कापालिकमतासक्ता बौद्धशास्त्ररताः सदा ।
पाखण्डाचारनिरता भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७२ ॥
पितृमातृसुताभ्रातृकन्याविक्रयिणस्तथा ।
भार्याविकयिणस्तद्वद्भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७३ ॥
वेदविक्रयिणस्तद्वत्तीर्थविक्रयिणस्तथा ।
धर्मविक्रयिणस्तद्वद्भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७४ ॥
पाञ्चरात्रे कामशास्त्रे तथा कापालिके मते ।
बौद्धे श्रद्धायुता यूयं भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७५ ॥
मातृकन्यागामिनश्च भगिनीगामिनस्तथा ।
परस्त्रीलम्पटाः सर्वे भवत ब्राह्मणाधमाः ॥ ७६ ॥
युष्माकं वंशजाताश्च स्त्रियश्च पुरुषास्तथा ।
मद्दत्तशापदग्धास्ते भविष्यन्ति भवत्समाः ॥७७ ॥
किं मया बहुनोक्तेन मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
गायत्री परमा भूयाद्युष्मासु खलु कोपिता ॥ ७८ ॥
अन्धकूपादिकुण्डेषु युष्माकं स्यात्सदा स्थितिः ।
व्यास उवाच
वाग्दण्डमीदृशं कृत्वाप्युपस्पृश्य जलं ततः ॥ ७९॥
जगाम दर्शनार्थं च गायत्र्याः परमोस्तुकः ।
प्रणनाम महादेवीं सापि देवी परात्परा ॥ ८० ॥
ब्राह्मणानां कृतिं दृष्ट्वा स्मयं चित्ते चकार ह ।
अद्यापि तस्या वदनं स्मययुक्तं च दृश्यते ॥ ८१ ॥
उवाच मुनिवर्यं तं स्मयमानमुखाम्बुजा ।
भुजङ्गायार्पितं दुग्धं विषायैवोपजायते ॥ ८२ ॥
शान्तिं कुरु महाभाग कर्मणो गतिरीदृशी ।
इति देवीं प्रणम्याथ ततोऽगात्स्वाश्रमं प्रति ॥८३॥
ततो विप्रैः शापदग्धैर्विस्मृता वेदराशयः ।
गायत्री विस्मृता सर्वैस्तदद्भुतमिवाभवत् ॥८४ ॥
ते सर्वेऽथ मिलित्वा तु पश्चात्तापयुतास्तथा ।
प्रणेमुर्मुनिवर्यं तं दण्डवत्पतिता भुवि ॥ ८५ ॥
नोचुः किञ्चन वाक्यं तु लज्जयाधोमुखाः स्थिताः।
प्रसीदेति प्रसीदेति प्रसीदेति पुनः पुनः ॥ ८६ ॥
प्रार्थयामासुरभितः परिवार्य मुनीश्वरम् ।
करुणापूर्णहृदयो मुनिस्तान्समुवाच ह ॥ ८७ ॥
कृष्णावतारपर्यन्तं कुम्भीपाके भवेत्स्थितिः ।
न मे वाक्यं मृषा भूयादिति जानीथ सर्वथा ॥ ८८॥
ततः परं कलियुगे भुवि जन्म भवेद्धि वाम् ।
मदुक्तं सर्वमेतत्तु भवेदेव न चान्यथा ॥ ८९ ॥
मच्छापस्य विमोक्षार्थं युष्माकं स्याद्यदीषणा ।
तर्हि सेव्यं सदा सर्वैर्गायत्रीपदपङ्कजम् ॥ ९० ॥
व्यास उवाच
इति सर्वान्विसृज्याथ गौतमो मुनिसत्तमः ।
प्रारब्धामिति मत्वा तु चित्ते शान्तिं जगाम ह ॥ ९१ ॥
एतस्मात्कारणाद्राजन् गते कृष्णे तु धीमति ।
कलौ युगे प्रवृत्ते तु कुम्भीपाकात्तु निर्गताः ॥९२॥
भुवि जाता ब्राह्मणाश्च शापदग्धाः पुरा तु ये ।
सन्ध्यात्रयविहीनाश्च गायत्रीभक्तिवर्जिताः ॥९३ ॥
वेदभक्तिविहीनाश्च पाखण्डमतगामिनः ।
अग्निहोत्रादिसत्कर्मस्वधास्वाहाविवर्जिताः ॥ ९४॥
मूलप्रकृतिमव्यक्तां नैव जानन्ति कर्हिचित् ।
