेषण भी है और पुष्य-मित्र सुंग कालीन शुल्क तथा भारद्वाज ब्राह्मणों का भी ….
हुन उत्पत्ति के सन्दर्भों में इतिहास कारों का यह मत भी मान्य है कि अपने जीवन में यौद्धिक क्रियाओं में हूण रोमन साम्राज्य तक पहुंचें और बाद में एकजुट हुए —
हूण भयानक योद्धा थे जिन्होंने चौथी और 5 वीं शताब्दी में यूरोप और रोमन साम्राज्य के अधिकांश क्षेत्रों को आतंकित किया था।
वे प्रभावशाली घुड़सवार थे जो सबसे आश्चर्यजनक सैन्य उपलब्धियों के लिए जाने जाते थे।

जैसे ही उन्होंने यूरोपीय महाद्वीप में जाने वाले रास्ते को लूट लिया, हुनों ने क्रूर, अदम्य यौद्धिक प्रतिष्ठा हासिल की। 

हुन उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में मतभेद है ।
 कोई भी नहीं जानता कि हूण कहाँ से आये थे।
कुछ विद्वानों का मानना ​​है कि वे नामांकित (Xiongnu) लोगों से निकले हैं जिन्होंने 318 बीसी ( ई०पू०) में ऐैतिहासिक रिकॉर्ड में प्रवेश किया था। 

और क्यून राजवंश के दौरान और बाद में हान राजवंश के दौरान चीन को भी आतंकित किया।
चीन की महान दीवार को शक्तिशाली (Xiongnu ) लोगो के खिलाफ सुरक्षा में मदद के लिए बनाया गया था।
अन्य इतिहासकारों का मानना ​​है कि हूण कजाकिस्तान से या एशिया में कहीं और से पैदा हुए थे।
चौथी शताब्दी से पहले, हूण ने सरदारों के नेतृत्व में छोटे समूहों में यात्रा की और उन्हें कोई व्यक्तिगत राजा या नेता नहीं पता था।
वे 370 एडी के आसपास दक्षिण-पूर्वी यूरोप पहुंचे और 70 से अधिक वर्षों तक एक के बाद एक क्षेत्र पर विजय प्राप्त की।

हूण घुड़सवार स्वामी (सरदार) थे जिन्होंने कथित तौर पर घोड़ों को सम्मानित किया और कभी-कभी घुड़सवारी पर शयन।

उन्होंने तीन साल की उम्र में घुड़सवारी सीखा और पौराणिक कथाओं के अनुसार, उनके चेहरे को एक युवा उम्र में एक तलवार से पीटा जाता था ।

ताकि उन्हें दर्द सहन करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। अधिकांश हुन सैनिकों ने बस कपड़े पहने लेकिन राजनीतिक रूप से सोने, चांदी और कीमती पत्थरों में छिद्रित सड़कों और रकाबों के साथ अपने कदमों को बाहर निकाला।

उन्होंने पशुधन उठाया लेकिन किसान नहीं थे और शायद ही कभी एक क्षेत्र में बस गए थे। वे भूमि को शिकारी-समूह के रूप में, जंगली खेल पर भोजन और जड़ें और जड़ी बूटी इकट्ठा करते थे।
हूणों ने युद्ध के लिए एक अनूठा दृष्टिकोण लिया। 

वे युद्ध के मैदान पर तेजी से और तेजी से चले गए और प्रतीत होने वाले विवाद में लड़े, जिसने अपने दुश्मनों को भ्रमित कर दिया और उन्हें दौड़ में रखा।

 वे विशेषज्ञ तीरंदाज थे जिन्होंने अनुभवी बर्च, हड्डी और गोंद से बने रिफ्लेक्स क्रोस वॉ ( नावक धनुष) का उपयोग किया था।

भविष्य पुराण में आबू पूर्वत पर अग्निवंशीय राजपूतों की उत्पत्ति का परिकल्पना है । _________________________________________
 भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग पर्व अध्याय सात में महाराज विक्रमादित्य के चरित्र-उपक्रम में सूत जी और शौनक के संवाद का भूमिका करण किया गया है कि – सूतजी बोले -चित्र-कूट ( आज का बुन्देलखण्ड और बघेलखण्ड ) पर्वत के समीप वर्ती क्षेत्र में परिहार नामक एक राजा हुआ ;
उसने रमणीय कलिञ्जर नगर में अपने पराक्रम से बौद्धों को परास्त कर पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त की तभी राजपूताना रे क्षेत्र ( दिल्ली नगर) में चपहानि (चौहान)नामक राजा हुआ ;
उसने अति सुन्दर नगर अजमेर में सुख-पूर्वक राज्य लिया । उसके राज्य में चारों वर्ण स्थित थे।
आनर्त (गुजरात ) प्रदेश में शुल्क नामक राजा हुआ उसने द्वारिका को राजधानी बनाया ।
शौनकजी ने कहा —– हे

 महाभाग ! अब आप अग्नि वंशी राजाओं का वर्णन करें ।
सूतजी बोले— ब्राह्मणों इस समय मैं योग- निद्रा के वशीभूत हो गया हूँ ; अब आप लोग भी भगवान का ध्यान करें ।

 अब मैं अल्प विश्राम करुँगा।
यह सुन कर ब्राह्मण- भगवान विष्णु के ध्यान में लीन हो गये । दीर्घ अन्तराल के पश्चात् ध्यान से उठकर सूत जी पुन: बोले

