बुधवार, 4 नवंबर 2020

असुर के रूप में वरुण और इन्द्र तथा कृष्ण का भी वर्णन ऋग्वेद में ...


ऋग्वेद में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान भी है
वरुण को महद् असुर कहा इन्द्र को भी असुर कहा है
सूर्य को उसके प्रकाश और ऊर्जा के लिए असुर कहा गया
कृष्ण भी प्रज्ञावान थे और बलवानभी इन्द्र और कृष्ण का पौराणिक सन्दर्भ भी है तो वैदिक सन्दर्भ भी है
वेदों की रचना ईसा पूर्व बारहवीं सदी से लेकर ईसा पूर्व सप्तम सदी तक है
कृष्ण का समय पुरात्व वेता और संस्कृतियों के विशेषज्ञ "अरनेस्त मैके" ने ईसा पूर्व नवम सदी निश्चित की महाभारत भी तभी हुआ महाभारत में शक हूण यवन आदि ईरानी यूनानी जातियों का वर्णन हुआ है |


वेदों के पूर्ववर्ती सन्दर्भों में असुर और देव गुण वाची शब्द थे जाति वाची नहीं इसी लिए वृत्र रको ऋग्वेद में एक स्थान पर देव कहा गया है ..

परन्तु असुर संज्ञा के धारक असुर फरात तनदी के दुआब में भी रहते थे
भारतय पुराणों में इन्हें असुर कहा गया
देव उत्तरी ध्रुव के समीपवर्ती स्वीडन हेमरपास्त में रहते थे

अब ...
ऋग्वेद में के चतुर्थ मण्डल में  वरुण को महद् असुर कहा है जो ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ में अहुर मज्दा हो गया है ..

असुर का प्रारम्भिक वैदिक अर्थ प्रज्ञावान् और बलवान ही है परन्तु कालान्तरण में सुर के विपरीत व्यक्तियों के लिए असुर का प्रचलन हुआ अत: असुर नाम से दो शब्द थे ...

निम्न ऋचा में प्राचेतस् वरुण के अर्थ में है

तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस: ।
ऋग्वेद - ४/५३/१

हम उस प्रचेतस् असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है ; उसका ही वरण करते हैं ।

निम्न ऋचा में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान् है

अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने !
तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञान वान -बल वान तथा ऐश्वर्य वान हो ।

अब देखें हाभारत में असुरों का गुण ..👇

तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।

महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय
इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले  महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे ।

उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर  देवों को पीड़ित करने लगे ।
असुर शब्द बलशाली के अर्थ में  महाभारत में भी है

ऋग्वेद में असुर के अर्थ ..
देवता: सविता ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
तद्दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्वार्यं॑ म॒हद्वृ॑णी॒महे॒ असु॑रस्य॒ प्रचे॑तसः। छ॒र्दिर्येन॑ दा॒शुषे॒ यच्छ॑ति॒ त्मना॒ तन्नो॑ म॒हाँ उद॑यान्दे॒वो अ॒क्तुभिः॑ ॥१॥

पद पाठ
तत्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। वार्य॑म्। म॒हत्। वृ॒णी॒महे॑।
असु॑रस्य। प्रऽचे॑तसः। छ॒र्दिः। येन॑। दा॒शुषे॑। यच्छ॑ति। त्मना॑। तत्। नः॒। म॒हान्। उत्। अ॒या॒न्। दे॒वः।
अ॒क्तुऽभिः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:53» ऋचा :1 |

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पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (सवितुः) वृष्टि आदि की उत्पत्ति करनेवाले सूर्य (देवस्य) निरन्तर प्रकाशमान देव की (प्रचेतसः) जनानेवाले (असुरस्य) बलवान के (महत्) बड़े (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों वा जलों में उत्पन्न (छर्दिः) गृह का (वृणीमहे) वरण करते हैं

(तत्) उसका (येन) जिस कारण से विद्वान् जन (त्मना) आत्मा से (दाशुषे) दाता जन के लिये स्वीकार करने योग्यों वा जलों में उत्पन्न हुए बड़े गृह को (यच्छति) देता है (तत्) उसको (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (अक्तुभिः) रात्रियों से (नः) हम लोगों के लिये (उत्, अयान्) उत्कृष्टता प्रदान करे ॥१॥