तप्तमुद्राङ्किताः केचित्कामाचाररताः परे ॥ ९५॥
कापालिकाः कौलिकाश्च बौद्धा जैनास्तथापरे ।
पण्डिता अपि ते सर्वे दुराचारप्रवर्तकाः ॥९६॥
लम्पटाः परदारेषु दुराचारपरायणाः ।
कुम्भीपाकं पुनः सर्वे यास्यन्ति निजकर्मभिः ॥ ९७ ॥
तस्मात्सर्वात्मना राजन् संसेव्या परमेश्वरी ।
न विष्णूपासना नित्या न शिवोपासना तथा ॥ ९८॥
नित्या चोपासना शक्तेर्यां विना तु पतत्यधः ।
सर्वमुक्तं समासेन यत्पृष्टं तत्त्वयानघ ॥ ९९ ॥
अतः परं मणिद्वीपवर्णनं शृणु सुन्दरम् ।
यत्परं स्थानमाद्याया भुवनेश्या भवारणेः ॥ १००॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे
ब्राह्मणादीनां गायत्रीभिन्नान्यदेवोपासनाश्रद्धाहेतुनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हे राजन्! कालकी महिमा भला कौन जान सकता है? उस समय उन ब्राह्मणोंने मायाके द्वारा एक मरणासन्न वृद्ध गाय बनायी, जब मुनि हवन कर रहे थे, उसी समय वह गाय यज्ञशालामें पहुंची। मुनि गौतमने 'हुं हूं' शब्दोंसे उसे आनेसे रोका; उसी क्षण उसने अपने प्राण त्याग दिये ॥ 51-52 ॥
तब वे ब्राह्मण जोर-जोरसे कहने लगे कि इस दुष्ट गौतमने गौकी हत्या कर दी। तब मुनिराज गौतम हवन समाप्त करनेके पश्चात् इस घटनासे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे। वे अपने नेत्र बन्द करके समाधिमें स्थित होकर इसके कारणपर विचार करने लगे। यह सब कुछ ब्राह्मणोंने ही किया है-ऐसा जानकर उन्होंने प्रलयकालीन रुद्रके क्रोधके समान परम कोप किया। इस प्रकार कोपसे लाल नेत्रोंवाले उन गौतमने सभी ऋषियोंको यह शाप दे दिया 'अधम ब्राह्मणो! तुमलोग वेदमाता गायत्रीकी उपासना, ध्यान और उनके मन्त्र जपसे सर्वथा विमुख हो जाओ हे अथम ब्राह्मणो वेद, वेदोक्त यज्ञों तथा वेदसम्बन्धी वार्ताओंसे तुम सभी सदा वंचित रहो। हे अधम ब्राह्मणो! तुम सभी शिवोपासना, शिव-मन्त्रके जप तथा शिव-सम्बन्धी शास्त्रोंसे सर्वदा विमुख हो जाओ ॥ 53-58 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! मूलप्रकृति भगवती श्रीदेवीकी उपासना, उनके ध्यान तथा उनकी कथाओंसे तुमलोग सदा विमुख हो जाओ हे अधम ब्राह्मणो देवीके मन्त्र जप, उनकी प्रतिष्ठास्थली तथा उनके अनुष्ठान कर्मसे तुमलोग सदा पराङ्मुख हो जाओ ।। 59-60 ॥
हे अधम ब्राह्मणो देवीका उत्सव देखने तथा उनके नामोंके कीर्तनसे तुम सब सदा विमुख रहो। हे अधम ब्राह्मणो देवी भक्तके समीप रहने तथा देवी भक्तोंकी अर्चना करनेसे तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ।। 61-62 ।।हे अधम ब्राह्मणो ! भगवान् शिवका उत्सव देखने तथा शिवभक्तका पूजन करनेसे तुम सदा विमुख रहो। हे अधम ब्राह्मणो ! रुद्राक्ष, बिल्वपत्र तथा शुद्ध भस्मसे तुमलोग सर्वदा वंचित रहो ॥ 