रविवार, 18 जून 2017

यादव और बनिया यहूदी और फॉनिशीयों के वंशज....


फिनीशियों ने जहां बसेरा किया वह फिनीशिया कहलाया।
वेदों मे इन्हें पणि कहा है ।
ये लोग सीरियनों के समकालिक तथा असीरियनों के मित्र जाति के थे ।
फ़रात के समीप वर्ती आधुनिक लेवनान मे निवास करते थे ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के १०८ वें सूक्त में
एक से लेकर ग्यारह छन्दों तक ..
वर्णन है ।
कि इन्द्र की दूतिका देव शुनी सरमा  दजला - फरात के जल प्रदेशों में पणि-असुरों को खोजती हुई पहुँचती है ।
तथा पणियों को इन्द्र की महान शक्ति वर्णन करके
भयाक्रान्त करने के उद्देश्य  से बहुत सी गायों को देने के लिए बाध्य करती है ।
यह एक काव्यात्मक वर्णन है ।
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जो ध्वनित करता है कि देव संस्कृति के उपासक ब्राह्मण समाज के लोग पणियों से अपेक्षा  करते थे कि वे उन्हें दान के रूप में गायें तथा धन दें ..
और पणि (फिनीशियन) लोग उन्हें दान देते नहीं थे ।
इसी लिए भारतीय पुराणों आदि में पणियों को हेय माना गया है ।
वेदों में वस्तुत: सुमेरियन बैवीलॉनियन एवम् असीरियन तथा फॉनिशियन जन-जातियाँ का वर्णन स्पष्टत: है ।
वेदों में वर्णन है कि पणि लोग अंगिराओं अर्थात् द्यौस(ज्यूस) के अनुयायीयों की गायें चुराते थे ।
यद्यपि ये बाते पणियों के विरोधियों ने द्वेष वश ही वर्णित 'की हों ?
सम्भवत: ये पणि वैश्य वर्ग का पूर्व रूप है ।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में विक्ड( wicked)
अथवा wiking तथा vice जैसे शब्द है ।जो समुद्रीय
यात्रा करने वाले लुटेरों या व्यापारीयों का वाचक है।
यूरोपीय तथा पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों में अंगिरस् ही एञ्जिलस् (Angelus).
बन गया ..
जो फरिश्ता को कहते हैं ।
जर्मनिक जन-जातियाँ की एक शाखा भी स्वयं को एेंजीलस( Angeles) कहती है जो पुर्तगाल की भाषा में अंग्रेज हो गया इस कबीले के लोग पाँचवीं सदी ईसवी में ब्रिटेन के विजेता हुए ।
वैदिक द्यौस वहाँ ज्यूस (Zues)
हो गया...
वल पणियों का इष्ट तथा अंगिराओं का प्रतिद्वन्द्वी है ।
जिसे यूरोपीय पुरातन संस्कृति में ए-विल( Evil).कह गया हिब्रू बाइबिल तथा क़ुरान शरीफ़ में इब़लीस् के रूप में अवतरित हुआ ।
वेदों में अंगिराओं का वर्णन है
"उद्गा आजत अंगिरोभ्य आविष्कृण्वत गुहासती अर्वाणच्  नुनेद बलम् ।।. ( ऋग्वेद)
अर्थात् गुफाओं में अंगिराओं के लिए गायें खोजते हुए
इन्द्र ने उन गायों को बाहर प्रेरित किया , तथा बल को दमन कर  दिया ।।
मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों से सम्बद्ध ऐसे अनेक सन्दर्भ वेदों में खोजे जा सकते हैं
बल को  जिनमें  कहीं  इष्टकारक तथा कहीं अनिष्ट कारक कहा है ।
बल असीरी अर्थात् असुर तथा फॉनिशियन अर्थात् पणि या आधुनिक वणिक जन-जाति का इष्ट देव माना गया है ।
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ग्रावाण सोम ने हि कं सरिवत्ववना वावशु।
जहि , न्यत्रिणं पणिं वृको हीष ।।