 —-महामुने कलियुग के सैंतील़स सौ दश वर्षों व्यतीत होने पर प्रमर ( परमार) नामक राजा ने राज्य करना प्रारम्भ किया ।

उन्हें महामद ( मोहम्मद) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । 

तब तीन हजार वर्ष पूर्ण होने पर कलियुग का आगमन हुआ तब शकों के विनाश के लिए और आर्य धर्म की वृद्ध के लिए वे ही शिव-दृष्टि गुह्यकों की निवास भूमि कैलास से शंकर की आज्ञा पाकर पृथ्वी पर विक्रमादित्य नाम से प्रसिद्ध हुए ।

अम्बावती नगरी में आकर विक्रमादित्य ने बत्तीस मूर्तियों से समन्वित किया ।

भगवती पार्वती के द्वारा प्रेषित एक वैताल उसकी रक्षा में सदैव तत्पर रहता था इन चारों क्षत्रियों ने ब्राह्मणों के निर्देश पर अशोक के वंशजों को अपने अधीन कर भारत वर्ष के सभी बौद्धों को नष्ट कर दिया ।

अवन्त में परमार —प्रमर राजा हुए उसने चार योजन लम्बी अम्बावती नगरी में स्थित होकर सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया । 

अध्याय सोलहवाँ समाप्त हुआ !! गीताप्रेस गोरख पुर संस्करण कल्याण भविष्य पुराण अंक पृष्ठ संख्या–244  _____________________________________

 भविष्य पुराण में वर्णन है कि बिम्बसार के पुत्र अशोक के समय कान्यकुब्ज (कन्नौज) देश का एक ब्राह्मण आबू पर्वत पर चला गया और वहाँ उसने विधि-पूर्वक ब्रह्महोत्र सम्पन्न किया तभी वेद मन्त्रों के प्रभाव से यज्ञ कुण्ड से चार क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई । 

1- प्रमर (परमार) सामवेदी मन्त्र प्रभाव से ,

2- चपहानि ( कृष्ण यजुर्वेदी त्रिवेदी मन्त्र प्रभाव से

3- गहरवार (शुक्ल यजुर्वेदी और

4–परिहारक अथर्वेदी क्षत्रिय थे ।

ये सब एरावत कुलों में उत्पन्न हाथीयों पर आरूढ (सवार) थे ।

अग्निकुण्ड का सिद्धान्त लेखक चंद्रवरदाई ने अपने ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो में राजपूतों की उत्पत्ति का अग्नि कुण्ड का सिद्धान्त प्रतिपादित किया इनकी उत्पत्ति के बारे में उन्होंने बताया कि माउंट आबू पर गुरु वशिष्ट का आश्रम था।

गुरु वशिष्ठ जब यज्ञ करते थे तब कुछ दैत्यो द्वारा उस यज्ञ को असफल कर दिया जाता था!

तथा उस यज्ञ में अनावश्यक वस्तुओं को डाल दिया जाता था अग्निकुण्ड का सिद्धान्त का यथार्थ—- वशिष्ठ के यज्ञ में असुर उत्पात करते हैं जिसके कारण यज्ञ दूषित हो जाता था गुरु वशिष्ठ ने इस समस्या से निजात पाने के लिए अग्निकुंड अग्नि से तीन योद्धाओं को प्रकट किया इन योद्धाओं में परमार, गुर्जर, प्रतिहार, तथा चालुक्य( सोलंकी) पैदा हुए, लेकिन समस्या का निराकरण नहीं हो पाया इस प्रकार गुरु वशिष्ठ ने पुनः एक बार यज्ञ किया और उस यज्ञ में एक वीर योद्धा अग्नि में प्रकट किया यही अन्तिम योद्धा ,चौहान, कहलाया इस प्रकार चन्द्रवरदाई ने राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बताई ।

जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं
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सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी ।

संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के संदर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है ।
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पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।

पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।

–जो सातवीं सदी में प्रवेश करते हैं भारतीय धरा पर
ये संस्कृत भाषा में प्राप्त जो ठक्कुर शब्द है वह निश्चित रूप से मध्य कालीन विवरण हैं ।

अनन्त-संहिता बाद की है ; इसमें विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को भी “ठाकुर “कह दिया हैं

और उनके मन्दिर को “हवेली” दौनों शब्द पैण्ट-कमी़ज की तरह साथ साथ हैं।

उच्च वर्ग के क्षत्रिय आदि की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकली है।
किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठाकुर या ठक्कुर कहा जा सकता है।

बशर्ते वह जमींदार हो ।
दुराग्रहों से आज राजपूताने की कुछ जन-जाति स्वयं को ठाकुर के रूप में जातिगत सम्बोधन दे रहे हैं ।

वस्तुत यह पूर्वाग्रह इस लिए भी है कि वे तुर्को और मुगलों के संक्रमण में रहे हैं ।

वस्तुत ठाकुर उपाधि तुर्को की “उतरन” है ।
जिसे कुछ दम्भवादी राजपूत करने लगे ।
अब दुर्भाग्य तो यह है कि यादवों नायक कृष्ण को भी यह तुर्को की यह “उतरन”
 पहनादी गयी
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विशेषकर श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय के अनुयायी भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी सम्बोधन देते हैं।

इसी सम्प्रदाय ने उन्हें कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।

यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए कभी नहीं हुआ है।

क्यों कि ठक्कुर शब्द संस्कृत का है ही नहीं ।
वास्तव में कृष्ण के ठक्कुर सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना ही प्रबल रही कि ” कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
अत: इन्हें ठाकुर सम्बोधन दिया जाय।

अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव
तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप (आभीर) ही कहा है ।

और गोप यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण है।

जबकि (यदु+अण् )= यादव यदोर्गोत्रापत्यमण्
अर्थात्‌ यदु की सन्तानें यादव हैं ।
आभीर इनकी वीरता प्रवृत्ति-मूलक विशेषण है।
गोष: –जो लौकिक भाषाओं में घोष हो गया ‘वह भी गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण है।

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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। 
(हरिवंश पुराण )

अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
जब वेदमाता गायत्री को अहीर कन्या अथवा गोप की कन्या कह कर वर्णित किया गया है ।

तब फिर स्वयं को आधुनिक समय में गो- संरक्षक घोषित करने वाले रूढ़िवादी इन अहीरों को हीन और हेय क्यों मानते हैं ?
गोप वस्तुत गाय का पालने वाले प्रथम चरावाहे थे ।

पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड तथा अग्निपुराण एवं नान्दी उपपुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में ये तथ्य किंवदन्तियों के रूप में वर्णित हैं ।

यदु का गोप रूप में वर्णन वैदिक सन्दर्भों में पूर्व ही प्राप्त होता है !

क्यों कि ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में यदु और तुर्वशु को गोप ही कहा है । देखें— निम्न पक्ति ऋचाऐं ऋग्वेद की 
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उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।। ऋग्वेद 10/62/10
वे गोप ! गो-पालन की शक्ति के द्वारा ( गोप: ईनसा सन्धि संक्रमण से वर्त्स्य नकार का मूर्धन्य णकार होने से गोपरीणसा रूप सिद्ध होता है ) समृद्धशाली हो गये हैं । वे यदु और तुर्वशु हैं ।

अर्थात् यदु और तुर्वशु –जो दास अथवा असुर संस्कृति के अनुयायी हैं
वे गोप गायों से घिरे हुए हैं ।

–जो मुस्कराहट पूर्ण दृष्टि वाले हैं हम उन दौनों की प्रशंसा करते हैं ।। ऋग्वेद 10/62/10
इतना ही नहीं कृष्ण का वर्णन ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के 96 वें–सूक्त में चरावाहे के रूप में है :- 
 ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के 96 में सूक्त की ऋचा संख्या (13,14,15,) पर कृष्ण को असुर या अदेव कहा है ।

‘वह भी एक चरावाहे के रूप में
तथा और इन्द्र के साथ कृष्ण के युद्ध का वर्णन है !
जो यमुना नदी (अंशुमती) के तलहटी मे गायें चराते हैं
देखें—

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आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।।

ऋग्वेद 8/96/13,14,15,
कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।

वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।

यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द प्रारम्भिक सन्दर्भों में “पूज्य व प्राण-तत्व” से युक्त वरुण , अग्नि आदि शक्तियों का वाचक है।

वेदों का प्रणयन काल यद्यपि ई०पू० 1500 तक सिद्ध हो चुका है ।

तथा ऋग्वेद की दशम मण्डल तो पाणिनीय कालीन है

परन्तु इस मण्डल की यह ऋचा पाणिनि से पूर्व काल की है ।

क्यों कि इसमें द्वितीय विभक्ति द्विवचन का रूप –जो कर्म कारक में है “दासा ” है जबकि पाणिनीय व्याकरण में “दासौ” रूप है ।

कृष्ण को गोप अथवा चरावाहे के रूप में सिद्ध करने के लिए ऋग्वेद के अष्टम मण्डल की 96 वें सूक्त की चौदहवीं ऋचा का निम्नलिखित
क्रिया पद विचारणीय है ।
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चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या न भो न कृष्णं
यमुना नदी की उपत्यका में गायों को चराने वाले हे कृष्ण !
पौराणिक ग्रन्थों में अहीरों को यद्यपि द्वेष वश नकारात्मक रूप में वर्णित किया गया है ।

 तो भी
वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या बताया है ।
पद्म-पुराण में वर्णन मिलता है कि..
जब गायत्री के अद्भुत तेज व सौम्य स्वरूप को देखकर इन्द्र उस कन्या के अलौकिक प्रभाव से अभिभूत हो गया
तो उसने इसकी सूचना ब्रह्मा को दी –

पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री के रूप में वर्णित किया गया है । देखें– निम्न श्लोक 
_________________________________________

” स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या ,
शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
_________________________________________
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।
इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ?
_________________________________________
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो ,
अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
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वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्यायवाची है ।

यहा गायत्री के लिये गोप अहीर दोनो प्रयोग किया गया है
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें ????
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” अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४
अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं l
गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की कथा सुनने और गायन करने से मनुष्यों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं ; एेसा वर्णन है ।
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक में पृष्ठ संख्या 368 पर वर्णित है????
अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं —जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी संबोधन देते हैं।
इसी सम्प्रदाय ने उन्हें कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए कभी नहीं हुआ है। भ्रान्ति वश बेवजह राजपूत समुदाय के लोग कृष्ण को ठाकुर बिरादरी से सम्बद्ध कर रहे हैं ।
वल्लभाचार्य एक रूढि वादी ब्राह्मण थे । 

और राजपूतों के श्रद्धेय भी थे ।
परन्तु इस सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना प्रबल रही कि ” कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
इसलिए ठाकुर जी का सम्बोधन दिया जाने लगा ।
वस्तुत जादौन भाटी अथवा अन्य राज-पूत —जो स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय कहते हैं ।

अपने आप को गोपों से सम्बद्ध नहीं करते हैं ।
 परन्तु कृष्ण तो गोप ही थे ।
अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप (आभीर) कहा !