असुर महद् यहाँ वरुण का विशेषण है
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देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
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अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥
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1-अर्च॑। दि॒वे। बृ॒ह॒ते- बड़े देव लोक में प्रतिष्ठित स्तुति करने वालों को

2- शू॒ष्य॑म्। वचः॑।  वाणी उत्पन्न करता है |

3- स्वऽक्ष॑त्रम्। यस्य॑। धृ॒ष॒तः। जो क्षत्र रूप मे स्वयं ही  सबको आच्छादन अथवा वरण किये हुए है 

4-धृ॒षत्। मनः॑।  जिसका मन सहन करने वाला है सबकुछ

5- बृ॒हत्ऽश्र॑वाः। वह वरुण बहुत सुनने वाला है

6-असु॑रः। ब॒र्हणा॑। कृ॒तः।  उस प्रज्ञा और बल प्रदान करने वाले वरुण की इसी कारण असुर संज्ञा भी है  उसी ने विशालता को उत्पन्न किया है

7-पु॒रः। हरि॑ऽभ्याम्। वृ॒ष॒भः। रथः॑। हि। सः -
पहले समय में घोडे़ और बैलों ने वरुण के रथ को खींचा था ॥
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ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» ऋचा :3 |

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इन्द्र के लिए असुर शब्द का प्रयोग ..👇
देवता: इन्द्र: ऋषि: अगस्त्यो मैत्रावरुणिः छन्द: निचृत्पङ्क्ति स्वर: पञ्चमः
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त्वं राजे॑न्द्र॒ ये च॑ दे॒वा रक्षा॒ नॄन्पा॒ह्य॑सुर॒ त्वम॒स्मान्।
त्वं सत्प॑तिर्म॒घवा॑ न॒स्तरु॑त्र॒स्त्वं स॒त्यो वस॑वानः सहो॒दाः ॥

पद पाठ
त्वम्। राजा॑। इ॒न्द्र॒। ये। च॒। दे॒वाः। रक्ष॑। नॄन्। पा॒हि। अ॒सु॒र॒। त्वम्। अ॒स्मान्। त्वम्। सत्ऽप॑तिः। म॒घऽवा॑। नः॒। तरु॑त्रः। त्वम्। स॒त्यः। वस॑वानः। स॒हः॒ऽदाः ॥ १.१७४.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:174» ऋचा :1 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त !
(त्वम्) आप (सत्पतिः) वेद वा सज्जनों को पालनेवाले (मघवा) परमप्रशंसित धनवान् (नः) हम लोगों को (तरुत्रः) दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले हैं (त्वम्) आप (सत्यः) सज्जनों में उत्तम (वसवानः)
धन प्राप्ति कराने और (सहोदाः) बल के देनेवाले हैं तथा (त्वम्) आप (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा हैं इससे हे (असुर) मेघ के समान (त्वम्) आप (अस्मान्) हम (नॄन्) मनुष्यों को (पाहि) पालो
(ये, च) और जो (देवाः) श्रेष्ठा गुणोंवाले धर्मात्मा विद्वान् हैं उनकी (रक्ष) रक्षा करो ॥ १ ॥

इस उपर्युक्त ऋचा में इन्द्र को असुर कहा गया है ...

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देवता: इन्द्र: ऋषि: प्रजापतिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ अभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः। म॒हत्तद्वृष्णो॒ असु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पो अ॒मृता॑नि तस्थौ॥

पद पाठ
आ॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वऽरो॑चिः। म॒हत्। तत्। वृष्णः॑ (कृष्ण:)।
असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:38» मन्त्र:4 |

पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः)
ग्रहण करता हुआ  या वसता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह (कृष्णः)
(असुरस्य) असुर का
(अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा)  नाम वाला  (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण  (परि) सब प्रकार (अभूषन्) शोभित करैं ॥४॥

ऋग्वेद की प्रचीन पाण्डु लिपियों में कृष्ण पद ही है परन्तु वर्तमान में वृष्ण पद कर दिया है
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण या वृष्ण को असुर कहा गया है
क्यों कि वे सुरा पान भी नहीं करते और प्रज्ञा वान भी हैं
अत: कृष्ण के असुरत्व वको समझो
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देवता: इन्द्र: ऋषि: गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

इ॒मे भो॒जा अङ्गि॑रसो॒ विरू॑पा दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय॒ दद॑तो म॒घानि॑ सहस्रसा॒वे प्र ति॑रन्त॒ आयुः॑॥

