गुरुवार, 17 सितंबर 2020

धर्म से पूर्व की संसार की स्थति जब भाई-बहिन ही पति-पत्नी थे


    " 'वेद' यदि मानव कल्याण के लिए हैं, तो फिर सदियों तक इन्हें जन साधारण से छुपाकर क्यों रखा गया ?

क्यों जन - साधारण के लिए वेदों का अध्ययन निषिद्ध कर दिया गया ? 

यदि मान लिया जाये कि वे वेद को समझ नहीं सकते थे ! तो उन्हें वेद- वेत्ताओं द्वारा समझाया तो जा सकता था !

परन्तु वेद प्राचीनत्तम होने पर भी मानव कल्याण के निमित्त नहीं केवल पुरोहितों के कल्याण के निमित्त अधिक सिद्धि कारक थे  यह बात भी असम्भव नहीं ..

हाँ परवर्ती काल में कुछ विसंगतियाँ अवश्य समावेशित हुई जिसका साक्ष्य दशम मण्डल का पुरुष सूक्त है ..

परन्तु वेदों में प्राचीनता है जब मानव सभ्ययता अपने विकास- क्रम के प्रथम चरण में थी !
वेदों में उस समय के दृश्य उपस्यथित हैं 

परन्तु वेदों की वे प्राचीनत्तम मान्यताऐं आधुनिक मानव संस्कृति के अनुरूप नहीं हैं ..
इस लिए वेद अपने पुराने अर्थों में स्वीकार नहीं थे ..
परिणाम स्ववरूप नये नये अर्थ निकाले गये अनेक भाष्थय भी हुए 
अत: जो लोग ये उद्घोष करते हैं कि वेदों का अनुसरण करों वे महामूर्ख ही हैं ! 
हाँ उन लोगों ने वेदों का अर्थ कृत्रिम रूप से किया पुरोहितों की परम्परा और गरिमा बनाये रखने के लिए 

क्यों कि समय परिस्थिति और देश जलवायु के अनुरूप सिद्धान्त भी बदलते हैं और बदलने भी चाहिऐ 

 वेद उन प्राचीनत्तम मानवीय स्वाभाविकताओं की अभिव्यक्ति  है जिसमें नैतिक और अनैतिकता के कोई प्रतिमान या पैमाने नहीं थे ..🔄

सब कुछ स्वाभाविक ही था ...
परन्तु ईश्वरीय सत्ता भी परोक्षत: मानव को प्रेरित कर रही थी परिणाम स्वरूप 
धर्म की अवधारणा नैतिकता के संयम मूलक स्तर पर यम के द्वारा हुई ...

यम ही धर्म का विधान करने वाले प्रथम मानव थे 
यम का वर्णन प्राचीनत्तम विश्व के मिथकों में है ..
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कनान पुराकथाओं में ➡1⃣

मिश्र पुराकथाओं में ➡2⃣

ईरानी पुराकथाओं में ➡3⃣

यूनानी पुराकथाओं में ➡4⃣

नॉर्डिक पुराकथाओं में ➡5⃣

सेल्टिक या कैल्टिक पुरा कथाओं में➡6⃣🔄

 यद्यपि वैदिक सन्दर्भ सुमेर बैबीलोन तथा सुदूर उत्तरावर्ती नॉरडिक पुराकथाओं के समान ही हैं 
मनुष्य की वर्तमान तक की जीवन यात्रा विकासवाद के अन्तर्गत प्रकृति-सम्मत वैज्ञानिक रूप से सतत रूप में चलायमान है |
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यौनिक प्रवृत्तियाँ सदैव से अपितु सृष्टि के प्रारम्भ से ही मनुष्य जीवन में प्रधानता से हावी रहीं हैं 
पुराणों में जिन्हें देवता रूप में वर्णित किया गया  वे अवश्य ही मानवीय सत्ताऐं रही  होगीं परन्तु प्राचीनत्तम होने से उन्हें दैवीय सज्ञाओं से अभिहित किया गया ये बात दूसरी है ..
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काम का सम्यक संयम या नियन्त्रण करने हेतु 
संस्कृतियों ने धर्म को विकसित किया  .
धर्म की प्रारम्भिक अवधारणा इसी प्रकार थी 
यह मात्र संयम परक आचरण पक्ष था ...
कर्म काण्ड या यज्ञधर्म नहीं थे ...

धर्म मानसिक संयम मूलक साधना ही थी 
यम ने धर्म का विवेचन इस रूप में किया ..
क्यों कि यम के युग तक स्वाभाविक रूप से भाई बहिन ही पति -पत्नी होते थे मनुष्य के दो सन्तानें लड़का और लड़की के रूप में होती थीं ..

