सोमवार, 4 मार्च 2019

कर्मकरने वाले कर्म निष्ठ ब्राह्मणों की दृष्टि में पापयोनि है और निठल्ले ब्राह्मणों द्वारा लिखे ग्रन्थों में ब्राह्मण और उनके संरक्षक क्षत्रिय पुण्ययोनि हैं।

देशभक्ति का कर्तव्य उन पिछड़ी शिक्षा अधिकारों से वञ्चित जन-जातियों का तो है
परन्तु उनके अधिकार कुछ नहीं
अधिकार इतना भी नहीं की
जब वो देश पर कुर्बान हुआ तो
उसके शहादत स्मृति- स्तम्भ पर भी रूढ़िवादी प्रतिनिधियों ने यह कह कर रोक लगाई कि यह छोटा जाति के व्यक्ति की मूर्ति बनेगी ?
एेसा पहले कभी नहीं हुआ है ।
धर्म का ठेका बस कुछ जातियो के पास है जबकी हकीकत है ये कुण्ठित  लोगों के जातिमद और झूँठे दम्भ के कारण देश गुलाम रहा  !
क्यों कि ये युद्ध तो एक भी निर्भीकता से लड़ नहीं पाए
कारण ये निकम्मे और कर्म-- हीन लोग शक्ति हीन थे !
क्यों कि --जो श्रम और परिश्रम ही नही करेगा
'वह शक्ति शाली नहीं हो सकता है ।
और ये दो जातियाँ हैं ।
--जो पुण्ययोनि हैं जिनके लिए कोई कर्म--विधानों शास्त्रों में नहीं ।
क्यों कि
कर्मकरने वाले कर्म निष्ठ ब्राह्मणों की दृष्टि में पापयोनि है  और निठल्ले  ब्राह्मणों द्वारा लिखे ग्रन्थों में ब्राह्मण और उनके संरक्षक क्षत्रिय पुण्ययोनि हैं।
जिनके लिए कोई कर्म--विधानों शास्त्रों में नहीं हैं

कर्म 'वह होता है :- जिसमें गतिमूलक पाँच अवस्थाऐं अवश्य हों " जैसे :- उत्क्षेपणापक्षेपणाकुञ्चनप्रसारण गमनानि पञ्च कर्माणि (तर्कसंग्ह) " इस प्रकार  ब्राह्मण को तो कोई कर्म नहीं ! और क्षत्रिय का केवल ब्राह्मणों की रक्षा और सेवा करना इतना कर्म है । 
परन्तु जिन्हें पापयोनि और शूद्र माना जो कृषि गो-रक्षा व्यवसाय आदि कर्म स्वभाव से ही करते हैं "👇

कृषि गोरक्ष्यवाणिज्यं वेश्य कर्म स्वभाजम् ।  परिचर्यात्मक कर्म शूद्रस्यापि स्वभाजम् ।।
( 18/44 मनुःस्मृति )
अब यहाँं देखिए जिसे भारतीय संस्कृतियों में सर्वोपरि सम्मान प्राप्त है । जिसे सब देवताओं की माता कहा है उस गाय की भी ब्राह्मण सेवा नहीं करता 'वह सेवा एक गोप अथवा अहीर ही वंश परम्परा गत रूप से करता है । जिसे स्मृति-ग्रन्थों में शूद्र या म्लेच्छ कह कर हेय सिद्ध करने की चेष्टा पारित की है ।

और एक भी --जो ब्राहमणों ने क्षत्रिय घोषित किए वे भी विदेशीयों से  युद्ध भी  नहीं लड पाये थे ; जो जीवन पर्यन्त कर्म करता रहा, मुशीबतं से मुकाबला करता रहा
उसके केवल पापयोनि बताया गया ।
और --जो युद्ध भूमि से भागवत् रहे , उसको वे रूढ़िवादी महावीर बताते हैं।