पद पाठ
इ॒मे। भो॒जाः। अङ्गि॑रसः। विऽरू॑पाः। दि॒वः। पु॒त्रासः॑। असु॑रस्य। वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय। दद॑तः। म॒घानि॑। स॒ह॒स्र॒ऽसा॒वे। प्र। ति॒र॒न्ते॒। आयुः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» ऋचा :7 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो (इमे) ये (अङ्गिरसः) अंगिरा  (भोजाः) भोग करने तथा प्रजा के पालन करनेवाले (विरूपाः) अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त रूपवाले और (दिवः) प्रकाशस्वरूप (असुरस्य) वरुण के  (पुत्रासः) पुत्र के समान बलिष्ठ (वीराः) युद्धविद्या में परिपूर्ण (सहस्रसावे) संख्यारहित धन की उत्पत्ति जिसमें उस संग्राम में (विश्वामित्राय) संपूर्ण संसार मित्र है जिसका उन विश्वामित्र के लिये (मघानि) अतिश्रेष्ठ धनों को (ददतः) देते हुए जन (आयुः) जीवन का (प्र, तिरन्ते) उल्लङ्घन करते हैं वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं ॥७|
अर्थात्
हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।

देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।

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देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

पद पाठ
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१

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ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा :1 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

अ॒यं वां॒ कृष्णो॑ अश्विना॒ हव॑ते वाजिनीवसू । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
अ॒यम् । वा॒म् । कृष्णः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हव॑ते । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :3 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा:4 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :4 |

देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» मन्त्र:4 |


सायण भाष्य- हे "नरा -(नरौ सर्वस्य नेतारावश्विनौ) २-“जरितुः । तच्छीलार्थे तृन् । व्यत्ययेनान्तोदात्तत्वम् । जरितुः स्तवनशीलस्य संप्रति “स्तुवतः स्तोत्रं कुर्वतः “कृष्णस्य एतन्नामकस्यर्षेः संबन्धि “हवं युष्मद्विषयमाह्वानं “शृणुतम् । यद्वा । जरितुरन्यदेवानां स्तोतुः स्तुवत इदानीं युवयोः स्तोत्रकारिणस्तस्य हवं शृणुतम् । शिष्टं गतम् ॥

यहाँ कृष्ण नामक एक ऋषि का वर्णन है -

यहाँ अदेव कृष्ण से भिन्न ये कृष्ण हैं ।

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देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

पद पाठ
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा:1 |
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देवता: विश्वेदेवा, उषा ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
उ॒षसः॒ पूर्वा॒ अध॒ यद्व्यू॒षुर्म॒हद्वि ज॑ज्ञे अ॒क्षरं॑ प॒दे गोः। व्र॒ता दे॒वाना॒मुप॒ नु प्र॒भूष॑न्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

पद पाठ
उ॒षसः॑। पूर्वाः॑। अध॑। यत्। वि॒ऽऊ॒षुः। म॒हत्। वि। ज॒ज्ञे॒। अ॒क्षर॑म्। प॒दे। गोः। व्र॒ता। दे॒वाना॑म्। उप॑। नु। प्र॒ऽभूष॑न्। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55»   ऋचा:1 |

पदार्थान्वयभाषाः -(यत्) जो (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वाः) प्रथम हुए (व्यूषुः) विशेष करके वसते हैं वह (महत्) बड़ा (अक्षरम्) नहीं नाश होनेवाला (महत्) बड़ा तत्त्वनामक (गोः) पृथिवी के (पदे) स्थान में (वि, जज्ञे) उत्पन्न हुआ जो (एकम्) अद्वितीय और सहायरहित (देवानाम्) पृथिवी आदिकों में बड़े (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाले को (प्र, भूषन्) शोभित करता हुआ (अध) उसके अनन्तर (देवानाम्) देवों को (व्रता) नियम में (उप) समीप में (नु) शीघ्र उत्पन्न हुए, उसको आप लोग जानिये ॥१॥

देवता: विश्वेदेवा, दिशः ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
आ धे॒नवो॑ धुनयन्ता॒मशि॑श्वीः सब॒र्दुघाः॑ शश॒या अप्र॑दुग्धाः। नव्या॑नव्या युव॒तयो॒ भव॑न्तीर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥

पद पाठ
आ। धे॒नवः॑। धु॒न॒य॒न्ता॒म्। अशि॑श्वीः। स॒बः॒ऽदुघाः॑। श॒श॒याः। अप्र॑ऽदुग्धाः। नव्याः॑ऽनव्याः। यु॒व॒तयः॑। भव॑न्तीः। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:16 |

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! आप लोगों के (सबदुर्घाः) सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली (शशयाः) शयन करती सी हुई (अप्रदुग्धाः) नहीं किसी करके भी बहुत दुही गई (धेनवः) गायें (अशिश्वीः) बालाओं से भिन्न (नव्यानव्याः) नवीननवीन (भवन्तीः) होती हुईं (युवतयः) यौवनावस्था को प्राप्त  (देवानाम्)  में महद्  बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) असुरता को  (आ, धुनयन्ताम्) अच्छे प्रकार अनुभव किया रोमांचित किया ॥१६॥

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उपर्युक्त ऋचा  में  असुरत्व भाव वाचक शब्द है
जो प्रतिभा प्रज्ञा और बल को सूचित करता है
श्रृद्धेय गुरू जी सुमन्त कुमार यादव के ज्ञान प्रसाद से समन्वित ये तथ्य हैं!

 शोषण और पाखण्ड के विरुद्ध जो संघर्ष श्रीकृष्ण ने शुरू किया था, वो आज भी समाज में कुछ बुद्धि जीवियों के द्वारा  जारी है।   

        कृष्णकाल में भी समाज आज की तरह ही विभिन्न संस्कृतियों में विभाजित था। 

यथा- देव, यक्ष, रक्ष, नाग, किन्नर  सुर और असुर  आदि। सुरा-सुन्दरी में डूबी देव संस्कृति अपनी विलासिता के लिए विख्यात थी।

 सुराप्रेम के कारण ही देवताओं का उपनाम 'सुर' पड़ चुका था, और जो सुरा पसन्द नहीं करते थे उन्हें 'असुर' कहा जाने लगा था।

वाल्मीकि-रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख है  :-

वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥
उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. चूंकि देव संस्कृति के अनुयायी मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे
. इस कारण इनके कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें  अदेव भी कहा गया)

 सुरा और सुन्दरी के प्रति आकर्षण, देव सँस्कृति में कोई दोष नहीं बल्कि गुण का ही पर्याय था। 

कदाचित इसीलिए इन देवगुणों से सम्पन्न देवता को ही 'इन्द्र' जैसे सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किया जाता था

और शायद इसी वैचारिक विरोधाभास के चलते कृष्ण का समकालीन इन्द्र से जीवनपर्यंत विरोध चला 


     'सुर' प्रिय होने के कारण एक नाम 'सुरा' भी पड़ा। वरुण से उत्पत्ति के कारण 'वारुणी' भी कहा गया। महुआ के पुष्पों व फलों से निर्मित 'माध्वी' और ताड़ वृक्ष से निकलने से 'ताड़ी' भी चर्चित नाम हैं। 

 वर्तमान में तो 'शराब' नाम ही ज्यादा कुख्यात है।यह अरबी भाषा का शब्द है ।

 नशीले पदार्थों का सेवन, व्यक्ति के विवेक और नैतिकता को प्रभावित करता है। इतिहास साक्षी है कि, कदाचित इसीलिए लड़ाइयों और अपराधों से पहले लड़ाकों और अपराधियों द्वारा इनका सेवन किया जाता रहा है।

एक और चर्चित नाम है "सोमरस", जो वैदिक कालीन है। जो निर्विवाद रूप से देवताओं का प्रिय पेय पदार्थ था, जिसे नशीला मानने और न मानने के अपने-अपने मत हैं। 

उल्लेखनीय है कि, देवता कोई अलौकिक अथवा बाह्य जगत से सम्बंधित न थे बल्कि इसी दुनिया के व्यक्ति थे। तत्कालीन समाज देव, दैत्य, यक्ष, रक्ष, नाग, किन्नर आदि संस्कृतियों में विभाजित था।

देव स्वीडन से आये हुए लोग थे !