सृष्टा ने यही विधान निश्चित किया स्त्री और पुरुष के स्तन ग्रन्थियों का युगल रूप में विकसित होना तो यही संकेत करता है ! 

मिश्र के लोग हैमेटिक थे और वहाँ यम से पूर्व के विधान ही थे वहाँ भाई -बहिन ही पति पत्नी के रूप में राजा और रानी बनकर शासन करते थे !
राम के समय तक भी इसके अपवाद रहे 
शाक्य परम्पराऐं इसका उदाहरण है ..

कालान्ततरण में यम ने इस स्वाभिक धारा को बदला 
विवाह का अन्योदरीय विधान यम ने बनाया ..
यम की बहिन यमी ने यम से जब वासना पीड़ित होकर रति तृप्ति का प्रणय-निवेदन किया था ...
यह वर्णन तो वेदों में भी है ...
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ऋग्वेद के दशम मण्डल का दशवाॅं सूक्त यम-यमी सूक्त है। 
इसी सूक्त के मन्त्र कुछ वृद्धि  सहित तथा कुछ परिवर्तनपरक रूप में अथर्ववेद (18/1/1-16)  में भी दृष्टिगोचर होता है |
अब विचारणीय है कि- यम-यमी कौन थे ? 
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अर्थात् यम-यमी किसको कहा । इस प्रश्न का उदय उस समय हुआ जब आचार्य सायणादि भाष्यकारों ने यम-यमी को भाई-बहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 🔄

वेदों में यद्यपि वर्ण-व्यवस्था के प्रसंग दशम मण्डल पुरुष सूक्त में हैं जो पाणिनीय कालीन हैं ; क्यों कि नवम मण्डल में "कारु८हम ततो उपल प्ररक्षिणी नना " के रूप में है जो वर्ण व्यवस्था का खण्डन करता है क्यों की एक ही घर में 
सभी व्यवसाय होते थे ..वर्णव्यवस्था ईसा○ पूर्व○ सप्तम सदी की देन है ..

वेदों की प्राचीनता को  बनाये रखने के लिए वेदों की अर्थ धाराऐं बदली गयीं नये नये भाष्यों का लेखन कार्य हुआ अपने अपने मनोवृत्ति के अनुकूल भाष्य हुए ...

महर्षि  दयानन्द ने वेदों का भाष्य सायण से संपृक्त होकर किया परन्तु अपने नवीन अर्थों की अभिव्ययञ्जजना के लिए उनके अर्थ प्रकृति परक किये गये इतिहास को खारिज कर दिया, और रूढ अर्थ के स्थान पर यौगिक या धातुज अर्थ निश्चित किये ...

 अतः उनके के द्वारा वेदों के अर्थ बदल कर एक बार फिर, वेदों में विद्यमान स्वाभाविक तथ्यों को छुपाने का उपक्रम किया गया | 
सायण को वेद पर भाष्य करने के लिए प्रेरित किया
 विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक, आभीर शासक 'हरिहर' व 'बुक्काराय' ने जिन्होंने अपने मुख्य सलाह कार  'माधवाचार्य' को वेदभाष्य की जिम्मेदारी सौंपी।

 माधवाचार्य के निर्देश पर उनके अनुज भ्राता  आचार्य सायण ने, २५  वर्ष तक  कठिन परिश्रम से यह कार्य सम्पन्न किया।

 विदित  रहे कि, तत्कालीन भारत अर्थात  (चौदहवीं सदी) में इन दोनों ब्राह्मण भाइयों की गणना संस्कृत के महान विद्वानों में थी।

परन्तु सायण ने भी वेदों का यथार्थ परक भाष्य नहीं किया क्यों कि ब्राह्मण परम्पराओं को बचाने के लिए इन्होंने यथार्थ परक भाष्य नहीं किया ...

सायण या आचार्य सायण (चौदहवीं सदी, मृत्यु १३८७ इस्वी) वेदों के सर्वमान्य भाष्यकर्ता थे। 

सायण ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है, परंतु इनकी कीर्ति का मेरुदंड वेदभाष्य ही है। 
इनसे पहले किसी का लिखा, चारों वेदों का भाष्य नहीं मिलता। 
ये २४ वर्षों तक विजयनगर साम्राज्य के सेनापति एवं अमात्य रहे (१३६४-१३८७ इस्वी)। 

यूरोप के प्रारंभिक वैदिक विद्वान तथा आधुनिक भारत के श्री अरोबिंदो तथा श्रीराम शर्मा आचार्य भी इनके भाष्य के प्रशंसक रहे हैं। 

यास्क के वैदिक शब्दों के कोष लिखने के बाद सायण की टीका ही सर्वमान्य है। .