वसुदेव और नन्द दौनों को परस्पर सजातीय वृष्णि वंशी यादव बताया है ।
देवमीढ़ के दो रानीयाँ मादिष्या तथा वैश्यवर्णा नाम की थी ।
मादिषा के शूरसेन और वैश्यवर्णा के पर्जन्य हुए ।
शूरसेन के वसुदेव तथा पर्जन्य के नन्द हुए
नन्द नौ भाई थे —
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धरानन्द ,ध्रुवनन्द ,उपनन्द ,अभिनन्द सुनन्द
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कर्मानन्द धर्मानन्द नन्द तथा वल्लभ ।
हरिवंश पुराण में वसुदेव को भी गोप कहकर सम्बोधित किया है ।
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“इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत !
गावां कारणत्वज्ञ सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति !!
अर्थात् हे विष्णु वरुण के द्वारा कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दिया गया ..
क्योंकि उन्होंने वरुण की गायों का अपहरण किया था..
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हरिवंश पुराण–(ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय)
ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण पृष्ठ संख्या १३३—-
और गोप का अर्थ आभीर होता है 
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परन्तु यादवों को कभी भी कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय स्वीकार न करने का कारण
यही है, कि ब्राह्मण समाज ने प्राचीन काल में ही यदु को शुद्र कहा क्यों की उन्होंने अपने पिता को अपना पौरूष ना दिया और शाप के कारण उन्होंने पृथक यदुवंश / यादव राज्य स्थापित किया |
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में देखें—
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे—-
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अन्यत्र ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के तृतीय सूक्त के छठे श्लोक में दास शब्द का प्रयोग शम्बर असुर के लिए हुआ है ।
जो कोलों का नैतृत्व करने वाला है !
————————————————————
उत् दासं कौलितरं बृहत: पर्वतात् अधि आवहन इन्द्र: शम्बरम् ।।
————————————————————६६-६
ऋग्वेद-२ /३ /६
दास शब्द इस सूक्त में एक वचन रूप में है ।
और ६२वें सूक्त में द्विवचन रूप में है ।
वैदिक व्याकरण में “दासा “
लौकिक संस्कृत भाषा में “दासौ” रूप में मान्य है ।
ईरानी आर्यों ने ” दास ” शब्द का उच्चारण “दाहे “
रूप में किया है — ईरानी आर्यों की भाषा में दाहे का अर्थ –श्रेष्ठ तथा कुशल होता है ।
अर्थात् दक्ष–
—————————————————————–
यदुवंशी कृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में–
यह कहना पूर्ण रूपेण मिथ्या व विरोधाभासी ही है
कि …….
“वर्णानां ब्राह्मणोsहम् “
( श्रीमद्भगवद् गीता षष्ठम् अध्याय विभूति-पाद)
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{“चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:” }
(श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय ४/३)
क्योंकि कृष्ण यदु वंश के होने से स्वयं ही शूद्र अथवा दास थे ।
फिर वह व्यक्ति समाज की पक्ष-पात पूर्ण इस वर्ण व्यवस्था का समर्थन क्यों करेगा ! …
गीता में वर्णित बाते दार्शिनिक रूप में तो कृष्ण का दर्शन (ज्ञान) हो सकता है ।
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परन्तु {“वर्णानां ब्राह्मणोsहम् “}
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अथवा{ चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:}
जैसे तथ्य उनके मुखार-बिन्दु से नि:सृत नहीं हो सकते हैं
गुण कर्म स्वभाव पर वर्ण व्यवस्था का निर्माण कभी नहीं हुआ…
ये तो केवल एक आडम्बरीय आदर्श है ।
केवल जन्म या जाति के आधार पर ही हुआ ..
स्मृतियों का विधान था , कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ।
_____________________________________
और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है।
क्योंकि कौन दोष-पूर्ण अंगों वाली गाय को छोड़कर,
शील वती गधी को दुहेगा …
“दु:शीलोSपि द्विज पूजिये न शूद्रो विजितेन्द्रीय:
क: परीत्ख्य दुष्टांगा दुहेत् शीलवतीं खरीम् ।।१९२।।. ( पराशर स्मृति )
————————————–
हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप कहा है ।
हरिवंश पुराण में वसुदेव का गोप रूप में वर्णन
_______________________________
“इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत !
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वम् एष्यति ।।२२।।
अर्थात् जल के अधिपति वरुण के द्वारा ऐसे वचनों को सुनकर अर्थात् कश्यप के विषय में सब कुछ जानकर वरुण ने कश्यप को शाप दे दिया , कि कश्यप ने अपने तेज के प्रभाव से उन गायों का अपहरण किया है ।

उसी अपराध के प्रभाव से व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करें अर्थात् गोपत्व को प्राप्त हों ।
__________________________________________
श्रीमद्भागवत् गीता का वह मूल श्लोकः
जिसमें कृष्ण के स्पष्ट शब्दों में यादव कहा गया है ।
न कि ठाकुर देखें— सभी जिज्ञासु "
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि।।
(श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 11. श्लोक 41)।।
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क्यों कि मैं आपकी महिमा को न जाननेका अपराधी रहा हूँ? इसलिये –, आपकी महिमा को अर्थात् आप ईश्वरके इस विश्वरूपको न जाननेवाले मुझ मूढ़द्वारा विपरीत बुद्धिसे आपको मित्रसमान अवस्थावाला समझकर जो अपमानपूर्वक हठ से इत्यादि वचन कहे गये हैं –हे कृष्ण हे यादव हे सखे — तव इदं महिमानम् अजानता इस पाठमें इदम् शब्द नपुंसक लिङ्ग है और महिमानम् शब्द पुंल्लिङ्ग है?