सोमरस क्या है? इस पर विचार करने से पहले यह बताना जरूरी है कि, देवताओं द्वारा सुरा को स्वीकार करने और दैत्यों द्वारा सुरा को अस्वीकार करने पर ही सुर-असुर शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। देखिए-

असुरास्तेन दैतेयाः

 सुरास्तेनादितेः सुताः।

  हृर्ष्टाः प्रमुदिताश्चासन् 

   वारुणीग्रहणात् सुराः।।

वाल्मीकीय रामायण बालकाण्ड 45/38

अर्थात- सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर' कहलाये और सुरा सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई। वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनन्दमग्न हो गये।

     आइए! अब ऋग्वेद में उल्लिखित सोमरस पर बिना किसी राग-द्वेष के विचार करते हैं।

★10 मण्डलों, 1028 सूक्तों और 10580 मन्त्रों वाला ऋग्वेद स्वयं साक्षी है कि, आर्यो का अनार्य कृषकों व पशुपालकों के साथ उनकी 'रयि'(अन्न व पशु सम्पदा) के लिए झगड़ा रहा करता था। इसीलिए सोम पीते हुए, उनकी सम्पत्ति की इच्छा व्यक्त की जाती थी और उसे हस्तगत करने की योजना भी बनाई जाती थी।

आ न इन्दो शतग्विनं

रयिं गोमन्तमश्र्विनम्।

        ऋग्वेद 9/67/6

हे सोमदेव! आप हमें गाय, घोड़े सम्पत्ति प्रदान करें।

हमला करके सम्पत्ति के साथ बहू-बेटियों का अपहरण भी किया जाता था, इसीलिए सोम से, पशुओं और अन्न के साथ कन्याएँ भी देने की बार-2 प्रार्थना की गई है। देखें...

आ भक्षत्कन्यासु नः।।

ऋग्वेद 9/67/10,11,12

आप हमें इच्छित कन्याएँ प्रदान करते हो।

सम्पत्ति की लूट-पाट के लिए, हमले उन्हीं अनार्यों पर किए जाते थे, जो दास होना स्वीकार नहीं करते थे। सोम पीकर उन्हीं की सम्पत्ति पाने की कामना की जाती थी। देखें-

आ पवमान नो भरार्यो

अदाशुषो गयम्। कृधि प्रजावतीरिष:।।9/23/3

हे सोमदेव! जो अनार्य हमारे दास नहीं बनते, उनको हमारी प्रजा बनाकर, उनका अन्न-धन हमें प्रदान करें।

जैसे शराब के अधिक सेवन से शराबी बहक जाता है, वैसे ही सोमरस के अधिक सेवन से कथित देवता भी बहक जाते थे। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 119वें सूक्त के सभी 13 मन्त्रों में इन्द्र स्वयं अनेक बार सोमपान करने की बात कहता है- "कुवित्सोमस्यापामिति" मैने अनेक बार सोमपान किया है। प्रस्तुत है, इसी सूक्त से, इन्द्र के प्रलाप की एक/दो बानगी-

नहि मे रोदसी उभे

अन्य पक्षं चन प्रति। (7)

पृथ्वी और आकाश मेरे एक पार्श्व की बराबरी करने में भी सक्षम नहीं हैं।

हन्ताहं पृथिवीमिमां नि

दधानीह वेह वा। (9)

मैं इस पृथ्वी को उठाकर कहीं भी ले जा सकता हूँ।

ओषमित्पृथ्वीमहं 

जङ्घनानीह वेह वा।(10)

मैं इस पृथ्वी अथवा सूर्य को, जहाँ चाहूँ वहाँ ले जाकर नष्ट कर सकता हूँ।

  हद स्तर तक ऊँचे दर्जे का व्यक्ति, इस तरह का अति रंजित प्रलाप, नशे में धुत्त होकर ही कर सकता है। कदाचित इसीलिए वेदों में इन्द्र को 'सोमपा' कहा गया है। "यः सोमपा स जनास इन्द्र:।। ऋग्वेद 2/12/13, इति इन्द्रस्य विशेषणं"। इसी की तर्ज पर कदाचित आज के शराबी को 'शरप्पा' कहा जा रहा है।

यज्ञ का आयोजन करके, मदद हेतु, उपरिक्षेत्र निवसित, इन्द्रादि देवताओं का आह्वान किया जाता था और उनका सत्कार करते हुए, उनके साथ आक्रमण से पहले युद्धोन्माद भड़काने के उद्देश्य से सोमरस पिया जाता था। ऋग्वेद के अधिकांश सूक्तों में, ऋषि विशेष द्वारा, देवता विशेष का आह्वान करते हुए सोम पीकर, विरोधियों की सम्पत्ति लाकर देने की प्रार्थना है। जिसका बंटवारा होता था-

देवाभागं यथापूर्वे संजानना उपासते...