63-64 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! श्रौतस्मार्त सम्बन्धी सदाचार तथा ज्ञान-मार्गसे तुमलोग सदा वंचित रहो। हे अधम ब्राह्मणो! अद्वैत ज्ञाननिष्ठा और शम-दम आदि साधनोंसे तुमलोग सर्वदा विमुख रहो ॥ 65-66 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! नित्यकर्म आदिके अनुष्ठान तथा अग्निहोत्र आदि सम्पन्न करनेसे भी तुमलोग सदा वंचित हो जाओ ॥ 67 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! स्वाध्याय-अध्ययन तथा प्रवचन आदिसे भी तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ॥ 68 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! गौ आदिके दान और पितरोंके श्राद्धकर्मसे तुम सभी लोग सदाके लिये विमुख हो जाओ ॥ 69 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रतों तथा पाप आदिके प्रायश्चित्त कर्मोंसे तुम सभी लोग सर्वदाके लिये विमुख हो जाओ ॥ 70 ॥
हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग देवी भगवतीके अतिरिक्त अन्य देवताओंके प्रति श्रद्धा तथा भक्तिसे युक्त होकर और शंख-चक्र आदिका चिह्न धारण करनेवाले हो जाओ ॥ 71 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग कापालिक मतमें आसक्त, बौद्ध शास्त्रोंके परायण तथा पाखण्डपूर्ण आचारमें निरत रहो ॥ 72 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग पिता, माता, पुत्री, भाई, कन्या और पत्नीका विक्रय करनेवाले व्यक्तियोंके समान हो जाओ ॥ 73 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! वेदका विक्रय करनेवाले, तीर्थ बेचनेवाले और धर्म बेचनेवाले व्यक्तियोंके समान | तुमलोग हो जाओ ॥ 74 ॥
हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग पांचरात्र, कामशास्त्र, कापालिक मत और बौद्ध मतके प्रति श्रद्धा रखनेवाले हो जाओ ॥ 75 ॥हे अधम ब्राह्मणो! तुमलोग माता, कन्या, भगिनी तथा परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार करनेवाले हो जाओ ।। 76 ।।
तुम्हारे वंशमें उत्पन्न स्त्रियाँ तथा पुरुष मेरे द्वारा दिये हुए इस शापसे दग्ध होकर तुमलोगोंके ही समान हो जायँगे ॥ 77 ॥ मेरे अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन! मूलप्रकृति परमेश्वरी भगवती गायत्रीका अवश्य ही तुमलोगों पर महान् कोप है। अतः तुमलोगोंका अन्धकूप आदि नरककुण्डोंमें सदा वास होगा ॥ 783 ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकारका वाग्दण्ड देकर गौतममुनिने आचमन किया और तत्पश्चात् भगवती गायत्रीके दर्शनार्थ अत्यन्त उत्सुक होकर वे देवी मन्दिर गये। वहाँ उन्होंने महादेवीको प्रणाम किया। वे परात्परा भगवती गायत्री भी ब्राह्मणोंकी कृतघ्नताको देखकर स्वयं अपने मनमें चकित हो रही थीं और आज भी उनका मुख है । 