परन्तु महीधर (1645 ) ने सही यथार्थ परक अर्थ किया है  ...
सायण या आचार्य सायण (चौदहवीं सदी, मृत्यु १३८७ इस्वी) वेदों के सर्वमान्य भाष्यकर्ता थे।
 सायण ने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया है, परंतु इनकी कीर्ति का मेरुदंड वेदभाष्य ही है। 

इनसे पहले किसी का लिखा, चारों वेदों का भाष्य नहीं मिलता। ये २४ वर्षों तक विजयनगर साम्राज्य के सेनापति एवं अमात्य रहे (१३६४-१३८७ इस्वी)।

 यूरोप के प्रारंभिक वैदिक विद्वान तथा आधुनिक भारत के श्री अरोबिंदो तथा श्रीराम शर्मा आचार्य भी इनके भाष्य के प्रशंसक रहे हैं। 
यास्क के वैदिक शब्दों के कोष लिखने के बाद सायण की टीका ही सर्वमान्य है। .

    वेदों का अध्ययन सार्वजनिक होने से, 1500 ईसापूर्व से 500 ईसापूर्व तक चले एक हजार साल के वैदिक कालीन उपक्रम से उस काल की सांस्कृतिक जानकारी हुई 

देव संस्कृति में कुछ मान्यताऐं सामान्य थीं 

इन्द्र-इन्द्राणी का अन्तरंग कामुक संवाद , यमी का अपने जुड़वाँ भाई यम से प्रणय निवेदन आदि कई प्रसंग ऐसे भी हैं जो आज के युग व संस्कृति के अनुरूप नहीं हैं अर्थात असहज कर देने वाले हैं।

ब्रह्मा की कल्पना भी भिन्न भिन्न मिथकों में भिन्न भिन्न ही है | 
सेमेटिक संस्कृतियों में ए-ब्राहम सुमेर में बरम है 
यद्यपि ब्रह्मा सुमेरियन ही हैं 
साराह ही सरस्वती है परन्तु भारतीय वेदों में  सरस्वती को ब्रह्मा ने उत्पन्न किया और फिर उसको पत्नी बनाया 
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इ॒दमि॒त्था रौद्रं॑ गू॒र्तव॑चा॒ ब्रह्म॒ क्रत्वा॒ शच्या॑म॒न्तरा॒जौ । क्रा॒णा यद॑स्य पि॒तरा॑ मंहने॒ष्ठाः पर्ष॑त्प॒क्थे अह॒न्ना स॒प्त होतॄ॑न् ॥१|

 (ऋग्वेद १०.६१.१)

-(गूर्तवचाः) स्तुत्या वाणी  (इदम्-इत्था) इस सत्य (रौद्रं ब्रह्म) रुद्र-ब्रह्म तेज (क्रत्वा) करके (आजौ-शच्याम्-अन्तः)  अजन्त्यस्याम् अज--इण् न वीभवः । १ समरभूमौ २ संग्रामे, अस्मिन्न ऋचायाम् यौनिदेशे .. (यत्) यतः (अस्य क्राणा पितरा) इसके उत्पन्न करनेवाले  पिता (मंहनेष्ठाः) मंहनीय-प्रशंसनीय   (पर्षत्) सभा सम्मलेन में (पक्थे-अहन्)  पक्के दिनों   में (सप्तहोतॄन्-आ) सात होता  ॥१॥

 स इद्दा॒नाय॒ दभ्या॑य व॒न्वञ्च्यवा॑न॒: सूदै॑रमिमीत॒ वेदि॑म् । तूर्व॑याणो गू॒र्तव॑चस्तम॒: क्षोदो॒ न रेत॑ इ॒तऊ॑ति सिञ्चत् ॥

(सः) वह पुरुष  (इत्) अवश्य (च्यवानः) पापों का नष्ट करनेवाला (दानाय) अन्यों को  दान  के लिए (दभ्याय) दोषनाशन के लिए (वन्वन्) स्वयंवर के लिए या वधू को स्वीकार करने के लिए (सूदैः-वेदिम्-अमिमीत) ज्ञानामृत बरसानेवाले ऋत्विजों के सहयोग से विवाहवेदी को तैयार करता है (तूर्वयाणः) पाप नष्ट करने के लिए गमन जिसका है, वह ऐसा (गूर्तवचस्तमः) अत्यन्त तेजस्वी वक्ता (क्षोदः-न रेतः) जल समान अपने वीर्य को (इतः-ऊति) इस विधान से स्ववंशरक्षण और वर्धन के लिए (सिञ्चत्) पत्नी में सींचता है ॥२॥