ऋग्वेद में गव्य, गविष्टि, गवेषण, गोषु, गभ्यादि शब्द युद्ध के ही पर्याय हैं।

★नशीले पदार्थों के सेवन से मद (उन्माद) व मत्सर (बैर-क्रोध) की वृद्धि होती है और विवेक नष्ट हो जाता है। ऋग्वेद में भी, सोमरस पीने से, मद-मत्सर में वृद्धि और विवेक क्षीणता होने सम्बन्धी श्लोकों की भरमार है। 8वें मण्डल के 36वें सूक्त के 7 श्लोकों में से 6 श्लोकों में सोम के साथ मदाय शब्द जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद का 9वाँ मण्डल तो, जिसमें 114 सूक्त और 1107 मन्त्र हैं, सोम को देवता मानते हुए, उसी की स्तुति में रचा गया है। यही नहीं सोमलता को कूटनेवाले पत्थरों (ग्रावा) तक को देवता माना गया है, और उन पत्थरों की स्तुति में भी 10वें मण्डल में दो सूक्त (94वाँ व 175वाँ) रचे गये। प्रस्तुत हैं, सोम मण्डल के कुछ मन्त्रांश, जो सोमपान से मद-मत्सर में वृद्धि होने की पुष्टि करते हैं।

यथा-

इन्द्राय सोम पातवे मदाय परि षिच्यसे। 9/11/8

यह सोम इन्द्र के मद के लिए पात्र में एकत्रित होता है।

जुष्ट इन्द्राय मत्सर: पवमान कनिक्रदत। विश्वा अप द्विषो जहि।। 9/13/8

हे सोमदेव! सभी शत्रुओं के विनाश हेतु इन्द्रदेव को मत्सर प्रदान करें।

अभि सोमास आयवः

पवन्ते मद्यं मदम्।9/23/4

अस्य पीत्वा मदानामिन्द्रो

वृत्राण्यप्रति। 9/23/7

शोधित सोमरस मद वर्धक है।   मददायी इस सोम को पीकर, इंद्र ने वृत को मारा। 

★इन्दविन्द्राय मत्सरम्।

            ऋग्वेद 9/26/6

इन्द्र के मत्सर के लिए...

★त्वं हि सोम वर्धयन्त्सुतो

मदाय भूर्णये।ऋग्वेद 9/51/4

हे सोम! तुम देवताओं में मद बढ़ाने वाले हो।

★परि प्रियः कलशे देववात

इन्द्राय सोमो रण्यो मदाय।

               ऋग्वेद 9/96/9

देवों का प्रिय सोम, युद्ध में इन्द्र का मद बढ़ाने के लिए कलश में एकत्रित होता है।

★इन्द्रं ते रसो मदिरो ममत्तु।

              ऋग्वेद 9/96/21

हे सोम! मदिरा के रूप में आपका रस इन्द्र को आनन्दित करे।

★जुष्टो मदाय देवतात इन्दो

परिष्णुना धन्व सानो अव्ये।

            ऋग्वेद 9/97/19

हे सोम! संग्राम में जाने वाले वीरों के लिए आप अन्न प्रदान करने वाला रस प्रदान करें।

★परि त्यं हर्यतं हरि

बभ्रुं पुनन्ति वारेण।

यो देवान्विश्र्वाँ इत्परि

मदेन सह गच्छति।।

     ऋग्वेद 9/98/7

हरे और भूरे रँग के सोम को जल से पवित्र बनाते हैं। यह, इन्द्र आदि देवताओं के निकट अपने मद उतपन्न करने वाले गुण के साथ जाता है।

   ऐसे ही साक्ष्यों से ऋग्वेद भरा पड़ा है। यह तो चन्द श्लोकांश हैं, जिन्हें, अधिकांशतः ऋग्वेद के केवल एक ही मण्डल से लिया गया है। ये साबित करते हैं कि, सोमरस, मदिरा ही था, नशीला पदार्थ था, जो मद और मत्सर में वृद्धि करता था।

★कृपया इस लेख को अन्यथा न लें, क्योंकि इसे लिखने का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ सत्य का अन्वेषण करना है। किसी की आस्था को ठेस पहुँचाना कदापि नहीं।

  सजग समाज के संस्थापक- भीष्मपाल यादव के द्वारा उद्धृत तथ्य

प्रस्तुति करण:-  यादव योगेश कुमार रोहि

सम्पर्क सूत्र 8077160219

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