अर्थात् हे सोम तुम पणियों को मारो अभिषव करने वाले हम तुम्हारा कामना करते हैं।
ऋग्वेद-- ६/६१/१
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वेदों में इस प्रकार के अनेक सन्दर्भ हैं
पणियों के क्षेत्र को
आज के लेबनान के रूप में पहचाना जा सकता है। फिनीशी सभ्यता का प्रभाव फलस्तीन, इस्राइल,कार्थेज (उत्तरीय अफ्रीका का ट्यूनिशिया ),सीरिया (शाम)और जॉर्डन में भी रहा।
जिस तरह से वनस्पतियों के प्रसार के लिए परागण की विधियाँ सहायक होती हैं ,उसी तरह भाषा के विस्तार और विकास में भी कई कारक सहायक होते हैं ।
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जिनमें सबसे महत्वपूर्ण हैं व्यापार-व्यवसाय।
ईसा से भी कई सदियों पहले से भारत के पश्चिमी दुनियाँ से खासतौर पर दक्षिण-पूर्वी यूरोप  से कारोबारी रिश्ते थे।
इन्हीं रिश्तों की बदौलत विशाल क्षेत्र की भाषा संस्कृति भी समृद्ध होती चली गई।
पश्चिमी एशिया में एक भूमध्यसागरीय इलाका जिसे आज लेबनान कहा जाता है
भी फिनीशिया कहलाता था।
इस क्षेत्र के फिनीशिया नामकरण के पीछे भी वैदिक काल का एक शब्द पणि या पण  अवलोकन कर रहा है।
और आज भी हिन्दी में यह पणि अपने बहुरूप में उपस्थित  है।
प्राचीन भारत(ईसापूर्व)२००० से १५००  के अवान्तर काल में प्रचलित कार्षापण मुद्रा में भी पण ही झांक रहा है।
कर्ष शब्द का अर्थ होता है अंकन करना, उत्कीर्ण करना।
संस्कृत भाषा की कृष् धातु से ..
पण का उल्लेख वैदिक साहित्य में कारोबार, सामग्री, हिसाब-किताब, व्यापार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के अर्थ में आता है।
कार्षापण का इस तरह अर्थ हुआ उत्कीर्ण मुद्रा।
इससे साफ है कि उत्तर वैदिक काल से लेकर कार्षापण का चलन होने तक पण ही लेन-देन के भुगतान का जरिया थी मगर पण नामक मुद्रा टंकित नहीं थी।
धातु के अनघड़ टुकड़ों को ही तब पण कहा जाता रहा होगा।
पण से ही निकला पण्य शब्द जिसका अर्थ होता है व्यापारिक सामग्री।
हिन्दी-उर्दू में प्रचलित छोटे व्यापारी या दुकानदार के लिए पंसारी शब्द के पीछे भी यही पण्य शब्द है जो बना है पण्य+शाल >पन्नशाल>पंसार के क्रम में।
पण्यचारी से शब्द बना बंजारा.
क्रय-विक्रय के अर्थ में विपणन शब्द खूब प्रचलित है गौर करें इसमें झांक रहे पण् शब्द पर।
मुंबई के पास पनवेल नामक जगह है जो समुद्र तट पर है।
स्पष्ट  है किसी ज़माने में यह सामुद्रिक व्यापार का केन्द्र रहा होगा।
द्रविड परिवार की संस्कृतियों के समानान्तर ये  फिनीशियन लोग भी समुद्रीय यात्राऐं करते थे ।
पण्य+वेला अर्थात क्रय-विक्रय की जगह के तौर पर इसका नाम पण्यवेला रहा होगा जो घिसते-घिसते पनवेल हो गया।
संस्कृत वैदिक सन्दर्भों में प्रयुक्त मण अथवा मन हिब्रू मनेह का रूपान्तरण है ।जो आज चालीस किलो की एक तोल इकाई है ।
ईसा से पांच-छह सदी पहले भारतीय उपमहाद्वीप में पण नाम की ताम्बे की मुद्रा प्रचलित थी।
पण का रिश्ता वैदिक पणि से जुड़ता है।
पणि शब्द वैदिक ग्रंथों में कई बार इस्तेमाल हुआ है जिसका अर्थव्यापारी, कारोबारी के रूप में बताया गया है। किसी ज़माने में पणि समुदाय भारतवर्ष से लेकर पश्चिमी एशिया तक फैला हुआ था।