मनो॒ न येषु॒ हव॑नेषु ति॒ग्मं विप॒: शच्या॑ वनु॒थो द्रव॑न्ता । आ यः शर्या॑भिस्तुविनृ॒म्णो अ॒स्याश्री॑णीता॒दिशं॒ गभ॑स्तौ ॥

मनः॑ । न । येषु॑ । हव॑नेषु । ति॒ग्मम् । विपः॑ । शच्या॑ । व॒नु॒थः । द्रव॑न्ता । आ । यः । शर्या॑भिः । तु॒वि॒ऽनृ॒म्णः । अ॒स्य॒ । अश्री॑णीत । आ॒ऽदिश॑म् । गभ॑स्तौ ॥ १०.६१.


    ऋग्वेद  के उस प्रसंग के कुछ अंश जिसमें प्रजापति ब्रह्मा स्वयं अपनी ही पुत्री से मैथुन करते हैं-
इसी सूक्त की ऋचा है ...
  ऋग्वेद- मण्डल-10, सूक्त-61 की ऋचा ५

( ऋषि - नाभानेदिष्ठो मानव:|  देवता - विश्वे देवा | छन्द त्रिष्टुप )
प्रथि॑ष्ट॒ यस्य॑ वी॒रक॑र्ममि॒ष्णदनु॑ष्ठितं॒ नु नर्यो॒ अपौ॑हत् ।
पुन॒स्तदा वृ॑हति॒ यत्क॒नाया॑ दुहि॒तुरा अनु॑भृतमन॒र्वा ॥५
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म॒ध्या यत्कर्त्व॒मभ॑वद॒भीके॒ कामं॑ कृण्वा॒ने पि॒तरि॑ युव॒त्याम् 
म॒ना॒नग्रेतो॑ जहतुर्वि॒यन्ता॒ सानौ॒ निषि॑क्तं सुकृ॒तस्य॒ योनौ॑ ॥६
म॒ध्या । यत् । कर्त्व॑म् । अभ॑वत् । अ॒भीके॑ । काम॑म् । कृ॒ण्वा॒ने । पि॒तरि॑ । यु॒व॒त्याम् । म॒ना॒नक् । रेतः॑ । ज॒ह॒तुः॒ । वि॒ऽयन्ता॑ । सानौ॑ । निऽसि॑क्तम् । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । योनौ॑ ॥ १०.६१.६
यत् युवत्यां कर्त्वम्-अभवत्) जब कि युवती  में पुत्रोत्पादन से कर्त्तव्य पूर्ण हो जाता है (पितरि कामं कृण्वाने-अभीके) पिता में-उसके आश्रय पुत्र का पुत्र उत्पादन की कामना हो जाने पर उसके सम्मुख (वियन्तौ मनानक्-रेतः-जहतुः) उसमें वीर्य निषेचन करे 
(सुकृतस्य योनौ सानौ निषक्तम्)
अच्छी प्रकार वीर्य सिंचन करने से  यौनि से पुत्र होता है 
 ॥६॥

भावार्थ- जिस समय पिता ने अपनी युवती कन्या के साथ यथेच्छ कर्म किया, उस समय उनके संभोग कर्म के समीप ही थोड़ा वीर्य गिरा, परस्पर अभिगमन करते हुए उन दोनों ने यह वीर्य यज्ञ के ऊंचे स्थान योनि (कुण्ड)  में छोड़ा था।
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पि॒ता यत्स्वां दु॑हि॒तर॑मधि॒ष्कन्क्ष्म॒या रेतः॑ संजग्मा॒नो नि षि॑ञ्चत् ।
स्वा॒ध्यो॑ऽजनय॒न्ब्रह्म॑ दे॒वा वास्तो॒ष्पतिं॑ व्रत॒पां निर॑तक्षन्॥७

पि॒ता । यत् । स्वाम् । दु॒हि॒तर॑म् । अ॒धि॒ऽस्कन् । क्ष्म॒या । रेतः॑ । स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः ।  नि । सि॒ञ्च॒त् । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । अ॒ज॒न॒य॒न् । ब्रह्म॑ । दे॒वाः । वास्तोः॑ । पति॑म् । व्र॒त॒ऽपाम् । निः । अ॒त॒क्ष॒न् ॥ १०.६१.७