नोट- सभी यादवो को सुचित किया जाता है ऐसी लड़ाई में हमेशा उन शहीदों के साथ खडे रहे जो -जाति-व्यवस्था से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान  हो गये और इन कुण्ठित लोगो को सबक सिखाये ।
--जो धर्म के नाम पर पाखण्ड की राजनीति करके हैं ।

राक्षसों को महाभारत में धर्मज्ञ कहा है ।
और असुर को वेदों श्रेष्ठ कोटि कोटि
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अवध्यां स्त्रियमित्याहुर्धर्मज्ञा धर्म निश्चये ।
धर्मज्ञान् राक्षसाहुर्नहन्यात् स च मामपि।३१।।

धर्मज्ञ विद्वानों ने धर्म निर्णय के प्रसंग में नारीयों को अवध्या बताया ।
राक्षसों को भी लोग धर्मज्ञ कहते हैं।

इस लिए सम्भव है कि राक्षस भी मुझे स्त्री समझ कर न मारे ।
महाभारत आदि पर्व बकवध पर्व १५७ वाँ अध्याय।
संस्कृत कोश कारों ने पुण्यजन शब्द की गलत व्युत्पत्ति-की है।
क्यों कि आपने और हमने पढा है और पढ़ते रहते हैं कि
जितने भी देव-संस्कृति के विद्रोही या ब्राह्मण वाद के कर्ता जन-जातियों के पुरुषों के नाम
बड़े विपरीत अर्थक व हेय मिलते हैं ।
जैसे - दुर्मुख , दूषण दुरमिल् 👇🙏👇
(पुण्यः विरुद्धलक्षणया पापी चासौ जनश्चेति 
अर्थात् जो पुण्य के विरुद्ध लक्षण बाला पापी है वह जन इस प्रकार )  राक्षसः ।
वत्स वैश्रवण कृत्वा यक्षै: पुण्यजनैस्तदा ।
दोग्धा रचतनामस्तु पिता मणिवरस्त य: ।।३३।(हरिवंशपुराण नवम अध्याय " वेन का विनाश और पृथु का जन्म )
इसके बाद पुण्यजन और यक्षों ने मृतक के कपाल में रुधिर रूप का दोहन किया ।उस समय सुमाली बछड़ा और रजतनाम दोग्धा हुआ।
परन्तु पुण्यजन का अर्थ होना चाहिए पुण्य करने वाला जन अर्थात् धर्मात्मा ।
वैसे भी ब्राह्मणों ने द्वेष वश विपरीत अर्थ ही किए ।
इस परम्पराओं में सम्बलित हैं पुष्यमित्र सुंग के विधानों का प्रकाशन करने वाले ब्राह्मण ।
अमर कोश में भी व्युत्पत्ति- संदिग्ध है ।
।  १ ।  १ ।  ६३ ॥  यक्षः । यज् धातु से व्युत्पन्न है ।अर्थात यज्ञ करने वाला । परन्तु पुराणों में राक्षसों तथा यक्षों को यज्ञ विध्वंसक वर्णित किया गया है।
(यथा    हरिवंशपुराण )  २ । २६ ।
“ सर्पैः पुण्यजनैश्चैव वीरुद्भिः पर्व्वतैस्तथा ॥ “  पुण्याश्रितो जनः )
अमरकोश में पुण्यजन का अर्थ सज्जन भी किया है ।
सज्जनः ।  इति मेदिनी ।  १६८ ॥
अब असुर शब्द भी वेदों में पूज्य तथा शक्ति सम्पन्नता का वाचक है।
आदिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छियो वसानश्चरति स्वरोचि:।
महत् तद् वृष्णो असुरस्य८८ विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ।।४।ऋ०१/३८/४
सभी मेधावी जनों ने रथ में विराजमान इन्द्र को सजाया।
अपने तेज से ही तेजवान इन्द्र प्रकाशित हुए सुस्थित हैं कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्र विचित्र कीर्ति वाले । ये विश्व रूप को धारण करते हैं ;तथा अमृत से व्याप्त हैं
इमे भोज अंगिरसो विरूपा
दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा:
विश्वमित्राय ददतो मघानि सहस्र
सावे प्र तिरन्त आयु:। ७।।.   (ऋग्वेद १/५३/७ ।)
हे इन्द्र ! ये सुदास और 'ओज' राजा की और से यज्ञ करते हैं । यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें ! और अन्न बढ़ावें।