पणि अर्थात व्यापारी, वाणिज्य व्यवसाय करनेवाले लोगों का समूह किस काल में था इसका अनुमान भी वैदिक कालनिर्धारण से ही होता है क्योंकि इस शब्द का उल्लेख वेदों से ही शुरू हुआ है।
जर्मन विद्वान विंटरनिट्ज ईसापूर्व 7000 से लेकर 2500 के बीच वैदिक काल मानते हैं मगर ज्यादातर विद्वान इसे 2500-1500 ईपू के बीच ही ऱखते हैं।
जो अधिक सही है ।
विद्वानों का मानना है कि पणियों और आर्यों के बीच महासंग्राम हुआ था ,जिसके चलते वे भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों से खदेड़े गए।
परन्तु यह सांस्कृतिक मत भेद तो दजला - फरात के दुआवों ही उत्पन्न हो गया था ।
परास्त पणियों के बड़े जत्थों ने पश्चिम की राह पकड़ी, कुछ बड़े जत्थे दक्षिणापथ की ओर कूच कर गए।
शेष समूह इधर-उधर छितरा गए।
पश्चिम की ओर बढ़ते जत्थों नें ईरान होते हुए अरब में प्रवेश किया और आज जहां लेबनान है वहां क़याम किया।
अनेक भारतीय-पाश्चात्य विद्वानों ने पणियों की पहचान फीनिशियों के रूप में की है।
ग्रीक-यूनानी संदर्भों में भी फिनीशियाई लोगों की जबर्दस्त व्यापारिक बुद्धि की खूब चर्चा है।
पणि या फिनीशी लोग समुद्रपारीय यात्राओं में पारंगत तो  थे ही  वे महान नाविक  भी थे।
गणित ज्योतिष आदि में भी उन्हें दक्षता हासिल थी।
इन्होंने ही लिपि का आविष्कार किया फॉनिशियन लिपि से ही ब्राह्मी तथा देवनागरी जैसी भारतीय लिपियों का जन्म हुआ...
किसी ज़माने में भूमध्यसागरीय व्यापार करीब करीब उन्हीं के कब्जे में था।
कई सदियों बाद अरब के सौदागरों नें जहाजरानी में अपना दबदबा कायम किया वह दरअसल फिनीशियों की परंपरा पर चल कर ही सीखा।
लेबनान, फलस्तीन और इस्राइल का क्षेत्र मानव शास्त्रीय दृष्टि से   कनान अथवा कैननाइट्स  संस्कृति से सम्बद्ध  था।
यहूदियों के पुरखे भी कनॉन ही कहलाते हैं।
यहूदी लोग वेदों में वर्णित यदु: अथवा यदव: जन-जाति के लोग हैं ।
क्योंकि यदु और तुर्वसु का नाम वेदों में प्रायश:
साथ-साथ आता है ।
और इन्हें भी पणियों का सहवर्ती तथा दास या असुर के रूप में परिगणित किया है ।
        ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण है---
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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समूची दुनियाँ में यहूदी भी महान सौदागर कौम के तौर पर ही विख्यात हैं।
क़ुरान शरीफ़ के हवाले से यहूदी सोने चाँदी तथा जवाहरात का व्यापार करते थे।
मिश्र में रहने वाले ईसाई समुदाय के सोने - चाँदी व  जवाहरात का व्यापार करने वाले कॉप्ट( Copt)
जो भारतीय गुप्त/गुप्ता से सम्बद्ध हैं ।
यहूदी ही है ।
फिर बारहसैनी बनिया तो स्वयं को यादवों की वृष्णि शाखा से सम्बद्ध मानते हैं।
और वार्ष्णेय सरनेम लिखते हैं ।
अक्रूर को अपना पूर्वज मानते हैं ।
ये बनिया तो हैं ही और भारतीय ब्राह्मण समाज ने इन्हें कभी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा ...
इतिहास को उठाकर देख लो ..
