रविवार, 27 सितंबर 2020

व्रजवाड से भरुचवाड और भरवाड तक का सफर ...

"The word Bharwad is not related to  shepherd .

 this word has been derived From  Vrajwad - it has been changed from Bharajwad to Bharwad.  

 These people were basically the gop-Abhir people of Vraj. 

 Who first settled in Gujarat's (Bhrigukach 

यद्यपि पहले स्थानीय लोगों ने इन्हें व्रजवाल भी कहा जो बिगड़ कर बजवाड भी हुआ ।और फिर बरवाड से भरवाड हो गया परन्तु  आज से लगभग एक हजार वर्ष पहले शौरसेनी प्राकृत भाषा को लेकर ये लोग गुजरात के भरुचवर्ती क्षेत्रों में आये।

इसी भाव-साम्य मूलक शब्दों के द्वारा भरवाड शब्द प्रचलन में आया !
ये ब्रज के ही ग्वाले थे ;और ग्वाली नाथ  के उपासक थे । 

ये मूलत: ब्रज के आभीर ग्वाले थे जो गाय भैंस और बकरीयों का भी पालन भी करते रहे हैं !

व्रज के मूल आहीरों से ये अलग थलग पड़ जाने से आज तक अपने मूल अस्तित्व के लिए लालायित हैं।

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यद्यपि गोपालन ही इनका पहला व्यवसाय था 
यह गोपों की एक स्वाभिमानी कबीलाई शाखा है 
संयोग से इन्हें कुछ विरोधीयों द्वारा भेड़वार कहना बड़ा मूर्खता पूर्ण ही है 
जैसे हवालात को 
हवा और लात खाने की जगह ही बता दी जाय
क्यों हवालात में अब ऐसा होता भी है ..

अथवा आज शौचालय को शौच का आलय होते हुए भी सोच (विचार) का आलय मान लेना क्यों की दिन भर भागने वाला केवल शौचालय में ही सोच पाता है अन्यथा
भागदोड़ में उसे सोचने की फुर्सत ही कहाँ  ?

इसी प्रकार  दूसरा उदाहरण कहें कि मशाल को मिसाल या फिर उसे अग्नि यन्त्र मिसाइल ही बना दिया जाय ! 

विदित हो धेनुगर भी पहले गोपालन का कार्य करने वाले गोप ही  थे ...
परन्तु कालान्तरण में व्यवसायों की भेड़चाल या कहें  भीड़ में जातियाँ अपने वंशमूलक अस्तित्व को खो चुकी हैं |

अत: भारवाड ब्रजवाडे गोपों की एक इतर भरुच वासी शाखा है |

यद्यपि महाराष्ट्र या राजस्थान में गुजरात से ही गये भरवाड हैं |
जो गूजरों में सुमार हैं 
जिन्हें भौगोलिक नाम से समाज में भरुवाड कहा गया 
अहीरों में भरगड़े शब्द से भी विद्वानों ने जोड़ा परन्तु 
व्रजवाड और भरचवाड से ही भरवाड का सम्बन्ध है |

गुजरात  में भरुवाड  यह प्रदेश 200 1’ से 240 7’ उत्तरीय अक्षांश से तथा 680 4’ से 740 4’ पूर्वीय  देशान्तर के मध्य स्थित है। 

बंबई पुनर्गठन विधेयक, 1960 के लागू होने से 1 मई, सन 1960 ई. को यह प्रदेश गठित हुआ।

भारत गणराज्य के पश्चिमी तट पर स्थित यह प्रदेश उत्तर पूर्व में राजस्थान, उत्तर पश्चिम में पाकिस्तान, द. पू. में मध्य प्रदेश, पश्चिम में अरब सागर और दक्षिण में महाराष्ट्र राज्य से घिरा हुआ है। 

इसका कुल क्षेत्रफल 1,95,984 वर्ग किलोमीटर है जिसके 19 जिलों में 1971 की जनगणना के अनुसार 2, 66,97,475 व्यक्ति निवास करते हैं। 

अहमदाबाद, अमरेली, वनासकाँठा, भारुच, भावनगर, गांधीनगर, जामनगर, जूनागढ़, खेदा, कच्छ, महसेना, पंचमहल, राजकोट, सबरकाँठा, सूरत, सुरेंद्रनगर, डाँग, बड़ोदरा और बलसाड इस प्रदेश के मुख्य जिले हैं। गांधी नगर इस प्रदेश की राजधानी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के सोपान -

पुरातात्विक साक्ष्यों से प्रमाणित होता है कि  देव संस्कृति के अनुयायीयों के आगमन से पूर्व इस प्रदेश में हड़प्पा संस्कृति में संबंधित लोग रहते थे।

वे लोग गाँवों और कस्बों में मकान बनाकर रहते थे।
 कहीं कहीं उन लोगों ने किलों का भी निर्माण किया था और कृषि कार्य करते थे।

 उनके चिह्न नर्मदा की निचली घाटी में प्राप्त होते हैं। महाभारत काल में कृष्ण ने द्वारिका में अपना किला बनवाया था। 
उस समय पशुचारण संस्कृति का ही प्रसार था।
जिसमें गाय का स्थान सर्वोपरि था .