उषसा पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद वि जज्ञे अक्षरं पदे गो:
व्रता देवानामुप नु प्रभूषन् महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।। (ऋ० १/५५/१ )

तथा मोषुणो अन्न जुहुरन्त देवा मा पूर्वज अग्ने पितर :पदज्ञा ।
पुराण्यो: सझ्ननो : केतुरन्तर्महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।।२। (ऋ० १/५५/२/)
हे अग्ने ! देव गण हमारा विनाश न करें; देवत्व प्राप्त पितर गण  हमको न मारे । यज्ञ की प्रेरणा देने वाले सूर्य आकाश पृथ्वी के मध्य उदित होते हैं । वे हमारी हिंसा न करें । उन सब महान देवताओं का बल एक ही है ।
यहाँ असुरत्व बल तथा तेज का वाचक है ।
तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस: ।
(ऋग्वेद - ४/५३/१ )
हम उस प्रचेतस असुर अर्थात् वरुण जो सबको जन्म देने वाला है । उसका ही वरण करते हैं ।
अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों में अग्र पुरुष अग्ने ! तुम सज्जनों के पालन कर्ता , ज्ञानवान -बलवान तथा ऐश्वर्यवान हो ।
यहाँ अग्नि को असुर कहा गया है ।
इसके अतिरिक्त बौद्ध काल में रचित महाभारत आदि में भी असुरों की प्रशंसा हुई है। देखें
तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।
(महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय)
इसी प्रकार उदार और उत्साह से  भरे हुए हृदय वाले  महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे।
उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर  देवों को पीड़ित करने लगे ।

उपर्युक्त तथ्यों में राक्षस और असुर श्रेष्ठ और धर्मज्ञ के रूप में वर्णित हैं ।  फिर बुरे व्यक्ति को राक्षस और असुरों की संज्ञा क्यों दी जाती है ?

जिनके पैरों में और हाथों में सदीयों से वेणीयाँ और हथकड़ियाँ पड़ी रही हों
धर्म और पाप का भय दिखाकर जिन्हें
शिक्षा और संस्कारों से वञ्चित किया गया हो ।

क्या वो लोग उनसे तत्काल मुकाबला कर लेंगें ?

--जो सदीयों से स्वतन्त्र उच्छ्रँखल और अय्याशी का जीवन व्यतीत करते रहे हों
ये कहाँ का न्याय है ?
उल्लू साले ओ !!! 😟😟

सायद नहीं क्यों कि --जो हजारों वर्षों से जो बन्दिशों में रहे हों तो वे 'बहुत समय तक तो खुद को बन्दिशों में ही अनुभव करते करेंगे ।
उन्हें यह एहसास दिलाने में ही सैकड़ों वर्षों लगेगी
कि वो अब स्वतन्त्र और सामान्य हैं ।
इसलिए आरक्षण उनके लिए एक सम्बल है ।
और यह सम्बल  उनको सौ वर्षों तक तो मिलना ही चाहिए --जो हजारों वर्षों से बन्दिशों में रहे हों

फिर हम देखते हैं कि किसमें कितनी ताकत है ।

यद्यपि आज भी ये पिछड़े वञ्चित लोग अधिकार के पूर्ण पूर्ण विश्लेषण मिलने पर भी

मुकाबला में हार नही मानते
क्यों हार तो इनके नसीब में ही नहीं !
                     
                      यादव योगेश कुमार "रोहि"
                         

क्या राय है तुम्हारी राय साहब !

     अब बताओ !!!

           प्रेषक :- यादव योगेश कुमार'रोहि

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वी कुमार यादव
यादव योगेश कुमार "रोहि"

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