बुधवार, 16 अप्रैल 2025

यज्ञ का विधान केवल देवों के निमित्त-

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.11।।कैसे तुमलोग इस यज्ञद्वारा इन्द्रादि देवोंको बढ़ाओ अर्थात् उनकी उन्नति करो। वे देव वृष्टि आदिद्वारा तुमलोगोंको बढ़ावें अर्थात् उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरेको उन्नत करते हुए ( तुमलोग ) ज्ञानप्राप्तिद्वारा मोक्षरूप परमश्रेयको प्राप्त करोगे। अथवा स्वर्गरूप परमश्रेयको ही प्राप्त करोगे।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.11।। देवान् इन्द्रादीन् भावयत वर्धयत अनेन यज्ञेन। ते देवा भावयन्तु आप्याययन्तु वृष्ट्यादिना वः युष्मान्। एवं परस्परम् अन्योन्यं भावयन्तः श्रेयः परं मोक्षलक्षणं ज्ञानप्राप्तिक्रमेण अवाप्स्यथ। स्वर्गं वा परं श्रेयः अवाप्स्यथ।।किञ्च

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas



।।3.10 -- 3.11।। प्रजापति ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिकालमें कर्तव्य-कर्मोंके विधानसहित प्रजा-(मनुष्य आदि-) की रचना करके (उनसे, प्रधानतया मनुष्योंसे) कहा कि तुमलोग इस कर्तव्यके द्वारा सबकी वृद्धि करो और वह कर्तव्य-कर्म-रूप यज्ञ तुमलोगोंको कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री प्रदान करनेवाला हो। अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा तुमलोग देवताओंको उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्यके द्वारा तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।




इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।3.12।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.12।।दूसरी बात यह भी है कि यज्ञद्वारा बढ़ाये हुए संतुष्ट किये हुए देवता लोग तुमलोगोंको स्त्री पशु पुत्र आदि इच्छित भोग देंगे। उन देवोंद्वारा दिये हुए भोगोंको उन्हें न देकर अर्थात् उनका ऋण न चुकाकर जो खाता है केवल अपने शरीर और इन्द्रियोंको ही तृप्त करता है वह देवताओंके स्वत्वको हरण करनेवाला चोर ही है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.12।। इष्टान् अभिप्रेतान् भोगान् हि वः युष्मभ्यं देवाः दास्यन्ते वितरिष्यन्ति स्त्रीपशुपुत्रादीन् यज्ञभाविताः यज्ञैः वर्धिताः तोषिताः इत्यर्थः। तैः देवैः दत्तान् भोगान् अप्रदाय अदत्त्वा आनृण्यमकृत्वा इत्यर्थः एभ्यः देवेभ्यः यः भुङ्क्ते स्वदेहेन्द्रियाण्येव तर्पयति स्तेन एव तस्कर एव सः देवादिस्वापहारी।।ये पुनः

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.12।। यज्ञसे भावित (पुष्ट) हुए देवता भी तुमलोगोंको (बिना माँगे ही) कर्तव्य-पालनकी आवश्यक सामग्री देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंसे प्राप्त हुई सामग्रीको दूसरोंकी सेवामें लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.12।। यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है।।


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