सिद्ध कवियों में सरहपा का स्थान मुख्य है।
इनकी कर्मभूमि नालंदा (पटना के पास) विश्वविद्यालय थी। इनका नाम सरहपा (संस्कृत रूप शरहस्तपाद) पडने का कारण यह था कि ये शर (बाण) बनाने वाली एक नीच जाति की स्त्री के साथ रहते थे।
सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे।
इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था।
सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं। इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है।
एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं।
उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है।
एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है।
उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है।
अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है।
उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं।
वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।
उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे।
उनकी शिक्षा नालंदा-विहार में हुई थी तथा अध्ययन के उपरांत वे वहीं प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त हुए। अवकाश-प्राप्ति के बाद श्रीपर्वत, गुंटूर (आंध्रप्रदेश) को उन्होंने अपना कार्य क्षेत्रा बनाया। डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय ने उन पर दो प्रामाणिक पुस्तकें सरहपा (विनिबंध, 1996 ई.) तथा सिद्ध सरहपा (उपन्यास, 2003 ई.)लिख कर प्रकाशित करवाई हैं।
तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ संगृहीत हैं।
इनमें से 16 कृतियाँ अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं :
(1) दोहा कोश-गीति, (2) दोहाकोश नाम चर्यागीति, (3) दोहाकोशोपदेश गीति, (4) क.ख. दोहा नाम, (5) क.ख. दोहाटिप्पण, (6) कायकोशामृतवज्रगीति, (7) वाक्कोशरुचिरस्वरवज्रगीति, (8) चित्तकोशाजवज्रगीति, (9) कायवाक्चित्तामनसिकार, (10) दोहाकोश महामुद्रोपदेश, (11) द्वादशोपदेशगाथा, (12) स्वाधिष्ठानक्रम, (13) तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीतिका, (14) भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति, (15) वसंत- तिलकदोहाकोशगीतिका तथा (16) महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति।
उक्त कृतियों में सर्वाधिक प्रसिद्धि दोहाकोश को ही मिली है। अन्य पाँच कृतियाँ उनकी संस्कृत रचनाएँ हैं- (1) बुद्धकपालतंत्रपंजिका, (2) बुद्धकपालसाधन, (3) बुद्धकपालमंडलविधि, (4)त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन एवं (5) त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन।
राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सरह की प्रारंभिक रचनाएँ माना है, जिनमें से चौथी कृति के दो और अंशों के भिन्न अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवाद स्तन्-ग्युर में शामिल हैं, जिन्हें स्वतंत्र कृतियाँ मानकर राहुलजी सरह की सात संस्कृत कृतियों का उल्लेख करते हैं।
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