बुधवार, 7 जून 2017

पाखण्ड शब्द का इतिहास ....


जैन परम्पराओं में---
क्रमांक ३ समयसार की गाथा क्रमांक ४०८, ४१० एवं ४१३ में एक शब्द आया है :-----‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’। देखें- ‘‘पासंडिय लिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्प याराणि ।
..... ४०८।। णवि एस मोॅक्खमग्गो पासंडिय गिहिमयाणि लिंगाणि ।... ४१०।।
पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ............. ४१३।।
उक्त सन्दर्भों में आचार्य कुन्दकुन्द बताना चाहते हैं ,कि ‘बहुत प्रकार के मुनि लिंग एवं गृहस्थलिंग हैं, मात्र इन बाह्य लिंगों (वेषों) को धारण करके अपने आपकों मोक्षमार्गी मानने वाले जीव-मूढ़-अज्ञानी हैं,
क्योंकि बाह्यलिंग (बाह्य मुनि या श्रावक वेष) का मोक्षमार्ग से सीध कोई सम्बन्ध नहीं है।
’ इनमें प्रयुक्त ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द को मूल शौरसेनी प्राकृत भाषा का शब्द है।
इसकी व्याकरण, शाब्दिक प्रकृति एवं व्युत्पत्ति आदि समझे बिना प्राय: सभी आधुनिक सम्पादकों ने इसके स्थान पर ‘पाखडिय’ एवं ‘पाखंडी’ शब्द का प्रयोग कर दिया है।
जो इसका ही इतर रूप है ।
यह एक अविचारित प्रयोग है, जिसके लोकरूढ़ अर्थ के कारण इसका अर्थ-विपर्यय भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है।
आज लोक में ‘पाखण्डी’ शब्द ‘ढोंगी’ (दम्भी) या ‘नकली’ साधु के अर्थ में रूढ़ हो चुका है।
जबकि आज से दो हजार वर्ष पूर्व इसका अर्थ भी अलग था, तथा शौरसेनी प्राकृत में इसका शाब्दिक रूप भी ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ था- ‘पाखंडी’ कदापि नहीं। इसकी शब्द-परम्परा एवं अर्थ परम्परा का परिचय-निम्नानुसार है-:----- १. ‘‘देवानां पिये पियदरसि राजा सव पासंडानि’’ (समस्त मुनिलिंग) (सम्राट् अशोक, गिरनार शिलालेख) ‘‘तेसु-तेसु निगण्ठेसु नानापासंडेसु’’ (सम्राट् अशोक, फिरोजशाह कोटला, दिल्ली में स्थित शिलालेख) अर्थात् ‘उन-उन निर्ग्रन्थों के विभिन्न मुनिलिंगों में।
’ २. ‘‘गुणविसेस-कुसलो सब पासंड-पूजको’’ (सम्राट् ऐल खारबेल, खण्डगिरि शिलालेख) (मैं) सभी (निग्र्रन्थ-दिगम्बर) मुनिलिंगों की पूजा करता हूँ। ३. ‘पासण्ड, पासण्डिक’- मिथ्यादृष्टि (पालि-हिन्दी कोश, पृ. २२२) ४. पासंड, पासंडत्थ - मिथ्यादर्शन, नास्तिक, दुष्टबुद्धि (अद्र्धमागधी कोश, पृ. ५७४) ५. पासंडि - अट्टविध-कम्मपासातो डीणों पासंडी, पाशाड्डीन: पाषण्डी (निरुक्तकोश, पृ. २०) जो अष्टविध कर्मपाश से दूर है, वह पासण्डी (मुनि) है। ‘पाश’ शब्द से ‘डीन’ प्रत्यय का विधान करके ‘पाषण्डी’ या ‘पासंडी’ शब्द निष्पन्न हुआ है। ६. पापं खण्डयति-इति पाखण्डी-सत्साधु: । जो पाप का खण्डन करे, वही ‘पाखण्डी’ है, जिसका अर्थ ‘सच्चा साधु’ है।
७. पाखण्डं व्रतमित्याहुस्तद् यस्यास्त्यमलं भुवि ।
स पाखण्डी वदन्ति एवं कर्मपाशाद् विनिर्गत: ।। ‘पाखण्ड’ नाम व्रत का है, वह निर्मल व्रत इस भूमण्डल पर जिसके है, उसे ही ‘पाखण्डी’ कहते हैं।
वह कर्मबन्धन से विनिर्गत है।
८. सग्रंथारंभ-हिंसानां, संसारावत्र्तवर्तिनाम् ।
पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखंडिमोहनम् ।। (रत्नकरण्ड श्रावकाचार, २४) परिग्रह आरम्भ, हिंसा से युक्त संसार के चक्कर में पड़े हुए पाखंडियों (खोटे गुरुओं) की विनय/सम्मान करना गुरुमूढ़ता जानना चाहिए।
ब्राह्मण -वादी विद्वानों के अनुसार पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति. :----
९. पातीति पा: (पा + क्विप् प्रत्यय), पा: त्रयीधर्मस्तं खण्डयतीति पाखण्डी ।
यदुक्तम् - ‘‘पालनाच्च त्रयीधर्मा: ‘पा’ शब्देन निगद्यते ।
तं खण्डयन्ति ते यस्मात् पाखण्डास्तेन हेतुना ।। (शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृ.) अर्थात् जो त्रयीधर्म (वेदत्रयी) का खण्डन करे, वह ‘पाखंडी’ है।
१०. नानाव्रताधरा: नानावेशा: पाखण्डिनो मता:- पाषण्ड: - (अमरकोष टीका, भानुदीक्षित)--
अनेक प्रकार के व्रतों के धारक, नानावेशधारी ‘पाखण्डी’ माने गये हैं।
११. वेदादि-शास्त्रं खण्डयतीति पाखण्डी - (पद्मचन्द्रकोश, ३०९) श्रमण यतियों के अनेकों पर्यायवाची नामों में ‘पाखण्डी’ नाम भी है।
उक्त समस्त विश्लेषण का समग्रावलोकन करें तो निम्न निष्कर्ष निषेचित होते हैं-:--- (क) प्राकृत शिलालेखों एवं ग्रन्थों में ‘पासंडिय’ एवं ‘पासंडी’ शब्द मिलते हैं, जबकि संस्कृत में ‘पाखंडी’ प्रयोग है।
(ख) ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द का मूल अभिप्राय निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेशधारी समस्त महाव्रती जैन श्रमण है।
इन्हें वैदिकों, बौद्धों और श्वेताम्बरों ने ही प्रमुखत: मिथ्यादृष्टि या नास्तिक माना है, क्योंकि निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन साधु-परम्परा इन तीनों को कभी इष्ट नहीं रही।
तथा यह दुष्प्रचार इतना अधिक जोर पकड़ा कि ‘पाखण्डी’ शब्द ढोंगी, कुलिंगी, मिथ्यादृष्टि साधु के अर्थ में लोकजीवन में रूढ़िगत रूप से प्रचलित हो गया।
जैसे कि ‘नंगा-लुच्चा’ "नाखन्दा " शब्द प्रारम्भिक रूप में जैनियों के पवित्र विशेषण थे । विशेषत:
महावीर स्वामी के ही ये विशेषण थे ।
कालान्तरण में इनमें विकृतियाँ भी आयीं
इसी लिए आज ये शब्द सामाजिक गालीयाँ बन गये हैं ।
‘नग्न दिगम्बर, केशलोंच करने वाले’ लुञ्चित - ये  पवित्र अर्थों के वाहक शब्द थे ।
किंतु लोकजीवन में ये अपमानसूचक बन गये हैं।
प्राय: संस्कृत-साहित्य एवं कोश-ग्रन्थों में ‘पाखण्डी’ शब्द गलत अर्थों में प्रचलित/व्याख्यायित हो जाने से आचार्य समन्तभद्र ने भी लोकरूढ़ि के अर्थ के अनुसार ‘पाखंडी विनय’ को ‘गुरुमूढ़ता’ कहा है।
३. अर्थ चाहे सत्साधु हो या कुसाधु- किन्तु इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द ने समयसार में उक्त तीनों गाथाओं में इसे मुनियों का पर्याय माना है।
और शास्त्रों में मुनियों के जो अनेकों भेद किये गये हैं, उन्हें वे ‘पासंडिय लिंगाणि’ शब्द से सूचित करना चाहते हैं।
यहाँ ‘मात्र बाह्य नग्नवेष को मुक्तिमार्ग न मानने’ से उनका तात्पर्य मोक्षमार्ग में भावलिंग की प्रधानता सूचित करना है।