 ईसा से 1000 वर्ष पूर्व इस प्रदेश के निवासी लालसागर के द्वारा अफ्रीका के साथ और ईसा से 750 वर्ष पूर्व फारस की खाड़ी के द्वारा बेबीलोन के साथ अपना व्यापारिक संबंध स्थापित किए हुए थे।

 भड़ौच (भृगुकच्छ) उस समय का व्यस्त बंदरगाह था। वहाँ से उज्जैन और पाटलिपुत्र होते हुए ताम्रलिप्ति तक राजमार्ग बना हुआ था मौर्य काल में यह प्रदेश उज्जैन के राज्यपाल के अधीन रहा। 

ईसा की आरंभिक सदियों में पश्चिमी क्षत्रप यहाँ के शासक रहे। 
उनके समय में तट के लोगों का वैदेशिक व्यापार जोर पकड़ने लगा और उनका रोम के साथ यह व्यापार संबंध तीसरी चौथी शती ई. तक था।

 कुमारगुप्त (प्रथम) के समय में गुप्त सम्राटों का आधिपत्य इस प्रदेश पर हुआ और 460 तक रहा।
 गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद 500 से 700 तक बल्लभी नरेशों का अधिकार हुआ। 

तदनंतर भिन्नमाल के गुर्जरों ने इसपर शासन किया और 585 से 740 के मध्य भड़ौच में उनकी एक शाखा के लोग राज करते रहे। 
इन्हीं गुर्जरों के नाम पर प्रदेश का नामकरण गुजरात हुआ और वे वहाँ की राजपूत जातियों के पूर्वज कहे जाते हैं।
ये गुर्जर भी गौश्चर: अथवा गोप ही थे जो कृष्ण से सम्बद्ध हैं ..
ब्रज के गूजरों का अहीरों से जातीय सम्बन्ध है 
राजस्थान में गूजरों में भारवाड होते भी  हैं 
 चैतन्य सम्प्रदाय के रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का संग्रह किया  
श्री श्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका के नाम से  ...
परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा कि 
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"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।

भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ 
(शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
इसी क्रम गोस्वामी जी लिखते हैं कि अहीर और गूजर सजातीय यादव बन्धु हैं |
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पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
अन्ये८नुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है ।
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।

आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।

भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
 इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।
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किञ्चिद् आभीर तो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले  तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं  ये प्राय: हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं ।

शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में  वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।
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जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है ।

जब शास्त्रों में ये बात है तो फिर 
अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं 
फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार अहीर शूद्र और वैश्य हुए ।
गाय पालने अहीर वैश्य क्यों  हुए गाय विश्व की माता है 
और माँ की सेवा करना तुच्छ काम कैसे हो सकता है ?
वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व नहीं उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।

इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं 
क्यों ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ जाति भाष्कर में आभीरों को ब्राह्मण भी लिखते हैं ।

परन्तु नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धा जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को क्षण-भर में परास्त कर देते हैं ।
क्या ने शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे 

सम्पूर्ण विश्व की माता गोै को पालन करने वाले वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे 
किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ?

हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।

इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।
यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।

जहाँ सारे कर्म काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी ।
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प्रस्तुति करण - यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219

इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।
यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।

जहाँ सारे कर्म काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी ।
तुर्की काल में ब्रज से गये आभीर गोप ब्रजवाड  से भरवाड हुए यद्यपि ये वसे भी भृगुकच्छ में संयेग से भरवाड शब्द विकसित हुआ 

भारवाड  खुद को पौराणिक नंदवंश  से स्वयं सम्बद्ध मानते हैं , जो कृष्ण के पालक पिता नंदा के साथ शुरू हुआ था ।

 किंवदंती है कि नंद से आया यह  समूह गुजरात से ही महाराष्ट्र  और राजस्थान  में भी है 

गोकुल , में मथुरा जिले ,  को छोड़ते हुए अपने रास्ते पर सौराष्ट्र के माध्यम से  द्वारका तक आये और भरुच के समीप वर्ती  क्षेत्रों में अपना पढ़ाब डाल दिया । 

__________________________________  इतिहास कार सुदीप्त मित्रा ने माना कि सिंध के मुस्लिम आक्रमण से दूर रहने की इच्छा के कारण गुजरात में उनके कदम का अनुमान लगाया गया है । 

और यह समय  961 ईस्वी  है तब ये भरुच कच्छ से  उत्तरी शहर बनासकांठा पहुंचे और बाद में सौराष्ट्र और अन्य क्षेत्रों में फैल गए। 


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