79-81 ॥ आश्चर्यसे युक्त दिखायी पड़ता आश्चर्ययुक्त मुखकमलवाली भगवती गायत्रीने उन मुनिवर गौतमसे कहा- 'हे महाभाग ! सर्पको दिया गया दुग्ध उसके विषको ही बढ़ानेवाला होता है। अब आप धैर्य धारण कीजिये; क्योंकि कर्मकी ऐसी ही गति होती है।' तत्पश्चात् भगवतीको प्रणामकर गौतमजी अपने आश्रमके लिये चल दिये ।। 82-83 ॥
तब शापदग्ध वे ब्राह्मण वेदोंको भूल गये। उन सभीको गायत्री मन्त्र भी विस्मृत हो गया। ऐसी आश्चर्यकारी घटना हुई ॥ 84 ॥ अब वे सभी ब्राह्मण एकत्र होकर पश्चात्ताप
करने लगे और दण्डकी भाँति पृथ्वीपर गिरकर उन्होंने
मुनिवर गौतमको प्रणाम किया ।। 85 ।।
लज्जासे अपने मुख नीचेकी ओर किये हुए वे कुछ भी वाक्य नहीं बोल सके। वे चारों ओरसे मुनीश्वरको घेरकर बार-बार यही प्रार्थना करने लगे-आप प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न | हो जाइये ॥ 86 ॥इसपर मुनिका हृदय करुणासे भर आया और वे उन ब्राह्मणोंसे बोले- 'कृष्णावतारपर्यन्त तुमलोगोंको कुम्भीपाक नरकमें वास करना पड़ेगा; क्योंकि मेरा वचन मिथ्या कदापि नहीं हो सकता—इसे तुमलोग भलीभाँति जान लो । तत्पश्चात् कलियुगमें भूमण्डलपर तुमलोगोंका जन्म होगा। मेरे द्वारा कही गयी ये सारी बातें अन्यथा नहीं हो सकतीं। यदि मेरे शापसे मुक्तिकी तुमलोगोंको इच्छा है, तो तुम सब भगवती गायत्रीके चरणकमलकी सदा उपासना करो' ॥ 87-90 ॥
व्यासजी बोले- ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ गौतमने सभी ब्राह्मणोंको विदा कर दिया। तत्पश्चात् 'यह सब प्रारब्धका प्रभाव है'- ऐसा मानकर उन्होंने अपना चित्त शान्त कर लिया। हे राजन् ! यही कारण है कि बुद्धिसम्पन्न भगवान् श्रीकृष्णके महाप्रयाण करनेके पश्चात् कलियुग आनेपर वे सभी ब्राह्मण कुम्भीपाक नरककुण्डसे निकल आये ॥ 91-92 ॥
इस प्रकार पूर्वकालमें शापसे दग्ध वे ब्राह्मण भूमण्डलपर उत्पन्न हुए; जो त्रिकाल सन्ध्यासे हीन, भगवती गायत्रीकी भक्तिसे विमुख, वेदोंके प्रति श्रद्धारहित, पाखण्डमतका अनुसरण करनेवाले, अग्निहोत्र आदि सत्कर्म न करनेवाले और स्वाहा स्वधासे रहित हैं। उनमें कुछ ऐसे हैं, जो मूलप्रकृति तथा अव्यक्तस्वरूपिणी गायत्रीके विषयमें कुछ भी नहीं जानते। कोई-कोई तप्तमुद्रा धारण करके स्वेच्छाचार-परायण हो गये हैं। उनमें से कुछ कापालिक, कौलिक, बौद्ध तथा जैनमतको माननेवाले हैं, वे सभी पण्डित होते हुए भी दुराचारके प्रवर्तक हैं। परायी स्त्रियोंके साथ दुराचार करनेवाले सभी लम्पट अपने कुत्सित कर्मोंके कारण पुनः उसी कुम्भीपाक नरककुण्डमें जायँगे ॥ 93-97 ॥
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