अतः इनका आपसमें व्याधिकरण्यसे विशेष्य विशेषणभावसम्बन्ध है।
यदि इदम् की जगह इमम् पाठ हो तो सामानाधिकरण्यसे सम्बन्ध हो सकता है।
इसके सिवा प्रमादसे यानी विक्षिप्तचित्त होने के कारण अथवा प्रणयसे भी — स्नेहनिमित्तक विश्वासका नाम प्रणय है ?
उसके कारण भी मैंने जो कुछ कहा है।
उसे क्षमा ही करें !

आपकी महिमा और स्वरूपको न जानते हुए मेरे सखा हैं ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे हठपूर्वक (बिना सोचे समझे) हे कृष्ण हे यादव हे सखे इस प्रकार जो कुछ कहा है और हे अच्युत हँसी दिल्लगी में?
चलते फिरते? सोते जागते? उठते बैठते ?

खाते पीते समयमें अकेले अथवा उन सखाओं? कुटुम्बियों आदिके सामने मेरे द्वारा आपका जो कुछ तिरस्कार किया गया है?

यद्यपि यादवों का व्यवसाय गत विशेषण गोप / गौश्चर:
भी लोक में प्रसिद्ध रहा और स्वभाव ( प्रवृत्ति-मूलक) विशेषण आभीर अथवा अहीर सर्व विदित ही है ।


ठाकुर और राजपूत शब्द का सम्बन्ध 

राजपूतों के साथ ठाकुर शब्द का इतिहास मे उदय 
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राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे भारतीय इतिहास में कई मत प्रचलित हैं।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि राजपूत शब्द संस्कृत भाषा के राजपुत्र शब्द का अपभ्रंश है;

जो राजपुत्र शब्द हिन्दू धर्म ग्रंथों में कई स्थानों पर देखने को मिल जायेगा लेकिन वह जातिसूचक के रूप में नही होता अपितु किसी भी राजा पुत्र के संबोधन सूचक शब्द के रूप में होता है|

 

लेकिन पुराणों का अध्ययन करने पर हम प्राप्त करते हैं कि पुराणों में एक स्थान पर राजपुत्र जातिसूचक शब्द के रूप में आया है जो कि इस प्रकार है-👇
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः प्रथम (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १०/श्लोकः ११०)
भावार्थ:- क्षत्रिय से करण-कन्या  (वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या में उत्पन्न)  राजपुत्र हुआ;  और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ।

राजपुत्र के क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या के गर्भ में उत्पन्न होने का वर्णन  संस्कृत कोश शब्दकपद्रुम में भी आया है-
जो पुराणों को सन्दर्भित करता है 👇
 "करणकन्यायां क्षत्त्रियाज्जातश्च राजपुत्रो८भवत  । इति पुराणम् ॥"
अर्थात:- क्षत्रिय पुरुष द्वारा करण कन्या में उत्पन्न संतान राजपुत्र हुआ ...

इतिहासकार 
जाॅन मोनियर विलियम  ने भी लिखा-
A rajpoot,the son of a vaisya by an ambashtha or the son of Kshatriya by a karan...

(A Sanskrit English Dictionary:Monier-Williams, page no. 873

शब्दकल्पद्रुम व वाचस्पत्य् संस्कृत कोशों  में भी एक अन्य स्थान पर भी राजपुत्र शब्द जातिसूचक शब्द के रूप में आया है; जो कि इस प्रकार है:-

 ( वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां
राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति पराशरः स्मृति  ।

अर्थात:- वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।

राजपूत सभा के अध्यक्ष श्री गिर्राज सिंह लोटवाड़ा जी के अनुसार राजपूत शब्द रजपूत शब्द से बना है जिसका अर्थ वे मिट्टी (रज ) का पुत्र बतलाते हैं...
जो कि असंगत ही है 

विस्तृत  अध्ययन करने के बाद ये रजपूत शब्द हमें स्कन्द पुराण में देखने को मिलता है जो कि इस प्रकार है-
____________________________
 शूद्रायां क्षत्रियादुग्रः क्रूरकर्मा प्रजायते।।४७।।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्रामकुशलो भवेत्।
तया वृत्त्या स जीवेद्यो शूद्रधर्मा प्रजायते।।४८।।

रजपूत इति ख्यातो युद्धकर्मविशारदः।

(स्कन्दपुराण- आदिरहस्य सह्याद्रि खण्ड- व्यास देव व सनत्कुमार का संकर जाति विषयक संवाद नामक २६ वाँ अध्याय-श्लोक संख्या ४७,४८,४९)
__________________________
अनुवाद :-क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत क्षत्रिय शब्द का पर्यायवाची है ...
लेकिन अमरकोष में राजपूत और क्षत्रिय शब्द को परस्पर पर्यायवाची नही बतलाया है;
स्वयं देखें-
__________________________
मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो क्षत्रियो बाहुजो विराट्।
राजा राट् पार्थिवक्ष्मा भृन्नृपभूपमहीक्षित:।।
(संस्कृत अमरकोष)
अर्थात:-मूर्धाभिषिक्त,राजन्य,
बाहुज,
क्षत्रिय,विराट्,राजा,राट्,पार्थिव,
क्ष्माभृत्, नृप, भूप,और महिक्षित ये क्षत्रिय शब्द के पर्यायवाची हैं।