ये फॉनिशियन जन-जातियाँ के लोग
असुर संस्कृति में आस्था रखते थे ।
भारतीय पुराणों में यादवों को मधु नामक असुर से सम्बद्ध मानकर तथा वैश्य वर्ग में वर्गीकृत किया है ।
जिसके नाम पर मधुपर: अथवा मधुरा /मथुरानामकरण हुआ आभीर के रूप में यादवों को कहीं  शूद्र माना .
वस्तुतः इन भारतीय पुराणों में वर्णित कथाओं  का आधार सुमेरियन संस्कृति ही है,
परन्तु कथाओं को लिखने वाले अपने अपने पूर्व -दुराग्रहों से ग्रसित भी थे ।
जिसके मन में जैसा आया लिखा ..
और व्यास के नाम की मौहर लगा दी ..
महाभारत तथा रामायण जैसे ग्रन्थ बौद्ध काल के बाद तक लिखे जाते रहे ... क्योंकि महाभारत में भी बुद्ध का वर्णन है और रामायण के अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण ।
जिसमें राम जावालि ऋषि के साथ सम्वाद करते हुए राम  बुद्ध को चोर तथा नास्तिक कह कर सम्बोधित कर रहे हैं । जो बिल्कुल असम्भव है ।
राम और बुद्ध के समय में भी बहुत भेद है ।
यथा ही चोर स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि"---
आभीर जन-जाति का विरोधाभासी वर्णन महाभारत के मूसल पर्व में भी कर दिया है ।
जो काल्पनिक ही है ।

पणि या फिनीशी लोग समुद्र -पारीय यात्राओं में पारंगत तो थे ही वे महान  नाविक भी थे।
गणित ज्योतिष आदि में भी उन्हें दक्षता हासिल थी। किसी ज़माने में भूमध्यसागरीय व्यापार करीब करीब उन्हीं के कब्जे में था।
सम्भव है सिन्धु घाटी की सभ्यता के नष्ट होने के पीछे जिस आर्य आक्रमण का उल्लेख किया जाता है ।
वह आर्यों और पणियों के महासंग्राम की शक्ल में सामने आया हो।
ये द्रविडों के समानान्तर तथा उन्हीं की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
द्रुज़ जन-जाति का पूर्व रूप ड्रयूड( Druids)
है।
जो भारत में द्रविड है ।
द्रविड परिवार के लोग ही विश्व इतिहास में वैज्ञानिक तथा दार्शिनिक गतिविधियों के प्रथम सूत्र धार थे ।
सिंधु घाटी की सभ्यता व्यापार-व्यवसाय में खूब उन्नत थी।
सुदूर सुमेरी सभ्यता से भी उसके रिश्तों के प्रमाण मिले हैं।
कई विद्वान उसे द्रविड़ सभ्यता भी मानते हैं।
दक्षिण पूर्वी अफ़गानिस्तान के एक हिस्से में ब्राहुई भाषा का द्रविड़ भाषाओं से साम्य यह साबित करता है , कि कभी सुदूर उत्तर पश्चिमी भारत में द्रविड़ बस्तिया फल फूल रही थीं।
पणि शब्द चाहे हिन्दी में विद्यमान नहीं है ।
परन्तु वणिक शब्द  तो है ।
परन्तु संस्कृत भाषा में पण् धातु का अर्थ :-----भ्वा० आत्मने पदीय रूप -- पणते पणित ----१-- स्तुति करना २-- व्यापार करना ३ शर्त लगाना ।
संस्कृत भाषा में पण् शब्द का प्रयोग धन सम्पत्ति आदि  के अर्थ में भी होता रहा है ।
इधर द्रविड़ वर्ग की भाषाओं में मुद्रा, धन के अर्थ में फणम्(fanam), पणम् जैसे शब्दों की उपस्थिति से यह पता चलता है , कि भारत के उत्तर पश्चिम में पणियों का निवास था।
बनिया शब्द का मूल पणि शब्द है जो फॉनिशियन जन-जातियाँ का वाचक है ।
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विचार-विश्लेण-- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम:- आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़- उ०प्र०.
  

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