शनिवार, 1 फ़रवरी 2020

वतन के मुहाफिजों का फसाना...

धर्म की आड़ में  उशूल कुछ 
सदियों सदियों पुराने हैं।
प्रसाद वितरण करने वालों में भी 
अब ज़हर खुराने हैं ।।
धर्म की चादर ओढ़कर मन्दिर में ,
आसन लगाऐ बैठे व्यभिचारी ।
इन मन्दिरों में अब निकम्मे और मक्कारों के ठिकाने हैं ।

शराफत को अब कमजोरी समझते हैं लोग "रोहि"
निघोरेपन में अब कुछ और फरेबी पहचाने हैं।

ईमानदारी जहालत के मायने 
हाल से किस्मत के आयने।।
असलीयत के चहरें धूमिल
मुखौंटों का दौर सच कुछ और 
व्यापारीयों के बच्चे भी जैस जनम से सयाने है ।

पसीना है महनत का रस 
गरीबों पर न आता तरस ।।
महनत को कमजोरों की हालत 
नेता करता है भूखों से अब भी 
लोकतन्त्र में बोट देने की बकालत।
 ।।
प्रयास सहित भुगतना पढ़ता है खामियाजा।
विरोधी खयालों का दूर तक नहीं चलता साझा।।

पर नहीं बदलता फरेबी अपनी बुरी लत।
इसके  दिन तो और भी बुरे आने हैं ।

संस्कृति के रूप में अब नंगापन है 
किडनैप और फिर रेप क्षत-विक्षत तन है 
 लड़कियाँ क्यों महफूज नहीं घर में 
उनकी अस्मिता  क्यों नहीं सलामत है ।

ये सब इसलिए अधिक होता है ।
वतन के मुहाफिजों का 
गद्दारों से समझौता है ।
लोकतन्त्र की यज्ञ वेदी पर यज मानी 
मैं कौऔं कुत्तों को न्यौता  है ।।
भूखा और लिए हीनपन 
भूखे पेट चिथडे़ दो तन से लपेट
 बिलख बिलख कोई  रोता है ।

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