इसमें 'राजपूत' शब्द या तदर्थक कोई अन्य शब्द नहीं आया है।

पुराणों के निम्न श्लोक को भी पढ़ें-
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सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति।
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः।। ९९|

(ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः प्रथम (ब्रह्मखण्डः)/अध्यायः १०/श्लोकः ९९

भावार्थ:-क्षत्रिय के बीज  (वीर्य )से राजपुत्र की स्त्री में तीवर (धींवर) उत्पन्न हुआ।
वह भी व्याभिचार दोष के कारण पतित कहलाया।

यदि क्षत्रिय और राजपूत परस्पर पर्यायवाची शब्द होते तो क्षत्रिय पुरुष और राजपूत स्त्री की संतान राजपूत या क्षत्रिय ही होती न कि तीवर या धीवर ?
यह भी विचारणीय तथ्य है 

इसके अतिरिक्त शब्दकल्पद्रुम में राजपुत्र को वर्णसंकर जाति का लिखा है जबकि क्षत्रिय वर्णसंकर नही...
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Manohar Laxman  varadpande(1987). History of Indian theatre: classical theatre. Abhinav Publication. Page number 290👇
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"The word kshatriya is not synonyms with Rajput."
अर्थात- क्षत्रिय शब्द राजपूत का पर्यायवाची नही है।

कालका रंजन जी ने अपनी पुस्तक "प्राचीन भारताचा इतिहास के हर्षोत्तर उत्तर भारत नामक विषय के पृष्ठ संख्या ३३४ पर पर  " राजपूत और वैदिक क्षत्रिय भिन्न भिन्न बतलाये हैं।

वैदिक क्षत्रियों द्वारा पशुपालन करने का उल्लेख धर्म ग्रंथों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है जबकि राजपूत जाति पशुपालन को अत्यंत घृणित दृष्टि से देखती है और पशुपालन के प्रति संकुचित मानसिकता रखती है...
ये गोपों को हीन और अपने से तुच्छ समझते हैं ...

महाभारत में जरासंध पुत्र सहदेव द्वारा गाय भैंस ' भेड़ और बकरी को युधिष्ठिर को भेंट करने का उल्लेख मिलता है; 
युधिष्ठिर जो कि एक क्षत्रिय थे पशु पालन करते होंगे तभी कोई उन्हें भेंट में पशु देता है 
जैसा कि महाभारत में वर्णन है 
👇
सहदेव उवाच। 
इमे रत्नानि भूरिणी गोजाविमहिषादयः।।

हस्तिनोऽश्वाश्च गोविन्द वासांसि विविधानि च।

दीयतां धर्मराजाय यथा वा मन्यते भवान्।।

(महाभारतम्/ सभापर्व(जरासन्ध वध पर्व)/
अध्याय: २४/ श्लोक: ४१)
अर्थात् 
सहदेव ने कहा- प्रभो ! ये गाय, भैंस, भेड़-बकरे आदि पशु, बहुत से रत्न, हाथी-घोड़े और नाना प्रकार के वस्त्र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं।
 गोविन्द! ये सब वस्तुएँ धर्मराज युधिष्ठिर को दीजिये अथवा आपकी जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझ सेवक के लिये आदेश दीजिये।।

इसके अतिरिक्त कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में क्षत्रिय को भेड़ पालने का निर्देश दिया गया  है 🌺

कुछ विद्वानों के अनुसार राजपूत एक संघ है 
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है-

Brajadulal Chattopadhyay 1994; page number 60-
प्रारंभिक मध्ययुगीन साहित्य बताता है कि इस नवगठित राजपूतो में कई जातियों के लोग शामिल थे।

 भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानों ने इस ऐतिहासिक तथ्य का पूर्णतः पता लगा लिया है कि जिस काल में इस जाति का भारत के राजनैतिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ था,उस काल में यह एक नवागन्तुक जाति समझती जाती थी।
बंगाल के प्रकाण्ड विद्वान स्वर्गीय श्री रमेशचंद्र दत्त महोदय अपने Civilization in Ancient India "
नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ के भाग-२ , पृष्ठ १६४ में लिखते है-
आठवीं शताब्दी के पूर्व राजपूत जाति हिंदू आर्य नहीं समझी जाती थी। 

देश के साहित्य तथा विदेशी पर्यटकों के भ्रमण वृत्तान्तों में उनके नाम का उल्लेख  नहीं मिलता और ना ही उनकी किसी पूर्व संस्कृति के चिन्ह देखने में आते हैं। 

डॉक्टर एच० एच० विल्सन् ने यह निर्णय किया है कि ये(राजपूत)उन शक आदि विदेशियों के वंशधर है जो विक्रमादित्य से पहले,सदियों तक भारत में झुंड के झुंड आये थे।

 विदेशी जातियां शीघ्र ही हिंदू बन गयी। वे जातियाँ अथवा कुटुम्ब जो शासक पद को प्राप्त करने में सफल हुए हिंदुओं की राज्यशासन पद्धति में क्षत्रिय बनकर तुरन्त प्रवेश कर गए।
तत्कालीन पुरोहितों की भी इनपर वरद हस्त छाया बनी रही 
जो बौद्धों और जैनों के विरुद्ध थे 

इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर के परिहार तथा अनेक अन्य राजपूत जातियों का विकास उन बर्बर विदेशियों से हुआ है, जिनकी बाढ़ पाँचवीं तथा छठी शताब्दीयों में भारत में आई थी।

इतिहास-विशारद एडम स्मिथ ने अपने "Early History of India " including Alexander's Compaigns, second edition,page no. 303 and 304 में लिखते हैं-

आगे दक्षिण की ओर से बहुत सी आदिम अनार्य जातियों ने भी हिन्दू बनकर यही सामाजिक उन्नति प्राप्त कर ली,जिसके प्रभाव से सूर्य और चंद्र के साथ सम्बन्ध  जोड़ने वाली वंशावलियों से सुसज्जित होकर गोड़, भर,खरवार आदि क्रमशः चन्देल, राठौर,गहरवार तथा अन्य राजपूत जातियाँ बनकर निकल पड़े।
यद्यपि चंदेल नामकरण भौगोलिक है चेदि राज्य से सम्बद्ध है मध्य प्रदेश में ये घोष यादव अहीरों का भी वाचक है 
परन्तु बाल्मीकि समाज के सलोग भी चंदेल लिखते हैं जो चाण्डाल से सम्बद्ध जान पड़ता है 

इसके अतिरिक्त स्मिथ  अपने ग्रन्थ "
The Oxford student's history of India, Eighth Edition, page number 91 and 92 में लिखा हैं-

उदाहरण के लिए अवध की प्रसिद्ध राजपूत जातियों   को लीजिये। ये भरों के समीपी सम्बन्धी अथवा अन्य इन्हीं की संतान हैं।

आजकल इन भरों की प्रतिनिधि, अति ही नीची श्रेणी की एक बहुसंख्यक जाति है।

जस्टिस कैम्पबेल  ने लिखा है कि प्राचीन-काल की रीति-रिवाजों (आर्यों की) को मानने वाले जाट, नवीन हिन्दू-धर्म के रिवाजों को मानने पर राजपूत हैं। 

जाटों से राजपूत बने हैं न कि राजपूतों से जाट।
गूजर जाट और अहीर पुरानी समान कबीलाई जातियाँ है जिनका वर्चस्व मध्य तथा पश्चिमीय एशिया जाॅर्जिया/ आयबेरिया  अजरबेजान दाहिस्तान ईरान तथ मध्य अफ्रिका तक रहा है ..

 प्रसिद्ध इतिहासकार  शूरवीर पँवार ने भी अपने एक शोध आलेख में गुर्जरों को राजपूतों का पूर्वज माना है।
जैसे की पृथ्वी राज चौहान के पूर्वज गुर्जर थे 

 ईरानी इतिहास कार मुहम्मद कासिम फरिश्ता ने भी राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में फ़ारसी में अपनी पुस्तक
 "तारीक ऐ फरिश्ता" में अपना मत प्रस्तुत किया है इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया
 L.t. Colonel John Briggs ने जो मद्रास आर्मी में थे, किताब के पहले वॉल्यूम
 ( Volume - 1 ) के Introductory Chapter On The Hindoos में पेज नंबर 15 पर लिखा है-

The origion of Rajpoots is thus related The rajas not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves who although not legitimate successors to the throne ,were Rajpoots or the children of the rajas 

अर्थात:- राजा अपनी पत्नियों से संतुष्ट नहीं थे, उनकी महिला दासियो द्वारा अक्सर बच्चे होते थे, जो सिंहासन के लिए वैध उत्तराधिकारी नहीं थे,
 लेकिन इनको राजपूत या राजा के बच्चे या राज पुत्र कहा जाता था ।

प्रसिद्ध इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद जी ने अपनी पुस्तक
 "A Short History Of Muslim Rule In India" के पृष्ठ संखा 19 पर बताया है की राजपुताना में किसको बोला जाता है राजपूत-

"The word Rajput in comman paralance,in certain states of Rajputana is used to denote the illegitimate sons of a Ksatriya chief or a jagirdar.

अर्थात:-राजपुताना के कुछ राज्यों में आम बोल चाल में राजपूत शब्द का प्रयोग एक क्षत्रिय मुखिया या जागीरदार के नाजायज बेटों को सम्बोधित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।

विद्याधर महाजन जी ने अपनी पुस्तक "Ancient India" जो की 1960 से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाई जा रही है ,  के पेज 479 पर लिखा है:-
 The word Rajput is used in certain parts of Rajasthan to denote the illegitimate sons of a Kshatriya Chief ar Jagirdar."

अर्थात:- राजपूत शब्द राजस्थान के कुछ हिस्सों में एक क्षत्रिय प्रमुख या जागीरदार के नाजायज बेटों को निरूपित करने के लिए उपयोग किया जाता है।

History of Rise of Mohammadan power in India, volume 1, chapter 8

The Rajas, not satisfied with their wives, had frequently children by their female slaves, who, although not legitimate successors to the throne,were styled rajpoots, or the children of the rajas. The muslim Invaders took full advantage of this realy bad and immoral practice popular among indian kings, to find a good alley among hindoos and to also satisfy their own lust and appointed those son of kings as their Governors.
During mugal period this community became so powerful that they started abusing their own people motherland.

History of Rajsthan book "He was son of king but not from the queen."

