गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

धर्म की आड़ में उसूल कुछ सदियों सदियों पुराने हैं।प्रसाद वितरण करने वालों में भी अब तो ज़हर खुराने हैं ।।

धर्म की आड़ में  उसूल कुछ 

सदियों सदियों पुराने हैं।

प्रसाद वितरण करने वालों में भी 

अब तो ज़हर खुराने हैं ।।

धर्म की चादर ओढ़कर मन्दिर में ,

आसन लगाऐ बैठे व्यभिचारी ।

अब मन्दिर ही मक्कारों के असली ठिकाने हैं ।

शराफत को अब कमजोरी समझते हैं लोग "रोहि"

निघोरेपन में अब कुछ और फरेबी पहचाने हैं।

ईमानदारी जहालत के मायने

हाल ये किस्मत के आयने।।

असलीयत के चहरें धूमिल

मुखौंटों का दौर सच कुछ और 

व्यापारीयों के बच्चे भी  जनम से सयाने हैं ।

पसीना है महनत का रस 

गरीबों पर न आता तरस ।।

महनत है कमजोर की हालत 

नेता करता है भूखों से अब भी 

लोकतन्त्र में बोट देने की बकालत।

प्रयास सहित भुगतना पढ़ता है खामियाजा।

विरोधी खयालों का दूर तक नहीं चलता साझा।।

पर नहीं बदलता फरेबी अपनी बुरी लत।

इसके  दिन तो और भी बुरे आने हैं ।
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संस्कृति के रूप में अब नंगापन है 

किडनैप और फिर रेप क्षत-विक्षत तन है 

 लड़कियाँ क्यों महफूज नहीं घर में 

उनकी अस्मिता  क्यों नहीं सलामत है ।

यह तो मानवता का घोर पतन है ।

ये सब इसलिए अधिक होता है ।

वतन के मुहाफिजों का 

गद्दारों से समझौता है ।

लोकतन्त्र की यज्ञ वेदी पर यज मानी 

जिसमें  कौऔं कुत्तों को न्यौता  है ।।

भूखा उदर लिए हीनपन 

चिथडे़ दो तन से लपेटे हैं।

शासन दु:शासन बना हुआ 

नेता नींद में लेटे हैं ।

 बिलख बिलख कोई  रोता है ।
जब दर्द किसी को होता है ।
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युवावर्ग में बेरोजगारी  तंगी भारी रोजगार  की 

भौतिक साधन शून्य हो गये जुगाड़ 'न पैदावार की 

बर्बाद हो गये हम ,जीवन छाए हैं ग़म ।।

 बर्बाद हो गये हम ,जीवन छाए हैं ग़म ।।

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आज देश में भगदड़ है सर्वत्र दबंगों का गण है 

जनता में दश में नौ भ्रष्ट सन्तों में भरी अकड़ हैं।।

साधु महातमा चिलमची राजनैतिक गलियारों में 

कन्याऐं विचित्र वस्त्रों में घूमें गलबहिंयाँ डारे यारों में 

महिलाओं के श्रृंँगार प्रसाधन और पति के पास नहीं धन।

विपदा है  पति लाचार की ।

युवावर्ग में बेरोजगारी  तंगी भारी रोजगार  की 

भौतिक साधन शून्य हो गये जुगाड़ 'न पैदावार की 

बर्बाद हो गये हम ,जीवन छाए ग़म ।।

बर्बाद  हो गये हम ,जीवन छाए ग़म ।।

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 जो ईमान के मुहाफिज हैं 

बेकाबिज फर्ज परस्त सिहरे ।

उनका जीवन अभाव ग्रस्त ,

वे हताश हवाश हीनत्व भरे ।

ये समय बड़ा भीषण है रण है- 

सबको चिन्ता है हार की ,

युवावर्ग में बेरोजगारी भारी तंगी रोजगार  की 

भौतिक साधन शून्य हो गये जुगाड़ 'न पैदावार की 

बर्बाद  हो गये हम ,जीवन छाए ग़म ।।

बर्बाद  हो गये हम ,जीवन छाए ग़म ।।

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इस तरह बिगड़ती हालातें 

नेताओं की झूँठी हैं बातें ।

चेहरे पर चेहरे लगे हुए 

आशंकित करती हैं घातें ।

बड़ी रात हुई हम जगे हुए ।

फिर भी महनत में लगे हुए ।

हालत देखी सरकार की 

युवावर्ग में बेरोजगारी भारी तंगी रोजगार  की 

भौतिक साधन शून्य हो गये जुगाड़ 'न पैदावार की 

बर्बाद  हो गये हम ,जीवन छाए ग़म ।।

बर्बाद  हो गये हम ,जीवन छाए ग़म ।।

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इन राहों से स्पष्ट है ।।

आगे भी कष्ट ही कष्ट है ।।

हर बुरी ख़बर सुनते क्षण क्षण 

ये सारा तन्त्र ही भ्रष्ट है ।

विश्वास आस्था गये उखड़।।

कर्तव्य भावों का उन्मूलन ,

अधिकारों के लिए तू रहा झगड़।

कर्तव्य जिसके रहे नहीं 

वो बात 'न करे अधिकार की ,

युवावर्ग में बेरोजगारी  तंगी भारी रोजगार  की 

भौतिक साधन शून्य हो गये जुगाड़ 'न पैदावार की 

बर्बाद  हो गये हम ,जीवन में छाए ग़म ।।

बर्बाद हो गये हम ,जीवन में छाए ग़म ।।

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रस तो अन्य छै: और भी हैं 

पर मिठास ही रस के करीब है ।

जो शरीफ है मजलूम है ।

 वो जमाने की नजर में गरीब है ।।

भलाई करने पर मिलते हैं 

सौ उलाहने जमाने से ।

 हकीकत  पता चल जाती है 

 हर किसी को आजमाने से ।

सबका व्यवहार और हाव-भाव

एक व्याख्या है 'रोहि' विचार की 

युवावर्ग में बेरोजगारी  तंगी भारी रोजगार  की 

भौतिक साधन शून्य हो गये जुगाड़ 'न पैदावार की 

बर्बाद हो गये हम ,जीवन में छाए ग़म ।।

बर्बाद हो गये हम ,जीवन में छाए ग़म ।।

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जहालत से भरी इस दुनियाँ में

ये रिवाज भी बड़े अजीब हैं ।

संवेदनाऐं सूख गयीं 

 ऐसे मेरे हुए लोग भी वो जीव हैं ।।

विचार-प्रवाह :- यादव योगेश कुमार "रोहि "

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