साथ ही उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट है कि समयसार शौरसेनी प्राकृत की रचना है, और प्राकृत में ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ का प्रयोग तो बनते हैं, किन्तु ‘पाखण्डी’ प्रयोग प्राकृत में कदापि नहीं हो सकता। ‘‘पापं खण्डयतीति पाषण्डी’’ - इस निरुक्ति के अनुसार भी मूल शब्द ‘पाषण्डी’ है, और चूंकि संस्कृत में मूर्धन्य ‘षकार’ को ‘ख’कार उच्चारण करने की वैदिकों की परम्परा रही हैं, अत: संस्कृत में प्रचलित ‘पाखण्डी’ रूप भी मूलरूप नहीं है। तथा प्राकृत भाषा में तो स,श,ष- इन तीनों के स्थान पर मात्र दन्त्य ‘स’कार का ही प्रयोग होता है, अत: मूलशब्द ‘पाषण्डी’ भी लें, तो उसका प्राकृत रूप ‘पासंडी’ बनेगा, ‘पाखंडी’ नहीं।
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पाषण्ड शब्द लगभग समग्र भारतीय पुराणों में मनु-स्मृति ,महाभारत तथा वाल्मीकि- रामायण में उद्धृत हुआ है ।
वह भी बौद्ध-परिव्राजक सम्प्रदाय के लिए
अत: इन सभी ग्रन्थों का लेखन कार्य नये सिरे से पूर्व-दुराग्रह से ग्रसित होकर अनेक परस्पर विरोधी कथाओं
का ध्यान किये विना शीघ्रता से किया गया है ।
जो सिद्ध करता है , कि ये ग्रन्थ पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक किया गया ,
प्राय: सभी की भाषा पाणिनीय व्याकरण संगत है।

वस्तुत: पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति- पाष + षण्ड के योग से समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा पाषण्ड शब्द व्युत्पन्न हुआ है ।
महात्मा बुद्ध ने तत्कालीन ब्राह्मण समाज के द्वारा प्रचलित वैदिक- विधानों के उन पाशों का षण्डन (खण्डन) किया ।
जो ब्राह्मण समाज के कुछ तथाकथित चालाक, धूर्त
धर्म-अध्यक्षों द्वारा समाज के अशिक्षित जनता के ऊपर आरोपित कर दिया था ।
पाषण्ड शब्द बुद्ध का प्रथम परिव्राजक है ।
जिसने समाज में साम्यवादी विचारों का प्रसारण किया,
सम्राट अशोक ने  इस बौद्ध-परिव्राजक सम्प्रदाय के लिए  संरक्षण के अतिरिक्त अतीव दान भी दिया था ।
सम्भवत: कालान्तरण में इस सम्प्रदाय में कुछ विकृतियाँ भी आयीं , तथा कुछ ब्राह्मण समाज के द्वारा द्वेष वश विरोधी भी  किया गया अन्तोगत्वा यह शब्द आडम्बर का पर्याय बन गया ।
इतना ही नहीं बुद्ध शब्द को भी बुद्धू बना कर
  बुद्ध को समाज में हेय दृष्टि से प्रचलित किया गया ।
बुद्ध शब्द ही बुद्ध - मूर्तीयों की अधिकता के कारण पारसी जगत् मे ब़ुत बन गया --
इस्लाम आगाज़ ही इस ब़ुत -शिकन सम्प्रदाय के रूप में पश्चिमीय- एशिया में हुआ..
इसी परिकल्पनाओं में कल्कि- पुराण की रचना हुई ।
   क्योंकि मौहम्मद साहब को उनके सागिर्द उन्हें उनकी ख़ुशूसियत (बहुत से गुण) के कारण ख़लीक सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के तकब से नवाजते थे ।
      कल्कि शब्द ख़लीक :---(बहुत से अख़लाक वाला )
शब्द के आधार पर व्युत्पन्न किया गया ।
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  प्रस्तुति-कर्ता  एवम् विचार-विश्लेषक :----- योगेश कुमार रोहि ग्राम - आजा़दपुर पत्रालय -पहाड़ीपुर जनपद- अलीगढ़---के सौजन्य से

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