राजस्थान का इतिहास भाग-1:-गोला का अर्थ दास अथवा गुलाम होता है।
 भीषण दुर्भिक्षों के कारण राजस्थान में गुलामों की उत्पत्ति हुई थी।
 इन अकालों के दिनों में हजारों की संख्या में मनुष्य बाजारों में दास बनाकर बेचे जाते थे।
 पहाड़ों पर रहने वाली पिंडारी और दूसरी जंगली जातियों के अत्याचार बहुत दिनों तक चलते रहे और उन्हीं जातियों के लोगों के द्वारा बाजारों में दासों की बिक्री होती थी, वे लोग असहाय राजपूतों को पकड़कर अपने यहाँ ले जाते थे और उसके बाद बाजारों में उनको बेच आते थे।

 इस प्रकार जो निर्धन और असहाय राजपूत खरीदे और बेचे जाते थे, उनकी संख्या राजस्थान में बहुत अधिक हो गयी थी और उन लोगों की जो संतान पैदा होती थी, वह गोला के नाम से प्रसिद्ध हुई। 

इन गुलाम राजपूतों को गोला और उनकी स्त्रियों तथा लड़कियों को गोली कहा जाता था। 

इन गोला लोगों में राजपूत, मुसलमान और अनेक दूसरी जातियों के लोग पाये जाते हैं।

 बाजारों में उन सबका क्रय और विक्रय होता है। 

बहुत से राजपूत सामन्त इन गोला लोगों की अच्छी लड़कियों को अपनी उपपत्नी बना लेते हैं और उनसे जो लड़के पैदा होते हैं, वे सामन्तों के राज्य में अच्छे पदों पर काम करने हेतु नियुक्त कर दिये जाते हैं।

 देवगढ़ का स्वर्गीय सामन्त जब उदयपुर राजधानी में आया करता था तो उसके साथ तीन सौ अश्वारोही गोला सैनिक आया करते थे। 

उन सैनिकों के बायें हाथ एक-एक साने का कडा होता था 

जैसा कि राजस्थान का इतिहास नामक पुस्तक में लिखा है कि इन्हें अच्छे पदों पर काम करने के हेतु नियुक्त किया जाता था और
ये जागीर या कुछ भूखण्डो के मलिक बन जाने से खुद को तक्वुर ए रियासत के रूप मे ठक्कुर कहते थे 
यद्यपि ठाकुर तुर्की भाषा का शब्द है ज नवी सदी में आया 

 history of Rise of Mohammadan"
 में भी लिखा कि मुगल काल में ये शक्तिशाली होने लगे तब इन्होंने सत्ता के लिए लड़ना प्रारम्भ कर दिया जैसा कि ऐतिहासिक ग्रंथो में ऐसे राजाओं के प्रमाण मिल जायेंगे जो जीवन भर सत्ता के लिए लड़ते रहे
जैसा कि कर्नल टॉड की किताब राजस्थान का इतिहास में कन्नौज और अनहिलवाडा के राजाओं ने सत्ता के लिए पृथ्वीराज चौहान को शक्तिहीन करने के लिए गजनी के शाहबुद्दीन को आमंत्रित किया |

और अजीत सिंह ने सत्ता के लिए राजा दुर्गादास राठौर को राज्य से निष्कासित करवा दिया।

राणा सांगा के बड़े भाई पृथ्वीराज के दासी पुत्र बनवीर ने सत्ता के लिए विक्रमादित्य की हत्या करवाई...

इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा की एक पुस्तक में प्रताप सिंह द्वारा सत्ता के लिए जगपाल को मारने का उल्लेख मिलता है।

पृथ्वीराज उड़ाना और राणा सांगा के मध्य सत्ता के लिए खुनी झगड़ा होने का ऐतिहासिक पुस्तको में वर्णन मिलता है 
और इसी झगड़े में राणा सांगा अपनी एक आँख और हाथ खो देते है और पृथ्वीराज उड़ाना को मरवा देते है।

कैसे सत्ता के लिए राजकुमार रणमल राठौर राणा मोकल को रेकय से निकलवा देता है और राणा राघव देव की हत्या करवा देता है |

 ऐसे करके ये सत्ता में बने रहे और इनकी आर्थिक स्थिति काफी उन्नत हो गयी...
 पुराणों में कलियुग के राजाओं के वर्णन प्रसंग में लिखा  है 👇
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वित्तमेव कलौ नृणां जन्माचारगुणोदयः। धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध द्वितीय अध्याय श्लोक संख्या २)

भावार्थ:-कलयुग में जिसके पास धन होगा,उसी को लोग कुलीन,सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे।
जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा।


भारत में सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताब "Ancient India  " है इसके लेखक है विद्या धार महाजन ये किताब 1960 से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाई जा रही है , इस किताब के पेज 479 पर लिखा है " 
The word Rajput is used in certain parts of Rajasthan to denote the illegitimate sons of a Kshatriya Chief ar Jagirdar. " 

इसका हिंदी अनुवाद हुआ " राजपूत शब्द राजस्थान के कुछ हिस्सों में एक क्षत्रिय प्रमुख या जागीरदार के नाजायज बेटों को निरूपित करने के लिए उपयोग किया जाता है। " 

हम तो सोच रहे थे के जो बात स्कन्द पुराण और  ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखी हुई है वो बस कुछ ही लोगो को पता है , मगर ये बात तो आज ही पता चली के ये बात तो दुनिया जानती है और 1960 से ये बात किताब पढाई जा रही है , आपको ये किताब खरीदने में कोई परेशानी  ना हो इसके लिए आपको किताब खरीदने का पता बता रहे है  

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यादव योगेश कुमार “रोहि”
प्रस्तुतकर्ता

 

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