-(क्ष्मया सञ्जग्मानः) सन्तान की भूमिरूप पत्नी से सङ्गत होता हुआ, तथा (रेतः-निषिञ्चन्) गर्भाधान रीति से वीर्य का सिञ्चन करता हुआ (पिता स्वां दुहितरम्-अधिष्कन्) ⬅⬅⬅🔄🔄🔄🔄🔄
पिता अपनी कन्या को मैथुन करता है-,
 तब (स्वाध्यः-देवाः-ब्रह्म जनयन्)  स्व + अधि + इ- गतौ 
स्वयं ऊपर गमन करता है 
(वास्तोष्पतिं व्रतपां निर्-अतक्षन्) वास्तु- भूमिपती अतक्षन् -खरोंचा उत्पन्न किया   ।
॥७॥


भावार्थ- जिस समय पिता ने अपनी पुत्री के साथ संभोग किया, उस समय धरती से मिल कर वीर्य त्याग किया। शोभन कर्म वाले देवों ने उसी वीर्य से व्रत रक्षक देव वास्तोष्पति का उत्पादन किया।

     श्रीमद्भागवत आदि कई पुराणों  में भी इस प्रसंग का उल्लेख मिलता है।
 जिसे ऋग्वेद से ही लिया गया होगा।
जरूरत इन्हें छुपाने, प्रक्षिप्त बताने अथवा अर्थ बदलने की नहीं बल्कि इन्हें समझने और सुधारने की है।

 हजारों  वर्ष पूर्व के होमोहेबिलिस (आदिमानव) से लेकर आज के होमोसेपियंस (प्रज्ञमानव) तक की क्रमिक विकास यात्रा से संबंधित मानव सभ्यता के अपने अलग-अलग सोपान रहे हैं। 

जिन पर चढ़ते हुए इंसान आज की ऊँचाई तक पहुँचा है। पूरी पारदर्शिता के साथ अतीत का अध्ययन करते हुए, देश व समाज के लिए घातक साबित हुई वर्णव्यवस्था जनित ऊँच-नीच सम्बंधी बुराइयों को विस्मृत  कर तथा अच्छाइयों को अपनाते हुए, सीख-सबक के साथ मानवता के चरम की ओर चलते जाना है।

 ऋग्वेद में कहीं भी 'दीपक' का उल्लेख नहीं है, जो स्पष्ट करता है कि, उस काल तक, इंसान कृत्रिम प्रकाश के लिए दिया-बाती बनाना भी नहीं सीख पाया था।

 अतः उस काल की ओर लौटने की बात करने की अपेक्षा उस काल की बात 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' को मानते हुए अतीत के अज्ञान व अशिक्षा के अंधेरे की ओर नहीं, भविष्य के ज्ञान-विज्ञान के उजाले की ओर आगे कदम बढ़ाते जाना है। 

पि॒ता यत्स्वां दु॑हि॒तर॑मधि॒ष्कन्क्ष्म॒या रेत॑: संजग्मा॒नो नि षि॑ञ्चत् । स्वा॒ध्यो॑ऽजनय॒न्ब्रह्म॑ दे॒वा वास्तो॒ष्पतिं॑ व्रत॒पां निर॑तक्षन् ॥

स ईं॒ वृषा॒ न फेन॑मस्यदा॒जौ स्मदा परै॒दप॑ द॒भ्रचे॑ताः । सर॑त्प॒दा न दक्षि॑णा परा॒वृङ्न ता नु मे॑ पृश॒न्यो॑ जगृभ्रे ॥

सः । ई॒म् । वृषा॑ । न । फेन॑म् । अ॒स्य॒त् । आ॒जौ । स्मत् । आ । परा॑ । ऐ॒त् । अप॑ । द॒भ्रऽचे॑ताः । सर॑त् । प॒दा । न । दक्षि॑णा । प॒रा॒ऽवृक् । न । ताः । नु । मे॒ । पृ॒श॒न्यः॑ । ज॒गृ॒भ्रे॒ ॥ १०.६१

-(सः-ईं वृषा-आजौ-फेनम्-अस्यत्) वह दुहिता का वीर्यसेचक-कन्या में वीर्य फेंकता है-छोड़ता है, वह अभीष्ट है, परन्तु (दभ्रचेताः-स्मत्) अल्पमनवाला सब धन के लोभ से तुच्छ भावनावाला हमसे (आ-अप परा-ऐत्) भलीभाँतिरूप से दूर हो जाये-

 (दक्षिणा न पदा सरत् परावृक्)  अनुकूलता से पैरों को न सरकाऐ    (मे ताः पृश्न्यः-न जगृभ्रे)  ॥८॥


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